तौज़ीहुल मसाइल

तक़लीद के अहकाम * ( म.न. 1- ) हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह ऊसूले दीन को अक़्ल के ज़रिये समझे क्योंकि ऊसूले दीन में किसी भी हालत म...

तक़लीद के अहकाम

* ( म.न. 1- ) हर मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह ऊसूले दीन को अक़्ल के ज़रिये समझे क्योंकि ऊसूले दीन में किसी भी हालत में तक़लीद नही की जासकती यानी यह नही हो सकता कि कोई इंसान ऊसूले दीन में किसी की बात सिर्फ़ इस लिए माने कि वह ऊसूले दीन को जानता है। लेकिन अगर कोई इंसान इस्लाम के बुनियादी अक़ीदों पर यक़ीन रख़ता हो और उनको ज़ाहिर भी करता हो तो चाहे उसका यह इज़हार उसकी बसीरत की वजह से न हो तब भी वह मुसलमान और मोमिन है। लिहाज़ा इस मुसलमान पर इस्लाम और ईमान के तमाम अहकाम जारी होंगे। लेकिन “मुसल्लमाते दीन”[2] को छोड़ कर दीन के बाक़ी अहकाम में ज़रूरी है कि या तो इंसान ख़ुद मुजतहिद हो, (यानी अहकाम को दलील के ज़रिये ख़ुद हासिल करे) या किसी मुजतहिद की तक़लीद करे या फ़िर एहतियात के ज़रिये इस तरह अमल करे कि उसे यह यक़ीन हासिल हो जाये कि उसने अपनी शरई ज़िम्मेदारी को पूरा कर दिया है। मसलन अगर चन्द मुजतहिद किसी काम को हराम क़रार दें और चन्द दूसरे मुजतहिद कहें कि हराम नही है तो उस काम को अंजाम न दे, और अगर कुछ मुजतहिद किसी काम को वाजिब और कुछ मुसतहब माने तो उस काम को अंजाम दे। लिहाज़ा जो शख़्स न तो ख़ुद मुजतहिद हो और न ही एहतियात पर अमल कर सकता हो उस पर वाजिब है कि किसी मुजतहिद की तक़लीद करे।
(म.न. 2) दीनी अहकाम में तक़लीद का मतलब यह है कि किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल किया जाये। और यह भी ज़रूरी है कि जिस मुजतहिद की तक़लीद की जाये वह मर्द, आक़िल, बालिग़, शिया इस्ना अशरी, हलाल ज़ादा, ज़िन्दा और आदिल हो। आदिल उस शख़्स को कहा जाता है जो तमाम वाजिब कामों अंजाम देता हो और तमाम हराम कामों को तर्क करता हो और आदिल होने की निशानी यह है कि वह ज़ाहेरन एक अच्छा शख़्स हो और अगर उसके महल्ले वालों या पड़ौसीयो या उसके साथ उठने बैठने वालों से उसके बारे में पूछा जाये तो वह उसकी अचछाई की तसदीक़ करें।
अगर इस बात का थोड़ा सा भी इल्म हो कि दर पेश मसाइल में मुजतहिदों के फ़तवे एक दूसरे से मुख़्तलिफ़ हैं तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद की तक़लीद की जाये जो “आलम” हो यानी अपने ज़माने के दूसरे मुजतहिदों के मुक़ाबले में अहकामें इलाही को समझने की ज़्यादा सलाहियत रख़ता हो। से
(म.न. 3)मुजतहिद और आलम की पहचान के तीन तरीक़े हैं।
क- इंसान ख़ुद साहिबे इल्म हो और मुजतहिद व आलम को पहचान ने की सलाहियत रखता हो।
ख- दो ऐसे शख़्स जो आलिम व आदिल हों और मुजतहिद व आलम के पहचान ने का मलका भी रख़ते हों अगर किसी के आलम व मुजतहिद होने की तस्दीक़ करें इस शर्त के साथ कि दूसरे दो आलिम व आदिल शख़्स उनकी बात की काट न करे। और किसी का आलम व मुजतहिद होना एक क़ाबिले एतेमाद शख़्स की गवाही से भी साबित हो जाता है।
ग- कुछ आलिम अफ़राद (अहले ख़ुबरा) जो मुजतहिद और आलम को पहचान ने की सलाहियत रखते हों, किसी के आलम व मुजतहिद होने की तसदीक़ करें और उनकी तसदीक़ से इंसान मुतमइन हो जाये।
* (म.न. 4) अगर दर पेश मसाइल में दो या दो से ज़्यादा मुजतहिदों के इख़्तलाफ़ी फ़तवे मुख़तसर तौर पर मालूम हों और बाज़ के मुक़ाबिल बाज़ का आलम होना भी इल्म में हो लेकिन अगर आलम की पहचान आसान न हो तो अहवत[3] यह है कि इंसान तमाम मसाइल में उनके फ़तवों जितना हो सके एहतियात करे। (यह मसला बहुत तफ़सीली है और यह इसके बयान का मक़ाम नही है।) और इस ऐसी सूरत में जबकि एहतियात मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि उस मुजतहिद के फ़तवे के मुताबिक़ अमल करे जिसके आलम होने का एहतेमाल दूसरे के मुक़ाबले में ज़्यादा हो। और अगर दोनों के आलम होने का एहतेमाल बराबर है तो फ़िर इख़्तियार है। (जिसके फ़तवे पर चाहे अमल करे।)
(म.न. 5) किसी मुजतहिद के फ़तवे को जान ने के चार तरीक़े हैं।
क- ख़ुद मुजतहिद से उनका फ़तवा सुने।
ख- दो ऐसे आदिल अशख़ास से सुनना जो मुजतहिद का फ़तवा बयान करें।
ग- मुजतहिद के फ़तवे को किसी ऐसे शख़्स से सुनना जिस की बात पर इतमिनान हो।
घ- मुजतहिद की किताब (मसलन तौज़ीहुल मसाइल) में पढ़ना एस शर्त के साथ कि उस किताब के सही होने के बारे में इतमिनान हो।
(म.न. 6) जब तक इंसान को मुजतहिद के फ़तवे के बदले जाने का यक़ीन न हो जाये किताब में लिखे फ़तवे पर अमल कर सकता है और अगर फ़तवे के बदले जाने का एहतेमाल पाया जाता हो तो छान बीन करना ज़रूरी नही है।
(म.न. 7) अगर मुजतहिदे आलम कोई फ़तवा दे तो उनका मुक़ल्लिद[4] इस मसले के बारे में किसी दूसरे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल नही कर सकता। जब तक वह मुजतहिदेव आलम फ़तवा न दे बल्कि यह न कहे कि एहतियात इसमें है कि यूँ अमल किया जाये मसलन एहतियात[5] इसमें है कि नमाज़ की पहली और दूसरी रकअत में सूरए अलहम्द के बाद एक और पूरी सूरत पढ़े, तो मुक़ल्लिद को चाहिए कि या तो इस एहतियात पर जिसे एहतियाते वाजिब[6] कहते है अमल करे या किसी दूसरे ऐसे मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे जिसकी तक़लीद जायज़ हो। बस अगर वह (दूसरा मुजतहिद) फ़क़त सूरए अलहम्द को काफ़ी समझता है हो तो दूसरे सूरह को छोड़ सकता है। जब मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में कहे कि महल्ले ताम्मुल[7] या महल्ले इशकाल[8] है तो उसका हुक्म भी यही है।
(म.न. 8) अगर मुजतहिदे आलम किसी मसले के बारे में फ़तवा देने के बाद या इस से पहले एहतियात लगाये मसलन यह कहे कि नजिस बरतन कुर पीनी में एक मर्तबा धोने से पाक हो जाता है अगरचे एहतियात यह है कि तीन बार धोया जाये तो मुक़ल्लिद ऐसी एहतियात को छोड़ सकता है। इस क़िस्म की एहतियात को एहतियाते मुस्तहब[9] कहते हैं।
* (म.न. 9)इंसान जिस मुजतहिद की तक़लीद करता है अगर वह मर जाये तो जो हुक्म उसकी ज़िन्दगी में था वही हुक्म उसके मरने के बाद भी है। इस बिना पर अगर मरहूम मुजतहिद, ज़िन्दा मुजतहिद के मुक़ाबिल में आलम था तो वह शख़्स जिसे दर पेश मसाइल में दोनों मुजतहिदों के दरमियान के इख़तलाफ़ का अगर इजमाली तौर पर भी इल्म हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि मरहूम मुजतहिद की तक़लीद पर बाक़ी रहे। और अगर ज़िन्दा मुजतहिद आलम हो तो फिर जिन्दा मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ करना जरूरी है। इस मसले में तक़लीद से मुराद मुऐयन मुजतहिद के फ़तवे की पैरवी करने (क़स्दे रुजूअ) को सिर्फ़ अपने लिए लाज़िम क़रार देना है न कि उसके हुक्म के मुताबिक़ अमल करना।
(म.न. 10) अगर कोई शख़्स किसी मसले में एक मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे, फिर उस मुजतहिद के मर जाने के बाद वह उसी में ज़िन्दा मुजतहिद के फ़तवे पर अमल कर ले तो अब उसे इस बात की इजाज़त नही है कि वह दुबारा मरहूम मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करे।
(म.न. 11) जो मसाइल इंसान को अक्सर पेश आते हैं उनको याद करना वाजिब है।
* (म.न. 12) अगर किसी शख़्स के सामने कोई ऐल़सा मसला पेश आजाये जिसका हुक्म उसे मालूम न हो तो उसके लिए लाज़िम है कि एहतियात करे या उन शर्तों के साथ तक़लीद करे जिन ज़िक्र ऊपर हो चुका है। लेकिन अगर उसे इस मसले में आलम के फ़तवे का इल्म न हो और आलम व ग़ैरे आलम की राय के मुख़्तलिफ़ होने का थोड़ा इल्म भी हो तो ग़ैरे आलम की तक़लीद जायज़ है।
*(म.न. 13) अगर कोई शख़्स किसी मुजतहिद का फ़तवा किसी दूसरे शख़्स को बताये और इसके बाद मुजतहिद अपने फ़तवे को बदल दे तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह उस शख़्स को फ़तवे के बदले जाने के बारे में आगाह करे। लेकिन अगर फ़तवा बताने के बाद यह महसूस करे कि (शायद फ़तवा बताने में) ग़लती हो गई है और अगर इस बात का अंदेशा हो कि इस इत्तला की बिना पर वह शख़्स अपनी शरई ज़िम्मेदारी के ख़िलाफ़ अमल अंजाम देगा तो एहतियाते लाज़िम[10] की बिना पर जहाँ तक हो सके उस ग़लती को दूर करे। तो
(म.न. 14) अगर कोई मुकल्लफ़[11] एक मुद्दत तक किसी की तक़लीद किये बिना आमाल अंजाम देता रहे लेकिन बाद में किसी मुजतहिद की तक़लीद कर ले तो इस सूरत में अगर मुजतहिद उसके गुज़िश्ता आमाल के बारे में हुक्म लगाये कि वह सही है तो वह सही तसव्वुर किये जायेंगे वरना बातिल शुमार होंगे।
[1] किसी मुजतहिद के फ़तवे पर अमल करना।
[2] वह ज़रूरी और क़तई अमूर जो दीने इस्लाम के ऐसे जुज़ हैं जिनको अलग नही किया जाकता और जिन्हे तमाम मुसलमान दीन का लीज़मी जुज़ मानते हैं जैसे नमाज़, रोज़े का फ़र्ज़ और उनका वाजिब होना। इन अमूर को ज़रूरियाते दीन और क़तईयाते दीन भी कहते है। क्योंकि यह वह अमूर हैं जिनका तस्लीम करना दायर-ए- इस्लाम में रहने के लिए ज़रूरी है।
[3] एहतियात के मुताबिक़
[4] तक़लीद करने वाला
[5] अमल का वह तरीक़ा जिससे “अमल” के मुताबिक़े वाक़ेअ होने का यक़ीन हासिल हो जाये।
[6] वह हुक्म जो एहतियात के मुताबिक़ हो और फ़क़ीह ने उसके साथछ फ़तवा न दिया हो, ऐसे मसाइल में मुक़ल्लिद उस मुजतहिद की तक़लीद कर सकता है जो आलम के बाद इल्म में सबसे बढ़ कर हो।
[7] एहतियात करना चाहिए( मुक़ल्लिद इस मसले में दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ(सम्पर्क) कर सकता है इस शर्त के साथ कि मिजतहिद ने एहतियात के साथ फ़तवा न दिया हो।)
[8] इस में इश्काल है यानी इस अमल का सही और कामिल होना मुश्किल है। (मुक़ल्लिद इस मसले में किसी दूसरे मुजतहिद की तरफ़ रुजूअ कर सकता है। इस शर्त के साथ कि मुजतहिद ने फ़तवा न दिया हो)
[9] फ़तवे के अलावा एहतियात इस लिए इस पर अमल ज़रूरी नही होता।
[10] एहतियाते वाजिब का दूसरा नाम।
[11] वह शख़्स जिस पर शरई तकालीफ़ लागू हों।
निजासात
*(म.न.84) दस चीज़ें नजिस हैं।
1)पेशाब
2)पख़ाना
3)मनी (वीर्य)
4)मुरदार
5)ख़ून
6)कुत्ता
7)सुवर
8)शराब
9)काफ़िर
10)निजासत ख़ाने वाले जानवर का पसीना
पोशाब और पख़ाना
*(म.न.85) इंसान और हर ख़ूने जहिन्दादार[1] हराम गोश्त हैवान का पेशाब पखाना नजिस है। लेकिन वह हराम गोश्त जानवर जो ख़ूने जहिन्दा दार नही है उनका पख़ाना पाक है मसलन वह मछली जिसका गोश्त हराम। और इसी तरह उन छोटे जानवरों का पख़ाना भी पाक है जिनमें गोश्त नही पाया जाता (जैसे मच्छर, खटमल, मक्खी, पिस्सु वग़ैरह ) लेकिन एहतियाते लाज़िम की बिना पर उन हराम गोश्त जानवरों के पेशाब से भी परहेज़ करना ज़रूरी है जो ख़ूने जहिन्दा दार नही है।
(म.न.86) जिन परिन्दों का गोश्त हराम है उनका पेशाब और बीँट पाक है लेकिन इस से परहेज़ बेहतर है।
*(म.न.87) निजासत खाने वाले हैवान का पेशाब और पख़ाना नजिस है। और इसी तरह भेड़ के उस बच्चे का पेशाब पख़ाना भी नजिस है जिसने सूवरनी का दूध पिया हो। इसकी तफ़सील (व्याखया) बाद में बयान की जायेगी। इसी तरह उस जानवर का पेशाब पख़ाना बी नजिस है जिसके साथ किसी इंसान ने बद फ़ेला (संभोग) किया हो।
मनी (वीर्य)
*(म.न.88) इंसान और हर ख़ूने जहिन्दा दार जानवर की मनी नजिस है। एहतियाते लाज़िम की बिना पर चाहे वह हलाल गोश्त जानवर ही क्योँ न हो।
मुरदार (मुर्दा)
(म.न.89) इंसान का बदन मरने के बाद नजिस हो जाता है इसी तरह हर ख़ूने जहिन्दा दार जानवर का बदन भी मरने के बाद नजिस होता है चाहे वह अपनी तबई मौत मरें या उन्हें शरई तरीक़े के अलावा किसी दूसरे तरीक़े से जिबह किया गया हो। मछली चूँकि ख़ूने जहिन्दा दार नही है इस लिए अगर पानी में भी मर जाये तो पाक है।
(म.न.90) लाश के वह हिस्से जिनमें जान नही पाई जाती (जैसे रुवाँ, बाल, हड्डियाँ और दाँत) पाक हैं।
(म.न.91) जब किसी इंसान या ख़ूने जहिन्दादार जानवर के बदन से उसकी ज़िन्दगी में गोश्त या कोई दूसरा ऐसा हिस्सा जिसमें जान पाई जाती हो अलग कर दिया जाये तो वह नजिस है।
(म.न.92) अगर होंटोँ या बदन के किसी दूसरे हिस्से से बारीक सी पपड़ी उख़ाड़ दी जाये तो वह पाक है।
* (म.न.93) मुर्दा मुर्ग़ी के पेट से निकलने वाला अंडा पाक है। लेकिन उसका छिलका धोना ज़रूरी है।
(म.न.94) अगर भेड़ या बकरी का बच्चा घास ख़ाने के क़ाबिल होने से पहले मर जाये तो उसके शीरदान में जमा हुआ दूध पाक होता है। लेकिन शीरदान के बाहर से धो लेना ज़रूरी है।
(म.न.95) बहने वाली दवाईयाँ, ईतर, तेल, जूतों की पालिश और साबुन जिन्हें बाहर दरआमद (आयात) किया जाता है अगर उनकी निजासत के बारे में यक़ीन न हो तो पाक है।
(म.न.96) गोश्त, चर्बी और चमड़ा जिसके बारे में एहतेमाल(शंका) हो कि किसी ऐसे जानवर का है जिसे शरई तरीक़े से ज़िबह किया गया है पाक है। लेकिन अगर यह चीज़ें किसी काफ़िर से ली गई हों या किसी ऐसे मुसलमान से ली गई हो जिसने काफ़िर से ली हो और यह छान बीन न की हो कि यह ऐसे जानवर की हैं जिसे शरई तरीक़े से ज़िबह किया गया है या नही तो ऐसे गोश्त और चर्बी का खाना हराम है, अलबत्ता ऐसे चमड़े पर नमाज़ जायज़ है। लेकिन अगर यह चीज़े मुसलमानों के बाज़ार से या किसी मुसलमान से ख़रीदी जायें और यह मालूम न हो कि इस से पहले यह किसी काफ़िर से खरीदी गई थी या इस बात का एहतेमाल पाया जाता हो कि तहक़ीक़ कर ली गई है तो चाहे काफ़िर से ही क्यों न खरीदी जाये इस चमड़े पर नमाज़ पढ़ना और उस गोश्त या चर्बी का खाना जायज़ है।
ख़ून
(म.न.97) इंसान और हर ख़ूने जहिन्दा दार जानवर का ख़ून नजिस है। बस ऐसे जानवर जो ख़ूने जहिन्दा दार नही हैं उनका ख़ून पाक है जैसे मच्छर और मछली।
*(म.न.98)जिन जानवरों का गोश्त हलाल है अगर उन्हें शरई तरीक़े से जिबह किया जाये और ज़रूरी मिक़दार में उसका ख़ून ख़ारिज हो जाये तो जो ख़ून बदन में बाकी रह जाये वह पाक है। लेकिन अगर निकलने वाला खून जानवर के साँस खैँचने या उसका सर उँची जगह पर होने की वजह से बदन में पलट जाये तो वह नजिस होगा।
*(म.न.99) मुर्ग़ी के जिस अँडे में ख़ून का ज़र्रा हो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उस से परहेज़ ज़रूरी है। लेकिन अगर ख़ून ज़र्दी में हो तो जब तक उसका नाज़ुक पर्दा न फट जाये तो सफेदी बग़ैर किसी इश्काल के पाक है।
(म.न.100) वह ख़ून जो कभी कभी दूध निकालते हुए नज़र आता है वह नजिस है और दूध को भी नजिस कर देता है।
(म.न.101) अगर दातोँ की लकीरों से निकलने वाला ख़ूँन थूक में मिल कर ख़त्म हो जाये तो उस थूक से बचना लाज़िम नही है।
*(म.न.102) जो ख़ून चोट लगने की वजह से नाख़ुन या खाल के नीचे जम जाये तोअगर उसकी शक्ल ऐसी हो कि लोग उसे ख़ून न कहें तो वह पाक है और अगर ख़ून कहें और ज़ाहिर हो जाये तो नजिस है। अगर ऐसी हालत में नाख़ून या खाल में सुराख़ हो जाये और ख़ून का निकालना या वज़ू व ग़ुस्ल के लिए उस जगह को पाक करना बहुत ज़्यादा तकलीफ़ का सबब हो तो ऐसी हालत में तयम्मुम कर लेना चाहिए।
(म.न.103) अगर किसी शख़्स को यह पता न चले कि खाल के नीचे ख़ून जम गया है या चोट लगने की वजह से खाल का रंग ऐसा हो गया है तो वह पाक है।
*(म.न.104) अगर खाना बनाते वक़्त ख़ून का एक ज़र्रा भी उस में गिर जाये तो वह पूरा खाना और बरतन एहतियाते लाज़िम की बिना पर नजिस हो जायेगा।और वह उबाल, हरारत और आग से पाक नही हो सकता।
(म.न.105) वह ज़र्द मवाद जो ज़ख़्म के ठीक होने के वक़्त ज़ख़्म के चारो तरफ़ जमा हो जाता है अगर उसके बारे में यह न मालूम हो कि इसमें ख़ून मिला हुआ है या नही तो वह पाक है।
कुत्ता और सुवर
(म.न.106) ज़मीन पर रहने वाले कुत्ते और सुवर नजिस हैं यहाँ तक कि उनके बाल, हड्डियाँ, पंजे, नाख़ुन और उस से निकलने वाली रतूबतें भी नजिस हैं। लेकिन समुन्द्री कुत्ता और सुवर पाक हैं।
काफ़िर
*(म.न.107) काफ़िर यानी वह शख़्स जो अल्लाह के वजूद या उसकी वहदानियत (अद्वैतता) का इनकार करे, नजिस है। और इसी तरह ग़ुल्लात, (यानी वह लोग जो आइम्मा-ए- मासूमीन में से किसी एक को ख़ुदा कहें या यह कहें कि अल्लाह उनमे समा गया है।) नासबी व ख़ारजी(वह लोग जो आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम से बैर या बुग़्ज़ रखे।) नजिस है।
इसी तरह वह शख़्स जो किसी नबी की नबूवत या ज़रूरीयाते दीन(वह चीज़े जिन्हें मुसलमान दीन का जुज़ समझते हैं जैसे नमाज़ रोज़ा वग़ैरह) में से किसी एक यह जानते हुए कि यह ज़रूरीयाते दीन है इंकार करे, इसी तरह मशहूर रिवायत की बिना अहले किताब (यहूदी ,ईसाई और मजूसी) भी जो ख़ातमुल अंबिया हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की रिसालत का इक़रार नही करते नजिस हैं। अगरचे उनके पाकीज़गी का हुक्म बईद नही है लेकिन फिर भी उनसे परहेज़ बेहतर है।
(म.न.108) काफ़िर का तमाम बदन नजिस है यहाँ तक कि उसके बाल, नाख़ुन और उसके बदन से निकलने वाली रतूबतें भी नजिस हैं।
*(म.न.109) अगर किसी नाबालिग़ बच्चे के माँ बाप या दादा दादी काफ़िर हों तो वह बच्चा भी नजिस है। अलबत्ता अगर वह सूझ बूझ रखता हो इस्लाम का इज़हार करता हो और इनमें से (माँ बाप या दादा दादी में से) एक भी मुसलमान हो तो इस तफ्सील के मुताबिक़ जो मलसा नम्बर 217 में बयान होगी बच्चा पाक है।
*(म.न.110) अगर किसी शख़्स के बारे में यह जानकारी न हो कि मुसलमान है या नही और उसके मुसलमान होने की कोई निशानी भी न हो तो वह पाक समझा जायेगा। लेकिन उस पर इस्लाम के दूसरे अहकाम जारी नही होंगे। जैसे न वह किसी मुसलमान औरत से शादी कर सकता है और न ही उसे मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया जा सकता है।
(म.न.111) जो शख़्स (ख़ानदाने रिसालत के) बारह इमामों में से किसी एक को भी दुश्मनी की वजह से गाली दे वह नजिस है।
शराब
*(म.न.112) शराब नजिस है। इसी तरह एहतियाते मुस्तहब की बिना पर मस्त करने वाली हर वह चीज़ नजिस है जो तरल हों। लेकिन नशा करने वाली सूखी चीज़ें(जैसे भंग, चरस वग़ैरह) पाक हैं चाहे उसमें कोई तरल चीज़ ही क्योँ न मिला दी जाये।
(म.न.113) वह अलकोहल जो दरवाज़ों खिड़कियों मेज़ो वग़ैरह पर रंग करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है उफसकी तमाम क़िस्में पाक हैं।
(म.न.114) अगर अंगूर और अंगूर का रस ख़ुद बखुद या उबालने पर ख़मीर हो जाये तो पाक है लेकिन उसका खाना पीना हराम है।
(म.न.115) खजूर, मुनक़्क़ा, किशमिश और उनका शीरा अगर खमीर भी हो जाये तब भी पाक है और उनका खाना पीना भी हलाल है।
*(म.न.116) “फ़ुक़्क़ाअ” वह चीज़ जो जौ से तैय्यार की जाती है और उसे आबे जौ कहते है उसका पीना हराम है और उसका नजिस होना भी इश्काल से ख़ाली नही है। लेकिन तिब्बी क़ायदे के मुताबिक़ तैय्यार किया गया आबे जौ पाक है।
निजासत खाने वाले जानवर का पसीना
*(म.न.117) निजासत खाने वाले उँट का पसीना और हर उस जानवर का पसीना जिसे इंसानी निजासत खाने की आदत हो नजिस है।
*(म.न.118) जो हराम तरीक़े से जुनुब हो (अपना वीर्यपात करे) उसका पसीना पाक है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह उस पसीने के साथ नमाज़ न पढ़े। और हैज़ (मासिक धर्म) की हालत में अपनी बीवी के साथ जिमाअ (संभोग) करने वाले के लिए भी यही हुक्म है जबकि वह उसके मासिक के बारे में जानता हो।
(म.न.119) अगर कोई शख़्स अपनी बीवी से उस वक़्त जिमाअ(संभोग) करे जिसमें जिमाअ करना हराम है (जैसे रमज़ानुल मुबारक के महीने में दिन के वक़्त ) तो उसका पसीना हराम से जुनुब होने वाले के पसीने का हुक्म नही रखता।
(म.न.120) अगर हराम तरीक़े से जुनुब होने वाला ग़ुस्ल के बजाये तयम्मुम करे और तयम्मुम के बाद उसे पसीना आजाये तो इस पसीने का हुक्म वही है जो तयम्मुम से पहले वाले पसीने का था।
*(म.न.121) अगर कोई हराम तरीक़े से जुनुब हो जाये और फ़िर उस औरत से जिमा (संभोग) करे जो उसके लिए हलाल है तो उसके लिए एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस पसीने के साथ नमाज़ न पढ़े और अगर पहले उस औरत से जिमाअ करे जो उसके लिए हलाल है और फिर बाद में हराम तरीक़े से जुनुब हो तो उसका पसीना हराम से जुनुब होने वाले के पसीने का हुक्म नही रखता।
निजासत साबित होने के तरीक़े
*(म.न. 122) हर चीज़ की निजासत तीन तरीक़ो से साबित होती है।
1) इंसान को ख़ुद यक़ीन व इतमिनान हो कि वह चीज़ नजिस है। अगर किसी चीज़ के नजिस होने के बारे में सिर्फ़ गुमान हो तो उस चीज़ से परहेज़ करना लाज़िम नही है। लिहाज़ा चाय की दुकानों और होटलों में जहाँ पर लापरवाह किस्म के ऐसे लोग खाते पीते हैं जो निजासत व पाकीज़गी का लिहाज़ नही रखते उस वक़्त तक खाना खाने और चाय पीने में कोई हरज नही है जब तक इंसान को यह यक़ीन न हो जाये कि जो खाना उसके लिए लाया गया है नजिस है।
2) किसी के पास कोई चीज़ हो और वह उस चीज़ के बारे में कहे कि यह नजिस है और वह शख़्स झूट भी न बोलता हो तो वह चीज़ नजिस है। मसलन अगर किसी शख़्स की बीवी या नौकर कहे कि यह चीज़ जो मेरे पास है नजिस है तो वह चीज़ नजिस मानी जायेगी।
3) अगर दो आदिल आदमी किसी चीज़ के बारे में कहें कि यह नजिस है तो वह नजिस मानी जायेगी इस शर्त के साथ कि वह इस के नजिस होने की वजह बयान करें।
(म.न. 123) अगर कोई शख़्स मसला न जान ने की बिना पर यह न जान सके कि यह चीज़ नजिस है या पाक तो उसे चाहिए कि मसला मालूम करे जौसे उसे यह मालूम न हो कि चूहें की मेगनी पाक है यै नजिस तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह इस बारे में मसला मालूम करे । लेकिन उगर मसला जानता हो और किसी चीज़ के बारे में शक करे कि पाक है या नजिस मसलन उसे शक हो यह चीज़ ख़ून है या नही या यह न जानता हो कि मच्छर का ख़ून है या इंसान का तो वह पाक माना जायेगा और उसके बारे में छान बीन करना भी लाज़िम नही है।
(म.न. 124) अगर किसी नजिस चीज़ के बारे में शक हो कि (बाद में) पाक हुई या नही तो वह चीज़ नजिस है।इसी तरह अगर किसी पाक चीज़ के बारे में शक हो कि (बादमें) नजिस हो गई है या नही तो वह पाक है। अगर कोई शख़्स इन चीज़ों के नजिस या पाक होने के बारे में पता भी लगा सकता हो तो तब भी छान बीन ज़रूरी नही है।
(म.न. 125) अगर कोई शख़्स जानता हो कि यह दो बरतन या दो कपड़े जो उसके इस्तेमाल में है इन में से एक नजिस हो गया है लेकिन उसको यह पता न हो कि इनमें से कौनसा नजिस हुआ है तो दोनो से ही परहेज़ ज़रूरी है।और अगर उसके पास दो कपड़े हो एक उसका अपना और एक दूसरे का और उसको यह पता न चले कि उसका अपना कपड़ा नजिस हुआ है या वह कपड़ा जिसको वह इस्तेमाल नही करता और वह किसी दूसरे इंसान का माल है तो यह ज़रूरी नही है कि अपने कपड़े से परहेज़ करे।
[1] ख़ूने जहिन्दा दार उन जानवरो को कहा जाता जिनकी रग काटने पर ख़ून उछल कर निकलता है।
निजासात के अहकाम
(म.न. 136) क़ुराने करीम की तहरीर और वरक़ों को नजिस करना अगर बेहुरमती में शुमार होता हो तो हराम है और अगर नजिस हो जाये तो फ़ौरन पानी से धोना ज़रूरी है बल्कि अगर क़ुरान के वरक़ या तहरीर को नजिस करना बेहुरमती न भी समझा जाये तब भी एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका नजिस करना हराम और पाक करना वाजिब है।
(म.न. 137) अगर क़ुरआने मजीद की जिल्द नजिस हो जाये और उस से क़ुराने मजीद की बेहुरमती होती हो तो उसको पाक करना ज़रूरी है।
*(म.न. 138) क़ुरआने मजीद को किसी ऐने निजासत पर रखना चाहे वह ऐने निजासत खुश्क ही क्यों न हो अगर क़ुरान की बेहुरमती का सबब बनता है तो हराम है।
(म.न. 139) क़ुरआने मजीद को नजिस रौशनाई से लिखना चाहे वह एक ही हरफ़ क्यों न हो कुरआन को नजिस करने का हुक्म रखता है।और अगर लिखा जा चुका है तो उसे धो कर, खुरच कर या किसी और तरीक़े से साफ़ करना ज़रूरी है।
(म.न. 140) अगर काफ़िर को क़ुरआने मजीद देना उसकी बेहुरमती का बाईस हो तो हराम है और उस से वापस लेना वाजिब है।
(म.न. 141) अगर क़ुरआने करीम का वरक़ या कोई ऐसी चीज़ जिसका एहतराम ज़रूरी है जैसे कोई ऐसा काग़ज़ जिस पर अल्लाह ताअला या नबीये करीम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम या किसी इमाम अलैहिस्सलाम का नाम लिखा हो पखाने में गिर जाये तो उसे बाहर निकालना और पाक करना वाजिब है, चाहे इस काम के लिए पैसा ही क्यों न खर्च करना पड़े और अगर उसका बाहर निकालना मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि उस पाख़ाने को उस वक़्त तक बंद रखा जाये जब तक यह यक़ीन न हो जाये कि वह काग़ज़ गल कर ख़त्म हो गया है। इसी तरह अगर किसी पाखाने में ख़ाके शिफ़ा गिर जाये और उसको निकालना मुमकिन न हो तो उस वक़्त तक उस पखाने को इस्तमाल नही करना चाहिए जब तक यह यक़ीन न हो जाये कि वह बिल्कुल ख़त्म हो चुकी है।
(म.न. 142) नजिस चीज़ का खाना पीना और किसी दूसरे को खिलाना पिलाना हराम है। लेकिन बच्चे और दीवाने को खिलाना पिलाना ज़ाहिरी तैर पर जायज़ है। और इसी तरह अगर बच्चा या दिवाना नजिस ग़िज़ा खाये पिये या नजिस हाथ से ग़िज़ा को नजिस कर के खाये तो उसे रोकना ज़रूरी नही है।
*(म.न.143)वह नजिस चीज़ जो पाक हो सकती हो उसको बेचने और उधार देने में कोई हरज नही है। अलबत्ता ख़रीदार या उधार लेने वाले को इस बारे में इन दो शर्तों के साथ बताना ज़रूरी है।
(पहली शर्त) जब इस बात का अंदेशा हो कि सामने वाला किसी वाजिब हुक्म की मुख़ालफ़त का मुरतकिब होगा मसलन उस नजिस चीज़ को खाने पीने में इस्तेमाल करेगा और अगर ऐसा न हो तो बताना ज़रूरी नही है।मसलन लिबास के नजिस होने के बारे में बताना ज़रूरी नही जिसे पहन कर सामने वाला नमाज़ पढ़े क्योँ कि लिबास का पाक होना शर्ते वाकई नही है।
(दूसरी शर्त) यह कि बेचने या उधार देने वाले को यह उम्मीद हो कि सामने वाला उसकी बात पर उमल करेगा और अगर जानता हो कि सामने वाला मेरी बात पर अमल नही करेगा तो बताना ज़रूरी नही है।
(म.न.144) अगर एक शख़्स किसी को कोई नजिस चीज़ खाते या नजिस लिबास में नमाज़ पढ़ता देखे तो उस से इस बारे में कुछ कहना ज़रूरी नही है।
*(म.न.145) अगर किसी के घर का कोई हिस्सा या दरी, क़ालीन वग़ैरह नजिस हो और वह देखे कि उस के घर आने वाले का बदन या लिबास या और कोई चीज़ तर होने की हालत में नजिस जगह से जा लगी है और वह ख़ुद (साहिबे ख़ाना) इस बात का बाईस हुआ है तो उस के लिए ज़रूरी है उन दो शर्तों के साथ जो म.न. 143 में बयान की गई हैं उनको इस बारे में बताये।
*(म.न.146) अगर मेज़बान को खाना खाने के दौरान पता चले कि खाना नजिस है तो उन दोनों शर्तों के साथ जो मसला न, 143 में बयान की गई है मेज़बान के लिए ज़रूरी है कि मेहमानों को इसके बारे में बताये। लेकिन अगर मेहमानों में से किसी को खाने के नजिस होने का इल्म हो जाये तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह दूसरों को इस बारे में बताये। लेकिन अगर वह उन के साथ इस तरह घुल मिल कर रहता हो कि उन के नजिस होने की वजह से वह ख़ुद भी निजासत में मुबतला हो कर वाजिब अहकाम की मुख़ालफत का मुरतकिब होगा तो उनको बताना ज़रूरी है।
*(म.न.147) अगर कोई उधार ली हुई चीज़ नजिस हो जाये तो उन दोनों शर्तों के साथ जो म.न. 143 में बयान की गई हैं उसके मालिक को आगाह करे।
*(म.न.148) अगर बच्चा किसी चीज़ के बारे मे कहे कि यह नजिस हो गई है या कहे कि मैनें इस चीज़ को पाक कर लिया है तो उसकी बात का एतबार नही करना चाहिए लेकिन अगर बच्चा बलूग़ के क़रीब हो और वह कहे कि मैनें इस चीज़ को पाक कर लिया है जबकि वह चीज़ उसके इस्तेमाल में हो या बच्चे का क़ौल एतेमाद के क़ाबिल हो तो उसकी बात क़बूल कर लेनी चाहिए और यही हुक्म उस हाल में है जब कि बच्चा किसी चीज़ के नजिस होने की खबर दे।
निफ़ास
514. बच्चे का पहला हिस्सा, माँ के पेट से बाहर आने के वक़्त से, जो ख़ून औरत को आए अगर वह दस दिन से पहले या दसवें दिन के खात्मे पर बन्द हो जाए तो वह ख़ूने निफ़ास है और निफ़ास की हालत में औरत को (नफ़्सा) कहते हैं।
515. जो ख़ून औरत को बच्चे का पहला हिस्सा बाहर आने से पहले आए वह निफ़ास नहीं है।
516. यह ज़रुरी नहीं है कि बच्चे की खिल्क़त मुकम्मल हो, बल्कि उसकी खिल्क़त नामुकम्ल हो, तब भी अगर उसे बच्चा जनना, कहा जा सकता हो, तो वह ख़ून जो औरत को दस दिन तक आए ख़ूने निफ़ास है।
517. यह हो सकता है कि ख़ूने निफ़ास एक लह्ज़ा से ज़्यादा न आए, लेकिन वह दस दिन से ज़्यादा नही आता।
518. अगर किसी औरत को शक हो कि इस्क़ात(गर्भ पात) हुआ है, या नही, या जो इस्क़ात हुआ, वह बच्चा था या नही, तो उसके लिए तहक़ीक़ करना ज़रुरी नहीं है और जो ख़ून उसे आए वह शरअन निफ़ास नहीं है।
519. मस्जिद में ठहरना और वह दूसरे काम जो हाइज़ पर हराम हैं, एहतियात की बिना पर नफ़्सा पर भी हराम हैं और जो कुछ हाइज़ पर वाजिब है, वह नफ़्सा पर भी वाजिब है।
520. जो औरत निफ़ास की हालत में हो, उसे तलाक़ देना और उससे जिमाअ(संभोग) करना हराम है, लेकिन अगर उसका शौहर उससे जिमाअ करे तो उस पर बिला इश्काल कफ़्फ़ारा नहीं।
521. जब औरत निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाए तो उसे चाहिए कि गुस्ल करे और अपनी इबादत बजा लाए और अगर बाद में एक या एक से ज़्यादा बार ख़ून आए तो ख़ून आने वाले दिनो को पाक रहने वाले दिनो से मिलाकर अगर दस दिन से कम हो तो सारा ख़ूने निफ़ास है। बीच में पाक रहने के दिनो में एहतियात की बिना पर जो काम पाक औरत पर वाजिब है उन्हें अंजाम देना ज़रूरी है, और जो काम नफ़्सा पर हराम है उन्हें तर्क करे और अगर उन दिनो में कोई रोज़ा रखा है तो ज़रूरी है कि उसकी कज़ा करे। अगर बाद में आने वाला ख़ून दस दिन से ज़्यादा आए और वह औरत अदद की आदत न रखती हो तो ख़ून की वह मिक़्दार जो दस दिन के अन्दर आई है उसे निफ़ास और दस दिन के बाद आने वाले ख़ून को इस्तिहाज़ः क़रार दें। अगर वह औरत अदद की आदत रखती हो तो ज़रूरी है कि एहतियातन आने वाले ख़ून की तमाम मुद्दत में जो काम मुस्तहाज़ः के लिए हैं उन्हें अंजाम दे और जो काम नफ़्सा पर हराम है, उन्हे तर्क करे।
522. अगर औरत ख़ूने निफ़ास से पाक हो जाए और एहतेमाल हो कि उसके बातिन में ख़ूने निफ़ास है, तो उसे चाहिए कि कुछ रूई अपनी शर्मगाह मे दाखिल करे और कुछ देर इन्तिज़ार करे फिर अगर वह पाक हो तो इबादत के लिए गुस्ल करे।
523. अगर औरत को निफ़ास का ख़ून दस दिन से ज़्यादा आए और वह हैज़ में आदत रखती हो तो आदत के बराबर दिनो की मुद्दत निफ़ास और बाक़ी इस्तिहाज़ः है और अगर आदत ना रखती हो तो दस दिन तक निफ़ास और बाक़ी इस्तिहाज़ः है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि जो औरत आदत रखती हो वह आदत के बाद के दिन से और जो औरत आदत ना रखती हो वह दसवें दिन के बाद से बच्चे की पैदाइश के अट्ठारवें दिन तक इस्तिहाज़ः के काम अंजाम दे और वह काम जो नफ़्सा पर हराम है उन्हें तर्क करे।
524. अगर किसी ऐसी औरत को, जिसकी हैज़ की आदत दस दिन से कम हो उसकी आदत से ज़्यादा ख़ून आए तो उसे चाहिए कि अपनी आदत के दिनो की तादाद को निफ़ास क़रार दे, उसके बाद उसे इख़्तियार है कि दस दिन तक नमाज़ को तर्क करे या मुस्तहाज़ः के अहकाम पर अमल करे, लेकिन एक दिन की नमाज़ तर्क करना बेहतर है और अगर ख़ून दस दिन के बाद भी आता रहे तो उसे चाहिए कि आदत के दिनों के बाद दसवें दिन तक भी इस्तिहाज़ः क़रार दे और जो इबादत वह उन दिनों में बजा नहीं लाई है, उनकी क़ज़ा करे। मसलन जिस औरत की आदत छः दिनो की हो अगर उसे छः दिन से ज़्यादा ख़ून आए तो उसे चाहिए कि छः दिन को निफ़ास क़रार दे और सातवें, आठवें, नवें और दसवें दिन उसे इख़्तियार है कि या तो इबादत तर्क करे या इसतिहाज़ः के काम बजा लाए और अगर उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आया हो तो उसकी आदत के बाद के दिन से वह इस्तिहाज़ः होगा।
525. जो औरत हैज़ में आदत रखती हो अगर उसे बच्चा जनने से बाद एक महीने या एक महीने से ज़्यादा मुद्दत तक लगातार ख़ून आता रहे तो उसकी आदत के दिनों की तअदात के बराबर ख़ूने निफ़ास है और जो ख़ून, निफ़ास के बाद दस दिन आए चाहे वह उसकी माहाना आदत के दिनों में आया हो इस्तिहाज़ः है। मसलन ऐसी औरत जिसके हैज़ की आदत हर महीने बीस तारीख़ से सत्ताइस तारीख़ तक हो अगर वह महीने की दस तारीख को बच्चा जने और एक महीने या उससे ज़्यादा मुद्दत तक उसे मुतवातिर ख़ून आए तो सत्तरहवीं तारीख़ तक निफ़ास और सत्तरहवीं तारीख से दस दिन का ख़ून हत्ताकि वह ख़ून भी जो बीस से सत्ताइस तक उसकी आदत के दिनों में आया है इस्तिहाज़ः होगा और दस दिन गुज़रने के बाद जो ख़ून उसे आए अगर वह आदत के दिनों में हो तो वह हैज़ है चाहे उसमें हैज़ की निशानियाँ हों या न हों और अगर वह ख़ून उसकी आदत के दिनों में आया दो तो उसके लिए ज़रूरी है कि अपनी आदत के दिनों का इन्तिज़ार करे अगरचे उसके इन्तिज़ार की मुद्दत एक महीना या एक महीने से ज़्यादा हो जाए और चाहे उस मुद्दत में जो ख़ून आए उसमे हैज़ की निशानयाँ हों और अगर वह वक़्त की आदत वाली औरत न हो और उसके लिए मुम्किन हो तो ज़रूरी है कि वह अपने हैज़ की निशानियों के ज़रीए मुअय्यन करे और अगर मुम्किन न हो जैसा कि निफ़ास के बाद दस दिन जो ख़ून आए वह सारा एक जैसा हो और एक महीना या चन्द महीने उन्हीं निशानियों के साथ आता रहे तो ज़रूरी है कि हर महीने में अपने कुंबे की कुछ औरतों के हैज़ की जो सूरत हो वही अपने लिए क़रार दे और अगर यह मुम्किन न हो जो अदद अपने लिए मुनासिब समझती है इख़्तियार करे और इन तमाम उमूर की तफ़्सील हैज़ की बह्स मे गुज़र चुकी है।
526. जो औरत हैज़ में अदद के लिहाज़ से आदत न रखती हो अगर उसे बच्चा जनने के बाद एक महीने तक या एक महीने से ज़्यादा मुद्दत तक ख़ून आए तो उससे पहले दस दिनों के लिए वही हुक्म है जिसका ज़िक्र म.न. 523 मे आ चुका है और दूसरी दहाई में जो ख़ून आए वह इस्तिहाज़ः है और जो ख़ून उसके बाद आए मुम्किन है वह हैज़ हो मुम्किन है इस्तिहाज़ः हो और हैज़ क़रार देने के लिए ज़रूरी है कि उस हुक्म के मुताबिक अमल करे जिसका ज़िक्र पिछले मस्अले में गुज़र चुका है।

पाक चीज़ कैसे नजिस होती है ?
*(म.न. 126) अगर कोई पाक चीज़ किसी नजिस चीज़ से लग जाये और यह दोनों या इनमें से एक इस तरह गीली हों कि एक की तरी दूसरी में पहुँच जाये तो पाक चीज़ नजिस हो जायेगी और अगर वह इस तरी के साथ किसी तीसरी चीज़ से लग जाये तो उस को भी नजिस कर देगी। और मशहूर क़ौल यह है कि जो चीज़ नजिस हो गई हो वह दूसरी चीज़ों को भी नजिस कर देती है लेकिन एक के बाद एक कई चीज़ों पर निजासत का हुक्म लगाना मुश्तिल है बल्कि उन पर पाकीज़गी का हुक्म लगाना क़ुवत से ख़ाली नही है। मसलन अगर दायाँ हाथ पेशाब से नजिस हो जाये और फ़िर यह तर हाथ बायेँ हाथ को लग जाये तो बायाँ हाथ भी नजिस हो जायेगा। अब अगर बायाँ हाथ ख़ुश्क होने के बाद किसी तर लिबास को लग जाये तो वह लिबास भी नजिस हो जायेगा, लेकिन अगर वह तर लिबास किसी दूसरी चीज़ को लग जाये तो वह चीज़ नजिस नही होगी। और अगर तरी इतनी कम हो कि दूसरी चीज़ को न लगे तो पाक चीज़ नजिस नही होगी चाहे वह ऐने निजासत को ही क्योँ न लगी हो।
(म.न. 127) अगर कोई पाक चीज़ किसी नजिस चीज़ को लग जाये और इन दोनों या इनमें से किसी एक के तर होने के बारे में किसी को शक हो तो पाक चीज़ नजिस नही होगी।
*(म.न. 128) ऐसी दो चीज़ें जिनके बारे में इंसान यह न जानता हो कि इनमें से कौनसी पाक है और कौनसी नजिस अगर एक पाक और तर चीज़ उन में से किसी एक को लग जाये तो उस चीज़ से परहेज़ करना ज़रूरी नही है।लेकिन कुछ हालतें ऐसी हैं कि जिनमें इससे परहेज़ करना ज़रूरी है जैसे दोनो चीज़े पहले नजिस थीं या यह कि कोई पाक चीज़ तर होने की हालत में इन में से किसी एक से लग जाये।
(म.न. 129) अगर ज़मीन कपड़ा या ऐसी दूसरी चीज़ें तर हों तो उनके जिस हिस्से को निजासत लगेगी वह नजिस हो जायेगा और बाक़ी हिस्सा पाक रहेगा और यही हुक्म खीरे और खरबूज़े के बारे में है।
(म.न. 130) जब शीरे ,तेल घी और ऐसी ही किसी और चीज़ की सूरत ऐसी हो कि अगर उसकी कुछ मिक़दार निकाल ली जाये तो उसकी जगह खाली न हो तो ज्यों ही वह ज़र्रा बराबर भी नजिस होगा तमाम नजिस हो जायेगा।लेकिन अगर उसकी सूरत ऐसी हो कि उस में से कुछ हिस्सा निकालने पर जगह खाली हो जाये अगरचे बाद में पुर हो जाये तो सिर्फ वही हिस्सा नजिस होगा जिसे निजासत लगी है लिहाज़ा अगर चूहें की मेंगन उस में गिर जाये तो जहाँ वह मेंगनी गिरी है वह जगह नजिस और बाक़ी पाक होगी। (म.न. 131) अगर मक्खी या ऐसा ही कोई और जानदार एक ऐसी तर चीज़ पर बैठे जो नजिस हो और इसके बाद किसी तर और पाक चीज़ पर जा बैठे और यह मालूम हो जाये कि इसके साथ निजासत थी तो पाक चीज़ नजिस हो जायेगी और अगर पता न चल सके तो पाक रहेगी।
(म.न. 132) अगर बदन के किसी हिस्से पर पसीना लगा हो और वह हिस्सा नजिस हो जाये और फिर पसीना बह कर बदन के दूसरे हिस्सों तक चला जाये तो जहाँ जहाँ यह पसीना पहुँचेगा वह हिस्से नजिस हो जायेंगे। लेकिन अगर पसीना आगे न वहे तो बाक़ी बदन पाक रहेगा।
*(म.न. 133) जो बलगम नाक या गले से खारिज हो अगर उसमें खून हो तो बलग़म में जहाँ खून होगा वह जगह नजिस और बाक़ी हिस्सा पाक होगासलिहाज़ा अगर यह बलग़म मुँह या नाक के बाहर लग जाये तो बदन के जिस मक़ाम के बारे में यक़ीन हो कि नजिस बलग़म उस पर लगा है नजिस है और जिस जगह के बारे में शक हो कि वहाँ बलग़म का निजासत वाला हिस्सा पहुँचा है या नही तो वह पाक है।
*(म.न. 134) अगर एक ऐसा लोटा जिसके पेंदें मे सुराख़ हो नजिस ज़मीन पर रख दिया जाये और उसे पानी बहना बंद हो जाये तो जो पानी उसके नीचे जमा होगा वह उसके अन्दर वाले पानी से मिल कर यक जा हो जाये तो लोटे का पानी नजिस हो जायेगा। लेकिन अगर लोटे का पानी तेज़ी के साथ बहता रहे तो नजिस नही होगा।
(म.न. 135) अगर कोई चीज़ बदन में दाख़िल हो कर निजासत से जा मिले लेकिन बदन के बाहर आने पर निजासत में न सनी हो तो वह चीज़ पाक है लिहाज़ अगर अनीमा का सामान या उसका पानी पेट मे डाला जाये या सूईं, चाकू या कोई और ऐसी चीज़ बदन में चुभ जाये और बाहर नुकलने पर निजासत में न सनी हो तो नजिस नही है। अगर थूक और नाक का पानी जिस्म के अन्दर ख़ून से जा मिले लेकिन बाहर निकलने पर उस में ख़ून न लगा हो तो उसका भी यही हुक्म है।
बैतुल खला के अहकाम
*(म.न.57) इंसान पर वाजिब है कि पेशाब व पख़ाना करते वक़्त और दूसरे मौक़ों पर अपनी शर्म गाहों को बालिग़ अफ़राद से छुपा कर रख़े। चाहे वह बालिग़ अफ़राद माँ, बहन की तरह उसके महरम ही क्योँ न हों, इसी तरह अपनी शर्म गाहों को दिवानों और अच्छे बुरे की तमीज़ रखने वाले बच्चों से भी छुपाये। लेकिन शौहर और बीवी के लिए अपनी शर्म गाहों एक दूसरे से छुपाना लाज़िम नही है।
(म.न.58) लाज़िम नही है कि अपनी शर्म गाह को किसी मख़सूस चीज़ से छुपाया जाये अगर हाथ से भी छुपाले तो काफ़ी है।
*(म.न.59) पेशाब या पख़ाना करते वक़्त एहतियाते लाज़िम की बिना पर न बदन का अगला हिस्सा (यानी पेट और सीना ) क़िब्ले की तरफ़ हो और न ही पुश्त।
*(म.न. 60)अगर पेशाब या पख़ाना करते वक़्त किसी शख़्स के बदन का अगला हिस्सा या पुश्त क़िब्ले की तरफ़ हो और वह अपनी शर्म गाह को क़िब्ले की तरफ़ से मोड़ ले तो यह काफ़ी नही है। अगर उसके बदन का अगला हिस्सा या पुश्त क़िबले की तरफ़ नही है तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह अपनी शर्म गाह को रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िब्ला न मोड़े।
(म.न. 61) एहतियाते मुसतहब यह है कि इस्तबरा करते वक़्त और पेशाब व पख़ाने के मक़ाम को धोते वक़्त भी बदन का अगला हिस्सा और पुश्त क़िबले की तरफ़ न हो।
*(म.न. 62) अगर कोई शख़्स इस लिए कि नामहरम उसे न देखें रु बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला बैठने पर मजबूर हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसे पुश्त बा क़िबला बैठना चाहिए और अगर पुश्त बा क़िबला बैठना मुमकिन न हो तो रू बा क़िबला बैठ जाये। अगर किसी दूसरी मजबूरी की बिना पर भी रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला बैठने पर मजबूर हो तो तब भी यही हुक्म है।
(म.न. 63) एहतियाते मुसतहब यह है कि बच्चे को पेशाब या पख़ाना कराने के लिए रू बा क़िबला या पुश्त बा क़िबला न बैठाये, लेकिन अगर बच्चा ख़ुद से बैठ जाये तो रोकना वाजिब नही है।
(म.न. 64) चार जगहों पर पेशाब पख़ाना करना हराम है।
1.    बंद गलियों मे जबकि वहाँ के रहने वाले इसकी इजाज़त न हें।
उस ज़मीन पर जो किसी की मिलकियत हो और उसका मालिक वहाँ पर पेशाब पख़ाना करने की इजाज़त न दे।
2.    उन जगहों पर जो किसी ख़ास गिरोह के लिए वक़्फ़ हो जैसे मदरसे।
3.    मोमेनीन की क़बरों के पास जबकि इस से उनकी बेहुरमती होती हो। और यही हुक्म हर उस जगह बारे में है जहाँ पर पेशाब या पख़ाना करने से दीन या मज़हब के मुक़द्देसात की तौहीन होती हो।
(म.न. 65) तीन हालतें ऐसी हैं जिनमें मक़अद ( वह सुराख़ जिससे पख़ाना निकलता है) फ़क़त पानी से पाक होती है।
1.    अगर पाख़ाने के साथ कोई दूसरी निजासत (मिस्ले ख़ून) बाहर आये।
2.    बाहर से कोई दूसरी निजासत मिक़अद पर लग जाये।
3.    मिक़अद को चारों तरफ़ का हिस्सा मामूल से ज़्यादा सन जाये।
इन तीन सूरतों के अलावा मक़अद को या तो पानी से धोया जा सकता है या उस तरीक़े के मुताबिक़ जो बाद में बयान किया जायेगा कपड़े या पत्थर से भी पाक किया जा सकता है अगरचे पानी से धोना ही बेहतर है।
*(म.न. 66) पेशाब का मख़रज (पेशाब के निकलने का सुराख़) पानी के अलावा किसी दूसरी चीज़ से पाक नही होता। अगर पानी कुर के बराबर हो या जारी हो तो पेशाब करने के बाद एक बार एक बार धोना काफ़ी है। लेकिन अगर पानी क़लील हो तो एहतियाते मुसतहब की बिना पर दो बार धोना चाहिए और बेहतर यह है कि तीन बार धोयें।
(म.न. 67) अगर मक़अद को पानी से धोया जाये तो ज़रूरी है कि पख़ाने का कोई ज़र्रा बाक़ी न रहे अलबत्ता अगर रंग या बू बाक़ी रह जाये तो कोई हरज नही है और अगर एक बार में वह जगह इस तरह धुल जाये कि पख़ाना का कोई ज़र्रा बाक़ी न रहे तो दुबारा धोना लाज़िम नही है।
(म.न. 68) पत्थर, ढेला, कपड़ या इन्हीं जैसी दूसरी चीज़े अगर पाक और ख़ुश्क हों तो उनसे मक़अद को पाक किया जा सकता है और अगर इनमे मामूली सी नमी भी हो तो जो मक़अद तक न पहुँचे तो कोई हरज नही है।
*(म.न. 69) अगर मक़अद को पत्थर, ढेले या कपड़े से एक बार बिल्कुल साफ़ कर दिया जाये तो काफ़ी है।लेकिन बेहतर यह है कि तीन बार साफ़ किया जाये और जिस चीज़ से साफ़ कर रहे हैं उसके तीन टुकड़े होने चाहिए और अगर तीन टुकड़ों से भी साफ़ न हो तो इतने टुकड़ों को इस्तेमाल करना चाहिए कि मक़अद साफ़ हो जाये। अलबत्ता अगर इतने छोटे टुकड़े बाक़ी रह जायें जो नज़र न आयें तो कोई हरज नही है।
(म.न.70) जिन चीज़ों का एहतराम वाजिब है उन से मक़अद को पाक करना हराम है।(मसलन कापी या किताब का ऐसा काग़ज़ जिस पर अल्लाह या किसी पैग़म्बर का नाम लिखा हो) और मकअद के हड्डी या गोबर से पाक होने में इश्काल है।
(म.न.71) अगर एक शख़्स को शक हो कि उसने मक़अद को पाक किया है या नही तो उस पर लाज़िम है कि उसे पाक करे अगरचे पेशाब, पख़ाना करने के बाद वह उस मक़ाम को हमेशा फ़ौरन पाक करता हो।
*(म.न.72) अगर किसी शख़्स को नमाज़ के बाद शक हो कि नमाज़ से पहले पेशाब या पख़ाने के मक़ाम को पाक किया था या नही तो जो नमाज़ वह पढ़ चुका है सही है लेकिन दूसरी नमाज़ पढ़ने से पहले उस के लिए ज़रूरी है कि उस मक़ाम को पाक करे।
इस्तबरा के अहकाम
*(म.न.73) इस्तबरा एक मुस्तहब अमल है जिसको मर्द पेशाब करने के बाद इस ग़रज़ से अंजाम देते है ताकि इतमीनान हो जाये कि अब पेशाब की नली में पेशाब बाक़ी नही रहा। इस्तबरा के कई तरीक़े हैं जिनमें से बेहतर यह है कि पेशाब करने के बाद बायें हाथ की बीच की उँगली से पख़ाने के सुराख से पेशाब की नली की जड़ तक तीन बार दबाये इसके बाद अँगूठे को पेशाब नली के उपर वाले हिस्से पर और अँगूठे का पास वाली उंगली को पेशाब नली के नाचे रख कर तीन बार सुपारी तक सूँते फिर बाद में तीन बार सुपारी को दबाये। (अगर पख़ाने का मक़ाम नजिस है तो पहले उसे पाक कर लेना चाहिए)
(म.न.74) वह तरी जो कभी कभी औरत को चूमने चाटने या हसीँ मज़ाक़ करने की वजह से मर्द के आलाए तनासुल (लिँग) से निकलती है उसे मज़ी कहते है और वह पाक है। इसके अलावा वह तरी जो कभी कभी मनी (वीर्य) के बाद निकलती है उसे वज़ी कहते है। या वह तरी जो कभी कभी पेशाब के बाद निकलती है जिसे वदी कहा जाता है वह भी पाक है इस शर्त के साथ कि उसमें पेशाब न मिला हो। अगर किसी शख़्स ने पेशाब करने के बाद इस्तबरा किया हो और उसके बाद उस से कोई तरी निकले जिसके बारे में न जानता हो कि यह पेशाब है या उपर बयान की गई तीनों चीज़ों में से कोई एक तो वह भी पाक है।
(म.न.75) अगर किसी शख़्स को शक हो कि उसने इस्तबरा किया है या नही और उसके पेशाब के मक़ाम से कोई तरी निकले जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि यह पाक है या नजिस तो वह नजिस है। और अगर वह वज़ू कर चुका है तो (इस तरी के निकलने से) उसका वज़ू भी बातिल हो जायगा।लेकिन अगर उसको इस बारे में शक हो कि जो इस्तबरा उसने किया था वह सही ता या नही तो और इस हालत में उसके पेशाब के रास्ते से एक तरी निकले जिसके बारे में यह न जानता हो कि यह पाक है या नजिस तो वह तरी पाक है और अगर वह वज़ू से है तो उसका वज़ू भी बातिल नही होगा।
*(म.न.76) अगर किसी शख़्स ने इस्तबरा न किया हो और पेशाब करने के बाद काफ़ी देर गुज़र जाने की वजह से उसे इतमिनान हो गया हो कि पेशाब नली में बाक़ी नही रहा था और उसके बाद उसके पेशाब के रास्ते से कोई तरी निकले जिसके बारे में उसे यह पता न हो कि यह तरी नजिस है या पाक तो वह तरी पाक है और उससे वज़ू भी बातिल नही होगा।
(म.न.77) अगर कोई शख़्स पेशाब करने के बाद इस्तबरा करके वज़ू करले और उसके बाद कोई ऐसी तरी निकले जिसके बारे में उसका ख़याल यह हो कि यह पेशाब या मनी है तो उस पर वाजिब है कि एहतियातन ग़ुस्ल करे और वज़ू भी करे। अलबत्ता अगर उसने पहले वज़ू कर लिया हो तो वज़ू कर लेना काफ़ी है।
(म.न.78) औरत के लिए पेशाब के बाद इस्तबरा नही है । अगर पेशाब के बाद औरत से कोई तरी निकले और शक हो कि यह पेशाब है या और कोई चीज़ तो वह तरी पाक है। और उससे वज़ू व ग़ुस्ल भी बातिल नही होगा।
पेशाब पख़ाना करने के मुसतहब्बात व मकरूहात
(म.न.79) हर शख़्स के लिए मुस्तहब है कि जब भी पेशाब पख़ाना करने के लिए जाये तो ऐसी जगह पर बैठे जहाँ उसे कोई देख न सके। और पख़ाने मे दाख़िल होते वक़्त पहले अपना बायाँ पैर अन्दर रखे और वहाँ से निकलते वक़्त पहले दाहिना पैर बाहर रखे और यह भी मुस्तहब है पेशाब पख़ाना करते वक़्त अपने सर को (टोपी , दुपट्टे वग़ैरह) से ढक कर रखे और बदन का बोझ अपने बायेँ पैर पर रखे।
(म.न.80) सूरज चाँद की तरफ़ चेहरा कर के पेशाब पख़ाना करना मकरूह है। लेकिन अगर अपनी शर्म गाह को किसी चीज़ के ज़रिये ढक ले तो फिर मकरूह नही है। इसके अलावा हवा के रुख़ के मुक़ाबिल, गली कूचों में, घरों के दरवाज़ों के सामने और फलदार दरख़्तों के नीचे पेशाब पख़ाना करना मकरूह है। इसी तरह पेशाब पख़ाना करते वक़्त कोई चीज़ खाना, ज़्यादा देर तक बैठे रहना, दाहिने हाथ से पेशाब पख़ाने के मक़ाम को धोना और इस हालत में बाते करना भी मकरूह है लेकिन अगर कोई मजबूरी हो या ज़िक्रे ख़ुदा किया जाये तो कोई हरज नही है।
(म.न.81) खड़े हो कर पेशाब करना मकरूह है। और इसी तरह सख़्त ज़मीन पर,जानवरों के सुराख़ों पर और पानी में ख़ास तौर पर रुके हुए पानी में पेशाब करना भी मकरूह है।
(म.न.82) पेशाब और पख़ाने को रोकना मकरूह है और अगर बदन के लिए मुकम्मल तौर पर नुक़सान देह हो तो हराम है।
(म.न.83) नमाज़ से पहले , सोने से पहले, जिमाअ(संभोग) से पहले और मनी(वीर्य) के निकल जाने के बाद पेशाब करना मुस्तहब है।
मुतह्हिरात (पाक करने वाली चीज़ें)
*(म.न.149) बारह चीज़ें ऐसी हैं जो निजडासत को पाक करती हैं और इनको मुतह्हरात कहा जाता है।
1)पानी
2)ज़मीन
3)सूरज
4)इस्तेहालह
5)इंक़िलाब
6)इंतिक़ाल
7)इस्लाम
8)तबइय्यत
9)ऐने निजासत का ख़त्म हो जाना
10)निजासत खाने वाले हैवान का इस्तबरा
11)मुसलमान का ग़ायब होना
12)ज़िबह किये गये जानवर के बदन से ख़ून का निकल जाना।
इन मुतह्हिरात के बारे में पूरे अहकाम आने वाले मसलों में बयान किये जायेंगे।
पानी-
*(म.न.150) पानी चार शर्तों के साथ नजिस चीज़ को पाक करता है।
1)पानी मुतलक़ हो- मुजाफ़ पानी से कोई नजिस चीज़ पाक नही होती।
2)पानी पाक हो।
3)नजिस चीज़ को धोते वक़्त पानी मुजडाफ़ न बन जाये, जब किसी चीज़ को पाक करने के लिए पानी से धोया जाये तो जब आखिरी बार धोया जा रहा हो तो लाज़िम है कि उस पानी में जिजासत का रंग, बू या ज़ायक़ा मौजूद न हो। लेकिन अगर धोने की सूरत मुख़तलिफ़ हो (यानी वह आख़री बार न हो) और पानी का रंग, बू या ज़ायक़ा बदल जाये तो इसमें कोई हरज नही है। मसलन अगर कोई चीज़
क़लील या कुर पानी से धोई जा रही हो तो और उसे दो बार धोना ज़रूरी हो तो अगर पहली बार धोते वक़्त पानी का रंग,बू या ज़ायक़ा बदल जाये लेकिन दूसरी बार धोने में ऐसी कोई तबदीली न आये तो वह चीज़ पाक हो जायेगी।
4) नजिस चीज़ को पानी से धोने के बाद उसमें ऐने निजासत के ज़र्रे बाक़ी न रहे। नजिस चीज़ को अगर क़लील पानी से पाक किया जाये तो इसकी कुछ शर्ते हैं जो इस तरह हैं।
*(म.न.151) नजिस बरतन के अन्दरूनी हिस्से को क़लील पानी से तीन बार धोना ज़रूरी है और कुर व जारी पानी के बारे में भी एहतियाते वाजिब की बिना पर यही हुक्म है। लेकिन जिस बरतन से कुत्ते ने पानी या कोई दूसरी बहने वाली चीज़ पी हो उसे पहले मिट्टी से मानझना चाहिए बाद में क़लील, कुर या जारी पानी से दो बार धोना चाहिए। इसी तरह अगर कुत्ता किसी बरतन को चाटे और उसमें कोई चीज़ बाक़ी रह जाये तो उसे पाक करने से पहले मिट्टी से मानझना ज़रूरी है। और अगर किसी बरतन में कुत्ते की राल गिर जाये तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसे मिट्टी से मानझने के बाद तीन बार धोना ज़रूरी है।
*(म.न.152) अगर किसी तंग मुँह वाले ऐसे बरतन को कुत्ता चाट जाये जिस के अन्दर हाथ न जा सकता हो तो उसमें मिट्टी डाल कर इस तरह हिलाया जाये कि मिट्टी बरतन के अन्दर तमाम जगह पर पहुँच जाये फिर उसको उस तरह धोयें जैसा कि उपर वाले मसले में बयान किया जा चुका है।
(म.न.153) अगर किसी बरतन को सुवर चाट ले या उसमें से कोई बहने वाली चीज़ पी ले या उसमें कोई जंगली चूहाँ मर जाये तो उसे क़लील या कुर पानी से सात बार धोना ज़रूरी है। लेकिन मिट्टी से मानझना ज़रूरी नही है।
(म.न.154) अगर कोई बरतन शराब से नजिस हो जाये तो उसे तीन बार धोना ज़रूरी है चाहे पानी क़लील हो या कुर।
(म.न.155) अगर एक ऐसे बरतन को जिसे नजिस मिट्टी से तैयार किया गया हो या जिस में नजिस पानी चला गया हो कुर या जारी पानी में डाल दिया जाये तो बरतन में जहाँ जहाँ पानी पहुँच जायेगा वह पाक हो जायेगा और अगर इस बरतन के अन्दरूनी हिस्से को भी पाक करना मक़सद हो तो उसे कुर या जारी पानी में इतनी देर तक डाले रखना चाहिए जितनी देर में पानी बरतन के अन्दर तमाम जगहों पर पहुच जाये। और अगर इस बरतन में कोई ऐसी नमी मौजूद हो जो पानी के अन्दरूनी हिस्सों तक पहुँचने में रुकावट हो तो पहले उसे ख़ुश्क करे और बाद में कुर या जारी पानी में डाले।
(157) अगर एक बड़ा बर्तन मसलन पतीला या मटका नजिस हो जाये तो तीन बार पानी से भरने और हर बार ख़ाली करने के बाद पाक हो जाता है। इसी तरह अगर उसमें तीन बार ऊपर से इस तरह पानी डालें कि बर्तन के अन्दर सब जगह पहुँच जाये और इसकी तली में इकठ्ठे होने वाले पानी को हर बार बाहर निकाल दें तो बर्तन पाक हो जायेगा। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दूसरी और तीसरी बार जिस बर्तन के ज़रिए पानी बाहर निकाला जाये उसे भी धो लिया जाये।
(158) अगर नजिस तांबे वग़ैरा को पिघला कर पानी से धोया जाये तो उसका ज़ाहेरी हिस्सा पाक हो जायेगा।
(159) अगर तनूर पेशाब से नजिस हो जाये और उसमें ऊपर से एक बार यूँ पानी डाला जाये कि इसकी तमाम अतराफ़ तक पहुँच जाये तो तनूर पाक हो जायेगा और एहतियाते मुसतहब यह है कि यह अमल दो बार किया जाये। और अगर तनूर पेशाब के अलावा किसी और चीज़ से नजिस हुआ हो तो, निजासत दूर करने के बाद मज़कूरा तरीक़े के मुताबिक़ इसमें एक बार पानी डालना काफ़ी है। और बेहतर यह है कि तनूर की तह में एक गढ़ा खोद लिया जाये जिस में पानी जमा हो सके फिर इस पानी को निकाल लिया जाये और गढ़े को पाक मिट्टी से पुर कर दिया जाये।
(160) अगर किसी नजिस चीज़ को कुर या जारी पानी में एक बार यूँ डुबो दिया जाये कि पानी इसके तमाम नजिस मक़ामात तक पहुँच जाये तो वह चीज़ पाक हो जायेगी और क़ालीन या दरी और लिबास वग़ैरा को पाक करने के लिए उसे निचोड़ना और मलना या पैर से रग़ड़ना ज़रूरी नहीं है और अगर बदन या लिबास पेशाब से नजिस हो गया हो तो उसे कुर पानी में भी दो बार धोना लाज़िम है।
(161) अगर पेशाब से नजिस हुई, किसी चीज़ को क़लील पानी से पाक करना हो तो इस पर एक बार इस तरह पानी डाला जाये कि पेशाब उस चीज़ में बाक़ी न रहे, तो वह चीज़ पाक हो जायेगी। अलबत्ता लिबास और बदन को पाक करने के लिए उन पर पर दो बार पानी डालना ज़रूरी है, लेकिन जहाँ तक लिबास, क़ालीन, दरी और उन से मिलती जुलती चीजों का तअल्लुक़ है उन्हें एक बार पानी डालने के बाद निचोड़ना चाहिए ताकि उनमें से ग़ुसाला निकल जाये। (ग़ुसाला उस पानी को कहते हैं जो किसी धोई जाने वाली चीज़ से धुलने के दौरान या धुल जाने के बाद ख़ुद बखुद या निचौड़ने से निकलता है।)
(162) जो चीज़, ऐसे शीरख़ार लड़के या लड़की के पेशाब से नजिस हुई हो, जिसने दूध के अलावा कोई दूसरी ग़िज़ा खाना शुरू न की हो और अहतियात की बिना पर वह दो साल का न हुआ हो, तो अगर उस चीज़ पर एक बार इस तरह पानी डाला जाये कि तमाम नजिस मक़ामात पर पहुँच जाये तो वह चीज़ पाक हो जायेगी। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस पर दो बार पानी डाला जाये, क़ालीन और दरी वग़ैरा को निचोड़ना ज़रूरी नहीं।
(163) अगर कोई चीज़, पेशाब के अलावा किसी दूसरी निजासत से नजिस हो जाये तो पहले उससे उस निजासत को दूर किया जाये बाद में उस पर एक बार क़लील पानी डाला जाये, जब वह पानी बह जाये तो वह चीज़ पाक हो जायेगी। अलबत्ता लिबास और उससे मिलती जुलती चीज़ों को निचौड़ लेना चाहिए ताकि उनके अन्दर का पानी निकल जाये।
(164) अगर किसी नजिस चटाई को जो धागों से बनी हुई हो कुर या जारी पानी में डुबो दिया जाये तो ऐन निजासत दूर होने को बाद वह पाक हो जायेगी लेकिन अगर उसे क़लील पानी से धोया जाये तो जिस तरह भी मुमकिन हो उसका निचौड़ाना ज़रूरी है (चाहे उसमें पानी ही क्यों न चालाने पड़ें) ताकि उसका धोवन अलग हो जाये।
(165) अगर गंदुम, चावल, साबुन वग़ैरा का ऊपर वाला हिस्सा नजिस हो जाये तो वह कुर या जारी पानी में डुबोने से पाक हो जायेगा, लेकिन अगर उनका अन्दरूनी हिस्सा नजिस हो जाये तो वह इस सूरत में ही पाक हो सकती हैं जब कुर या जारी पानी उन चीज़ों के अन्दर तक पहुँच जाये और पानी मुतलक़ ही रहे। लेकिन ज़ाहिर यह है कि साबुन और इससे मिलती जुलती चाज़ों के अन्दर आबे मुतलक़ बिल्कुल नहीं पहुँचता।
(166) अगर किसी इंसान को इस बारे में शक हो कि नजिस पानी साबुन के अन्दुरूनी हिस्से तक पहुँचा है या नहीं तो वह हिस्सा पाक होगा।
