इमाम हुसैन का वो पहला सफर जो कर्बला पे जा के ख़त्म हुआ | मदीने से मक्का 28 रजब
ये बात २० रजब सन ६० हिजरी की है जब मुआव्विया की मृत्यु हो गयी और यज़ीद ने खुद को मुसलमानो का खलीफा घोषित कर दिया । इमाम हुसैन (...
https://www.qummi.com/2019/04/blog-post_5.html
ये बात २० रजब सन ६० हिजरी की है जब मुआव्विया की मृत्यु हो गयी और यज़ीद ने खुद को मुसलमानो का खलीफा घोषित कर दिया ।
इमाम हुसैन (अ.स ) हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) के नवासे थे और यह कैसे संभव था कि वो यज़ीद जैसे ज़ालिम और बदकार को खलीफा मान लेते ? इमाम हुसैन ने नेकी की दावत देने और लोगों को बुराई से रोकने के लिए अपना पहला सफर मदीने से मक्का का शुरू करने का फैसला कर लिया ।
अबू मख़नफ़ के लिखने के अनुसार इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम ने 27 रजब की रात या 28 रजब को अपने अहलेबैत के साथ इस आयत की तिलावत फ़रमाई (वक़अतुत तफ़, पे 85, 186)
जो मिस्र से निकलते समय असुरक्षा के एहसास के कारण क़ुर्आन हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की ज़बानी बयान कर रहा हैः
मूसा शहर से भयभीत निकले और उन्हें हर क्षण किसी घटना की आशंका थी, उन्होंने कहा कि ऐ परवरदिगार मुझे ज़ालिम व अत्याचारी क़ौम से नेजात दे। (सूरए क़ेसस, 21)
इमाम हुसैन (अ.स ) मस्जिद ए नबवी में गयी चिराग़ को रौशन किया और हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) की क़ब्र के किनारे बैठ गए और अपने गाल क़ब्र पे रख दिया यह सोंच के की क्या जाने फिर कभी मदीने वापस आना भी हो या नहीं और कहाँ नाना आपने जिस दीन को फैलाया था उसे उसकी सही हालत में बचाने के लिए मुझे सफर करना होगा । अल्लाह से दुआ कीजेगा की मेरा यह सफर कामयाब हो ।
उसके बाद इमाम हुसैन अपनी माँ जनाब ऐ फातिमा स अ की क़ब्र पे आये और ऐसे आये जैसे कोई बच्चा अपनी माँ के पास भागते हुए आता है और बस चुप चाप बैठ गए और थोड़ी देर के बाद जब वहाँ से जाने लगे तो क़ब्र से आवाज़ आई जाओ बेटा कामयाब रहो और घबराओ मत मैं भी तुम्हारे साथ साथ रहूंगी ।
अपने नाना हज़रत मुहम्मद (स.अ व ) और माँ जनाब ऐ फातिमा से विदा लेने के बाद इमाम अपनी बहन जनाब ऐ ज़ैनब के पास पहुंचे और अपने बहनोई अब्दुल्लाह इब्ने जाफर ऐ तैयार इब्ने अबु तालिब से इजाज़त मांगी की ज़ैनब और दोनों बच्चों ऑन मुहम्मद को सफर में साथ जाने की इजाज़त दे दें । जनाब अब्दुल्लाह ने इजाज़त दे दी ।
इधर मर्दो में हज़रत अब्बास ,जनाब ऐ क़ासिम , सब सफर पे जाने की तैयारी करने लगे यहां तक की ६ महीने के जनाब ऐ अली असग़र का झूला भी तैयार होने लगा । यह सब बिस्तर पे लेटी इमाम हुसैन की ८ वर्षीय बेटी सुग़रा देख रही थी और इंतज़ार कर रही थी की बाबा हुसैन आएंगे और उसे भी चलने को कहेंगे ।
इमाम हुसैन बेटी सुग़रा के पास आये और कहा बेटी जब तुम पैदा हुयी थी तो तुम्हारा नाम मैंने अम्मा के नाम पे फातिमा रखा था और मेरी माँ साबिर थी तुम भी सब्र करना और यहीं मदीने में उम्मुल बनीन और उम्मे सलमा के साथ रहना । बीमारी में सफर तुम्हारे लिए मुश्किल होगा और हम सब जैसे ही किसी मक़ाम पे अपना ठिकाना बना पाएंगे वैसे ही तुमको भी बुला लेंगे । बाबा का कहा बेटी कैसे टाल सकती थी बस आँख में आंसू आये और उन्हें पी गयी और चुप रही लेकिन एक आस थी की चाचा अब्बास है शायद उनके कहने से उसे बाबा साथ ले जाएँ ।
हज़रत अब्बास अलमदार और जनाब ऐ अली अकबर सुग़रा से मिलने आये लेकिन सुग़रा को वही जवाब दिया जो इमाम हुसैन ने दिया था और जब हर उम्मीद टूट गयी सुग़रा की तो बोली भैया अली अकबर जब तुम्हारी शादी हो जाय और मैं तुम्हारे मदीने वापस आने पे दुनया से चली जाऊं तो अपनी बीवी के साथ मेरी क़ब्र पे ज़रूर आना ।
हज़रत अब्बास और जनाब ऐ अली अकबर ने आंसुओं से भरी आँखों से सुग़रा को रुखसत किया ।
काफिला सुबह का सूरज निकलते ही चलने के लिए तैयार हो गया । एक तरफ उम्मे सलमा थी तो दूसरी तरफ उम्मुल बनीन और सुग़रा ने सभी को अलविदा कहा और सुग़रा ने अपने भाई जिसके साथ खेल करती थी उसे भी प्यार किया और अली असग़र माँ लैला के हवाले कर दिया ।
काफिला चल पड़ा सुग़रा सबको मुस्करा के अलविदा कह रही थी और बाबा हुसैन मुड मुड़ के बेटी को देखते जाते थे और अली अकबर तो आंसुओं को कहीं सुग़रा देख ना ले इसलिए मुड़ भी नहीं रहे थे । जब काफिला नज़रों से दूर हो गया और इमाम को सुग़रा के लिए देख सकता मुमकिन ना था बस हुसैन आंसुओं से रो पड़े उधर अली अकबर के आंसू बने लगे और बेटी को अलविदा कहा । िस्ञ्ा आसान नहीं होता बाप के लिए बेटी को छोड़ के जाना ।
इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम जुमे की रात 2 शाबान स0 60 हीजरी को वारिदे मक्का हुए और उसी साल की 8 ज़िलहिज्जा तक उस शहर में अपनी सरगर्मियों में मसरूफ़ रहे।
Very good info. Lucky me I found your blog by chance (stumbleupon).
ReplyDeleteI have saved it for later!