(167) अगर चावल या गोशत या ऐसी ही किसी चीज़ का ज़ाहरी हिस्सा नजिस हो जाये, तो किसी पाक बर्तन में रख़कर उस पर एक बार पानी डालने और फिर फेंक देने के बाद वह चीज़ पाक हो जाती है और अगर किसी नजिस बर्तन में रखें तो यह काम तीन बार अंजाम देना ज़रूरी है और इस सूरत में वह बर्तन भी पाक हो जायेगा। लेकिन लिबास या किसी दूसरी ऐसी चीज़ को बर्तन में डाल कर पाक करना मक़सूद हो जिसका निचोड़ना लाज़िम है, तो जितनी बार उस पर पानी डाला जाये उतनी ही बार उसे निचोड़ना भी ज़रूरी है और बर्तन को उलट देना चाहिए ताकि जो धोवन उसमें जमा हो गया हो वह बह जाये।
(168) अगर किसी ऐसे नजिस लिबास को जिसे नील या उस जैसी किसी चीज़ से रंगा गया हो, कुर या जारी पानी में डुबो दिया जाये और कपड़े के रंग की वजह से पानी मुज़ाफ़ होने से पहले सब ज़गह पहुँच जाये तो वह लिबास पाक हो जायेगा और अगर उसे क़लील पानी से धोया जाये और निचोड़ने पर उसमें से मुज़ाफ़ पानी न निकले तो वह लिबास पाक हो जायेगा।
(169) अगर कपड़े को कुर या जारी पानी में धोया जाये और कपड़े में काई वग़ैरा नज़र आये तो अगर यह एहतेमाल न हो कि यह कपड़े के अंदर पानी के पहुँचने में रुकावट बनी है तो वह कपड़ा पाक है।
(170) जब तक ऐने निजासत किसी चीज़ से अलग न हो वह पाक पाक नही होगी लेकिन अगर बू या निजासत का रंग उसमें बाक़ी रह जाये तो कोई हरज नहीं। लिहाज़ा अगर लिबास पर से ख़ून को हटाने के बाद उसे धोलिया जाये तो अगर ख़ून का रंग लिबास पर बाक़ी भी रह जाये तो लिबास पाक होगा। लेकिन अगर बू या रंग की वजह से यह यक़ीन या एहतेमाल पैदा हो कि निजासत के ज़र्रे उसमें बाक़ी रह गये हैं तो वह नजिस माना जायेगा।
(171) अगर कुर या जारी पानी में बदन से निजासत दूर कर ली जाये, तो बदन पाक हो जाता है। लेकिन अगर बदन पेशाब से नजिस हुआ हो तो इस सूरत में एक बार में पाक नहीं होगा। लेकिन पानी से निकल आने के बाद दोबारा उसमें दाख़िल होना ज़रूरी नहीं है बल्कि अगर पानी के अंदर ही बदन पर हाथ फेरले कि पानी दो बार बदन तक पहुँच जाये तो काफ़ी है।
(172) अगर दाँतों की रीख़ों में नजिस ग़िज़ा रह जाये, तो अगर मुँह में पानी भर कर उसको अन्दर ही अन्दर इस तरह घुमाया जाये कि वह उस ग़िज़ा में हर जगह पहुँच जाये तो वह पाक हो जायेगी।
(173) अगर सिर व सूरत के बालों को क़लील पानी से पाक किया जाये और वह बाल घने न हो तो उनसे पानी निकालने के लिए उन्हें निचोड़ना ज़रूरी नहीं है, क्योंकि आम तौर पर उनसे पानी ख़ुदबख़ुद जुदा हो जाता है।
(174) अगर बदन या लिबास का कोई हिस्सा क़लील पानी से धोया जाये तो नजिस मक़ाम के पाक होने से उस मक़ाम से मुत्तसिल वह ज़गहें भी पाक हो जायंगी जिन तक धोते वक़्त आम तौर पर पानी पहुँच जाता है। मतलब यह है कि नजिस मक़ाम के अतराफ़ को अलग धोना ज़रूरी नहीं बल्कि वह नजिस मक़ाम को धोने के साथ ही पाक हो जाते हैं और अगर एक पाक चीज़ एक नजिस चीज़ के बराबर रख दें और दोनों पर पानी डालें तो उस का भी यही हुक्म है। लिहाज़ा अगर एक नजिस उंगली को पाक करने के लिए सब उंगलियों पर पानी डालें और नजिस और पाक पानी सब उंगलियों तक पहुँच जाये तो नजिस उंगली के पाक होने के साथ साथ तमाम उंगलियां पाक हो जायेगीं।
(175) अगर गोश्त या चिकनाई नजिस हो जाये तो उन्हें आम चीज़ों की तरह ही पाक किया जायेगा और उस लिबास को भी इसी तरह पाक किया जायेगा जिस पर थोड़ी सी चर्बी लगी हो और वह कपड़े तक पानी पहुँचने में रुकावट न हो।
(176) अगर बर्तन या बदन नजिस होने के बाद इतना चिकना हो जाये कि उस तक पानी न पहुँच सके और बर्तन या बदन को पाक करना हो तो पहले उनसे चिकनाई दूर करनी चाहिए ताकि पानी उन तक पहुँच सके बाद मे उन्हे पाक किया जाये।
(177) जो नल कुर पानी से मुत्तसिल हो वह कुर पानी का हुक्म रखता है।
(178) अगर किसी चीज़ को पाक करने के बाद यह यक़ीन हो जाये कि वह पाक हो गई है, और बाद में यह शक पैदा हो कि उससे ऐने निजासत को दूर किया है या नहीं तो ज़रूरी है कि उसे दोबारा पाक किया जाये और उससे ऐने निजासत के दूर होने का यक़ीन कर लिया जाये।
(179) वह ज़मीन जिसमें पानी जज़ब हो जाता है मसलन ऐसी ज़मीन जिसकी ऊपरी सतह पर रेत या बजरी हो, अगर नजिस हो जाये तो क़लील पानी से पाक हो जाती है।
(180) अगर वह सख़्त ज़मीन जिसमें पानी जज़ब न होता हो या वह ज़मीन जिस पर पत्थर या ईंटों का फ़र्श हो, नजिस हो जाये तो क़लील पानी से पाक हो सकती है लेकिन ज़रूरी है कि उस पर इतना पानी डाला जाये कि वह उस पर बहने लगे, जो पानी उस पर डाला जाये अगर वह किसी सुराख़ से बाहर न निकल सके और किसी जगह जमा हो जाये तो उस जगह को पाक करने का तरीक़ा यह है कि जमा शुदा पानी को कपड़े या बर्तन से बाहर निकाल दिया जाये।
(181) अगर नमक का डला या उस जैसी कोई और चीज़ ऊपर से नजिस हो जाये तो क़लील पानी से पाक हो सकती है।
(182) अगर नजिस शकर से क़ंद बाना लें और उसे कुर या जारी पानी में डाल दें तो वह पाक नहीं होगा।
2- ज़मीन
(183) ज़मीन पैर के तलवे और जूते के निचले हिस्से को चार शर्तों के साथ पाक करती है।
(1) यह कि ज़मीन पाक हो।
(2) एहतियात की बिना पर ज़मीन ख़ुश्क हो।
(3) एहतियाते लाज़िम की बिना पर निजासत ज़मीन पर चलने से लगी हो।
(4) अगर ऐने निजासत जैसे ख़ून व पेशाब या मुतनज्जिस चीज़ जैसे नजिस गारा, पैर के तलवे या जूते के निचले हिस्से में लगी हो वह रास्ता चलने से या पैर ज़मीन पर रगड़ने से दूर हो जाये तो पैर या जूते का तलवा पाक हो जायेगा। लेकिन अगर पैर या जूते के तलवे से ऐने निजासत ज़मीन पर चलने या ज़मीन पर रग़ने से पहले दूर हो गई हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़मीन से पाक नहीं होंगे। यह भी ज़रूरी है कि जिस ज़मीन पर चला जाये उसके ऊपरी हिस्से पर मिट्टी, पत्थर, ईंटों का फ़र्श या उन से मिलती जुलती कोई और चीज़ हो, क़ालीन, दरी चटीई और घास आदि पर चलने से पैर या जूते का नजिस का तलवा पाक नहीं होता।
(184) अगर पैर का तलवा या जूते का निचला हिस्सा नजिस हो, तो डामर या लकड़ी के बने हुए फ़र्श पर चलने से उनका पाक होना मुश्किल है।
(185) पैर के तलवे या जूते के निचले हिस्से को पाक करने के लिए बेहतर है कि पंद्रह हाथ या उससे ज़्यादा फ़ासिला ज़मीन पर चले चाहे पंद्रह हाथ से कम चलने या पैर ज़मीन पर रगड़ने से निजासत दूर हो गई हो।
(186) ज़रूरी नहीं है कि पैर या जूते का नजिस तलवा तर ही हो बल्कि अगर ख़ुश्क भी हों तो ज़मीन पर चलने से पाक हो जाते हैं।
(187) जब पैर या जूते का नजिस तलवा, ज़मीन पर चलने से पाक हो जाये तो उसके अतराफ़ के वह हिस्से भी जिन्हें आम तौर पर कीचड़ वग़ैरा लग जाती है पाक हो जाते हैं।
(188) अगर कोई इंसान हाथ की हथेलियों और घुटनों के बल चलता हो और उसका घुटना या हथेली नजिस हो जाये, तो ज़मीन पर चलने से उसकी हथेली या घुटने का पाक होना मुश्किल है। यही सूरत लाठी और मसनूई टांग के निचले हिस्से, चौपायों के नाल, मोटर गाडियों वग़ैरह के पहिय्यों की है।
(189) अगर ज़मीन पर चलने के बाद निजासत की बू या रंग या वह बारीक ज़र्रे जो नज़र न आते हों पैर या जूते के तलवे से लगे रह जायें, तो कोई हरज नहीं है अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़मीन पर इतना चला जाये कि वह भी ख़त्म हो जायें।
(190) जूते का अंदरूनी हिस्सा ज़मीन पर चलने से पाक नहीं होता और ज़मीन पर चलने से मोज़े के निचले हिस्से का पाक होना भी मुश्किल है। लेकिन अगर मोज़े का निचला हिस्सा चमड़े या चमड़े से मिलती जुलती किसी चीज़ से बना हो तो वह ज़मीन पर चलने से पाक हो जायेगा।
3- सूरज
(191) सूरज- ज़मीन, इमारत और दीवार को इन पाँच शर्तों के साथ पाक करता है।
(1) नजिस चीज़ इस तरह तर हो कि अगर दूसरी चीज़ उससे लग जाये तो तर हो जाये। लिहाज़ा अगर वह चीज़ ख़ुश्क हो तो उसे किसी तरह तर कर लेना चाहिए ताकि धूप से ख़ुश्क हो।
(2) अगर किसी चीज़ में ऐन निजासत हो तो धूप से ख़ुश्क करने से पहले उस चीज़ से निजासत को दूर कर लिया जाये।
(3) कोई चीज़ धूप में रकावट न डाले। अगर धूप परदे, बादल या ऐसी ही किसी चीज़ के पाछे से नजिस चीज़ पर पड़े और उसे ख़ुश्क करदे तो वह चीज़ पाक नहीं होगी। अलबत्ता अगर बादल इतना हलका हो कि धूप को न रोके तो कोई हरज नहीं है।
(4) सूरज तनहा नजिस चीज़ को ख़ुश्क करे। लिहाज़ा अगर नजिस चीज़ हवा और धूप से ख़ुश्क हो तो पाक नहीं होगी। हाँ अगर हवा इतनी हलकी हो कि यह न कहा जा सके कि नजिस चीज़ को ख़ुश्क करने में उसने भी कोई मदद की है तो फ़िर कोई हरज नहीं।
(5) इमारत की बुनियाद या वह हिस्से जो नजिस हो गये है, वह धूप से एक ही बार में ख़ुश्क हों। लिहाज़ा अगर धूप एक बार नजिस ज़मीन या इमारत पर पड़े और उसके ऊपरी हिस्सा को ख़ुश्क कर दे और दूसरी बार उसके अन्दरूनी हिस्से को ख़ुश्क करे, तो उसका ऊपरी हिस्सा तो पाक हो जायेगा लेकिन अन्दरूनी हिस्सा नजिस रहेगा।
(192) सूरज, नजिस चटाई को पाक कर देता है लेकिन अगर चटाई धागे से बनी हुई हो तो धागों का पाक होना मुश्किल है। इसी तरह घास दरख़्तों, दरवाज़ों और ख़िड़कियों का सूरज के ज़रिये पाक होना मुश्किल है।
(193) अगर धूप नजिस ज़मीन पर पड़े, उसके बाद शक हो कि धूप पडते वक़्त ज़मीन तर थी या नहीं, या उसकी तरी धूप के ज़रिये ख़ुश्क हुई या नहीं, तो वह ज़मीन नजिस होगी। और अगर शक पैदा हो कि धूप पड़ने से पहले ऐने निजासत ज़मीन पर से हटा दी गई थी या नहीं, या यह कि कोई चीज़ धूप को माने थी या नहीं, तो फ़िर भी यही सूरत होगी (यानी ज़मीन नजिस रहेगी)।
(194) अगर धूप नजिस दीवार की एक तरफ़ पड़े और उसके ज़रिये दीवार उस तरफ़ से भी ख़ुश्क हो जाये जिस पर धूप नहीं पड़ी, तो बईद नहीं की दिवार दोनों तरफ़ से पाक हो जाये।
4- इस्तेहाला
(195) अगर किसी नजिस चीज़ की जिन्स इस तरह बदल जाये कि वह एक पाक चीज़ की शक्ल इख़्तियार कर ले तो वह पाक हो जाती है। मिसाल को तौर पर अगर नजिस लकड़ी जल कर राख हो जाये, या कुत्ता नमक की खान में गिर कर नमक बन जाये तो वह पाक होगें। लेकिन अगर किसी नजिस की जिन्स न बदले, मसलन नजिस गेहूँ को पीस कर आटा बना लिया जाये या नजिस आटे की रोटी बना ली जाये तो वह पाक नहीं होगी।
(196) मिट्टी का लोटा या कोई दूसरी ऐसी चीज़ जो नजिस मिट्टी से बनाई जायें नजिस हैं। लेकिन वह कोयला जो नजिस लकड़ी से तैयार किया जाये अगर उसमें लकड़ी की कोई ख़ासियत बाक़ी न रहे तो वह पाक है।
(197) ऐसी नजिस चीज़ जिसके बारे में इल्म न हो कि आया उसका इस्तेहाला हुआ या नहीं (यानी जिन्स बदली है या नहीं) नजिस है।
5- इंक़िलाब
(198) अगर शराब ख़ुदबख़ुद या किसी चीज़ के मिलाने से, मसलन नमक मिलाने से सिरका बन जाये तो पाक हो जायेगी है।
(199) वह शराब जो नजिस अँगूर या उस जैसी किसी दूसरी चीज़ से तैयार की गई हो या कोई दूसरी निजासत शराब में गिर जाये तो वह शराब सिरका बन जाने पर पाक नहीं होगी।
(200) नजिस अंगूर, नजिस किशमिश और नजिस खज़ूर से जो सिरका तैयार किया जाये, वह नजिस है।
(201) अगर अंगूर या ख़जूर के डंठल भी उनके साथ हों और उनसे सिरका तैयार किया जाये तो कोई हरज नहीं बल्कि अगर उनके साथ खीरे और बैगन वग़ैरा भी डालें जाये तो कोई हरज नहीं है, चाहे उन्हें अंगूर या खजूर सिरका बनने से पहले ही डाल दिया जाये, इस शर्त के साथ कि सिरका बनने से पहले उनमें नशा न पैदा हुआ हो।
(202) अगर अंगूर के रस में, आंच पर रखने से या ख़ुद बख़ुद जोश आ जाये तो वह हराम हो जाता है और अगर वह उतना उबल जाये कि उसका दो तिहाई हिस्सा कम हो जाये और एक बाक़ी रह जाये तो हलाल हो जाता है और मसला (214) में बताया जा चुका है कि अंगूर का रस जोश देने से नजिस नहीं होता।
(203) अगर अंगूर के रस का दो तिहाइ बग़ैर जोश में आये कम हो जाये और जो बाक़ी बचे उसमें जोश आ जाये तो अगर लोग उसे अंगूर का रस कहें, शीरा न कहें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह हराम है।
(204) अगर अंगूर के रस के बारे में मालूम न हो कि जोश में आया है या नहीं तो वह हलाल है। लेकिन अगर जोश में आ जाये और यह यक़ीन न हो कि उसका दो तिहाई कम हुआ है, तो वह हलाल नहीं होगा।
(205) अगर कच्चे अंगूर के गुच्छे में कुछ पक्के अंगूर भी हों और उस गुच्छे से निकले हुए रस को लोग अंगूर का रस न कहें, तो अगर उसमें जोश आ जाये तो उसका पीना हलाल है।
(206) अगर अंगूर का एक दाना किसी ऐसी चीज़ में गिर जाये जो आग पर जोश खा रहीं हो और वह भी जोश खाने लगे, तो अगर वह फट कर उस चीज़ में न मिल हो तो फ़क़त उस दाने का खाना हराम है।
(207) अगर कुछ देग़ों में शीरा पकाया जा रहा हो तो जो चमचा जोश में आई हुई देग़ में ड़ाला जा चुका हो, उसको ऐसी देग़ में डालना भी जायज़ है जिसमें अभी जोश न आया हो।
(208) जिस चीज़ के बारे में यह मालूम न हो कि वह कच्चे अंगूरों का रस है या पक्के अंगूरों का, अगर उसमें जोश आ जाये तो वह हलाल है।
6- इंतेक़ाल
(209) अगर इंसान या ख़ूने जहिन्दादार हैवान का ख़ून, कोई ऐसा हैवान जिसमें आम तौर पर ख़ून नहीं होता, इस तरह चूसले कि वह ख़ून उस हैवान के बदन का जुज़ हो जाये, मसलन जिस तरह मच्छर, इंसान या हैवान के बदन का ख़ून चूसले, तो वह ख़ून पाक हो जाता है और उसे इंतेक़ाल कहते हैं। लेकिन इलाज़ की ग़रज़ से इंसान का जो ख़ून, जोंक चूसती है वह जोंक के बदन का जुज़ नहीं बनता बल्कि इंसानी ख़ून ही रहता है इस लिए वह नजिस है।
(210) अगर कोई इंसान अपने बदन पर बैठे मच्छर को मार दे और वह ख़ून जो मच्छर ने चूसा हो उसके बदन से निकले तो ज़ाहिर यह है कि वह ख़ून पाक है, क्योंकि वह ख़ून इस क़ाबिल था कि मच्छर की ग़िज़ा बन जाये चाहे मच्छर के ख़ून चूसने और मारे जाने के बीच थोड़ा ही फ़ासला हो। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि इस ख़ून से इस हालत में परहेज़ किया जाये।
7- इसलाम
(211) अगर कोई काफ़िर शहादतैन पढ़ले यानी किसी भी ज़बान में अल्लाह की वहदानियत और ख़ातेमुल अम्बिया हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स0) की नबूवत की गवाही दे, तो मुसलमान हो जाता है। अगरचे वह मुसलमान होने से पहले नजिस के हुक्म में था लेकिन मुसलमान हो जाने के बाद उसका बदन, थूक, नाक का पानी और पसीना पाक हो जाता है । लेकिन मुसलमान होने के वक़्त अगर उसके बदन पर कोई ऐने निजासत हो तो उसे दूर करना और उस मक़ाम को पानी से पाक करना ज़रूरी है। बल्कि अगर मुसलमान होने से पहले ही ऐने निजासत दूर हो चुकी हो तब भी एहतियाते वाजिब यह है कि उस मक़ाम को पानी से पाक किया जाये।
(212) एक काफ़िर के मुसलमान होने से पहले अगर उसका गीला लिबास उसके बदन से छू गया हो तो चाहे उसके मुसलमान होने के वक़्त वह लिबास उसके बदन पर हो या न हो, एहतियाते वाजिब की बिना पर उससे परहेज़ करना ज़रूरी है।
(213) अगर काफ़िर शहादतैन पढ़ले और यह मालूल न हो कि वह दिल से मुसलमान हुआ है या नहीं तो वह पाक है और अगर यह इल्म हो कि वह दिल से मुसलमान नहीं हुआ है लेकिन ऐसी कोई बात उससे ज़ाहिर न हुई हो जो तौहीद और रिसालत की गवाही के ख़िलाफ़ हो, तो तब भी यही सूरत है। (यानी वह पाक है।)
8- तबइयत
(214) तबइयत का मतलब यह है कि कोई नजिस चीज़ किसी दूसरी चीज़ के पाक होने की वजह से पाक हो जाये।
(215) अगर शराब सिरका हो जाये तो उसका बर्तन भी उस जगह तक पाक हो जाता है जहाँ तक शराब जोश खाकर पहुँची हो और अगर कपड़ा या कोई दूसरी चीज़ जो आम तौर पर उस (शराब के बर्तन ) पर रखी जाती हो और उससे नजिस हो गई हो, तो वह भी पाक हो जाती है लेकिन अगर बर्तन का बाहरी हिस्सा उस शराब से सन गया हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि शराब के सिरका हो जाने के बाद बर्तन के उस बाहरी हिस्से से परहेज़ किया जाये।
(216) काफ़िर का बच्चा तबीयत के ज़रिये दो सूरतों में पाक हो जाता है।
(1) अगर काफ़िर मर्द मुसलमान हो जाये तो उसका बच्चा तहारत में उसके ताबे है। और इसी तरह अगर बच्चे की माँ या दादी या दादा मुसलमान हो जायें तब भी यही हुक्म है। लेकिन इस सूरत में बच्चे की तहारत का हुक्म इस शर्त के साथ है कि बच्चा उस नये मुसलिम के साथ और उसके ज़ेरे किफ़ालत हो, और उस बच्चे का कोई सबसे नज़दीक का काफ़िर रिशतादार, उस बच्चे के साथ न हो।
(2) वह काफ़िर बच्चा जिसे किसी मुसलमान ने क़ैद कर लिया और उस बच्चे के बाप या बुज़ुर्ग (दादा या नाना वग़ैरा) में से कोई एक भी उसके साथ न हो। इन दोनों सूरतों में बच्चे के तबइयत की बिना पर पाक होने की शर्त यह है कि वह मुमय्यज़ होने की सूरत में अपने आपको काफ़िर ज़ाहिर न करे।
वह तख़ता या सिल जिस पर मय्यित को ग़ुस्ल दिया जाये और वह कपड़ा जिससे मय्यित की शर्मगाह को ढका जाये और ग़स्साल (ग़ुस्ल देने वाला) के हाथ ग़ुस्ल मुकम्मल होने के बाद पाक हो जाते हैं।
(219) अगर कोई इंसान किसी चीज़ को पोनी से पाक करे तो उस चीज़ के पाक होने पर उस इंसान का वह हाथ भी पाक हो जाता है जिससे उस चीज़ को पाक किया है।
(220) अगर लिबास या उस जैसी किसी दूसरी चीज़ को क़लील पानी से धोया जाये और उसका पानी निकालने के लिए उसे इतना निचोड़ा दिया जाये जितना आम तौर पर निचोड़ा जाता है, तो जो पानी उसमें बाक़ी रह जाये, वह पाक है।
(221) अगर नजिस बर्तन को क़लील पानी से पाक किया जाये, तो जो पानी बर्तन को पाक करने के लिए उस पर डाला जाता है, उसके बह जाने के बाद जो मामूली सा पानी उसमें बाक़ी रह जाता है वह पाक है।
9- ऐने निजासत का दूर हो जाना
(222) अगर किसी हैवान का बदन ऐने निजसात मसलन ख़ून या नजिस शुदा चीज़ मसलन नजिस पानी से भीग जाये तो उस निजासत के दूर हो जाने के बाद हैवान का बदन पाक हो जाता है। यही सूरत इंसानी बदन के अन्दरूनी हिस्सों की भी है मिसाल के तौर पर अगर मुँह ,नाक और कान के अन्दरूनी हिस्से में बाहर से कोई निजासत लग जाये तो वह नजिस हो जायेंगे, लेकिन जैसे ही वह निजासत दूर हो जायेगी, वह खुद ब ख़ुद पाक हो जायेंगे। लेकिन दाख़ली निजासत की वजह से अन्दरूनी हिस्से नजिस नहीं होते जैसे अगर मसूड़ों से खून निकले तो वह मुँह के अन्दरूनी हिस्से को नजिस नही करता। इसी तरह अगर कोई बाहरी चीज़ बदन के दाखली हिस्से में किसी नजिस चीज़ से मिल जाये तो वह नजिस नही होती, इस बिना पर अगर मसनूई दाँत पर क़ुदरती दाँतों के मसूड़ों से निकला हुआ ख़ून लग जाये तो उन दाँतों को पाक करना लाज़िम नहीं है। लेकिन अगर उन मसनूई दाँतों को नजिस ग़िज़ा लग जाये तो उनका पाक करना लाज़िम है।
(223) अगर दाँतों की दरारों में ग़िज़ा लगी रह जाये और फ़िर मुँह के अन्दर खून निकल आये तो वह ग़िज़ा ख़ून से मिलने से नजिस नहीं होगी।
(224) होँटों और आँख की पलकों के वह हिस्से जो बंद करते वक़्त एक दूसरे से मिल जाते हैं वह अन्दरूनी हिस्से के हुक्म में आते हैं। अगर उस अन्दरूनी हिस्से में बाहर से कोई निजासत लग जाये तो उस अन्दरूनी हिस्से को पाक करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन बदन के वह हिस्से जिनके बारे में इंसान को यह शक हो कि यह अन्दरूनी हिस्सा है या बाहरी, तो अगर उनमें बाहर से कोई निजासत लग जाये तो उन्हें पाक करना चाहिए।
(225) अगर कपड़े, ख़ुश्क क़ालीन, दरी या ऐसी ही किसी चीज़ को नजिस मिट्टी लग जाये और कपड़े वग़ैरा को यूँ झाड़ा दिया जाये कि उससे नजिस मिट्टी अलग हो जाये, तो अगर बाद में कोई चीज़ कपड़े वग़ैरा को छू जाये, तो वह चीज़ नजिस नहीं होगी।
10- निजासात खाने वाले हैवान का इस्तबरा
(226) जिस हैवान को इंसानी निजासत खाने की आदत पड़ गई हो, उसका पेशाब पाख़ाना नजिस है और अगर उसे पाक करना मक़सूद हो तो उसका इस्तबरा करना ज़रुरी है। यानी एक अर्से तक उसे निजासत न खाने दें और पाक ग़िज़ा दें हत्ता कि इतनी मुद्दत गुज़र जाये की फिर उसे निजासत खाने वाला न कहा जा सके और एहतियाते मुसहब की बिना पर निजासत खाने वाले ऊँट को चालीस दिन तक, गाय को बीस दिन तक, भेड़ को दस दिन तक, मुर्गी को सात या पाँच दिन तक और पालतू मुर्ग़ी को तीन दिन तक निजासत खाने से रोके रखा जाये। अगरचे यह मुद्दत गुज़रने से पहले ही उन्हें निजासत खाने वाले हैवान न कहा जा सके (तब भी उस मुद्दत तक उन्हें निजासत खाने से रोके रखा जाये।
11- मुसलमान का ग़ायब हो जाना
(227) अगर बालिग़ और पाक व ना पाक की समझ रखने वाले मुसलमान का बदन या दूसरी चीज़े ,मसलन बर्तन और दरी वग़ैरा जो उसके इस्तेमाल में हों, नजिस हो जायें और फिर वह वहाँ से चला जाये तो अगर कोई इंसान यह समझे कि उसने यह चीज़ें पाक की हैं तो वह पाक होगीं लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उनको पाक न समझे मगर नीचे लिखीं कुछ शर्तों के साथ वह पाक है।
(1) जिस चीज़ ने उस मुसलमान के लिबास को नजिस किया हो वह उसे नजिस समझता हो। लिहाज़ा अगर मिसाल के तौर पर उसका लिबास तर हो और काफ़िर के बदन से छू गया हो और वह उसे नजिस समझता हो तो उसके चले जाने के बाद उसके लिबास को पाक नहीं समझना चाहिए।
(2) उसे इल्म न हो कि उसका बदन या लिबास नजिस चीज़ से लग गया है।
(3) कोई इंसान, उसे उस चीज़ को ऐसे काम में इस्तेमाल करते हुए देखे जिसमें उसका पाक होना ज़रूरी हो, मसलन उसे उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ते हुए देखे।
(4) इस बात का एहतेमाल हो कि वह मुसलमान उस चीज़ के साथ जो काम कर रहा है उसके बारे में उसे इल्म है कि इस काम के लिए उस चीज़ का पाक होना ज़रूरी है। मिसाल के तौर पर अगर वह मुसलमान यह नहीं जानता कि नामाज़ पढ़ने वाले का लिबास पाक होना चाहिए और नजिस लिबास के साथ ही नमाज़ पढ़ा रहा हो तो ज़रूरी है कि इंसान उस लिबास को पाक न समझे।
(5) वह मुसलमान नजिस और पाक चीज़ में फ़र्क़ करता हो। अगर वह मुसलमान नजिस और पाक में लापरवाही करता हो तो ज़रूरी है कि इंसान उस चीज़ को पाक न समझे।
(228) अगर किसी इंसान को यक़ीन या इत्मिनान हो कि जो चीज़ पहले नजिस थी अब पाक हो गयी है या दो आदिल इंसान उसके पाक होने के बारे में गवाही दें और उनकी गवाही उस चीज़ की पाकी का जवाज़ बने तो वह चीज़ पाक है। इसी तरह अगर कोई इंसान जिसके पास कोई नजिस चीज़ हो, वह कहे कि वह चीज़ पाक हो गयी है और वह ग़लत बयान न हो या किसी मुसलमान ने एक नजिस चीज़ को पाक किया हो, चाहे यह मालूम न हो कि उसने उसे ठीक पाक किया है या नहीं, तो वह चीज़ पाक है।
(229) अगर किसी ने एक इंसान का लिबास पाक करने की ज़िम्मेदारी ली हो और वह कहे कि मैंने उसे पाक कर दिया है और उस इंसान को उसके यह कहने से तसल्ली हो जाये तो वह लिबास पाक है।
(230) अगर किसी इंसान की यह हालत हो जाये कि उसे किसी नजिस चीज़ के पाक होने का यक़ीन ही न हो पाता हो तो अगर वह उस चीज़ को इस तरह धो ले जिस तरह दूसरे इंसान किसी नजिस चीज़ को आम तौर पर धोते हैं तो काफ़ी है।
12- मामूल के मुताबिक़ (ज़बीहे के) ख़ून का बह जाना
(231) जैसा कि मसला (98) में बताया गया है कि किसी जानवर को शरई तरीक़े से ज़िबह करने के बाद जब उसके बदन से मामूल के मुताबिक़ (ज़रूरी मिक़दार में) ख़ून निकल जाये, तो जो ख़ून उसके बदन में बाक़ी रह जाता है वह पाक है।
(223) ऊपर मसला नम्बर 231 में बयान किया गया हुक्म एहतियात की बिना पर उस जानवर से मख़सूस है जिसका गोश्त हलाल है। जिस जानवर का गोश्त हराम हो उस पर यह हुक्म जारी नहीं हो सकता। बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि यह हुक्म, हलाल गोश्त जानवर के बदन के उन हिस्सों पर भी जारी नहीं हो सकता जो हराम हैं।
बर्तनों के अहकाम
(233) जो बर्तन कुत्ते, सुअर या मुर्दार के चमड़े से बनाये गये हों उनमें किसी चीज़ का खाना पीना जबकि तरी उसकी निजासत का सबब बनी हो, हराम है। उस बर्तन को वुज़ू और ग़ुस्ल और ऐसे किसी भी दूसरे काम में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए जिसे पाक चीज़ से अंजाम देना ज़रूरी हो और एहतियाते मुस्तहब यह है कि कुत्ते, सुअर और मुर्दार के चमड़े को बर्तनों के अलावा दूसरी चीज़ों में न भी हो इस्तेमाल न किया जाये।
(234) सोने और चाँदी के बरतनों में खाना पीना और एहतियाते वाजिब की बिना पर उनको दूसरे कामों में भी इस्तेमाल करना हराम है। लेकिन उनसे कमरा वग़ैरा सजाने या उन्हें अपने पास रखने में कोई हरज नहीं है, जबकि बेहतर यह है कि इससे भी परहेज़ किया जाये। सजावट या अपने पास रखने के लिए सोने और चाँदी के बर्तन बनाने और उन्हे ख़रीदने व बेचने का भी यही हुक्म है।
(235) अगर इस्तेकान (शीशे का छोटा सा गिलास जिसमें क़हवा पीते हैं) का होलडर सोने या चाँदी से बना हुआ हो, तो अगर उसे बर्तन कहा जाये तो वह सोने, चाँदी के बर्तन के हुक्म में है और अगर बर्तन न कहा जाये तो उसके इस्तेमाल में कोई हरज नहीं है।
(236) जिन बर्तनों पर सोने या चाँदी की पालिश हो, उनके के इस्तेमाल में कोई हरज नहीं है।
(237) अगर जस्त को चाँदी या सोने में मख़लूत करके बर्तन बनाए जाये और जस्त इतनी ज़्यादा मिक़दार में हो कि उस बर्तन को सोने या चाँदी का बर्तन न कहा जाये तो उसके इस्तेमाल में कोई हरज नहीं हैं।
(238) अगर ग़िज़ा सोने या चाँदी के बर्तन में रखी हो और कोई इंसान उसे दूसरे बर्तन में निकाल ले, तो अगर दूसरा बर्तन आम तौर पर पहले बर्तन में खाने का ज़रिया शुमार न हो तो ऐसा करने में कोई हरज नहीं है।
(239) हुक़्क़े के चिलम का सुराख़ वाल ढकना, तलवार या छुरी, चाक़ू का म्यान और क़ुरान मजीद रखने का डब्बा अगर सोने या चाँदी से बने हों तो कोई हरज नहीं है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि सोने चाँदी के बने हुए इत्र दान, सुर्मे दानी और अफ़ीम दीनी को इस्तेमाल न किया जाये।
(240) मजबूरी की हालत में सोने चाँदी के बरतों में, इतना खाने पाने में कोई हरज नहीं जिससे भूक मिट जाये लेकिन उससे ज़्यादा खाना पीना जायज़ नहीं है।
(241) जिसके बर्तन के बारे में यह मालूम न हो कि यह सोने, चाँदी से बना हुआ है या किसी और चीज़ से, तो उसको इस्तेमाल करने में कोई हरज नहीं है।



तहारत के अहकाम
मुतलक़ और मज़ाफ़ पानी
(म.न. 15) पानी या मुतलक़ होता है या मुज़ाफ़। “मुज़ाफ़” वह पानी है जो किसी चीज़ से हासिल किया जाये जैसे तरबूज़ का पानी, गुलाब का अरक़ और उस पानी को भी मुज़ाफ़ कहते हैं जिसमें कोई दूसरी चीज़ मिली हो जैसे गदला पानी जो इस हद तक मटयाल़ा हो कि उसे पानी न कहा जा सके। इनके अलावा जो पानी होता है उसे “मुतलक़” पानी कहते है और मुतलक़ पानी की पाँच क़िस्में हैं।
1- कुर पानी
2- क़लील पानी
3- जारी पानी
4- बारिश कापानी
5- कुवें का पानी
1-कुर पानी-
*(म.न. 16) मशहूर क़ौल की बिना पर कुर इतने पानी को कहते हैं जो एक ऐसे बरतन को भर दे जिसकी लम्बाई ,चौड़ाई और गहराई हर एक साढ़े तीन बालिश्त हो इस तरह कि अगर इनको आपस में गुणा किया जाये तो गुणनफल 42-7/8 बालिश्त होना ज़रूरी है। लेकिन ज़ाहिर यह है कि अगर 36 बालिश्त भी हो तो काफ़ी है। कुर पानी को वज़न के लिहाज़ से मुऐयन करना इशकाल से ख़ाली नही है।
(म.न. 17) अगर कोई चीज़ ऐने नजिस हो जैसे पेशाब, ख़ून या वह चीज़ जो नजस हो गई हो जैसे नजिस कपड़े वग़ैरह ऐसे पानी में गिर जाये जिसकी मिक़दार एक कुर के बराबर हो और वह निजासत पानी की बू, रंग या ज़ायक़ा को बदल दे तो वह पानी नजिस हो जायेगा लेकिन अगर पानी में ऐसी कोई तबदीली न हो तो वह पानी नजिस नही होगा।
(म.न. 18) अगर ऐसे पानी का रंग, बू या जायक़ा जिसकी मिक़दार एक कुर के बराबर हो निजासत के अलावा किसी दूसरी चीज़ की वजह से बदल जाये तो वह पानी नजिस नही होगा।
(म.न. 19) अगर कोई ऐने निजासत जैसे खून ऐसे पानी में गिर जाये जिसकी मिक़दार एक कुर से ज़्यादा हो और वह पानी के रंग ,बू या ज़ायक़े को बदल दे तो ऐसी सूरत में अगर पानी के उस हिस्से की मिक़दार जिस में कोई तबदीली नही हुई है एक कुर से कम है तो वह सारा पानी नजिस हो जायेगा, लेकिन अगर उस हिस्से की मिक़दार एक कुर के बराबर या उससे ज़्यादा है तो सिर्फ़ॉ वह हिस्सा नजिस होगा जिसका रमग, बू या ज़ायक़ा बदल गया है।
(म.न. 20) अगर फ़व्वारे का पानी (यानी वह पानी जो जोश मार कर फ़व्वारे की शक्ल में उछले) ऐसे दूसरे पानी से मिल जाये जिस की मिक़दार एक कुर के बराबर हो तो फ़व्वारे का पानी नजिस पानी को पाक कर देता है। लेकिन अगर नजिस पानी पर फ़व्वारे के पानी का एक एक क़तरा गिरे तो उसे पाक नही करता अलबत्ता अगर फ़व्वारे के सामने कोई चीज़ रख़ दी जाये जिस की वजह से उसका पानी क़तरा क़तरा होने से पहले नजिस पानी से मिल जाये तो नजिस पानी को पाक कर देता है और बेहतर यह है कि फ़व्वारे का पानी नजिस पानी में घुल मिल जाये।
(म.न. 21) अगर किसी नजिस चीज़ को ऐसे नल के नीचे धोयें जो ऐसे (पाक) पानी से मिला हो जिसकी मिक़दार एक कुर के बराबर हो और उस चीज़ का धोवन उस पानी से मिल जाये जिसकी मिक़दार एक कुर के बराबर हो तो वह धोवन पाक होगी इस शर्त के साथ कि उसमें निजासत की बू, रंग या ज़ायक़ा न पाया जाता हो और न ही उसमें ऐले निजासत मिली हो।
(म.न. 22) अगर कुर पानी का कुछ हिस्सा जम कर बर्फ़ बन जाये और कुछ हिस्सा पानी की शक्ल में बाक़ी बच जाये जिसकी मिक़दार एक कुर से कम हो तो जैसे ही कोई निजासत इस पानी मिल जायेगी वह पानी नजिस हो जायेगा और बर्फ़ पिघलने पर जो पानी बनेगा वह भी नजिस होगा।
(म.न. 23) अगर पानी की मिक़दार एक कुर के बराबर हो और बाद में शक पैदा हो कि अब भी कुर के बराबर है या नही तो यह एक कुर पानी ही माना जायेगा यानी वह निजासत को पाक भी करेगा और निजासत से मिलने पर नजिस भी नही होगा। इसके बर ख़िलाफ़ जो पानी एक कुर से कम हो और उसके बारे में शक हो कि अब इस की मिक़दार एक कुर के बराबर हो गई है या नही तो उसे एक कुर से कम ही माना जायेगा। (म.न. 24) पानी का एक कुर के बराबर होना दो तरीक़ों से साबित होता है।
1- इंसान को ख़िद इस बारे में यक़ीन व इतमिनान हो।
2- दो आदिल मर्द यह कहे कि यह पानी कुर है।
2- क़लील पानी
(म.न. 25) क़लील वह पानी कहलाता है जो ज़मीन से न उबल रहा हो और उसकी मिक़दार एक कुर से कम हो।
(म.न. 26) अगर क़लील पानी किसी नजिस चीज़ पर गिरे या कोई नजिस चीज़ इस पर गिर जाये तो पानी नजिस हो जायेगा।
*(म.न. 27) वह क़लील पानी जो किसी चीज़ पर ऐने निजासत को दूर करने के लिए डाला जाये तो वह ऐने निजासत से जुदा होने के बाद नजिस हो जाता है। और इसी तरह वह क़लील पानी जो ऐने निजासत के अलग हो जाने के बाद नजिस चीज़ को पाक करने के लिए उस पर डाला जाये उस चीज़ से जुदा होने के बाद (एहतियाते लाज़िम की बिना पर) मुतलक़न नजिस है।
*(म.न. 28) वह क़लील पानी जिससे पेशाब या पख़ाना ख़ारिज होने की जगह को धोया जाये अगर वह किसी चीज़ को लग जाये तो वह चीज़ इन पाँच शर्तों के साथ
नजिस नही होगी।
1-पानी में निजासत का रंग, बू या जायक़ा मौजूद न हो।
2-बाहर से कोई निजासत इस पानी से न मिल गई हो।
3-कोई और निजासत(जैसे ख़ून) पेशाब या पख़ाने के साथ ख़ारिज न हुई हो।
4-पख़ाने के ज़र्रे पानी में मौजूद न हों।
5-पेशाब या पख़ाना ख़ारिज होने की जगह पर मामूल से ज़्यादा निजासत न लगी हो।
3- जारी पानी
जारी वह पानी कहलाता है जो ज़मीन से उबल कर बहता हो।
(म.न. 29) जारी पानी अगरचे कुर से कम ही क्योँ न हो निजासत से मिलने पर उस वक़्त तक नजिस नही होता जब तक निजासत की वजह से उसका रंग, बू या ज़ायक़ा न बदल जाये।
(म.न.30) अगर कोई निजासत जारी पानी से आमिले तो पानी की उतनी मिक़दार ही नजिस होगी जिसका रंग, बू या ज़ायक़ा निजासत की वजह से बदल जाये। अलबत्ता इस पानी का वह हिस्सा जो चश्में(झरने) से मिला हो पाक है चाहे इसकी मिक़दार कुर से कम ही क्योँ न हो। नद्दी की दूसरी तरफ़ का पानी अगरल एक कुर के बराबर हो या उस पानी के ज़रिये जिसका ( रंग, बू या ज़ायका) न बदला हो चश्में की तरफ़ के पानी से मिला हुआ हो तो पाक है वरना नजिस है।
*(म.न.31) अगर किसी चश्में का पानी बह न रहा हो लेकिन सूरते हाल यह हो कि जब इस में से पानी निकाल लें तो उसका पानी दुबारा उबल पड़ता हो तो वह पानी जारी पानी के हुक्म में नही है। यानी अगर कोई निजासत उससे आ मिले तो वह नजिस हो जाता है।
*(म.न.32) नद्दी या नहर के किनारे का पानी जो रुका हुआ हो और जारी पानी से मिला हो, जारी पानी के हुक्म में नही है।
(म.न.33) अगर एक ऐसा चश्मा हो जो मिसाल के तौर पर सर्दी में उबल पड़ता हो लेकिन गर्मी में उसका जोश ख़त्म हो जाता हो तो वह उसी वक़्त जारी पानी के हुक्म में होगा जब उबलता हो।
(म.न.34) अगर किसी (तुर्की या इरानी तर्ज़ पर बने) हम्मा के छोटे हौज़ का पानी एक कुर से कम हो लेकिन वह ऐसे “वसील-ए- आब” से मिला हो जिसका पानी हौज़ के पानी से मिल कर एक कुर बन जाता हो तो जब तक निजासत के मिल जाने की वजह से उस का रंग, बू या ज़ायक़ा न बदल जाये तो वह नजिस नही होता।
(म.न.35) हम्माम और इमारत के नलकों का पानी जो टोँटियों और शावरों के ज़रिये बहता है अगर उस हौज़ के पानी से मिल कर जो इन नलकों से मुत्तसिल हो एक कुर के बराबर हो जाये तो नलकों का पानी भी कुर पानी के हुक्म में शामिल होगा।
(म.न.36) जो पानी ज़मीन पर बह रहा हो लेकिन ज़मीन से उबल न रहा हो अगर वह एक कुर से कम हो और उसमें कोई निजासत मिल जाये तो वह नजिस हो जायेगा। लेकिन अगर वह तेज़ी से बह रहा हो और निजासत उसके नीचले हिस्से पर लगे तो उसका ऊपर वाला हिस्सा नजिस नही होगा।
4-बारिश का पानी-
*(म.न.37) अगर कोई चीज़ नजिस हो और उसमें ऐने निजासत मौजूद न हो तो उस पर जहाँ जहाँ एक बार बारिश हो जाये वह पाक हो जाती है। लेकिन अगर बदन व लिबास पेशाब से नजिस हो जाये तो एहतियात की बिना पर एन पर दो बार बारिश होना ज़रूरी है। मगर क़ालीन व लिबास वग़ैरह का निचौड़ना ज़रूरी नही है।लेकिन हल्की सी बुन्दा बान्दी काफ़ी नही है बल्कि इतनी बारिश ज़रूरी है कि लोग कहों कि बारिश हो रही है।
*(म.न.38) अगर बारिश का पानी ऐने निजासत पर बरसे और उसकी छाँटे दूसरी जगह पर पड़े अगर उनमें ऐने निजासत मौजूद न हो और निजासत की बू, रंग या ज़ायका भी उसमें न पाया जाता हो तो वह पानी पाक है। बस अगर बारिश का पानी ख़ून पर बरसे और उससे छाँटे बलन्द हों जिन में ख़ून के ज़र्रात शामिल हों या ख़ून की बू, रंग या ज़ायक़ा पाया जाता हो तो वह पानी नजिस है।
(म.न.39) अगर माकान की अनेदरूनी या ऊपरी छत पर ऐने निजासत मौजूद हो तो बारिश के दैरान जो पानी निजासत को छू कर अन्दर टपके या परनाले से गिरे वह पाक है। लेकिन जब बारिश रुक जाये और यह बात मालूम हो कि जो पानी नीचे गिर रहा है वह किसी निजासत को छू कर आ रहा है तो वह पानी नजिस है।
(म.न.40) जिस नजिस ज़मीन पर बारिश बरस जाये वह पाक हो जाती है। और अगर बारिश का पानी बहने लगे और छत के अन्दर उस मक़ाम तक पहुँच जाये जो नजिस है तो छत भी पाक हो जायेगी इस शर्त के साथ कि बारिश जारी हो।
*(म.न.41) नजिस मिट्टी के तमाम अजज़ा तक बारिश का मुतलक़ पानी पहुँच जाये तो मिट्टी पाक हो जायेगी।
*(म.न.42) अगर बारिश का पानी एक जगह पर जमा हो जाये तो जब तक बारिश बरसती रहेगी वह कुर के हुक्म में है चहे वह एक कुर से कम ही क्यों न हो। अगर उसमें कोई नजिस चीज़ धोई जाये और पानी निजासत के रंग, बू, या ज़ायक़े को कबूल न करे तो वह नजिस चीज़ पाक हो जायेगी।
*(म.न.43) अगर नजिस ज़मीन पर बिछे हुए पाक क़ालीन (या दरी) पर बारिश बरसे और उसका पानी बरसने के वक़्त क़ालीन से नजिस ज़मीन पर पहुँच जाये तो क़ालीन भी नजिस नही होगा और ज़मीन भी पाक हो जायेगी।
5-कुँवें का पानी
(म.न.44) एक ऐसे कुँवें का पानी जो ज़मीन से उबलता हो अगर मिक़दार में एक कुर से कम हो निजासत पड़ने से उस वक़ेत तक नजिस नही होगा जब तक उस निजासत से उसका रंग, बू या मज़ा न बदल जाये लेकिन मुस्तहब यह है कि कुछ निजासतों के गिरने पर कुँवे से उतनी मिक़दार में पानी निकाला दें जो मुफ़स्सल किताबों में दर्ज है।
(म.न.45) अगर कोई निजासत कँवें में गिर जाये और उसके पानी की बू, रंग या ज़ायक़ा को बदल दे तो जब कुँवें के पानी में आया हुआ यह बदलाव ख़त्म हो जायेगा तबी पानी पाक हो जायेगा और बेहतर यह है कि यह पानी कुँवे से उबल ने वाले पानी में घुल मिल जाये।
(म.न.46) अगर बारिश का पानी एक गढ़े में जमा हो जाये और उसकी मिक़दार एक कुर से कम हो तो अगर बारिश रुकने के बाद उससे कोई निजासत मिल जाये तो वह नजिस हो जायेगा।
पानी के अहकाम
(म.न.47) मुज़ाफ़ पानी (जिसके माअना मसला न. 15 में बयान हो चुके हैं।) किसी नजिस चीज़ को पाक नही कर सकता। ऐसे पानी से वज़ू और ग़ुस्ल करना भी बातिल है।
*(म.न.48) मुज़ाफ़ पानी अगरचे एक कुर के बराबर ही क्योँ न हो अगर उसमें निजासत का एक ज़र्रा भी गिर जाये तो नजिस हो जाता है।अलबत्ता अगर ऐसा पानी किसी नजिस चीज़ पर ज़ोर से गिरे तो उसका जितना हिस्सा नजिस चीज़ से मिलेगा वह नजिस हो जायेगा और जो हिस्सा नजिस चीज़ से नही मिलेगा वह पाक होगा। मसलन अगर अरक़े गुलाब को गिलाब दान से नजिस हाथ पर छिड़का जाये तो उसका जितना हिस्सा हाथ को लगेगा नजिस होगा और जो हिस्सा हाथ को नही लगेगा वह पाक होगा।
(म.न.49) अगर वह मुज़ाफ़ पानी जो नजिस हो एक कुर पानी या जारी पानी में इस तरह मिल जाये कि उसे मुज़ाफ़ पानी न कहा जा सके तो वह पाक हो जायेगा।
*(म.न.50) अगर एक पानी मुतलक़ था और बाद में उसके बारे में यह मालूम न हो कि मुज़ाफ़ हो जाने की हद तक पहुँचा है या नही तो वह मुतलक़ पानी समझा जायेगा। यानी नजिस चीज़ को पाक करेगा और उससे वज़ू व ग़ुस्ल करना भी सही होगा। लेकिन अगर पानी मुज़ाफ़ था और यह मालूम न हो कि मुतलक़ हुआ या नही तो वह मुज़ाफ़ समझा जायेगा यानी वह किसी नजिस चीज़ को पाक नही करेगा और उस से वज़ू व ग़ुस्ल करना भी बातिल होगा।
*(म.न.51) ऐसा पानी जिसके बारे में यह मालूम न हो कि मतलक़ है मुज़ाफ़, निजासत को पाक नगी करता और उससे वज़ू व ग़ुस्ल करना भी बातिल है। अगर ऐसे पानी से कोई निजासत मिल जाये तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह नजिस हो जायेगा चाहे वह पानी एक कुर के बराबर ही क्यों न हो।
*(म.न.52) ऐसा पानी जिसमें ख़ून या पेशाब जैसी कोई ऐने निजासत गिर जाये और उसके रंग, बू या ज़ायक़े को बदल दे तो वह नजिस हो जाता है । चाहे वह कुर या जारी पानी ही क्योँ न हो। अगर उस पानी की बू, रंग या ज़ायक़ा किसी ऐसी निजासत के सबब बदल जाये जो उससे बाहर हो मसलन क़रीब पड़े हुए मुरदार की वजह से उसकी बू बदल जाये तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह पानी नजिस हो जायेगा।
*(म.न.53) वह पानी जिस में ऐने निजासत मसलन ख़ून या पेशाब गिर जाये और उसके रंग, बू या ज़ायक़े को बदले अगर कुर या जारी पानी से मिल जाये या बारिश का पानी उस पर बरस जाये या हवा की वजह से बारिश का पानी उस पर गिरे या बारिश का पानी उस दौरान जब बारिश हो रही हो परनाले से उस पर गिरे और जारी हो जाये तो इन तमाम सूरतों में अगर उस पानी के रंग बू या ज़ायक़े में आया बदलाव ख़त्म हो जाये तो वह पानी पाक हो जाता है लेकिन क़ौले अक़वा की बिना पर ज़रूरी है कि बारिश का पानी या कुर पानी या जारी पानी उसमें घुल मिल जाये।
(म.न.54) अगर किसी नजिस चीज़ को कुर या जारी पानी में पाक किया जाये तो वह पानी जो बाहर निकलने के बाद इस से टपके पाक होगा।
(म.न.55) जो पानी पहले पाक हो और यह इल्म न हो कि बाद में नजिस हुआ या नही तो वह पाक है। और जो पानी पहले नजिस हो और मालूम न हो कि बाद में पाक हुआ या नही तो वह नजिस है।
(म.न.56) कुत्ते ,सूअर और ग़ैरे किताबी काफ़िर का झूटा बल्कि एहतियाते मुस्तहब की बिना पर किताबी काफ़िर का झूटा भी नजिस है और उसका खाना पीना हराम है। मगर हराम गोश्त जानवर का झूटा पाक है। और बिल्ली के अलावा इस क़िस्म के बाक़ी तमाम जानवरों का झूटा खाना पीना मकरूह है।
तयम्मुम
सात सूरतें ऐसी हैं जिन में वुज़ू और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना चाहिए।
तयम्मुम की पहली सूरत
वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए ज़रूरी मिक़दार में पानी मोहिय्या करना मुमकिन न हो।
(655) अगर इंसान आबादी में हो तो ज़रुरी है कि वुज़ू और ग़ुस्ल के लिए पानी को इस हद तक तलाश करे कि उसके मिलने से नाउम्मीद हो जाये और अगर बयाबान में हो तो ज़रुरी है कि रास्तों में या अपने ठहरने की ज़गह पर या उसके आस पास वाली जगहों पर पानी तलाश करे। अगर वहाँ की ज़मीन ऊँची नीची हो या दरख़तों के ज़्यादा होने की वजह से रास्ता चलने में परेशानी हो, तो एहतियाते लाज़िम यह है कि चारों तरफ़ इतनी दूरी तक पानी तलाश करे जितने फ़ासले पर कमान से फ़ेका हुआ तीर जाता है।[1] लेकिन अगर रास्ता व ज़मीन हमवार हो तो हर तरफ़ दो तीर के फ़ासले के बराबर पानी की तलाश में जाये।
(656) अगर ज़मीन ऐसी हो कि वह कुछ तरफ़ से हमवार हो और कुछ तरफ़ से ना हमवार तो जो तरफ़ हमवार हो उस में दो तीरों के फ़ासले के बराबर और जो तरफ़ ना हमवार हो उस में एक तीर के फ़सले के बराबर पानी तलाश करे।
(657) जिस तरफ़ पानी के न मिलने का यक़ीन हो उस तरफ़ तलाश करना ज़रूरी नहीं है।
(658) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग न हो और पानी हासिल करने के लिए उसके पास वक़्त हो और उसे यक़ीन या इत्मिनान हो कि जितनी दूरी तक पानी तलाश करना ज़रूरी है उससे ज़्यादा दूरी पर पानी मौजूद है, तो उसे चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए वहाँ जाये। लेकिन अगर वहाँ जाना परेशानी का सबब हो या पानी बहुत ज़्यादा दूरी पर हो तो वहाँ जाना लाज़िम नही है और अगर सिर्फ़ पानी के मौजूद होने का गुमान हो तो फिर वहाँ जाना भी ज़रूरी नहीं है।
(659) यह ज़रूरी नहीं है कि इंसान ख़ुद पानी की तलाश में जाये बल्कि वह किसी और एसे इंसान को भेज सकता है जिस के कहने पर उसे इत्मिनान हो और इस सूरत में अगर एक इंसान कई इंसानों की तरफ़ से जाये तो काफ़ी है।
(660) अगर इस बात का एहतेमाल हो कि किसी इंसान के लिए अपने सफ़र के सामान में या पडाव डालने की जगह पर या क़ाफ़िले में पानी मौजूद है तो ज़रूरी है कि इस क़दर जुस्तुजू करे कि उसे पानी के न होने का इत्मिनान हो जाये या उस के मिलने से नाउम्मीद हो जाये।
(661) अगर एक इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले पानी तलाश करे और हासिल न कर पाये और नमाज़ के वक़्त वहीं रहे तो अगर पानी मिलनें का एहतेमाल हो तो एहतियात मुस्तहब यह है कि पानी की तलाश में दोबारा जाये।
(662) अगर कोई इंसान नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद पानी तलाश करे और पानी हासिल न कर पाये और बाद वाली नमाज़ के वक़्त तक उसी ज़गह रहे, तो अगर पानी मिलने का एहतेमाल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा पानी की तालाश में जाये।
(663) अगर किसी इंसान की नमाज़ का वक़्त तंग हो या उसे चोर डाँकू और दरिंदे का ख़ौफ़ हो या पानी की तलाश इतनी कठिन हो कि वह उस परेशानी को बर्दाश्त न कर सके तो इस हालत में पानी की तलाश ज़रूरी नहीं है।
(994) अगर कोई इंसान पानी तलाश न करे यहाँ तक कि नमाज़ का वक़्त तंग हो जाये जबकि अगर वह पानी तलाश करता तो उसे पानी मिल सकता था, तो ऐसा करने पर वह गुनाह का मुरतकिब तो हुआ लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है।
(665) अगर कोई इंसान इस यक़ीन की बिना पर कि उसे पानी नही मिल सकता पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ ले और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो पानी मिल सकता था तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वुज़ू कर के नमाज़ को दोबारा पढ़े।
(666) अगर किसी इंसान को तलाश करने पर पानी न मिले और उससे मायूस हो कर तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ले और नमाज़ पढ़ने के बाद व वक़्त ग़ुज़र से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
(667) जिस इंसान को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त तंग है अगर वह पानी तलाश किये बग़ैर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद व वक़्त ग़ुज़रने से पहले उसे पता चले कि पानी तलाश करने के लिए उसके पास वक़्त था तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह नमाज़ दोबारा पढ़े।
(668) अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने के बाद किसी इंसान का वुज़ू बाक़ी हो और उसे मालूम हो कि अगर उसने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी नही मिलेगा या वह वुज़ू नही कर पायेगा, तो इस सूरत में अगर वह अपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे अपना वुज़ू बातिल नही करना चाहिए। लेकिन ऐसा इंसान यह जानते हुए भी कि ग़ुस्ल न कर पायेगा अपनी बीवी से जिमाअ (संभोग) कर सकता है।
(669) अगर कोई इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले बा वुज़ू हो और उसे मालूम हो कि अगर उस ने अपना वुज़ू बातिल कर दिया तो दोबारा वुज़ू करने के लिए पानी हासिल करना उसके लिए मुमकिन न होगा तो इस सूरत में अगर वह उपना वुज़ू बरक़रार रख सकता हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे बातिल न करे।
(670) जब किसी के पास फ़क़त वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए पानी हो और वह जानता हो कि उसे गिरा देने की सूरत में, और पानी नही मिल सकेगा, तो अगर नमाज़ का वक़्त हो गया हो तो उस पानी को गिराना हराम है और एहतियाते वाजिब यह है कि उस पानी को नमाज़ के वक़्त से पहले भी न गिराये।
(671) अगर कोई इंसान यह जानते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा, नमाज़ का वक़्त हो जाने के बाद अपने वुज़ू को बातिल कर दे या जो पानी उसके पास हो उसे गिरा दे तो अगरचे उस ने (हुक्मे मस्ला के) ख़िलाफ़ काम किया है, मगर तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही होगी, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी करे।
तयम्मुम की दूसरी सूरत:
(672) अगर कोई इंसान बुढ़ापे या कमज़ोरी की वज़ह से या चोर डाकू और जानवर वग़ैरा के ख़ौफ़ से या कुवें से पानी निकालने के वसाइल मयस्सर न होने की वहज से पानी हासिल न कर सकता हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। और अगर पानी मुहिय्या करने या उसे इस्तेमाल करने में उसे इतनी तकलीफ़ उठानी पड़े जो नाक़ाबिले बरदाश्त हो, तो इस सूरत में भी यही हुक्म है। लेकिन आख़री सूरत में अगर तयम्मुम न करे और वुज़ू करे तो उस का वुज़ू सही होगा।
(673) अगर कुवें से पानी निकालने के लिए डोल और रस्सी वग़ैरा ज़रूरी हों और वह इंसान उन्हें ख़रीदने या किराये पर लेने के लिए मज़बूर हो तो चाहे उनकी क़ीमत आम भाव से कई गुना ज़्यादा ही क्यों न हो, उसे चाहिए कि उन्हें हासिल करे। और अगर पानी अपनी असली क़ीमत से महंगा बेचा जा रहा हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर उन चीज़ों के हासिल करने पर इतना ख़र्च होता हो कि उस की जेब इज़ाज़त न देती हो तो फिर उन चीज़ों का हासिल करना वाजिब नहीं है।
(674) अगर कोई इंसान मज़बूर हो कि पानी हासिल करने के लिए क़र्ज़ ले तो क़र्ज़ लेना ज़रूरी है। लेकिन जिस इंसान को इल्म हो या गुमान हो कि वह अपने क़र्ज़े की अदायगी नही कर सकता, उस के लिए क़र्ज़ लेना वाजिब नही है।
(675) अगर कुवाँ खोदने में कोई कठिनाई न हो तो ऐसे इंसान को चाहिए कि पानी हासिल करने के लिए कुवाँ खोदे।
(676) अगर कोई इंसान बग़ैर एहसान रखे कुछ पानी दे तो उसे क़ुबूल कर लेना चाहिए।
तयम्मुम की तीसरी सूरत
(677) अगर किसी इंसान को पानी इस्तेमाल करने से अपनी जान पर बन जाने या बदन में कोई ऐब या मर्ज़ पैदा होने या मौजूदा मर्ज़ के बढ़ जाने या शदीद हो जाने या इलाज मुआलेजा में दुशवारी पैदा होने का ख़ौफ़ हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर पानी के नुक़्सान को किसी तरीक़े से दूर कर सकता हो, मसलन यह कि पानी को गरम करने से नुक़्सान दूर हो सकता हो, तो पानी गरम कर के वज़ु करे और अगर ग़ुस्ल ज़रूरी हो तो ग़ुस्ल करे।
(678) ज़रूरी नहीं कि किसी इंसान को यक़ीन ही हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे है। बल्कि अगर नुक़्सान का एहतेमाल भी हो और यह एहतेमाल आम लोगों की नज़रों में सही हो और इस एहतेमाल की वजह से वह ख़ौफ़ ज़दा हो जाये तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।
(679) अगर कोई इंसान आँखों के दर्द में मुबतला हो और उसके लिए पानी नुक़्सान दे हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे।
(680) अगर कोई इंसान नुक़्सान के यक़ीन या ख़ौफ़ की वजह से तयम्मुम करे और उसे नमाज़ से पहले इस बात का पता चल जाये कि पानी उस के लिए नुक़्सानदेह नही है तो उसका तयम्मुम बातिल है और इस बात का पता नमाज़ के बाद चले तो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।
(681) अगर किसी को यक़ीन हो कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे नही है और वह ग़ुस्ल या वुज़ू कर ले और बाद में उसे पता चले कि पानी उसके लिए नुक़्सान दे था तो उस का वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों बातिल हैं।
तयम्मुम की चौथी सूरत
(682) अगर किसी इंसान को यह ख़ौफ़ हो कि पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर लेने के बाद वह प्यास की वज़ह से बेताब हो जायेगा तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और इस वजह से तयम्मुम के जायज़ होने की तीन सूरतें हैं।
(1) अगर पानी वुज़ू या ग़ुस्ल करने में ख़र्च कर देने की वजह से इस बात का अंदेशा हो कि उसे फ़ौरी तौर पर या बाद में ऐसी प्यास लगेगी जो उसकी हलाकत या बामारी का सबब बनेगी या जिस का बर्दाश्त करना उसके लिए सख़्त तकलीफ़ का बाइस होगा।
(2) उसे ख़ौफ़ हो कि जिन लोगों की हिफ़ाज़त करना उस पर बाज़िब है वह कहीं प्यास से हलाक या बीमार न हो जाये।
(3) अपने अलावा किसी दूसरे की ख़ातिर चाहे वह इंसान हो या हैवान, डरता हो और उसकी हलाकत या बीमारी या बेताबी उसे गरां गुज़रती हो चाहे मोहतरम नुफ़ूस में से हो या ग़ैर मोहतरम नुफ़ूस में से, इन तीनों सूरतों के अलावा किसी और सूरत में पानी होते हुए तयम्मुम करना जायज़ नही है।
(683) अगर किसी इंसान के पास उस पाक पानी के अलावा जो वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए हो, इतना नजिस पानी भी हो जितने की उसे पीने के लिए ज़रूरत हो, तो ज़रूरी है कि पाक पानी पीने के लिए रख ले और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर पानी उसके साथियों के पीने के लिए दरकार हो तो वह पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल कर सकता है,चाहे उसके साथी प्यास बुझाने के लिए नजिस पानी पीने पर ही मज़बूर हों। बल्कि अगर वह लोग उस पानी के नजिस होने के बारे में न जानते हों या इसी तरह निज़ासत से परहेज़ न करते हों तो लाज़िम है कि पाक पानी को वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए सर्फ़ करे, और इसी तरह अगर पानी अपने किसी जानवर या ना बालिग़ बच्चे को पिलाना चाहे तब भी ज़रूरी है कि उन्हें वह नजिस पानी पिलाये और पाक पानी से वुज़ू या ग़ुस्ल करे।
तयम्मुम की पाँचवीं सूरत
(684) अगर किसी इंसान का बदन या लिबास नजिस हो और उसके पास बस इतना ही पानी हो कि अगर उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो बदन या लिबास धोने के लिए न बचता हो, तो ज़रूरी है कि उस पानी से बदन या लिबास धोये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर उसके पास कोई चीज़ ऐसी न हो जिस पर तयम्मुम करे सके, तो ज़रूरी है कि पानी वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए इस्तेमाल करे और नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़े।
तयम्मुम की छटी सूरत
(685) अगर किसी इंसान के पास ऐसे पानी या बरतन के अलावा, (जिसका इस्तेमाल करना हराम हो) कोई और पानी या बरतन न हो। मसलन जो पानी या बरतन उसके पास हो वह ग़स्बी हो और उसके अलावा उसके पास दूसरा कोई पानी या बरतन न हो तो उसे चाहिए कि वुज़ू और ग़ुस्ल के बजाये तयम्मुम करे।
तयम्मुम की सातवीं सूरत
(686) अगर नमाज़ का वक़्त इतना कम रह गया हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल करने पर सारी नमाज़ या उसका कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़े जाने का इमकान हो, तो इस सूरत में तयम्मुम करना ज़रूरी है।
(687) अगर कोई इंसान जान बूझ कर नमाज़ में इतनी देर करे कि वुज़ू या ग़ुस्ल का वक़्त बाक़ी न रहे तो वह गुनाह का मुर्तकिब होगा, लेकिन तयम्मुम के साथ उसकी नमाज़ सही है। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ की क़ज़ा भी बजा लाये।
(688) अगर किसी को शक हो कि अगर वुज़ू या ग़ुस्ल किया गया तो नमाज़ का वक़्त बाक़ी रहेगा या नहीं, तो ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।
(689) अगर किसी इंसान ने वक़्त की तंगी की वज़ह से तयम्मुम किया हो और नमाज़ के बाद वुज़ू कर सकने के बावुज़ूद न किया हो, और जो पानी उसके पास हो वह बर्बाद हो गया हो, और इस सूरत में उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो, तो ज़रूरी है कि आइंदा नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे चाहे वह तयम्मुम जो उस ने किया था बातिल न हुआ हो।
(690) अगर किसी इंसान के पास पानी हो, लेकिन वह वक़्त की तंगी के वजह से तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान जो पानी उसके पास था वह ज़ाय हो जाये और अगर उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाद की नमाज़ों के लिए दोबारा तयम्मुम करे।
(691) अगर किसी के पास इतना वक़्त हो कि वह वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ को उस के मुस्तहब अफ़आ़ल जैसे, इक़ामत और क़ुनूत, के बग़ैर पढ़ सकता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और नमाज़ को उसके मुस्तहब अफ़आ़ल के बग़ैर पढ़े। बल्कि अगर सूराह पढ़ने के लिए भी वक़्त न बचता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल या वुज़ू करे और हम्द के बाद कोई सूरह पढ़े बग़ैर नमाज़ पढ़े।
वह चीज़ें जिन पर तयम्मुम करना सही है
(692) मिट्टी, रेत, ढेले और रोड़ी या पथ्थर पर तयम्मुम करना सही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर मिट्टी मयस्सर हो तो किसी दूसरी चीज़ पर तयम्मुम न किया जाये और अगर मिट्टी न हो तो रेत या ढ़ेले पर और रेत और ढेला भी न हो तो फिर रोड़ी या पथ्थर पर तयम्मुम किया जाये।
(693) जपसम और चूने के पत्थर पर तयम्मुम करना सही है। वह गरदो ग़ुबार जो क़ालीन, कपड़े और उन जैसी दूसरी चीज़ों पर जमा हो जाता है, अगर उर्फ़े आम में उसे नर्म मिट्टी शुमार किया जाता हो तो उस पर भी तयम्मुम करना सही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि इख़्तियार की हालत में उस पर तयम्मुम न करे। इसी तरह एहतियाते मुस्तहब की बिना पर इख़्तियार की हालत में पक्के चप्सम, चूने, पक्की हुई ईंट और दूसरे मादनी पत्थर मसलन अक़ीक़ वग़ैरा पर तयम्मुम न करे।
(694) अगर किसी इंसान को मिट्टी, रेत, ढले या पत्थर न मिल सकें तो ज़रुरी है कि तर मिट्टी पर तयम्मुम करे और तर मिट्टी भी न मिले तो ज़रूरी है कि क़ालीन, दरी या लिबास और उन जैसी दूसरी चीज़ों के ऊपर या अंदर मौजूद उस थोड़े से गरदो ग़ुबार पर तयम्मुम करे जो ऊर्फ़ में मिट्टी शुमार न होता हो। अगर इन में से कोई चीज़ भी न मिल पा रही हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम के बग़ैर नमाज़ पढ़े, लेकिन वाजिब है कि बाद में उस नमाज़ की क़ज़ा पढ़े।
(695) अगर कोई इंसान क़ालीन, दरी और या इन जैसी दूसरी चीज़ों को झाड़ कर मिट्टी मोहिय्या कर सकता हो तो उस का गर्द आलूद चीज़ पर तयम्मुम करना बातिल है। इसी तरह अगर मिट्टी को ख़ुश्क कर के उस से सूखी मिटटी हासिल कर सकता हो तो तर मिट्टी पर तयम्मुम करना बातिल है।
(696) जिस इंसान के पास पानी न हो लेकिन बर्फ़ हो और वह उसे पिघला सकता हो तो ज़रूरी है कि वह उसे पिघला कर पानी बनाये और उससे वुज़ू या ग़ुस्ल करे। लेकिन अगर ऐसा करना मुमकिन न हो और उसके पास कोई ऐसी चीज़ भी न हो जिस पर तयम्मुम करना सही हो तो उसे चाहिए कि दूसरे वक़्त में नमाज़ की क़ज़ा करे। लेकिन बेहतर यह है कि बर्फ़ से वुज़ू या ग़ुस्ल के आज़ा को तर करे और अगर ऐसा करना भी मुमकिन न हो तो बर्फ़ पर तयम्मुम कर के वक़्त पर भी नमाज़ पढ़े।
(697) अगर मिट्टी और रेत में कोई ऐसी चीज़ मिली हो जिस पर तयम्मुम करना सही न हो जैसे सूखी हुई घास या इसी तरह की कोई और चीज़ तो उस पर तयम्मुम नहीं कर सकता। लेकिन अगर वह चीज़ इतनी कम हो कि उस मिट्टी या रेत में न होने के बराबर समझ़ा जा सके तो उस मट्टी पर तयम्मुम करना सही है।
(698) अगर एक इंसान के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम किया जा सके, तो अगर उसका ख़रीदना या किसी दूसरे तरीक़े से हासिल करना मुमकिन हो तो ज़रूरी है कि उस चीज़ को हासिल करे।
(699) मिट्टी की दीवार पर तयम्मुम करना सही है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि ख़ुश्क ज़मीन या मिट्टी के होते हुए तर ज़मीन पर या तर मिट्टी पर तयम्मुम न किया जाये।
(700) जिस चीज़ पर इंसान तयम्मुम करे उस का पाक होना ज़रूरी है और अगर उसके पास कोई ऐसी पाक चीज़ न हो जिस पर तयम्मुम करना सही हो तो उस पर नमाज़ वाजिब नही है। लेकिन उसकी क़ज़ा बजा लाना ज़रूरी है और बेहतर यह है कि वक़्त पर भी नमाज़ पढ़े।
(701) अगर इंसान को किसी चीज़ के बारे में यक़ीन हो कि इस पर तयम्मुम करना सही है और वह उस पर तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ले और बाद में उसे पता चले कि उस चीज़ पर तयम्मुम करना सही नही था तो ज़रूरी है कि जो नमाज़ें उस तयम्मुम के साथ पढ़ी हैं उसे दोबारा पढ़े।
(702) जिस चीज़ पर तयम्मुम किया जाये वह ग़स्बी न हो, बस अगर कोई ग़स्बी मिट्टी पर तयम्मुम करे तो उसका तयम्मुम बातिल है।
(703) ग़स्ब की हुई फ़िज़ा में तयम्मुम करना बातिल नही है। अगर कोई इंसान अपनी ज़मीन में अपने हाथ मिट्टी पर मारे और फिर बिला इजाज़त दूसरे की ज़मीन में दाख़िल हो जाये और हाथों को पेशानी पर फेरे तो उसका तयम्मुम सही होगा अगरचे वह गुनाह का मुर्तकिब हुआ है।
(704) अगर कोई इंसान भूले से या ग़फ़लत की बिना पर किसी ग़स्बी चीज़ पर तयम्मुम कर ले तो उसका तयम्मुम सही है। लेकिन अगर वह ख़ुद किसी चीज़ को ग़स्ब करे और फिर भूल जाये कि यह ग़स्ब की हुई है, तो उस चीज़ पर तयम्मुम के सही होने में इशकाल है।
(705) अगर कोई इंसान ग़स्बी जगह में महबूस हो और उस जगह का पानी और मिट्टी दोनों ग़स्बी हों तो ज़रूरी है कि तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े।
(706) जिस चीज़ पर तयम्मुम किया जाये एहतियाते लाज़िल की बिना पर उस पर गरदो ग़ुबार का मौजूद होना ज़रूरी है जो कि हाथों पर लग जाये और उस पर हाथ मारने के बाद हाथों को इतना न झाड़े कि उनसे सारी गर्द गिर जाये।
(707) गढ़े वाली ज़मीन, रास्ते की मिट्टी और ऐसी शूर ज़मीन पर जिस पर नमक की तह न जमी हो तयम्मुम करना मकरूह है और अगर उस पर नमक की तह जम गई हो तो फिर उस पर तयम्मुम करना सही नही है।
वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने का तरीक़ा
(708) वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले किये जाने वाले तयम्मुम में चार चाज़ें वाजिब हैं:
(1) नियत
(2) दोनों हथेलियों को एक साथ ऐसी चीज़ पर मारना या रखना जिस पर तयम्मुम करना सही हो। और एहतियाते लाज़िम यह है कि दोनों हाथों को एक साथ ज़मीन पर मारा या रखा जाये।
(3) पूरी पेशानी पर दोनों हथेलियों को फ़ेरना और इसी तरह एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस मक़ाम से जहाँ सर के बाल उगते हैं भवों और नाक के ऊपर तक पेशानी के दोनों तरफ़ हथेलियों को फेरना और एहतियाते मुस्तहब यह है कि भवों पर भी हाथों को फेरा जायें।
(4) बायीं हथेली को दाहिनी हाथेली की पुश्त पर और उस के बाद दाहिनी हथेली को बायीं हाथेली की तमाम पुश्त पर फेरना।
(709) एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम चाहे वुज़ू के बदले हो या ग़ुस्ल के बदले इस तरतीब से किया जायेः दोनों हाथों को एक दफ़ा ज़मीन पर मारे जाये और पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरा जाये और एक दफ़ा फिर ज़मीन पर मार कर उनसे हाथों की पुश्त का मसा किया जाये।
तयम्मुम के अहकाम
(710) अगर एक इंसान पेशानी या हाथों की पुश्त के ज़रा से हिस्से का भी मसह न करे तो उस का तयम्मुम बातिल है। चाहे उसने ऐसा जान बूझ कर किया हो या भूल या मसला न जानने की बिना पर। लेकिन बाल की खाल निकालने की भी ज़रूरत नही है। अगर यह कहा जा सके कि तमाम पेशानी और हाथों का मसा हो गया है तो इतना ही काफ़ी है।
(711) यह यक़ीन करने के लिए कि हाथ की तमाम पुश्त पर मसा कर लिया है कलाई से कुछ ऊपर वाले हिस्से का भी मसा कर लेना चाहिए, लेकिन उंगलियों के दरमियान मसा करना ज़रूरी नहीं है।
(712) एहतियात की बिना पर, पेशानी और हाथों की पुश्त का मसा ऊपर से नीचे की तरफ़ करना चाहिए और इसके तमाम कामों को मुत्तसिल (निरन्तर) तौर पर अंजाम देना चाहिए और अगर उन कामों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि लोग यह न कहें कि तयम्मुम कर रहा है तो तयम्मुम बातिल है।
(713) नियत करते वक़्त लाज़िम नही कि इस बात को मुऐय्यन करे कि उसका तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले, लेकिन अगर किसी के लिए दो तयम्मुम करना ज़रूरी हों तो लाज़िम है कि उन में से हर एक को मुऐय्यन करे। और अगर उस पर एक तयम्मुम बाजिब हो और नियत करे कि मैं इस वक़्त अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे रहा हूँ तो अगरचे वह मुऐय्यन करने में ग़लती करे (कि तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले) इस का तयम्मुम सही है।
(714) एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तयम्मुम में पेशानी, हाथों की हथेलियों और हाथों की पुश्त का इमकान की हालत में पाक होना ज़रूरी है।
(715) इंसान को चाहिए कि हाथ पर मसा करते वक़्त अगर हाथ में कोई अंगूठी हो तो उसे उतार दे और अगर पेशानी या हाथों की पुश्त या हथेलियों पर कोई चीज़ चिपकी हुई हो तो उसको हटा देना चाहिए।
(716) अगर किसी इंसान की पेशानी या हाथों की पुश्त पर ज़ख़्म हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो, जिस को खोला न जासकता हो तो ज़रूरी है कि उस के ऊपर हाथ फेरे और अगर हथेली ज़ख़्मी हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो जिसे खोला न जासता हो तो जरूरी है कि कपड़े या पट्टी वग़ैरा समेत हाथ उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे।
(717) अगर किसी इंसान की पेशानी और हाथों की पुश्त पर बाल हों तो कोई हरज नही लेकिन अगर किसी के सर के बाल पेशानी पर आ गिरे हों तो ज़रूरी है कि उहें पीछे हटा दे।
(718) अगर किसी को एहतेमाल हो कि उसकी पेशानी या हथेलियों या हाथों की पुश्त पर कोई रुकावट है और उसका यह एहतेमाल लोगों की नज़रों में सही हो, तो ज़रूरी है कि छान बीन करे यहाँ तक कि उसे यक़ीन या इत्मिनान हो जाये कि रुकावट मौजूद नही है।
(719) अगर किसी इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह ख़ुद तयम्मुम न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे इंसान से मदद ले ताकि वह मददगार उसके हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसके हाथों को उसकी पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर रख दे ताकि इमकान की सूरत में वह ख़ुद अपनी हथेलियों की पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेर सके। और अगर ऐसा करना मुमकिन न हो तो नाइब के लिए ज़रूरी है कि अपने हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसकी पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे। एहतियाते लाज़िम यह है कि इन दोनों सूरतों में दोनों शख़्स तयम्मुम की नियत करें। लेकिन पहली सूरत में ख़ुद मुकल्लफ़ की नियत काफी है।
(720) अगर कोई इंसान तयम्मुम करते वक़्त किसी हिस्से के बारे में शक करे कि इसका तयम्मुम किया है या नही तो अगर उस हिस्से का मौक़ा ग़ुज़र चुका हो तो उसे अपने शक की परवाह नही करनी चाहिए लेकिन अगर मोक़ा न ग़ुज़रा हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से का तयम्मुम करे।
(721) अगर किसी इंसान को बायें हाथ का मसा करने के बाद शक हो कि आया उसने तयम्मुम दुरुस्त किया है या नहीं तो उसका तयम्मुम सही है। लेकिन अगर उसका शक बायें हाथ के मसे के बारे में हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि उसका मसा करे सिवाये इसके कि लोग यह कहें कि तयम्मुम से फ़ारिग़ हो चुका है मसलन उस इंसान ने कोई ऐसा काम किया हो जिस के लिए तहारत शर्त है या तसलसुल ख़त्म हो गया है।
(722) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर वह नमाज़ के पूरे वक़्त में उज़्र के ख़त्म होने से मायूस हो जाये तो तयम्मुम कर सकता है और अगर उसने किसी दूसरे वाजिब या मुस्तहब काम के लिए तयम्मुम किया हो और नमाज़ के वक़्त तक उसका उज़्र बाक़ी हो (जिस की वजह से उस का वज़ीफ़ा तयम्मुम है) तो उसी तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।
(723) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उसे इल्म हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र बाक़ी रहेगा या वह उज़्र के ख़त्म होने से मायूस हो तो वक़्त में गुंजाइश होते हुए भी वह तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर वह जानता हो कि आख़िरी वक़्त तक उसका उज़्र दूर हो जायेगा तो ज़रूरी है कि इंतिज़ार करे और वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े। बल्कि अगर वह आख़िर वक़्त तक उज़्र के ख़त्म होने से मायूस न हो तो मायूस होने से पहले तयम्मुम कर के नमाज़ नहीं पढ़ सकता।
(724) अगर कोई इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो और उसे यक़ीन हो कि उसका उज़्र दूर होने वाला नहीं है या दूर होने से मायूस हो तो वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें तयम्मुम के साथ पढ़ सकता है। लेकिन अगर बाद में उज़्र ख़त्म हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह नमाज़ें वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा पढ़े। लेकिन अगर उसे उज़्र के दूर होने से मायूसी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर क़ज़ा नमाज़ों के लिए तयम्मुम नहीं कर सकता।
(725) जो इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो उसके लिए जायज़ है कि वह उन मुस्तहब नमाज़ों को जिन का वक़्त मुऐय्यन है, जैसे दिन रात की नवाफ़िल नमाज़ें, तयम्मुम कर के पढ़े। लेकिन अगर मायूस न हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र दूर हो जायगा तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वह नमाज़ें उनके अव्वले वक़्त में न पढ़े।
(726) जिस इंसान ने एहतियातन ग़ुस्ले जबीरा और तयम्मुम किया हो अगर वह ग़ुस्ल और तयम्मुम के बाद नमाज़ पढ़े और नमाज़े के बाद उससे हदसे असग़र सादिर हो जाये मसलन पेशाब करे, तो बाद की नमाज़ों के लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे। और अगर हदस नमाज़ से पहले सादिर हो जाये तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ के लिए भी वुज़ू करे।
(727) अगर कोई इंसान पानी न मिलने की वजह से या किसी दूसरे उज़्र की बिना पर तयम्मुम करे तो उज़्र के ख़त्म हो जाने के बाद उस का तयम्मुम बातिल हो जाता है।
(728) जो चीज़ें वुज़ू को बातिल करती हैं वह वुज़ू के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं। जो चीज़ें ग़ुस्ल को बातिल करती हैं वह ग़ुस्ल के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल कर देती हैं।
(729) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो और चंद ग़ुस्ल उस पर वाजिब हों तो उसके लिए जायज़ है कि उन तमाम ग़ुस्लों के बदले एक तयम्मुम कर सकता है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन ग़ुस्लों में से हर एक के बदले एक तयम्मुम करे।
(730) जो इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो अगर वह ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिस के लिए गुस्ल वाजिब हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और जो इंसान वुज़ू न कर सकता हो अगर वह कोई ऐसा काम करना चाहे जिस के लिए वुज़ू वाजिब हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे।
(731) अगर कोई इंसान ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम करे तो नमाज़ के लिए वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर दूसरे ग़ुस्लों के बदले तयम्मुम करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे और अगर वह वुज़ू न कर सकता हो तो वुज़ू के बदले एक और तयम्मुम करे।
(732) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल ज़नाबत के बदले तयम्मुम करे और बाद में उसे किसी ऐसी सूरत से दोचार होना पडे जो वुज़ू को बातिल कर देती हो, और बाद की नमाज़ों के लिए ग़ुस्ल भी न कर सकता हो, तो ज़रूरी है कि वुज़ू करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम भी करे। और अगर वुज़ू न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि उसके बदले तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस तयम्मुम को मा फ़ी ज़्ज़िम्मह का निय्य्त से बजा लाये (यानी जो कुछ मेरे ज़िम्मे है उसे अंजाम दे रहा हूँ)।
(733) अगर किसी इंसान को कोई काम करने के लिए, मसलन नमाज़ पढ़ने के लिए वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने की ज़रूरत हो, तो अगर वह पहले तयम्मुम में वुज़ू के बदले तयम्मुम या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम की नियत करे और दूसरा तयम्मुम अपने वज़ीफ़े को अंजाम देने की नियत से करे तो काफ़ी है।
(734) जिस इंसान का फ़रीज़ा तयम्मुम हो अगर वह किसी काम के लिए तयम्मुम करे तो जब तक उस का तयम्मुम और उज़्र बाक़ी है वह उन तमाम कामों को कर सकता है जो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के करने चाहियें। लेकिन अगर उसका उज़्र वक़्त की तंगी हो या उसने पानी होते हुए नमाज़े मय्यत या सोने के लिए तयम्मुम किया हो तो वह फ़क़त उन कामों का अंजाम दे सकता है जिन के लिए उसने तयम्मुम किया हो।
(735) चंद सूरतों ऐसी हैं जिनमें बेहतर यह है कि जो नमाजें इंसान ने तयम्मुम के साथ पढी हों उन की क़ज़ा करे:
1- पानी के इस्तेमाल से डरता हो और उसने जान बूझ कर अपने आप को जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
2- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा अपने आपको जान बूझ कर जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
3- आख़िर वक़्त तक पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो उस पानी मिल सकता था।
4- जान बूझ कर नमाज़ पढ़ने में देर की हो और आख़िरी वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
5- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि पानी मिलेगा जो पानी उसके पास था उसे गिरा दिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
[1] मजलिसी अव्वल ने मन ला यहज़रुहु अलफ़क़ीह किताब की शरह में तीर के फ़ासले को 200 क़दम मुऐय्यन किया है।
वुज़ू
242 वुज़ू में वाजिब है कि चेहरे व दोनों हाथो को धोया जाये और सिर के अगले हिस्से और दौनों पैरों के सामने वाले हिस्से का मसा किया जाये।
243 * चेहरे को लम्बाई में सिर के बाल उगने की जगह से ठोडी के आखिरी हिस्से तक और चौड़ाई में जितना हिस्सा बीच की उंगली और अंगूठे के बीच आजाये उसका धोना ज़रूरी है। अगर इस मिक़दार में से ज़रा भी हिस्सा धुले बिना रह जाये तो वुज़ू बातिल है। और अगर इंसान को यह यक़ीन न हो कि वाजिब हिस्सा पूरा धुल गया है तो यक़ीन करने के लिए थोड़ा अतराफ़ का हिस्सा भी धोना ज़रूरी है।
244 अगर किसी इंसान के हाथ या चेहरा आम लोगों से भिन्न हो तो उसे यह देखना चाहिए कि आम लोग वुज़ू में अपने चेहरे व हाथों को कहाँ तक धोते हैं और उसे भी उनकी तरह ही धोना चाहिए। इसके इलावा अगर किसी इंसानी के माथे पर बाल उगे हों या सिर के सामने के हिस्से पर बाल न हों तो उसे चाहिए कि अपने माथे को आम लोगों की तरह धोये।
245 अगर किसी इंसान को इस बात का एहतिमाल हो कि भवों, आँखों के कोनो और होंटो पर मैल या कोई दूसरी ऐसी चीज़ है जो इन तक पानी के पहुँचने में माने (बाधक) है और उसका यह एहतिमाल लोगों की नज़र में सही हो तो उसे वुज़ू से पहले तहक़ीक़ करनी चाहिए और अगर कोई ऐसी चीज़ मौजूद हो तो इसे हटा देना चाहिए।
246 अगर दाढ़ी के बालों के नीचे से चेहरे की खाल दिखाई देती हो तो खाल तक पानी पहुँचाना ज़रूरी है लेकिन अगर बालों के नीचे से खाल न दिखाई देती हो तो बालों का धो लेना काफ़ी है।
247 अगर किसी इंसान को शक हो कि उसके चेहरे की खाल बालों के नीचे से दिखाई देती है या नही तो एहतियाते वाजिब की बिना पर बालों को भी धोये और खाल तक पानी भी पहुँचाये।
248 * नाक के अन्दर के हिस्से और आँखों व होटों के उन हिस्सो का धोना वाजिब नही है जो बंद करने पर दिखाई न देते हों। लेकिन जिन हिस्सों का धोना ज़रूरी है उनका कुछ फ़ालतू हिस्सा भी धो लेना चाहिए ताकि वाजिब हिस्सों के धुलने का यक़ीन हो जाये।
249 *एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि हाथों और चेहरे को ऊपर से नीचे की तरफ़ धोया जाये लेकिन अगर नीचे से ऊपर की तरफ़ धोया जाये तो वुज़ू बातिल है।
250 *हाथों और चेहरे पर पानी का जारी होना ज़रूरी नही है बल्कि अगर हथेली पानी से तर करके चेहरे व हाथों पर फेरी जाये और हथेली में इतनी तरी हो कि उसे फेरने से पूरे चेहरे और हाथों पर पानी पहुँच जाये तो काफ़ी है।
251 *चेहरे को धोने के बाद पहले दाहिना हाथ और बाद में बाँया हाथ कोहनी से उंगलियों के सिरे तक धोना चाहिए।
252 *अगर इंसान को यक़ीन न हो कि कोहनी को पूरी तरह धो लिया है तो यक़ीन करने के लिए कोहनी से ऊपर का कुछ हिस्सा भी धोना ज़रूरी है।
253 जिस इंसान ने चेहरा धोने से पहले अपने हाथों को कलाईयों तक धोया हो, उसे चाहिए कि चेहरा धोने के बाद हाथों को कोहनियों से उंगलियों के सिरों तक धोये। अगर वह हाथों को सिर्फ़ कलाईयों तक धोयेगा तो उसका वुज़ू बातिल होगा।
254 *वुज़ू में चेहरे व हाथों का एक बार धोना बाजिब दूसरी बार धोना मुस्तहब और तीसरी या इससे ज़्यादा बार धोना हराम है। एक बार धोना उस वक़्त मुकम्मल होगा जब वुज़ू की नियत से इतना पानी चेहरे या हाथ पर डाला जाये कि वह पानी पूरे चेहरे या हाथों पर पहुँच जाये और एहतियातन कोई जगह बाक़ी न रहे। लिहाजा अगर पहली दफ़ा धोने की नियत से दस बार भी चेहरे पर पानी डाला जाये तो कोई हरज नही है। यानी जब तक वुज़ू की नियत से चेहरे या हाथों को नही धोया जायेगा पहली बार नही गिना जायेगा। लिहाज़ा अगर चाहे तो चन्द बार चेहरे को धोले और आखिरी बार चेहरा धोते वक़्त वुज़ू की नियत कर सकता है। लेकिन दूसरी बार धोने में नियत का मोतबर होना इश्काल से ख़ाली नही है। और एहतियाते लाज़िम यह है कि अगरचे वुज़ू की नियत से न भी हो तब भी एक बार धो लेने के बाद दूसरी बार से ज़्यादा हाथों व चेहरे को न धोये।
255 दोनों हाथ दोने के बाद सिर के सामने वाले हिस्से का मसाह पानी की उस तरी से करना चाहिए जो हाथ में बाक़ी रह जाती है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मसह दाहिने हाथ से और ऊपर से नीचे की तरफ़ किया जाये।
256 सिर के चार हिस्सों में से माथे से मिला हुआ एक हिस्सा वह मक़ाम है जिस पर मसाह किया जाता है। इस हिस्से में जहाँ पर भी और जितना जगह पर भी मसाह किया जाये काफ़ी है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि लम्बाई में एक उंगली के बराबर और चौड़ाई में मिली हुई तीन उंगलियों के बराबर जगह पर मसाह किया जाये।
257 यह ज़रूरी नही है कि सिर का मसाह सिर की खाल पर ही किया जाये बल्कि सिर के सामने के हिस्से के बालों पर भी मसाह करना सही है। लेकिन अगर किसी के सिर के बाल इतने लम्बे हों कि कंघा करेने पर चेहरे पर आ गिरते हों या सिर के किसी दूसरे हिस्से तक जा पहुँच जाते हों तो ज़रूरी है कि वह बालों की जड़ों पर या माँग निकाल कर सिर की खाल पर मसह करे और अगर चेहरे पर आ गिरने वाले या सिर के दूसरे हिस्से तक पहुँचने वाले बालों को आगे की तरफ़ जमा करके उन पर मसाह करे या सिर के दूसरे हिस्सों के बालों पर जो आगे की तरफ़ आ गये हों मसाह करे तो ऐसा मसाह बातिल है।
258 *सिर के मसेह के बाद वुज़ू के पानी की उस तरी से जो हाथों में बाक़ी हो पैर के पंजे की किसी एक उंगली से लेकर पैर के जोड़ तक मसाह करना ज़रूरी है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि दाहिने पैर का मसाह दाहिने हाथ से और बाँये पैर का मसाह बाँये हाथ से किया जाये।
259 पैर पर मसेह की चौड़ाई जितनी भी हो काफ़ी है लेकिन अच्छा है कि तीन मिली हुई उंगलीयों की चौड़ाई के बराबर हो और बेहतर यह है कि पैर के पंजे के पूरे ऊपरी हिस्से का मसाह पूरी हथेली से किया जाये।
260 *एहतियात यह है कि पैर का मसाह करते वक़्त हाथ उंगलियों के सिरों पर रखे और फिर पैर के उभार की तरफ़ खीँचे या हाथ पैर के जोड़ पर रख कर उंगलियों की तरफ़ खीँचे। पूरे पैर पर हाथ रख कर थोड़ासा खीँचना सही नही है।
261 सिर और पैर का मसाह करते वक़्त उन पर हाथों का फेरना ज़रूरी है। अगर सिर या पैर पर हाथ रख कर सिर या पैर को हरकत दी जाये तो मसाह बातिल है। लेकिन अगर हाथ फेरते वक़्त सिर या पैर थोड़ा हिल जाये तो कोई हरज नही है।
262 मसेह की जगह का खुश्क होना ज़रूरी है। अगर मसेह की जगह इतनी तर हो कि हथेली की तरी उस पर असर न करे तो मसाह बातिल है। लेकिन अगर मसेह की जगह चोड़ी नम हो या तरी इतनी कम हो कि वह हथेली की तरी से ख़त्म हो जाये तो कोई हरज नही है।
263 अगर मसाह करने के लिए हथेली पर तरी बाक़ी न रहे तो हाथ को दूसरे पानी से तर नही किया जा सकता, बल्कि इस हालत में अपनी दाढ़ी से तरी ले कर उससे मसाह करना चाहिए। दाढ़ी के इलावा किसी दूसरे हिस्से से तरी लेकर मसाह करने में इश्काल है।
264 अगर हथेली की तरी सिर्फ़ सिर के मसेह के लिए काफ़ी हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि सिर का मसाह उसी तरी से किया जाये और पैर के मसेह के लिए अपनी दाढ़ी से तरी ली जाये।
265 मोज़े और जूते पर मसाह बातिल है लेकिन अगर सख़्त सर्दी या चोर व दरिन्दों के खौफ़ से जूते या मोज़े न उतारे जा सके तो एहबतियाते वाजिब यह है कि मोज़े या जूते पर मसाह करे और तयम्मुम भी करे। तक़िय्येह की सूरत में भी मोज़े व जूते पर मसाह करना काफ़ी है।
266 अगर पैर का ऊपरी हिस्सा नजिस हो और मसाह करने के लिए उसे धोया भी न जा सकता हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।
इरतेमासी वुज़ू
267 इरतेमासी वुज़ू यह है कि इंसान अपने चेहरे व हाथों को वुज़ू की नियत से पानी में डुबो दे। इरतेमासी तरीक़े से धुले हुए हाथों की तरी से मसाह करने में कोई हरज नही है लेकिन ऐसा करना ख़िलाफ़े एहतियात है।
268 इरतेमासी वुज़ू करते वक़्त भी चेहरे व हाथों को ऊपर से नीचे की तरफ़ धोना चाहिए। लिहाज़ा जब कोई इंसान वुज़ू की नियत से चेहरे और हाथों को पानी में डुबाये तो ज़रूरी है कि चेहरे को पेशानी की तरफ़ से और हाथों को कोहनियों की तरफ़ से डुबाये।
269 अगर कोई इंसान वुज़ू में कुछ हिस्सों को इरतेमासी तरीक़े से और कुछ को ग़ैरे इरतेमासी तरीक़े से धोये तो इस में कोई हरज नही है।
वह दुआएं जिनका वुज़ू के वक़्त पढ़ना मुस्तहब है।
270 वुज़ू करने वाले इंसान की नज़र जब पानी पर पड़े तो यह दुआ पढ़े- बिस्मिल्लाहि व बिल्लाहि व अलहम्दु लिल्लाहि अल्लज़ी जअला अल माआ तहूरन व लम यजअलहु नजसन।
जब कलाईयों तक अपने हाथों को धोये तो यह दुआ पढ़े- अल्लाहुम्मा इजअलनी मिनत तव्वाबीना व इजअलनी मिनल मुतातह्हेरीना।
कुल्ली करते वक़्त यह दुआ पढ़े- अल्लाहुम्मा लक़्क़िनी हुज्जती यौमा अलक़ाका व अतलिक़ लिसानी बिज़िकरिका
नाक में पानी डालते वक़्त यह दुआ पढ़े- अल्लाहुम्मा ला तुहर्रिम अलैया रिबहल जन्नति व इजअलनी मिन मन यशुम्मु रीहहा व रवहहा व तीबहा।
चेहरा धोते वक़्त यह दुआ पढ़े- अल्लाहुम्मा बय्यिज़ वजही यौमा तस्वद्दुल वुजूहु व ला तुसव्विदु वजही यौमा तबयज़्ज़ुल वुजूहु।
दाहिना हाथ धोते वक़्त यह दुआ पढ़ें- अल्लाहुम्मा आतिनि किताबि बियमीनी व अलख़ुलदा फ़ी अल जिनानि बियसारी व हासिबनी हिसाबन यसीरन।
बायाँ हाथ धोते वक़ड्त यह दुआ पढ़ें- अल्लाहुम्मा ला तुतिनि किताबि बिशिमाली व ला मिन वराए ज़हरी व ला तजअलहा मग़लूलतन इला उनुक़ी व आउज़ुबिका मिन मुक़त्तआति न निरानि।
सिर का मसह करते वक़्त यह दुआ पढ़े- अल्लाहुम्मा ग़श्शिनी बिरहमतिका व बराकातिका व अफ़विक ।
पैरों का मसाह करते वक़्त यह दुआ पढ़ें- अल्लाहुम्मा सब्बितनी अला सिराति यौमा तज़िल्लु फ़ीहिल अक़दामु व इजअल सअयी फ़ी मा युरज़ीका अन्नी या ज़ल जलालि व अल इकरामि।
वुज़ू सही होने की शर्तें
वुज़ू के सही होने की कुछ शर्तें हैं
पहली शर्त- वुज़ू का पानी पाक हो। एक क़ौल की बिना पर वुज़ू का पानी उन चीज़ो से आलूदा न हो जिनसे इंसान को घिन आती हो जैसे हलाल गोश्त जानवर का पेशाब, पाक मुरदार और ज़ख़्म का मवाद वग़ैरह। यह क़ौल एहतियात की बिना पर है वरना ऐसा पानी शरअन पाक है ।
दूसरी शर्त- पानी मुतलक़ (ख़ालिस) हो।
271 नजिस या मुज़ाफ़ पानी से वुज़ू करना बातिल है। चाहे वुज़ू करने वाला इंसान उसके नजिस या मुज़ाफ़ होने के बारे में न जानता हो। या भूल गया हो कि यह पानी नजिस या मुज़ाफ़ है। लिहाज़ा अगर वह ऐसे पानी से वुज़ू करके नमाज़ पढ़ चुका हो तो सही वुज़ू करके दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी है।
272 *अगर एक इंसान के पास मिट्टी मिले हुए मुज़ाफ़ पानी के इलावा दूसरा पानी वुज़ू के लिए न हो और नमाज़ का वक़्त कम रह गया हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर वक़्त काफ़ी हो तो ज़रूरी है कि पानी के साफ़ होने का इंतेज़ार करे या किसी तरह उस पानी को साफ़ करके वुज़ू करे।
*तीसरी शर्त –वुज़ू का पानी मुबाह हो।
273 *ग़स्बी या ऐसे पानी से वुज़ू करना जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि उसका मालिक इसके इस्तेमाल पर राज़ी है या नही हराम व बातिल है। इसके इलावा अगर चेहरे व हाथों से वुज़ू का पानी ग़स्ब की हुई जगह पर गिरता हो या वह जगह जिस पर बैठ कर वुज़ू कर रहा हो ग़स्बी हो और वुज़ू करने के लिए कोई और जगह भी न हो तो ऐसी हालत में उस इंसान को तयम्मुम करना चाहिए। और अगर किसी दूसरी जगह वुज़ू कर सकता हो तो ज़रूरी है कि दूसरी जगह वुज़ू करे लेकिन अगर दोनो हालतों में इंसान गुनाह करते हुए उसी जगह वुज़ू करे तो उसका वुज़ू सही है।
274 *किसी मदरसे की ऐसी हौज़ से वुज़ू करने में कोई हरज नही है जिसके बारे में यह न जानता हो कि यह तमाम लोगों के लिए वक़फ़ है या सिर्फ़ मदरसे के तलबा के लिए जबकि लोग आम तौर पर उस हौज़ से वुज़ू करते हों और कोई उन्हें मना भी न करता हो।
275 अगर कोई इंसान एक मस्जिद में नमाज़ न पढ़ना चाहता हो और यह भी न जानता हो कि इस मस्जिद का हौज़ तमाम लोगों के लिए वक़फ़ है या सिर्फ़ उन लोगों के लिए जो इस मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं तो उसके लिए इस हौज़ से वुज़ू करना सही नही है। लेकिन अगर आम तौर पर वह लोगभी इस हौज़ से वुज़ू करते हों जो इस मस्जिद में नमाज़ न पढ़ते हों और उन्हें कोई मना भी न करता हो तो वह इंसान भी उस हौज़ से वुज़ू कर सकता है।
276 मुसाफ़िर खानों वग़ैरह की हौज़ से उन लोगों का वुज़ू करना जो उनमें न रहते हों इस हालत में सही है जबकि आम तौर पर ऐसे लोग भी इस हौज़ से वुज़ू करते हों जो वहाँ न रहते हों और उनको कोई मना भी न करता हो।
277 बड़ी नहरों से वुज़ू करने में कोई हरज नही है। चाहे इंसान न जानता हो कि उनका मालिक राज़ी है या नही । लेकिन अगर उन नहरों का मालिक उनमें वुज़ू करने से मना करे या मालूम हो कि मालिक वुज़ू करने पर राज़ी नही है या मालिक नाबालिग़ या पागल हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उनसे वुज़ू न किया जाये।
278 अगर कोई इंसान यह भूल जाये कि पानी ग़स्बी है और उससे वुज़ू करले तो उसका वुज़ू सही है। लेकिन अगर कोई इंसान खुद पानी ग़स्ब करे और बाद में भूील जाये कि पानी ग़स्बी है और उस पानी से वुज़ू करे तो उसके वुज़ू के सही होने में इश्काल है।
चौथी शर्त –वुज़ू का बरतन मुबाह हो
पाँचवीँ शर्त –एहतियाते वाजिब की बिना पर बवुज़ू का बरतन सोने व चाँदी से न बना हो । इन दो शर्तों की तफ़सील आने वाले मसले में बयान की जा रही है।
279 अगर वुज़ू का पानी ग़स्बी या सोने व चाँदी के बरतन में हो और उस इंसान के पास इसके अलावा और कोई पानी न हो तो, अगर वह उस पानी को शरई तरीक़े से किसी दूसरे बरतन में पलट सकता हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि उसे किसी दूसरे बरतन में पलटे और फिर उससे वुज़ू करे। लेकिन अगर ऐसा करना आसान न हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है। और अगर उसके पास उसके अलावा दूसरा पानी मौजूद हो तो ज़रूरी है कि उससे वुज़ू करे और अगर इन दोनो हालतों में वह सही तरीक़े पर अमल न करते हुए उस पानी से वुज़ू करे जो ग़स्बी या सोने व चाँदी के बरतन में है तो उसका वुज़ू सही है।
280 अगर किसी हौज़ में एक ईंट या पत्थर ग़सबी लगा हो और उर्फ़े आम में इस हौज़ से पानी निकालना इस ईँट या पत्थर पर तसर्रुफ़ न समझा जाता हो तो तो उस हौज़ से पानी निकालने में कोई हरज नही है । लेकिन अगर ऐसा करना उस पर तसर्रुफ़ समझा जाये तो हौज़ से पानी निकालना हराम है लेकिन उससे वुज़ू करना सही है।
281 अगर आइम्मा-ए- ताहेरीन या उनकी औलाद के मक़बरो के सहन में जो पहले क़ब्रिस्तचान था कोई नहर या हौज़ खोद दी जाये और यह इल्म न हो कि सहन की ज़मीन कब्रिस्तान के लिए वक़्फ़ हो चुकी है या नही तो इस हौज़ या नहर के पानी से वुज़ू करने में कोई हरज नही है।
छटी शर्त- बदन के वह हिस्से जिन पर वुज़ू किया जाता है वुज़ू के वक़्त पाक हों।
282 अगर वुज़ू पूरा होने से पहले वह हिस्सा नजिस हो जाये जिसे धोया या मस किया जा चुका हो तो वुज़ू सही है।
283 अगर वुज़ू के हिस्सों के इलावा बदनके दूसरे हिस्से नजिस हों तो वुज़ू सही है लेकिन अगर पेशाब व पख़ाने की जगह नजिस हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले उन्हें पाक किया जाये बाद में वुज़ू किया जाये।
284 अगर वुज़ू वाले हिस्सों में से बदन का कोई हिस्सा नजिस हो और वुज़ू करने के बाद शक हो कि वुज़ू से पहले इस नजिस हिस्से को पाक किया था या नही तो वुज़ू सही है लेकिन ुस हिस्से को पाक करना ज़रूरी है।
285 अगर किसी के चेहरे या हाथ पर कोई ऐसा ज़ख़्म हो जिससे बराबर खून बहता रहता हो और पानी उसके लिए नुक़्सान दे न हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से की सही व सालिम जगह को तरतीबवार धोने के बाद ज़ख़्म वाली जगह को कुर या जारी पानी में डुबाये और उसे इतना दबाये कि ख़ून बंद हो जाये और पानी के अन्दर ही ज़ख़्म पर अपनी उंगली रख कर ऊपर से नीचे की तरफ़ खीँचे ताकि उस ज़ख़्म पर पानी जारी हो जाये। इस हालत में उसका वुज़ू सही है।
सातवीं शर्त- वुज़ू करने और नमाज़ पढ़ने के लिए वक़्त काफ़ी हो।
286 अगर नमाज का वक़्त इतना कम रह गया हो कि अगर इंसान वुज़ू करे तो पूरी नमाज़ या नमाज़ का एक हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़ेगा, तो इस हालत में तयम्मुम करना ज़रूरी है लेकिन अगर तयम्मुम और वुज़ू दोनों में बराबर वक़्त लगता हो तो फिर वुज़ू करना ही ज़रूरी है।
287 नमाज़ का वक़्त कम होने की वजह से अगर किसी इंसान के लिए तयम्मुम ज़रूरी हो और वह कुरबत की नियत से या किसी मुस्तहब काम को करने के लिए मसलन क़ुरआने मजीद पढ़नेम के लिए वुज़ू करे तो उसका वुज़ू सही है। लेकिन अगर इसी नमाज़ को पढ़ने के लिए वुज़ू करे तो तब भी वुज़ू सही है लेकिन उसे क़स्दे कुर्बत हासिल नही होगा।
आठवीँ शर्त- वुज़ू क़सदे कुर्बत यानी अल्लाह से क़रीब होने के लिए किया जाये। अगर अपने आपको ठंडक पहुँचाने या किसी और नियत से वुज़ू किया जाये तो बातिल है।
288 वुज़ू की नियत का ज़बान से अदा करना या दिल में दोहराना ज़रूरी नही है । बल्कि अगर एक इंसान वुज़ू के तमाम अफ़आल को अल्लाह के हुक्म पर अमल करने की ग़रज़ से बजा लाये तो काफ़ी है।
नवीँ शर्त –वुज़ू तरतीब से किया जाये यानी पहले चेहरा उसके बाद दायाँ हाथ और फिर बाया हाथ धोना चाहिए, इसके बाद सिर का और फिर पैरों का मसाह करना चाहिए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोनों पैरों का मसाह एक साथ न किया जाये बल्कि पहले दाहिने पैर का मसाह करना चाहिए और बाद में बायेँ पैर का।
दसवीँ शर्त- वुज़ू में एक हिस्से को धोने के बाद बिला फ़ासला दूसरे हिस्से को धोया जाये।
289 अगर वुज़ू के अफ़ाल के बीच इतना फ़ासला हो जाये कि आम तौर पर उसे बिला फ़ासला धोना न कहा जाये तो वुज़ू बातिल है। लेकिन अगर किसी शख़्स को कोई उज़्र पेश आ जाये मसलन वह भूल जाये या पानी ख़त्म हो जाये तो फिर बिला फ़ासला धोने की शर्त मोतबर नही है। बल्कि वुज़ू करने वाला इंसान बाद के हिस्सों को फ़ासले के साथ भी धो सकता है । लेकिन अगर बाद वाला हिस्सा धोने या मसाह करने में इतना फ़ासला हो जाये कि पहले धोये हुए हिस्सों की तरी ख़ुश्क हो गई हो तो वुज़ू बातिल है।लेकिन अगर जिस हिस्से को धो रहा हो या मसाह कर रहा हो सिर्फ उससे पहले वाला हिस्सा खुश्क हुआ हो और बाक़ी हिस्से तर हो, मसलन बायाँ हाथ धोते वक़्त दाहिना हाथ ख़ुश्क हो गया हो लेकिन चेहरा तर हो तो इस हालत में वुज़ू सही है।
290 अगर कोई इंसान वुज़ू करते वक़्त वुज़ू के हिस्सों को में बिला फ़ासला धोये लेकिन गर्मी या बुख़ार की वजह से पहले धोये हुए हिस्सों की तरी ख़ुश्क हो जाये तो वुज़ू सही है।
291 वुज़ू के करते वक़्त चलने फिरने में कोई हरज नही है। लिहाज़ा अगर कोई इंसान चेहरे व हाथों को धोने के बाद चन्द क़दम चले और फिर सिर व पैरों का मसाह करे तो उसका वुज़ू सही है।
ग्यारहवीँ शर्त- इंसान अपने चेहरे व हाथों को ख़ुद धोये और फिर सिर व पैरों का मसाह करे। अगर कोई दूसरा इंसान उसे वुज़ू कराये या उसके चेहरे व हाथों पर पानी डालने या सिर व पैरों का मसाह करने में उसकी मदद करे तो उसका वुज़ू बातिल है।
292 अगर कोई इंसान ख़ुद वुज़ू न कर सकता हो तो दूसरे की मदद ले सकता है। लेकिन चेहरे व हाथों के धोने व सिर व पैर के मसेह में दोनों का शरीक होना ज़रूरी है। और अगर मदद करने वाला इंसान इस काम की उजरत माँगे और वह उसे अदा कर सकता हो और इसके अदा करने में उसे माली तौर पर नुक़्सान न हो तो उजरत का अदा करना ज़रूरी है। यह भी ज़रूरी है कि वुज़ू की नियत खुद करे और मसाह अपने हाथ से करे । और अगर दूसरे की सिरकत से भी ऐसा न कर सकता हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि किसी दूसरे इंसान की मदद ले जो उसे वुज़ू कराये और इस हालत में एहतियाते वाजिब यह है कि दोनों वुज़ू की नियत करें। और अगर यह मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि उसका नाइब उसका हाथ पकड़ कर उसके मसेह की जगहों पर फेरे और अगर यह भी मुमकिन नो हो तो ज़रूरी है कि नाइब उसके हाथ से तरी ले कर उस तरी से उससे उसके सिर व पैरों का मसाह करे। ---------
293 वुज़ू में ज़रूरी है कि जो काम इंसान ख़ुद कर सकता हो, उन्हे करने के लिए दूसरों की मदद न ले।
बारहवीँ शर्त-वुज़ू करने वाले के लिए पीनी नुक़्सान दे न हो।
294 जिस इंसान को यह डर हो कि अगर वुज़ू करेगा तो बीमार हो जायेगा या यह डर होकि अगर इस पानी से वुज़ू कर लिया गया तो बाद में प्यासा रह जायेगा, तो उसका फरीज़ा वुज़ू करना नही है। अगर वह जानता हो कि पीनी उसके लिए नुक़्सान दे है और वह वुज़ू करले और उसे वुज़ू करने से नुक़सान पहुँचे तो उसका वुज़ू बातिल है।
295 अगर चेहरे और हाथों को इतने कम पानी से धोना नुक़सान दे न हो जिस से वुज़ू सही हो जाये और इससे ज़्यादा पानी से धोना नुक़्सान दे हो तो कम पानी से वुज़ू करना ज़रूरी है।--------
तेरहवीँ शर्त-वुज़ू के हिस्सों पर कोई ऐसी चीज़ न लगी हो जो पानी पहुँचने में रुकावट हो।
296 अगर कोई इंसान यह जानता हो कि उसके वुज़ू वाले किसी हिस्से पर कोई चीज़ लगी हुई है , मगर उसे इस में शक हो कि यह चीज़ पानी के बदन तक पहुँचने में रुकावट है या नही तो ज़रूरी है कि या तो उस चीज़ को हटाये या फिर उसके नीचे तक पानी पहुँचाये।
297 अगर नाखुन के नीचे मैल जमा हो तो वुज़ू सही है लेकिन अगर नाख़ुन को काट दिया जाये और इस मैल की वजह से पानी खाल तक न पहुँच रहा हो तो इस मैल का साफ़ करना ज़रूरी है। अगर नाखुन मामूल से ज़्यादा बढ़ जाये तो बढ़े हुए हिस्से के नीचे मैल साफ करना ज़रूरी है।
298 अगर किसी इंसान के चेहरे ,हाथों , सिर के अगले हिस्से या पैरों के ऊपर वाले हिस्से पर जल जाने से या किसी और वजह से वरम(सूजन) हो जाये तो उसे धो लेना और उस पर मसाह कर लेना काफ़ी है और अगर उसमें सुराख़ हो जाये तो खाल के नीचे पानी पहुँचाना ज़रूरी नही है। बल्कि अगर खाल का एक हिस्सा उखड़ जाये और दूसरा हिस्सा बाक़ी रहे तो जो हिस्सा नही उखड़ा है उसके नीचे पानी पहुँचाना ज़रूरी नही है। लेकिन अगर खाल इस तरह उखड़ी हो कि कभी बदन से चिपक जाती हो और कभी अलग हो जाती हो तो इस हालत में ज़रूरी है कि या तो खाल के उस हिस्से को काट दिया जडाये या फिर उसके नीचे पानी पहुँचाया जाये।
299 अगर किसी इंसान को यह शक हो कि उसके बदन के वुज़ू वाले हिस्सों पर कोई चीज़ लगी हुई है या नही मसलन गारे का काम करने के बाद शक करे कि गारा इसके हाथ को लगा रह गया है या नही तो ज़रूरी है कि इसको सही से देखे या फिर इतना मले कि यक़ीन हो जाये कि अब इस पर गारा कहीँ बाक़ी नही रह गया है या पानी इसके नीचे पहुँच गया है।
300 वुज़ू के जिस हिस्से को धोना हो या मसाह करना हो अगर उस पर मैल हो और वह इतना कम हो कि पानी के खाल तक पहुँचने में रुकावट न हो तो कोई हरज नही है। इसी तरह अगर पलस्तर वग़ैरह का काम करने के बाद इतनी सफ़ेदी हाथ पर लगी रह जाये जो खाल तक पानी के पहुँचने में रुकावट न हो तो उसमें भी कोई हरज नही है। लेकिन अगर शक हो कि पानी बदन तक पहुँच रहा है या नही तो इस हालत में इन चीज़ों के बदन से हटाना ज़रूरी है।
301 अगर कोई इंसान वुज़ू करने से पहले यह जानता हो कि वुज़ू वाले हिस्सों पर कोई ऐसी चीज़ लगी है जो बदन तक पानी पहुँचने में रुकावट है और वुज़ू करने के बाद शक करे कि इन हिस्सों तक पानी पहुँचाया है या नही तो उसका वुज़ू सही है।
302 अगर वुज़ू वाले किसी हिस्से पर कोई ऐसी चीज़ लगी हो जिस के नीचे पानी कभी तो खुद चला जाता हो और कभी न जाता हो और इंसान वुज़ू के बाद शक करे कि पानी इसके नीचे पहुँचा या नही तो अगर वह जानता हो कि वुज़ू करते वक़्त वह इस चीज़ की तरफ़ मुतवज्जेह नही था तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा वुज़ू करे।
303 अगर कोई इंसान वुज़ू करने के बाद वुज़ू वाले किसी हिस्से पर कोई ऐसी चीज़ देखी जो बदन तक पानी के पहुँचने में रुकावट हो तो और उसे वह यह न जानता हो कि यह वुज़ू के वक़्त मौजूद थी या बाद में लगी है तो उसका वुज़ू सही है। लेकिन अगर वह यह न जानता हो कि वुज़ू के वक़्त वह इस चीज़ की तरफ़ मुतवज्जेह नही था तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह दोबारा वुज़ू करे।
304 अगर किसी इंसान के वुज़ू के बाद शक हो कि जो चीज़ बदन तक पानी के पहुँचने में रुकावट है वुज़ू के हिस्से पर थी या नही तो उसका वुज़ू सही है।
वुज़ू के अहकाम
305 अगर कोई इंसान वुज़ू के अफ़ाल व शर्तों में जैसे पानी के पाक या ग़सबी होने के बारे में बहुत ज़्यादा शक करता हो तो उसे चाहिए कि अपने शक की परवाह न करे।
306 अगर कोई इंसान यह शक करे कि उसका वुज़ू बातिल हुआ है या नही तो उसे यह समझना चाहिए कि उसका वुज़ू अभी बाक़ी है। लेकिन अगर उसने पेशाब करने के बाद इस्तबरा किये बग़ैर वुज़ू कर लिया हो और वुज़ू के बाद पेशाब के रास्ते से कोई ऐसी रतूबत निकले जो जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि यह पेशाब है या कोई दूसरी चीज़ तो उसका वुज़ू बातिल है।
307 अगर किसी इंसान को शक हो कि उसने वुज़ू किया है या नही तो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे.
308 जो इंसान यह जानता हो कि उसने वुज़ू किया है और यह भी जानता हो कि उसने पेशाब भी किया है लेकिन यह न जानता हो कि कौनसा काम पहले किया है तो अगर यह हालत नमाज़ से पहले पेश आये तो उसे चाहिए कि वुज़ू करे और अगर नमाज़ के दरमियान पेश आये तो नमाज़ तोड़ कर वुज़ू करना चाहिए और अगर नमाज़ के बाद पेश आये तो जो नमाज़ पढ़ चुका है वह सही है लेकिन दूसरी नमाज़ों के लिए नया वुज़ू करना ज़रूरी है।
309 अगर किसी इंसान के वुज़ू के बाद या वुज़ू करते वक़्त यक़ीन हो जाये कि उसने किसी हिस्से को नही धोया है या मसाह नही किया है और जिन हिस्सों को पहले धोया था या मसाह किया था ज़्यादा वक़्त गुज़रने की वजह से वह उनकी तरी ख़ुश्क हो गई हो तो उसे चाहिए कि दोबारा वुज़ू करे, लेकिन अगर पहले धोये हुए या मसाह किये हुए हिस्सों की तरी ख़ुश्क न हुई हो या हवा की गर्मी या किसी और वजह से खुश्क हो गई हो तो ज़रूरी है कि जिस हिस्से को धोना भूल गया हो उसको धोये और उसके बाद वाले हिस्सों को भी धोये या अगर मसाह करना हो तो मसाह करे। लेकगिन अहर वुज़ू करते वक़्त किसी हिस्से को धोने या किसी हिस्से के मसाह करने कते बारे में शक करे तो तब भी इसी हुक्म पर अमल करना ज़रूरी है।
310 अगर किसी इंसान के नमाज़ पढ़ने के बाद शक हो कि उसने वुज़ू किया था या नही तो उसकी वह नमाज़ सही है लेकिन दूसरी नमाज़ों के लिए वुज़ू करना ज़रूरी है।
311 अगर किसी इंसान को नमाज़ पढ़ते वक़्त शक हो कि उसने वुज़ू किया था या नही तो उसकी वह नमाज़ बातिल है। उसके लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।
312 अगर कोई इंसान नमाज़ के बाद यह समझे कि उसका वुज़ू बातिल हो गया था लेकिन शक करे कि नमाज़ से पहले बातिल हुआ था या नमाज़ के बाद तो जो नमाज़ पढ़ चुका है वह सही है।
313 अगर किसी इंसान को ऐसा मरज़ हो कि उसके पेशाब के क़तरे टपकते रहते हों या पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो तो, अगर उसे यक़ीन हो कि नमाज़ के अव्वले वक़्त से आख़िरे वक़्त तक उसे ऐसा मौक़ा मिल जायेगा कि वुज़ू कर के नमाज़ पढ़ सके, तो ज़रूरी है कि वह उसी मौक़े पर नमाज़ पढ़े और अगर उसे सिर्फ़ इतनी मोहलत मिले जो नमाज़ के वाजिबात पूरे करने के लिए काफ़ी हो तो उसके लिए नमाज़ के वाजिब हिस्सों को अदा करना और मुस्तहब हिस्सों को छोड़ना (जैसे अज़ान इक़ामत क़नूत वग़ैरह) ज़रूरी है।
314 अगर किसी इंसान को बीमारी की वजह से नमाज़ का कुछ ही हिस्सा वुज़ू के साथ पढ़ने की मोहलत मिलती हो और नमाज़ के बीच एक बार या चन्द बार उसका पेशाब या पाख़ाना निकल जाता हो तो एहतियाते लाज़िमयह है कि कि इस मोहलत के वक़्त वुज़ू करके नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त पेशाब या पाख़ाना निकल जाये तो दोबारा वुज़ू करना लाज़िम नही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि पानी का बर्तन अपने पास रखे और जब भी पेशाब या पखाना निकले वुज़ू करके नमाज़ का बक़ी हिस्सा पूरा करे। यह एहतियात इस हालत में है जबकि पेशाब या पाखाना निकलने का वक़्त ज़्यादा न हो या वुज़ू करने की वजह से अरकाने नमाज़ के बीच ज़्यादा फ़ासला न हो, इस सूरत के अलावा एहतियात का कोई फ़ायदा नही है।
315 अगर किसी इंसान को पेशाब या पाख़ाना इस तरह बार बार आता हो कि उसे वुज़ू करके नमाज़ का कुछ हिस्सा भी पढ़ने की मोहलत न मिलती हो तो उस के लिए हर नमाज़ के लिए एक वुज़ू काफ़ी है बल्कि ज़ाहिर तो यह है कि अगर उसका वुज़ू इस बीमारी के अलावा और किसी दूसरी वजह से बातिल न हो तो वह एक वुज़ू से कई नमाज़े भी पढ़ सकता है। लेकिन बेहतर यह है कि हर नमाज़ के लिए एक बार वुज़ू करे। लेकिन कज़ा सजदे, कज़ा तशहुद और नमाज़े एहतियात के लिए दूसरा वुज़ू ज़रूरी नही है।
316 अगर किसी इंसान को पेशाब पाख़ाना बार बार आता हो तो उसके लिए ज़रूरी नही है कि वुज़ू के बाद फ़ौरन नमाज़ पढ़े, अगरचे बेहतर यही है कि नमाज़ पढ़ने में जल्दी करे।
317 अगर किसी इंसान को पेशाब पाख़ाना बार बार आता हो तो वुज़ू करने के बाद अगर वह नमाज़ की हालत में नही है, तब भी उसके लिए कुरआने मजीद के अलफ़ाज़ को छूना जायज़ है।
318 अगर किसी इंसान को क़तरा क़तरा पेशाब आता रहता हो तो उसे चाहिए कि नमाज़ के लिए एक ऐसी थैली इस्तेमाल करे जिस में रूई या ऐसी ही कोई और चीज़ रखी हो जो पेशाब को दूसरी जगहों तक जाने से पहुँचे। एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ से पहले नजिस हुई पेशाब की जगह को धो ले। इसके अलावा जो इंसान पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो उसे चाहिए कि जहाँ तक मुमकिन हो नमाज़ पढ़ते वक़्त पाख़ाने को दूसरी जगहों तक फैलने से रोके और एहतियाते वाजिब यह है कि अगर ज़हमत न हो तो हर नमाज़ से पहले मक़द (पाख़ाने निकलने का सुराख़) को धोये।
319 जो इंसान पेशाब या पाख़ाने को रोकने पर क़ुदरत न रखता हो तो जहाँ तक मुमकिन हो नमाज़ में पेशाब या पाख़ाने को रोके चाहे इसके लिए कुछ ख़र्च ही क्योँ न करना पड़े। अगर यह मरज़ आसानी से दूर हो सकता हो तो ऐसे इंसान को चाहिए कि अपना इलाज कराये।
320 अगर एक इंसान पेशाब या पाख़ाना रोकने पर क़ादिर न हो और वह बीमारी की हालत में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ नमाज़ पढ़ता रहे तो सही होने पर बीमारी के दौरान पढ़ी हुई नमाज़ों की क़ज़ा ज़रूरी नही है। लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर उसका मरज़ नमाज़ पढ़ते वक़्त सही हो जाये तो फ़क़त उसी नमाज़ को दोबारा पढ़े।
321 अगर कोई इंसान रियाह(पाख़ाने के रास्ते पेट से निकलने वाली गैस) रोकने पर क़ादिर न हो तो तो उसे उन लोगों की तरह अमल करना चाहिए जो पेशाब या पाख़ाना रोकने पर क़दिर नही हैं।
वह चीज़े जिन के लिए वुज़ू करना ज़रूरी है।
322 छः चीज़ों के लिए वुज़ू करना वाजिब है।
1. नमाज़े मय्यित के अलावा हर वाजिब नमाज़ के लिए। मुस्तहब नमाज़ों में वुज़ू उनके सही होने की शर्त है।
2. उस सजदे और तशाहुद के लिए जिसे इंसान भूल गया हो और उसको अदा करने व नमाज़ के बीच उसका वुज़ू बातिल हो गया हो। लेकिन सजद-ए- सहव के लिए वुज़ू करना वाजिब नही है।
3. ख़ान-ए-काबा के वाजिब तवाफ़ के लिए जो कि हज व उमरह का जुज़ है।
4. वुज़ू करने की मन्नत मानी हो, या अहद किया हो या क़सम खाई हो।
5. क़ुरआने करीम को बोसा देने के लिए।
6. अगर कुरआन नजिस हो गया हो तो उसको पाक करने या उसे किसी निजासत से निकालने के लिए, जबकि इन कामों के लिए इंसान मजबूर हो कि अपना हाथ या बदन का कोई दूसरा हिस्सा कुरआने करीम के अलफ़ाज़ को लगाये। लेकिन अगर देखे कि क़ुरआन को पाक करने या निजासत से निकालने के लिए अगर वुज़ू करेगा तो इस में लगने वाले वक़्त की वजह से इस दौरान कुरआन की बेहुरमती होती रहेगी तो इंसान को चाहिए कि वुज़ू किये बिना ही फ़ौरन कुरआन को निजासत से बाहर निकाले और अगर नजिस हो गया है तो उसे पाक करे।
323 जो इंसान वुज़ू से न हो उसके लिए क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ को छूना हराम है। लेकिन अगर कुरआने करीम का किसी दूसरी ज़बान में तर्जमा हुआ हो तो उस तर्जमें को छूने में कोई हरज नही है।
324 बच्चे और पागल को क़ुरआने करीम को छूने से रोकना करना वाजिब नही है। लेकिन अगर उनका कुरआन को छूना उसकी बे हुरमती व तौहीन का सबब हो तो उन्हें रोकना ज़रूरी है।
325 वुज़ू के बग़ैर अल्लाह के नामों और उसकी उन सिफ़तों को छूना हराम है जो सिर्फ़ उसकी ज़ात से मख़सूस हैं चाहे वह किसी भी ज़बान में लिखी हों। और एहतियाते वाजिब यह है कि इसी तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स.), आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम व हज़रत ज़हरा सलामु अल्लाहि अलैहा के नामों को भी बग़ैर वुज़ू के न छुवे।
326 अगर कोई इंसान नमाज़ के वक़्त से पहले बा तहारत रहने के इरादे से वुज़ू या ग़ुस्ल करे तो सही है और नमाज़ के वक़्त भी नमाज़ अगर नमाज़ के लिए तैयार होने की नियत से वुज़ू करे तो कोई हरज नही है।
327 अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त हो चुका है और वह वाजिब की नियत से वुज़ू करे और बाद में पता चले कि अभी नमाज़ का वक़्त नही हुआ था तो उसका वुज़ू सही है।
328 नमाज़े मय्यित के लिए ,कब्रिस्तान जाने के लिए, मस्जिद में दाखिल होने के लिए, आइम्मा-ए- मासूमीन के हरम में जाने के लिए, कुरआने करीम को साथ रखने के लिए, कुरआन को पढ़ने के लिए, कुरआन को लिखने व उसके हाशिये को छूने के लिए और सोने से पहले वुज़ू करना मुस्तहब है। और अगर कोई इंसान वुज़ू से हो तब भी हर नमाज़ के लिए दोबारा वुज़ू करना मुस्तहब है। अगर इंसान ऊपर बयान किये गये कामों में से किसी एक के लिए भी वुज़ू करे तो फिर वह उसी वुज़ू से वह तमाम काम कर सकता है जिनके लिए वुज़ू करना ज़रूरी है। मसलन उस वुज़ू के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।
वह चीज़ें जिन से वुज़ू बातिल हो जाता है।
329 सात चीज़ें ऐसी है जिन से वुज़ू बातिल हो जाता है।
· पेशाब करना
· पाख़ाना करना
· पेट की गैस का पाख़ाने के सुराख से निकलना
· ऐसी नींद जिस में न आँखें देख सके और न कान सुन सके। लेकिन अगर आँखे न देख रही हो लेकिन कान सुून रहे हो तो वुज़ू बातिल नही होता।
· ऐसी हालत हो जाना जिन में अक़्ल काम करना बंद कर देती है जैसे पागलपन व मस्ती या बेहोशी।
· औरतों का इस्तेहाज़ा होना (इसका ज़िक्र बाद में आयेगा।)
· जनाबत (संभोग) बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह हर काम जिसकी वजह से इंसान पर ग़ुस्ल वाजिब हो जाये।
जबीरह के अहकाम
ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी पर बाँधी जाने वाली चीज़ और ज़ख़्म पर लगाई जाने वाली दवा को जबीरह कहते हैं।
330 अगर वुज़ू वाले किसी हिस्से पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो या हड्डी टूटी हुई हो और उसके लिए पानी नुख़्सान दे न हो तो वुज़ू आम तरीक़े से करना चाहिए।
331 अगर किसी इंसान के चेहरे या हाथों पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो, या चेहरे या हाथ की हड्डी टूटी हुई हो और पानी उसके लिए नुक़्सान दे हो तो वुज़ू में उसके चारों तरफ़ का हिस्सा ऊपर से नीचे की तरफ़ आम तरीक़े से धोना चाहिए। और ज़ख़्म वाली जगह पर अगर तर हाथ फेरना नुक़्सान दे न हो तो, उस पर तर हाथ फेरे और बाद में एक पाक कपड़ा उस पर डाल कर गीला हाथ उस कपड़े पर भी फेरे। लेकिन अगर हड्डी टूटी हुई हो तो तयम्मुम करना लाज़िम है।
332 अगर किसी इंसान के सिर के सामने वाले हिस्से या पैर के मसाह करने वाले हिस्से पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो और उसका मुँह खुला हो या हड्डी टूटी हुई हो और यह ज़ख़्म मसेह की पूरी जगह को घेरे हो जिसकी बिना पर मसह न कर सकता हो या ज़ख़्म की वजह से मसेह के सही व सालिम हिस्से का मसाह करना भी उसकी कुदरत से बाहर हो तो इस हालत में उसके लिए ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर वुज़ू भी करे। और एक पाक कपड़ा ज़ख़्म पर डाल कर हाथ पर मौजूद वुज़ू के पानी की तरी से कपड़े पर मसाह करे।
333 अगर फोड़े या ज़ख़्म या टूटी हुई हड्डी का मुँह किसी चीज़ से बँधा हो और उसको बग़ैर तकलीफ़ के खोला जा सकता हो और पानी भी उसके लिए नुक़्सान दे न हो तो, उसे खोल कर वुज़ू करना ज़रूरी है। चाहे ज़ख़्म धोये जाने वाले हिस्सों पर हो या मसाह किये जाने वाले हिस्सों पर।
334 अगर किसी इंसान के चेहरे या हाथों पर कोई ज़ख़्म हो या हड्डी टूटी हो और वह किसी चीज़ से बँधा हो और उसका खोलना व उस पर पानी डालना नुक़्सान दे हो तो आस पास के जितने हिस्से को धोना मुमकिन हो उसे धोये और जबीरह (जिस कपड़े या चीज़ से उस ज़ख़्म को बाँधा गया है) पर मसाह करे।
335 अगर ज़ख़्म का मुँह न खुल सकता हो और खुद ज़ख्म और वह चीज़ जो उस पर बाँधी गई है पाक हो और ज़ख़्म तक पानी पहुँचाना मुमकिन हो और पानी ज़ख़्म के लिए नुक़्सान दे भी न हो तो ज़रूरी है कि पानी ज़ख़्म के मुँह पर ऊपर से नीचे की तरफ़ पहुँचाया जाये। लेकिन अगर ज़ख़्म या उस पर लगाई गई चीज़ नजिस हो और उसका धोना व ज़ख़्म के मुँह तक पानी पहुँचाना मुमकिन हो और पानी उसके लिए नुक़्सान दे न हो तो ज़रूरी है कि उसे धोये और वुज़ू करते वक़्त ज़ख़्म के मुँह तक पानी पहुँचाये। लेकिन अगर ज़ख़्म तक पानी पहुँचाना मुमकिन न हो या अगर ज़ख़्म नजिस हो और उसे पाक न किया जा सकता हो तयम्मुम करना लाज़िम है।
336 अगर जबीरह वुज़ू वाले किसी एक हिस्से पर हो तो वुज़ू-ए-जबीरह करना ही काफ़ी है । लेकिन अगर जबीरह वुज़ू के तमाम हिस्सों पर हो तो एहतियात की बिना पर ऐसे इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी है और उसे वुज़ू-ए- जबीरह भी करनी चाहिए।
337 यह ज़रूरी नही है कि जबीरह सिर्फ़ उन चीज़ों से ही हो जिन के साथ नमाज़ पढ़ना सही है। बल्कि अगर जबीरह रेशम या उन हैवान के अजज़ा से बना हो जिन का गोश्त खाना हराम है तब भी उस पर मसाह करना जायज़ है।
338 जिस इंसान की हथेली और उंगलियों पर जबीरह हो और वुज़ू करते वक़्त उसने तर हाथ उस पर फेरा हो तो वह सिर और पैर का मसाह इसी तरी से करे।
339 अगर किसी इंसान के पैरों के ऊपर वाले हिस्से पर जबीरह हो लेकिन कुछ हिस्सा उंगलियों की तरफ़ से और कुछ हिस्सा पैर के ऊपर वाले हिस्से की तरफ़ से खुला हो तो जो जगह खुली है उन पर आम तरीक़े से और जहाँ पर जबीरह है वहाँ जबीरह पर मसाह करना ज़रूरी है।
340 अगर चेहरे या हाथों पर कई जबीरह हों तो उनके बीच वाला हिस्सा धोना ज़रूरी है और अगर सिर या पैर के ऊपर वाले हिस्से पर जबीरह हो तो उनके भी बीच वाले हिस्सों का मसाह करना ज़रूरी है। और जहाँ जबीरह हो वहाँ पर जबीरह के अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है।
341 अगर जबीरह तयम्मु के हिस्सों पर न हो और ज़ख़्म के आस पास के हिस्सों को मामूल से ज़्यादा घेरे हुए हो और उसे बग़ैर तकलीफ़ के हटाना मुमकिन न हो तो ऐसे इंसान के लिए ज़रूरी है कि तयम्मुम करे। लेकिन अगर जबीरह तयम्मुम के हिस्सों पर हो तो इस सूरत में ववज़ू और तयम्मु दोनों करने चाहिए। और दोनों हालतों में अगर जबीरह का हटाना बग़ैर तकलीफ़ के मुमकिन हो तो उसे हटाना चाहिए। और अगर ज़ख़्म चेहरे या हाथों पर हो तो उसके आस पास की जगह को धोये और अगर सिर या पैर के ऊपर वाले हिस्से पर हो तो उसके आस पास की जगहों का मसाह करे और ज़ख़्म की जगह के मसहे के लिए जबीरह के हगुक्म पर अमल करे।
342 अगर किसी इंसान के वुज़ू के हिस्सों पर न ज़ख़्म हो और न ही उनकी हड्डियाँ टूटी हुई हों, लेकिन किसी दूसरी वजह से पानी उन के लिए नुक़्सान दे हो तो ऐसे इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी है।
343 अगर वुज़ू वाले किसी हिस्से की किसी रग से ख़ून निकल आये और उसे दोना मुमकिन न हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है। लेकिन अगर सिर्फ़ पानी उसके लिए नुक़्सान दे हो तो फिर जबीरहके अहकामपर अमल करना ज़रूरी है।
344 अगर इंसान के बदन पर कोईज्ञ चीज़ चिपक गई हो और वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए उसका उतारना मुमकिन न हो या उसे उतारने में नाक़ाबिले बर्दाश्त तकलीफ़ का सामना करना पड़े तो ऐसे इंसान के लिए ज़रूरी है वह तयम्मुम करे।लेकिन अगर चिपकी हुई चीज़ तयम्मुम वाले हिस्सों पर हो तो इस हालत मेंज़रूरी है कि वुज़ू और तयम्मुम दोनों करे। लेकिन अगर चिपकी हुई चीज़ दवा हो तो वह जबीरह के हुक्म में आती है।
345 ग़ुस्ले मसे मय्यित के अलावा हर तरह के ग़ुस्ल में ग़ुस्ले जबीरह वुज़ू-ए- जबीरह की तरह है। लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि ्गर किसी इंसान को ग़ुस्ले जबीरह करना है तो वह ग़ुस्ले तरतीबी करे ग़ुस्ले इरतेमासी न करे। और ज़ाहिरे हुक्म यह है कि अगर बदन पर कोई ज़ख़्म या फोड़ा हो तो इस हालत में इंसान को इख़्तियार है कि चाहे ग़ुस्ल करे या तयम्मुम। अब अगर वह ग़ुस्ल को इख़्तियार करे और ज़ख्म या फोड़े पर जबीरह न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ज़ख़्म या फोड़े पर पाक कपड़ा रखे और उसके ऊपर मसाह करे । और अगर बदन का कोई हिस्सा टूटा हुआ हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे और एहतियातन जबीरह के ऊपर मसाह भी करे और अगर जबीरह के ऊपर मसाह करना मुमकिन न हो या जो जगह टूटी हुई हो वह खुली हुई हो तो तयम्मुम करना ज़रूरी है।
346 जिस इंसान के लिए तयम्मुम करना ज़रूरी हो अगर उसके तयम्मुम के किसी हिस्से पर ज़ख़्म या फोड़ा हो या हड्डी टूटी हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह वुज़ू-ए-जबीरह की तरह तयम्मुम-ए- जबीरह करे।
347 जिस इंसान के लिए वुज़ू-ए- जबीरह या गुस्ल-ए- जबीरह कर के नमाज़ पढ़ना ज़रूरी हो तो अगर वह जानता हो कि नमाज़ के आख़िरी वक़्त तक उसकी मजबूरी ख़त्म नही होगी तो वह अव्वले वनक़्त नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर उसे उम्मीद हो कि आख़िरे वक़्त तक उसकी मजबूरी ख़त्म हो जायेगी तो बेहतर यह है कि वह इन्तेज़ार करे और अगर उसकी मजबूरी ख़त्म न हो तो आख़िरे वक़्त में वुज़ू-ए- जबीरह या ग़ुस्ले जबीरह कर के नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर अव्वले वक़्त नमाज़ पढ ले और आख़िरे वक़्त में उसकी मजबूरी ख़त्म हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू या ग़ुस्ल करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।
348 अगर कोई इंसान आँख की बीमारी की वजह से अपनी पलकों को बंद रखता हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करे।
349 अगर कोई इंसान यह न जानता हो कि उसकी ज़िम्मेदारी तयम्मुमकरने की है या वुज़ू-ए- जबीरह की तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह तयम्मुम और वुज़ू-ए- जबी
350 जो नमाज़ें किसी इंसान ने वुज़ू-ए- जबीरह कर के पढ़ी हों वह सही हैं और इसी वुज़ू के साथ आइन्दा की नमाज़े भी पढ़ सकता है।
अज़ान व इक़ामत
925. हर मर्द और औरत के लिए मुस्तहब है कि रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों से पहले अज़ान व इक़ामत कहे। इनके अलावा दूसरी वाजिब और मुस्तहब नमाज़ों से पहले अज़ान व इक़ामत कहना मशरूअ नही है। लेकिन अगर ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुरबान की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जा रही हो तो मुस्तहब है कि नमाज़ से पहले तीन बार अस्सलात कहे।
926. मुस्तहब है कि बच्चे की पैदाइश के पहले दिन या नाफ़ उखड़ने से पहले उसके दाहिने कान में अज़ान और बायें कान में इक़ामत कही जाये।
927. अज़ान में अठ्ठारह जुमले हैं।
अल्लाहु अकबर, चार बार
अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, दो बार
अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, दो बार
हय्या अलस्सलात, दो बार
हय्या अलल फ़लाह, दो बार
हय्या अला ख़ैरिल अमल, दो बार
अल्लाहु अकबर, दो बार
ला लाहा इल्लल्लाह, दो बार ।
और इक़ामत में सतरह जुम्ले हैं, जो इस तरह हैं।
अल्लाहु अकबर, दो बार
अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, दो बार
अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, दो बार
हय्या अलस्सलात, दो बार
हय्या अलल फ़लाह, दो बार
हय्या अला ख़ैरिल अमल, दो बार
क़द क़ा-मतिस्सलात, दो बार
अल्लाहु अकबर, दो बार
ला इलाहा इल्लल्लाह, एक बार।
928. अशहदु अन्ना अमीरल मोमिनीना अज़ान व इक़ामत का हिस्सा नही है, लेकिन अगर अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह के बाद क़ुरबत की नियत से कहा जाये तो बेहतर है।
अज़ान व इक़ामत का तर्जमा
अल्लाहु अकबर यानी अल्लाह सबसे बड़ा है। अल्लाह इससे बहुत बड़ा है कि उसकी तारीफ़ की जा सके।
अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के अलावा और कोई माबूद (इबादत योग्य) नही है।
अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (स.) अल्लाह के रसूल हैं।
अशहदु अन्ना अमीरल मोमेनीना अलीयन वली युल्लाह, यानी मैं गवाही देता हूँ कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम मोमिनों के अमीर और अल्लाह के वली हैं।
हय्या अलस्सलात, यानी नमाज़ के लिए जल्दी करो।
हय्या अलल फ़लाह, यानी कामयाबी के लिए जल्दी करो।
हय्या अला ख़ैरिल अमल, यानी बेहतरीन अमल के लिए जल्दी करो।
क़द क़ा-मतिस्सलात, यानी नमाज़ क़ायम हो गई।
ला इलाहा इल्लल्लाह, यानी अल्लाह के अलावा और कोई माबूद (इबादत योग्य) नही है।
929. ज़रूरी है कि अज़ान व इक़ामत के जुमलों के बीच ज़्यादा फ़ासला न दिया जाये, अगर उनके जुमलों के बीच मामूल से ज़्यादा फ़ासला दे दिया जाये, तो ज़रूरी है कि अज़ान व इक़ामत दोबारा पढ़ी जाये।
930. अगर अज़ान व इक़ामत में आवाज़ को गले में इस तरह घुमाये कि ग़िना हो जाये, यानी अज़ान व क़ामत इस तरह कहे जैसे गाने बजाने और खेल कूद की महफ़िलों में आवाज़ निकालने का रिवाज है, तो यह हराम है और अगर ग़िना न हो तो मकरूह है।
931. जब दो नमाज़ों को मिलाकर पढा जा रहा हो तो अगर पहली नमाज़ के लिए अज़ान कही हो तो बाद वाली नमाज़ के लिए अज़ान साक़ित है। चाहे दो नमाज़ों को मिलाकर पढ़ना बेहतर हो या न हो, मसलन अर्फ़े के दिन (नवीं ज़िलहिज) ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ों को मिला कर पढ़ना और ईदे क़ुरबान की रात में मग़रिब व इशा की नमाज़ को मिला कर पढ़ना उस इंसान के लिए जो मशअरिल हराम में मौजूद हो इन सूरतों में अज़ान के साक़ित होने के लिए शर्त है कि दोनों नमाज़ों के बीच कोई फ़ासला न हो या फ़ासला बहुत कम हो, लेकिन नमाज़े नाफ़िला और ताक़ीबात से कोई फ़र्क़ नही पड़ता। एहतियाते वाजिब यह है कि इन सूरतों में अज़ान मशरूइय्यत की नियत से न कही जाये, बल्कि आख़िरी दो सूरतों में अज़ान कहना मुनासिब नही है, चाहे वह मशरूइय्यत की नियत से भी न हो।
932. अगर नमाज़े जमाअत के लिए अज़ान व इक़ामत कही जा चुकी हो तो जो इंसान जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ रहा हो, उसके लिए ज़रूरी नही है कि वह अपनी नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत कहे ।
933. अगर कोई इंसान नमाज़ के लिए मस्जिद में जाये और देखे कि नमाज़े जमाअत ख़त्म हो चुकी है तो जब तक सफ़े टूट न जाये और लोग इधर उधर न हो जाये वह अपनी नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत न कहे यानी इन दोनों का कहना इमुस्तहबे ताकीदी नही है। बल्कि अगर वह अज़ान कहना चाहे तो बेहतर यह है कि बहुत आहिस्ता कहे और अगर दूसरी नमाज़े जमाअत क़ायम करना चाहता हो तो हर गिज़ अज़ान व इक़ामत न कहे।
934. जिस जगह पर कोई नमाज़े जमाअत ताज़ा ख़त्म हुई हो, अगर वहाँ पर कोई इंसान सफ़ें टूटने और लोगों के इधर उधर होने से पहले, अपनी फुरादा नमाज़ पढ़ना चाहे या किसी दूसरी ऐसी नमाज़े जमाअत में शरीक होना चाहे जो अभी बरपा हो रही हो, तो उससे इन छः शर्तों के साथ अज़ान व इक़ामत साक़ित है।
1.    नमाज़े जमाअत मस्जिद में हो। अगर मस्जिद में न हो तो अजद़ान व क़ामत का साक़ित होना मालूम नही।
2.    उस नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत कही जा चुकी हो।
3.    नमाज़े जमाअत बातिल न हो।
4.    उस इंसान की नमाज़ और नमाज़े जमात एक ही जगह पर हो। लिहाज़ा अगर नमाज़े जमाअत मस्जिद के अन्दर पढ़ी जाये और वह इंसान फ़ुरादा नमाज़ मस्जिद की छत पर पढ़ना चाहे तो मुस्तहब है कि वह अज़ान व इक़ामत कहे।
5.    नमाज़े जमाअत अदा हो। लेकिन यह शर्त नही है कि ख़ुद उसकी नमाज़ भी अदा हो।
6.    उस इंसान की नमाज़ और नमाज़े जमाअत का वक़्त मुशतरक हो मसलन दोनों नमाज़े ज़ोह्र या नमाज़े अस्र पढ़ें। या नमाज़े ज़ोह्र जमाअत से पढ़ी जा रही हो और वह नमाज़े अस्र पढ़े या वह नमाज़े ज़ोह्र पढ़े और जमाअत की नमाज़, नमाज़े अस्र हो, लेकिन अगर नमाज़े जमाअत अस्र की हो और वह आखिरी वक़्त में चाहे कि नमाज़े मगरिब अदा पढ़े तो उससे अज़ान व इक़ामत साक़ित नही होगी।
935. जो शर्तें इससे पहले मस्अले में बयान की गई हैं अगर कोई इंसान उनमें से तीसरी शर्त के बारे में शक करे यानी उसे शक हो कि नमाज़े जमाअत सही थी या नही तो उससे अज़ान व इक़ामत साक़ित है। लेकिन अगर इसके अलावा बाक़ी पाँच शर्तों के बारे में शक करे तो बेहतर है कि रजा–ए- मतलूबियत की नियत से अज़ान व इक़ामत कहे।
936. अगर कोई इंसान किसी दूसरे की अज़ान जो एलान या जमाअत की नमाज़ के लिए कही जाए सुने तो मुस्तहब है कि उसका जो हिस्सा सुने उसे ख़ुद भी आहिस्ता आहिस्ता दोहराए।
937. अगर किसी इंसान ने किसी दूसरे् की अज़ान व इक़ामत सुनी हो तो चाहे वह ुसने उन जुमलो को दोहराया हो या न दोहराया हो तो अगर अज़ान व इक़ामत और ुस नमाज़ के बीच जो वह पढ़ना चाहता है ज़्यादा फ़ासिला न हुआ हो तो वह अपनी नमाज़ के लिए अज़ान व इक़ामत कह सकता है।
938. अगर कोई मर्द औरत की ्ज़ान को लज़्ज़त के क़स्द से सुने तो उसकी अज़ान साक़ित नही होगी, बल्कि ्गर मर्द का िरादा लज़्ज़त हासिल करना न भी हो तब भी उसकी अज़ान साक़ित होना मुशकिल है।
939. ज़रूरी है कि नमाज़े जमाअत की अज़ान व िक़ामत मर्द कहे, लेकिन औरतों की नमाज़े जमाअत में अगर औरत अज़ान व इक़ामत कहे तो काफ़ी है।
940. ज़रूरी है कि इक़ामत अज़ान के बाद कही जाये, िसके अलावा इक़ामत में यह भी मोतबर है कि खड़े हो कर और हदस से पाक हो कर (यानी वुज़ू या ग़ुस्ल या तयम्मुम की हालत में) कही जाये।
941. अगर कोई िंसान अज़ान व इक़ामत के जुमले तरतीब के बग़ैर कहे मसलन हय्या अलल फ़लाह को हय्या अलस्सलः से पहले कहे तो ज़रूरी है कि जहँ से तरतीब बिगड़ी हो वहाँ से दुबारा कहे।
942. ज़रूरी है कि अज़ान व िक़ामत के बीच फ़ासिला न हो और अगर उन दोनों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि जो अज़ान कही जा चुकी हो, उसे उस इक़ामत की अज़ान शुमार न किया जासके तो दोबारा अज़ान कहना मुस्तहब है। इसके अलावा अगर अज़ान व इक़ामत और नमाज़ के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि वह अज़ान व इक़ामत उस नमाज़ की अज़ान व िक़ामत न कही जा सके तो उस नमाज़ के लिए दोबारा अज़ान व इक़ामत कहना मुस्तहब है।
943. अज़ान व िक़ामत का सही अर्बी में कहना ज़रूरी है। लिहाज़ा अगर कोई िंसान ुन्हें ग़लत अरबी में कहे या एक हर्फ़ की जगह कोई दूसरा हर्फ़ कहे या इउनका तर्जमा उर्दू या हिन्दी में कहे सही नही है।
944. ज़रूरी है कि अज़ान व इक़ामत को नमाज़ का वक़्त दाख़िल हो जाने के बाद कहा जाये। अगर कोई िंसान जान बूझ कर या भूल चूक की बिना पर अज़ान व िक़ामत को वक़्त से पहले कहे तो बातिल है। लेकिन अगर ऐसी सूरत हो कि वक़्त नमाज़ के दरमियान दाख़िल हो तो वह नमाज़ सही होगी, इसको मसला न. 752 में बयान किया जा चुका है।
945. अगर कोई िंसान इक़ामत कहने से पहले शक करे कि अज़ान कही है या नही तो ज़रूरी है कि पहले अज़ान कहे और ्गर इक़ामत कहने में मशग़ूल हो जाए और शक करे कि अज़ान कही है या नही तो अज़ान कहना ज़रूरी नही है।
946. अगर अज़ान व इक़ामत कहते वक़्त कोई शक करे कि इससे पहला जुमला कहा है या नही तो जिस जुमले के बारे में उसे शक हो वह जुमला कहे , लेकिन अगर उसे अज़ान व इक़ामत का कोई जुमला कहते हुए शक हो कि उसने इससे पहले वाला जुमला कहा है या नही तो उस जुमले का कहना ज़रूरी नही है।
947. अज़ान कहते वक़्त मुस्तहब है कि इं्सान वुज़ू से हो, किबला रुख़ खड़ा हो, दोनों हाथों को कानों पर रखे और ूँची आवाज़ में अज़ान कहे, दो जुमलों के बीच थोड़ा फ़ासिला रखे और दो जुमलों के बीच बाते न करे।
948. इक़ामत कहते वक़्त मुस्तहब है कि इंसान का बदन साकिन हो और इक़ामत को अज़ान के मुक़ाबले में आहिस्ता कहा जाये और उसके दो जुमलों को स में न मिलाया जाये। लेकिन दो जुमलों के बीच फ़ासिला नही देना चाहिए जितना अज़ान के जुमलों के बीच दिया जाता है।
949. अज़ान कहने के बाद और इक़ामत कहने से पहले एक क़दम आगे बढ़ना या थोड़ी देर के लिए बैठना या सजदा करना या अल्लाह का ज़िक्र करना या दुआ पढ़ना या थोड़ी देर के लिए साकित हो जाना या कोई बात कहना या दो रकत नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है। लेकिन सुबह की अज़ान व इक़ामत के बीच कलाम करना और नमाज़े मग़रिब की अज़ान व िक़ामत के बीच दो रकत नमाज़ पढ़ना मुस्तहब नही है।
950. मुस्तहब है कि जिस इंसान को अज़ान देने पर मुक़र्रर (नियुक्त) किया जाये वह आदिल और वक़्त की पहचान रखने वाला हो यह भी मुस्तहब है कि वह उँची जगह खड़ा हो कर बलन्द आवाज़ में अज़ान कहे।
अज़ाने सुबह तक जनाबत, हैज़ व निफ़ास की हालत में रहना-
(1628) अगर जुनुब(सम्भोग किया हुआ) शख़्स माहे रमज़ान में जान बूझ कर अज़ाने सुबह तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह जान बूझकर तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का हुकम भी यही है।
(1629) अगर जुनुब शख़्स(सम्भोग किया हुआ)माहे रमज़ान के रोज़ों और उन की क़ज़ा के अलावा उन वाजिब रोज़ों में जिन का वक़्त माहे रमज़ान की तरह मुऐय्यन है जान बूझ कर अज़ाने सुबह तक ग़ुस्ल न करे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सही है।
(1630) अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में जुनुब हो जाये तो अगर वह अमदन ग़ुस्ल न करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाये तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस की क़ज़ा भी बजा लाये।
(1631) अगर शख़्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाये और एक दिन के बाद याद आये तो ज़रूरी है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो इतने दिनों के रोज़ों की क़जा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब था। मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिन के रोज़ों की कज़ा करे।
(1632) अगर एक ऐसा शख्स अपने को जुनुब कर ले जिस के पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तयम्मुम में से किसी के लिए भी वक़्त न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा और कफ़्फारा दोनों वाजिब हैं।
(1633) अगर रोज़े दार यह जानने के लिए जुस्तुजू करे कि उस के पास वक़्त है या नही और गुमान करे कि उस के पास ग़ुस्ल के लिए वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में उसे पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम करे तो उस का रोज़ा सही है और अगर बग़ैर जुस्तुजू किये गुमान करे कि उस के पास वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम कर के रोज़ा रखे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।
(1634) जो शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और जानता हो कि अगर सो जायेगा तो सुबह तक बेदार न होगा उसे बग़ैर ग़ुस्ल किये नही सोना चाहिये और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मर्ज़ी से सो जाये और सुबह तक बेदार न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा व कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हैं।
(1635) जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सो कर जाग उठे तो एहतियाते वाजिब यह है कि अगर वह बेदार होने के बारे में मुतमइन न हो तो गुस्ल से पहले न सो अगरचे इस बात का एहतेमाल हो कि अगर दोबारा सो गाया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा।
(1636) अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और उस का मुसम्मम इरादा हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाये और अज़ान तक सोता रहे तो उस का रोज़ा सही है। और अगर कोई शख्स सुबह की अज़ान से पहले बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो उस के लिए भी यही हुक्म है।
(1637) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की रात में जुनुब हो और उसे इल्म हो या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह इस बात से ग़ाफ़िल हो कि बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो इस सूरत में जब कि वह सो जाये और सुबह की अज़ान तक सोता रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा वाजिब हो जाती है।
(1638) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो इस सूरत में जब कि वह सो जाये और बेदार न हो उस का रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा उस के लिए लाज़िम है। और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो कि ग़ुस्ल करे या न करे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।
(1639) अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान की किसा रात में सो कर जाग उठे और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह मुसम्मम इरादा भी रखता हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और दुबारा सो जाये और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि बतौरे सज़ा उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे। और अगर दूसरी नींद से बेदार हो जाये और तीसरी दफ़ा सो जाये और सुबह की अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे और एहतियात मुस्तहब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी दे।
(1640) जब इंसान को नींद में एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो जाये तो पहली दूसरी और तीसरी नींद से मुराद वह नींद है जो इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोये लेकिन वह नींद जिस में एहतिलाम हुआ पहली शुमार नही होती।
(1641) अगर किसी रोज़े दार को दिन में एहतिलाम हो जाये तो उस पर फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं।
(1642) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो कि यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है उस का रोज़ा सही है।
(1643) जो शख्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और सुबह की अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उस का इस हातल में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता और अगर अमदन न हो तो रोज़ा रख सकता है अगरचे एहतियात यह है कि रोज़ा न रखे।
(1644) जो शख्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुबह की अज़ान के बाद बेदार हो और देखे कि उसे एहतिलाम हो गाया है और जानता हो कि यह एहतिलाम उसे सुबह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की नियत से रोज़ा रख सकता है।
(1645) अगर माहे रमज़ान के रोज़ों के अलावा ऐसे वाजिव रोज़ों में कि जिन का वक़्त मुऐय्यन नहीं है मसलन कफ़्फ़ारे के रोज़े में कोई शख्स अमदन अज़ान सुबह तक जुनुब रहे तो अज़हर यह है कि उस का रोज़ा सही है लेकिन बेहतर है कि उस दिन के अलावा रोज़ा रखे।
(1646) अगर रमज़ान के रोज़ों में औरत सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और अमदन ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में अगरचे उसके इख़्तियार में हो और रमज़ान का रोज़ा हो तयम्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है और एहतियात की बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म है (यह उस का रोज़ा बातिल है) और इन दोनो के अलावा दिगर सूरतों में बातिल नही अगरचे अहवत यह है कि ग़ुस्ल करे। माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़म्मेदारी हैज़ या निफ़ास के ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम हो और इसी तरह एहतियात की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा में अगर जान बूझ कर अज़ान सुबह से पहले तयम्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।
(1647) अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और गुस्ल के लिए वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और सुबह की अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नही है। जिस जुनुब शख्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो उस के लिए भी यही हुकम है।
(1648) अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के नज़दीक हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और गुस्ल या तयम्मुम किसी के लिए वक़्त बाक़ी न हो तो उस का रोज़ा सही है।
(1649) अगर कोई औरत सुबह की अज़ान के बाद हैज़ या निफ़ास के खून से पाक हो जाये या दिन में उसे हैज़ या निफ़ास का खून आ जाये तो अगरचे यह खून मग़रिब के क़रीब ही क्यों न आये उस का रोज़ा बातिल है।
(1650) अगर औरत हैज़ या निफ़ास का ग़ुस्ल करना भूल जाये और उसे एक दिन या कई दिन के बाद याद आये तो जो रोज़े उस ने रखे हैं वह सही हैं।
(1651) अगर औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो उस का रोज़ा बातिल है लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुनतज़िर हो कि ज़नाना हम्माम मयस्सर आ जाये चाहे उस मुद्दत में वह तीन दफ़ा सोये और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तयम्मुम करने में भी कोताही न करे तो उस का रोज़ा सही है।
(1652) जो औरत इस्तेहाज़ा-ए- कसीरा की हालत में हो अगर वह अपने ग़ुसलों को उस तफ़सील के साथ न बजा लाये जिस का ज़िक्र मसअला न.402 में किया गया है तो उस का रोज़ा सही है। ऐसे ही इस्तेहाज़ा-ए- मुतावस्सेता में अगरचे औरत गुस्ल न भी करे, उस का रोज़ा सही है।
(1653) जिस शख्स ने मय्यित को मस किया हो यानी बदन का कोई हिस्सा मय्यित के बदन से छूवा हो वह ग़ुस्ले मसे मय्यित के बग़ैर रोज़ा रख सकता है और अगर रोज़े की हातल में भी मय्यित को मस करे तो उस का रोज़ा बातिल नही होता।
हैज़ (महावारी)
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
औरतों के रहम (गर्भाश्य) से हर महीने कुछ दिनों तक जो ख़ून निकलता है, उसे हैज़ कहते हैं और जिस औरत को यह ख़ून आ रहा होता है उसे हाइज़ कहते हैं।
440 आम तौर पर हैज़ का ख़ून गढ़ा, गर्म और स्याह व सुर्ख रंग का होता है और आमतौर पर जलन के साथ उछल कर निकलता है।
441 वह ख़ून जो औरतों को साठ साल पूरे होने के बाद आता है वह हैज़ के हुक्म में नही होता। अगर पचास और साठ साल के बीच किसी ग़ैरे हाशिमी औरत को कोई ऐसा ख़ून आये कि अगर वह उसको पचास साल से पहले आता, तो यक़ीनन हैज़ होता, तो इस हालत में एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह मुस्तेहाज़ः के अहकाम पर अमल करे और उन कामों को तर्क करे जिन्हें हाइज़ तर्क करती है।
442 अगर किसी लड़की को नौ साल से पहले कोई ख़ून आ जाये, तो वह हैज़ नही है।
443 हामिलः (गर्भवती) और बच्चे को दूध पिलाने वाली औरत को भी हैज़ आना मुम्किन है। हामिलः व ग़ैरे हामिलः का हुक्म एक ही है, बस यह फ़र्क़ है कि हामिलः औरत को उसकी आदत के दिन शुरू होने के बीस दिन बाद भी अगर ऐसा ख़ून आ जाये जिसमें हैज़ की निशानियाँ पाई जाती हों तो एहतियात की बिना पर उसके लिए ज़रूरी है कि उन कामों को तर्क कर दे जिन्हें हाइज़ तर्क करती है और मुस्तेहाज़ः के अहकाम पर भी अमल करे।
444 अगर किसी ऐसी लड़की को ख़ून आ जाये जिसे अपनी उम्र के नौ साल पूरे होने का इल्म न हो और उस ख़ून में हैज़ की निशानियाँ भी मौजूद न हों, तो वह हैज़ नही है। लेकिन अगर उस ख़ून में हैज़ की निशानियाँ मौजूद हों तो उस पर हैज़ का हुक्म लगाना महल्ले इशकाल है, मगर यह कि इत्मीनान हो जाये कि यह हैज़ ही है। इस सूरत में यह मालूम हो जायेगा कि उसकी उम्र पूरे नौ साल हो गई है।
445 जिस औरत को शक हो कि उसकी उम्र साठ साल हो गई है या नही और उसे कोई ऐसा ख़ून आ जाये जिसके हैज़ होने के बारे में उसे शक हो, तो उसे समझना चाहिए कि उसकी उम्र अभी साठ साल नही हुई है।
446 हैज़ की मुद्दत तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा नही होती और अगर ख़ून आने की मुद्दत तीन दिन से भी कम हो तो वह हैज़ नही होगा।
447 हैज़ के लिए ज़रूरी है कि पहले तीन दिन लगातार आये, लिहाज़ा मिसाल के तौर पर अगर किसी औरत को दो दिन ख़ून आये, फिर एक दिन बंद रहे और फिर एक दिन आ जाये तो यह हैज़ नही है।
448 हैज़ की इब्तदा में ख़ून का बाहर आना ज़रूरी है, लेकिन यह ज़रूरी नही है कि पूरे तीन दिन ख़ून निकलता रहे, बल्कि अगर शर्मगाह में ख़ून मौजूद रहे तो काफ़ी है। अगर उन तीन दिनों की मुद्दत में थोड़ी देर के लिए ख़ून बंद भी हो जाये, जैसा कि तमाम या कुछ औरतों को होता है, तो वह हैज़ ही है।
449 औरत के लिए ज़रूरी नही है कि उसका ख़ून पहली व चौथी रात में बाहर निकले, लेकिन यह ज़रूरी है कि दूसरी व तीसरी रात में ख़ून मुन्क़ता न हो। पस अगर पहले दिन सुबह सवेरे से तीसरे दिन सूरज के छिपने तक ख़ून लगातार आता रहे और किसी वक़्त बंद न हो तो वह हैज़ है। अगर पहले दिन दोपहर से ख़ून आना शुरू हो और चौथे दिन उसी वक़्त बंद हो तो उसकी सूरत भी यही है।(यानी वह हैज़ है)
450 अगर किसी औरत को लगातार तीन दिन ख़ून आये और बंद हो जाये और फिर दोबारा ख़ून आये और ख़ून आने व बंद रहने वाले तमाम दिनों की तादाद दस से ज़्यादा न हो तो वह हैज़ के दिन हैं। लेकिन एहतियाते लाज़िम यह है कि बीच में जिन दिनों में ख़ून बंद रहे उनमें उन तमाम कामों को अंजाम दे जो हाइज़ पर हराम और पाक औरतों पर वाजिब हैं।
451 अगर किसी औरत को तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम ख़ून आये और उसे यह पता न हो कि यह ख़ून फोड़े या ज़ख़्म का है या हैज़ का, तो उस ख़ून को हैज़ नही समझना चाहिए।
452 अगर किसी औरत को ऐसा ख़ून आये जिसके बारे में न जानती हो कि यह हैज़ का ख़ून है या ज़ख़्म का, तो उसे चाहिए कि अपनी इबादत अंजाम देती रहे, लेकिन अगर उसकी साबेक़ा हालत हैज़ की हो, तो उसे हैज़ क़रार दे।
453 अगर किसी औरत को ख़ून आये और वह शक करे कि यह हैज़ है या इस्तेहाजः तो अगर उसमें हैज़ की निशानियाँ मौजूद हों, तो उसे हैज़ क़रार दे।
454 अगर किसी औरत को ख़ून आये और उसे यह पता न हो कि यह हैज़ का ख़ून है या बकारत का तो ज़रूरी है कि अपने बारे में तहक़ीक़ करे यानी कुछ रूई शर्मगाह में रख कर, थोड़ी देर के बाद बाहर निकाल कर देखे, अगर रूई ख़ून में चारों तरफ़ से आलूदा (सनी हुई) हो तो ख़ून बकारत का है और अगर तमाम रूई ख़ून में भीगी हो, तो हैज़ है।
455 अगर किसी औरत को तीन दिन से कम ख़ून आये और बंद हो जाये और फ़िर दोबारा तीन दिन ख़ून आये, तो दूसरा ख़ून हैज़ है और पहला ख़ून हैज़ नही है चाहे वह उसे उसकी आदत के दिनों में ही आया हो।
हाइज़ के अहकाम
456 हाइज़ पर कुछ ची ज़ें हराम हैं।
1) नमाज़ और वह तमाम इबादतें जिनके लिए वुज़ू ग़ुस्ल या तयम्मुम की ज़रूरत होती है। लेकिन उन इबादतों को अंजाम देने में कोई हरज नही है जिनके लिए वुज़ू या ग़ुस्ल की ज़रूरत नही होती, जैसे नमाज़े मय्यित।
2) वह तमाम काम जो मुजनिब पर हराम हैं और जिनका ज़िक्र जनाबत के अहकाम में किया जा चुका है।
3) फ़र्ज के रास्ते (यौनी मार्ग से) जिमाअ (संभोग) करना। यह मर्द और औरत दोनों के लिए हराम है चाहे मर्द का लिंग सुपारी तक ही अन्दर जाये और मनी (वीर्य) भी न निकले, बल्कि एहतियाते वाजिब यह है कि सुपारी से कम मिक़दार में भी अन्दर दाख़िल न किया जाये और एहतियात की बिना पर औरत से दुबर (गुदा) के रास्ते भी जिमाअ (संभोग) न किया जाये, चाहे वह हाइज़ हो या न हो।
457 उन दिनों में भी जिमाअ (संभोग) करना हराम है जिनमें औरत का हैज़ यक़ीनी न हो, लेकिन शरअन उसके लिए ज़रूरी हो कि वह अपने को हाइज़ क़रार दे। जैसे जिस औरत को दस दिन से ज़्यादा ख़ून आया हो उसके लिए ज़रूरी है कि उस हुक्म के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बाद में किया जायेगा, आपने आपको उतने दिनों के लिए हाइज़ क़रार दे जितने दिनों की उसके कुंबे की औरतों की आदत हो, तो उन दिनों में उसका शौहर उससे जिमाअ नही कर सकता।
458 अगर मर्द अपनी बीवी से हैज़ की हालत में जिमाअ (संभोग) करे तो ज़रूरी है कि इस्तग़फ़ार करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी दे, इसके कफ़्फ़ारा मस्ला न. 460 में बयान किया जायेगा।
459 हाइज़ औरत से, जिमाअ (संभोग) के अलावा दूसरे लुत्फ़ लेने की मनाही नही है जैसे बोसा लेना या.....।
460 हैज़ की हालत में जिमाअ करने का कफ़्फ़ारा पहले हिस्से में अठ्ठरह चनों के बराबर, दूसरे हिस्से में नौ चनों के बराबर और तीसरे हिस्से में साढ़े चार चनों के बराबर सिक्केदार सोना है। मसलन अगर किसी औरत को छः दिन हैज़ आये और उसका शौहर उससे पहली या दूसरी रात या दिन में जिमाअ करे तो अठ्ठरह चनों के बराबर सोना दे और अगर तीसरी या चौथी रात या दिन में जिमाअ करे तो नौ चनों के बराबर सोना दे और अगर पाँचवीं या छठी रात या दिन में जिमाअ करे तो साढ़े चार चनों के बराबर सोना दे।
461 अगर सिक्केदार सोना मुमकिन न हो तो उसके बदले उसकी क़ीमत दे और अगर सोने की क़ीमत कफ़्फ़ारा देते वक़्त जिमाअ करने के वक़्त से मुख़तलिफ़ हो गई हो, तो वह फ़क़ीर को सोने की मौजूदा क़ीमत अदा करे।
462 अगर किसी इंसान ने अपनी बीवी से हैज़ के पहले, दूसरे और तीसरे हिस्से में अलग - अलग जिमाअ किया हो तो वह तीनों कफ़्फ़ारे दे, जो सब मिलाकर साढ़े इक्तीस चने (6.506 ग्राम) होते हैं।
463 अगर कोई इंसान हाइज़ से कई बार जिमाअ करे, तो बेहतर यह है कि हर जिमाअ के लिए अलग कफ़्फ़ारा दे।
464 अगर मर्द को जिमाअ (संभोग) करते वक़्त यह मालूम हो जाये कि औरत को हैज़ आने लगा है, तो ज़रूरी है फ़ौरन उससे अलग हो जाये और अगर अलग न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा अदा करे।
465 अगर कोई इंसान किसी हाइज़ औरत से ज़िना (अवैधानिक संभोग) करे या किसी नामहरम हाइज़ से, उसे अपनी बीवी गुमान करते हुए जिमाअ करे तब भी एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा दे।
466 अगर कोई इंसान अपनी हाइज़ बीवी से ना जानने या भूल की बिना पर जिमाअ करे, तो उस पर कफ़्फ़ारा नही है।
467 अगर कोई मर्द यह ख़्याल करते हुए कि उसकी बीवी हाइज़ है, उससे जिमाअ करे और बाद में मालूम हो कि वह हाइज़ नही थी, तो उस पर कफ़्फ़ारा नही है।
468 औरत को हैज़ की हालत में तलाक़ देना बातिल है। इसका ज़िक्र तलाक़ के अहकाम में किया जायेगा।
469 अगर कोई औरत यह कहे कि मैं हाइज़ हूँ या हैज़ से पाक हूँ और वह झूट भी न बोलती हो तो उसकी बात क़बूल की जायेगी। लेकिन अगर वह झूट बोलती हो तो उसकी बात क़बूल करने में इश्काल है।
470 अगर कोई औरत नमाज़ पढ़ते वक़्त हाइज़ हो जाये तो उसकी नमाज़ बातिल है।
471 अगर औरत नमाज़ पढ़ते वक़्त शक करे कि वह हाइज़ हुई है या नही तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ के दौरान हाइज़ हो गई थी, तो उसने जो नमाज़ पढ़ी है, वह बातिल है।
472 औरत के हैज़ से पाक हो जाने के बाद उस पर वाजिब है कि नमाज़ और उन इबादतों के लिए, जिनके लिए वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम ज़रूरी होता है, ग़ुस्ल करे। हैज़ के ग़ुस्ल का तरीक़ा जनाबत के ग़ुस्ल की तरह ही है और बेहतर यह है कि ग़ुस्ल से पहले वुज़ू भी किया जाये।
473 औरत के हैज़ से पाक हो जाने के बाद चाहे उसने ग़ुस्ल न किया हो तलाक़ देना सही है और उसका शौहर उससे जिमाअ भी कर सकता है। लेकिन एहतियात यह है कि जिमाअ से पहले शर्मगाह को धो लिया जाये। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि जब तक वह ग़ुस्ल न करले उसके साथ जिमाअ न किया जाये। अलबत्ता ग़ुस्ल से पहले वह दूसरे काम उस पर हलाल नही होते जो हैज़ के वक़्त उस पर हराम थे, जैसे मस्जिद में ठहरना या क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ को मस करना।
474 अगर औरत के पास इतना पानी न हो कि उससे वुज़ू व ग़ुस्ल दोनों किये जा सकते हो, लेकिन इतना पानी हो कि उससे ग़ुस्ल किया जा सकता हो, तो बेहतर यह है कि उस पानी से ग़ुस्ल करे और वुज़ू के बदले तयम्मुम करे। और अगर पानी इतना हो कि उससे सिर्फ़ वुज़ू किया जा सकता हो तो बेहतर यह है कि उससे वुज़ू करे और ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और अगर दोनों के लिए ही पानी न हो, तो ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करना ज़रूरी है और बेहतर यह है कि वुज़ू के बदले भी तयम्मुम किया जाये।
475 औरत ने हैज़ की हालत में जो नमाज़े न पढ़ी हों, उनकी कज़ा नही है। लेकिन रमज़ान के वह रोज़े जो हैज़ की हालत में न रखे हों, उनकी कज़ा वाजिब है। इसी तरह से जो रोज़े मन्नत की वजह से मुऐय्यन दिनों में वाजिब हुए हों और उसने हैज़ की वजह से उन रोज़ो को न रखा हो, तो उनकी क़ज़ा ज़रूरी है।
476 नमाज़ का वक़्त होने के बाद अगर औरत को यह यक़ीन हो जाये कि अगर उसने नमाज़ पढ़ने में देर की तो वह हाइज़ हो जायेगी, तो ज़रूरी है कि फ़ौरन नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ का वक़्त हो जाने के बाद उसे फ़क़त यह एहतेमाल हो कि अगर नमाज़ में देर की तो वह हाइज़ हो जायेगी, तब भी यही हुक्म है।
477 अगर औरत नमाज़ पढ़ने में देर करे और अव्वले वक़्त से इतना वक़्त गुज़र जाये जितना पानी से हदस की तहारत के बाद एक नमाज़ पढ़ने में लगता है, या एहतियाते लाज़िम की बिना पर तयम्मुम करके एक नमाज़ पढ़ने में लगता है, और वह हाइज़ हो जाये, तो उस पर उस नमाज़ की क़ज़ा वाजिब है। लेकिन नमाज़ के जल्दी जल्दी पढ़ने, ठहर ठहर कर पढ़ने और दूसरी बातों के बारे में ज़रूरी है कि अपनी आदत का लिहाज़ करे। मसलन अगर एक औरत जो मुसाफ़िर नही है अव्वले वक़्त में नमाज़े ज़ोह्र न पढ़े तो उसकी क़ज़ा उस पर उस सूरत में वाजिब होगी जबकि हदस से तहारत करने के बाद चार रकत नमाज़ पढ़ने के बराबर वक़्त, अव्वले ज़ोह्र से गुज़र जाये और वह हाइज़ हो जाये। लेकिन उस औरत के लिए जो मुसाफ़िर हो हदस से तहारत करने के बाद दो रकत नमाज़ पढ़ने के बराबर वक़्त गुज़र जाना भी काफ़ी है।
478 अगर कोई औरत नमाज़ के आख़िरी वक़्त में हैज़ से पाक हो जाये और उसके पास अन्दाज़न इतना वक़्त हो कि वह ग़ुस्ल करके एक या एक से ज़्यादा रकत नमाज़ पढ़ सकती हो, तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करके नमाज़ पढ़े और अगर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा करे।
479 अगर हाइज़ औरत के पास हैज़ से पाक होने के बाद इतना वक़्त न हो कि वह ग़ुस्ल करके नमाज़ पढ़ सके, मगर तयम्मुम करके नमाज़ पढ़ने का वक़्त हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर वह तयम्मुम करके नमाज़ पढ़े और अगर न पढ़े तो उसकी कज़ा लाज़िम है। लेकिन अगर वक़्त की तंगी के अलावा किसी और वजह से उसका फ़रीज़ा तयम्मुम हो मसलन पानी उसके लिए मुज़िर हो, तो ज़रूरी है कि वह तयम्मुम करके नमाज़ पढ़े और अगर न पढ़े तो उसकी क़ज़ा लाज़िम है।
480 अगर किसी औरत को हैज़ से पाक होने के बाद शक हो कि नमाज़ के लिए वक़्त बाक़ी है या नही, तो उसे नमाज़ पढ़नी चाहिए।
481 अगर कोई औरत इस ख़्याल से नमाज़ न पढ़े कि हदस से पाक होने के बाद उसके पास एक रकत नमाज़ पढ़ने के लिए भी वक़्त नही है, लेकिन बाद में पता चले कि वक़्त था, तो उस नमाज़ की क़ज़ा वाजिब है।
482 हाइज़ के लिए मुस्तहब है कि नमाज़ के वक़्त अपने आपको ख़ून से पाक रखे और जो रूई या कपड़े का टुकड़ा अपनी शर्मगाह पर लगा रखा हो उसे बदले, वुज़ू करे, अगर वुज़ू न कर सकती हो तो तयम्मुम करे और नमाज़ की जगह पर क़िबला रुख़ बैठ कर दुआ, ज़िक्र व सलवात में मशग़ूल हो जाये।
483 हाइज़ के लिए क़ुरआने करीम को पढ़ना, उसे अपने साथ रखना, उसके अलफ़ाज़ के दरमियानी हिस्से को अपने बदन से छूना और मेंहदी या उसी जैसी किसी और चीज़ से ख़िज़ाब करना मकरूह है।
हाइज़ औरतों की क़िस्में
484  हाइज़ औरतों की छः क़िस्में हैं।
1)          वक़्त और अदद की आदत रखने वाली औरत, यानी वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुऐय्यन वक़्त में ख़ून आये और दोनों महीनों में ख़ून आने के दिन बराबर हों, मसलन दोनों महीनों में पहली से सातवी तक ख़ून आये।
2)          वक़्त की आदत रखने वाली औरत, यानी वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुऐय्यन वक़्त पर ख़ून आये, मगर दोनों महीनों में ख़ून आने के दिन बराबर न हो, मसलन पहले महीने में पहली से सातवीँ तक और दूलरे महीने में पहली से आठवीं तक ख़ून आये।
3)          अदद की आदत रखने वाली औरत, यानी वह औरत जिसे यके बाद दीगरे दो महीनों में मुऐय्यन दिनों तक ख़ून आये, मगर हर महीने में ख़ून आने का वक़्त अलग - अलग हो, मसलन पहले महीने में पाँचवीं से दसवीं तक और दूसरे महीने में बारहवीं से सतरहवीं तक ख़ून आये।
4)          मुज़्तरिबः, यानी वह औरत जिसे कुछ महीने ख़ून आया हो लेकिन अभी उसकी आदत मुऐय्यन न हुई हो। या उसकी पहली आदत बिगड़ गई हो और अभी नई आदत न बनी हो।
5)          मुबतदिअः, यानी वह औरत जिसे पहली बार हैज़ आया हो।
6)          नासियः, यानी वह औरत जो अपनी आदत भूल गई हो।
इनमें से हर एक क़िस्म के अपने अहकाम हैं, जो आने वाले मस्अलों में बयान किये जायेंगे। 
1- वक़्त व अदद की आदत रखने वाली औरतें
485  जिन औरतों को वक़्त व अदद की आदत होती हैं उनकी दो क़िस्में हैं।
1)          वह औरत जिसे मुसलसल दो महीनों में एक मुऐय्यन वक़्त पर ख़ून आये और वह एक मुऐय्यन वक़्त पर ही पाक भी हो जाये। मसलन मुसलसल दो महीनों में उसे महीने की पहली तारीख़ को ख़ून आना शुरू हो और सातवें दिन बंद हो जाये, तो इस औरत की हैज़ की आदत महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक है।
2)          जिस औरत को यके बाद दीगरे दो महीनों में मुऐय्यन वक़्त पर ख़ून आये और तीन दिन या इससे ज़्यादा दिन ख़ून आने के बाद, एक या एक से ज़्यादा दिन बंद रहे और फिर दोबारा ख़ून आये और जितने दिन ख़ून आया हो और दरमियान में जितने दिन ख़ून बंद रहा हो, अगर उन सब दिनों का टोटल दस दिनों से ज़्यादा न हो और दोनों महीनों में उन तमाम दिनों की तादाद जिनमें ख़ून आया या बंद रहा हो एक जैसी हो, तो उसकी आदत उन दिनों के मुताबिक़ क़रार पायेगी जिनमें उसे ख़ून आया हो। लेकिन उन दिनों को शामिल नही कर सकती जिनमें दरमियान में पाक रही हो। लिहाज़ा ज़रूरी है कि जिन दिनों में उसे ख़ून आया हो और जिन दिनों में बंद रहा हो उनकी तादाद दोनों महीनों में बराबर हो। मसलन अगर पहले महीने में पहली से तीसरी तक ख़ून आये फिर तीन दिन बंद रहे और फिर तीन दिन ख़ून आये और दूसरे महीने में भी यह तरतीब बाक़ी रहे तो उस औरत की आदत छः दिन होगी। लिहाज़ा अगर दूसरे महीने में आने वाले ख़ून के दिनों की तादाद इससे कम या ज़्यादा हो जाये, तो उस औरत को वक़्त की आदत होगी अदद की नही।
486  जिस औरत को वक़्त की आदत हो, चाहे अदद की आदत हो या न हो, अगर उसे आदत के दिनों में दो तीन या इससे भी ज़्यादा दिन पहले ख़ून आ जाये और उसके बारे में यह कहा जा सके कि इसकी आदत वक़्त से पहले हो गई है, तो अगर उस ख़ून में हैज़ की निशानियाँ भी मौजूद न हों तब भी हाइज़ औरतों अहकाम पर अमल करेगी। और अगर बाद में उसे मालूम हो कि वह हैज़ का ख़ून नही था, मसलन तीन दिन से पहले ही बंद हो जाये तो उसे उन इबादतों की क़ज़ा अंजाम देनी होगी जो उसने उन दिनों में तर्क की हैं।
487  जिस औरत को वक़्त और अदद की आदत हो अगर आदत से कुछ दिन पहले, आदत के पूरे दिनों में और आदत के बाद भी ख़ून आये और सब दिनों की तादाद दस से ज़्यादा न हो, तो वह सब हैज़ होगा। लेकिन अगर उन दिनों की तादाद दस से ज़्यादा हो तो आदत के दिनों में आने वाला ख़ून हैज़ और उससे पहले या बाद में आने वाला ख़ून इस्तेहाज़ः होगा और हैज़ से पहले और बाद के दिनों में उसने जिन इबादतों को अंजाम नही दिया है उनकी क़ज़ा भी करनी होगी। इसी तरह अगर आदत से कुछ दिन पहले ख़ून आये और आदत के दिनों को मिला कर वह दस दिन से ज़्यादा न हो तो वह तमाम हैज़ होगा। और अगर दस दिन से ज़्यादा आये तो आदत के दिन हैज़ के शुमारर होंगे और आदत से पहले के दिन इस्तेहाज़ः के माने जायेंगे और उन दिनों में जो इबादतें छुटी हैं उनकी क़ज़ा करनी होगी। अगर आदत के दिन तमाम होने के बाद भी कुछ दिन ख़ून आये और कुल मिलाकर दस दिन से ज़्यादा न हो तो यह तमाम हैज़ होगा। लेकिन अगर यह सब दिन दस से ज़्यादा होंगे तो आदत के दिन हैज़ के और बाक़ी इस्तेहाज़ः के शुमार होंगे।
488 वक़्त और अदद की आदत रखने वाली औरत को अगर आदत से कुछ दिन पहले ख़ून आये और आदत के दिनों को मिला कर उनकी तादाद दस से ज़्यादा न हो, तो वह सब ख़ून हैज़ होगा और अगर दस दिन से ज़्यादा हो जाये तो आदत के दिनों में ख़ून आने वाले दिन और आदत से पहले के कुछ दिन जिनका मजमूआ आदत के बराबर हो जाये वह हैज़ और इससे पहले के दिन इस्तेहाज़ के होंगे और अगर आदत के दिनों के बाद भी कुछ दिन ख़ून आये और कुल मिलाकर दस दिन से ज़्यादा न हो तो वह सब हैज़ होगा और अगर दस दिन से ज़्यादा हो तो आदत के दिनों के बाद के कुछ दिन जिनकी कुल तादाद आदत के दिनों के बराबर हो वह हैज़ होगा और बाक़ी इस्तेहाज़ः।
489  आदत वाली औरत का ख़ून अगर तीन या इससे ज़्यादा दिन तक आने के बाद रुक जाये और फिर दोबारा ख़ून आये और इन दोनों खूनों का दरमियानी फ़ासिला दस दिन से कम हो और जिन दिनों में ख़ून आया है और जिन दिनों में बंद रहा वह सब दस से ज़्यादा हों(मसलन पाँच दिन ख़ून आया हो फिर पाँच दिन रुक गया हो और फिर पाँच दिन दोबारा ख़ून आया हो) तो इसकी चंद सूरते हैं।
1)          पहली बार का तमाम ख़ून या इसकी कुछ मिक़दार आदत के दिनों में हो और दूसरा ख़ून जो बंद होने के बाद दोबारा आया हो आदत के दिनों में न हो, तो पहले तमाम ख़ून को हैज़ और दूसरे ख़ून को इस्तेहाज़ः क़रार दिया जायेगा।
2)          पहला ख़ून आदत के दिनों में न आया हो और दूसरा तमाम ख़ून या उसकी कुछ मिक़दार आदत के दिनों में आई हो तो दूसरे तमाम ख़ून को हैज़ और पहले ख़ून को इस्तेहाज़ः क़रार दिया जायेगा।
3)          पहले और दूसरे ख़ून की कुछ मिक़दार आदत के दिनों में आये और आदत के दिनों में आने वाला पहला ख़ून तीन दिन से कम न हो और बीच के वह दिन जिनमें ख़ून बंद रहा हो और दूसरे ख़ून का कुछ हिस्सा जो आदत के दिनों में आया हो सब मिलकर दस दिन से ज़्यादा न हो तो यह तमाम हैज़ है और (एहतियाते वाजिब यह है कि पाकी के दिनों में पाक औरतों के काम भी अंजाम दे और वह काम जो हाइज़ पर हराम हैं उन्हें तर्क करे।) दूसरे ख़ून की वह मिक़दार जो आदत के दिनों के बाद आये इस्तेहाज़ः है। इसी तरह पहले ख़ून की वह मिक़दार जो आदत के दिनों के दिनों से पहले आई हो और आम तौर पर यह कहा जाता हो कि उसकी आदत वक़्त से पहले हो गई है तो वह हैज़ के हुक्म में है। लेकिन अगर उस ख़ून पर हैज़ का हुक्म लगाने से दूसरे ख़ून की भी कुछ मिक़दार जो आदत के दिनों में थी या सारे का सारा ख़ून, हैज़ के दस दिन से ज़्यादा हो जाये, तो उस सूरत में वह ख़ून इस्तेहाज़ः के हुक्म में होगा। मसलन अगर औरत की आदत महीने की तीसरी तारीख़ से दसवीं तारीख़ तक हो और उसे किसी महीने की पहली से छटी तारीख़ तक ख़ून आये और फिर दो दिन के लिए बंद हो जाये और फिर पन्द्रहवीं तारीख़ तक ख़ून आये तो तीसरी से दसवीं तक हैज़ और ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं तक आने वाला ख़ून इस्तेहाज़ः है।
4)           पहले और दूसरे खून की कुछ मिक़दार आदत के दिनों में आये, लेकिन आदत के दिनों में आने वाले पहला ख़ून तीन दिन से कम हो तो इस सूरत में पहले ख़ून के आख़िरी तीन दिनों को हैज़ क़रार दे और इसी तरह दूसरे ख़ून से कि तीन दिन पहले और दरमियान की पाकी के कुल दिन मिलाकर दस हो जायें और इससे ज़्यादा इस्तेहाज़ः है। अगर उसकी पाकी के सात दिन हों तो दूसरा ख़ून पूरा इस्तेहाज़ः है। कुछ मौक़ों पर पहले तमाम ख़ून को हैज़ क़रार देना चाहिए लेकिन इसके लिए दो शर्ते हैं।
1)      उसे अपनी आदत से पहले ख़ून आया हो और उसके बारे में यह कहा जासकता हो कि उसकी आदत तबदील हो कर वक़्त से पहले हो गई है।
2)      अगर वह उसे हैज़ क़रार दे तो यह लाज़िम न आये कि दूसरे ख़ून की कुछ मिक़दार जो कि आदत के दिनों में आई हो, हैज़ के दस दिन से ज़्यादा हो जाये। मसलन अगर औरत की आदत महीने की तीसरी तारीख़ से दसवीं तारीख़ तक थी और अब उसे महीने की पहली तारीख़ से चौथी तारीख़ के आख़िरी वक़्त तक खून आये और दो दिन बंद रह कर फिर दोबारा पन्द्रहवीं तारीख़ तक ख़ून आये तो इस सूरत में पहला पूरा ख़ून हैज़ है और इसी तरह दूसरा वह ख़ून जो दसवीं तारीख़ के आख़िरी वक़्त तक आये वह भी हैज़ है।
490  वक़्त व अदद की आदत रखने वाली औरत को अगर आदत के दिनों में खून न आये और दूसरे दिनों में आदत के दिनों के बराबर हैज़ की निशानियों के साथ खून आये, तो ज़रूरी है कि उसे हैज़ क़रार दे, चाहे वह आदत के दिनों से पहले आया हो या बाद में ।
491  जिस औरत को वक़्त व अदद की आदत हो और उसे आदत के दिनों में तीन या तीन से ज़्यादा दिनों तक खून आये लेकिन उन दिनों की तादाद उसकी आदत के दिनों से कम या ज़्यादा हों और खून के बंद होने के बाद उसे दोबारा आदत के दिनों के बराबर खून आये तो इसकी चन्द सूरतें हैं।
1 अगर दोनों ख़ून के तमाम दिन और उनके दरमियान के वह दिन जिनमें ख़ून बंद रहा है सब मिला कर दस से ज़्यादा न हों, तो दोनों ख़ून हैज़ शुमार होंगे।
2            दोनों ख़ूनों के दरमियान ख़ून के बंद रहने की मुद्दत दस दिन या इससे ज़्यादा हो तो इस सूरत में दोनों ख़ूनों में से हर एक को एक मुस्तक़िल हैज़ क़रार दिया जायेगा।
3             दोनों ख़ूनों के दरमियान ख़ून बंद रहने की मुद्दत दस दिन से कम हो, लेकिन उन दोनों ख़ूनों और दरमियान में ख़ून बंद रहने वाले दिनों को मिलाकर दस दिन से ज़्यादा हो तो इस सूरत में ज़रूरी है कि पहले आने वाले ख़ून को हैज़ और दूसरे को इस्तेहाज़ः क़रार दे।
492  अदद और वक़्त की आदत रखने वाली औरत को अगर दस दिन से ज़्यादा खून आये तो आदत के दिनों में आने वाला ख़ून हैज़ है, चाहे उसमें हैज़ निशानियाँ भी न पाई जाती हों और आदत के दिनों के बाद आने वाला ख़ून इस्तेहाज़ः है, चाहे उसमें हैज़ की निशानियाँ भी पाई जाती हों। मसलन अगर किसी औरत की आदत पहली तारीख़ से सातवीं तक हो और कभी उसे पहली से बारहवीं तक खून आ जाये तो उसके पहले सात दिन हैज़ के और बाद के पाँच दिन इस्तेहाज़ः के होंगे।
2 वक़्त की आदत रखने वाली औरतें
493  वक़्त की आदत रखने वाली औरतों की दो क़िस्में हैं।
1)          वह औरतें जिन्हें यके बाद दीगरे दो महीनों में मुऐय्यन वक़्त पर खून आये और कुछ दिन के बाद बंद हो जाये, लेकिन दोनों महीनों में खून आने वाले दिनों की तादाद एक न हो। मसलन यके बाद दीगरे दो महीनों में महीने की पहली तारीख को खून आये, मगर पहले महीने में सातवीं तारीख़ को और दूसरे महीनें में आठवीं तारीख़ को बंद हो, तो उन्हें चाहिए कि महीने की पहली तारीख को अपनी हैज़ की आदत क़रार दे।
2)          वह औरतें जिन्हें यके बाद दीगरे दो महीने मुऐय्यन वक़्त में तीन या तीन से ज़्यादा दिन खून आने के बाद बंद हो जाये और फिर दोबारा खून आये और जिन दिनों में खून आया हो और जिन दिनों में खून बंद रहा हो उन सबकी तादाद दस दिन से ज़्यादा न हो, लेकिन दूसरे महीने के दिनों की तादाद पहले महीने के दिनों से कम या ज़्यादा हों, मसलन पहले महीने में आठ दिन और दूसरे महीने में नौ दिन खून आये, तो उन औरतों को महीने की पहली तारीख़ को अपने हैज़ की इब्तदा का दिन क़रार देना चाहिए।
494  वक़्त की आदत रखने वाली औरत को अगर अपनी आदत में या उससे दो तीन दिन पहले खून आये तो ज़रूरी है कि वह औरत हाइज़ के अहकाम पर अमल करे और इस सूरत की तफ़्सील मस्ला न. 486 में ग़ुज़र चुकी है। लेकिन उन दो सूरतों के अलावा मसलन यह कि आदत से इतने दिन पहले ख़ून आ जाये कि यह न कहा जा सके कि आदत वक़्त से पहले हो गई है, बल्कि यह कहा जाये कि आदत की मुद्दत के अलावा (यानी दूसरे वक़्त में ) ख़ून आया है। या यह कहा जाये कि आदत के बाद ख़ून आया है, लिहाज़ा अगर वह ख़ून हैज़ की निशानियों के साथ आये तो हाइज़ के अहकाम पर अमल करना ज़रूरी है और अगर उसमें हैज़ की निशानियाँ न पाई जाती हों लेकिन वह औरत यह समझ जाये कि यह ख़ून तीन दिन तक जारी रहेगा, तो तब भी यही हुक्म है। लेकिन अगर यह न जानती हो कि खून तीन दिन तक जारी रहेगा या नही तो एहतियाते वाजिब यह है कि हाइज़ के कामों को तर्क करे और मुस्तेहाज़ः के अहकाम पर अमल करे।
495  वक़्त की आदत रखने वाली औरत को अगर आदत के दिनों में दस दिन से ज़्यादा खून आये और हैज़ के दिनों को निशानी की बिना पर तश्ख़ीस दे सकती हो तो अहवत यह है कि अपनी रिश्तेदार औरतों की आदत के दिनों के बराबर हैज़ क़रार दे, चाहे यह रिश्तेदार मां की तरफ़ से हों या बाप की तरफ़ से ज़िंदा हो या मुर्दा। लेकिन इसके लिए दो शर्तें हैं-
1)          उसे अपने हैज़ की मिक़दार और अपनी रिश्तेदार औरत की आदत की मिक़दार में फ़र्क का इल्म न हो, मसलन यह कि वह ख़ुद नौजवान और ताक़त के लिहाज़ से क़वी हो और दूसरी औरत उम्र के लिहाज़ से यास के नज़दीक हो तो ऐसी सूरत में आमतौर पर आदत की मिक़दार कम होती है। इसी तरह वह ख़ुद उम्र के लिहाज़ यास के नज़दीक हो और रिश्तेदार औरत नौ जवान हो।
2)          उसे, उस औरत की आदत की मिक़दार में और उसकी दूसरी रिश्तेदार औरतों की आदत की मिक़दार में कि जिनमें पहली शर्त मौजूद हो इख़्तेलाफ़ का इल्म न हो, लेकिन अगर इख़्तेलाफ़ इतना कम हो कि उसे इख़्तेलाफ़ शुमार न किया जाये तो कोई हरज नही है और उस औरत के लिए भी यही हुक्म है जो वक़्त की आदत रखती हो और आदत के दिनों में कोई ख़ून न आये लेकिन आदत के वक़्त के अलावा दस दिन से ज़्यादा ख़ून आये और वह हैज़ की मिक़दार को निशानियों के ज़रिये मुऐय्यन न कर सकती हो। 
496 वक़्त की आदत रखने वाली औरत अपनी आदत के अलावा दूसरे वक़्त में आने वाले ख़ून को हैज़ क़रार नही दे सकती, लिहाज़ा अगर उसे आदत का इब्तेदाई वक़्त मालूम हो मसलन हर महीने की पहली तारीख़ को ख़ून आता हो और कभी पाँचवीं को और कभी छटी को बंद होता हो, तो अगर उसे किसी महीने में बारह दिन खून आये और वह हैज़ की नविशानियोँ के ज़रिये उसकी मुद्दत मुऐय्यन न कर सके तो उसे चाहिए कि महीने की पहली तारीख़ को हैज़ का पहला दिन क़रार दे और उसकी तादाद के बारे में पहले मस्अले में जो कुछ बयान किया गया है उस पर अमल करे। अगर उसे आदत की दरमियानी या आख़िरी तारीख़ मालूम हो और उसे दस दिन से ज़्यादा ख़ून आये तो ज़रूरी है कि उसका हिसाब इस तरह करे कि आख़िरी या दरमियानी तारीख़ में से एक उसकी आदत के दिनों के मुताबिक़ हो।
497  वक़्त की आदत रखने वाली औरत को अगर दस दिन से ज़्यादा ख़ून आये और उस ख़ून को मस्अला न. 495 में बताये गये तरीक़े से मुऐय्यन न कर सके, मसलन उस ख़ून में हैज़ की निशानी न हो या पहले बताई गई दो शर्तों में से एक शर्त न हो तो उसे इख़्तियार है कि तीन दिन से दस दिन तक जितने दिन हैज़ की मिक़दार के मुनासिब समझे, हैज़ क़रार दे। छः या आठ दिनों को अपने हैज़ की मिक़दार के मुनासिब समझने की सूरत में बेहतर यह है कि सात दिनों को हैज़ क़रार दे, लेकिन ज़रूरी नही है कि जिन दिनों को वह हैज़ क़रार दे वह दिन उसकी आदत के वक़्त के मुताबिक़ हों जैसा कि पहले मस्अले में बयान किया जा चुका है।
3 अदद की आदत रखने वाली औरतें
498. अदद की आदत रखने वाली औरतों की दो क़िस्में हैं।
1)वह औरतें जिनके हैज़ के दिनों की तादाद यके बाद दिगरे दो महीनों में एक जैसी रहे, मगर ख़ून आने का वक़्त बदल जाता हो, तो इस सूरत में उन्हें जितने दिन खून आयेगा वह उनकी आदत के दिन होंगे। मसलन अगर पहले महीने में उन्हें पहली से पांचवीं तक और दूसरे महीने में ग्यारहवीं से पन्द्रहवीं तक खून आये तो उनकी आदत पाँच दिन होगी।
2)जिस औरत को यके बाद दीगरे दो महीनों में से हर एक में तीन या तीन से ज़्यादा दिन खून आये और एक या इससे ज़्यादा दिन के लिए बंद हो कर फिर खून आने लगे और पहले व दूसरे महीने में खून आने का वक़्त अलग अलग हो तो अगर वह दिन जिनमें खून आया है और वह दरमियान के दिन जिनमें खून बंद रहा है सब मिलकर दस से ज़्यादा न हो और दोनों महीनों में दिनों की तादाद भी एक जैसी हो तो वह सब दिन उसकी हैज़ की आदत शुमार होंगे। मसलन अगर पहले महीने में पहली से तीसरी तारीख़ तक खून आये और दो दिन बंद रहे और फिर दोबारा तीन दिन खून आये और दूसरे महीने में ग्यारहवीं तारीख़ से तेरहवीं तक खून आये और दो दिन के लिए बंद रहे और फिर दोबारा तीन दिन खून आये तो उस औरत की आदत छः दिन होगी। और अगर पहले महीने में उसे आठ दिन ख़ून आये और दूसरे महीने में चार दिन ख़ून आये और फिर बंद हो जाये और फिर दोबारा ख़ून आये और ख़ून आने वाले दिनों व ख़ून बंद रहने वाले दिनों की कुल तादाद आठ दिन हो तो ज़ाहिरन यह औरत अदद की आदत नही रखती, बल्कि मुज़तरिबः शुमार होगी और इस क़िस्म का हुक्म बाद में बयान किया जायेगा।
499.अदद की आदत रखने वाली औरत को अगर अपनी आदत की तादाद से कम या ज़्यादा खून आ जाये और और उन दिनों की तादाद दस से ज़्यादा न हो तो उन तमाम दिनों को हैज़ क़रार दे और अगर उसकी आदत से ज़्यादा ख़ून आये और दस दिन से ज़्यादा हो जाये तो अगर सब खून एक ही क़िस्म का हो, तो जिस दिन से खून आना शुरू हुआ हो उस दिन से अपनी आदत के मुताबिक़ दिनों को हैज़ और बाक़ी को इस्तेहाज़ः क़रार दे और अगर तमाम ख़ून एक जैसा न हो बल्कि कुछ दिनों के खून में हैज़ की निशानियाँ हों और कुछ दिनों के खून में इस्तेहाज़ः की तो जिन दिनों के खून में हैज़ की निशानियाँ हों अगर उनकी तादाद उसकी आदत के दिनों के बराबर हो तो उन दिनों को हैज़ और बाक़ी को इस्तेहाज़ः क़रार दे। लेकिन अगर उन दिनों की तादाद जिनके खून में हैज़ की निशानियाँ पाई जाती हों, उसकी आदत के दिनों से ज़्यादा हो तो सिर्फ़ आदत के दिन हैज़ के और बाक़ी इस्तेहाज़ः के होंगे। अगर हैज़ की निशानी के साथ आने वाले खून के दिनों की तादाद उसकी आदत के दिनों से कम हो तो ज़रूरी है कि उनके साथ इतने दिन और मिलाये जायें कि उनकी तादाद आदत के दिनों के बराबर हो जाये, बस उन तमाम दिनों को हैज़ और बाक़ी को इस्तेहाज़ः क़रार दे।
4 मुज़तरिबः
500. मुज़तरिबः उस औरत को कहते हैं, जिसे कुछ महीनें खून आया हो लेकिन वक़्त व अदद के लिहाज़ से उसकी आदत मुऐय्यन न हुई हो। अगर उसे दस दिन से ज़्यादा खून आजाये और तमाम खून एक जैसा हो मसलन तमाम ख़ून हैज़ या इस्तेहाज़ः की निशानियों के साथ हो तो उसका हुक्म आदत रखने वाली उस औरत का हुक्म है जिसे अपनी आदत के अलावा किसी और वक़्त में ख़ून आये और वह निशानियों के ज़रिये हैज़ व इस्तेहाज़ः में फ़र्क़ न कर सके। एहतियात यह है कि ऐसी औरत को चाहिए कि अपनी रिश्तेदार औरतों में से कुछ औरतों की आदत के मुताबिक़ हैज़ क़रार दे और अगर यह मुमकिन न हो तो तीन और दस में से किसी एक अदद को उस तफ़्सील के मुताबिक़ जो मस्अला न. 495 और 497 में बयान की गई है, अपने हैज़ की आदत क़रार दे।
501. अगर मुज़तरिबः को दस दिन से ज़्यादा खून आये और उनमें से कुछ दिनों के खून में हैज़ की निशानियाँ हों और कुछ दिनों के खून में इस्तेहाज़ः की, तो जिस खून में हैज़ की निशानियाँ हैं अगर वह तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा न आया हो, तो उसे हैज़ और बाक़ी इस्तेहाज़ः क़रार दे और अगर हैज़ की निशानी वाला खून तीन दिन से कम या दस दिन से ज़्यादा हो तो हैज़ के दिनों की तादाद मालूम करने के लिए पिछले मस्अले के हुक्म के मुताबिक़ अमल करे अगर उस खून को हैज़ क़रार देने के बाद दस दिन गुज़रने से पहले हैज़ की निशानियों के साथ दोबारा खून आये तो बईद नही कि उसको इस्तेहाज़ः क़रार देना ज़रूरी हो।
5- मुबतदिअः
502. मुबतदिअः, उस औरत को कहते हैं, जिसे पहली बार खून आया हो। अगर ऐसी औरत को दस दिन से ज़्यादा खून आये और सब खून एक ही जैसा हो तो उसे अपने कुंबे की औरतों की आदत के मुताबिक़ दिनों को हैज़ और बाक़ी को उन दो शर्तों के साथ इस्तेहाज़ः क़रार दे जो मस्अला न. 495 में बयान हुई हैं और अगर यह मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि मस्अला न. 497 में दी गई तफ़्सील के मुताबिक़ तीन व दस में से किसी एक अदद को अपने हैज़ के दिन क़रार दे।
503. अगर मुबतदिअः को दस दिन से ज़्यादा खून आये और उनमें से कुछ दिनों के खून में हैज़ की निशानियाँ हों और कुछ में इस्तेहाज़ः की, तो अगर वह खून जिसमें हैज़ की निशानियाँ हों तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा न आया हो तो वह सारा हैज़ है और जिसमें हैज़ की निशानियाँ न हो वह इस्तेहाज़ः है। लेकिन अगर हैज़ की निशानी वाले खून के आने के बाद दस दिन से पहले फिर ऐसा खून आ जाये जिसमें हैज़ की निशानियाँ पाई जाती हों, मसलन पाँच दिन काला खून और नौ दिन ज़र्द खून आये और फिर पाँच दिन काला खून आ जाये तो उसे चाहिए कि पहले आने वाले ख़ून को हैज़ और बाद के दोनों ख़ूनों को इस्तेहाज़ः क़रार दे, जैसा कि मुज़तरिबः के मुताल्लिक़ बताया गया है।
504. अगर मुबतदिअः को दस दिन से ज़्यादा ख़ून आये और उनमें से कुछ दिनों के खून में हैज़ की निशानियाँ हों और कुछ दिनों के ख़ून में इस्तेहाज़ः की, लेकिन जिस खून में हैज़ की निशानियाँ हों वह तीन दिन से कम आया हो तो उसे चाहिए कि हैज़ की निशानी के साथ आने वाले पहले ख़ून को हैज़ क़रार दे और दिनों की तादाद को मुऐय्यन करने के लिए मस्अला न. 501 में बताये गये तरीक़े पर अमल करे।
नासियः
505. नासियः, उस औरत को कहते हैं, जो अपनी आदत की मिक़दार भूल गई हो। नासियः औरतों की चन्द क़िस्में हैं।
उनमें से एक यह है कि अदद की आदत रखने वाली वह औरत जो अपनी आदत की मिक़दार भूल चुकी हो, अगर ऐसी औरत को कोई ऐसा ख़ून आये जिसकी मुद्दत तीन दिन से कम और दस दिन से ज़्यादा न हो तो ज़रूरी है कि वह उन तमाम दिनों को हैज़ क़रार दे और अगर दस दिन से ज़्यादा हो तो उसके लिए मुज़तरिबः का हुक्म है, जो मस्अला न. 500 व 501 में बयान हो चुका है, इस फ़र्क़ के साथ कि जिन दिनों को वह हैज़ क़रार दे रही है उनकी तादाद उन दिनों से कम न हों जिनके मुताल्लिक़ वह जानती हो कि उसके हैज़ के दिनों की तादाद उससे कम नही होती (मसलन यह कि वह जानती हो कि उसे पाँच दिन से कम ख़ून नही आता, तो वह पाँच दिन को हैज़ क़रार देगी) इसी तरह उन दिनों से ज़्यादा दिनों को भी हैज़ क़रार नही दे सकती जिनके बारे में वह जानती हो कि उसके हैज़ के दिनों की तादाद उन दिनों से ज़्यादा नही होती। (मसलन अगर वह जानती हो कि उसे पाँच दिन से ज़्यादा ख़ून नही आता तो वह पाँच दिन से ज़्यादा दिनों को हैज़ क़रार नही दे सकती।) और यह हुक्म नाक़िस अदद रखने वाली औरतों पर भी लाज़िम है यानी वह औरतें जिनकी आदत के दिनों की तादाद तीन दिन से ज़्यादा और दस दिन से कम होने के बारे में शक हो। मसलन जिसे हर महीने छः या सात दिन ख़ून आता हो, तो वह हैज़ की निशानियों के ज़रिये या अपने कुंबे की कुछ औरतों की आदत के मुताबिक़ या किसी एक अदद को अख़्तियार करके, दस दिन से ज़्यादा ख़ून आने की शक्ल में दोनों अददों (छः या सात) से कम या ज़्यादा दिनों को हैज़ क़रार नही दे सकती।
हैज़ के मुख़तलिफ़ मसाइल
506. मुबतदिअः, मुज़तरिबः, नासियः और अदद की आदत रखने वाली औरत को अगर ऐसा ख़ून आये जिसमें हैज़ की निशानियाँ मौजूद हों या उसे यक़ीन हो कि यह तीन दिन तक जारी रहेगा तो उसे फ़ौरन इबादत तर्क कर देनी चाहिए। अगर बाद में पता चले कि वह हैज़ का खून नही था, तो छोड़ी हुई इबादत की क़ज़ा करे।
507. जो औरत हैज़ की आदत रखती हो चाहे यह आदत वक़्त के एतेबार से हो या अदद के एतेबार से या वक़्त और अदद दोनों के एतेबार से , अगर उसे यके बाद दीगरे दो महीने उसकी आदत के ख़िलाफ़ खून आये और उसका वक़्त या दिन या वक़्त और दिन दोनों बराबर हो तो उसकी आदत, इन दो महीनों में जिस तरह ख़ून आया है, उसमें बदल जायेगी। मसलन अगर पहले उसे महीने की पहली तारीख़ से सातवीं तारीख़ तक ख़ून आता था और अब लगातार दो महीनों में उसे दसवीं तारीख़ से सतरहवीं तारीख़ तक खून आया हो तो उसकी आदत दस से सतरहवीं तक हो जायेगी।
508. एक महीने से मुराद ख़ून के शुरू होने से तीस दिन तक है, महीने की पहली तारीख़ से महीने के आख़िर तक नही।
509. अगर किसी औरत को आम तौर पर महीने में एक बार ख़ून आता हो लेकिन किसी महीने में दो बार आजाये और उस ख़ून में हैज़ की निशानियाँ हों तो अगर उन दरमियानी दिनों की तादाद जिनमें उसे खून नही आया है दस दिन से कम न हो तो उसे चाहिए कि दोनों ख़ूनों को हैज़ क़रार दे।
510. अगर किसी औरत को तीन या तीन से ज़्यादा दिनों तक ऐसा ख़ून आये जिसमें हैज़ की निशानियाँ मौजूद हों और उसके बाद दस या दस से ज़्यादा दिनों तक ऐसा ख़ून आये जिसमें इस्तेहाज़ः की निशानियाँ मौजूद हों और उसके बाद फिर तीन दिन तक हैज़ की निशानियों के साथ ख़ून आ जाये, तो उसे चाहिए कि उस पहले और आख़िरी ख़ून को जिसमें हैज़ की निशानियाँ पाई जाती हैं, हैज़ क़रार दे।
511. अगर किसी औरत का ख़ून दस दिन से पहले बंद हो जाये और उसे यक़ीन हो कि उसके बातिन में (अन्दर) हैज़ का ख़ून नही है, तो उसे अपनी इबादत के लिए ग़ुस्ल कर लेना चाहिए। चाहे उसे यह गुमान हो कि दस दिन पूरे होने से पहले उसे दोबारा ख़ून आ जायेगा। लेकिन अगर उसे यक़ीन हो कि दस दिन पूरे होने से पहले उसे दोबारा ख़ून आ जायेगा तो जैसे बयान हो चुका है कि एहतियातन ग़ुस्ल करे और अपनी इबादत अंजाम दे और जो चीज़ें हाइज़ पर हराम है उन्हें तर्क करे।
512. अगर किसी औरत का ख़ून दस दिन से पहले बंद हो जाये और इस बात का एहतेमाल हो कि उसके बातिन में (अन्दर) हैज़ का ख़ून मौजूद है तो उसे चाहिए कि कुछ देर के लिए अपनी शर्मगाह में रूई रखे और उसको इतनी देर रखे रहे जितनी देर आम तौर पर औरते हैज़ से पाक होने के बाद इन्तेज़ार करती हैं, फिर उसे निकाल कर देखे अगर ख़ून बंद हो गया हो तो ग़ुस्ल करे और इबादत अंजाम दे और अगर ख़ून बंद न हुआ हो या थोड़ सा ज़र्द पानी रूई पर लगा हो तो इस सूरत में अगर वह हैज़ की मुऐय्यन आदत न रखती हो या उसकी आदत दस दिन की हो या अभी उसकी आदत के दस दिन तमाम न हुए हों तो उसे चाहिए कि इन्तेज़ार करे और अगर दस दिन से पहले ख़ून ख़त्म हो जाये तो ग़ुस्ल करे और अगर दसवे दिन के ख़ात्मे पर ख़ून बंद हो या दस दिन के बाद भी आता रहे तो दसवें दिन ग़ुस्ल करे और अगर उसकी आदत दस दिनों से कम हो और वह जानती हो कि दस दिन से पहले या दसवे दिन के ख़ात्में पर ख़ून बंद हो जायेगा तो ग़ुस्ल करना ज़रूरी नही है। अगर एहतेमाल हो कि उसे दस दिन तक ख़ून आयेगा तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि एक दिन के लिए इबादत तर्क करे और वह दसवे दिन तक के लिए भी इबादत तर्क कर सकती है। यह हुक्म फ़क़त उस औरत से मख़सूस है जिसे आदत से पहले लगातार ख़ून न आता हो, वर्ना आदत के तमाम होने के बाद इबादत को तर्क करना जायज़ नही है।
513. अगर कोई औरत चंद दिनों को हैज़ क़रार दे और इबादत न करे लेकिन बाद में उसे पता चले कि वह ख़ून, हैज़ नही था तो उसे चाहिए कि जो नमाज़ें और रोज़े उसने उन दिनों में छोड़े हैं उनकी क़ज़ा करे और अगर कुछ दिन इस ख़्याल से इबादत करती रही हो कि जो खून आ रहा है हैज़ नही है, और बाद में पता चले कि वह ख़ून हैज़ था तो अगर उन दिनों में उसने रोज़े भी रखे हैं
इस्तेहाज
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
औरतों को जो ख़ून आते हैं, उनमें से एक ख़ून इस्तेहाजः है। जिस वक़्त औरत को यह ख़ून आरहा होता है, उसे मुस्तेहाज़ः कहते हैं।
398 इस्तेहाजः का ख़ून ज़्यादातर ज़र्द रंग का व ठंडा होता है और दबाव व जलन के बग़ैर निकलता है और आमतौर पर यह ख़ून गाढ़ा भी नही होता। लेकिन यह भी मुमकिन है कि कभी- कभी यह ख़ून सियाह, सुर्ख़, गर्म व गाढ़ा हो और जलन व दबाव के साथ आये।
399  इस्तेहाजः तीन क़िस्म का होता हैः क़लीलः, मुतवस्सेतः और कसीरः
इस्तेहाज़ -ए- क़लीलः यह है कि औरत अपनी शर्मगाह में जो रूई रखती है, ख़ून उसके सिर्फ़ ऊपरी हिस्से को आलूदा करे और उसके अन्दर सरायत न करे।
इस्तेहाज़ -ए- मुतवस्सेतः यह है कि ख़ून रूई के अन्दर तक चला जाये अगरचे उसके एक कोने तक ही हो और रूई से उस कपड़े तक न पहुँचे जिसे औरतें आमतौर रूई के ऊपर ख़ून रोकने के लिए बाँधती हैं।
इस्तेहाज़ -ए- कसीरः यह है कि ख़ून रूई से निकलता हुआ, रूई के ऊपर बंधे कपड़े तक पहुँच जाये।
इस्तेहाज़ः के अहकाम
400 इस्तेहाज़ –ए- क़लीलः में हर नमाज़ के लिए अलग वुज़ू करना ज़रूरी है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि रूई को भी बदल या धो लिया जाये और अगर शर्मगाह के ज़ाहिरी हिस्से पर ख़ून लगा हो, तो उसे धोना भी ज़रूरी है।
401  इस्तेहाज़ -ए- मुतवस्सेतः में, एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि औरत अपनी नमाज़ों के लिए रोज़ाना एक ग़ुस्ल करे और इससे पहले मसले में बयान किये गये इस्तेहाजः -ए- कलीलः के तमाम काम भी अंजाम दे। अगर सुबह की नमाज़ के दौरान औरत को इस्तेहाजः का ख़ून आये तो सुबह की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। अगर जान बूझ कर या भूले से ग़ुस्ल न करे तो ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है और अगर ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल न करे तो मग़रिब व इशा की नमाज़ से पहले ग़ुस्ल करना ज़रूरी है, चाहे ख़ून आ रहा हो या बंद हो चुका हो।
402 इस्तेहाज़ –ए- कसीरः में एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि औरत हर नमाज़ से पहले रूई व कपड़े का टुकड़ा बदले या उसे धोये। एक ग़ुस्ल सुबह की नमाज़ से पहले, एक ग़ुस्ल ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ से पहले और एक ग़ुस्ल मग़रिब व इशा की नमाज़ से पहले करे। ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़ के दरमियान फ़ासला न दे और अगर फ़ासला करे तो अस्र व इशा की नमाज़ से पहले दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। यह अहकाम उस सूरत में हैं कि ख़ून बार बार रूई से पट्टी तक पहुँ रहा हो। अगर रूई से पट्टी तक ख़ून पहुँचने में इतना फ़ासिला हो जाये कि औरत उस फ़ासिले के अन्दर एक या एक से ज़्यादा नमाज़े पढ़ सकती हो, तो एहतियाते लाज़िम यह है कि जब ख़ून रूई से पट्टी तक पहुँच जाये, तो रूई व पट्टी को बदले या उन्हें धोये और ग़ुस्ल करे। इसी बिना पर अगर औरत ग़ुस्ल करे और मसलन ज़ोह्र की नमाज़ पढ़े लेकिन अस्र की नमाज़ से पहले या नमाज़ के दौरान ख़ून दोबारा रूई से पट्टी तक पहुँच जाये तो अस्र की नमाज़ के लिए भी ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। लेकिन अगर फ़ासिला इतना हो कि औरत उस दौरान दो या दो से ज़्यादा नमाज़े पढ़ सकती हो, तो ज़ाहिर यह है कि उन नमाज़ों के लिए दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी नही है। इन तमाम सूरतों में अज़हर यह है कि इस्तेहाज़ -ए- कसीरः में ग़ुस्ल करना वुज़ू के लिए भी काफ़ी है। यानी ग़ुस्ल के बाद वुज़ू की ज़रूरत नही है।
403 अगर ख़ूने इस्तेहाजः नमाज़ के वक़्त से पहले आये और औरत ने उस ख़ून के लिए वुज़ू या ग़ुस्ल न किया हो तो नमाज़ के वक़्त वुज़ू व ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। चाहे वह नमाज़ के वक़्त मुस्तेहाज़ः न हो।
404 मुस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः जिसके लिए वुज़ू व ग़ुस्ल दोनों ज़रूरी है एहतियाते लाज़िम की बिना पर पहले ग़ुस्ल और बाद में वुज़ू करना चाहिए। लेकिन इस्तेहाज़ –ए- कसीरः में अगर वुज़ू करना चाहे तो ज़रूरी है कि वुज़ू ग़ुस्ल से पहले करे।
405 अगर औरत का इस्तेहाज़ –ए- क़लीलः सुबह की नमाज़ के बाद इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः में बदल जाये तो ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। अगर ज़ोह्र व अस्र की नमाज़ के बाद मुतवस्सेतः में बदले तो मग़रिब व इशा की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।
406 अगर औरत का इस्तेहाज –ए- क़लीलः या मुतवस्सेतः सुबह की नमाज़ के बाद कसीरः में बदल जाये और वह औरत उसी हालत पर बाक़ी रहे तो ज़ोह्र व अस्र और मग़रिब व इशा की नमाज़ पढ़ने के लिए मसला न. 402 में बयान किये गये अहकाम पर अमल करे।
407  इस्तेहाज़ -ए- कसीरः में जिस सूरत में ज़रूरी है कि ग़ुस्ल व नमाज़ के दरमियान फ़ासिला न हो, जैसा कि मसला न. 402 में गुज़र चुका है। अगर नमाज़ का वक़्त दाख़िल होने से पहले ग़ुस्ल करने की वजह से ग़ुस्ल व नमाज़ के दरमियान फ़ासिला हो जाये तो उस ग़ुस्ल के साथ नमाज़ सही नही है। मुस्तेहाज़ः को चाहिए कि नमाज़ के लिए दोबारा ग़ुस्ल करे। इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः में भी यही हुक्म है।
408 मुस्तेहाज़ –ए- कलीलः व मुतवस्सेतः के लिए ज़रूरी है कि रोज़ाना की नमाज़ों के अलावा ( कि जिनका हुक्म ऊपर बयान हो चुका है) हर नमाज़ के लिए चाहे वह वाजिब हो मुस्तहब वुज़ू करे। लेकिन अगर वह रोज़ाना की पढ़ी हुई नमाज़ों को एहतियातन दोबारा पढ़ना चाहे या तन्हा पढ़ी हुई नमाज़ों को जमाअत के साथ दोबारा पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि उन तमाम कामों को अंजाम दे जिनका ज़िक्र इस्तेहाजः के बारे में किया जा चुका है। अलबत्ता अगर वह नमाज़े एहतियात, भूले हुए सजदे और तशह्हुद को नमाज़ के फ़ौरन बाद अदा करे या किसी भी सूरत में सजद –ए- सह्व करे तो उसके लिए इस्तेहाजः के कामों को अंजाम देना ज़रूरी नही है।
409 मुस्तेहाज़ः औरत के लिए ख़ून बंद होने के बाद सिर्फ़ पहली नमाज़ के लिए इस्तेहाजः के काम अंजाम देना ज़रूरी है, बाद की नमाज़ों के लिए उनकी ज़रूरत नही है।
410 अगर किसी औरत को यह मालूम न हो कि उसका इस्तेहाजः किस क़िस्म का है तो उसे चाहिए कि नमाज़ पढ़ने से पहले तहक़ीक़ के लिए थोड़ी सी रूई शर्मगाह में रखे और थोड़ी देर बाद निकाल कर देखे, ताकि पता चल सके कि उसका इस्तेहाजः तीनों क़िस्मों में से किस क़िस्म का है। फिर जिस क़िस्म का इस्तेहाजः हो उसी क़िस्म के अहकाम पर अमल करे। लेकिन अगर वह जानती हो कि नमाज़ पढ़ने के वक़्त तक उसका इस्तेहाजः तबदील नही होगा तो वह नमाज़ के वक़्त से पहले भी अपनी तहक़ीक़ कर सकती है।
411 अगर मुस्तेहाज़ः अपने इस्तेहाजः की तहक़ीक़ करने से पहले नमाज़ में मशग़ूल हो जाये, तो अगर उसका क़ुरबत का क़स्द हो और उसने अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल किया हो, मसलन उसका इस्तेहाजः क़लीलः हो और उसने इस्तेहाज़ –ए- क़लीलः के मुताबिक़ अमल किया हो तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर उसका क़स्दे क़ुरबत न हो या उसका अमल उसके वज़ीफ़े के मुताबिक़ न हो मसलन उसका इस्तेहाजः मुतवस्सेतः हो और उसने इस्तेहाज़ –ए- क़लीलः के मुताबिक़ अमल किया हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
412 अगर मुस्तेहाज़ः अपने बारे में तहक़ीक़ न कर सकती हो तो ज़रूरी है कि अपने यक़ीनी वज़ीफ़े के मुताबिक़ अमल करे मसलन अगर वह यह न जानती हो कि उसका इस्तेहाजः क़लीलः है या मुतवस्सेतः तो ज़रूरी है कि इस्तेहाजः ए क़लीलः के कामों को अंजाम दे और अगर यह न जानती हो कि उसका इस्तेहाजः मुतवस्सेतः है या कसीरः तो उसे मुतवस्सेतः के कामों को अंजाम देना चाहिए। लेकिन अगर वह जानती हो कि इससे पहले उसे तीनों क़िस्मों में से किस क़िस्म का इस्तेहाजः था, तो ज़रूरी है कि उसी क़िस्म के इस्तेहाज़ः के मुताबिक़ अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे।
413 अगर इस्तेहाज़ः का ख़ून अपने इब्तेदाई मरहले में जिस्म के अन्दर ही हो और बाहर न निकला हो तो वह औरत के ग़ुस्ल या वुज़ू बातिल नही करेगा , लेकिन अगर बाहर आजाये तो चाहे बहुत कम ही क्यों न हो ग़ुस्ल व वुज़ू दोनों को बातिल कर देता है।
414 मुस्तेहाज़ः अगर नमाज़ के बाद अपने बारे में तहक़ीक़ करे और ख़ून न पाये तो अगरचे उसे इल्म हो कि दोबारा ख़ून आ जायेगा, तब भी वह उसी वुज़ू से नमाज़ पढ़ सकती है।
415 मुस्तेहाजः औरत अगर यह जानती हो कि जिस वक़्त से वह वुज़ू व ग़ुस्ल में मशग़ूल हुई है उसके बदन से ख़ून बाहर नही आया है और न ही शर्मगाह के अन्दर है, तो जब तक उसे पाक रहने का यक़ीन हो नमाज़ में देर कर सकती है।
416 अगर मुस्तेहाज़ः को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त गुज़रने से पहले वह पूरी तरह से पाक हो जायेगी या अन्दाज़न जितना वक़्त नमाज़ पढ़ने में लगता उसमें ख़ून आना बंद हो जायेगा तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि इन्तेज़ार करे और उस वक़्त नमाज़ पढ़े जब पाक हो।
417 अगर वुज़ू व ग़ुस्ल के बाद बाज़ाहिर ख़ून आना बंद हो जाये और मुस्तेहाज़ः को मालूम हो कि अगर नमाज़ पढ़ने में देर की तो जितनी देर में वुज़ू, ग़ुस्ल और नमाज़ को अंजाम देगी बिल्कुल पाक हो जायेगी, तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि नमाज़ में देर करे और जब बिल्कुल पाक हो जाये तो दोबारा वुज़ू व ग़ुस्ल करके नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर ख़ून के बज़ाहिर बंद होने के वक़्त नमाज़ का वक़्त कम हो तो दोबारा वुज़ू व ग़ुस्ल करना ज़रूरी नही है, बल्कि जो वुज़ू व ग़ुस्ल उसने किये हैं, उन्हीं से नमाज़ पढ़ सकती है।
418 मुस्तेहाज़ –ए- कसीरः को जब ख़ून आना बिल्कुल बंद हो जाये तो अगर उसे मालूम हो कि उसने पिछली नमाज़ के लिए जब से ग़ुस्ल किया है उसे ख़ून नही आया है, तो दोबारा ग़ुस्ल करना ज़रूरी नही है। इसके अलावा दूसरी सूरतों में ग़ुस्ल करना लाज़िम है। अगरचे इस हुक्म का बतौरे कुल्ली होना एहतियात की बिना पर है। लेकिन मुस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः में ख़ून के बिल्कुल बंद होने के बाद ग़ुस्ल करना लाज़िम नही है।
419 मुस्तेहाज़ –ए- क़लीलः को वुज़ू के बाद और मुस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः को ग़ुस्ल और वुज़ू के बाद और मुस्तेहाज़ –ए- कसीरः को ग़ुस्ल के बाद (उन दो सूरतों के अलावा जो मस्अला न. 403 और 415 में बयान हुई हैं) फ़ौरन नमाज़ में मशग़ूल होना ज़रूरी है। लेकिन नमाज़ से पहले अज़ान व इक़ामत कहने में कोई हरज नही है और वह नमाज़ के मुस्तहब काम भी कर सकती है जैसे क़ुनूत वग़ैरह का पढ़ना।
420 अगर मुस्तेहाज़ः औरत का वज़ीफ़ा यह हो कि वुज़ू या ग़ुस्ल और नमाज़ के दरमियान फ़ासिला न रखे, अगर उसने अपने वज़ीफ़े पर अमल न किया हो तो उसे दोबारा ग़ुस्ल या वुज़ू करके, फ़ौरन नमाज़ में मशग़ूल हो जाना चाहिए।
421 अगर औरत को इस्तेहाज़ः का ख़ून मुसलसल आये और बंद न होता हो तो अगर ख़ून का रोकना उसके लिए मुज़िर न हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के फौरन बाद ख़ून को बाहर आने से रोके और अगर ऐसा करने में कोताही करे और ख़ून निकल जाये तो जो नमाज़ पढ़ली हो उसे दोबारा पढ़े, बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि दोबारा ग़ुस्ल करे।
422 अगर ग़ुस्ल करते वक़्त ख़ून न रुके तो ग़ुस्ल सही है, लेकिन अगर ग़ुस्ल के दरमियान इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः कसीरः में बदल जाये तो अज़ सरे नो ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।
423 अगर मुस्तेहाज़ः रोज़े से हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि जहाँ तक मुमकिन हो पूरे दिन ख़ून को निकलने से रोके।
424 मशहूर क़ौल की बिना पर मुस्तेहाज़ –ए- कसीरः का रोज़ा उस सूरत में सही होगा कि जिस रात के बाद के दिन वह रोज़ा रखना चाहती हो उस रात की मग़रिब व इशा की नमाज़ का ग़ुस्ल करे। इसके अलावा दिन में वह ग़ुस्ल अंजाम दे जो दिन की नमाज़ों के लिए वाजिब हैं। लेकिन कुछ बईद नही कि उसके रोज़े की सेहत का इंहेसार ग़ुस्ल पर न हो। इसी तरह बिना बर अक़वा मुस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः में यह ग़ुस्ल शर्त नही है।
425 अगर औरत अस्र की नमाज़ के बाद मुस्तेहाज़ः हो जाये और सूरज के छिपने तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा सही है।
426 अगर किसी औरत का इस्तेहाजः ए क़लीलः नमाज़ से पहले मुतवस्सेतः या कसीरः में बदल जाये तो ज़रूरी है कि मुतवस्सेतः या कसीरः के आमाल अंजाम दे। और अगर इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः कसीरः में बदल जाये तो उसे कसीरः के काम अंजाम देने चाहिए। लिहाज़ा अगर उसने इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः के लिए ग़ुस्ल किया हो तो उसका कोई फ़ायदा नही है, उसे इस्तेहाज़ः –ए- कसीरः के लिए दोबारा ग़ुस्ल करना चाहिए।
427 अगर नमाज़ पढ़ते हुए किसी औरत का इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः,  कसीरः में बदल जाये तो उसे नमाज़ तोड़ देनी चाहिए और इस्तेहाज़ –ए- कसीरः के लिए ग़ुस्ल करके उसके आमाल अंजाम देते हुए उसी नमाज़ को दोबारा पढ़े और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ग़ुस्ल से पहले वुज़ू भी करे। अगर उसके पास ग़ुस्ल के लिए वक़्त न हो तो ग़ुस्ल के लिए तयम्मुम करे और अगर तयम्मुम के लिए भी वक़्त न हो तो एहतियात की बिना पर नमाज़ न तोड़े और उसी हालत में नमाज़ को तमाम करे। लेकिन वक़्त ग़ुज़रने के बाद उसकी क़ज़ा ज़रूरी है। इसी तरह अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त इस्तेहाज़ –ए- कलीलः, मुतवस्सेतः या कसीरः में बदल जाये तो नमाज़ को तोड़ देना चाहिए और इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः या कसीरः के कामों को अंजाम देना चाहिए।
428 अगर नमाज़ पढ़ते वक़्त ख़ून बंद हो जाये और मुस्तेहाज़ः को मालूम न हो कि बातिन (अन्दरूनी हिस्से) में भी ख़ून बंद हुआ है या नही, तो अगर उसे नमाज़ के बाद पता चले कि ख़ून पूरे तौर पर बंद हो गया था और उसके पास इतना वक़्त हो कि पाक होकर दोबारा नमाज़ पढ़ सके तो अगर ख़ून बंद होने से मायूस न हुई हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ वुज़ू या ग़ुस्ल करे और दोबारा नमाज़ पढ़े।
429 अगर किसी औरत का इस्तेहाज़ -ए- कसीरः, मुतवस्सेतः में बदल जाये तो ज़रूरी है कि पहली नमाज़ के लिए कसीरः का अमल और बाद की नमाज़ों के लिए मुतवस्सेतः का अमल अंजाम दे। मसलन अगर ज़ोह्र की नमाज़ से पहले इस्तेहाज़ -ए- कसीरः, मुतवस्सेतः में बदल जाये तो ज़रूरी है कि ज़ोह्र की नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करे और अस्र व मग़रिब व इशा की नमाज़ों के लिए सिर्फ़ वुज़ू करे। लेकिन अगर नमाज़े ज़ोह्र के लिए ग़ुस्ल न करे और उसके पास सिर्फ़ नमाज़े अस्र के लिए वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़े अस्र के लिए ग़ुस्ल करे और अगर नमाज़े अस्र के लिए भी ग़ुस्ल न करे तो ज़रूरी है कि नमाज़े मग़रिब के लिए ग़ुस्ल करे और अगर उसके लिए भी ग़ुस्ल न कर सके और उसके पास सिर्फ़ इशा की नमाज़ के लिए वक़्त हो तो नमाज़े इशा के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।
430 अगर हर नमाज़ से पहले मुस्तहाज़ -ए- कसीरः का ख़ून बंद हो जाये और दोबारा आजाये तो हर नमाज़ के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।
431 अगर इस्तेहाज़ –ए- कसीरः, क़लीलः में बदल जाये तो ज़रूरी है कि वह औरत पहली नमाज़ के लिए कसीरः वाले और बाद नमाज़ के लिए क़लीलः वाले आमल अंजाम दे। अगर इस्तेहाज़ –ए- मुतवस्सेतः, क़लीलः हो जाये तो पहली नमाज़ के लिए मुतवस्सेतः वाले और बाद की नमाज़ के लिए क़लीलः वाले आमाल अंजाम दे।
432 मुस्तेहाजः के लिए जो काम वाजिब हैं, अगर वह उनमें से किसी एक को भी तर्क करदे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
433 मुस्तेहाज़ –ए- क़लीलः या मुतवस्सेतः अगर नमाज़ के अलावा और कोई ऐसा काम अंजाम देना चाहती हो जिसके लिए वुज़ू का होना शर्त हो, मसलन अपने बदन का कोई हिस्सा क़ुरआन के अलफ़ाज़ से मस करना चाहती हो, तो नमाज़ अदा करने के बाद दोबारा वुज़ू करना ज़रूरी है और वह वुज़ू जो उसने नमाज़ के लिए किया था काफ़ी नही है।
434 जिस मुस्तेहाज़ः ने अपने वाजिब ग़ुस्ल कर लिये हों, उसका मस्जिद में जाना, वहाँ ठहरना, वाजिब सजदे वाली आयतों का पढ़ना और अपने शौहर के साथ हमबिस्तरी (संभोग) करना हलाल है। चाहे उसने वह काम अंजाम न दिये हों जिन्हें वह नमाज़ के लिए अंजाम देती थी (मसलन रूई और कपड़े के टुकड़ों को बदलना) और यह भी बईद नही है कि यह काम ग़ुस्ल किये बग़ैर भी जायज़ हों, जबकि एहतियात यह है कि इस हालत में उन्हें तर्क किया जाये।
435 जो औरत इस्तेहाज़ –ए- कसीरः या मुतवस्सेतः में हो अगर वह नमाज़ के वक़्त से पहले वाजिब सजदे वाली आयतों को पढ़ना चाहे या मस्जिद में जाना चाहे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे। अगर उसका शौहर उसके साथ हमबिस्तर होना चाहे तो तब भी यही हुक्म है।
436 मुस्तेहाज़ः औरत पर नमाज़े आयात का पढ़ना वाजिब है और नमाज़े आयात पढ़ने के लिए भी उन्हीं आमाल को अंजाम देना ज़रूरी है, जो रोज़ाना की वाजिब नमाज़ों को पढ़ने के लिए अंजाम दिये जाते हैं।
437 अगर मुस्तेहाज़ः पर यौमियः (दिन रात की वाजिब नमाज़ें) नमाज़ के वक़्त में नमाज़े आयात भी वाजिब हो जाये और वह उन नमाज़ों के यके बाद दीगरे अदा करना चाहे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह उन दोनों नमाज़ों को एक वुज़ू और ग़ुस्ल से नही पढ़ सकती ।
438 अगर मुस्तेहाज़ः क़ज़ा नमाज़ पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ के लिए वह उन तमाम कामों को अंजाम दे जो अदा नमाज़ों के लिए उस पर वाजिब हैं। एहतियात की बिना पर क़ज़ा नमाज़ के लिए वह उन कामों पर इक्तफ़ा नही कर सकती, जो उसने अदा नमाज़ के लिए अंजाम दिये हों।
439 अगर कोई औरत यह जानती हो कि उसे जो ख़ून आरहा है वह ज़ख़्म का नही है। लेकिन उसके इस्तेहाजः, हैज़ या निफ़ास होने के बारे में शक करे और शरअन वह ख़ून हैज़ या निफ़ास का हुक्म भी न रखता हो तो ज़रूरी है कि इस्तेहाज़ः के अहकाम के मुताबिक़ अमल करे। बल्कि अगर उसे शक हो कि यह ख़ून इस्तेहाज़ः का है या कोई दूसरा ख़ून है और उसमें दूसरे ख़ून की कोई निशानी भी न हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर इस्तेहाज़ः के काम अंजाम देना ज़रूरी है।
क़िबले के अहकाम
(784) ख़ान-ए-काबा जो कि मक्क-ए-मकर्रेमा में है वह हमारा क़िबला है, लिहाज़ा (हर मुसलमान के लिए) ज़रूरी है कि उसके लिए सामने ख़ड़े हो कर नमाज़ पढ़े। लेकिन जो इंसान उससे दूर हो अगर वह इस तरह ख़ड़ा हो कि लोग कहे कि क़िबले की तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ रहा है तो काफ़ी है और दूसरे काम जो क़िबले की तरफ़ मुँह कर के अंजाम देने ज़रूरी हैं। (मसलन हैवानात को जिबह करना) उनके बारे में भी यही हुक्म है।
(785) जो इंसान ख़ड़े हो कर वाजिब नमाज़ पढ़ रहा हो उसके लिए ज़रूरी है कि उसका सीना और पेट क़िबले की तरफ़ हो बल्कि उसका चेहरा क़िबले से बहुत ज़्यादा फिरा हुआ नहीं होना चाहिए और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसके पावँ की उंगलियां भी क़िबले की तरफ़ हों।
(786) जिस इंसान के लिए नमाज़ बैठकर पढ़नी हो ज़रूरी है कि उसका सीना और पेट नमाज़ के वक़्त क़िबले की तरफ़ हो। बल्कि उसका चेहरा भी क़िबले से बहुत ज़्यादा फ़िरा हुआ न हो।
(787) जो इंसान बैठकर नमाज़ न पढ़ सके तो ज़रूरी है कि दाहिने पहलू के बल यूँ लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िबले की तरफ़ हो और अगर यह मुमकिन न हो तो ज़रूरी है कि बायें पहलू के बल यूँ लेटे कि उसके बदन का अगला हिस्सा क़िबले की तरफ़ हो। और जब तक दाहिने पहलू के बल लेट कर नमाज़ पढ़ना मुमकिन हो एहतियाते लाज़िम की बिना पर बायें पहलू के बल लेटकर नमाज़ न पढ़े। अगर यह दोनों सूरतें मुमकिन न हों तो ज़रूरी है कि पुश्त के बल यूँ लेटे कि उसके पावँ के तलवे क़िबले की तरफ़ हों।
(788) नमाज़े एहतियात, भूले हुए सजदे और भूले हुए तशह्हुद को क़िबले की तरफ़ मुँह कर के अदा करना ज़रूरी है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर सजदा-ए-सहव को भी क़िबले की तरफ़ मुँह कर के अदा करे।
(789) मुस्तहब नमाज़ रास्ता चलते हुए और सवारी की हातल में पढ़ी जा सकती है और अगर इंसान इन दोनों हालतों में मुस्तहब नमाज़ पढ़े तो ज़रूरी नहीं कि उसका मुँह क़िबले कि तरफ़ हो।
(790) जो इंसान नमाज़ पढ़ना चाहता हो उसके लिए ज़रूरी है कि क़िबले की सिम्त को मुऐय्यन करने के लिए कोशिश करे ताकि क़िबले की सिम्त के बारे में यक़ीन या ऐसी कैफ़िय्यत जो यक़ीन के हुक्म में हो (मसलन दो आदिल आदमियों की गवाही) हासिल कर ले। अगर ऐसा न कर सके तो ज़रूरी है कि मुसलमानों की मसजिदों के मेहराब से या उनकी क़बरों से या दूसरे तरीक़ों से जो गुमान पैदा हो उसके मुताबिक़ अमल करे हत्ता कि अगर ऐसे फ़ासिक़ या काफ़िर के कहने पर जो साइंसी क़वाएद के ज़रिए क़िबले का रुख़ पहचानता हो, क़िबले के बारे में गुमान पैदा करे तो वह भी काफ़ी है।
(791) जो इंसान क़िबले की सिम्त के बारे में गुमान करे, अगर वह उससे क़वी तर गुमान पैदा कर सकता हो तो वह अपने गुमान पर अमल नहीं कर सकता मसलन अगर मेहमान, साहिबे ख़ाना के कहने पर क़िबले की सिमत के बारे में गुमान पैदा कर ले लेकिन किसी दूसरे तरीक़े पर ज़्यादा क़वी गुमान पैदा कर सकता हो तो उसे साहिबे ख़ाना के कहने पर अमल नही करना चाहिए।
(792) अगर किसी के पास क़िबल का रुख़ मुऐय्यन करने का कोई ज़रिया न हो (मसलन क़ुतुब नुमा) या कोशिश के बावुजूद उसका गुमान किसी एक तरफ़ न हो तो उसका किसी भी तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ना काफ़ी है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर नमाज़ का वक़्त वसी हो तो नमाज़े चारों तरफ़ मुँह कर के पढ़े (यानी वही एक नमाज़ चार मरतबा एक एक सिम्त की जानिब मुँह कर के पढ़े)
(793) अगर किसी इंसान को यक़ीन या गुमान हो कि क़िबला दो में से एक तरफ़ है तो ज़रूरी है कि दोनों तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़े।
(794) जो इंसान कई तरफ़ मुँह कर के नमाज़ पढ़ना चाहता हो, तो अगर वह ऐसी दो नमाज़ें पढ़ना चाहे जो ज़ोहर और अस्र की तरह यके बाद दीगरे पढ़नी ज़रूरी है तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहली नमाज़ मुख़त्लिफ़ सिम्तों की तरफ़ मुँह कर के पढ़े और बाद में दूसरी नमाज़ शुरू करे।
(795) जिस इंसान को क़िबले की सिम्त का यक़ीन न हो अगर वह नमाज़ के अलावा कोई ऐसा काम करना चाहे जिसके लिए क़िबले की तरफ़ मुँह करना ज़रूरी हो मसलन अगर वह कोई हैवान ज़िबह करना चाहता हो तो उसे चाहिए कि गुमान पर अमल करे और अगर गुमान पैदा करना मुमकिन न हो तो जिस तरफ़ मुँह कर के वह काम अंजाम दे दुरुस्त है।
मस्जिद के अहकाम
909.मस्जिद की ज़मीन, अन्दरूनी व बाहरी छत और मस्जिद की दीवार को नजिस करना हराम है। और जिस इंसान को पता चले कि इनमें से कोई जगह नजिस हो गई है, तो ज़रूरी है कि उसकी निजासत को फ़ौरन पाक करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद की दीवार के बाहरी हिस्से को भी नजिस न किया जाये और अगर वह नजिस हो जाये तो निजासत को पाक करना ज़रूरी नही है। लेकिन अगर दीवार के बाहरी हिस्से का नजिस करना मस्जिद की बेहुरमती का सबब हो, तो क़तन हराम है और निजासत को इतनी मिक़दार में साफ़ करना ज़रूरी है जिससे बेहुरमति न हो।
910.अगर कोई इंसान मस्जिद को पाक करने पर क़ादिर न हो, या उसे मस्जिद पाक करने के लिए किसी दूसरे की मदद की ज़रूरत हो और उसे कोई न मिल रहा हो, तो उस पर मस्जिद को पाक करना वाजिब नही है। लेकिन अगर वह यह समझता हो कि अगर किसी दूसरे को इस निजासत के बारे में बतायेगा तो वह इसे पाक कर देगा, तो ज़रूरी है कि वह किसी दूसरे को बताए।
911. अगर मस्जिद की कोई ऐसी जगह नजिस हो गई हो जिसे खोदे या तोड़े बग़ैर, पाक करना मुमकिन न हो तो उस जगह को खोदना या तोड़ना ज़रूरी है, लेकिन यह सिर्फ़ उस हालत में है, जबकि कुछ हिस्सा ही तोड़ना पडे, या मस्जिद को बेहुरमती से बचाने के लिए पूरे हिस्से को ही तोड़ने ज़रूरी हो, इस सूरत के अलावा मस्जिद को तोड़ने में इशकाल है। खोदी हुई जगह को भरना और तोड़ी हुई जगह को बनाना वाजिब नही है। लेकिन अगर मस्जिद की कोई चीज़, मसलन ईंट नजिस हो गई हो, तो अगर मुमकिन हो तो उसे पानी से पाक करके उसकी असली जगह पर लगाना ज़रूरी है।
912. अगर कोई इंसान मस्जिद को ग़स्ब करके उस पर अपना घर या कोई ऐसी ही चीज़ बनाले, या मस्जिद इतनी टूट फूट जाये कि उसे मस्जिद न कहा जा सके तो भी एहतियाते मुस्तहब यह है कि उसे नजिस न किया जाये, लेकिन अगर वह नजिस हो जाये, तो उसे पाक करना वाजिब नही है।
913. आइम्मा –ए- अहले बैत अलैहिस्सलाम में से किसी भी इमाम के हरम को नजिस करना हराम है। अगर उनके हरमों में से कोई हरम नजिस हो जाये और उसका नजिस रहना उसकी बेहुरमती का सबब हो तो उसको पाक करना वाजिब है। बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर बेहुरमति न होती हो तब भी पाक किया जाये।
914. अगर मस्जिद की चटाई नजिस हो जाये तो उसे पाक करना ज़रूरी है। अगर चटाई का नजिस होना मस्जिद की बेहुरमति शुमार होता हो और वह धोने से खऱराब होती हो और नजिस हिस्से को काटना बेहतर हो, तो उसे काटना ज़रूरी है।
915. अगर किसी ऐने निजासत या नजिस चीज़ को मस्जिद में ले जाने से मस्जिद की बेहुरमति होती हो तो उसे मस्जिद में ले जाना हराम है। बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि अगर बेहुरमति न होती हो तब भी उसे मस्जिद में न लेजायें।
916. अगर मस्जिद में मजलिसे अज़ा के लिए शामयाना टाँगा जाये, क़नात लगाई जाये, फ़र्श बिछाया जाये, सियाह पर्दे लटकाये जायें और चाय का सामान उसके अन्दर लेजाया जाये तो अगर इन चीज़ों से मस्जिद का तक़द्दुस पामाल न होता हो और नमाज़ पढ़ने में भी कोई रुकावट न हो तो ऐसा करने में कोई हरज नही है।
917. एहतियाते वाजिब यह है मस्जिद को सोने से न सजाया जाये और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मस्जिद को इंसान व हैवान जैसे जानदारों की तस्वीरों से भी न सजाया जाये।
918. अगर मस्जिद टूट फूट भी जाये तब भी न उसे बेचा जा सकता है और न ही मिलकियत और सड़क में शामिल किया जा सकता है।
919. मस्जिद के दरवाज़ों ख़िड़कियों और दूसरी चीज़ों को बेचना हराम है। अगर मस्जिद टूट फूट जाये तब भी उन चीज़ों को उसी मस्जिद की मरमम्त के लिए इस्तेमाल किया जाये। अगर उस मस्जिद के काम की न रही हों तो ज़रूरी है कि किसी दूसरी मस्जिद के काम में लाया जाये और अगर दूसरी मस्जिदों के काम की भी न रही हो तो उन्हें बेचा जा सकता है और उससे मिलने वाली रक़म को, अगर मुमकिन हो तो उसी मस्जिद की मरम्मत पर ख़र्च करना चाहिए वरना किसी दूसरी मस्जिद पर भी ख़र्च किया जा सकता है।
920. मस्जिद बनाना और बोसीदा मस्जिद की मरम्मत करना मुस्तहब है। अगर मस्जिद इतनी ज़्यादा बोसीदा हो गई हो कि उसकी मरम्मत न कराई जा सकती हो तो उसे गिरा कर दोबारा बनाया जा सकता है। बल्कि अगर मस्जिद सही हो तब भी उसे बड़ा बनाने के लिए गिरा कर दोबारा बनाया जा सकता है।
921. मस्जिद को साफ़ सुथरा रखना और उसमें चराग़ जलाना मुस्तहब है। अगर कोई मस्जिद में जाना चाहे तो मुस्तहब है कि ख़ुशबू लगाये पाक और अच्छा लिबास पहने और अपने जूतों के तलवों को देखे कि कहीँ कोई निजासत तो नही लगी है। मस्जिद में दाख़िल होते वक़्त पहले दाहिना पैर रखे और बाहर आते वक़्त पहले बांया पैर बाहर निकाले। यह भी मुस्तहब है कि सबसे पहले मस्जिद में पहुँचे और सबके बाद मस्जिद से बाहर आये।
922. अगर कोई इंसान मस्जिद में दाख़िल हो तो मुस्तहब है कि दो रकत नमाज़े ताहिय्यत व मस्जिद के एहतेराम की नियत से पढ़े और अगर कोई दूसरी वाजिब या मुस्तहब नमाज़ पढ़ले तो वह भी काफ़ी है।
923. अगर इंसान मजबूर न हो तो मस्जिद में सोना, काम करना, दुनियावी कामों के बारे में बात चीत करना और ऐसे शेर पढ़ना जिनमें कोई काम की बात व नसीहत न हो, मकरूह है। इसी तरह मस्जिद में थूकना, नाक सिनकना और बलग़म फेंकना मकरूह है, बल्कि कुछ हालतों में तो हराम है। इसके अलावा गुम शुदा इंसान व चीज़ को तलाश करने के लिए ज़ोर से बोलना भी मकरूह है। लेकिन ऊँची आवाज़ में अज़ान कहने में कोई हरज नही है।
924. दीवाने को मस्जिद में दाखिल होने देना मकरूह है और इसी तरह उस बच्चे को भी दाखिल होने देना मकरूह है जो नमाज़ियों के लिए ज़हमत बनता हो या जिसके बारे में एहतेमाल हो कि वह मस्जिद को नजिस कर देगा। इन दो सूरतों के अलावा बच्चे को मस्जिद में आने देने में कोई हरज नही है। उस इंसान का भी मस्जिद में जाना मकरूह है जिसने लहसुन प्याज़ और इन्हीं जैसी दूसरी चीज़ें खाईं हों और उनकी बू लोगों को ना गवार गुज़रती हो।
वाज़िब गुस्ल
इंसान के ऊपर निम्न लिखित सात ग़ुस्ल वाज़िब हैं।
1.    ग़ुस्ले जनाबत( यह वह ग़ुस्ल है जो संभोग के बाद किया जाता है।)
2.    ग़ुस्ले हैज़ (यह वह ग़ुस्ल है जो स्त्री मासिक समाप्त होने के बाद करती है।)
3.    ग़ुस्ले निफ़ास(यह वह ग़ुस्ल है जो स्त्री बच्चा पैदा होने के बाद करती है।)
4.    ग़ुस्ले इस्तेहाज़ा (यह वह ग़ुस्ल है जो स्त्री हैज़ व निफ़ास के अतिरिक्त अन्य खून आने पर करती है।)
5.    ग़ुस्ले मसे मय्यित (यह वह ग़ुस्ल है जो किसी मुर्दा इंसान को छूने के बाद किया जाता है।)
6.    ग़ुस्ले मय्यित(यह वह ग़ुस्ल है जो मुर्दा इंसान को दिया जाता है।)
7.    मन्नत व क़सम आदि के कारण वाजिब होने वाला ग़ुस्ल।
जनाबत (संभोग) के अहकाम
351 इंसान दो चीज़ों के द्वारा जुनुब हो जाता है। या तो वह संभोग करे या उसकी मनी(वीर्य) स्वयं निकल जाये चाहे सोते हुए या जागते हुए, कम मात्रा में हो या अधिक मात्रा में, मस्ती के साथ निकले या बिना मस्ती के, चाहे इंसान उसे स्वयं निकाले या खुद निकल जाये।
352  अगर किसी इंसान के मुत्र मार्ग से कोई तरी निकले और वह यह न जानता हो कि यह तरी वीर्य है या पेशाब या अन्य कोई चीज़ तो अगर वह तरी मस्ती के साथ व उछल कर निकली हो और उस के निकलने के बाद बदन सुस्त हो गया हो तो वह तरी मनी के हुक्म में है। लेकिन अगर इन तीनों लक्ष्णों में से समस्त या कुछ मौजूद न हो तो वह तरी मनी के हुक्म में नही है। लेकिन अगर वह इंसान बीमार हो तो यह आवश्यक नही है कि वह तरी उछल कर नुकले व उसके निकलने के बाद बदन सुस्त हो जाये। बल्कि अगर केवल मस्ती के साथ निकले तो वह तरी मनी के हुक्म में होगी।
353 अगर किसी तन्दरुस्त इंसान के मुत्र मार्ग से कोई ऐसी तरी निकले जिसमें उपरोक्त वर्णित तीनों लक्ष्णों में से कोई लक्षण पाया जाता हो और वह यह न जानता हो कि अन्य लक्षँ भी उसमें पाये जाते हैं या नही तो अगर उस तरी के निकलने से पहले उसने वुज़ू कर रखा हो तो उसी वुज़ू को काफ़ी समझना चाहिए। और अगर वुज़ू से न हो तो केवल वुज़ू करना ही काफ़ी है उस पर ग़ुस्ल वाजिब नही है।
354 वीर्य निकलने के बाद इंसान के लिए मुस्तहब है कि वह पेशाब करे। और अगर पेशाब न करे व ग़ुस्ल करने के बाद उसके मुत्र मार्ग से कोई ऐसी तरी निकले जिसके बारे में वह यह न जानता हो कि यह वीर्य है या कोई और चीज़ तो वह तरी वार्य ही मानी जायेगी।
355  अगर कोई इंसान संभोग करे और उसका लिंग शिर्ष की मात्रा तक स्त्री की यौनी या गुदा में प्रवेश कर जाये तो चाहे वार्य निकले या न निकले वह दोनो जुनुब हो जायेंगे चाहे बालिग़ हो या ना बालिग़।
356  अगर किसी को शक हो कि उसका लिंग शीर्ष की मात्रा तक अन्दर गया है या नही तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नही है।
357  (खुदा न करे कि ऐसा हो) अगर कोई इंसान किसी जानवर के साथ संभोग करे और उसका वीर्य निकल जाये तो केवल ग़ुस्ल कर लेना ही काफ़ी है। और अगर वीर्य न निकले और उसने संभोग से पहले वुज़ू किया हो तो भी ग़ुस्ल करना ही काफ़ी है। और अगर वुज़ू न कर रखा हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि वुज़ू और ग़ुस्ल दोनों करे। और अगर मर्द ने किसी मर्द के साथ संभोग किया हो तब भी यही हुक्म है।
358  अगर वीर्य अपनी जगह से हिल जाये परन्तु बाहर न निकले या इंसान को शक हो कि वीर्य निकला है या नही तो उस पर ग़ुस्ल वाजिब नही है।
359 जो इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो परन्तु तयम्मुम कर सकता हो तो वह इंसान नमाज़ का समय होने के बाद भी अपनी बीवी से संभोग कर सकता है।
360 अगर कोई इंसान अपने कपड़ों पर वीर्य लगा देखे और यह भी जानता हो कि यह उसका स्वयं का वीर्य है और उसने इसके निकलने के बाद ग़ुस्ल न किया हो तो उसके लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। और जिन नमाज़ों के बारे में उसे यक़ीन हो कि उसने इन्हें वीर्य निकलने के बाद पढ़ा है उनकी कज़ा करे। लेकिन उन नमाज़ों की कज़ा ज़रूरी नही है जिनके बारे में यह एहतिमाल कि वह उसने वीर्य निकलने से पहले पढ़ी थीं।
वह कार्य जो मुजनिब पर हराम है।
नोटः वीर्य निकलने के बाद, ग़ुस्ल या तयम्मुम करने से पहले इंसान मुजनिब कहलाता है)
361  मुजनिब इंसान पर निम्न लिखित पाँच कार्य हराम हैं।
· क़ुरआने करीम के अलफ़ाज और अल्लाह के नामों को छूना चाहे वह किसी भी ज़बान में लिखे हो। और बेहतर यह है कि पैगम्बरो, इमामों और हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के नामों को भी न छुवा जाये।
· मस्जिदुल हराम व मस्जिदुन नबी में जाना चाहे एक दरवाज़े से दाख़िल हो कर दूसरे दरवाज़े से बाहर निकलना ही क्योँ न हो।
· मस्जिदुल हराम व मस्जिदुन नबी के अलावा अन्य मस्जिदों में रुकना। और एहतियाते वाजिब यह है कि इमामों के हरम में भी न रुका जाये। लेकिन अगर आम मस्जिदों को केवल पार करना हो तो यानी एक दरवाज़े से दाख़िल हो कर दूसरे दरवाज़े से निकल जाना हो तो इसमें कोई हरज नही है।
· एहतियाते लाज़िम की बिना पर किसी मस्जिद में कोई चीज़ रखने या उठाने के लिए दाख़िल होना।
· कुरआने करीम की उन आयतों का पढ़ना जिन के पढ़ने पर सजदा वाजिब हो जाता हो। और वह आयते इन सूरोह में हैं- (अ) सूरह-ए-अलिफ़ लाम तनज़ील (ब) सूरह-ए- हाम मीम सजदह (स) सूरह-ए-वन नज्म (द) सूरह-ए –अलक़।
वह कार्य जो मुजनिब के लिए मकरूह हैं।
362  मुजनिब इंसान के लिए नौ कार्य मकरूह हैं।
·खाना, पीना लेकिन अगर हाथ मुँह धो लिये जायें और कुल्ली कर ली जाये तो मकरूह नही है। और अगर सिर्फ़ हाथ धो लिये जायें तो तब भी कराहत कम हो जायेगी।
·कुरआने करीम की सात से ज़्यादा उन आयतों को पढ़ना जिनमें वाजिब सजदा न हो।
·कुरआने मजीद की ज़िल्द, हाशिये या अलफ़ाज़ के बीच की ख़ाली जगह को छूना।
·कुरआने करीम को अपने साथ रखना।
·सोना- लेकिन अगर वुज़ू कर ले या पानी न होने की वजह से ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम कर ले इसके बाद सोना मकरूह नही है।
·मेंहदी या इससे मिलती जुलती किसी चीज़ से ख़िज़ाब करना।
·बदन पर तेल की मालिश करना।
·एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो जाने के बाद संभोग करना।
ग़ुस्ले जनाबत
363 ग़ुस्ले जनाबत वाजिब नमाज़ पढ़ने और ऐसी ही दूसरी इबादतों के लिए वाजिब हो जाता है, लेकिन नमाज़े मय्यित,सजदा-ए-सह्व, सजद-ए-शुक्र और कुरआने मजीद के वाजिब सजदों के लिए ग़ुस्ले जनाबत ज़रूरी नही है।
364 ज़रूरी नही है कि इंसान ग़ुस्ल के वक़्त नियत करे कि वाजिब ग़ुस्ल कर रहा हूँ, बल्कि अगर अल्लाह की कुरबत के इरादे से ग़ुस्ल करे तो काफ़ी है।
365 अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और वह वाजिब की नियत से ग़ुस्ल कर ले, बाद में मालूम हो कि अभी नमाज़ का वक़्त नही हुआ है तो उसका ग़ुस्ल सही है।
366 ग़ुस्ले जनाबत करने के दो तरीक़े हैं। (अ) तरतीबी (आ) इरतेमासी।
ग़ुस्ले तरतीबी 
367 एहतियाते लाज़िम यह है कि अगर इंसान ग़ुस्ले तरतीबी करना चाहे तो नियत करने के बाद, पहले अपने सर व गर्दन को धोये और बाद में बदन को। बेहतर यह है कि पहले बदन का दाहिना हिस्सा धोये और बाद में बायाँ हिस्सा। अगर कोई इंसान ग़स्ले तरतीबी की नियत से अपने सर, दाहिने हिस्से और बायँ हिस्से को पानी में डुबो कर पानी के अन्दर ही अन्दर हिलाये तो उसके ग़ुस्ल के सही होने में इश्काल है। और एहतियात यह है कि ऐसा न करे। अगर कोई इंसान, जान बूझ कर या मसला न जानने की बिना पर बदन को सर से पहले धो ले तो उसका ग़ुस्ल सही नही है।
368  
369  इंसान को इस बात का नयक़ीन करने के लिए कि उसने सर व गर्द और बदन के दाहिने व बायेँ हिस्से को पूरा धो लिया है, उसे चाहिए कि हर हिस्से को धोते वक़्त उसके साथ बाद वाले हिस्से का भी थोड़ा धो ले।
370  अगर किसी इंसान को ग़ुस्ल करने बाद पता चले कि बदन कुछ हिस्सा धुले बग़ैर रह गया है लेकिन उसे यह पता न हो कि कौनसा हिस्सा रह गया है तो सर का दोबारा धोना ज़रूरी नही है, बल्कि बदन के सिर्फ़ उसी हिस्से को धोना ज़रूरी है, जिसके न धोये जाने का एहतेमाल हो।
371  अगर किसी इंसान को ग़ुस्ल के बाद पता चले कि बदन की कुछ जगह धुलने से रह गयी है, तो अगर वह जगह बायीं तरफ़ की है तो सिर्फ़ उस जगह का धोना काफ़ी है। लेकिन अगर बग़ैर धुली जगह दाहिनी तरफ़ रह गयी हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस जगह को धोने के बाद बायीँ तरफ़ को दोबारा धोया जाये। लेकिन अगर सर या गर्दन का कोई हिस्सा धुले बग़ैर रह गया हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से को धोने के बाद गर्दन से नीचे के पूरे बदन को दोबारा धोये।
372  अगर किसी इंसान को ग़ुस्ल पूरा होने से पहले शक हो कि दाहिनी या बायीं तरफ़ का कुछ हिस्सा धुलने से रह गया है तो उसके लिए ज़रूरी है कि जिस हिस्से के बारे में शक हो सिर्फ़ उसे धेये। लेकिन अगर उसे सर या गर्दन के कुछ हिस्से के न धुलने के बारे में शक हो तो ज़रूरी है कि पहले उस शक वाले हिस्से को धोये और बाद में बदन के दाहिने व बायें हिस्से को दोबारा धोये।
ग़ुस्ले इरतेमासी
इरते मासी ग़ुस्ल दो तरीक़ों से किया जा सकता है (अ) दफ़ई (आ) तदरीजी
373  जब इंसान ग़ुस्ले इरतेमासी दफ़ई कर रहा हो तो ज़रूरी है कि एक साथ पूरे बदन को पानी में डुबा दे। लेकिन ज़रूरी नही है कि ग़ुस्ल की नियत से पहले उसका पूरा बदन पानी से बाहर हो। अगर इंसान के बदन का कुछ पानी में और कुछ हिस्सा पानी से बाहर हो और वह वहीँ, ग़ुस्ल की नियत कर के पानी में डुबकी लगा ले तो उसका ग़ुस्ल सही है।
374  अगर इंसान ग़ुस्ले इरतेमासी तदरीज़ी करना चाहता हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल की नियत से, एक दफ़ा बदन को धोने का ख़याल रखते हुए पानी में आहिस्ता आहिस्ता डुबकी लगाये। लेकिन इस तरह के ग़ुस्ल में ज़रूरी है कि ग़ुस्ल से पहले, ग़ुस्ल करने वाले का पूरा बदन पानी से बाहर हो।
375  अगर किसी इंसान को ग़ुस्ले इरतेमासी करने के बाद पता चले कि बदन का कुछ हिस्सा ऐसा रह गया है जिस तक पानी नही पहुँच पाया है, तो चाहे वह इस हिस्से के बारे में जानता हो या न जानता हो, उसके लिए ज़रूरी है कि दोबारा ग़ुस्ल करे।
376  अगर किसी इंसान के पास ग़ुस्ले तरतीबी के लिए वक़्त न हो लेकिन वह इस कम वक़्त में ग़ुस्ले इरतेमासी कर सकता हो तो उसके लिए ग़ुस्ले इरतेमासी करना ही ज़रूरी है।
377  हज व उमरे का एहराम बाँधे होने की हालत में इंसान ग़ुस्ले इरतेमासी नही कर सकता, लेकिन अगर वह भूले से ग़ुस्ले इरतेमासी कर ले, तो उसका ग़ुस्ल सही है।
ग़ुस्ल के अहकाम
378  चाहे ग़ुस्ल तरतीबी हो या इरतेमासी, ग़ुस्ल से पहले पूरे बदन का पाक होना ज़रूरी नही है। बल्कि अगर पानी में डुबकी लगाने या ग़ुस्ल के इरादे से बदन पर पानी डालने से बदन पाक हो जाये तो ग़ुस्ल सही है।
379  अगर कोई इंसान अपने वीर्य को हराम प्रकार से निकाले के बाद गर्म पानी से ग़ुस्ल करे और उसे पसीना आ जाये तो उसका ग़ुस्ल सही है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह ठंडे पानी से ग़ुस्ल करे।
380  ग़ुस्ल में अगर जिस्म का बाल बराबर हिस्सा भी बग़ैर धुला रह जाये तो ग़ुस्ल बातिल है। लेकिन कान, व नाक के अन्दुरूनी हिस्सों का धोना ज़रूरी नही है। इसी तरह बदन के अन्य वह हिस्से जो अन्दुरूनी समझे जाते हैं उनका धोना बी ज़रूरी नही है।
381  अगर किसी इंसान को यह शक हो कि बदन का यह हिस्सा बाहरी होता है या अन्दुरूनी, तो ज़रूरी है कि वह उसे धोये।
382   अगर, कान में बाली पहन ने वाला सुराख़ या इसी जैसा कोई और सुराख इतना खुला हुआ हो कि उसे बदन का ज़ाहिरी हिस्सा समझा जाता हो तो उसे धोना ज़रूरी है, लेकिन अगर बाहरी हिस्सा न समझा जाता हो तो उसे धोना ज़रूरी नही है।
383  अगर इंसान के बदन पर कोई ऐसी चीज़ लगी हो जो बदन तक पानी पहुँचने में रुकावट हो, तो ग़ुस्ल से पहले साफ़ कर देना चाहिए। लेकिन अगर उसके साफ़ होने का यक़ीन किये बग़ैर ग़ुस्ल कर ले , तो ग़ुस्ल बातिल है।
384  अगर ग़ुस्ल करते वक़्त इंसान को शक हो कि बदन पर कोई ऐसी चीज़ तो मौजूद नही है जो बदन तक पानी के पहुँचने में रुकावट हो, तो उसे चाहिए कि पहले इस शक को दूर करे और जब मुतमइन हो जाये कि ऐसी कोई चीज़ नही है तो ग़ुस्ल करे।
385  ग़ुस्ल में बदन के उन छोटे छोटे बालों का धोना ज़रूरी है जो बदन का जुज़ माने जाते हैं, मगर लम्बे बालों का धोना वाजिब नही है, बल्कि अगर इनके धोये बिना बदन की खाल तक पानी पहुँच जाये तो ग़ुस्ल सही है। लेकिन अगर इनको धोये बिना पानी बदन की खाल तक न पहुँचता हो तो इनका धोना भी ज़रूरी है।
386  वह तमाम शर्तें जो वुज़ू के सही होने के लिए ज़रूरी हैं, जैसे पानी का पाक होना, ग़स्बी न होना आदि , वह तमाम शर्तें ग़ुस्ल के सही होने के लिए भी ज़रूरी है। लेकिन ग़ुस्ल में यह ज़रूरी नही है कि बदन को ऊपर से नीचे की तरफ़ धोया जाये। दूसरे यह कि ग़ुस्ले तरतीबी में ज़रूरी नही है कि सरव गर्दन धोने के फ़ौरन बाद बदन को भी धोये,बल्कि अगर सर व गर्दन धोने के बाद कुछ देर रुक जाये और बाद में बाक़ी बदन के धोये तो कोई हरज नही है। यह भी ज़रूरी नही है कि सर व गर्दन और तमाम बदन को एक साथ धोये। मसलन अगर अगर एक इंसान सर धोने के बाद रुक जाये और कुछ देर गुज़रने के बाद गर्दन धोये तो यह जायज़ है।लेकिन जो इंसान पेशाब या पख़ाने को न रोक सकता हो अगर उसको इतनी देर के लिए पेशाब या पख़ाना न आता हो जितनी देर में वह वुज़ू कर के नमाज़ पढ सके, तो उसके लिए ज़रूरी है कि फ़ासले किये बिना गुस्ल करे और नमाज़ पढ़े।
387  अगर कोई इंसान यह इरादा करे कि हमाम वाले के पैसे उधार करेगा, और वह हमाम वाले से यह पूछे बग़ैर कि वह उधार पर राज़ी है या नही ग़ुस्ल कर ले, तो अगर वह बाद में हमाम वाले को राज़ी कर ले तब भी उसका ग़ुस्ल बातिल है।
388   अगर हमाम का मालिक उधार ग़ुस्ल कराने पर राज़ी हो, लेकिन ग़ुस्ल करने वाले उसके पैसे न देने या हराम माल से देने का इरादा रखता हो तो इसका ग़ुस्ल बातिल है।
389  अगर कोई इंसान हमाम वाले को ऐसी रक़म से पैसा दे जिसका ख़ुमुस न निकला हो, तो वह एक हराम काम का तो मुरतकिब होगा लेकिन उसका ग़ुस्ल सही है। और ख़ुमुस के हक़दारों को खुमुस देना उसके ज़िम्मे रहेगा।
390  अगर कोई इंसान हमाम के हौज़ के पानी से पखाने की तहारत करे और ग़ुस्ल करने से पहले शक करे कि चूँकि उसने हमाम के हौज़ के पानी से तहारत की है लिहाज़ हमाम वाला उसके ग़ुस्ल करने पर राज़ी है या नही, तो अगर वह ग़ुस्ल से पहले हमाम वाले को राज़ी कर ले तो उसका ग़ुस्ल सही है,वरना बातिल है।
391  अगर कोई इंसान शक करे कि उसने ग़ुस्ल किया है या नही तो उसके लिए ज़रूरी है कि ग़ुस्ल करे, लेकिन अगर ग़ुस्ल करने के बाद शक करे कि उसने ग़ुस्ल सही किया है या नही तो दोबारा ग़ुस्ल करना सही नही है।
392  अगर ग़ुस्ल करते वक़्त कोई हदसे असग़र सर ज़द हो जाये मसलन वह पेशाब कर दे या उसकी रीह ख़ारिज हो जाये तो, नये सिरे से ग़ुस्ल करना ज़रूरी नही है, बल्कि वह अपने ग़ुस्ल के पूरा करे और एहतियाते लाज़िम की बिना पर वुज़ू भी करे। लेकिन अगर वह ग़ुस्ले तरतीबी से ग़ुस्ले इरतेमासी की तरफ़ या ग़ुस्ले इरतेमासी से तरतीबी की तरफ़ या इरतेमासी दफ़ई की तरफ़ पलट जाये तो वुज़ू करना ज़रूरी नही है।
393  अगर वक़्त कम होने की वजह से किसी की ज़िम्मेदारी तयम्मुम करना हो, लेकिन वह इस ख़्याल से कि अभी उसके पास ग़ुस्ल व नमाज़ का वक़्त बाक़ी है, ग़ुस्ल करे, तो अगर उसने ग़ुस्ल क़ुरबत की नियत से किया है तो उसका ग़ुस्ल सही है चाहे उसने नमाज़ पढ़ने के लिए ही ग़ुस्ल क्योँ न किया हो।
394  जिस इंसान का वीर्य निकला हो, अगर वह शक करे कि वीर्य निकलने के बाद उसने ग़ुस्ल किया है या नही तो जो नमाज़े वह पढ़ चुका है वह सही हैं, लेकिन बाद की नमाज़ों के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है। और अगर नमाज़ के बाद उससे कोई हदसे असग़र सादिर हुआ हो (अर्थात पेशाब, पख़ाना या रीह का निकलना) तो ज़रूरी है कि वुज़ू भी करे। और अगर वक़्त बाक़ी हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि इस हालत में पढ़ी हुई नमाज़ों को दोबारा पढ़े।
395  जिस इंसान पर कई ग़ुस्ल वाजिब हो, वह उन सब की नियत कर के एक ग़ुस्ल कर सकता है। और ज़ाहिर यह है कि अगर उन में से किसी एक मख़सूस ग़ुस्ल की नियत करे, तो वह बाक़ी ग़ुस्लों के लिए भी काफ़ी है।
396  अगर बदन के किसी हिस्से पर क़ुरआने करीम की कोई आयत या अल्लाह का नाम लिख़ा हो, तो उसे चाहिए कि वुज़ू या ग़ुस्ले तरतीबी करते वक़्त अपने बदन पर पानी इस तरह पहुँचाये कि उसका हाथ इन अलफ़ाज़ों को न लगे।
397  जिस इंसान ग़ुस्ले जनाबत किया हो उसके लिए ज़रूरी नही है कि नमाज़ के लिए वुज़ू करे। बल्कि ग़ुस्ले इस्तेहाज़ा मुतवस्सेता के अलावा अन्य वाजिब ग़ुस्लों और मुस्तहब ग़ुस्लों के बाद जिनका बयान मसला न. 651 में आयेगा, नमाज़ वुज़ू केन बग़ैर पढ़ सकता है, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन ग़ुस्लों के बाद नमाज़ के लिए वुज़ू करे।
ग़ुस्ले मसे मय्यित
527. अगर कोई इंसान किसी ऐसे मुर्दा इंसान के बदन को छुए जो ठंडा हो चुका हो और जिसे अभी ग़ुस्ल न दिया गया हो तो उसे चाहिए कि ग़ुस्ले मसे मय्यित करे। मुर्दा जिस्म को चाहे जान बूझ कर छुआ जाये या अचानक जिस्म का कोई हिस्सा मय्यित से लग जाये, सोते में छुआ जाये या जागते हुए छुआ जाये इसमें कोई फ़र्क़ नही है। यहाँ तक कि अगर उसका नाख़ुन या हड्डी भी मुर्दे के जिस्म से छू जाये तब भी उसे ग़ुस्ल करना चाहिए। लेकिन अगर मुर्दा जानवर को छुआ जाये तो ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही होता।
528. अगर किसी इंसान के ऐसे मुर्दा ज़िस्म को छुआ जाये जो अभी पूरी तरह ठंडा न हुआ हो, तो ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही होता। चाहे वह हिस्सा ठंडा हो चुका हो जिसे छुआ गया हो।
529. अगर कोई इंसान अपने बालों को मुर्दा इंसान के ज़िस्म से लगाये या मुर्दा इंसान के बालों से अपने बदन को मस करे तो उस पर गुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही होता।
530. बच्चे के मुर्दा जिस्म को छूने पर भी ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब है। यहाँ तक कि अगर साक़ित होने वाले बच्चे के ऐसे ज़िस्म को छुआ जाये जिसमें रूह दाख़िल हो चुकी हो तब भी छूने वाले पर ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब हो जायेगा। इस बिना पर अगर किसी औरत के मुर्दा बच्चा पैदा हो और उसका बदन ठंडा हो चुका हो और बच्चे का बदन उसकी माँ के बदन के ज़ाहिरी हिस्से से मस हुआ हो तो माँ पर ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब है।
531. जो बच्चा माँ के मर जाने व उसका बदन ठंडा हो जाने के बाद पैदा हो अगर उसका बदन माँ के बदन के ज़ाहिरी हिस्से को लग जाये तो उसे चाहिए कि बालिग़ होने पर ग़ुस्ले मसे मय्यित करे। बल्कि अगर माँ के बदन के ज़ाहिरी हिस्से को मस न करे तब भी एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि वह बच्चा बालिग़ होने पर ग़ुस्ले मसे मय्यित करे।
532. अगर कोई इंसान एक ऐसी मय्यित को मस करे जिसे तीनों ग़ुस्ल दिये जा चुके हों तो उस पर ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही होता। लेकिन अगर वह तीसरा ग़ुस्ल तमाम होने से पहले उसके बदन के किसी हिस्से को मस करे तो चाहे उस हिस्से को तीसरा ग़ुस्ल दिया जा चुका हो उस पर ग़ुस्ले मसे मय्यित करना वाजिब है।
533. अगर कोई दीवाना या ना बालिग़ बच्चा मय्यित को छुए तो दीवाने को आक़िल होने पर और बच्चे को बालिग़ होने पर ग़ुस्ले मसे मय्यित करना चाहिए।
534. अगर किसी ज़िन्दा इंसान के बदन से या किसी ऐसे मुर्दे के बदन से जिसे ग़ुस्ल न दिया गया हो, बदन का कोई ऐसा हिस्सा ज़ुदा हो जाये, अगर उस हिस्से को ग़ुस्ल देने से पहले छुआ जाये तो क़ौले क़वी की बिना पर ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही है, चाहे उस हिस्से में हड्डी भी मौजूद हो।
535. जिस हड्डी को ग़ुस्ल न दिया गया हो उसे मस करने पर ग़ुस्ले मसे मय्यित वाजिब नही होता, चाहे वह हड्डी ज़िन्दा इंसान के बदन से जुदा हुई हो या मुर्दा इंसान के बदन से और दाँत के बारे में भी यही हुक्म है चाहे वह ज़िन्दा इंसान के बदन से जुदा हुआ हो या मुर्दा इंसान के बदन से।
536. ग़ुस्ले मसे मय्यित भी ग़ुस्ले जनाबत की तरह ही किया जाता है। लेकिन जिस इंसान ने मय्यित को मस किया हो अगर वह नमाज़ पढ़ना चाहे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह वुज़ू भी करे।
537. अगर कोई इंसान कई मय्यितों को छुए या एक ही मय्यित को कई बार छुए तो उसके लिए एक ही ग़ुस्ल काफ़ी है।
538. जिस इंसान ने मय्यित को मस करने के बाद ग़ुस्ल न किया हो उसके लिए मस्जिद में ठहरने, बीवी से जिमाअ (संभोग) करने और सजदे वाली आयतों को पढ़ने में कोई हरज नही है। लेकिन नमाज़ और उस जैसी दूसरी इबादतों के लिए ग़ुस्ल करना ज़रूरी है।
मोहतज़र के अहकाम
539. जो मुसलमान मोहतज़र हो, यानी अपनी ज़िन्दगी की अख़िरी साँसे ले रहा हो, चाहे वह मर्द हो या औरत, छोटा हो या बड़ा, एहतियात की बिना पर उसे इस तरह चित लिटाना चाहिए कि उसके पैरों के तलवें क़िबले की तरफ़ हों जायें।
540. जब तक मय्यित को मुकम्मल तौर पर ग़ुस्ल न दिया जाये बेहतर है कि उसे किबला रुख़ लिटाए रख़े। लेकिन जब ग़ुस्ल मुकम्मल हो जाये तो फिर उसे उस तरह लिटाया जाये जिस तरह मुर्दे को नमाज़े जनाज़ा के वक़्त लिटाया जाता है।
541. जो इंसान एहतेज़ार की हालत में हो, एहतियात की बिना पर उसे क़िबला रुख़ लिटाना हर मुसलमान पर वाजिब है। अगर मरने वाला इंसान राज़ी हो और क़ासिर भी न हो, तो इस काम के लिए उसके वली से इजाज़त लेना ज़रूरी नही है। इसके अलावा दूसरी सूरतों में, मरने वाले के वली से इजाज़त लेना ज़रूरी है।
542. यह भी मुस्तहब है कि मरने वाले के सरहाने शहादतैन, बारह इमामों के नाम और दूसरे दीनी अक़इद इस तरह बयान किये जायें कि वह समझ ले और उसके दम निकलने के वक़्त तक इन को दोहराते रहना चाहिए।
543. यह भी मुस्तहब है कि मरने वाले के सामने यह दुआ पढ़ी जाये “अल्लाहुम्मा इग़फ़िर ली अलकसीरा मिन मआसीका व इक़बल मिन्नी अलयसीरा मिन ताअतिक या मन यक़बलुल यसीर व यअफ़ु अनिल कसीर इक़बल मिन्नी अलयसीरा व आफ़ु अन्नी अलकसीर इन्नका अन्तल अफ़ुवुल ग़फ़ूर।”
544. अगर किसी इंसान की जान सख़्ती से निकल रही हो, तो मुस्तहब है कि उसे उस जगह पर ले जायें जहाँ वह नमाज़ पढ़ता हो, लेकिन इस शर्त के साथ कि उसे वहाँ ले जानें में कोई तकलीफ़ न हो।
545. जो इंसान एहतेज़ार की हालत में हो उसकी आसानी के लिए उसके सरहाने सूरह-ए-यासीन, सूरह-ए-साफ़्फ़ात, सूरह-ए-एहज़ाब, आयतुल कुर्सी और सूरह-ए-आराफ़ की चव्वन वीं आयत और इसके अलावा जो सूरह भी पढ़ा जा सके, पढ़ा जाये।
546. जो इंसान एहतेज़ार की हालत में हो उसे तन्हा छोड़ना, उसके पेट पर कोई वज़नी चीज़ रखना, मुजनिब व हाइज़ का उसके पास रहना, उसके पास ज़्यादा बातें करना, रोना और सिर्फ़ औरतों को छोड़ना मकरूह है।
मरने के बाद के अहकाम
547. मुस्तहब है कि मरने के बाद मैयित की आँखें और होंट बन्द कर दिये जायें और उसकी ठोडी को बाँध दिया जाए और उसके हाथ,पाँव सीधे कर दिये जायें। अगर मौत रात को हुई हो तो जहाँ मौत हुई हो वहाँ चिराग़ जलाए (रोशनी कर दे) और जनाज़े में शिरकत के लिए मोमिनीन को ख़बर दे और मैयित दफ़्न करने में जल्दी करे। लेकिन अगर उस इंसान के मरने का यक़ीन न हो तो इन्तेज़ार करे ताकि सूरते हाल वाज़ेह हो जाए। इसके अलावा अगर मैयित हामिलः हो और बच्चा उसके पेट में ज़िन्दा हो तो ज़रूरी है कि दफ़्न करने में इतनी देर करें कि उसका पहलू चाक करके बच्चा बाहर निकाल लें और फिर उस पहलू को सी दें।
ग़ुस्ल, कफ़न, नमाज़ और दफ़्न का वुजूब
548. किसी मुसलमान मैयित का ग़ुस्ल, हुनूत, कफ़न, नमाज़ और दफ़्न चाहे वह शिया इसना अशरी भी न हो उसके वली पर वाजिब है। ज़रूरी है की वली खुद इन कामों को अंजाम दे या किसी दूसरे को इन कामों के लिए मुअय्यन करे और कोई इंसान इन कामों को वली की इजाज़त से अंजाम दे तो वली पर से वुजूब साक़ित हो जाता है। बल्कि अगर दफ़्न और उसकी मानिन्द दूसरे कामों को कोई इंसान वली की इजाज़त के बग़ैर अंजाम दे तब भी वली से वुजूब साक़ित हो जाता है और इन कामों को दोबारा अंजाम देने की ज़रूरत नहीं है। अगर मैयित का कोई वली न हो या वली उन कामों को अंजाम देने से मना करे तो बाक़ी मुकल्लफ़ लोगों पर वाजिबे किफ़ाई है कि मैयित के इन कामों को अंजाम दे और अगर कुछ मुकल्लफ़ लोग अंजाम दे दें तो दूसरों पर से वुजूब साक़ित हो जाता है। चुनांचे अगर कोई भी अंजाम न दे तो तमाम मुकल्लफ़ लोग गुनाहगार होंगे और वली के मना करने की सूरत में उससे इजाज़त लेने की शर्त खत्म हो जाती है।
549. अगर कोई इंसान तज्हीज़ व तक्फीन के कामों में मश्ग़ूल हो जाए तो दूसरों के लिए इस बारे में कोई इक़्दाम करना वाजिब नहीं है, लेकिन अगर वह इन कामों को अधूरा छोड दे तो ज़रूरी है कि दूसरे उन्हें पूरा करें।
550. किसी इंसान को इत्मिनान हो कि कोई दूसरा मैयित को (नहलाने, कफ़्नाने और दफ़्नाने) के कामों में मशग़ूल है तो उस पर वाजिब नहीं है कि मैयित के कामों के बारे में इक़्दाम करे, लेकिन अगर उसे (इन कामों के न होने का) मह्ज़ शक या गुमान हो तो ज़रूरी है, इक़्दाम करे।
551. अगर किसी इंसान को मालूम हो कि मैयित का ग़ुस्ल या कफ़न या नमाज़ या दफ़्न ग़लत तरीक़े से हुआ है तो ज़रूरी है कि इन कामों को दोबारा अंजाम दे। लेकिन अगर उसे बातिल होने का गुमान हो (यानी यक़ीन न हो) या शक हो कि दुरूस्त था कि नहीं तो फिर इस बारे में कोई इक़्दाम करना ज़रूरी नहीं।
552. औरत का वली उसका शौहर है और औरत के अलावा वह इंसान जिनको मैयित से मिरास मिलती है उसी तरतीब से जिसका ज़िक्र मीरास के मुख़्तलिफ तब्क़ों में आयेगा, दूसरों पर मुक़द्दम है। मैयित का बाप, मैयित के बेटे पर और मैयित का दादा उसके भाई पर, और मैयित का पदरी व मादरी भाई उसके सिर्फ़ पदरी भाई या मादरी भाई पर और उसका पदरी भाई उसके मादरी भाई पर और उसके चचा के उसके मामूं पर मुक़द्दम होनें पर इश्काल है। चुनांचे इस सिलसिले में एहतियात के (तमाम) तक़ाज़ो को पेशे नज़र रखना चाहिए।
553. नाबालिग़ बच्चा और दीवाना मैयित के कामों को अंजाम देने के लिए वली नहीं बन सकते और बिल्कुल इसी तरह वह ग़ैर हाज़िर इंसान भी वली नहीं बन सकता जो खुद या किसी को मामूर करके मैयित से मुतअल्लिक कामों को अंजाम न दे सकता हो।
554. अगर कोई इंसान कहे कि मैं मैयित का वली हूँ या मैयित के वली ने मुझे इजाज़त दी है कि मैयित के ग़ुस्ल, कफ़न और दफ़्न को अंजाम दूँ, या कहे कि मैं मैयित के दफ़्न से मुताल्लिक़ कामों में मैयित का वली हूँ और उसके कहने से इत्मिनान हासिल हो जाये या मैयित उसके कब्ज़े में हो या दो आदिल इंसान गवाही दें तो उसकी बात को क़बूल कर लेना चाहिए।
555. अगर मरने वाला अपने ग़ुस्ल, कफ़न, दफ़न और नमाज़ में अपने वली के अलावा किसी और को मुऐयन करे तो उन कामों की विलायत उसी इंसान के हाथ में रहेगी और ज़रूरी नही है कि जिस इंसान को मैयित ने वसीयत की हो वह खुद उन कामों को अंजाम देने का ज़िम्मेदार बने और उस वसीयत को क़बूल करे, लेकिन अगर क़बूल करले तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे।
ग़ुस्ले मैयित की कैफ़ियत
556. मैयित को तीन ग़ुस्ल देने वाजिब हैं। पहला ग़ुस्ल उस पानी से जिसमें बेरी के पत्ते मिले हों, दूसरा उस पानी से जिसमें काफ़ूर मिला हो और तीसरा ख़ालिस पानी से।
557. ज़रूरी है कि बेरी के पत्ते और काफ़ूर को न तो इतना ज़्यादा मिलाया जाये कि पानी मुज़ाफ़ हो जाये और न इतना कम मिलाया जाये कि यह न कहा जा सके कि इस पानी में कुछ मिला है।
558. अगर बेरी और काफ़ूर इतनी मिक़दार में न मिल सकें, जितने की ज़रूरत है तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि जितनी तादाद में मुमकिन हो पानी में डाल दे।
559. अगर कोई इंसान एहराम की हालत में मर जाये तो उसे कफ़ूर मिले पानी से ग़ुस्ल नही देना चाहिए, बल्कि उसके बदले ख़ालिस पानी से गुस्ल देना चाहिए। लेकिन अगर वह हज्जे तमत्तो के एहराम में हो और मरने वाला तवाफ़ा व तवाफ़ की नमाज़ व सई को मुकम्मल कर चुका हो, या हज्जे क़िरान या इफ़राद के एहराम में हो और सर मुंडा चुका हो तो इन दोनों सूरतों में उसे कफ़ूर मिले पानी से ग़ुस्ल देना ज़रूरी है।
560. अगर बेरी और काफ़ूर या उनमें से कोई एक न मिल सके या उसका इस्तेमाल जायज़ न हो, मसलन यह कि वह ग़स्बी हो तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि इनमें से हर उस चीज़ के बजाये, जिसका मिलना नामुमकिन हो, मैयित को ख़ालिस पानी से ग़ुस्ल दे और एक तयम्मुम भी कराये।
561. मैयित को ग़ुस्ल देने वाले इंसान के लिए ज़रूरी है कि वह मुसलमान, अक़्लमंद और मशहूर क़ौल की बिना पर शिया इसना अशरी हो और ग़ुस्ल के मसाइल से भी वाक़िफ़ हो। जाहिर यह है कि जो बच्चा अच्छे बुरे की तमीज़ रखता हो अगर वह ग़ुस्ल को सही तरीक़े से अंजाम दे सकता हो तो उसका ग़ुस्ल देना भी काफ़ी है। लिहाज़ा अगर ग़ैरे इस्ना अशरी मुसलमान की मैयित को उसका हम मज़हब अपने मज़हब के मुताबिक़ ग़ुस्ल दे तो मोमिन इस्ना अशरी से ज़िम्मेदारी साक़ित हो जाती है। लेकिन अगर वह इसना अशरी इंसान मैयित का वली हो तो इस सूरत में उससे ज़िम्मेदारी साक़ित नही होगी।
562. ग़ुसल देने वाले इंसान के लिए ज़रूरी है कि वह क़ुरबत की नियत करे यानी अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए ग़ुस्ल दे।
563. मुसलमान के बच्चे को ग़ुस्ल देना वाजिब है चाहे वह ज़िना के ज़रिये ही पैदा हुआ हो। काफ़िर और उसकी औलाद का ग़ुस्ल, कफ़न और दफ़न शरियत में नही है। जो इंसान बचपन से ही पागल हो और पागलपन की हालत में ही बालिग़ हुआ हो, अगर वह मुसलमानों के गिरोह में शुमार होता हो तो उसे ग़ुस्ल देना वाजिब है।
564.  अगर कोई बच्चा चार महीने या इससे ज़्यादा का होकर साक़ित हो जाये तो उसे ग़ुस्ल देना ज़रूरी है। बल्कि अगर चार महीने से भी कम का हो और उसका पूरा बदन बन चुका हो तो एहतियात की बिना पर उसको ग़ुस्ल देना ज़रूरी है। इन दोनों सूरतों के अलावा एहतियात की बिना पर उसे कपड़े में लपेट कर बग़ैर ग़ुस्ल दिये दफ़्न कर देना चाहिए।
565. औरत मर्द को और मर्द औरत को ग़ुस्ल नही दे सकते, लेकिन बीवी अपने शौहर को और शौहर अपनी बीवी को ग़ुस्ल दे सकता हैं। लेकिन एहतियात यह है कि इख़्तियार की हालत में बीवी शौहर को और शौहर बीवी को ग़ुस्ल न दे।
566. मर्द इतनी छोटी लड़की को ग़ुस्ल दे सकता है जो अभी मुमैयज़ न हुई हो और औरत भी इतने छोटे लड़के को ग़ुस्ल दे सकती है जो मुमय्यज़ न हुआ हो।
567. अगर मर्द की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिए कोई मर्द न मिल सकें तो वह औरतें उसे ग़ुस्ल दे सकती हैं जो उसकी महरम व क़राबतदार हों। मसलन माँ, बहन, फ़ूफ़ी ख़ाला या वह औरतें जो दूध पिलाने या निकाह के सबब से उसकी महरम हो गई हों। इसी तरह अगर किसी औरत की मैयित को ग़ुस्ल देने के लिए कोई औरत न हो तो वह मर्द उसे ग़ुस्ल दे सकतें हैं जो उसके महरम व क़राबतदार हों या रिज़ायत व निकाह के सबब उसके महरम हो गये हों। इन दोनों सूरतों में लिबास के नीचे से ग़ुस्ल देना ज़रूरी नही है, सिवाये शर्मगाहों के (कि इन्हें लिबास के नीचे से ही ग़ुस्ल देना चाहिए।)
568. अगर मैयित और ग़ुस्ल देने वाला दोनों मर्द या दोनों औरतें हों तो जायज़ है कि शर्मगाह के अलावा मैयित का पूरा बदन बरैहना हो, लेकिन बेहतर यह है कि लिबास के नीचे से ग़ुस्ल दिया जाये।
569.  मैयित की शर्मगाह पर नज़र डालना हराम है, और अगर ग़ुस्ल देने वाला उस पर नज़र डाले तो वह गुनाहगार है, लेकिन इससे ग़ुस्ल बातिल नही होता।
570. अगर मैयित के ज़िस्म के किसी हिस्से पर ऐने निजासत लगी हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल देने से पहले उस हिस्से से निजासत को अलग किया जाये और बेहतर यह है कि ग़ुस्ल शुरू करने से पहले मैयित का तमाम जिस्म पाक हो।
571. ग़ुस्ले मैयित ग़ुस्ले जनाबत की तरह है और एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक मैयित को ग़ुस्ले तरतीबी देना मुमकिन हो, ग़ुस्ले इरतेमासी न दिया जाये और ग़ुस्ले तरतीबी में भी ज़रूरी है कि दाहिने हिस्से को बायें हिस्से से पहले धोया जाये और अगर मुमकिन हो तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर बदन के तीनों हिस्सों में से किसी भी हिस्से को पानी में न डुबाया जाये बल्कि पानी उसके ऊपर डाला जाये।
572. जो इंसान हैज़ या जनाबत की हालत में मर जाये उसे ग़ुस्ले हैज़ या ग़ुस्ले जनाबत देना ज़रूरी नही है, बल्कि उसके लिए ग़ुस्ले मैयित काफ़ी है।
573. मैयित को ग़ुस्ल देने की उजरत लेना एहतियात की बिना पर हराम है और अगर कोई इंसान उजरत लेने के लिए मैयित को इस तरह ग़ुस्ल दे कि यह ग़ुस्ल देना क़स्दे क़ुरबत के मुनाफ़ी हो तो ग़ुस्ल बातिल है। लेकिन ग़ुस्ल के इब्तदाई कामों की उजरत लेना हराम नही है।
574. मैयित के ग़ुस्ल में ग़ुस्ले जबीरा जायज़ नही है और अगर पानी मयस्सर न हो या उसके इस्तेमाल में कोई मजबूरी हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले मैयित को एक तयम्मुम कराये और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तीन तयम्मुम कराये जायें। इन तीन तयम्मुमों में से एक में फ़ी ज़िम्मा की नियत करे यानी जो इंसान मैयित को तयम्मुम करा रहा हो यह नियत करे कि यह तयम्मुम उस शरई ज़िम्मेदारी को अंजाम देने के लिए करा रहा हूँ जो मुझ पर वाजिब है।
575. जो इंसान मैयित को तयम्मुम करा रहा हो उसे चाहिए कि अपने दोनों हाथ ज़मीन पर मारे और मैयित के चेहरे व हाथों की पुश्त पर फेरे और एहतियात वाजिब यह है कि अगर मुमकिन हो तो मैयित को उसके हाथों से भी तयम्मुम करायें।
कफ़न के अहकाम
576. मुसलमान की मैयित को तीन कपड़ों का कफ़न देना ज़रूरी है, जिन्हे लुंग, क़मीस और चादर कहा जाता है।
577. एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि लुंग ऐसी हो जो नाफ़ से घुटनों तक तमाम बदन को छुपा ले और बेहतर यह है कि सीने से पाँव के नीचे तक पहुँचे और एहतियात की बिना पर क़मीस ऐसी हो जो काँधों के सिरों से आधी पिंडलियों तक तमाम बदन को छुपा ले और बेहतर यह है कि पांव तक पहुंचे और चादर की लम्बाई इतनी होनी चाहिए कि पूरे बदन को ढाँप ले और एहतियात यह है कि चादर की लम्बाई इतनी हो कि मैयित को उसमें लपेटने के बाद सर और पैरों की तरफ़ उसमें गिराह दे सकें और उसकी चौड़ाई इतनी होनी चाहिए कि उसका एक किनारा दूसरे किनारे पर आ सके।
578. लुंग की इतनी मिक़दार जो नाफ़ से घुटनों तक ढाँप ले और कमीस की इतनी मिक़दार जो काँधों से आधी पिंडली तक ठाँप ले, कफ़न के लिए वाजिब है। इस मिक़दार से ज़्यादा जो इससे पहले मस्अले में बयान किया गया है वह कफ़न की मुस्तहब मिक़दार है।
579. कफ़न की वह वाजिब मिक़दार जिसका ज़िक्र इससे पहले मस्अ में हुआ है, मैयित के अस्ल माल से लिया जाता है और ज़ाहिर यह है कि मुस्तहब कफ़न की मिक़दार को मैयित की शान और उर्फ़ को नज़र में रखते हुए मैयित के अस्ल माल से लिया जाये। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि वाजिब मिक़दार से ज़्यादा कफ़न उन वारिसों के हिस्से से न लिया जाये जो अभी बालिग़ न हुए हों।
580. अगर किसी ने वसीयत की हो कि मुस्तहब कफ़न की मिक़दार, जिसका ज़िक्र ग़ुज़शता मसले में हो चुका है, उसके तिहाई माल से ली जाये या यह वसीयत की हो कि उसका तिहाई माल खुद उस पर ख़र्च किया जाये, लेकिन किन कामों पर ख़र्च की जाये उनका ज़िक्र न किया हो, या सिर्फ़ उसके कुछ हिस्से के मसरफ़ को मुऐयन किया हो तो मुस्तहब कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जा सकता है।
581. अगर मरने वाले ने वसीयत न की हो कि कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जाये और उससे मुताल्लिक़ लोग यह चाहें कि उसके अस्ल माल से लों तो जो बयान मसला न. 579 में गुज़र चुका है, उससे ज़्यादा न लें। मसलन वह मुस्तहब काम जो आमतौर पर अंजाम न दिये जाते हों और जो मैयित की शान के मुताबिक़ भी न हों तो उनकी अदाएगी के लिए हरगिज़ अस्ल माल से न लें और बिल्कुल इसी तरह अगर कफ़न मामूल से ज़्यादा क़ीमती हो तो इज़ाफ़ी रक़म को मैयित के अस्ल माल से नही लेना चाहिए। लेकिन जो वारिस बालिग़ हैं अगर वह अपनी मर्ज़ी से अपने हिस्से में से लेने की इजाज़त दे दें तो जिस हद तक वह इजाजत दें उनके हिस्से से लिया जा सकता है।
582. औरत के कफ़न की ज़िम्मेदारी शौहर पर है, चाहे औरत के पास अपना माल भी हो। इसी तरह अगर औरत को, उस तफ़्सील के मुताबिक़ जिसे हम तलाक़ के अहकाम में बयान करेंगे, तलाक़े रजई दी गई हो और वह इद्दत ख़त्म होने से पहले मर जाये तो शौहर के लिए ज़रूरी है कि उसे कफ़न दे, और अगर शौहर बालिग़ न हो या दीवाना हो तो शौहर के वली को चाहिए कि उसके माल से औरत को कफ़न दे।
583. मैयित को कफ़न देना उसके क़राबतदारों पर वाजिब नही है, चाहे उसकी ज़िन्दगी में उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर वाजिब रही हो।
584. एहतियात यह है कि कफ़न के तीनों कपड़ों में से हर कपड़ा इतना बारीक न हो कि उसके नीचे से मैयित का जिस्म नज़र आये, लेकिन अगर इस तरह हो कि तीनों कपड़ों को मिलाने के बाद मैयित का ज़िस्म उनके नीचे से नज़र न आये तो बिना बर अक़वा काफ़ी है।
585. ग़स्ब की हुई चीज़ से कफ़न देना चाहे कफ़नाने के लिए कोई दूसरी चीज़ मैयस्सर न हो तब भी जायज़ नही है। अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो और उसका मालिक राज़ी न हो तो वह कफ़न उसके बदन से उतार लेना चाहिए, चाहे उसे दफ़्न भी कर दिया गया हो। (लेकिन कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनमें उसके बदन से कफ़न उतारना ज़रूरी नही है) मगर इस मक़ाम पर उसकी तफ़्सील की गुंजाइश नही है।
586. मैयित को नजिस चीज़ या ख़ालिस रेशमी कपड़े का कफ़न देना जायज़ नही है। इसी तरह एहतियात की बिना पर उस कपड़े का कफ़न देना भी जायज़ नही है, जिस पर सोने के पानी से काम किया गया हो। लेकिन मजबूरी की हालत में कोई हरज नही है।
587. इख़्तियारी हालत में मैयित को नजिस मुर्दार की खाल का कफ़न देना जायज़ नही है, बल्कि पाक मुर्दार की खाल का कफ़न देना भी जायज़ नही है। इसी तरह इख़्तियार की हालत में उस कपड़े का कफ़न देना भी जायज़ नही है जो रेशमी हो या उस जानवर की ऊन से बनाया गया हो जिसका गोश्त खाना हराम हो। लेकिन अगर कफ़न हलाल गोश्त जानवर की खाल या बाल या ऊन का बना हो तो कोई हरज नही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन दोनों चीज़ों से बना कफ़न भी न दिया जाये।
588. अगर मैयित का कफ़न उसकी अपनी निजासत या किसी दूसरी निजासत से नजिस हो जाये तो अगर कफ़न बर्बाद न होता हो तो जितना हिस्सा नजिस हुआ है उसे धोना या काटना ज़रूरी है, चाहे मैयित को क़ब्र में ही क्यों न उतार दिया गया हो और अगर उसका धोना या काटना मुमकिन न हो लेकिन उसको बदलना मुमकिन हो तो उसे बदलना ज़रूरी है।
589. अगर कोई ऐसा इंसान मर जाये जिसने हज्ज या उमरे का एहराम बाँध रखा हो तो उसे दूसरों की तरह कफ़न पहनाना ज़रूरी है और उसका सर व चेहरा ढकने में कोई हरज नही है।
590. इंसान के लिए मुस्तहब है कि वह अपनी ज़न्दगी में कफ़न, बेरी व काफ़ूर आमादा करे।
हनूत के अहकाम
591. ग़ुस्ल देने के बाद मैयित को हनूत करना वाजिब है। यानी उसकी पेशानी, दोनों हथेलियों, दोनों घुटनो और दोनों पैरों के अंगूठों पर काफ़ूर इस तरह मला जाये कि कुछ काफ़ूर उन पर बाक़ी रहे, मुस्तहब है कि मैयित की नाक पर भी काफ़ूर मला जाये। काफ़ूर पिसा हुआ और ताज़ा होना चाहिए, लिहाज़ा अगर पुराना होने की वजह से उसकी खुशबू ख़त्म हो गई हो तो वह काफ़ी नही है
592. . एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले काफ़ूर मैयित की पेशरानी पर मला जाये लेकिन दूसरे मक़ामात पर मलने में तरतीब ज़रूरी नही है।
593. बेहतर यह है कि मैयित को कफ़न पहनाने से पहले हनूत किया जाये, लेकिन अगर मैयित को कफ़न पहनाने के बीच या कफ़न पहनाने के बाद भी हनूत किया जाये तो कोई हरज नही है।
594. अगर कोई ऐसा इंसान मर जाये जिसने हज्ज या उमरे के लिए एहराम बाँध रखा हो तो उसे हनूत करना जायज़ नही है। लेकिन उन दो सूरतों में जायज़ है जिनका ज़िक्र मसला न. 559 में गुज़र चुका है।
595. ऐसी औरत जिसका शौहर मर गया हो और अभी उसकी इद्दत बाक़ी हो आगरचे उसके लिए ख़ुशबू लगाना हराम है, लेकिन अगर वह मर जाये तो उसे हनूत करना वाजिब है।
596. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित को मुश्क, अम्बर, ऊद और दूसरी ख़ुशबुएं न लगाई जायें और न ही उन्हें काफ़ूर के साथ मिलाया जाये।
597. मुस्तहब है कि सैयदुश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र की मिट्टी (ख़ाके शिफ़ा) की कुछ मिक़दार को काफ़ूर में मिलाया जाये, लेकिन उस काफ़ूर को ऐसे मक़ाम पर न लगाया जाये, जहाँ लगाने से ख़ाके शिफ़ा की बेहुरमती होती हो और यह भी ज़रूरी है कि ख़ाके शिफ़ा इतनी ज़्यादा न हो कि जब वह काफ़ूर के साथ मिल जाये तो उसे काफ़ूर न कहा जा सके।
598. अगर काफ़ूर न मिल सके या फ़क़त ग़ुस्ल के लिए ही काफ़ी हो तो हनूत करना ज़रूरी नही है लेकिन अगर ग़ुस्ल की ज़रूरत से तो ज़्यादा हो, मगर हनूत के सातों हिस्सों के लिए काफ़ी न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले पेशानी पर मलें और अगर बच जाये तो दूसरी जगहों पर मल दें।
599. मुस्तहब है कि दो तरो ताज़ा टहनियाँ मैयित के साथ क़ब्र में रखी जायें।
मुस्तहब ग़ुस्ल
(651) इस्लाम की मुक़द्दस शरीअत में बहुत से ग़ुस्ल मुस्तहब हैं जिन में से कुछ यह हैं:
जुमे के दिन का ग़ुस्ल
1-  इस का वक़्त सुब्ह का अज़ान के बाद से सूरज के ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ग़ुस्ल ज़ोहर के क़रीब किया जाये (और अगर कोई शख़स उसे ज़ोहर तक अंजाम न दे तो बेहतर यह है कि अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर ग़रूबे आफ़ताब तक बजालाये) और अगर जुमे के दिन ग़ुस्ल न करे तो मुस्तब है कि हफ़ते के दिन सुबह से ग़ुरूबे आफ़ताब तक उस का क़ज़ा बजा लाये। और जो शख़स जानता हो कि उसे जुमे के दिन पानी मयस्सर न होगा तो वह रजाअन जुमेरात के दिन ग़ुस्ल अंजाम दे सकता है और मुस्तहब है कि ग़ुस्ले जुमा करते वक़त यह दुआ पढें:
अशहदु अन ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरीकलहु व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहू अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद व इजअलनी मिनत तव्वाबीना व इजअलनी मिनल मुत्ताहिरीन।
(2-7) माहे रमाज़ान की पहली और सतरहवीं रात और उन्नीस्वी, इक्कीससवीं, और तेईसवीं रातों के पहले हिस्से का ग़ुस्ल और चौबीसवीं रात का ग़ुस्ल।
(8-9) ईदुलफ़ित्र और ईदे क़ुरबान के दिन का ग़ुस्ल, उस का वक़्त सुब्ह की अज़ान से सूरज ग़ुरूब होने तक है और बेहतर यह है कि ईद की नमाज़ से पहले कर लिया जाये।
(11-10) माहे ज़िल हिज्जा के आठवें और नवें दिन का ग़ुस्ल और बेहतर यह है कि नवें दिन का ग़ुस्ल ज़ोहर के नज़दीक किया जाये।
(12) उस शख़्स का ग़ुस्ल जिसने अपने बदन का कोई हिस्सा ऐसी मय्यित के बदन से मस किया हो जिसे ग़ुस्ल दिया जा चुका हो हो।
(13) अहराम का ग़ुस्ल।
(41) हरमे मक्का में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।
(15) मक्काए मुकर्रमा में दाखिल होने का ग़ुस्ल।
(16) ख़ान-ए-काबा की ज़ियारत का ग़ुस्ल।
(17) काबे में दिखिल होने का गुस्ल।
(18) ज़िब्ह और नहर के लिये ग़ुस्ल।
(19) बाल मूनडने के लिए गुस्ल।
(20) हरमे मदीना में दिख़िल होने का ग़ुस्ल।
(21) मदीन-ए- मुनव्वरा में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।
(22) मस्जिदुन नबी में दाख़िल होने का ग़ुस्ल।
(23) नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहे व आलिही वसल्लम की क़ब्रे मुतह्हर से विदा होने का ग़ुस्ल।
(24) दुश्मन के साथ मुबाहिला करने का ग़ुस्ल।
(25) बच्चे के पैदा होने के बाद उसे ग़ुस्ल देना।
(26) इस्तिख़ारा करने का ग़ुस्ल।
(27) तलबे बारान का ग़ुस्ल।
652 फ़ोक़ाहा ने मुस्तब ग़ुस्लों के बाब में बहुत से ग़ुस्लों का ज़िक्र फ़रमाया जिन में से चंद यह हैं:
(1)        माहे रमाज़ानुल मुबारक की तमाम ताक़[1] रातों का ग़ुस्ल और उस का आख़री दहाई की तमाम रातों का ग़ुस्ल और उस का तीसवीं रात के आख़री हिस्से में दूसरा ग़ुस्ल।
(2)        माहे ज़िल हिज्जा के चौबीसवें दिन का ग़ुस्ल।
(3)        ईदे नोरोज़ के दिन और पंद्रहवीं शाबान और नवीं और सतरहवीं रबी उल अव्वल और ज़ीक़ादा के पच्चीसवें दिन का ग़ुस्ल।
(4)        उस औरत का ग़ुस्ल जिस ने अपने शौहर के अलावा किसी और के लिये ख़ुशबू इस्तेमाल की हो।
(5)        उस शख़्स का ग़ुस्ल जो मसती की हालत में सो गया हो।
(6)        उस शख़्स का ग़ुस्ल जो किसी सूली चढ़े हुए इंसान को देखने गया हो और उसे देखा भी हो लेकिन अगर इत्तेफ़ाक़न या मज़बूरी की हालत में नज़र गई हो या अगर शहादत (गवाही) देने गया हो तो ग़ुस्ल मुस्तहब नही है।
(7)        दूर या नज़दीक से मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की ज़ियारत करने के लिए ग़ुस्ल, लेकिन अहवत यह है कि यह तमाम ग़ुस्ल रजा का नियत से बजा लाये जायें।
(653) उन मुस्तहब ग़ुस्लों के साथ जिन का ज़िक्र मस्ला 651 में किया गया है इंसान ऐसे काम कर सकता जिनके लिए वुज़ू लाज़िम है जैसे नमाज़ (यानी वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है) लेकिन जो ग़ुस्ल रजा की नियत से किये जायें उनके बाद वुज़ू करना ज़रूरी है।
(654) अगर इंसान के ज़िम्मे कई मुस्तहब ग़ुस्ल हों और वह शख़्स सब की निय्यत कर के एक ग़ुस्ल कर ले तो काफ़ी है।
[1] ताक़ राते उन रातों को कहा जाता है जिनकी गिनती में जोड़े नही होते जैसे पहली, तीसरी, पाँचवीं, सातवीं....।
मुस्तहब नमाज़ें
(772) मुस्तहब नमाज़ें बहुत सी हैं जिन्हें नाफ़िलह भी कहते हैं, और मुस्तहब नमाज़ों में से रोज़ाना के नाफ़िलह की बहुत ज़्यादा ताकीद की गई है। यह नमाज़ें रोज़े जुमा के अलावा चौतीस रकत हैं। जिनमें से आठ रकत ज़ोहर की, आठ रकत अस्र की, चार रकत मग़रिब की, एक रकत इशा की, ग़यारह रकत नमाज़े शब (यानी तहज्जुद) की और दो रकत सुबह की होती हैं। चूँकि एहतियाते वाजिब की बिना पर इशा की दो रकत नफ़ल बैठकर पढ़नी ज़रूरी है इसलिए वह एक रकत शुमार होती है। लेकिन जुमे के दिन ज़ोहर और अस्र की सोलह रकत नफ़ल पर चार रकत का इज़ाफ़ा हो जाता है। और बेहतर है कि यह पूरी बीस रकतें ज़वाल से पहले पढ़ी जायें।
(773) नमाज़े शब की गयारह रकतों में से आठ रकतें नाफ़िलह-ए-शब की नियत से और दो रकत नमाज़े शफ़ा की नियत से और एक रकत नमाज़े वत्र की नियत से पढ़नी ज़रूरी हैं। नाफ़िल-ए-शब का मुकम्मल तरीक़ा दुआ़ की किताबों में बयान किया गया है।
(774) नाफ़िलह नमाज़ें बैठ कर भी पढ़ी जा सकती हैं लेकिन बाज़ फ़ुक़ाहा कहते है कि इस सूरत में बेहतर यह है कि बैठ कर पढ़ी जाने वाली नाफ़िलह नमाज़ों की दो रकतों को एक रकत शुमार किया जाये मसलन जो इंसान ज़ोहर की नाफ़िलह जो कि आठ रकत हैं, बैठकर पढ़ना चाहे तो उसके लिए बेहतर यह है कि सोलह रकतें पढ़े और अगर चाहे कि नमाज़े वत्र बैठ कर पढ़े तो एक एक रकत की दो नमाज़ें पढ़े। ता हम इस काम का बेहतर होना मालूम नहीं है लेकिन रजा की नियत से अंजाम दे तो कोई इशकाल नहीं है।
(775) ज़ोहर और अस्र की नाफ़िलह नमाज़ें सफ़र में नहीं पढ़नी चाहिए और अगर इशा की नाफ़िलह रजा की नियत से पढ़ी जाये तो कोई हरज नहीं है।
रोज़ाना की नाफ़िलह नमाज़ों का वक़्त
(776) ज़ोहर की नाफ़िलह नमाज़े ज़ोहर से पहले पढ़ी जाती है और उसका वक़्त अव्वले ज़ोहर से लेकर ज़ोहर की नमाज़ अदा करने तक बाक़ी रहता है। लेकिन अगर कोई इंसान ज़ोहर की नाफ़िलह पढ़ने में इतनी देर कर दे कि शाख़िस के साय की वह मिक़दार जो ज़ोहर के बाद पैदा होती है सात में से दो हिस्सों के बराबर रह जाये मसलन शाख़िस की लम्बाई सात बालिश्त और साया की मिक़दार दो बालिश्त हो तो इस सूरत में बेहतर यह है कि इंसान ज़ोहर की नमाज़ पढ़े।
(777) अस्र की नाफ़िलह अस्र की नमाज़ से पहले पढ़ी जाती हैं और इसका वक़्त अस्र की नमाज़ अदा करने तक बाक़ी रहता है। लेकिन अगर कोई इंसान अस्र की नाफ़िलह पढ़ने में इतनी देर कर दे कि शाख़िस के साय की वह मिक़दार जो ज़ोहर के बाद पैदा होती है सात में से चार हिस्सों तक पहुँच जाये तो इस सूरत में बेहतर यह है कि इंसान अस्र की नमाज़ पढ़े। और अगर कोई इंसान ज़ोहर या अस्र की नाफ़िलह उसके मुक़र्रेरा वक़्त के बाद पढ़ना चाहे तो ज़ोहर की नाफ़िलह ज़ोहर की नमाज़ के बाद और अस्र की नाफ़िलह अस्र की नमाज़ के बाद पढ़ सकता है लेकिन एहतियात की बिना पर अदा और क़ज़ा की नियत न करे।
(778) मग़रिब की नाफ़िलह का वक़्त नमाज़े मग़रिब ख़त्म होने के बाद होता है और जहाँ तक मुमकिन हो उसे मग़रिब की नमाज़ के फ़ौरन बाद बजा लाए लेकिन अगर कोई इंसान उस सुर्ख़ी के ख़त्म होने तक जो सूरज के ग़ुरुब होने के बाद आसमान में दिख़ाई देती है मग़रिब की नाफ़िला में ताख़ीर कर दे तो बेहतर यह है कि उस वक़्त इशा की नमाज़ पढ़े।
(779) इशा की नाफ़िलह का वक़्त इशा की नमाज़ ख़त्म होने के बाद से आधी रात तक है और बेहतर है कि इशा की नमाज़ ख़त्म होने के बाद पढ़ी जाये।
(780) सुबह की नाफ़िलह सुबह की नमाज़े से पहले पढ़ी जाती है और इसका वक़्त नमाज़े शब का वक़्त ख़त्म होने के बाद से शुरू होता है और सुबह की नमाज़ के अदा होने तक बाक़ी रहता है और जहाँ तक मुमकिन हो सुबह की नाफ़िलह सुबह की नमाज़ से पहले पढ़नी चाहिए। लेकिन अगर कोई इंसान सुबह की नाफ़िलह मशरिक़ की सुर्ख़ी ज़ाहिर होने तक न पढ़े तो इस सूरत में बेहतर यह है कि सुबह की नमाज़ पढ़े।
(781) नमाज़े शब का अव्वले वक़्त मशहूर क़ौल की बिना पर आधी रात है और सुबह की आज़ान तक बाक़ी रहता है। बेहतर यह है कि नमाज़े शब सुबह की अज़ान के क़रीब पढ़ी जाये।
(782) मुसाफ़िर और वह इंसान जिसके लिए नमाज़े शब का आधी रात के बाद अदा करना मुशकिल हो वह उसे अव्वले शब में भी अदा कर सकता है।
वाजिब नमाज़ें
छः नामाजें वाजिब हैं
(1) रोज़ाना की नमाज़
(2) नमाज़े आयात
(3) नमाज़े मय्यित।
(4) ख़ान-ए-काबा के तवाफ़ की नमाज़।
(5) बाप की क़ज़ा नमाज़ जो बड़े बेटे पर वाजिब होती है।
(6) जो नमाज़ें इजारे, क़सम और अहद की वजह से वाजिब होती हैं। नमाज़े जुमा रोज़ाना की नमाज़ों में से है।
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें
रोज़ाना की वाजिब नमाज़ें पाँच है।
ज़ोहर और असर (हर एक चार चार रकत)
मग़रिब (तीन रकत)
इशा (चार रकत)
सुबह (दो रकत)
(736) अगर इंसान सफ़र में हो तो ज़रुरी है कि चार रकती नमाज़ो को उन शर्तों के साथ जो बाद में बयान होगी, दो रकत पढ़े।
ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त
(737) अगर लक़ड़ी या ऐसी ही कोई दूसरी साधी चीज़ को हमवार ज़मीन में गाड़ा जाये तो सुबह के वक़्त जिस वक़्त सूरज निकलता है उसका साया पश्चिम की तरफ़ पड़ता है, और जैसे जैसे सूरज ऊँचा होता जाता है, उसका साया घटता जाता है और जब वह साया घटने की आख़री मंज़िल पर पहुँचता है तो हमारे यहाँ जोहरे शरई का अव्वले वक़्त हो जाता है, और जैसे ही ज़ोहर तमाम होती है उसका साया पूरब की तरफ़ पलट जाता है और जैसे जैसे सूरज पश्चिम की तरफ़ ढलता जाता है साया फिर बढने लगता है। इस बिना पर जब साया कमी की आख़री दर्जे तक पहुँचने के बाद दोबारा बढ़ने लगे तो वह वक़्त ज़ोहरे शरई होता है। लेकिन कुछ शहरों में मसलन मक्क-ए-मुकर्रेमा में जहाँ कभी कभी ज़ोहर के वक़्त साया बिल्कुल ख़त्म हो जाता है और जब साया दोबारा ज़ाहिर होता है तो मालूम होता है कि ज़ोहर का वक़्त हो गया है।
(738) ज़ोहर और अस्र की नमाज़ का वक़्त ज़वाले आफ़ताब के बाद से ग़ुरूबे आफ़ताब तक है। लेकिन अगर कोई इंसान जान बूझकर अस्र की नमाज़ को ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढ़े तो उसकी अस्र की नमाज़ बातिल है। सिवाये इसके कि सूरज छिपने में सिर्फ़ इतना वक़्त रह गया हो कि फ़क़त एक नमाज़ पढ़ी जा सकती हो और इस सूरत में अगर उसने ज़ोहर की नमाज़ नहीं पढ़ी तो उसकी ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा होगी और उसे चाहिए कि अस्र की नमाज़ पढ़े। अगर कोई इंसान उस वक़्त से पहले ग़लत फ़हमी की बीना पर अस्र की पूरी नमाज़ ज़ोहर की नमाज़ से पहले पढले तो उसकी नमाज़ सही है, और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस नमाज़ को नमाज़े ज़ोहर क़रार दे और मा फ़ी ज़्जिम्मा की नियत से चार रकत नमाज़ और पढ़े।
(739) अगर कोई इंसान ज़ोहर की नमाज़ से पहले, ग़लती से अस्र की नमाज़ पढ़ने लगे और नामाज़ को दौरान उसे याद आये कि उससे ग़लती हुई है तो उसे चाहिए कि नियत को नमाज़े जोहर की तरफ़ फेर दे यानी नियत करे कि जो कुछ में पढ़ चुका हूँ और पढ़ रहा हूँ और पढ़ूगा वह तमाम की तमाम नमाज़े ज़ोहर है और नमाज़ के ख़त्म होने के बाद अस्र की नमाज़ पढ़े।
नमाज़े जुमा और उसके अहकाम
(740) जुमे की नमाज़ सुबह की तरह दो रकत है। इसमें और सुबह की नमाज़ में बस यह फ़र्क़ है कि इस नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे भी हैं। जुमे की नमाज़ वाजिबे तख़ीरी है। इससे मुराद यह है कि जुमे के दिन मुकल्लफ़ को इख़तियार है कि चाहे वह, शराइत मौजूद होने की सूरत में जुमे की नमाज़ पढ़े या जोहर की नमाज़ पढ़े। लिहाज़ा अगर इंसान जुमे की नमाज़ पढ़े तो वह ज़ोहर की नमाज़ की किफ़ायत करती है (यानी फ़िर जोहर की नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नहीं है)।
जुमे की नमाज़ के वाजिब होने की चंद शर्ते हैं:
(1) नमाज़ के वक़्त का दाख़िल हो जाना, जो कि ज़वाले आफ़ताब है, और इसका वक़्त अव्वले ज़वाले उर्फ़ी है बस जब भी इससे ताख़ीर हो जाये तो उसका वक़्त ख़त्म हो जाता है और फ़िर ज़ोहर की नमाज़ अदा करना चाहिए।
(2) नमाज़ियों की तादाद का पूरा होना, नमाज़े जुमा के लिए इमाम समीत पाँच अफ़राद का होना ज़रूरी है लिहाज़ा जब तक पाँच मुसलमान इकठ्ठे न हों जुमे की नमाज़ वाजिब नही होती।
(3) इमामे जमाअत का जामे-उश-शराइत होना, यानी इमामे जमाअत के लिए जो शर्तें ज़रूरी है इमाम में उनका पाया जाना। इन शर्तों का ज़िक्र नमाज़े जमाअत की बहस में किया जायेगा। अगर यह शर्त पूरी न हो तो जुमे की नमाज़ वाजिब नहीं होती।
जुमे की नमाज़ के सही होने की चंद शर्ते है:
(1) बा जमाअ़त पढ़ा जाना, यह नमाज़ फ़ुरादा अदा करना सही नहीं है और अगर मुक़्तदी नमाज़ की दूसरी रकत के रुकू से पहले इमाम के साथ शामिल हो जाये तो उसकी नमाज़ सही है, इस सूरत में उसे चाहिए कि एक रकत नमाज़ और पढ़े। लेकिन अगर वह रुकू की हालत में इमाम के साथ शामिल हो तो उसकी नमाज़ का सही होना मुशकिल है। एहतियात को तर्क नहीं करना चाहिए(यानी उसे जोहर की नमाज़ पढ़नी चाहिए)
(2) नमाज़ से पहले दो ख़ुत्बे पढ़ना, पहले ख़ुत्बे में ख़तीब अल्लाह तआ़ला की हमदो सना करते हुए नमाज़ियों को तक़वे और परहेज़गारी की तलक़ीन करे। फ़िर क़ुरान मजीद का एक छोटा सूरा पढ़ कर (थोड़ी देर के लिए मिम्बर पर) बैठ जाये। फिर ख़ड़े हो कर दूसरा ख़ुत्बा पढ़े अल्लाह तआ़ला की हमदो सना करते हुए हज़रत रसूले अकरम (स0) और आइम्मए ताहेरीन (अ0) पर दुरूद भेजे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि मोमेनीन और मोमेनात के लिए इस्तग़फ़ार (बख़शिश की दुआ) भी करे। ख़ुत्बों के लिए ज़रूरी है कि वह नमाज़ से पहले पढ़े जायें। लिहाज़ा अगर नमाज़ दो ख़ुतबों से पहले शुरू कर दी जाये तो सही नहीं है, और ज़वाले आफ़ताब से पहले ख़ुत्बे पढ़ने में भी इशकाल है। ख़ुत्बे पढ़ने वाले के लिए ज़रूरी है कि वह खड़े हो कर ख़ुत्बे पढ़े, लिहाज़ा बैठ कर ख़ुत्बे पढ़ना सही नहीं है। दो ख़ुत्बों के दरमियान बैठ कर फ़ासिला देना लाज़िम और वाजिब है इस बात का धघ्यान रखना चाहिए कि मिम्बर पर बहुत कम वक़्त के लिए बैठे। यह भी ज़रूरी है कि इमामे जमाअत और ख़तीब (यानी जो इंसान ख़ुत्बे पढ़े) एक ही इंसान हो और अक़वा यह है कि ख़ुतबे में तहारत शर्त नहीं है अगरचे शर्त का होना अहवत है। एहतियात यह है कि अल्लाह तआ़ला की हमदो सना और पैग़म्बर अकरम और आइम्मा-ए-ताहेरीन पर दरूद भेजने के लिए अर्बी ज़बान को इस्तेमाल किया जाये लेकिन इसके अलावा ख़ुत्बे की दूसरी बातों को अर्बी में कहना ज़रूरी नहीं हैं। बल्कि अगर हाज़ेरीन की अकसरियत अर्बी न जानती हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि तक़वे के बारे में जो वाज़ो नसीहत किया जाय वह उस ज़बान में हो जो हाज़ेरीन जानते हों।
(3) दो जगह पर जुमे की नमाज़ क़ाइम करने के लिए दोनों के दरमियान एक फ़रसख़ (5500 मीटर) से कम फ़ासिला न हो। अगर जुमे कि दो नमाज़ें एक फ़रसख़ से कम फ़ासिले पर एक ही वक़्त में पढ़ी जायें तो दोनों बातिल होंगी। अगर एक नमाज़ को दूसरी नमाज़ पर सबक़त हासिल हो जाये चाहे वह तकबीरतुल अहराम की हद तक ही क्यों न हो तो वह (नमाज़ जिसे सबक़त हासिल हो) सही होगी और दूसरी बातिल होगी। लेकिन अगर नमाज़ के बाद पता चले कि एक फ़रसख़ से कम फ़ासिले पर, जुमे की एक और नमाज़ इससे पहले या इसके साथ साथ क़ाइम हुई थी तो ज़ोहर की नमाज़ वाजिब नही होगी और इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि इस बात का इल्म वक़्त में हो या वक़्त के बाद हो। मुक़र्ररा फ़ासिले के अंदर जुमे की दूसरी नमाज़ पहली नमाज़ की राह में इस सूरत में ही माने हो सकती है जब वह सही और जामे उश शराइत हो, वरना यह नमाज़ पहली नमाज़ की राह में माने नही हो सकती।
(741) जब जुमे की एक ऐसी नमाज़ क़ाइम हो जो शराइत को पूरा करती हो और नमाज़ क़ाइम करने वाला ख़ुद इमामे वक़्त या उनका नाइब हो तो इस सूरत में नमाज़े जुमा के लिए हाज़िर होना वाजिब है और इस सूरत के अलावा हाज़िर होना वाजिब नहीं है। पहली सूरत में हाज़री के वजूब के लिए चंद चीज़ें मोतबर हैं:
(1) मुकल्लफ़ मर्द हो, जुमे की नमाज़ में औरतों का हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(2) आज़ाद हो, ग़ुलामों के लिए जुमे की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(3) मुक़ीम हो, मुसाफ़िर के लिए जुमे की नमाज़ में शामिल होना बाजिब नहीं है। और इसमें कोई फ़र्क़ नही है कि वह मुसाफ़िर पूरी नमाज़ पढ़ने वाला हो या क़स्र पढ़ने वाला। जैसे किसी मुसाफ़िर ने इक़ामत का क़स्द किया हो और उसका फ़रीज़ा पूरी नमाज़ पढना हो।
(4) बीमार और अंधा न हो, बीमार और अंधे पर जुमे की नमाज़ वाजिब नहीं है।
(5) बूढ़ा न हो, बूढ़ों पर यह नमाज़ वाजिब नहीं है।
(6) नमाज़ में शिरकत करने वालों की जगह और नमाज़ क़ाइम होने की जगह के दरमियान दो फ़रसख़ से ज़्यादा फ़ासला न हो और जो इंसान दो फ़र्ख़ के सर पर हो उसके लिए नमाज़े जुमा में हाज़िर होना वाजिब है। जिस इंसान के लिए जुमे की नमाज़ में, बारिश या सख़्त सर्दी वग़ैरा की वजह से हाज़िर होना मुशकिल या दुशवार हो उसके लिए नमाज़े जुमा में शिरकत वाजिब नहीं है।
(742) जुमे की नमाज़ से मुतल्लिक़ कुछ अहकाम इस तरह हैं।
(1) जिस इंसान से जुमे की नमाज़ साक़ित हो गई हो और उसका इस नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब न हो, उसके लिए जाइज़ है कि वह ज़ोहर की नमाज़ अव्वले वक़्त में अदा करने के लिए जल्दी करे।
(2) इमामे जमाअत के ख़ुत्बे के दौरान बात चीत करना मक़रूह है। लेकिन अगर बात चीत ख़ुत्बा सुन्ने में रुकावट बन रही हो तो एहतियात की बिना पर बातें करना जाइज़ नही है। जो तादात नमाज़े जुमा के वाजिब होने के लिए ज़रूरी है उसमें और इससे ज़्यादा के दरमियान कोई फ़र्क़ नही है।
(3) एहतियात की बिना पर दोनों ख़ुतबों को तवज्जोह के साथ सुनना वाजिब है। लेकिन जो लोग ख़ुत्बों के मतलब को न समझते हो उनके लिए तवज्जो से सुन्ना वाजिब नहीं है।
(4) जुमे के दिन की दूसरी अज़ान बिदअत है और यह वही अज़ान है जिसे आम तौर पर तीसरी अज़ान कहा जाता है।
(5) जब इमामे जमाअत जुमे का ख़ुत्बा पढ़ रहा हो तो उस दौरान हाज़िर होना वाजिब नहीं है।
(6) जुमे की नमाज़ की अज़ान के वक़्त ख़रीदो फ़रोख़्त इस सूरत में हराम है जब वह नमाज़ में माने हो, और अगर ऐसा न हो तो हराम नहीं है। और अज़हर यह है कि ख़रीदो फ़रोख़्त हराम होने की सूरत में भी मामला बातिल नही होता।
(7) अगर किसी इंसान पर जुमे की नमाज़ में हाज़िर होना वाजिब हो और वह इस नमाज़ को तर्क करे और ज़ोहर की नमाज़ बजा लाए तो अज़हर यह है कि उसकी नमाज़ सही होगी।
मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त
(743) एहतियाते वाजिब यह है कि जब तक पूरब की जानिब की वह सुरख़ी जो सूरज के छुपने के बाद ज़ाहिर होती है इंसान के पर से न ग़ुज़र जाये, मग़रिब की नमाज़ न पढ़े।
(744) मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार इंसान के लिए आधी रात तक है। लेकिन जिन लोगों को कोई उज़्र हो मसलन भूल जाने की वजह से या नींद या हैज़ या उन जैसी दूसरी वजहों की बिना पर आधी रात से पहले नमाज़ न पढ़ सकते हों, तो उनके लिए मग़रिब और इशा की नमाज़ का वक़्त फ़ज्र के ज़ाहिर होने तक बाक़ी रहता है। लेकिन इन दोनों नमाज़ों के दरमियान मुतावज्जेह होने की सूरत में तरतीब ज़रूरी है यानी इशा की नमाज़ को जान बूझकर मग़रिब की नमाज़ से पहले पढ़े तो नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर वक़्त इतना कम रह गया हो कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़ी जा सकती हो तो इस सूरत में लाज़िम है कि इशा की नमाज़ को मग़रिब से पहले पढ़े।
(745) अगर कोई इंसान ग़लत फ़हमी की बिना पर इशा की नमाज़ मग़रिब की नमाज़ से पहले पढ़ ले और नमाज़ के बाद उसे यह बात याद आये तो उसकी नमाज़ सही है और ज़रूरी है कि मग़रिब की नमाज़ उसके बाद पढ़े।
(746) अगर कोई इंसान मग़रिब की नमाज़ पढ़ने से पहले भूले से इशा की नमाज़ पढने में मशग़ूल हो जाये और नमाज़ के दौरना उसे पता चले कि उसने ग़लती की है और अभी वह चौथी रकत के रूकू तक न पहुँचा हो तो ज़रूरी है कि अपनी नियत को मग़रिब की नमाज़ की तरफ़ फ़ेरे और नमाज़ को तमाम करे। बाद में इशा की नमाज़ पढ़े और अगर चौथी रकत के रुकू में जा चुका हो तो उसे इशा की नमाज़ क़रार दे कर तमाम करे और बाद में मग़रिब की नमाज़ बजा लाए।
(747) इशा की नमाज़ का वक़्त मुख़्तार इंसान के लिए आधी रात तक है और रात का हिसाब सूरज ग़ूरूब होने की इबतिदा से तुलू फ़जर तक है।
(748) अगर कोई इंसान इख़्तियार की हालत में मग़रिब और इशा की नमाज़ आधी रात तक न पढ़े तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि अज़ाने सुबह से पहले क़ज़ा और अदा की निय्य्त किये बग़ैर इन नमाज़ों को पढ़े।
सुबह की नमाज़ का वक़्त
(749) सुबह की अज़ान के क़रीब पूरब की तरफ़ से एक सफ़ेदी ऊपर उठती है, उस वक़्त को फ़जरे अव्वल कहा जाता है और जब यह सफ़ेदी फैल जाती है तो उस वक़्त को फ़जरे दोव्वुम कहा जाता है और यही सुबह की नमाज़ का अव्वले वक़्त है। सुबह की नमाज़ का आख़री वक़्त सूरज निकलने तक है।
नमाज़ के वक़्तों के अहकाम
(750) इंसान नमाज़ में उस वक़्त मशग़ूल हो सकता है जब उसे यक़ीन हो जाये कि वक़्त दाख़िल हो गया है या दो आदिल मर्द वक़्त दाख़िल होने की ख़बर दें बल्कि किसी वक़्त शनास, क़ाबिले इत्मीनान इंसान की अज़ान पर या वक़्त दाख़िल होने के बारे में गवाही पर भी इक्तिफ़ा किया जा सकता है।
(751) अगर कोई इंसान किसी ज़ाती उज़्र मसलन नाबीना होने या क़ैद ख़ाने में होने की वजह से नमाज़ के अव्वले वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन न कर सके तो ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने में ताख़ीर करे हत्ता कि उसे यक़ीन या इतमीनान हो जाये कि वक़्त दाख़िल हो गया है। इसी तरह अगर वक़्त दाख़िल होने का यक़ीन होने में ऐसी चीज़ माने हो जो उमूमन पेश आती हो मसलन बादल, ग़ुबार या इन जैसी दूसरी चीज़ें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसके लिए भी यही हुक्म है।
(752) अगर ऊपर बयान किये गये तरीक़े से किसी इंसान को इत्मीनान हो जाये कि नमाज़ का वक़्त हो गया है और वह नमाज़ में मशग़ूल हो जाये, लेकिन नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि अभी वक़्त दाख़िल नहीं हुआ तो उसकी नमाज़ बातिल है। अगर नमाज़ के बाद पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त से पहले पढ़ी है तो उसके लिए भी यही हुक्म है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि वक़्त दाख़िल हो गया है या नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ पढ़ते हुए वक़्त दाख़िल हो गया था तो उसकी नमाज़ सही है।
(753) अगर कोई इंसान इस बात की तरफ़ मुतवज्जेह न हो कि वक़्त के दाख़िल होने का यक़ीन कर के नमाज़ में मशग़ूल होना चाहिए, लेकिन नमाज़ के बाद उसे पता चले कि उसने सारी नमाज़ वक़्त में पढ़ी है तो उसकी नमाज़ सही है। और अगर उसे पता चल जाये कि उसने वक़्त से पहले नमाज़ पढ़ी है या उसे यह पता न चले कि वक़्त में पढ़ी है या वक़्त से पहले पढ़ी है, तो उसकी नमाज़ बातिल है। बल्कि अगर नमाज़ के बाद उसे पता चले कि नमाज़ के दौनान वक़्त दाख़िल हो गया था तब भी उसे चाहिए कि उस नमाज़ को दोबारा पढ़े।
(754) अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और वह नमाज़ पढ़ने लगे, लेकिन नमाज़ के दौरान शक करे कि वक़्त दाख़िल हुआ है या नहीं तो उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर नमाज़ के दौरान उसे यक़ीन हो कि वक़्त दाख़िल हो गया है और शक करे कि जितनी नमाज़ पढ़ी है वह वक़्त में पढ़ी है या नहीं तो उसकी नमाज़ सही है।
(755) अगर नमाज़ का वक़्त इतना तंग हो कि नमाज़ के कुछ मुस्तहब अफ़आ़ल अदा करने से नमाज़ की कुछ मिक़दार, वक़्त के बाद पढ़नी पड़ती हो तो ज़रूरी है कि उन मुस्तहब उमूर को छोड़ दे मसलन अगर क़ुनूत पढ़ने की वजह से नमाज़ का कुछ हिस्सा वक़्त के बाद पढ़ना पड़ता हो तो उसे चाहिए कि क़ुनूत न पढ़े।
(756) जिस इंसान के पास नमाज़ की फ़क़त एक रकत अदा करने का वक़्त बचा हो उसे चाहिए कि नमाज़ अदा की नियत से पढ़े, अलबत्ता उसे जान बूझ कर नमाज़ में ताख़ीर नही करनी चाहिए।
(757) जो इंसान सफ़र में न हो, अगर उसके पास ग़ुरूबे आफ़ताब तक पाँच रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की दोनों नमाज़ें पढ़े। लेकिन अगर उसके पास इससे कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र की नमाज़ पढ़े और बाद में ज़ोहर की नमाज़ क़ज़ा करे। इसी तरह अगर किसी आदमी के पास आधी रात तक पाँच रकत पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर वक़्त इस से भी कम हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर नमाज़े मग़रिब पढ़े।
(758) जो इंसान सफ़र में हो, अगर सूरज डूबने तक उसके पास तीन रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो, तो उसे चाहिए कि ज़ोहर और अस्र की नमाज़ पढ़े और अगर इस से कम वक़्त हो तो उसे चाहिए कि सिर्फ़ अस्र पढ़े और बाद में नमाज़े ज़ोहर की क़ज़ा करे और अगर आधी रात तक उसके पास चार रकत नमाज़ पढ़ने के अंदाज़े के मुताबिक़ वक़्त हो तो उसे चाहिए कि मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े और अगर नमाज़ की तीन रकत के बराबर वक़्त बाक़ी हो तो उसे चाहिए कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ बजा लाए ताकि नमाज़े मग़रिब की एक रकत वक़्त में अंजाम दी जाये, और अगर नमाज़ की तीन रकत से कम वक़्त बाक़ी हो तो ज़रूरी है कि पहले इशा की नमाज़ पढ़े और बाद में मग़रिब की नमाज़ अदा और क़ज़ा की नियत किये बग़ैर पढ़े और अगर इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद मालूम हो जाये कि आधी रात होने में एक रकत या उस से ज़्यादा रकतें पढ़ने के लिए वक़्त बाक़ी है तो उसे चाहिए कि मग़रिब की नमाज़ फ़ौरन अदा की नियत से पढ़े।
(760) जब इंसान के पास कोई ऐसा उज़्र हो कि अगर अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़ना चाहे तो तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो और इल्म हो कि उस का उज़्र आख़िर वक़्त तक बाक़ी न रहेगा या आख़िर वक़्त तक उज़्र के दूर होने से मायूस हो तो वह अव्वले वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर मायूस न हो तो ज़रूरी है कि उज़्र दूर होने तक इंतेज़ार करे और अगर उस का उज़्र दूर न हो तो आख़िरी वक़्त में नमाज़ पढ़े और यह ज़रूरी नहीं कि इस क़दर इंतिज़ार करे कि नमाज़ के सिर्फ़ वाज़िब अफ़आ़ल अंजाम दे सके बल्कि अगर उसके पास नमाज़ के मुस्तहब्ब अमल मसलन अज़ान, इक़ामत और क़ुनूत के लिए भी वक़्त हो तो वह तयम्मुम कर के उन मुसतहब्बात के साथ नमाज़ आदा कर सकता है और तयम्मुम के अलावा दूसरी मज़बूरियों की सूरत में अगरचे उज़्र दूर होने से मायूस न हुआ हो उसके लिए जाइज़ है कि अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त के दौरान उसका उज़्र दूर हो जाये तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े।
(761) अगर एक इंसान नमाज़ के मसाइल और शक्कीयात और सहव का इल्म न रखता हो और उसे इस बात का एहतेमाल हो कि उसे नमाज़ के दौरान इन मसाइल में से कोई न कोई मसला पेश आयेगा और उनके याद न करे की वजह से किसी लाज़िमी हुक्म की मुख़ालिफ़त होती हो तो ज़रूरी है कि उन्हें सीख़ने के लिए नमाज़ को अव्वले वक़्त में न पढ़ कर देर से पढ़े लेकिन अगर इस उम्मीद से कि नमाज़ को सही पढ़ लेगा, नमाज़ पढ़ने में मशग़ूल हो जाये और उसे नमाज़ में कोई ऐसा मसला पेश न आये जिसका हुक्म वह न जानता हो तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर नमाज़ में कोई ऐसा मसला पेश आजाये कि जिसका हुक्म न जानता हो तो उसके लिए जायज़ है कि दो बातों में जिस तरफ़ एहतेमाल हो उस पर अमल करते हुए नमाज़ तमाम करे। लेकिन ज़रूरी है कि नमाज़ के बाद मसला पूछे अगर उसकी नमाज़ बातिल हो तो दोबारा पढ़े और अगर सही हो तो दोबारा पढ़ना लाज़िम नहीं है।
(762) अगर नमाज़ का वक़्त काफ़ी हो और क़र्ज़ ख़ाह भी अपने क़र्ज़ का तक़ाज़ा कर रहा हो तो अगर मुमकिन हो तो ज़रूरी है कि पहले क़र्ज़ अदा करे और बाद में नमाज़ पढ़े और अगर कोई ऐसा दूसरा वाजिब काम पेश आ जाये जिसे फ़ौरन करना ज़रूरी हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है मसलन अगर देखे कि मस्जिद नजिस हो गयी है, तो ज़रूरी है कि पहले मस्जिद को पाक करे और बाद में नमाज़ पढ़े और अगर ऊपर बयान की गईं दोनों सूरतों में पहले नमाज़ पढ़े तो गुनाह का मुरतकिब होगा लिकन उसकी नमाज़ सही होगी।
वह नमाज़े जिनको तरतीब से पढ़ना ज़रूरी है
(763) ज़रूरी है कि इंसान नमाज़े अस्र, नमाज़े ज़ोहर के बाद और नमाज़े इशा मग़रिब के बाद पढ़े और अगर जान बूझकर नमाज़े अस्र नमाज़े ज़ोहर से पहले और नमाज़े इशा नमाज़े मग़रिब से पहले पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।
(764) अगर कोई इंसान नमाज़े ज़ोहर की नियत से नमाज़ पढ़नी शुरू करे और नमाज़ के दौरान उसे याद आये कि नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो वह नियत को नमाज़े अस्र की जानिब मोड़ सकता है। बल्कि ज़रूरी है कि नमाज़ तोड़कर नमाज़े अस्र पढ़े और मग़रिब और इशा की नमाज़ में भी यही सूरत है।
(765) अगर नमाज़े अस्र के दौरान किसी इंसान को यक़ीन हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर नही पढ़ी है और वह नियत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ मोड़ दे और अगर उसे याद आये कि वह नमाज़े ज़ोहर पढ़ चुका है तो फ़ौरन नियत को नमाज़े अस्र की तरफ़ मोड़ दे और नमाज़ को तमाम करे। लेकिन अगर उसने नमाज़ के कुछ अजज़ा को ज़ोहर की नियत से अंजाम न दिया हो या अगर अंजाम दिया हो तो इस सूरत में उन अजज़ा को अस्र की नियत से दोबारा अंजाम दे। लेकिन अगर वह जुज़ एक रकत हो तो फ़िर हर सूरत में उसकी नमाज़ बातिल है। इसी तरह अगर वह जुज़ एक रकत का रूकू या दो सजदे हों तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर नमाज़ बातिल है।
(766) अगर किसी इंसान को नमाज़े अस्र के दौरान शक हो कि उसने नमाज़े ज़ोहर पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि अस्र की नियत से नमाज़ तमाम करे और बाद में ज़ोहर की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ पढ़ने के बाद सूरज डूब जाता हो और एक रकत नमाज़ के लिए भी वक़्त बाक़ी न हो तो ज़ोहर की नमाज़ की क़ज़ा लाज़िम नहीं है।
(767) अगर किसी इंसान को नमाज़े इशा के दौरान शक हो जाये कि उसने मग़रिब की नमाज़ पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि इशा की नियत से नमाज़ ख़त्म करे और बाद में मग़रिब की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वक़्त इतना कम हो कि नमाज़ ख़त्म होने के बाद आधी रात हो जाती हो और एक रकत नमाज़ का वक़्त भी न बचता हो तो नमाज़े मग़रिब की क़ज़ा उस पर लाज़िम नहीं है।
(768) अगर कोई इंसान नमाज़े इशा की चौथी रकत में रूकू में पहुँचने के बाद शक करे कि उसने नमाज़े मग़रिब पढ़ी है या नहीं तो ज़रूरी है कि नमाज़ मुकम्मल करे। और अगर बाद में मग़रिब की नमाज़ के लिए वक़्त बाक़ी हो तो मग़रिब की नमाज़ भी पढ़े।
(769) अगर कोई इंसान ऐसी नमाज़ को जो उसने पढ़ली हो एहतियातन दोबारा पढ़े और नमाज़ के दौरान उसे याद आये कि उस नमाज़ से पहले वाली नमाज़ नहीं पढ़ी है तो वह नियत को उस नमाज़ की तरफ़ नहीं मोड़ सकता। मसलन जब वह नमाज़े अस्र एहतियातन पढ़ रहा हो अगर उसे याद आये कि उसने नमाज़े ज़ोहर नहीं पढ़ी तो वह नियत को नमाज़े ज़ोहर की तरफ़ नहीं मोड़ सकता।
(770) क़ज़ा की नमाज़ नियत अदा नमाज़ की तरफ़ और मुस्तहब नमाज़ की नियत बाजिब नमाज़ की तरफ़ मोड़ना जाइज़ नहीं है।
(771) अगर अदा नमाज़ का वक़्त काफ़ी हो तो इंसान नमाज़ के दौरान यह याद आने पर कि उसके ज़िम्मे कोई क़ज़ा नमाज़ है, नियत को क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ मोड़ सकता है इस शर्त के साथ कि क़ज़ा नमाज़ की तरफ़ नियत मोड़ना मुमकिन हो। मसलन अगर वह ज़ोहर की नमाज़ में मशग़ूल हो तो नियत को क़ज़ा-ए- सुबह की तरफ़ इसी सूरत में मोड़ सकता है कि तीसरी रकत के रूकू में दाख़िल न हुआ हो।
नमाज़े मैयित के अहकाम
600. हर मुसलमान और इस्लाम के हुक्म में आने वाले उस बच्चे की मैयित पर नमाज़ पढ़ना वाजिब है, जिसकी उम्र छः साल हो चुकी हो।
601. एहतियाते लाज़िम की बिना पर, उस बच्चे की मैयित पर भी नमाज़ पढ़नी चाहिए जो अभी छः साल का न हुआ हो, लेकिन नमाज़ को जानता हो, और अगर नमाज़ को न जानता हो तो रजाअ की नियत से नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है। जो बच्चा मुर्दा पैदा हुआ हो उसकी नमाज़े मैयित पढ़ना मुस्तहब नही है।
602. नमाज़े मैयित, मैयित को ग़ुस्ल देने, हनूत करने और कफ़न पहनाने के बाद पढ़नी चाहिए। अगर नमाज़े मैयित इन कामों से पहले या उनके बीच पढ़ी जाये तो, चाहे वह भूल चूक की बिना पर ही हो काफ़ी नही है।
603. नमाज़े मैयित पढ़ने के लिए, बदन या लिबास का पाक होना या वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम से होना ज़रूरत नही है। अगर ग़स्बी लिबास में भी नमाज़े जनाज़ा पढ़ी जाये तो सही है, लेकिन बेहतर यह है कि इस नमाज़ में भी उन सब बातों का लिहाज़ रखा जाये, जो दूसरी नमाज़ों में ज़रूरी हैं।
604. नमाज़े मैयित पढ़ने वाले को क़िबला रुख़ होना चाहिए और यह भी वाजिब है कि मैयित को नमाज़ पढ़ने वाले के सामने इस तरह लिटाया जाये कि मैयित का सर नमाज़ पढ़ने वाले के दाहिनी तरफ़ और पैर बाईं तरफ़ हों ।
605. एहतियाते मुस्तहब की बिना पर जहाँ नमाज़े मैयित पढ़ी जाये, वह जगह ग़स्बी न हो, यह भी ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने की जगह मैयित की जगह से ऊँची या नीची न हो, लेकिन मामूली सी ऊँचाई या नीच में कोई हरज नही है।
606. नमाज़ पढ़ने वाले को मैयित से दूर नही होना चाहिए, लेकिन अगर नमाज़ जमाअत से पढ़ रहा हो और सफ़ों से मुत्तसिल हो, तो मैयित से दूर रहने में कोई हरज नही है।
607. नमाज़े मैयित पढ़ने वाले को चाहिए कि मैयित के सामने खड़ा हो, लेकिन अगर नमाज़ जमाअत के साथ हो रही हो और जमाअत की सफ़े मैयित के दोनों तरफ़ (दाहिने और बायें) निकल रही हों, तो जो लोग मैयित के सामने नही हैं उनकी नमाज़ में कोई हरज नही है।
608. एहतियात की बिना पर, नमाज़ पढ़ने वाले और मैयित के बीच कोई पर्दा, दीवार या ऐसी ही दूसरी चीज़ हाइल नही होनी चाहिए। लेकिन अगर मैयित ताबूत या ऐसी ही किसी दूसरी चीज़ में रखी हो तो कोई हरज नही है।
609. नमाज़ पढ़ते वक़्त, मैयित की शर्मगाह का ढका होना ज़रूरी है। अगर मैयत को कफ़न पहनाना मुमकिन न हो तो नमाज़ के वक़्त उसकी शर्मगाह को लकड़ी, ईंट या किसी दूसरी चीज़ से ढक देना चाहिए।
610. नमाज़े मैयित, खड़े हो कर और क़ुरबत की नियत से पढ़नी चाहिए। नियत करते वक़्त मैयित को मुऐयन कर लेना चाहिए, मसलन नियत करनी चाहिए कि मैं इस मैयित पर नमाज़ पढ़ता हूँ, क़ुरबतन इला अलल्लाह।
611. अगर कोई इंसान खड़े हो कर नमाज़े मैयित न पढ़ सकता हो तो बैठ कर पढ़ सकता है।
612. अगर मरने वाले ने नमाज़े जनाज़ा पढ़ाने के लिए किसी मख़सूस इंसान के बारे में वसीयत की हो तो उसे चाहिए कि मैयित के वली से इजाजत हासिल करे।
613. किसी मैयित पर कई बार नमाज़ पढ़ना मकरूह है, लेकिन अगर मैयित किसी आलिम या मुत्तक़ी इंसान की हो तो मकरूह नही है।
614. अगर मैयित को किसी मजबूरी की वजह से या भूल चूक की बिना पर बग़ैर नमाज़ पढ़े दफ़्न कर दिया जाये या अगर दफ़्न करने के बाद पता चले कि जो नमाज़ पढ़ी गई थी, वह बातिल थी, तो मैयित पर नमाज़ पढ़ने के लिए क़ब्र को खोलना जायज़ नही है। लेकिन मैयित के बदन के पाश पाश होने से पहले, नमाज़ की शर्तों के साथ उसकी क़ब्र पर रजाअ की नियत से नमाज़ पढ़ सकते हैं।
नमाज़े मैयित का तरीक़ा
615. नमाज़े मैयित में पाँच तकबीरें हैं, अगर नमाज़ पढ़ने वाला निम्न लिखित तरतीब से पाँच तकबीरें कहे तो काफ़ी है।
नियत करने के बाद पहली तकबीर कहे और यह पढ़े अशहदु अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह अशहदु अन्ना मुहम्मदर रसूलु अल्लाह
फिर दूसरी तकबीर कहने के बाद यह पढ़े अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिंव व आलि मुहम्मद
तीसरी तकबीर कहने के बाद यह पढ़े अल्लाहुम्मग़ फ़िर लिल मोमेनीना व अल-मोमिनात
चैथी तकबीर कहने के बाद, अगर मैयित मर्द की है तो यह पढ़े, अल्लाहुम्मग़ फ़िर लिहाज़ल मैयित। और अगर मैयित औरत की है तो कहे अल्लाहुम्मग़ फ़िर लिहाज़िहिल मैयित। इसके बाद पाँचवीं तकबीर कह कर नमाज़ को तमाम करे।
बेहतर यह है कि पहली तकबीर के बाद यह पढ़े – अशहदु अन ला इलाहा इल्ला अल्लाह वह-दहु ला शरी-कलह व अशहदु अन्ना मुहम्दन अब्दुहु व रसूलुहू बिल हक़्क़ि बशीरन व नज़ीरन बैना यदा-यिस्साअः।
दूसरी तकबीर के बाद यह पढ़े- अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहमदिन व आलि मुहम्मद व बारिक अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद वरहम मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद क-अफ़ज़लि मा सल्लैता व बारकता व तरहमता अला इब्राहीमा व आलि इब्राहीमा इन्नका हमीदुन मजीद व सल्ले अला जमीइल इम्बियाए वल मुर्सलीन व शोहदाए व सिद्दीक़ीन व जमीए इबादिल्लाहि अस्सालिहीन।
तीसरी तकबीर के बाद यह पढ़े – अल्लाहुम्मग़ फ़िर लिल मोमेनीना वल मोमिनात वल मुसलेमीना वल मुसलेमात अल अहयाए मिनहुम वल अमवात ताबे बै-नना व बैनाहुम बिल ख़ैरात इन्नका मुजीबुद्दावात इन्नका अला कुल्लि शैइन क़दीर।
चैथी तकबीर के बाद अगर मैयित मर्द की हो तो यह पढ़े- अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़ा अब्दुका व इब्नु अब्दिक वब्नु अमातिक, नज़ला बिका व अन्ता ख़ैरु मनज़ूलिन बिहि, अल्लाहुम्मा इन्ना ला नालमु मिन्हु इल्ला ख़ैरा, व अन्ता आलमु बिहि मिन्ना, अल्लाहुम्मा इन काना मोहसिनन फ़ज़िद फ़ी एहसानिहि, व इन काना मुसीयन फ़तजावज़ अनुहु वग़फ़िर लहु, अल्लाहुम्मा इजअलहु इन्दका फ़ी आला इल्लियीना वख़लुफ़ अहलिहि फ़िल ग़ाबिरीना व इरहमहु बिरहमतिका या अरहमुर्राहीमीन। इसके बाद पाँचवीं तकबीर कह कर नमाज़ तमाम करे। लेकिन अगर मैयित औरत हो तो चौथी तकबीर के बाद यह पढ़े अल्लाहुम्मा इन्ना हाज़िहि अमातुक वब्नतु अब्दिक वब्नतु अमातिक, नज़ालत बिका व अन्ता ख़ैरु मनज़ूलिन बिहि, अल्लाहुम्मा इन्ना ला नालमु मिन्हा इल्ला ख़ैरा, व अन्ता आलमु बिहा मिन्ना, अल्लाहुम्मा इन कानत मोहसिनतन फज़िद फ़ी एहसानिहा, व इन कानत मुसीअतन फ़-तजावज़ अन्हा, वग़-फ़िर लहा, अल्लाहुम्मा इज़अलहा इन्दका फ़ी आला इल्लीयीना वख़लुफ़ अला अहलिहा फिल ग़ाबिरीना वरहमहा बिरहमतिका या अरहमुर्राहीमीन।
616. तकबीर और दुआएं तसलसुल के साथ इस तरह पढ़नी चाहिए कि नमाज़ की शक्ल ख़त्म न होने पाये।
617. जो इंसान नमाज़े जनाज़ा जमाअत के साथ पढ़ रहा हो उसके लिए ज़रूरी है कि नमाज़ की तकबीरों व दुआओं को अपनी ज़बान से दोहराता रहे।
नमाज़े मैयित की मुस्तहब चीज़े
618. नमाज़े मैयित में कुछ चीज़ें मुस्तहब है।
1. नमाज़े मैयित पढ़ने वाले को वुज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम करना चाहिए और एहतियात यह है कि तयम्मुम उस वक़्त करना चाहिए जब वुज़ू या ग़ुस्ल करना मुमकिन न हो, या यह डर हो कि अगर वुज़ू या ग़ुस्ल किया तो नमाज़ में शरीक न हो सकेगा।
2. अगर मैयित मर्द की हो तो इमाम या तन्हा नमाज़ पढ़ने वाले को मैयित के शिकम (पेट) के सामने खड़ा होना चाहिए और अगर मैयित औरत की हो तो उसके सीने के सामने खड़ा होना चाहिए।
3. नमाज़ नंगे पैर पढ़नी चाहिए।
4. हर तकबीर कहते वक़्त हाथों को उठाना चाहिए।
5. नमाज़ पढ़ने वाले और मैयित के बीच इतना कम फ़ासला होना चाहिए कि अगर हवा चले तो नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास मैयित से छू जाये।
6. नमाज़े मैयित जमाअत के साथ पढ़ी जाये।
7. इमामे जमाअत तकबीरें और दुआएं ऊँची आवाज़ से पढ़े और मुक़तदी लोग उनको आहिस्ता आहिस्ता पढ़ें।
8. अगर नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ी जा रही हो तो चाहे मुक़तदी एक ही इंसान हो उसे इमाम के पीछे खड़ा होना चाहिए।
9. नमाज़ पढ़ने वाले को मैयित और मोमेनीन के लिए बहुत ज़्यादा दुआएं करनी चाहिए।
10. अगर नमाज़ जमाअत से पढ़ना चाहें तो नमाज़ से पहले तीन बार अस्सलात कहें।
11. नमाज़े मैयित ऐसी जगह पर पढ़नी चाहिए, जहाँ ज़्यादा से ज़्यादा लोग शरीक हो सकते हों।
12. अगर कोई हाइज़ औरत नमाज़े जनाज़ा पढ़ना चाहे तो उसे नमाज़ियों की सफ़ों में खड़ा नही होना चाहिए, बल्कि तन्हा खड़ा होना चाहिए।
619. नमाज़े मैयित मस्जिदों में पढ़ना मकरूह है, लेकिन मस्जिदुल हराम में पढ़ना मकरूह नही है।
दफ़्न के अहकाम
620. मैयित को ज़मीन में इस तरह दफ़्न करना वाजिब है कि उसकी बू बाहर न आये और दरिन्दे उसका बदन बाहर न निकाल सकें। अगर ख़तरा हो कि दरिन्दें बदन को निकाले ले जायेंगे तो क़ब्र को ईंटो से पक्का कर देना चाहिए।
621. अगर मैयित को दफ़्न करना मुमकिन न हो तो उसे किसी कमरे या ताबूत में रखा जा सकता है।
622. मैयित को क़ब्र में दाहिनी करवट से इस तरह लिटाना चाहिए कि उसका सामने का हिस्सा क़िबला रुख़ हो।
623. अगर कोई इंसान पानी के जहाज़ में मर जाये और उसकी मैयित के खराब होने का ख़तरा न हो और उसे जहाज़ में रखने में भी कोई रुकावट न हो तो खुश्की में पहुँच कर उसे ज़मीन में दफ़्न करना चाहिए। अगर यह मुमकिन न हो तो ग़ुस्ल, हनूत, कफ़न और नमाज़ के बाद उसे एक चटाई में लपेट कर और चटाई का मुँह बंद करके उसे समुन्द्र में डाल देना चाहिए। या कोई भारी चीज़ उसके पैरों में बाँध कर उसे पानी में छोड़ देना चाहिए। जहाँ तक मुमकिन हो उसे ऐसी जगह डालना चाहिए जहाँ वह फ़ौरन जानवरों का लुक़मा न बन सके।
624. अगर दुश्मन के ज़रिये क़ब्र खोदे जाने और मैयित को बाहर निकाल कर उसके नाक, कान या दूसरे अंग काटे जाने का ख़तरा हो तो इस सूरत में अगर मुमकिन हो तो मसला न. 623 में बयान किये गये तरीक़े के मुताबिक़ मैयित को समुन्द्र में डाल देना चाहिए।
625. अगर मैयित को समुन्द्र में डालना या उसकी क़ब्र को पक्का करना ज़रूरी हो तो उसके ख़र्च को मैयित के अस्ल माल से ले सकते हैं।
626. अगर कोई काफ़िर औरत मर जाये और उसके पेट में मरा हुआ बच्चा हो और उस बच्चे का बाप कोई मुसलमान हो तो उस औरत को क़ब्र में बाईं करवट से किबले की तरफ़ पीठ करके, इस तरह लिटाना चाहिए कि बच्चे का मुँह क़िबले की तरफ़ हो जाये। अगर पेट में मौजूद बच्चे के बदन में अभी जान न पड़ी हो तब भी एहतियाते मुस्तहब की बिना पर यही हुक्म है।
627. मुसलमानों को काफ़िरों के क़ब्रिस्तान में और काफ़िरों को मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न करना जायज़ नही है।
628. मुसलमान को ऐसी जगह पर दफ़्न करना जायज़ नही है जहाँ पर उसकी बेहुरमती होती हो जैसे कूड़ा व गंदगी फेंके जानी वाली जगह।
629. मैयित को गस्बी व ऐसी ज़मीन में दफ़्न करना जायज़ नही है जो किसी दूसरे काम के लिए वक़्व की गई हो, जैसे मस्जिद वग़ैरा के लिए वक़्फ़ की गई ज़मीन।
630. किसी मैयित की क़ब्र खोद कर उसमें दूसरे मुर्दे को दफ़्न करना जायज़ नही है, लेकिन अगर क़ब्र इतनी पुरानी हो गई हो कि पहली मैयित का निशान बाक़ी न रहा हो तो दफ़्न कर सकते हैं।
631. मैयित के बदन से जो हिस्से जुदा हो गये हों, चाहे वह उसके बाल, नाख़ुन या दाँत ही हों, उन्हें उसके साथ दफ़्न कर देना चाहिए। अगर मैयित से जुदा हुए हिस्से मैयित को दफ़्न करने के बाद मिलें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उन्हें किसी दूसरी जगह दफ़्न कर देना चाहिए। जो नाख़ुन या दाँत इंसान की ज़िंदगी में उससे जुदा हो जायें, उन्हें दफ़्न करना मुस्तहब है।
632. अगर कोई इंसान कुवें में डूब कर मर जाये और उसे बाहर निकालना मुमकिन न हो तो उस कुवें का मुँह बंद करके उसे ही उसकी क़ब्र क़रार देना चाहिए।
633. अगर कोई बच्चा माँ के पेट में मर जाये और उसका पेट में रहना माँ की ज़िंदगी के लिए खतरनाक हो तो उसे सबसे आसान तरीक़े से बाहर निकाल लेना चाहिए। अगर बच्चे को बाहर निकालने के लिए उसके टुकड़े टुकड़े करने पर मजबूर हों तो ऐसा करने में भी कोई हरज नही है। अगर उस औरत का शौहर अहले फ़न हो तो वह बच्चे को बाहर निकाले और अगर यह मुमकिन न हो तो कोई अहले फ़न औरत बच्चे को बाहर निकाले और अगर यह भी मुमकिन न हो तो कोई ऐसा महरम मर्द निकाले जो अहले फ़न हो और अगर यह भी मुमकिन न हो तो अहले फ़न नामहरम मर्द यह काम करे और अगर यह भी मुमकिन न हो तो फिर वह इंसान भी बच्चे को बाहर निकाल सकता है जो अहले फ़न न हो।
634. अगर माँ मर जाये और बच्चा उसके पेट में ज़िन्दा हो (अगरचे बच्चे के ज़िन्दा रहने की उम्मीद न भी हो तब भी) तो ज़रूरी है कि हर उस जगह को चाक किया जाये जो बच्चे की सलामती के लिए बेहतर हो और बच्चे को बाहर निकालने के बाद उस जगह को टाँके लगा देने चाहिए।
दफ़्न की मुस्तहब चीज़ें
635. मुस्तहब है कि मैयित से ताल्लुक़ रखने वाले लोग क़ब्र को एक दरमियाने क़द के इंसान के क़द के बराबर खोदें और मैयित को सबसे क़रीब से क़रीब क़ब्रिस्तान में दफ़्न करें। लेकिन अगर दूर वाला क़ब्रिस्तान किसी वजह से नज़दीक वाले क़ब्रिस्तान से बेहतर हो, मसलन उसमें नेक लोग दफ़्न हों या वहाँ फ़ातिहा पढ़ने के लिए ज़्यादा लोग जाते हों, तो उसमें ही दफ़्न करना चाहिए। मुस्तहब है कि जनाज़े को क़ब्र से कुछ गज़ की दूरी पर रखा जाये फिर तीन बार थोड़ी थोड़ी दूरी पर रख कर क़ब्र के पास ले जायें और चौथी बार क़ब्र में उतार दें। अगर मैयित मर्द की हो तो तीसरी बार ज़मीन पर इस तरह रखें कि मैयित का सर क़ब्र के निचले हिस्से की तरफ़ हो और चौथी बार उसे सर की तरफ़ से क़ब्र में दाख़िल करें। अगर मैयित औरत की हो तो तीसरी बार उसे क़ब्र पर क़िबले वाली तरफ़ रखें और करवट से क़ब्र में उतार दें और क़ब्र में उतारते वक़्त एक कपड़ा क़ब्र पर तान दें। मुस्तहब है कि जनाज़े को बहुत आराम के साथ ताबूत से निकाल कर क़ब्र में रखना चाहिए और दफ़्न करने से पहले व दफ़्न करते वक़्त की दुआओं को पढ़ते रहना चाहिए। मैयित के क़ब्र में रखने के बाद उसके कफ़न की गिराह खोल देनी चाहिए। उसका रुखसार ज़मीन पर रख कर उसके सर के नीचे मिट्टी का तकिया बना देना चाहिए और उसकी पीठ के पीछे ढेले रख देने चाहिए ताकि मैयित चित न हो सके। क़ब्र को बंद करने से पहले अपना दाहिना हाथ मैयित के दाहिने काँधे पर मारें और बाया हाथ मैयित के बाये कांधे पर रखें और उसके कानों के करीब मुँह ले जा कर तीन बार उसे हिलायें और कहे इस्मा इफ़हम या -----इब्ने----- ख़ाली जगह पर मैयित और उसके बाप का नाम लें। मसलन अगर उसका नाम मूसा और उसके बाप का नाम इमरान हो तो तीन बार कहें इस्मा इफ़हम या मूसा बिन इमरान इसके बाद कहें हल अन्ता अलल अहदिल्लज़ी फ़ारक़तना अलैहि मिनशहादति अन ला इलाहा इल्लल्लाहु वहदहु ला शरी-कलहु व अन्ना मुहम्मदन सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि अब्दुहु व रसूलुहु व सैय्यिदुन नबीयीना व ख़ातमुल मुर्सलीना व अन्ना अलीयन अमीरुल मोमेनीना व सैय्यिदुल वसीयीना व इमामु निफ़-तरज़ल्लाहु ताअतुहु अलल आलमीना व अन्नाल हसना वल हुसैना व अली इब्नुल हुसैन व मुहम्मद इब्ने अली व जाफ़र इब्ने मुहम्मद व मूसा इब्ने जाफ़र व अली इब्ने मूसा व मुहम्मद इब्ने अली व अली इब्ने मुहम्मद व हसन इब्ने अली वल क़ाइमल हुज्जतल महदी सलावातु अल्लाहि अलैहिम आइम्मतुल मोमेनीना व हुजा-जुल्लाहि अलल ख़लक़ि अजमीना व आइम्मतका आइम्मतु हुदन अबरारुन या -----इब्ने ----ख़ाली जगह पर मैयित और उसके बाप का नाम लें और फिर कहे इज़ा अताकल मलाकैनि रसूलैनि मिन इन्दल्लाहि तबारका व तआला व सआलका अन रब्बिक व अन नबीयिक व अन दीनिक व अन किताबिक व अन क़िबलतिक व अन आइम्मतिक फ़ला तख़फ़ व ला तहज़न व क़ुल फ़ी जवाबिहिमा अल्लाहु रब्बी व मुहम्मदुन सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि नबिय्यी वल इस्लामु दीनी वल क़ुरानु किताबी वल का-बतु क़िबलती व अमीरुल मोमेनीना अलीयुबनु इबितालिब इमामी वल हसनुबनु अलीयिनिल मुजतबा इमामी वल हुसैनुबनु अलीयि-निश शहीदु बिकर्बला इमामी व अलीयुन ज़ैनुल आबेदीन इमामी व मुहम्दुनल बाक़िर इमामी व जाफ़रु निस्सादिक़ इमामी व मूसल काज़िमु इमामी व अलीयु निर्रिज़ा इमामी व मुहम्दु निल जवाद इमामी व अलीयु निलहादी इमामी वल हसानुल अस्करी इमामी वल हुज्जतुल मुनतज़रु इमामी हाउलाए सलवातु अल्लाहि अलैहिम अजमईना आइम्मती व सादती व क़ादती व शुफ़ा-आई बिहिम अतवल्ला व मिन आदाइहिम अतबर्रु फ़िद दुनिया वल आख़िरति सुम्मा एलम या----इब्ने------ ख़ाली जगह पर मैयित और उसके बाप का नाम लें और कहे अन्नल्लाह तबारका व तआला नेअमर्रब्बु व अन्ना मुहम्दन सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि नेअमर्रसूलु व अन्ना अली-यबना इबि तालिब व औलादुहुल मासूमीनल आइम्मतल इसना अशर नेअमल आइम्मतु व अन्ना मा जाआ बिहि मुहम्मदुन सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि हक़्क़ुन व अन्नल मौता हक़्क़ुन व सुआला मुनकिरिन व नकीरिन फ़िल क़ब्रि हक़्क़ुन वल बअसा हक़्क़ुन वन्नुशूरा हक़्क़ुन वस्सिराता हक़्क़ुन वल मीज़ानी हक़्क़ुन व ततायुरल कुतुबि हक़्क़ुन व अन्नल जन्नता हक़्क़ुन वन्नारा हक़्क़ुन व अन्नस साअता आतियतुन ला रैबा फ़ीहा व अन्ना अल्लाह यबअसु मन फ़िल क़ुबूर। फिर कहे अफ़हिमता या-------ख़ाली जगह पर मैयित का नाम ले और कहे सब्बतका अल्लाहु बिल क़ौलिस साबिति हदाका अल्लाहु इला सिरातिन मुस्तक़ीमिन अर्रफ़ा अल्लाहु बैनका व बैना औलियाइक फ़ी मुस्तक़र्रिम मिन रह-मतिक। इसके बाद कहे अल्लाहुम्मा जाफ़िल अर्ज़ा अन जम्बैहि व अस-इद बिरूहिही इलैका व लक़्क़िहि मिनका बुरहानन अल्लाहुम्मा अफ़वका अफ़वक।
636. मैयित को क़ब्र में उतारने वाले के लिए मुस्तहब है कि वह सर और पैर बरैहना हो और मैयित की पायती की तरफ़ से क़ब्र से बाहर निकले और मैयित के अज़ीज़ व अक़ारिब के अलावा जो लोग मौजूद हों वह हाथ की पुश्त से क़ब्र पर मिट्टी डालें और इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन, पढ़ें। अगर मैयित औरत की हो तो उसका महरम उसे क़ब्र में उतारे और अगर महरम न हो तो उसके अज़ीज़ व अक़रिब उसे क़ब्र में उतारें।
637. मुस्तहब है कि क़ब्र मुरब्बा (चकौर) या मुस्ततील (आयताकार) बनाई जाये और ज़मीन से चार ऊंगल ऊँची हो और उस पर कोई तख़्ती या निशानी लगा दी जाये ताकि पहचानने में कोई दुशवारी न हो और क़ब्र पर पानी छिड़क कर मौजूद लोग अपनी उंगलियाँ क़ब्र की मिट्टी में धसाँ कर सात बार सूरः ए इन्ना अनज़लना पढ़ें और मैयित की मग़फ़ेरत के लिए दुआ माँगे फिर यह पढ़े अल्लाहुम्मा जाफ़िल अर्ज़ा अन जम्बैहि व अस-इद बिरूहिही इलैका व लक़्क़िहि मिनका रिज़वानन व अस्किन क़बरहु मिन रहमतिका मा तुग़नीहि अन रहमति मन सिवाक।
638. जो लोग जनाज़े में शिरकत के लिए जमा हुए हों उनके चले जाने के बाद मैयित का वली या वह इंसान जिसे वली इजाज़त दे, मैयित को उन दुआओं की तिलक़ीन दे जो बताई गई हैं।
639. मुस्तहब है कि मैयित को दफ़्न करने के बाद मरने वाले के घर वालों को पुरसा दिया जाये, लेकिन अगर इतनी मुद्दत गुज़र चुकी हो कि पुरसा देने से उनका दुख ताज़ा हो जाये तो पुरसा नही देना चाहिए। मैयित के घर वालों के लिए तीन दिन तक खाना भेजना भी मुस्तहब है और उनके घर उनके साथ बैठ कर खाना मकरूह है।
640. मुस्तहब है कि इंसान अपने अज़ीज़ व अक़ारिब और मख़सूसन बेटे की मौत पर सब्र करे और जब भी मरने वाले की याद आये इन्ना लिलालाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन कहे और मैयित के लिए क़ुरान पढ़े और माँ बाप की क़ब्रों पर जाकर अल्लाह से अपनी हाजत तलब करे और क़ब्र को पक्का कर दे ताकि जल्दी ख़राब न होने पाये।
641. एहतियात की बिना पर किसी की मौत पर भी यह जायज़ नही है कि इंसान अपने बदन व चेहरे को ज़ख़्मी करे या अपने बालों को नोचे, लेकिन सर और चेहरा पीटना बर बिनाए अक़वा जायज़ है।
642. बाप और भाई के अलावा किसी दूसरे की मौत पर गिरेबान चाक करना एहतियात की बिना पर जायज़ नही है। बल्कि एहतियाते मुस्तहब यह है कि बाप व भाई की मौत पर भी गिरेबान चाक न किया जाये।
643. अगर औरत मैयित के सोग में अपना चेहरा ज़ख़्मी करके ख़ून निकाल ले या बाल नोचे तो एहतियात की बिना पर वह एक गुलाम आज़ाद करे या दस फ़क़ीरों को खाना खिलाये या उन्हें कपड़ा पहनाये और अगर मर्द अपनी बीवी या औलाद के मरने पर अपना गिरेबान या लिबास फाड़े तो उसके लिए भी यही हुक्म है।
644. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित पर ऊँची आवाज़ से न रोया जाये।
नमाज़े वहशते क़ब्र
645. मुनासिब है कि मैयित के दफ़्न के बाद पहली रात में उसके लिए दो रकत नमाज़े वहशते क़ब्र पढ़ी जाये और उसके पढ़ने का तरीक़ा यह है कि पहली रकत में सूरः ए अलहम्द के बाद एक बार आयतल कुर्सी और दूसरी रकत में हम्द के बाद दस बार सूरः ए इन्ना अनज़लना पढ़े और नमाज़ का सलाम पढ़ने के बाद कहे अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मदिन व आलि मुहम्मद वबअस सवा-बहा इला क़ब्रि----ख़ाली जगह पर मैयित का नाम ले।
646. नमाज़े वहशते क़ब्र, मैयित के दफ़्न करने के बाद पहली रात में किसी भी वक़्त पढ़ी जा सकती है, लेकिन बेहतर यह है कि अव्वले शब में इशा की नमाज़ के बाद पढ़ी जाये।
647. अगर मैयित को किसी दूसरे शहर ले जाना हो या किसी और वजह से उसके दफ़्न में देर हो जाये तो नमाज़े वैहशत को दफ़्न की पहली रात तक मुलतवी कर देना चाहिए।
नब्शे क़ब्र (क़ब्र को खोलना)
648. किसी भी मुसलमान की क़ब्र को खोलना हराम है, चाहे वह बच्चे या पागल इंसान की ही क्यों न हो। लेकिन अगर उसका बदन मिट्टी में मिलकर मिट्टी बन चुका हो तो कोई हरज नही है।
649. इमाम ज़ादों, शहीदों, आलिमों और नेक लोगों की क़ब्रो को उजाड़ना, अगर उनकी बेहुरमती का सबब हो तो हराम है, चाहे उन्हे मरे हुए बरसों गुज़र चुके हों और उनके बदन ख़ाक हो गये हों।
650. कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनमें क़ब्र को खोलना हराम नही है।
1) अगर मैयित को ग़स्बी ज़मीन में दफ़्न कर दिया हो और उसका मालिक उसके वहाँ दफ़्न रहने पर राज़ी न हो।
2) अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो या उसके साथ कोई ग़स्बी चीज़ दफ़्न कर दी गई हो और उसका मालिक इस बात पर रज़ामंद न हो कि वह चीज़ उसके साथ क़ब्र में रहे। या मैयित के माल में से कोई ऐसी चीज़ उसके साथ दफ़्न हो गई हो जो उसके वारिसों को मिलने वाली हो और उसके वारिस इस बात पर राज़ी न हों कि वह चीज़ क़ब्र में रहे। लेकिन अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि दुआ या अंगूठी या क़ुराने करीम उसके साथ दफ़्न किया जाये और उसकी वसीयत पर अमल करते हुए उन चीज़ों को उसके साथ दफ़ना दिया गया हो तो उन चीज़ों को निकालने के लिए क़ब्र को नही खोला जा सकता। इसी तरह कुछ ऐसे मौक़े भी हैं जिनमें अगर ज़मीन या कफ़न ग़स्बी हो या कोई ग़स्बी चीज़ मैयित के साथ दफ़्न हो गई हो तो भी क़ब्र को नही खोला जा सकता मगर यहाँ न अहकाम के ब्यान की गुंजाइश नही है।
3) अगर मैयित को बग़ैर ग़ुस्ल दिये या बग़ैर कफ़न पहनाये दफ़ना दिया गया हो या पता चले कि मैयित का ग़ुस्ल बातिल था, या उसे शरई अहकाम के मुताबिक़ कफ़न नही दिया गया था, या क़ब्र में क़िबला रुख नही लिटाया गया था तो अगर क़ब्र का खोलना मैयित की बेहुरमती का सबब न हो तो उसे खोला जा सकता है।
4) अगर किसी ऐसे हक़ को साबित करने के लिए मैयित के ज़िस्म को देखना ज़रूरी हो, जो क़ब्र खोलने से मुहिम हो।
5) अगर मैयित को किसी ऐसी जगह पर दफ़्न कर दिया गया हो जहाँ उसकी बेहुरमती होती हो, मसलन उसे काफ़िरों के क़ब्रिस्तान में या उस जगह दफ़्न कर दिया गया हो जहाँ कूड़ा करकट डाला जाता हो।
6) अगर किसी ऐसे शरई मक़सद के लिए क़ब्र खोली जाये जिसकी अहमियत क़ब्र खोलने से ज़्यादा हो। मसलन किसी ज़िन्दा बच्चे को ऐसी हामला औरत के पेट से निकालना मक़सद हो जिसे दफ़्न कर दिया गया हो।
7) अगर यह ख़तरा हो कि मैयित को दरिन्दें चीर फाड़ डालेंगे या सैलाब बहा ले जायेगा या दुश्मन निकाल लेगा।
8) अगर मैयित ने वसीयत की हो कि उसे मुक़द्दस मुक़ामात पर दफ़्न किया जाये और वहाँ ले जाने में उसकी बेहुरमती भी न होती हो, मगर जान बूझ कर या भूले से उसे किसी दूसरी जगह दफ़्ना दिया गया हो तो बेहुरमती न होने की सूरत में क़ब्र खोल कर उसे मुक़द्दस मक़ामात पर ले जा सकते हैं।


नमाज़ी के लिबास की शर्तें
806. नमाज़ पढ़ने वाले के लिबास की छः शर्तें हैं।
1.पाक हो।
2.मुबाह हो।
3.मुर्दार के अज्ज़ा से न बना हो।
4.हराम गोश्त जानवर के अज्ज़ा से न बना हो।
5.अगर नमाज़ पढ़ने वाला मर्द हो तो सका लिबास ख़ालिस रेशम का न हो।
6. अगर नमाज़ पढ़ने वाला मर्द हो तो सका लिबास ज़रदोज़ी का न हो।
इन शर्तों की तफ़्सील आने वाले मसलों में ब्यान की जायेगी।
पहली शर्त
807. नमाज़ पढ़ने वाले के लिबास का पाक होना ज़रूरी है। अगर कोई इंसान इख़्तियार की हालत में नजिस बदन या नजिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ बातिल है।
808. अगर कोई इंसान अपनी कोताही की वजह से यह न जानता हो कि नजिस लिबास व नजिस जिस्म के साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है, और नजिस जिस्म या लिबास के साथ नमाज़ पढ़े तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
809. अगर कोई इंसान मसला न जानने की बिना पर कोताही की वजह से किसी नजिस चीज़ के बारे में न जानता हो कि यह नजिस है, मसलन यह न जानता हो कि काफ़िर का पसीना नजिस है, और उस पसीने के साथ नमाज़ पढ़ले तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
810. अगर किसी इंसान को यह यक़ीन हो कि उसका बदन या लिबास, नजिस नही है और वह उसी हालत में नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद पता चले कि उसका जिस्म या लिबास नजिस था तो उसकी नमाज़ सही है।
811. अगर कोई इंसान यह भूल जाये कि उसका बदन या लिबास नजिस है और उसे नमाज़ पढ़ते वक़्त या नमाज़ के बाद याद आये तो अगर उसने अपनी लापरवाई और अहमियत न देने की वजह से भुला दिया था तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वह उस नमाज़ को दोबारा पढ़े और अगर वक़्त गुज़र चुका हो तो उसकी क़ज़ा करे। इस सूरत के अलावा ज़रूरी नही है कि वह नमाज़ को दोबारा पढ़े (यानी अगर लापरवाई और कोताही की बिना पर न भुलाया हो तो नमाज़ सही है।) लेकिन अगर नमाज़ के दौरान याद आये तो ज़रूरी है कि उस हुक्म पर अमल करे जो इसके बाद वाले मसले में बयान किया जायेगा।
812. अगर कोई इंसान नमाज़ पढ़ रहा हो और नमाज़ के लिए वक़्त काफ़ी हो और उसे नमाज़ के दौरान पता चले कि उसका बदन या लिबास नजिस है और उसे यह एहतेमाल हो कि नमाज़ शुरू करने के बाद नजिस हुआ है तो इस सूरत में अगर बदन या लिबास पाक करने या लिबास तबदील करने या लिबास उतार देने से नमाज़ न टूटे तो नमाज़ के दौरान ही बदन या लिबास पाक करे या लिबास तबदील करे या अगर उसकी शर्म गाह किसी और चीज़ से छुपी है तो लिबास उतार दे। लेकिन अगर बदन या लिबास पाक करने या लिबास बदलने से नमाज़ टूटती हो या लिबास उतारने की सूरत में बरैहना (नंगा) होना ज़रूरी हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि पाक लिबास के साथ दोबारा नमाज़ पढ़े।
813. अगर कोई इंसान तंग वक़्त में नमाज़ पढ़ रहा हो और नमाज़ के दैरान उसे पता चले कि उसका लिबास नजिस है और उसे यह एहतेमाल हो कि यह नमाज़ शुरू करने के बाद नजिस हुआ है तो इस सूरत में अगर लिबास पाक करने या तबदील करने या उतारने से नमाज़ न टूटती हो और वह लिबास उतार सकता हो तो ज़रूरी है कि लिबास को पाक करे या लिबास तबदील करे या अगर किसी और चीज़ ने उसकी शर्म गाह को छुपा रखा हो तो लिबास उतार दे और नमाज़ ख़त्म करे लेकिन अगर किसी और चीज़ ने उसकी शर्मगाह को न छुपा रखा हो और वह न लिबास पाक कर सकता हो और न उतार सकता हो तो ज़रूरी है कि उसी नजिस लिबास के साथ नमाज़ को तमाम करे।
814. अगर कोई इंसान तंग वक़्त में नमाज़ पढ़ रहा हो और नमाज़ के दौरान उसे पता चले कि उसका बदन नजिस है और उसे यह एहतेमाल हो कि यह नमाज़ शुरू करने के बाद नजिस हुआ है तो अगर सूरत यह हो कि बदन पाक करने से नमाज़ न टूटती हो तो बदन को पाक करे और अगर नमाज़ टूटती हो तो उसी हालत में नमाज़ को तमाम करे, उसकी नमाज़ सही है।
815. अगर कोई इंसान अपने बदन या लिबास के नजिस होने में शक करे और छान-बीन के बाद कोई चीज़ न पाकर नमाज़ शुरू कर दे और नमाज़ के बाद पता चले कि उसका बदन या लिबास नजिस था तो उसकी नमाज़ सही है, लेकिन अगर उसने नमाज़ से पहले छान बीन न की हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि नमाज़ दोबारा पढ़े और अगर वक़्त ख़त्म हो चुका हो तो उसकी क़ज़ा करे।
816. अगर कोई इंसान अपना लिबास धोये और उसे यक़ीन हो जाये कि लिबास पाक हो गया है और वह उसे पहन कर नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद पता चले कि लिबास पाक नही हुआ था तो उसकी नमाज़ सही है।
817. अगर कोई इंसान अपने बदन या लिबास पर खून देखे और उसे यक़ीन हो कि यह नजिस खूनों में से नही है, मसलन उसे यक़ीन हो कि यह मच्छर का ख़ून है और वह उसी हालत में नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद पता चले कि वह ख़ून नजिस है तो उसकी नमाज़ सही है।
818. अगर किसी इंसान को यक़ीन हो कि उसके बदन या लिबास पर जो ख़ून लगा है वह ऐसा ख़ून है कि उसके साथ नमाज़ पढ़ना सही है, मसलन उसे यक़ीन हो कि यह ज़ख़्म या फोड़े का ख़ून है और वह उसी हालत में नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद पता चले कि वह ऐसा ख़ून है जिसके साथ नमाज़ बातिल है तो उसकी नमाज़ सही है।
819. अगर कोई इंसान किसी चीज़ के नजिस होने के बारे में भूल जाये और गीला बदन या लिबास उस चीज़ से छू जाये और इसी भूल के आलम में वह उसके साथ नमाज़ पढ़ले और नमाज़ के बाद उसे याद आये तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर उसका गीला बदन उस चीज़ को छू जाये जिसकी निजासत के बारे में वह भूल गया है और अपने आपको पाक किये बग़ैर ग़ुस्ल करके नमाज़ पढ़े तो उसका ग़ुस्ल और नमाज़ दोनों बातिल हैं। लेकिन अगर ग़ुस्ल करने से बदन भी पाक हो जाये तो इस सूरत में नमाज़ और ग़ुस्ल दोनों सही हैं और अगर वुज़ू के हिस्सों में से कोई हिस्सा उस चीज़ से छू जाये जिसकी निजासत के बारे में वह भूल गया था तो और वह उस हिस्से को पाक किये बग़ैर वुज़ू करके नमाज़ पढ़ले तो उसका वुज़ू और नमाज़ दोनों बातिल हैं। लेकिन अगर वुज़ू करने से वुज़ू के हिस्से भी पाक हो जायें तो वुज़ू और नमाज़ दोनों सही हैं।
820. जिस इंसान के पास सिर्फ़ एक लिबास हो अगर उसका बदन व लिबास दोनों नजिस हो जायें और उसके पास उनमें से सिर्फ़ एक ही को पाक करने के लिए पानी हो, तो एहतियाते लाज़िम यह है कि बदन को पाक करे और नजिस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े, लिबास को पाक करके नजिस बदन के साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नही है। लेकिन अगर लिबास की निजासत बदन की निजासत से बहुत ज़्यादा हो या लिबास की निजासत बदन की निजासत के लिहाज़ से ज़्यादा शदीद हो, तो उसे इख़्तियार है कि लिबास और बदन में से जिसे चाहे पाक करे।
821. जिस इंसान के पास नजिस लिबास के अलावा, दूसरा कोई लिबास न हो, उसके लिए ज़रूरी है कि नजिस लिबास के साथ ही नमाज़ पढ़े, उसकी नमाज़ सही है।
822. जिस इंसान के पास दो लिबास हों और वह यह जानता हो कि इनमें से एक नजिस है, लेकिन यह न जानता कि कौन सा नजिस है तो अगर उसके पास वक़्त हो तो ज़रूरी है कि दोनो के साथ नमाज़ पढ़े (यानी एक बार एक लिबास पहन कर और दूसरी बार दूसरा लिबास पहन कर वही नमाज़ पढ़े), मसलन अगर वह ज़ोह्र और अस्र की नमाज़ पढ़ना चाहे तो ज़रूरी है कि हर एक लिबास से एक नमाज़ ज़ोह्र की और एक नमाज़ अस्र की पढे। लेकिन अगर वक़्त तंग हो तो जिस लिबास के साथ भी नमाज़ पढ़े काफ़ी है
दूसरी शर्त
823. नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास मुबाह होना ज़रूरी है। अगर कोई ऐसा इंसान जो जानता हो कि ग़स्बी लिबास पहनना हराम है या कोताही की वजह से मस्अला का हुक्म न जानता हो और जान बूझ कर उस लिबास में नमाज़ पढ़ तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर लिबास में वह चीज़ें शामिल हों जो तन्हा शर्मगाह को न ढक सकती और इसी तरह वह चीज़ें जिनसे शर्मगाह को तो ढाँपा जा सकता हो, लेकिन नमाज़ पढ़ने वाले ने उन्हे हालते नमाज़ में न पहन रखा हो, मसलन बड़ा रूमाल यो लंगोटी जो जेब में रखी हो और इसी तरह वह चीज़ें जिन्हें नमाज़ी ने पहन रखा हो लेकिन शर्मगाह को मुबाह कपड़े से छुपा रखा हो तो, ऐसी तमाम सूरतों में उन (इज़ाफ़ी) चीज़ों के ग़स्बी होने से नमाज़ पर कोई फ़र्क़ नही पड़ता, अगरचे एहतियात यह है कि उन्हें अलग कर दिया जाये।
824. जो इंसान यह जानता हो कि ग़स्बी लिबास पहनना हराम है, लेकिन यह न जानता हो कि ग़स्बी लिबास में नमाज़ पढ़ने से नमाज़ बातिल हो जाती है, तो अगर वह ग़स्बी लिबास में नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है, जैसा कि इससे पहले मस्अले में तफ्सील से बताया जा चुका है।
825. अगर कोई इंसान यह न जानता हो कि उसका लिबास ग़स्बी है या उसके ग़स्बी होने को भूल जाये और उस लिबास में नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर वह इंसान ख़ुद उस लिबास को ग़स्ब करे और फिर भूल जाये कि उसने ग़स्ब किया है और उसी लिबास में नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
826. अगर किसी इंसान को मालूम न हो या भूल जाये कि उसका लिबास ग़स्बी है और वह उस लिबास में नमाज़ पढ़ने लगे और नमाज़ के दौरान उसे पता चले या याद आये कि यह लिबास ग़स्बी है तो अगर उसकी शर्मगाह किसी दूसरी चीज़ से ढकी हुई हो और वह फ़ौरन या नमाज़ का तसल्सुल तोड़े बग़ैर ग़स्बी लिबास उतार सकता हो तो ज़रूरी है कि फौरन उस लिबास को उतार दे और अगर उसकी शर्मगाह किसी दूसरी चीज़ से ढकी हुई न हो या वह ग़स्बी लिबास को फ़ौरन न उतार सकता हो या अगर लिबास उतारने से नमाज़ का तसल्सुल टूटता हो तो अगर उसके पास एक रकअत पढ़ने के बराबर वक़्त भी हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ को तोड़ दे और मुबाह लिबास पहन कर नमाज़ पढ़े और अगर इतना वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि नमाज़ की हालत में ही लिबास उतार दे और "बरैहना लोगों की नमाज़ के हुक्म के मुताबिक़" नमाज़ को तमाम करे।
827. अगर कोई इंसान अपनी जान की हिफ़ाज़त के लिए ग़स्बी लिबास में नमाज़ पढ़े या मिसाल के तौर पर ग़स्बी लिबास में इसलिए नमाज़ पढ़े कि चोरी न हो सके तो उसकी नमाज़ सही है।
828. अगर कोई इंसान उस रक़्म से लिबास ख़रीदे जिसका ख़ुम्स अदा न किया गया हो तो उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने का वही हुक्म है, जो ग़स्बी लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने का हुक्म है।
तीसरी शर्त
829. ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास (यहाँ तक कि वह चीज़ें भी जो तन्हा शर्मगाह को न छुपा सकती हों) एहतियाते लाज़िम की बिना पर ख़ून जहिन्दादार[1], मुर्दा जानवर के अज्ज़ा से न बनी हो, बल्कि अगर लिबास ग़ैरे ख़ूने जहिन्दादार[2] मुर्दा जानवर, मसलन मछली और साँप के अजज़ा से भी तैयार किया जाये, तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उसमें भी नमाज़ न पढ़ी जाये।
830. अगर नजिस मुरदार की कोई ऐसी चीज़ जिसमें रूह होती है, मसलन गोश्त और खाल, नमाज़ पढ़ने वाले के साथ हो तो उसकी नमाज़ का सही होना बईद नही है।
831. अगर हलाल गोश्त मुरदार की कोई ऐसी चीज़ जिसमें रूह नही होती, मसलन बाल और रुवा, नमाज़ पढ़ने वाले के साथ हो या उन चीज़ों से बनाये गये लिबास में नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सही है।
चौथी शर्त
832. ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास (उन चीज़ों के अलावा जो तन्हा शर्मगाह को न छुपा सकती हों, जैसे जुराब) दरिन्दों के अज्ज़ा से तैयार किया हुआ न हो, बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर हर उस जानवर के अज्ज़ा से बना हुआ न हो जिसका गोश्त खाना हराम है। इसी तरह ज़रूरी है कि नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास और बदन हराम गोश्त जानवर के पेशाब, पख़ाने, पसीने, दूध और बाल से आलूदा न हो, लेकिन अगर हराम गोश्त जानवर का एक बाल उसके लिबाल पर लगा हो तो कोई हरज नही है। अगर नमाज़ गुज़ार के साथ इनमें से कोई चीज़ डिबीया या बोतल वग़ैरह में बंद रखी हो तो तब भी कोई हरज नही है।
833. अगर हराम गोश्त जानवर के मुँह या नाक का पानी या कोई दूसरी रतुबत नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर लगी हो और तर हो तो नमाज़ बातिल है। लेकिन अगर वह ख़ुश्क हो चुकी हो और उसका ऐन जुज़ ख़त्म हो गया हो तो नमाज़ सही है।
834. अगर किसी का बाल या पसीना या थूक नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर लगा हो तो कोई हरज नही है। इसी तरह मर्वारीद, मोम और शहद लगे कपड़े या बदन के साथ भी नमाज़ जाइज़ है।
835. अगर किसी को शक हो कि लिबास हलाल गोश्त जानवर से तैयार किया गया है या हराम गोश्त जानवर से तो चाहे वह उसी शहर में तैयार किया गया हो या दूसरी जगह से मंगाया गया हो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
836. चूंकि मालूम नही है कि सीपी हराम गोश्त जानवर के अज्ज़ा में से है, लिहाज़ा सीप के बटन वग़ैरह के साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
837. समूर का लिबास (mink fur) और इसी तरह गिलहरी की पोस्तीन पहन कर नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है, लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि गिलहरी की पोस्तीन के साथ नमाज़ न पढ़ी जाये।
838. अगर कोई इंसान ऐसे लिबाल में नमाज़ पढ़े, जिसके बारे में न जानता हो या भूल गया हो कि यह हराम गोश्त जानवर से तैयार हुआ है तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उस नमाज़ को दोबारा पढ़े।
पाँचवी शर्त
839. ज़रदोज़ी (सोने के तारो से कढ़े हुआ) का लिबास पहनना मर्दों के लिए हराम है और उसमें नमाज़ पढ़ना बातिल है, लेकिन औरतों के लिए नमाज़ में या नमाज़ के अलावा उसके पहनने में कोई हरज नही।
840. सोना पहनना मसलन सोने की ज़जीर गले में पहनना, सोने का अंगूठी हाथ में पहनना, सोने की घड़ी कलाई पर बाँधना और सोने की ऐनक लगाना मर्दों के लिए हराम है और इन चीज़ों के साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है। लेकिन औरतों के लिए नमाज़ में और नमाज़ के अलावा इन चीज़ों के इस्तेमाल में कोई हरज नही है।
841. अगर कोई इंसान न जानता हो या भूल गया हो कि उसकी अंगूठी या लिबास सोने का है या उसके बारे में शक हो और उसके साथ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सही है।
छटी शर्त
842. नमाज़ पढ़ने वाले मर्द का लिबास, यहाँ तक कि एहतियाते मुस्तहब की बिना पर टोपी और इज़ारबंद भी, ख़ालिस रेशम का नही होना चाहिए और नमाज़ के अलावा भी ख़ालिस रेशम पहनना मर्दों के लिए हराम है।
843. अगर लिबास का तमाम अस्तर या उसका कुछ हिस्सा ख़ालिस रेशम का हो तो मर्द के लिए उसका पहनना हराम और उसके साथ नमाज़ पढ़ना बातिल है।
844. जब किसी लिबास के बारे में यह इल्म न हो कि ख़ालिस रेशम का है या किसी और चीज़ का बना हुआ है तो उसका पहनना जाइज़ है और उसके साथ नमाज़ पढ़ने में भी कोई हरज नही है।
845. रेशमीन रूमाल या उसी जैसी कोई दूसरी चीज़ मर्द की जेब में हो तो कोई हरज नही है और वह नमाज़ को बातिल नही करती।
846. औरत के लिए नमाज़ में या उसके अलावा रेशमीन लिबास पहनने में कोई हरज नही है।
847. मजबूरी की हालत में ग़स्बी, ख़ालिस रेशमी और ज़रदोज़ी का लिबास पहनने में कोई हरज नही है। जो इंसान लिबास पहनने पर मजबूर हो और उसके पास इनके अलावा और कोई लिबास न हो तो वह इन लिबासों में नमाज़ पढ़ सकता है।
848. अगर किसी इंसान के पास ग़स्बी लिबास के अलावा दूसरा कोई लिबास न हो और वह यह लिबास पहनने पर मजबूर न हो तो उसे चाहिए कि उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरैहना लोगों के लिए बताये गये हैं।
849. अगर किसी के पास दरिन्दे के अज्ज़ा से बने हुए लिबास के अलावा और कोई लिबास न हो और वह उस लिबास को पहनने पर मजबूर हो तो उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़ सकता है और अगर लिबास पहनने पर मजबूर न हो तो उसे चाहिए कि उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरैहना लोगों के लिए बताये गयें हैं और अगर उसके पास ग़ैरे शिकारी हराम जानवरों के अज्ज़ा से तैयार शुदा लिबास के अलावा दूसरा लिबास न हो और वह उस लिबास को पहनने पर मजबूर न हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि दो दफ़ा नमाज़ पढ़े, एक बार उसी लिबास के साथ और एक बार उस तरीक़े के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बरैहना लोगों की नमाज़ में बयान हो चुका है।
850. अगर किसी मर्द के पास ख़ालिस रेशमी या ज़रदोज़ी लिबास के अलावा दूसरा कोई लिबास न हो और वह उस लिबास को पहनने पर मजबूर न हो तो ज़रूरी है कि उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरहैना लोगों के लिए बताये गये हैं।
851. अगर किसी के पास ऐसी कोई चीज़ न हो जिससे वह अपनी शर्मगाहों को नमाज़ में ढाँप सके तो वाजिब है कि ऐसी चीज़ किराये पर ले या ख़रीदे। लेकिन अगर इस काम के लिए उसे अपनी हैसियत से ज़्यादा ख़र्च करना पड़ता हो, या सूरत यह हो कि पैसे लिबास पर ख़र्च करने से उसकी हालत ख़राब होती हो, तो उन अहकाम के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े जो बरैहना लोगों के लिए बताये गये हैं।
852. जिस इंसान के पास लिबास न हो अगर उसे कोई दूसरा इंसान उसे लिबास बख़्श दे या उधार दे दे, तो अगर लिबास क़बूल करना उस पर गराँ न गुज़रता हो तो ज़रूरी है कि उसे क़बूल करे, बल्कि अगर उधार लेना या बख़्शिश के तौर पर तलब करना उसके लिए तकलीफ़ का बाइस न हो तो ज़रूरी है कि जिसके पास लिबास हो, उससे उधार माँगे या बख़्शिश के तौर पर तलब करे।
853. अगर कोई इंसान ऐसा लिबास पहनना चाहे जिसका कपड़ा, रंग या सिलाई रिवाज के मुताबिक़ न हो, अगर उसका पहनना उसकी शान के ख़िलाफ़ और तौहीन का बाइस हो, तो उसका पहनना हराम है। लेकिन अगर वह उस लिबास के साथ नमाज़ पढ़े और उसके पास शर्मगाह छिपाने के लिए फ़क़त वही लिबास हो तो उसकी नमाज़ सही है।
854. अगर मर्द ज़नाना लिबास पहने और औरत मर्दाना लिबास पहने और उसे अपनी ज़ीनत क़रार दे तो एहतियात की बिना पर उसका पहनना हराम है, लेकिन उस लिबास में नमाज़ पढ़ना हर सूरत में सही है।
855. जिस इंसान को लेटकर नमाज़ पढ़नी चाहिए अगर उसका लिहाफ़ दरिन्दे के अज्ज़ा से बल्कि एहतियात की बिना पर हराम गोश्त जानवर के अज्ज़ा से बना हो या नजिस हो या रेशमी हो और उसे पहनना कहा जा सके, तो उससे भी नमाज़ जाइज़ नही है। लेकिन अगर उसे महज़ अपने ऊपर डाल लिया जाये तो इसमें कोई हरज नही है और इससे नमाज़ बातिल नही होगी। अलबत्ता गद्दे के इस्तेमाल में किसी भी हालत में कोई बुराई नही है इसके अलावा कि उसका कुछ हिस्सा इंसान अपने ऊपर लपेट ले और उसे उर्फ़े आम में पहनना कहा जाये, तो इस सूरत में उसका वही हुक्म है जो लिहाफ़ का है।
वह सूरतें जिन में नमाज़ी का बदन और लिबास पाक होना ज़रूरी नहीं है।
856. तीन सूरतों में, जिनकी तफ़सील नीचे बयान की जा रही है, अगर नमाज़ पढ़ने वाले का बदन या लिबास नजिस भी हो तो उसकी नमाज़ सही है:
1- उसके बदन पर ज़ख़्म, जराहत या फोड़ा होने की वजह से उसके लिबास या बदन पर ख़ून लग जाये।
2- उसके बदन या लिबास पर दिरहम (जिसकी मिक़दार तक़रीबन हाथ के अंगूठे के ऊपर वाले पोरवे के बराबर है) की मिक़दार से कम ख़ून लगा हो।
3- वह नजिस बदन या लिबास के साथ नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो। इसके अलावा एक और सूरत में अगर नमाज़ पढ़ने वाले का लिबास नजिस भी हो तो उसकी नमाज़ सही है और वह सूरत यह है कि उसका छोटा लिबास, मसलन मोज़ा और टोपी नजिस हो।
इन चारो सूरतों के मुफ़स्सल अहकाम आईन्दा मसअलों में बयान किये जायेगें।
857. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर ज़ख्म या जराहत या फोड़े का ख़ून हो तो वह उस ख़ून के साथ उस वक़्त तक नमाज़ पढ़ सकता है जब तक ज़ख्म या जराहत या फोड़ा ठीक न हो जाये, और अगर उसके बदन या लिबास पर ऐसी पीप हो जो ख़ून के साथ निकली हो या ऐसी दवा हो जो ज़ख़्म पर लगाई गयी हो और नजिस हो गयी हो, तो उसके लिए भी यही हुक्म है।
858. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर ऐसी ख़राश या ज़ख़्म का ख़ून लगा हो जो जल्दी ठीक हो जाता हो और जिसका धोना आसान हो तो उसकी नमाज़ बातिल है।
859. अगर बदन या लिबास की ऐसी जगह, जो ज़ख्म से फ़ासिले पर हो, ज़ख़्म की रतूबत से नजिस हो जाये तो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नही है। लेकिन अगर लिबास या बदन की वह जगह जो आम तौर पर ज़ख़्म की रुतूबत से गीली हो जाती है, उस ज़ख़्म की रूतूबत से नजिस हो जाये तो उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है।
860. अगर किसी इंसान के बदन या लिबास पर, उस बवासीर से जिसके मस्से बाहर न हों या उस ज़ख़्म से जो मुँह और नाक वग़ैरह के अन्दर हो, ख़ून लग जाये तो ज़ाहिर यह है कि वह उसके साथ नमाज़ पढ़ सकता है। अलबत्ता जिस बवासीर के मस्से बाहर हों उसके ख़ून के साथ नमाज़ पढ़ना बिला इशकाल जाइज़ है।
861. अगर कोई ऐसा इंसान जिसके बदन पर ज़ख़्म हो अपने बदन या लिबास पर ऐसा ख़ून देखे जो दिरहम से ज़्यादा हो और यह न जानता हो कि यह ख़ून ज़ख़्म का है या कोई और ख़ून है, तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस ख़ून के साथ नमाज़ न पढ़े।
862. अगर किसी इंसान के बदन पर चंद ज़ख़्म हों और वह एक दूसरे के इस क़दर नज़दीक हों कि एक ज़ख़्म शुमार होते हों तो जब तक वह ज़ख़्म ठीक न हो जायें, उनके ख़ून के साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है,लेकिन अगर वह एक दूसरे से इतने दूर हों कि उनमें से हर ज़ख़्म एक अलैहदा ज़ख़्म शुमार होता हो तो जो ज़ख़्म ठीक हो जाये, नमाज़ के लिए अपने बदन और लिबास को उस ज़ख़्म के ख़ून से पाक करे।
863. अगर नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास पर सुईँ की नोक के बराबर भी हैज़ का ख़ून लगा हो तो उसकी नमाज़ बातिल है और एहतियात की बिना पर नजिस जानवर, मुर्दार, हराम गोश्त जानवर और निफास व इस्तेहाज़ा के खून का भी यही हुक्म है। लेकिन अगर किसी दूसरे ख़ून छींटें (मसलन इंसान या हलाल गोश्त जानवर के ख़ून की छींटें) बदन के कई हिस्सों पर लगी हो और वह सब मिला कर एक दिरहम से कम हों तो उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है।
864. जो ख़ून बग़ैर अस्तर के कपड़े पर गिरे और दूसरी तरफ़ पहुँच जाए, वह एक ख़ून शुमार होता है। लेकिन अगर कपड़े की दूसरी तरफ़ अलग से ख़ून कोई ख़ून लग जाये तो उनमें से हर एक को अलैहदा ख़ून शुमार किया जायेगा। बस वह ख़ून जो कपड़े की दोनों तरफ़ लगा है, अगर कुल मिला कर एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ नमाज़ सही है और अगर उससे ज़्यादा हो तो उसके साथ नमाज़ बातिल है।
865. अगर अस्तर वाले कपड़े ख़ून गिरे और उसके अस्तर तक पहुच जाये या अस्तर पर गिरे और कपड़े कर पहुच जाये तो ज़रूरी है कि हर ख़ून को अलग शुमार किया जाये। लेकिन अगर कपड़े का ख़ून और अस्तर का ख़ून इस तरह मिल जाये कि लोगों के नज़दीक एक ख़ून शुमार हो तो अगर कपड़े का ख़ून और अस्तर का ख़ून मिलाकर एक दिरहम से कम हो तो उसके साथ नमाज़ सही है और अगर ज़्यादा हो तो नमाज़ बातिल है।
866. अगर बदन या लिबास पर एक दिरहम से कम ख़ून लगा हो और कोई रतूबत उस ख़ून से मिल जाये और उसके अतराफ़ को गीला कर दे तो उसके साथ नमाज़ बातिल है, चाहे वह ख़ून और जो रतूबत उससे मिली है एक दिरहम के बराबर न हो, लेकिन अगर रतूबत सिर्फ़ ख़ून से मिले और उसके अतराफ़ को गीला न करे तो ज़ाहिर यह है कि उसके साथ नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है।
867. अगर बदन या लिबास पर ख़ून न हो, लेकिन रतूबत लगने की वजह से ख़ून से नजिस हो जायें, तो अगर नजिस होने वाला हिस्सा एक दिरहम से कम भी हो तो उसके साथ नमाज़ नही पढ़ी जा सकती।
868. अगर बदन या लिबास पर मौजूद ख़ून एक दिरहम से कम हो और उससे कोई दूसरी निजासत आ लगे, मसलन पेशाब का एक क़तरा उस पर गिर जाए और बदन या लिबास से लग जाए तो उसके साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ नही है। बल्कि अगर बदन और लिबास तक न भी पहुँचे तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसमें नमाज़ पढ़ना सही नही है।
869. अगर नमाज़ पढ़ने वाले का कोई ऐसा छोटा लिबास (मसलन टोपी और मोज़ा) जिससे शर्मगाह को न ढाँपा जा सकता हो, नजिस हो जाये और एहतियाते लाज़िम की बिना पर वह नजिस मुर्दार या नजिसुल ऐन जानवर, मसलन कुत्ते के अज्ज़ा से न बना हो, तो उसके साथ नमाज़ सही है। इसी तरह अगर नजिस अंगूठी पहन कर भी नमाज़ पढ़ी जाये तो कोई हरज नही।
870. नमाज़ी का अपने साथ किसी नजिस चीज़, मसलन नजिस रुमाल, चाबी या चाक़ू को रखना जाइज़ है। अगर कोई पूरा नजिस लिबास भी उसके पास हो (जो उसने पहन न रखा हो) तो भी बईद नही कि उसकी नमाज़ को कोई ज़रर पहुँचाए।
871. अगर कोई जानता हो कि जो ख़ून उसके लिबास या बदन पर लगा है, वह एक दिरहम से कम है, लेकिन उसे इस बात का एहतेमाल हो कि यह उस ख़ून में से है, जो मुआफ़ नही है, तो उसके लिए उस ख़ून के साथ नमाज़ पढ़ना जाइज़ है और उसका धोना ज़रूरी नही है।
872. अगर किसी इंसान के लिबास या बदन पर मौजूद ख़ून एक दिरहम से कम हो और उसे यह मालूम न हो कि यह उन ख़ूनों में से है जो मुआफ़ नही है और वह उसी हालत में नमाज़ पढ़ ले और फिर उसे पता चले कि यह उन ख़ूनों में से था, जो मुआफ़ नही है, तो उसके लिए दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नही है। इसी तरह अगर कोई यह समझे कि ख़ून एक दिरहम से कम है और उसी हालत में नमाज़ पढ़ ले और बाद में पता चले कि उसकी मिक़दार एक दिरहम या उससे ज़्यादा थी तो इस सूरत में भी दोबारा नमाज़ पढ़ना ज़रूरी नही है।
वह चीज़ें जो नमाज़ी के लिबास में मुस्तहब हैं
873. कुछ चीज़ें नमाज़ी के लिबास में मुस्तहब है, जैसे- अम्मामे का तहतुल हनक लटकाना, अबा ओढ़ना, सफ़ेद लिबास पहनना, साफ़ लिबास पहनना, ख़ूशबू लगाना और अक़ीक़ की अंगूठी पहनना।
वह चीज़ें जो नमाज़ी के लिबास में मकरूह हैं
874. कुछ चीज़ें नमाज़ी के लिबास में मकरूह हैं, जैसे- स्याह, मैला और तंग लिबास पहनना, शराबी का लिबास पहनना या उस इंसान का लिबास पहनना जो निजासत से परहेज़ न करता हो और ऐसा लिबास पहनना जिस पर चेहरे की तस्वीर बनी हो। इसके अलावा लिबास के बटनों का ख़ुला होना और ऐसी अंगूठी पहनना भी मकरूह है, जिस पर चेहरे की तस्वीर बनी हो ।
[1] ख़ूने जहिन्दादार जानवर, वह होते हैं, जिनकी रगे काटने पर उनके अन्दर से ख़ून छल कर निकलता है, जैसे भेड़, बकरी, भैंस.....
[2] ग़ैरे ख़ूने जहिन्दादार जानवर, वह होते हैं, जिन्हें काटने पर उनके अन्दर से ख़ून उछल कर नही निकलता है, जैसे मच्छर, मक्ख़ी, साँप, मछली.......
नमाज़ में बदन का ढाँपना
(796) ज़रूरी है कि मर्द चाहे उसे कोई भी न देख रहा हो नमाज़ की हालत में अपनी शर्मगाहों को ढाँपे और बेहतर यह है कि नाफ़ से घुटनों तक बदन भी ढाँपे।
(797) ज़रूरी है कि औरत नमाज़ के वक़्त अपना पूरा बदन हत्ता कि सर और बाल भी ढाँपे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि पाँव के तलवे भी ढ़ाँपे। अलबत्ता चेहरे का जितना हिस्सा वुज़ू में धोया जाता है वह और कलाइयों तक हाथ और टख़नों तक पाँव का ज़हिरी हिस्सा ढांपना ज़रूरी नही है। लेकिन यह यक़ीन करने के लिए कि उसने बदन की वाजिब मिक़दार ढ़ाँप ली है ज़रूरी है कि चहरे के अतराफ़ का कुछ हिस्सा और कलाइयों से नीचे तक का कुछ हिस्सा भी ढाँपे।
(798) जब इंसान भूले हुए सजदे या भुले हुए तशह्हुद की क़ज़ा बजाला रहा हो तो ज़रूरी है कि अपने आपको इस तरह ढाँपे जिस तरह नमाज़ के वक़्त ढ़ाँपा जाता है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि सजदा-ए- सहव अदा करते वक़्त भी अपने आप को ढाँपे।
(799) अगर इंसान जान बूझकर या मसला न जानने की वजह से ग़लती करते हुए नमाज़ में अपनी शर्मगाह न ढाँपे तो उसकी नमाज़ बातिल है।
(800) अगर किसी इंसान को नमाज़ के दौरान पता चले कि उसकी शर्मगाह खुली है तो उसके लिए अपनी शर्मगाह को छुपाना ज़रूरी है लेकिन उस पर नमाज़ को दोबारा पढ़ना लाज़िम नहीं है। मगर एहतियात यह है कि जब उसे पता चले कि उसकी शर्मगाह नंगी है हो उसके बाद नमाज़ का कोई ज़ुज़ अंजाम न दे। लेकिन अगर उसे नमाज़ के बाद पता चले कि नमाज़ के दौरान उसकी शर्मगाह नंगी थी तो उसकी नमाज़ सही है।
(801) अगर किसी इंसान का लिबास ख़ड़े होने की हालत में उसकी शर्मगाह को ढाँपले लेकिन मुमकिन हो कि दूसरी हालत में मसलन रूकू और सजदे की हालत में न ढाँपे, तो अगर शर्मगाह के नंगे होने के वक़्त उसे किसी ज़रिए से ढाँप ले तो उसकी नमाज़ सही है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस लिबास के साथ नमाज़ न पढे।
(802) इंसान नमाज़ में अपने आपको फूंस और दरख़तों के (बड़े) पत्तों से ढाँप सकता है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन चीज़ों से उस वक़्त ढांपे जब उसके पास कोई और चीज़ न हो।
(803) अगर इंसान के पास मजबूरी की हालत में शर्मगाह को छुपाने के लिए कोई चीज़ न हो तो वह अपनी शर्मगाह की खाल को ज़ाहिर न होने से बचाने के लिए उसे गारे या ऐसी ही किसी दूसरी चीज़ से लेप पोत कर छुपा सकता है।
(804) अगर किसी इंसान के पास कोई ऐसी चीज़ न हो जिससे वह नमाज़ में अपने आपको ढांपे और अभी वह ऐसी चीज़ मिलने से मायूस भी न हो तो बेहतर यह है कि नमाज़ पढ़ने में देर करे और अगर कोई चीज़ न मिले तो आख़िरी वक़्त में अपने वज़ीफ़े के मुताबिक़ नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर वह अव्वले वक़्त में नमाज़ पढ़े और असका उज़्र आख़िर वक़्त में बाक़ी न रहे तो एहतियाते वाजिब यह है कि नमाज़ को दोबारा पढ़े।
(805) अगर किसी ऐसे इंसान के पास जो नमाज़ पढ़ना चाहता हो, अपने बदन को ढांपने के लिए दरख़्तों के पत्ते, घास, गारा या दलदल न हो और आख़िर वक़्त तक किसी ऐसी चीज़ के मिलने से मायूस हो जिससे वह अपने आपको छुपा सके, तो अगर उसे इस बात का इत्मिनान हो कि कोई इंसान उसे नहीं देखेगा तो वह ख़ड़ा होकर उसी तरह नमाज़ पढ़े जिस तरह इख़्तियार की हालत में रुकू और सुजूद के साथ नमाज़ पढते हैं। लेकिन अगर उसे इस बात का एहतेमाल हो कि कोई इंसान उसे देख लेगा तो ज़रूरी है कि इस तरह नमाज़ पढ़े कि उसकी शर्मगाह नज़र न आये मसलन बैठ कर नमाज़ पढ़े या रुकू और सुजूद जिस तरह इख़्तेयारी हालत में अंजाम देते हैं इस तरह अंजाम न दे और उनको इशारे से बजा लाए और एहतियाते लाज़िम यह है कि नंगा इंसान नमाज़ की हालत में अपनी शर्मगाह को अपने बाज़ आज़ा के ज़रिए छुपाए मसलन बैठा हो तो दोनों रानों से और खड़ा हो तो दोनों हाथों से।
नमाज़ पढ़ने की जगह
नमाज़ पढ़ने की जगह की सात शर्तें हैं:
पहली शर्त यह है कि वह मुबाह हो।
875. जो इंसान ग़स्बी जगह पर (चाहे वह क़ालीन, तख़्त और इसी तरह की दूसरी चीज़ें ही हों) नमाज़ पढ़ रहा हो, एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है। लेकिन ग़स्बी छत के नीचे और ग़स्बी ख़ैमे में नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है।
876.जिस जगह का मुनाफ़ा किसी और की मिल्कियत हो वहाँ पर मुनाफ़े के मालिक की इजाज़त के बग़ैर नमाज़ पढ़ना ग़स्बी जगह पर नमाज़ पढ़ने के हुक्म में है। मसलन अगर किराये के मकान में, मालिके मकान या कोई दूसरा इंसान उस इंसान की इजाज़त के बग़ैर जिसने वह मकान किराये पर लिया है, नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है। इसी तरह अगर मरने वाले ने वसीयत की हो कि उसके माल का तीसरा हिस्सा फ़ुलाँ काम पर ख़र्च किया जाये तो जब तक तीसरे हिस्से को जुदा न किया जाये, उसकी जायदाद में नमाज़ नही पढ़ी जा सकती।
877.अगर कोई इंसान मस्जिद में बैठा हो और दूसरा इंसान उसे बाहर निकाल कर उसकी जगह क़ब्ज़ा ले और उस पर नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ सही है, अगरचे उसने गुनाह किया है।
878. अगर कोई इंसान किसी ऐसी जगह नमाज़ पढ़े, जिसके ग़स्बी होने का उसे इल्म न हो और नमाज़ के बाद उसे पता चले या ऐसी जगह नमाज़ पढ़े जिसके ग़स्बी होने को वह भूल गया हो और नमाज़ के बाद उसे याद आये तो उसकी नमाज़ सही है। लेकिन अगर कोई ऐसा इंसान जिसने वह जगह ख़ुद ग़स्ब की हो और वह भूल गया हो, वहाँ नमाज़ पढ़े तो उसकी नमाज़ एहतियात की बिना पर बातिल है।
879. अगर कोई इंसान जानता हो कि यह जगह ग़स्बी है और इसको इस्तेमाल करना हराम है, लेकिन उसे यह इल्म न हो कि ग़स्बी जगह पर नमाज़ पढ़ने में इशकाल है और वह, वहाँ नमाज़ पढ़े तो एहतियात की बिना पर उसकी नमाज़ बातिल है।
880. अगर कोई इंसान वाजिब नमाज़ सवारी की हालत में पढ़ने पर मजबूर हो और सवारी का जानवर या उसकी ज़ीन या नअल ग़स्बी हो तो उसकी नमाज़ बातिल है और अगर वह इंसान उस जानवर पर सवारी की हालत में मुस्तहब नमाज़ पढ़ना चाहे तो उसका भी यही हुक्म है।
881. अगर कोई इंसान किसी जायदाद में शरीक हो और उसका हिस्सा जुदा न हुआ हो तो वह दूसरे हिस्सेदारों की इजाज़त के बग़ैर न उस जायदाद को काम में ला सकता है और न ही उस पर नमाज़ पढ़ सकता है।
882. अगर कोई इंसान एक ऐसी रक़्म से जायदाद ख़रीदे जिसका ख़ुम्स उसने अदा न किया हो तो उसके लिए उस जायदाद को इस्तेमाल करना हराम है और उसमें उसकी नमाज़ जाइज़ नही है।
883. अगर किसी जगह का मालिक ज़बान से नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दे और इंसान को इल्म हो कि वह दिल से राज़ी नही है तो उस जगह पर नमाज़ पढ़ना जाइज़ नही है और अगर ज़बान से इजाज़त न दे, लेकिन इंसान को यक़ीन हो कि वह दिल से राजी है तो नमाज़ पढ़ना जाइज़ है।
884. जिस मुतवफ़्फ़ी (मरने वाले) ने ज़कात और उस जैसे दूसरे माली वाजिबात अदा न किये हों तो उसकी जायदाद में तसर्रुफ़ करना, अगर वाजिबात की अदायगी में मानेअ न हो, मसलन उसके घर में वरिसों की इजाज़त से नमाज़ पढ़ी जाये तो इशकाल नही है। इसी तरह अगर कोई इंसान वह रक़्म जो मुतवफ़्फ़ी के ज़िम्मे हो अदा कर दे या यह ज़मानत दे कि वह अदा कर देगा तो उसकी जायदाद में तसर्रुफ़ करने में (यानी उसकी जायदाद को इस्तेमाल करने में) कोई हरज नही है।
885. अगर मुतवफ़्फ़ी (मरने वाला) लोगों का मक़रूज़ हो तो उसकी जायदाद में तसर्रुफ़ करना उस मुर्दे की जायदाद में तसर्रुफ़ के हुक्म में है जिसने ज़कात और उसके मानिंद दूसरे माली वाजिबात अदा न किये हों।
886. अगर मुतवफ़्फी के ज़िम्मे क़र्ज़ न हो लेकिन उसके कुछ वारिस कमसिन या मजनून या ग़ैर हाज़िर हों तो उनके वली की इजाज़त के बग़ैर उसकी जायदाद में तसर्रुफ़ हराम है और उसमें नमाज़ जाइज़ नही है।
887. किसी की जायदाद में नमाज़ पढ़ना उस सूरत में जाइज़ है जबकि उसका मालिक सरीहन इजाज़त दे या कोई ऐसी बात कहे, जिससे यह मालूम हो कि उसने नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दी है। मसलन जैसे वह किसी को इजाज़त दे कि मेरी जगह पर बैठो और सोओ इससे समझा जा सकता है कि उसने नमाज़ पढ़ने की भी इजाज़त दे दी है। या इंसान को मालिक के राज़ी होने का दूसरे तरीक़ों से इतमीनान हो।
888. वसीअ व अरीज़ () ज़मीन में नमाज़ पढ़ना जाइज़ है चाहे उसका मालिक कमसिन या मजनून हो या वहाँ नमाज़ पढ़ने पर राज़ी न हो। इसी तरह जो ज़मीनें दरो दीवार के ज़रिये घिरी न हो उनमे भी मालिक की इजाज़त के बग़ैर नमाज़ पढ़ सकते हैं। लेकिन अगर मालिक कमसिन या मजनून हो या उसके राज़ी न होने का गुमान हो तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वहाँ नमाज़ न पढ़ी जाये।
दूसरी शर्त
889. ज़रूरी है कि वाजिब नमाज़ों में नमाज़ी की जगह ऐसी न हो जो हिलने की वजह से नमाज़ी के खड़े होने या रूकूअ और सजदे करने में रुकावट बने, बल्कि एहतियाते लाज़िम की बिना पर उसके बदन के साकिन रहने में भी रुकावट न बने और अगर वक़्त की तंगी या किसी और वजह से ऐसी जगह, मसलन बस, ट्रक, कश्ती या रेलगाड़ी में नमाज़ पढ़े तो जिस क़दर मुमकिन हो बदन के ठहराव और क़िब्ले की सिम्त का ख़्याल रखे और अगर वह क़िब्ले की तरफ़ से से किसी दूसरी तरफ़ मुड़ जाए तो अपना मुँह क़िब्ले की तरफ़ मोड़ दे।
890. जब गाड़ी, कश्ती या रेलगाड़ी वग़ैरह खड़ी हुई हो तो उनमें नमाज़ पढ़ने में कोई हरज नही है। इसी तरह चलती हुई गाड़ी, रेल और किश्ती में नमाज़ पढ़ने में भी कोई हरज नही है, अगर वह इतनी न हिलजुल रही हो कि नमाज़ी के बदन के ठहराव में रुकावट बनें।
891. गेहूँ, जौ और उन जैसे दूसरी अनाज के ढेर पर, जो हिले जुले बग़ैर नही रह सकते, नमाज़ बातिल है। (बोरियों के ढेर मुराद नही हैं।)
तीसरी शर्त
ज़रूरी है कि इंसान ऐसी जगह नमाज़ पढ़े जहाँ नमाज़ पूरी पढ़ लेने का एहतेमाल हो। ऐसी जगह नमाज़ पढ़ना सही नही है जिसके बारे में उसे यक़ीन हो कि मसलन हवा और बारिश या भीड़ भाड़ की वजह से वहाँ पूरी नमाज़ न पढ सकेगा, चाहे वह इत्तेफ़ाक़ से पूरी पढ़ ले।
892. अगर कोई इंसान ऐसी जगह नमाज़ पढ़े, जहाँ ठहरना हराम हो( मसलन किसी ऐसी छत के नीचे जो अंक़रीब गिरने वाली हो) तो वह गुनाहगार तो होगा लेकिन उसकी नमाज़ सही है।
893. किसी ऐसी चीज़ पर नमाज़ पढ़ना सही नही है जिस पर खड़ा होना या बैठना हराम हो मसलन क़ालीन के ऐसे हिस्से पर जहाँ अल्लाह तआला का नाम लिखा हो। चूँकि यह क़स्दे क़ुरबत में मानेअ है इसलिए (नमाज़ पढ़ना) सही नही है।
चौथी शर्त
जिस जगह इंसान नमाज़ पढ़े उसकी छत इतनी नीची न हो कि सीधा खड़ा न हो सके और न ही इतनी कम हो कि रुकूअ और सजदे न किये जा सकें।
894. अगर कोई इंसान ऐसी जगह नमाज़ पढ़ने पर मजबूर हो जहाँ बिल्कुल सीधा खड़ा होना मुमकिन न हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि बैठ कर नमाज़ पढ़े और अगर रूकूअ और सजदे अदा करने मुमकिन न हो तो उनके लिए सर से इशारा करे।
895. ज़रूरी है कि पैगम्बरे अकरम (स.) और आईम्मा ए अहलेबैत (अ.) की क़ब्र के आगे (अगर उनकी बेहुरमती होती हो तो) नमाज़ न पढ़े। इसके अलावा किसी और सूरत में कोई हरज नही है।
पाँचवी शर्त
अगर नमाज़ पढ़ने की जगह नजिस हो तो इतनी गीली न होनी चाहिए कि उसकी रुतूबत नमाज़ पढ़ने वाले के बदन या लिबास तक पहुँचे, लेकिन अगर सजदे में पेशानी रखने की जगह नजिस हो तो चाहे वह ख़ुश्क भी हो नमाज़ बातिल है और एहतियाते मुस्तहब यह है कि नमाज़ पढ़ने की जगह हरगिज़ नजिस न हो।
छटी शर्त
एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि औरत मर्द के पीछे खड़ी हो और कम से कम इतने फ़ासले पर हो कि सजदा की हालत में उसके सजदा करने की जगह मर्द के घुटनों के बराबर हो।
896. अगर कोई औरत मर्द के बराबर या आगे खड़ी हो और दोनों एक साथ नमाज़ पढ़ने लगे तो ज़रूरी है कि दोबारा नमाज़ पढ़े। यही हुक्म उस सूरत में भी है जब कोई एक दूसरे से पहले नमाज़ के लिए खड़ा हो जाये।
897. अगर मर्द और औरत एक दूसरे के बराबर खड़ें हों या औरत आगे ख़ड़ी हो और दोनो नमाज़ पढ़ रहे हों लेकिन दोनों के बीच दीवार या पर्दा या कोई और ऐसी चीज़ हो कि एक दूसरे को न देख सकें या उनके बीच दस हाथ से ज़्यादा फ़ासला हो तो दोनों की नमाज़ सही है।
सातवीं शर्त
नमाज़ पढ़ने वाले की पेशानी रखने की जगह, घुटने और पाँव की उंगलीयाँ रखने की जगह से, चार मिली हुई उंगलीयों से ज़्यादा ऊँची या नीची न हो। इस मसले की तफ़सील सजदे के अहकाम में आयेगी।
898. ना महरम मर्द और औरत का ऐसी जगह पर जमा होना, जहाँ गुनाह में मुब्तला होने का एहतेमाल हो, हराम है। एहतियाते मुस्तहब यह है कि ऐसी जगह पर नमाज़ भी न पढ़ी जाये।
899. जिस जगह पर सितार बजाया जाता हो और उस जैसी दूसरी चीज़ें इस्तेमाल की जाती हों, वहाँ नमाज़ पढ़ना बातिल नही है, जबकि उनका सुनना और इस्तेमाल करना गुनाह है।
900. एहतियाते वाजिब यह है कि इख़्तियार की हालत में ख़ान –ए- काबा के अंदर और उसकी छत के ऊपर वाजिब नमाज़ न पढ़ी जाए। लेकिन मजबूरी की हालत में कोई हरज नही है।
901. ख़ान –ए- काबा के अंदर और उसकी छत के ऊपर नाफ़ेला नमाज़ें पढ़ने में कोई हरज नही है, बल्कि मुस्तहब है कि ख़ान –ए- काबा के अँदर हर रुक्न के मुक़ाबिल दो रकअत नमाज़ पढ़ी जाए।
वह मक़ामात जहाँ नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है।
902. इस्लाम की मुक़द्दस शरीयत में बहुत ताकीद की गयी है कि नमाज़ मस्जिद में पढ़ी जाए। दुनिया भर की सारी मस्जिदों में सबसे बेहतर मस्जिदुल हराम और उसके बाद मस्जिदुन नबी(स.) है। उसके बाद मस्जिदे कूफ़ा और उसके बाद मस्जिदे बैतुल मुक़द्दस का दर्जा है। उसके बाद शहर की जामा मस्जिद और उसके बाद मोहल्ले की मस्जिद और उसके बाद बाज़ार की मस्जिद का नम्बर आता है।
903. औरतों के लिए बेहतर है कि नमाज़ ऐसी जगह पढ़ें जो नामहरम से महफ़ूज़ होने के लिहाज़ से दूसरी जगहों से बेहतर हो, चाहे वह जगह मकान या मस्जिद या कोई और जगह हो।
904. आईम्मा –ए- अहलेबैत (अ.) के हरमों में नमाज़ पढ़ना मुस्तहब है, बल्कि मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से बेहतर है और रिवायत में है कि हज़रत अमीरूल मोमीनीन (अ.) के हरमे पाक में नमाज़ पढ़ना दो लाख नमाज़ों के बराबर है।
905. मस्जिद में ज़्यादा जाना और उस मस्जिद में जाना जो आबाद न हो (यानी जहाँ लोग बहुत कम नमाज़ पढ़ने आते हों।) मुस्तहब है। अगर कोई इंसान मस्जिद के पड़ोस में रहता हो और कोई उज़्र भी न रखता हो तो उसके लिए मस्जिद के अलावा किसी और जगह नमाज़ पढ़ना मकरूह है।
906. जो इंसान मस्जिद में न आता हो, मुस्तहब है कि इंसान उसके साथ मिलकर खाना न खाए, अपने कामों में उससे मशवेरा न करे, उसके पड़ोस में न रहे और उसके यहाँ शादी ब्याह भी न करे। (यानी उसका सोशल बायकाट करे)
वह जगहें जहाँ नमाज़ पढ़ना मकरूह है।
907. कुछ जगहों पर नमाज़ पढ़ना मकरूह है:
1- हम्माम
2- खारी ज़मीन
3- किसी इंसान के मुक़ाबिल
4- उस दरवाज़े के मुक़ाबिल जो खुला हो।
5- सड़कों पर, गली और कूचे में इस शर्त के साथ कि गुज़रने वालों के लिए बाईसे ज़हमत न हो और अगर उन्हें ज़हमत हो तो उनके रास्ते में रुकावट डालना हराम है।
6- आग और चिराग़ के मुक़ाबिल।
7- बावर्ची ख़ाने में हर उस जगह जहाँ आग की भट्टी हो।
8- कुएँ के और ऐसे गढ़े के मुक़ाबिल जिसमें पेशाब किया जाता हो।
9- जानवर की तस्वीर या मुजस्समे के सामने, मगर यह कि उसे ढाँप दिया जाये।
10- ऐसे कमरे में जिसमें जुनुब इंसान मौजूद हो।
11- जिस जगह फ़ोटो हो चाहे वह नमाज़ पढ़ने वाले के सामने न हो।
12- क़ब्र के मुक़ाबिल।
13- क़ब्र के ऊपर।
14- दो क़ब्रो के बीच ।
15- क़ब्रिस्तान में।
908. अगर कोई इंसान लोगों की आने जाने के रास्ते पर नमाज़ पढ़ रहा हो या कोई और इंसान उसके सामने खड़ा हो तो नमाज़ी के लिए मुस्तहब है कि अपने सामने कोई चीज़ रख ले और अगर वह चीज़ लकड़ी या रस्सी हो तो भी काफ़ी है।
नमाज़ के अहकाम
दीनी आमाल में से बहतरीन अमल नमाज़ है अगर यह दरगाहे इलाही में मक़बूल हो गयी तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायगी और अगर यह क़बूल न हुई तो दूसरे आमाल भी क़बूल न होंगे। जिस तरह, अगर इंसान दिन रात में पाँच दफ़ा नहर में नहाये धोये तो उसके बदन पर मैल नही रहता इसी तरह पाँचों वक़्त की नमाज़ भी इंसान को गुनाहों से पाक कर देती है। बेहतर यह है कि इंसान नमाज़ अव्वले वक़्त में पढ़े। जो इंसान नमाज़ को मामूली और ग़ैर अहम समझता है वह उस इंसान के मानिंद है जो नमाज़ न पढ़ता हो। रसूले अकरम (स0)  ने फ़रमाया है कि “जो इंसान नमाज़ को अहमिय्यत न दे और उसे मामूली चीज़ समझे वह अज़ाब का मुस्तहिक़ है।”एक दिन रसूले अकरम (स0) मस्जिद में तशरीफ़ फ़रमा थे कि एक इंसान मस्जिद में दाख़िल हुआ और नमाज़ में मशग़ूल हो गया लेकिन वह रूकू और सजदे मुकम्मल तौर पर न बजा लाया। इस पर हुज़ूर (स0) ने फ़रमाया कि “अगर यह इंसान इस हालत में मर जाये तो इस की मौत हमारे दीन पर न होगी।”लिहाज़ा हर इंसान को ख़्याल रख़ना चाहिए कि नमाज़ जल्दी जल्दी न पढ़े और नमाज़ पढ़ते हुए ख़ुदा की याद में रहे और ख़ुज़ूओ़ ख़ुशू व संजीदगी से नमाज़ पढ़े और यह ख़याल रखे कि किस हस्ती से कलाम कर रहा है और अपने को ख़ुदावंदे आलम की अज़मत और बुज़ुर्गी के मुक़ाबले में हक़ीर और नाचीज़ समझे। अगर इंसान नमाज़ के दौरान पूरी तरह इन बातों की तरफ़ मुतवज्जेह रहे तो वह अपने आप से बेख़बर हो जाता है, जैसा कि नमाज़ की हलत में अमीरुल मोमेनीन हज़रत इमाम अली (अ0) रहते थे कि उनके पैर से तीर निकाल लिया गया और आप को ख़बर भी न हुई। इसके अलावा नमाज़ पढने वाले को चाहिए कि तौबा व इस्तग़फ़ार करे और न सिर्फ़ उन ग़ुनाहों को तरक करे जो नमाज़ के क़ुबूल होने की राह में रुकावट बनते है जैसे (हसद, तकब्बुर, ग़ीबत, हराम खाना, शराब पीना, और ख़ुमुस व जक़ात का न देना) बल्कि तमाम गुनाह तर्क कर दे और इसी तरह यह भी बेहतर है कि जो काम नमाज़ का सवाब कम कर देते हैं उन्हें भी न करे, मसलन ऊँघते हुए या पेशाब रोक कर नमाज़ न पढ़े, नमाज़ पढ़ते वक़्त आसमान की जानिब न देखे। इंसान को चाहिए कि उन तमाम कामों को अंजाम दे जो नमाज़ के सवाब को बढ़ा देते हैं मसलन अक़ीक की अंग़ूठी पहने, साफ़ सुथरा लिबास पहने, कंघी और मिसवाक करे और ख़ुश्बू लगाये।
रोज़े के अहकाम
रोज़ा यह है कि इँसान ख़ुदावन्दे आलम के हुक्म पर अमल करने के लिए अज़ाने सुबह से मग़रिब तक उन चीज़ों से परहेज़ करे जिन का ज़िक्र बाद में किया जायेगा।
नियत
(1615) इंसान के लिए रोज़े की नियत का दिल में गुज़ारना या मसलन यह कहना कि “मैं कल रोज़ा रखूँगा” ज़रूरी नहीं है बल्कि इतना ही काफ़ी है कि वह अल्लाह तआ़ला के हुक्म पर अमल करने के लिए अज़ान सुबह से मग़रिब तक कोई ऐसा काम अंजाम न दे जो रोज़े को बातिल करता हो। और यह यक़ीन करने के लिए कि इस तमाम मुद्दत में वह रोज़े से रहा है ज़रूरी है कि कुछ देर अज़ान से पहले और कुछ देर मग़रिब के बाद भी ऐसे काम करने से परहेज़ करे जिन से रोज़ा बातलि हो जाता है।
(1616) वह वाजिब रोज़े जिन का वक़्त मुऐय्यन जैसे रमज़ान के रोज़े उन में शब के इब्तेदाई हिस्से से अज़ाने सुबह तक जिस वक़्त चाहे अगले दिन के रोज़े की नियत कर कर सकता है। लेकिन जो चीज़ अहम है वह यह कि रोज़े की नियत अज़ाने सुबह से मुत्तसिल हो चाहे वह इरतकाज़ी तौर पर ही क्योँ न हो (यानी इस तरह कि अगर उस से पूछा जाये तो वह कहे कि मैं रोज़े से हूँ।) लेकिन अगर वह न जानता हो या भूल जाये कि माहे रमज़ान है या कोई और वाजिब व मुऐय्यन रोज़ा है और ज़ोहर से पहले मुतवज्जेह हो जाये और उस ने रोज़े को बातिल करने वाला कोई काम भी अंजाम न दिया हो तो उसे चाहिए कि रोज़े की नियत करे इस हालत में उसका रोज़ा सही है। और अगर उस ने रोज़े को बातिल करने वाले कामों में से कोई काम अंजाम दे दिया है या वह ज़ोहर के बाद मुतवज्जेह हुआ है तो इस हालत में उसका रोज़ा बातिल है। लेकिन उसे चाहिए कि मग़रिब तक रोज़े को बातिल करने वाले कामों में से किसी को अंजाम न दे और बाद में उस रोज़े की क़ज़ा करे। लेकिन मुस्तहब रोज़े की नियत का वक़त अव्वले शब से उस वक़्त तक है जब तक मग़रिब में इतना वक़त बाक़ी रह जाये कि रोज़े की नियत की जा सके अगर उस वक़्त तक रोज़े को बातिल करने वाले कामों को अंजाम न दिया हो और मुस्तहब रोज़े की नियत करे तो उसका रोज़ा सही है।
(1617) अगर इंसान माहे रमज़ान के अलावा कोई दूसरा रोज़ा रखना चाहता है तो उसे चाहिए कि उस रोज़े को मुशख़्ख़स करे। मसलन नियत करे कि क़ज़ा या नज़र का रोज़ा रखता हूँ। लेकिन माहे रमज़ान में लाज़िम नही है कि नियत करे कि माहे रमज़ान का रोज़ा रखता हूँ। बल्कि अगर न जानता हो कि यह माहे रमज़ानहै या भूल जाये और किसी दूसरे रोज़े की नियत करे तो वह रोज़ा भी माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा।
(1618) अगर इंसान जानता हो कि यह माहे रमज़ान है और जान बूझ कर किसी दूसरे रोज़े की नियत करे तो न वह रमज़ान का रोज़ा माना जायेगा और न जिस का क़स्द किया उस मे शुमार होगा।
(1619) अगर इंसान रोज़े की नियत करने के बाद मस्त हो जाये और बाद में होश में आ जाये तो एहतियात वाजिब की बिना पर उस रोज़ रोज़ा रखे और उसकी क़ज़ा भी करे। लेकिन अगर नियत के बाद बेहोश हो जाये और बाद में होश में आये तो उसे चाहिए कि रोज़े को पूरा करे उस का रोज़ा सही है।
(1620) अगर इंसान रोज़े की नियत किये बिना मस्त हो जाये और दिन में होश में आ जाये तो उस दिन का रोज़ा रखे और उस की कज़ा भी करे। लेकिन अगर नियत किये बिना बे होश हो जाये और दिन में होश आये तो फ़क़त उसकी क़ज़ा करे।
(1621) अगर कोई शख़्स अज़ाने सुबह से पहले रोज़े की नियत करे और सो जाये और मग़रिब के बाद बेदार हो तो उस का रोज़ा सही है।
(1622) मसलन अगर कोई इंसान माहे रमज़ान की पहली तारीख की नियत से रोज़ा रखे और बाद में उसे पता चले कि दूसरी या तीसरी रमज़ान थी तो उस का रोज़ा सही है।
(1623) अगर किसी शख़्स को इल्म न हो या भूल जाये कि माहे रमज़ान है और ज़ोहर से पहले इस की तरफ़ मुतवज्जेह हो जाये और इस दौरान कोई ऐसा काम कर चुका हो जो कि रोज़े को बातिल कर देता है। या ज़ोहर के बाद मुतवज्जेह हो कि माहे रमज़ान है तो उस का रोज़ा बातिल है। लेकिन ज़रूरी है कि माहे रमज़ान में मग़रिब तक कोई ऐसा काम न करे जो रोज़े को बातिल करता हो और माहे रमज़ान के बाद रोज़े की क़ज़ा भी करे।
(1624) अगर माहे रमज़ान में बच्चा अज़ाने सुबह से पहले बालिग़ हो जाये तो उसे चाहिए कि रोज़ा रखे और अगर अज़ाने सुबह के बाद बालिग़ हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नही है।
(1625) जो शख़्स मय्यित के रोज़े रखने के लिए अजीर बना हो अगर वह मुस्तहब रोज़े रख़े तो कोई हरज नही लेकिन अगर किसी के ज़िम्मे क़ज़ा रोज़े हैं तो वह मुस्तहब रोज़ा नही रख सकता और अगर उस के ज़िम्मे दूसरे वाजिब रोज़े हैं तो वाजिबे एहतियात की बिना पर वह मुस्तहब रोज़ा नही रख सकता। और अगर वह भूले से मुस्तहब रोज़ा रख ले तो इस सूरत में अगर उसे ज़ोहर से पहले याद आ जाये तो उस का मुस्तहब रोज़ा कलअदम हो जायेगा और वह अपनी नियत वाजिब रोज़े की तरफ़ मोड़ सकता है। और अगर ज़ोहर के बाद मुतवज्जेह हो तो उस का रोज़ा बातिल है और अगर उसे मग़रिब के बाद याद आये तो उस का रोज़ा सही है।
(1626) अगर कोई काफ़िर माहे रमज़ान में ज़ोहर से पहले मुलमान हो जाये और उस ने अज़ाने सुबह से उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े की नियत कर के रोज़ा रखे और अगर उस दिन का रोज़ा न रखे तो उस कि क़ज़ा बजा लाये।
(1627) अगर कोई बीमार इंसान माहे रमज़ान के दिनों में ज़ोहर से पहले तनदुरुस्त हो जाये और उस ने उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो नियत कर के उस दिन का रोज़ा रखे और अगर ज़ोहर के बाद तनदुरुस्त हुआ तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नही है उसे चाहिए कि बाद में उसकी क़ज़ा करे।
(1628) इंसान माहे रमज़ानुल मुबारक की हर रात को उस से अगले दिन के रोज़े की नियत कर सकता है और बेहतर यह है कि इस महीने की पहली रात को ही पूरे महीने के रोज़ों की नियत करे। लेकिन मुहिम यह है कि इंसान हर रोज़ आज़ाने सुबह से मुत्तसिल रोज़े की नियत करे चाहे वह इरतेकाज़ी तौर पर ही क्यों न हो।
(1629) जिस दिन के बारे में इँसान को शक हो कि शाबान की आख़री तारीख़ है या माहे रमज़ान की पहली तारीख़, उस पर वाजिब नही है कि उस दिन रोज़ा रखे और अगर उस दिन रोज़ा रखना चाहे तो रमज़ानुल मुबारक के रोज़े की नियत नही कर सकता। लेकिन अगर क़ज़ा या इसी जैसा किसी और रोज़े की नियत करे और बाद में पता चले कि माहे रमज़ान था तो वह रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा
(1630) अगर किसी दिन के बारे में इंसान को शक हो कि शाबान की आख़री तारीख़ है या रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ तो वह क़ज़ा या मुस्तहब या ऐसे ही किसी और रोज़ा की नियत कर के रोज़ा रख ले। अगर दिन में किसी वक़्त उसे पता चले कि माहे रमज़ान है तो उसे चाहिए कि माहे रमज़ान के रोज़े की नियत कर ले चाहे उसे ज़ोहर के बाद ही इस चीज़ का इल्म क्योँ न हुआ हो।लेकिन अगर शक के रोज़ माहे रमज़ान के रोज़े की नियत से रोज़ा रखे तो उसका रोज़ा बातिल है चाहे हक़ीक़त में उस दिन रमज़ान का पहला दिन ही क्योँ न हो।
(1631) अगर इंसान किसी वाजिब मुऐय्यन रोज़े जैसे रमज़ान के रोज़े की नियत कर के फिर रोज़ा न रखने की नियत कर ले तो उसका रोज़ा बातिल है। लेकिन अगर किसी ऐसे काम को करने का इरादा करे जो रोज़े को बातिल कर देता हो और फिर उस को अंजाम न दे तो उस का रोज़ा सही है। इसी तरह मुस्तहब व ग़ैरे मुऐय्यन वाजिब रोज़ो में अगर ज़ोहर से पहले अपनी नियत से पलट जाये और पिर दुबारा रोज़े की नियत कर ले तो उसका रोज़ा सही है।
वह चीज़े जो रोज़े को बातिल करती हैं:
(1632)  नीचे लिखीं चन्द चीज़ें रोज़े को बातिल कर देती हैं
(1) खाना
(2) पीना।
(3) जिमाअ (सम्भोग)
(4) इस्तिमना- यानी इंसान ख़ुद कोई ऐसा काम करे जिस से उसकी मनी(वीर्य) निकल जाये ।
(5) अल्लाह ताआला, पैग़म्बर (स0) और आप के जानशीनों की तरफ़ कोई झूटी बात मंसूब करना।
(6) ग़लीज़ गर्द व ग़ुबार हलक़ तक पहुँचाना।
(7) पूरा सर को पानी में डुबोना।
(8) अज़ान सुबह तक जनाबत, हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना।
(9) किसी बहने वाली चीज़ से इनेमा करना।
(10) उल्टी करना।
इन मुबतेलात के तफ़सीली अहकाम आइन्दा मसाइल में ब्यान किये जायेंगे।
(1 व 2) खाना और पीनाः
(1633) अगर रोज़ेदार कोई चीज़ जान बूझ कर खा या पीले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है। चाहे वह चीज़ आम तौर पर खाई या पी जाती जैसे रोटी और पानी या आम तौर पर न खाई पी जाती हो मसलन मिट्टी और दरख़्त का शीरा, चाहे वह चीज़ कम हो या ज़्यादा यहाँ तक कि अगर रोज़े दार एक धागे को अपने थूक में तर करे और दुबारा उसको मुँह में लो जाये व उसकी तरी को निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाये गा। इसी तरह मिसवाक मुहँ से निकाले और दोबारा मुहँ में ले जाये और उस की तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जायेगा। लेकिन अगर इन की रतूबत लुआबे दहन में इस तरह घुल मिल जाये कि उसे बाहर की रतूबत न कहा जा सके तो कोई हरज नही है। इसी तरह उस ग़िज़ा को निगलने से जो दाँतों के बीच फँसी रह जाती है रोज़ा बातिल हो जाता है।
(1634) अगर रोज़े दार भूले से कोई चीज़ खा पी ले तो उसका रोज़ा बातिल नही होता।
(1635) इंसान को ग़िज़ा को तौर पर इस्तेमाल होने वाले इंजक्शनों से परहेज़ करना चाहिए लेकिन बदन को बे हिस करने वाले व दवा के तौर पर इस्तेमाल होने वाले इंजक्शनों में कोई हरज नही है।
(1636) अगर रोज़े दार को खाना खाते वक़्त मालूम हो जाये कि सुबह हो गयी है तो ज़रूरी है कि जो लुक़मा उसके मुहँ में है उसे उगल दे और अगर जान बूझ कर वह लुक़मा निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल है और उस हुक्म के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बाद में होगा उस पर कफ़्फ़ारा भी वाजिब है।
(1637) अगर रोज़े दार को इतनी प्यास लगे कि उसे प्यास से मर जाने का ख़ौफ़ पैदा हो जाये तो इतना पानी पी सकता है जितने में मरने से बच जाये लेकिन उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा और बाद में उस रोज़े की क़ज़ा भी रखनी पड़ेगी। और अगर माहे रमज़ान हो तो दिन के बाक़ी हिस्से में उन कामों के करने से परहेज़ करे जिन से रोज़ा बातिल हो जाता है।
(1638) जो शख़्स रोज़ा रखना चाहता हो उसके लिए अज़ाने सुबह से पहले दाँतों में ख़िलाल करना ज़रूरी नही हैं। लेकिन अगर वह जानता हो कि जो ग़िज़ा दाँतों के बीच में रह गयी है वह दिन के वक़्त पेट में चली जायेगी और इसके बावुजूद ख़िलाल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है चाहे वह ग़िज़ा हलक़ से नीचे जाये या न जाये।
(1639) मुहँ में जमा हो जाने वाले पानी को निगलने से रोज़ा बातिल नही होता चाहे वह पानी तुर्शी वग़ैरा के तसव्वुर से ही मुहँ में क्योँ न भर आया हो।
(1640) सर और सीने से आने वाला बलग़म जब तक मुहँ में के अन्दर वाले हिस्से तक न पहुँचे उसे निगलने में कोई हरज नही लेकिन अगर वह मुहँ में आ जाये तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे न निगले।
(1641) बच्चे या परिन्दे के लिए ग़िज़ा का चबाना या ग़िज़ा का चखना और इसी तरह के दूसरे काम करना जिन में उमूमन ग़िज़ा हलक़ तक नही पहुँचती अगर वह इत्तेफ़ाक़न हलक़ तक पहुँच जाये तो रोज़ा को बातिल नही होता। लेकिन अगर इंसान पहले से जानता हो कि ग़िज़ा हलक़ तक पहुँच जायेगी और वह अन्दर चली भी जाये तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा और उस पर रोज़े की क़ज़ा व कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जायेंगे।
(1642) इंसान कमज़ोरी की वजह से रोज़े नही छोड़ सकता लेकिन अगर कमज़ोरी इतनी ज़्यादा हो जिसका बर्दाश्त करना मुश्तिल हो तो रोज़े छोड़ सकता है।
(3) जिमाअ (सम्भोग)
(1643) अगर सम्भोग में लिंग सुपारी की हद तक अन्दर चला जाये तो चाहे मनी (वीर्य) निकले या न निकले दोनों का रोज़ा बातिल हो जाता है चाहे लिंग को आगे दाख़िल किया जाये या पीछे, बच्चे के साथ सम्भोग किया जाये या बड़े के। लेकिन अगर लिंग सुपारी की हद से कम दाख़िल हो और मनी भी न निकले तो रोज़ा सही है।
(1644) अगर कोई भूल जाये कि रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस तरह मजबूर किया जाये कि उस का इख़्तियार बाक़ी न रहे तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाये कि रोज़े से है या मजबूरी ख़त्म हो जाये तो ज़रूरी है कि फ़ौरन तर्क कर दे और अगर ऐसा न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।
(1645) अगर कोई शक करे कि सुपारी की हद तक दाख़िल हुआ या नहीं तो उस का रोज़ा सही है, इसी तरह वह इंसान जिस की सुपारी कटी हुई हो अगर शक करे कि लिंग दाख़िल हुआ या नही तो उसका रोज़ा सही है।
(4) इस्तिमना-
(1646) अगर रोज़ेदार इस्तिमना करे यानी ख़ुद से कोई ऐसा काम करे कि उसकी मनी निकल आये तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा, लेकिन अगर मनी कुछ किये बिना ख़ुद निकल आये तो रोज़ा बातिल नही है। लेकिन अगर वह कोई ऐसा कामकरे जिस से मनी बेइख़्तियारी के साथ निकलजाये तो उसका रोज़ा बातिल है।
(1647)  अगर रोज़े दार जानता हो कि अगर वह दिन में सोयेगा तो उसे एहतिलाम (स्वप्न दोष) हो जायेगा यानी सोते में उस की मनी ख़रिज हो जायेगी तो वह सो सकता है और अगर वह सो जाये और उसे एहतिलाम भी हो जाये तब भी उसका रोज़ा सही है मख़सूसन अगर न सोने की बिना पर कोई नुक़्सान हो।
(1648) वह रोज़ेदार जिसे एहतिलाम हो गया हो ग़ुस्ल से पहले पेशाब व पीछे बताये गये तरीक़े के अनुसार इस्तिबरा कर सकता है लेकिन अगर उसने पेशाब किये बग़ैर ग़ुस्ल कर लिया है और अब ख़तरा है कि इस्तबरा करने से रुकी हुई मनी बाहर आ जायेगी तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे िस्तबरा नही करना चाहिए। अगर रोज़े दार मनी निकलने की हालत में जाग जाये तो उस पर वाजिब नही है कि वह मनी को निकलने से रोके।
(1649) जिस रोज़ेदार को एहतिलाम (स्वप्न दोष) हो गया हो अगर उसे मालूम हो कि कुछ मनी नली में बाक़ी रह गयी है और अगर ग़ुस्ल से पहले पेशाब नही किया तो ग़ुस्ल के बाद उस के जिस्म से मनी ख़ारिज हो जायोगी तो बेहतर है कि वह ग़ुस्ल से पहले पेशाब करे।
(1650) अगर कोई मनी निकालने के इरादे से कोई काम करे और उसकी मनी न निकले तो उसका रोज़ा बातिल नही होगा।
(1651) अगर रोज़े दार मनी निकालने के क़स्द के बग़ैर किसी के साथ छेड़ छाड़ करे और उसकी मनी निकल जाये चाहे इस तरह के कामों से मनी निकलने की उसकी आदत हो या न हो दोनों सूरतों में रोज़ा बातिल है । लेकिन अगर उसको इतमिनान हो कि इस काम से मनी नही निकलेगी और निकल जाये तो उसका रोज़ा सही है।
(5) अल्लाह व पैग़म्बर से किसी झूट को समबन्धित करना।
(1652) अगर रोज़े दार ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीके से अल्लाह तआला या रसूल अकरम (स0) या आपके जानशीनों में से किसी से भी जान बूझ कर कोई झूटी बात मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन ही कह दे कि मैं ने झूट कहा है या तौबा करे तब भी उस का रोज़ा बातिल है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स0) और तमाम अम्बिया व मुर्सलीन और उन के जानशीनों से भी कोई झूटी बात मंसूब करने का यही हुक्म है।
(1653) अगर रोज़ेदार कोई ऐसी रिवायत नक़्ल करना चाहे जिस के बारे में उसे इल्म न हो कि यह सच है या झूट तो उसे चाहिए कि वह उसे क़तई तौर पर बयान न करे और अगर क़तई तौर पर बयान भी कर दे तो उसका रोज़ा बातिल नही है अगरचे उसको रिवायत के झूटे होने का ज़न या गुमान हो।
(1654) अगर रोज़े दार किसी चीज़ के बारे में एतेक़ाद रखता हो कि वह क़ौले ख़ुदा या क़ौले पैग़म्बर (स0) है और उसे बयान करे और बाद में उसे मालूम हो कि यह झूट था तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा।
(1655) अगर रोजेदार यह जानता हो कि अल्लाह व पैग़मबर की तरफ़ किसी झूट को निसबत देने से रोज़ा बातिल हो जाता है और वह किसी बात के बारे में यह जानते हुए कि झूट है उसे अल्लाह या पैग़म्बर (स.) से मंसूब करे और बाद में उसे पता चले कि जो कुछ उसने कहा था वह सही था तो उसका रोज़ा सही है।
(1656) अगर रोज़े दार किसी ऐसे झूट को जो उस ने नही बल्कि किसी दूसरे ने घड़ा हो जान बूझ कर अल्लाह तआला या रसूले अकरम (स0) से मंसूब करे उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा लेकिन अगर जिस ने झूठ घड़ा हो उसका क़ौल नक़्ल करे तो रोज़ा बातिल नही है।
(1657) अगर रोज़े दार से सवाल किया जाये कि क्या रसूले अकरम (स0) ने ऐसा फ़रमाया है और वह जान बूझ कर जहाँ नही कहना चाहिए वहाँ हाँ कह दे और जहाँ हाँ कहना हो वहाँ नही कह दे तो उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1658) अगर कोई शख़्स अल्लाह तआला या रसूले करीम (स0) का क़ौल दुरूस्त नक़्ल करे और बाद में कहे कि मैं ने झूठ कहा है या रात को कोई झूठी बात उन से मंसूब करे और दूसरे दिन जब कि रोज़े से हो तो कहे कि जो बात मैं ने रात कही थी वह सही है तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(6) ग़लीज़ गर्द को हलक़ में पहुँचाना
(1659) गर्द का हलक़ तक पहुचाना रोज़े को बातिल कर देता है चाहे ग़ुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिस का खाना हलाल हो मसलन आटा या किसी ऐसी चीज़ को हो जिस का खाना हराम हो मसलन मिट्टी।
(1660) एहतियाते वाजिब यह है कि रोज़े दार भाप,सिगरेट व तम्बाकु और इन्हीँ जैसी दूसरी चीज़ों के धुएं वग़ैरा को भी हलक़ तक न पहुँचाये।
(1661) अगर इंसान के एहतियात न करने की वजह से गर्द, धुआँ व भाप वग़ैरा हलक़ में चली जाये तो अगर उसे यक़ीन या इत्मिनान था कि यह चीज़ हलक़ तक न पहुचेंगीं तो उस का रोज़ा सही है। लेकिन अगर भूल जाये कि मैं रोज़े से हूँ और एहतियात न करे या बे इख़्तियार गर्द उसके हलक़ में पहुँच जाये तो कोई हरज नही है।
(7) पीनी में सर का डुबाना
(1662) अगर रोज़े दार जान बूझ कर सारा सर पानी में डुबो दे और उस का बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।लेकिन अगर पूरा बदन पानी में हो और सर का कुछ हिस्सा बाहर हो तो रोज़ा बातिल नही होगा।
(1663) अगर रोज़े दार अपने आधे सर को एक दफ़ा और बाक़ी सर को दूसरी दफ़ा पानी में डुबोये तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा।
(1664) अगर कोई अपने पूरे सर के पानी में दूबने के बारे में शक करे तो उसका रोज़ा सही है।
(1665) अगर सारा सर तो पानी में डूब जाये और कुछ बाल पानी से बाहर रह जायें तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1666) एहतियाते वाजिब यह है कि सर को मुज़ाफ़ पीनी में भी न डुबाये मखसूसन गुलाब के पानी में,लेकिन अगर पानी के अलावा दूसरी बहने वाली चीज़ों में सर को डुबाये तो कोई हरज नही है।
(1667)   अगर रोज़ेदार बे इख़्तियार पानी में कूद जाये और उसका पूरा सर पानी में डूब जाये या यह भूल जाये कि मैं रोज़े से हूँ और अपने पूरे सर को पानी में डुबा दे तो उसका रोज़ा बातिल नही होगा।
(1668) अगर पानी में कूदने से आदतन सर पानी में डूब जाता हो और कोई इस तरफ़ मुतवज्जेह होते हुए भी अपने आप को पानी में गिरा दे और उसका सर पानी में डूब जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल है।
(1669) अगर कोई शख़्स भूल जाये कि रोज़े से है और वह अपने सर पानी में डुबो दे या कोई दूसरा शख़्स रोज़े दार के सर को ज़बर दस्ती पानी में डुबो दे तो अगर पहली हालत में उसे याद आ जाये कि वह रोज़ेसे और दूसरी हालत में डुबाने वाला अपने हाछ को हटा ले तो रोज़ेदार को चाहिए कि फ़ौरन अपने सर को पानी से बाहर निकाले और अगर न भी निकाले तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल नही होगा।
(1670) अगर कोई भूल जाये कि रोज़े से है और ग़ुस्ल की नियत से सर को पानी में डुबा दे तो उस का रोज़ा और ग़ुस्ल दोनों सही हैं।
(1671) अगर कोई रोज़े से हो और जान बूझ कर अपने सर को पानी में डुबा दे तो इस हालत में अगर उसका रोज़ा रमज़ान के रोज़ों की तरह वाजिबे मुऐय्यन है तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसको दुबारा ग़ुस्ल करना चाहिए और एहतियाते वादिब की बिना पर ही उस रोज़े की क़ज़ा भी बजा लानी चाहिए। और अगर उसका रोज़ा मुस्तहब्बी हो या वाजिबे ग़ैरे मुऐय्यन हो जैसे कफ़्फ़ारे के रोज़े तो उसका ग़ुस्ल तो सही है लेकिन एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1672) अगर कोई रोज़े दार किसी को पानी में डूबने से बचाने के लिए अपने सर को पानी में डूबो दे तो चाहे उस शख़्स को बचाना वाजिब ही क्यों न हो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(8) सुबह की अज़ान तक जनाबत, हैज़ व निफ़ास की हालत में बाक़ी रहना-
(1673) अगर कोई मादे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े या उनकी क़ज़ा रखना चाहे तो उसे जान बूझ कर सुबह की अज़ान तक जनाबत पर बाक़ी नही रहना चाहिए। लेकिन अगर कोई जान बूझ कर ग़ुस्ल न करे और वक़्त कम होने की हालत में तयम्मुम भी न करे तो उसका रोज़ा बातिल है। लेकिन दूसरे रोज़े चाहे वाजिब हो या मुस्तहब अगर उन में जनाबत पर बाक़ी रहा जाये तो रोज़े पर कोई फ़र्क़ नही पड़ता।
(1674) अगर कोई माहे रमज़ानुल मुबारक या उसके क़ज़ा रोज़े रखने के लिए सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल या तयम्मुम न करे अगर उसका यह काम अमदी न हो मसलन दूसरों ने उसे ग़ुस्ल या तयम्मुम न करने दिया हो तो उसका रोज़ा सही है।
(1675) अगर कोई शख़्स जुनुब है और वह माहे रमज़ानुल मुबारक का या रमज़ान का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता है और जान बूझ कर ग़ुस्ल न करे ताकि वक़्त कम रह जाये तो वह तयम्मुम कर के रोज़ा रख सकता है उसका रोज़ा सही है।
(1676) अगर शख़्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाये और एक दिन या कई दिन के बाद उसे याद आये तो ज़रूरी है कि उन दिनों के रोज़ों की क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो इतने दिनों के रोज़ों की क़जा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब था। मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिन के रोज़ों की कज़ा करे।
(1677) अगर एक ऐसा शख्स अपने को जुनुब कर ले जिस के पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तयम्मुम में से किसी के लिए भी वक़्त न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा और कफ़्फारा दोनों वाजिब हैं। लेकिन अगर तयम्मुम का वक़्त हो और वह अपने आप को जुनुब कर ले और फ़िर तयम्मुम कर के रोज़ा रखे तो उसका रोज़ा सही है और वह गुनहगार भी नही माना जायेगा।
(1678) जो शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और जानता हो कि अगर सो जायेगा तो सुबह तक बेदार न होगा उसे बग़ैर ग़ुस्ल किये नही सोना चाहिये और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मर्ज़ी से सो जाये और सुबह तक बेदार न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा व कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हैं।
(1679) अगर कोई जुनुब माहे रमज़ानुल मुबारक में सो जाये और फिर जाग जाये अगर उसको एहतेमाल हो कि अगर फिर सो गया तो ग़ुस्ल के लिए उठ जाऊँगा तो इस हालत में दुबारा सो सकता है अगरचे आदत सोता न रहता हो।
(1680) अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और उस का पक्का इरादा हो कि जागने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाये और अज़ान तक सोता रहे तो उस का रोज़ा सही है।
(1681) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की रात में जुनुब हो और वह यह जानता हो या उसे इस बात का एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो अज़ान से पहले जाग हो जायेगा और वह इस बात से ग़ाफ़िल हो कि जाग ने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो अगर वह इस सूरत में सो जाये और सुबह की अज़ान तक सोता रहे तो उसका रोज़ा सही है।
(1682) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले जाग जायेगा और वह जाग ने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो या कश मकश में हो कि ग़ुस्ल करे या न करे तो इस सूरत में अगर वह सो जाये और न जाग पाये तो उस का रोज़ा बातिल है।
(1683) अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान की किसा रात में सो कर जाग उठे और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर फिर सो गया तो अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह मुसम्मम इरादा भी रखता हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और फिर सो जाये और अज़ान तक बेदार न हो तो उस चाहिए कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे। और इसी तरह अगर दूसरी नींद से बेदार हो जाये और तीसरी दफ़ा सो जाये और सुबह की अज़ान तक बेदार न हो तब भी यही हुक्म है और एहतियाते वाजिब की बिना बर तीसरी नीँद पर कफ़्फ़ारा भी वाजिब है।
(1684) जिस नींद में एहतिलाम हुआ हो उसे पहली नींद नही गिना जा सकता बल्कि अगर वह उस नींद से जाग जाये और फिर सोये तो वह नींद पहली नींद मानी जायेगी।
(1685) अगर किसी रोज़े दार को दिन में एहतिलाम हो जाये तो उस पर फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि फ़ौरन ग़ुस्ल करे।
(1686) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है तो अगर उसे मालूम भी हो कि यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है तब भी उस का रोज़ा सही है।
(1687) जो माहे रमज़ानुल मुबारक के कज़ा रोज़े रखना चाहता है अगर वह सुबह की अज़ान तक जनाबत पर बाक़ी रहे तो चाहे यह दान बूझ कर न भी हो तो भी उसका रोज़ा बातिल है।
(1688) अगर कोई माहे रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता है तो अगर वह सुबह की अज़ान के बाद जागे और देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है और जानता हो कि यह एहतिलाम सुबह की अज़ान से पहले का है तो इस हालत में अगर क़ज़ा का वक़्त तंग हो मसलन उसको माहे रमज़ान के पाँच क़ज़ा रोज़े रखने हों और आने वाले रमज़ान में भी पाँच ही रोज़ बाक़ी हो तो एहतियाते वाजिब यह है कि उस दिन भी रोज़ा रखे और रमज़ान के बाद भी उसी की एक कज़ा और बजा लाये। लेकिन अगर वक़्त तंग न हो तो उसे चाहिए कि किसी और दिन रोज़ा रखे।
(1689) अगर कोई माहे रमज़ानुल मुबारक में दिन में मोहतलिम हो जाये तो उसे चाहिए कि ग़ुस्ल से पहले इस्तबरा करे लेकिन अगर उस ने ग़ुस्ल कर लिया है और वह जानता है कि अगर इस्तबरा किया तो मनी बाहर निकल आयेगी तो वह इस्तबरा नही कर सकता।
(1690) अगर मुस्तहब या रमज़ान के अलावा दूसरे वाजिब रोज़ों में या उनकी क़ज़ा में इंसान सुबह की अजान तक जनाबत पर बाक़ी रहे तो उसका रोज़ा सही है चाहे उन रोज़ों का वक़्त मुऐय्यन हो या न हो।
(1691) अगर औरत सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और अमदन ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो अगर उस का रोज़ा माहे रमज़ान या उसकी क़ज़ा का है तो बातिल है। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि दूसरे वाजिब व मुस्तहब रोज़ों में इस बात की रिआयत की जाये।
(1692) अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और गुस्ल के लिए वक़्त न हो और वह रोज़ा रखना चाहती हो तो उसे चाहिए कि तयम्मुम उसका रोज़ा सही है और सुबह की अज़ान तक बेदार रहना भी ज़रूरी नही है और अगर तयम्मुम के लिए भी वक़्त न हो तो इस हालत में भी उसका रोज़ा सही है।
(1693) अगर कोई औरत सुबह की अज़ान के बाद हैज़ या निफ़ास के खून से पाक हो जाये या दिन में उसे हैज़ या निफ़ास का खून आ जाये तो अगरचे यह खून मग़रिब के क़रीब ही क्यों न आये उस का रोज़ा बातिल है।
(1694) अगर औरत हैज़ या निफ़ास का ग़ुस्ल करना भूल जाये और उसे एक दिन या कई दिन के बाद याद आये तो जो रोज़े उस ने रखे हैं वह सही हैं। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उनकी क़ज़ा भी रखे।
(1695) अगर औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो उस का रोज़ा बातिल है लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुनतज़िर हो कि ज़नाना हम्माम मयस्सर आ जाये तो ग़ुस्स करे चाहे उस मुद्दत में वह तीन दफ़ा सो जाये और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और आख़िरे वक़्त में तयम्मुम कर ले तो उस का रोज़ा सही है।
(1696) जो औरत इस्तेहाज़ा की हालत में हो अगर वह अपने ग़ुसलों को उस तफ़सील के साथ न बजा लाये जो इस्तेहाज़ा के अहकाम में बयान की गई है तो उसके रोज़े सही हैं।
(1697) जिस शख्स ने मय्यित को मस किया हो यानी बदन का कोई हिस्सा मय्यित के बदन से छूवा हो वह ग़ुस्ले मसे मय्यित के बग़ैर रोज़ा रख सकता है और अगर रोज़े की हातल में भी मय्यित को मस करे तो उस का रोज़ा बातिल नही होता।
(9) हुक़ना करना (इनेमा)
(1698) बहने वाली चीज़ों से हुक़ना (इनेमा) करना चाहे यह मज़बूरी की हालत में या इलाज की ग़रज़ से ही क्योँ न हो रोज़े को बातिल कर देता है। लेकिन इसके लिए जो ख़ुश्क़ चीज़े इस्तेमाल होती हैं उन में कोई हरज नही है जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन से भी परहेज़ किया जाये। और इसी तरह जिन चीज़ों के जामिद(जमी हुई) या सय्याल (बहने वाली) होने में शक हो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर उन से भी परहेज़ करना चाहिए।
(9) जान बूझ कर क़ै (उल्टी) करना
(1699) अगर रोज़े दार जान बूझ कर उल्टी करे चाहे बीमारी वग़ैरा की वजह से मजबूरन ऐसा करना पड़े उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। लेकिन अगर सहवन(भूले से) या बे इख़्तियार उल्टी करे तो कोई हरज नही है।
(1700) अगर कोई शख्स रात को ऐसी चीज़ खा ले जिस के बारे में मालूम हो कि उस के खाने की वजह से दिन में बे इख्तियार उल्टी आयेगी तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1701) अगर रोज़े दार उल्टी को रोक सकता हो और ऐसा करना उस के लिए नुक़्सान दायक न हो तो बेहतर यह है कि वह उल्टी को रोके रहे।
(1702) अगर रोज़े दार के हलक़ में मक्खी चली जाये और वह इतनी अन्दर चली गई हो कि उस के नीचे ले जाने को खाना न कहा जा सके तो ज़रूरी नहीं कि उसे बाहर निकाला जाये और उस का रोज़ा भी सही है। लेकिन अगर मक्खी ज़्यादा अन्दर न गई हो और उसका बाहर निकालना मुमकिन हो तो उसे बाहर निकाले चाहे उल्टी करके ही निकालना पड़े और अगर वह उल्टी न करे और उसे निगल ले तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1703) अगर रोज़े दार सहवन (भूले से) कोई चीज़ निगल ले और उसके पेट में पहुँचने से पहले उसे याद आ जाये कि रोज़े से है तो अगर वह चीज़ इतने नीचे पहुँच चुकी है कि अगर उसे पेट में पहुँचा दिया जाये तो उसे खाना न कहा जसे तो उसका बाहर निकालना लाज़िम नहीं और उस का रोज़ा भी सही है। लेकिन अगर वह चीज़ हलक़ के उपरी हिस्से में या बीच में है तो उसको बाहर निकालना चाहिए और इस अमल को उल्टी करना नही कहा जायेगा।
(1704) अगर किसी रोज़े दार को यक़ीन हो कि डकार लेने की वजह से कोई चीज़ उस के हलक़ से बाहर आ जायेगी तो उसे जान बूझ कर डकार नही लेनी चाहिए लेकिन अगर उसे ऐसा यक़ीन न हो तो कोई हरज नही है।
(1705) अगर रोज़े दार डकार ले और कोई चीज़ अन्दर से उस के हलक़ या मुंह में आ जाये तो ज़रूरी है कि उसे उगल दे और अगर वह चीज़ बेइख़्तियार पेट में चली जाये तो कोई हरज नही है। हाँ एहतियात मुस्तहब यह है कि उसकी कज़ा बजा लाये।
उन चीज़ों के अहकाम जो रोज़े को बातिल करती हैं-
(1706) अगर इंसान जान बूझ कर और इखतियार के साथ कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातलि करता हो, तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। लेकिन अगर कोई ऐसा काम जान बूझ कर न करे तो फिर इशकाल नही है और रमज़ान व ग़ैरे रमज़ान , वाजिब व मुस्तहब रोज़ों में कोई फ़र्क़ नही है। लेकिन अगर जुनुब सो जाये और उस तफ़सील के मुताबिक़ जो मसअला न0 1697 में बयान की गयी है सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।
(1707) अगर रोज़े दार सहवन (भूले से) कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और इस गुमान से कि उस का रोज़ा बातिल हो गया है दुबारा अमदन कोई ऐसा ही काम करे तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।
(1708) अगर कोई चीज़ रोज़े दार के हलक़ में ज़बर दस्ती उंडेल दी जाये या उसके सर को ज़बरदस्ती पानी में डुबा दिया जाये तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा। लेकिन अगर उसे मजबूर किया जाये मसलन उसे कहा जाये कि अगर तुम ने यह ग़िज़ा न खाई तो हम तुम्हें माली या जानी नुक़्सान पहुँचायेंगें और नुक़्सान से बचने के लिए अपने आप कुछ खाले तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।
(1709) रोज़े दार को ऐसी जगह नही जाना चाहिए जिस के बारे में वह जानता हो कि लोग कोई चीज़ उस के हलक़ में डाल देंगें या उसे रोज़ा तोड़ने पर मजबूर करेंगें लेकिन अगर वह जाने का इरादा तो करे मगर न जाये, या अगर वह चला जाये उसे कोई चीज़ न खिलाई जाये तो उसका रोज़ा सही है। और अगर किसी मजबूरी की वजह से वह खुद कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और वह पहले से जानता हो कि उसे मजबूर किया जायेगा तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।
वह चीज़ें जो रोज़ेदार के लिए मकरूह हैं
(1710) रोज़े दार के लिए कुछ चीज़ें मकरूह हैं और वह यह हैं-
(1) आँख में दवा डालना और सुरमा लागाना जब कि उस का मज़ा या बू हलक़ में पहुँचे।
(2) हर ऐसा काम करना जो कि कमज़ोरी का बाइस हो मसलन ख़ून निकलवाना और हम्माम जाना।
(3) (नाक से) निसवार खींचना इस शर्त के साथ कि यह इल्म न हो कि हलक़ तक पहुँचेगी और अगर यह इल्म हो कि हलक तक पहुँचेगी तो उस का इस्तेमाल जायज़ नहीं है।
(4) ख़ुशबूदार जड़ी बूटियां सूंघना।
(5) औरत का पानी में बैठना।
(6) शियाफ़ का इस्तेमाल करना यानी किसी ख़ुश्क चीज़ से इनेमा लेना।
(7) जो लिबास पहन रखा हो उसे तर करना।
(8) दाँत निकलवाना और हर वह काम करना जिस की वजह से मुँह से खून निकले।
(9) तर लकड़ी से मिसवाक करना।
(10) बिलावजह पानी या कोई और सय्याल(द्रव) चीज़ मुँह में डालना।
और यह भी मकरूह है कि मनी निकालने के क़स्द के बग़ैर इंसान अपनी बीवी का बोसा ले या कोई शहवत अंगेज़ काम करे और वह मुतमइन हो कि इस तरह के कामों से मनी नही निकले गी और अगर इस बारे में इतमिनान न हो और मनी निकल जाये तो उसका रोज़ा बातिल है।
ऐसी हालतें जिन में रोज़े की क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं-
(1711) अगर माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों में जान बूझ कर क़ै (उल्टी) करे तो फ़क़त उस दिन की कज़ा करे। और अगर कोई रमज़ान की शब में जुनुब हो और मसअला न. 1679) में बतलाई गई तफ़सील के मुताबिक़ तीन बार जागे और फिर सो जाये और सुबह की अज़ान तक सोता रहे, जानबूझ कर इनिमा ले या सर को पानी में डुबाये या अल्लाह व रसूल पर झूट की निसबत दे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी देना चाहिए। लेकिन अगर इन के अलावा रोज़ो बातिल करने वाले काम जान बूझ कर करे और यहजानता हो कि इन कामों के करने से रोज़ा बातिल हो जाता है तो उस पर क़ज़ा वकफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं।
(1712) अगर कोई मस्अला न जान ने की वजह से ुन कामों को अंजाम दे जिन से रोज़ा बातिल हो जाता यानी जाहिले मुक़स्सिर हो एहतियात की बिना पर उस परकफ़्फरा वाजिब है। और अगर जाहिले क़ासिर हो यानी अपने ना जान ने में माज़ूर हो जैसे उसे यह यक़ीन हो कि यह चीज़ रोज़े को बातिल नही करती तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।
रोज़े का कफ़्फ़ारा
(1713) जिस पर माहे रमज़ान के रोज़े का कफ़्फ़ारा वाजिब है उसे जाहिए कि एक ग़ुलाम आज़ाद करे या उन अहकाम के मुताबिक़ जो आइंदा मसअले में बयान किये जायेंगें दो महीने रोज़ा रखे या साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या हर फ़क़ीर को एक मुद ¾ किलो तआम यानी गेहूँ या जौ या इन्हीं जैसी दूसरी चीज़ें दे और अगर यह काम करना उस के लिए मुमकिन न हो तो उसे इन बातो में इख़्तियार है कि या अठ्ठारा दिन रोज़े रखे या जितना मुमकिन हो फ़क़ीरों को खाना खिलाये और अगर यह भी मुमकिन न हो तो तौबा व असतग़फ़ार करे चाहे एक ही बार कहे अस्तग़फ़िरु अल्लाह और एहतियाते वाजिब यह है कि जिस वक़्त (कफ़्फ़ारा देने के) क़ाबिल हो जाये कफ़्फ़ारा दे।
(1714) जो शख्स माहे रमज़ान को रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे उसके लिए ज़रूरी है कि इकत्तीस दिन तक मुसलसल रोज़े रखे और अगर बाक़ी रोज़े मुसलसल न भी रखे तो कोई इशकाल नही है।
(1715) जो शख्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे उसके लिए ज़रूरी है कि वह रोज़े ऐसे वक़्त न रखे जिस के बारे में वह जानता हो कि इकत्तीस दिन को दरमियान ईदे क़ुरबान की तरह कोई ऐसा दिन आ जायेगा जिस का रोज़ा रखना हराम है।
(1716) जिस शख्स को मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी हैं अगर वह उन के बीच में किसी उज़्र बग़ैर एक दिन रोज़ा न रखे या ऐसे वक़्त शुरू करे उन दिनों के बीच एक ऐसा दिन पड़ जाये जिस का रोज़ा उस पर वाजिब हो मसलन उसने नज़र की हो कि उस दिन का रोज़ा रखूँगा तो इस हालत में उसे चाहिए कि दुबारा अज़ सरे नौ (शुरू से) रोज़े रखे।
(1717) अगर इन दिनों के दरमियान जिन में मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी हैं रोज़े दार को कोई उज़्र पेश आ जाये मसलन हैज़ या निफ़ास या ऐसा सफ़र जिसके करने पर मज़बूर हो तो उज़्र के दूर होने के बाद रोज़ों का अज़ सरे नौ रखना उस के लिए वाजिब नही बल्कि वह उज़्र दूर होने के बाद बाक़ी रोज़े रखे।
(1718) अगर कोइ शख्स हराम चीज़ से अपना रोज़े को बातिल कर दे चाहे वह चीज़ बज़ाते खुद हराम हो जैसे शराब और ज़िना या किसी वजह से हराम हो गई हो जैसे कि हैज़ की हालत में अपनी बीवी के साथ हमबिस्तरी(समभोग) करना तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसे तीनो कफ़्फ़ारे देने चाहिए यानी उसे चाहिये कि एक ग़ुलाम आज़ाद करे और दो महीने रोज़े रखे और साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या उन में से हर फ़क़ीर को एक मुद गेहूँ या जौ दे और अगर यह तीनों चीज़ें उस के लिए मुमकिन न हों तो उन में से जो कफ़्फ़ारा मुमकिन हो दे।
(1719) अगर रोज़े दार जान बूझ कर अल्लाह तआला या नबी-ए-अकरम (स0) से कोई झूठी बात मंसूब करे जिस के लिए एहतियाते वाजिब की बिना पर कफ़्फ़ारा है तो इस हालत में उस पर एक कफ़फ़ारा वाजिब होगा न कि तीनो कफ़्फ़ारे।
(1720) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान के एक दिन में कई दफ़ा जिमाअ(सम्भोग) करे तो उस पर उतने ही कफ़्फ़ारे वाजिब होगें और अगर जिमाअ हराम होगा तो जितनी बार करेगा उतने ही बार के तीनो कफ़्फ़ारे वाजिब हो जायेंगे।
(1721) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान के एक दिन में जिमाअ के अलावा कई बार कोई दूसरा ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल कर देता है तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर जितनी बार ऐसे काम किये है उतने ही कफ़्फ़ारे दे। लेकिन अगर इन सब के लिए एक कफ़्फ़ारा भी दे दे तो वह भी काफ़ी है।
(1722) अगर रोज़े दार हराम तरीक़े से जिमाअ करे और फ़िर हलाल तरीक़े से जिमाअ (सम्भोग) करे तो दोनों के लिए अपना अपना अलग कफ़्फ़ारा वादिब होगा।
(1723) अगर रोज़े दार कोई ऐसा काम करे जो हलाल हो लेकिन रोज़े को बातिल करता हो मसलन पानी पी ले और उस के बाद जिमाअ के अलावा कोई दूसरा ऐसा काम करे जो हराम हो और रोज़े को बातिल भी करता हो मसलन हराम ग़िज़ा खाले तो एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।
(1724) अगर रोज़े दार डकार ले और कोई चीज़ उस के मुँह में आ जाये तो अगर वह उसे जान बूझ कर निगल ले तो उस का रोज़ा बातिल है और ज़रूरी है कि उस की क़ज़ा भी करे और कफ़्फ़ारा भी दे। और अगर उस चीज़ का खाना हराम हो मसलन डकार लेते वक़्त खून या कोई ऐसी चीज़ जिसे ग़िज़ा न कहा जा सकता हो उस के मुंह में आ जाये और वह उसे जान बूझ कर निगल ले तो ज़रूरी है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाये और एहतियाते मुस्तहब कि बिना पर कफ़्फ़ारा-ए-जम(तीनो कफ़्फ़ारे) भी दे।
(1725) अगर कोई रोज़े दार मन्नत माने कि एक खास दिन रोज़ा रखेगा तो अगर वह उस दिन जान बूझ कर अपने रोज़े को बातिल कर ले तो ज़रूरी है कि उस रोज़े की कज़ा रखे और कफ़्फ़ारा भी दे और उस का कफ़्फ़ारा वही है जो कि मन्नत तोड़ने का कफ़्फ़ारा है।
(1726) अगर रोज़े दार किसी शख्स के यह कहने पर कि मग़रिब का वक़्त हो गया है अपना रोज़ा अफ़तार कर ले और बाद में पता चले कि मग़रिब का वक़्त नही हुआ था तो उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं।
(1727) 
जो शख्स जान बूझ कर अपना रोज़ा बातिल कर ले और अगर वह ज़ोहर के बाद सफ़र करे या कफ़्फ़रे से बचने के लिए ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो उस पर से कफ़्फ़ारा साक़ित नही होगा बल्कि अगर ज़ोहर से पहले इत्तेफ़ाक़न उसे सफ़र करना पड़े तो एहतियात की बिना पर उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब है।
(1728) अगर कोई शख्स जान बूझ कर अपना रोज़ा तोड़ दे और उस के बाद कोई उज़्र पैदा हो जाये मसलन हैज़ या निफ़ास या बीमारी तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।
(1729) अगर किसी शख्स को यक़ीन हो कि आज माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख है और वह जान बूझ कर रोज़ा तोड़ दे लेकिन बाद में उसे पता चले कि शाबान की आख़री तारीख है तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।
(1730) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान में अपनी रोज़े दार बीवी से जिमाअ (समभेग) करे तो अगर उस ने बीवी को मज़बूर किया हो तो उसे अपने और बीवी दोनो के रोज़े का कफ़्फ़ारा देना पड़ेगा और अगर बीवी जिमाअ पर राज़ी थी तो दोनों पर एक एक कफ़ाफ़ारा वाजिब होगा दोनों को चाहिए कि फ़क़त अपना अपना कफ़्फ़ारा दें ।
(1731) अगर बीवी अपने रोज़ेदार शौहर को जिमाअ करने पर या कोई दूसरा ऐसा कामकरने पर जो रोज़े को बातिल करता हो मजबूर करे तो उस पर वाजिब नही है कि अपने शौहर का कफ़्फ़ारा अदा करे।
(1732) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान में अपनी बीवी को जिमाअ पर मजबूर करे और जिमाअ के दौरान औरत भी जिमाअ पर राज़ी हो जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि मर्द दो कफ़्फ़ारे दे और औरत एक कफ़्फ़ारा दे।
(1733) अगर रोज़ेदार माहे रमज़ानुल मुबारक में कोई अपनी रोज़ेदार बीवी से जो सो रही हो जिमाअ करे तो ऐसी हालत में सिर्फ़ मर्द पर एक कफ़्फ़ारा वाजिब होगा और औरत पर कोई कफ़्फ़ारा वाजिब नही होगा और उसका (औरत का) रोज़ा भी सही है।
(1734) अगर शौहर(पति) अपनी बीवी को को जिमाअ के अलावा कोई ऐसा काम करने पर मजबूर करे जिस से रोज़ा बातिल हो जाता है तो वह बीवी के कफ़्फ़ारे का ज़िम्मेदार नही है और बीवी पर भी कफ़्फारा वाजिब नही है।
(1735) जो आदमी सफ़र या बीमारी की वजह से रोज़ा न रख रहा हो वह अपनी रोज़े दार बीवी को जिमाअ पर मजबूर नही कर सकता लेकिन अगर मजबूर करे तब भी मर्द पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही।
(1736) इंसान को कफ़्फ़ारा देने में कोताही नही करनी चाहिए लेकिन फ़ौरन देना भी ज़रूरी नही है।
(1737) अगर किसी शख्स पर कफ़्फ़ारा वाजिब हो और वह कई साल तक न दो तो कफ़्फ़ारे में कोई इज़ाफ़ा नही होगा।
(1738) जिस शख्स को कफ़्फ़ारा के तौर पर एक दिन साठ फ़क़ीरों को खाना खिलाना ज़रूरी हो अगर साठ फ़क़ीर मौजूद हों तो वह एक फ़क़ीर को एक मुद से ज़्यादा खाना नही दे सकता और न ही एक फ़क़ीर को एक से ज़्यादा बार पेट भर कर खाना खिला सकता अलबत्ता अगर उस फ़क़ीर के कई बीवीयाँ हों और वह भी फ़क़ीर हों तो उन में से हर एक के लिए उस फ़क़ीर को एक मुद खाना दे सकता है चाहे वह छोटी ही क्यों न हों। लेकिन अगर उसके छोटे छोटे बच्चे हों तो उनका हिस्सा और उसका खुद का हिस्सा एक साथ मिला कर उसे दिया जा सकता है।
(1739) जिस शख्स ने माहे रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखा हो अगर वह ज़ोहर के बाद जान बूझ कर कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि दस फ़क़ीरों को अलग अलग एक मुद खाना दे और अगर न दे सकता हो तो तीन दिन रोज़े रखे। और एहतियाते मुस्तहब यह है कि साठ फ़क़ीरों को खाना खिलाये।
वह सूरतें जिन में फक़त रोजे की क़जा वाजिब है
(1740) कुछ हालतें ऐसी हैं जिन में इंसान पर सिर्फ़ रोज़े की क़ज़ा वाजिब है कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।
(1) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की रात में जुनुब(जिसका वीर्य निकल गया हो) हो जाये और जो तफ़सील मसअला न0 1679 में बयान की गई है उस के अनुसार सुबह की अज़ान तक नींद से बेदार न हो।
(2) रोज़े को बातिल करने वाला काम तो न किया हो लेकिन रोज़े कि नियत न करे या रिया करे(यानी लोगों को दिखाने के लिए रोज़ा रखे) या रोज़ा न रखने का इरादा करे।
(3)  माहे रमज़ानुल मुबारक में ग़ुस्ले जनाबत(समभेग के बाद किया जाने वाला स्नान) करना भूल जाये और जनाबत की हालत में एक या कई दिन रोज़े रखता रहे।
(4) माहे रमज़ानुल मुबारक में यह तहक़ीक किये बिना कि सुबह हुई है या नही कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में पता चला कि सुबह हो चुकी थी या तहक़ीक़ के बाद उसे यह गुमान हो कि सुबह हो गई है और फिर वह किसी ऐसे काम को अंजाम दे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में मालूम हो कि सुबह हो गई थी तो इस सूरत में उस पर उस दिन के रोज़े की क़ज़ा वाजिब है । लेकिन अगर तहक़ीक़ के बाद उसे यक़ीन हो जाये कि सुबह नही हुई है और वह कोई चीज़ खा ले और बाद में पता चले कि सुबह हो गई थी तो उस पर क़ज़ा वादिब नही है। लेकिन अगर तहक़ीक़ के बाद शक करे कि सुबह हुई या नही और रोज़े को बातिल करने वाला कोई काम अंदाम दे और बाद में मालूमहो कि सुबह हो गई थी तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उस दिन का कज़ा रोज़ा रखना चाहिए।
(5) अगर कोई कहे कि सुबह नही हुई है और इंसान उस के कहने की बिना पर कोई काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में पता चले कि सुबहा हो गयी थी।
(6) अगर कोई कहे कि सुबहा हो गयी है और इंसान उस के कहने पर यक़ीन न करे या यह समझे कि मज़ाक़ कर रहा है और कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और बाद में मालूम हो कि सुबह हो चुकी थी।
(7) अगर कोई अँधा या उस जैसा कोई और शख़्स किसी के कहने पर अफ़तार कर ले और बाद में पता चले कि मग़रिब का वक़्त नही हुआ था। और अगर ऐसे इंसान के कहने पर अफ़तार करे जो झूट बोसता हो तो कफ़्फ़ारा भी वाजिब है।
(8) अगर किसी इंसान को अंधेरे की बिना पर यह यक़ीन हो जाये कि मग़रिब का वक़्त हो गया है और वह रोज़ा अफ़तार कर ले और बाद में पता चले कि मगरिब का वक़्त नही हुआ था। लेकिन अगर आसमान पर घटा छाई हो और इंसान गुमान करे कि मग़रिब का वक़्त हो गया है और वह अफ़तार कर ले और बाद में मालूम हो कि मग़रिब का वक़्त नही हुआ था तो इस हालत में क़ज़ा लाज़िम नही है।
(9) अगर इंसान दहन को ठंडा करने के लिए या बिला वजह कुल्ली करे यानी पानी मुँह में घुमाये और बेइख्तियार पानी पेट में चाल जाये तो क़ज़ा वाजिब है। लेकिन अगर इंसान भूल जाये कि रोज़े से है और पानी पी ले या वुज़ू के लिए कुल्ली करे और पानी बे इख़्तियार हलक़ में चला जाये तो उस पर कज़ा वाजिब नही है।
(10) अगर कोई शख्स अपनी बीवी से छेड़ छाड़ करे और बे इख़्तियार मनी(वीर्य) निकल जाये जबकि पहले से उसका ऐसा इरादा न हो और इस तरह के हसी मज़ाक़ से मनी निकलने की उस की आदत भी न हो यानी उसे इतमीनान हो कि मनी नही निकलेगी तो इस हालत में एहतियाते वाजिब की बिना पर उस पर रोज़े की क़ज़ालाज़िम है।
(1741) अगर रोज़े दार पानी के अलावा कोई और चीज़ मुँह में डाले और वह बेइख्तियार पेट में चली जाये या नाक में पानी डाले और वह बेइख्तियार (हलक़ के) नीचे उतर जाये तो उर पर क़ज़ा वाजिब नही है।
(1742) रोज़ेदार के लिए ज़्यादा कुल्ली करना मकरूह है और अगर कुल्ली के बाद थूक निगलना चाहे तो बेहतर है कि पहले तीन दफ़ा थूक दे।
(1743)अगर किसी शख्स को मालूम हो कि कुल्ली करने से बेइख्तियार या फ़रामौशी की बिना पर पानी उस के हलक़ में चला जायेगा तो उसे कुल्ली नही करनी चाहिए।
(1744) अगर किसी शख्स को माहे रमज़ानुल मुबारक में तहक़ीक करने के बाद यक़ीन हो गया हो कि सुबह नही हुई है और वह कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता है और बाद में मालूम हो कि सुबह हो गयी थी तो उस के लिए क़ज़ा रोज़ा रखना ज़रूरी नहीं है।
(1745) अगर किसी शख्स को शक हो कि मग़रिब का वक़्त हो गया है या नहीं तो वह रोज़ा अफ़तार नहीं कर सकता लेकिन अगर उसे शक हो कि सुबह हुई है या नही तो वह तहक़ीक़ करने से पहले ऐसा काम कर सता है जो रोज़े को बातिल करता हो।
क़ज़ा रोज़ों के अहकाम
(1746) अगर कोई दीवाना अच्छा हो जाये तो उस के लिए दीवानगी की हालत के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब नही।
(1747) अगर कोई काफ़िर मुसलमान हो जाये तो कुफ़्र के जमाने के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब नही है और इसी तरह जिस दिन वह मुसलमान हुआ है उस दिन के रोज़े की क़ज़ा भी उस पर वाजिब नही है। लेकिन अगर वह ज़ोहर से पहले मुसलमान हो जाये और उसने कोई ऐसा काम भी न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो एहतियात की बिना पर उसे नियत कर के रोज़ा रखना चाहिए और अगर उस दिन रोज़ा न रखे तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उस दिन का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहिए। लेकिन अगर एक मुसलमान काफ़िर हो जाये और फ़िर मुसलमान हो जाये तो ज़रूरी है कि कुफ़्र के दिनों के रोज़ों की क़ज़ा बजा लाये।
(1748) जो रोज़े इंसान के मस्त होने की वजह से छूटे हों उनकी क़ज़ा ज़रूरी है और इस में कोई फ़र्क़ नही है कि जिस चीज़ के खाने से वह मस्त हुआ हो उसने वह चीज़ चाहे इलाज की ग़रज़ से खाई हो या किसी और बिना पर।।
(1749) अगर कोई शख्स किसी उज़्र की वजह से चंद दिन रोज़े न रख सका हो और बाद में उनकी क़ज़ा रखते वक़्त शक करे कि उस का उज़्र कब ख़त्म हुआ था तो उस जितने दिनों के रोज़े न रखने का यक़ीन हो उतने रोज़े रखे मसलन अगर शक करे कि उस के ज़िम्मे पाँच दिन के रोज़े हैं या सात दिन के तो उसे चाहिए कि पाँच दिन की कज़ा करे । हाँ अगर उज़्र पेश आने के दिन को तो जानता हो लेकिन यह न जानता हो कि यह उज़्र कितने दिन बाक़ी रहा मसलन यह तो जानता हो कि बीसवी तारीख को मरीज़ हुआ या सफ़र पर गया मगर यह याद न हो कि यह सिलसिला पच्चीवी तारीख तक चला या सत्ताइसवी तक तो इस हालत में एहतियाते वाजिब की बिना पर हद्दे अक्सर की क़ज़ा करे (यानी सात रोज़े रखे) ।
(1750) अगर किसी शख्स पर कई साल के माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा वाज़िब हो तो जिस साल के रोज़ों की क़ज़ा पहले करना चाहे कर सकता है लेकिन अगर आखिरी रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा का वक़्त तंग हो मसलन आखिरी रमज़ानुल मुबारक के पाँच रोज़ों की कज़ा उस के ज़िम्मे हो और आइंदा रमज़ानुल मुबारक के शुरू होने में भी पाँच ही दिन बाक़ी हों तो उसे चाहिए कि पहले आखरी रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा बजा लाये।
(1751) अगर किसी शख्स पर कई साल के माहे रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा वाजिब हो और वह रोज़ों की नियत करते वक़्त, वक़्त मुऐय्यन न करे की कौन से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े की क़ज़ा रख रहा है तो उस का शुमार पहले माहे रमज़ान की क़ज़ा में होगा।
(1752) जिस शख्स ने रमाज़नुल मुबारक का कज़ा रोज़ा रखा हो अगर उसकी क़ज़ा का वक़्त तंग न हो तो वह उस रोज़े को ज़ोहर से पहले तोड़ सकता है। (1753) अगर किसी दूसरे शख़्स का क़ज़ा रोज़ा रखा हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़ोहर के बाद रोज़े को बातिल न करे।
(1754) अगर कोई बीमारी या हैज़ या निफ़ास की वजह से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे और माहे रमज़ान तमाम होने से पहले मर जाये, तो उसकी तरफ़ से उस के छुटे हुए रोज़ों की क़ज़ा रखना लाज़िम नही है।
(1755) अगर कोई शख्स बीमारी की वजह से रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे और उस की बीमारी आइंदा रमज़ान तक चलती रहे तो जो रोज़े उस ने न रखे हों उन की क़ज़ा उस पर वाजिब नहीं है बल्कि उसे चाहिए कि हर दिन के रोज़े के बदले एक मुद तआम गेहूँ या जौ या इसी जैसी दूसरी चीज़ें फ़क़ीर को दे। लेकिन अगर किसी और उज़्र मसलन सफ़र की वजह से रोज़े न रखे और उस का उज़्र अइंदा रमाज़नुल मुबारक तक बाक़ी रहे तो जो रोज़े न रखे हों उन की कज़ा करे और एहतियाते वाजिब यह है कि हर दिन के लिए एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।
(1756) अगर कोई शख्स बीमारी की वज़ह से रमाज़नुल मुबारक के रोज़े न रखे और रमाज़नुल मुबारक के बाद उस की बीमारी दूर हो जाये लेकिन कोई दूसरा उज़्र पेश आ जाये जिस की वजह से वह आइंदा रमाज़नुल मुबारक तक क़ज़ा रोज़े न रख सके तो उसे चाहिए कि जो रोज़े न रखें हों उन की क़ज़ा बजा लाये और यह भी कि अगर रमाज़नुल मुबारक में बीमारी के अलावा कोई और उज़्र रखता हो औरे रमाज़नुल मुबारक के बाद वह उज़्र दूर हो जाये और आइंदा साल के रमाज़नुल मुबारक तक बीमारी की वजह से रोज़े न रख हों तो जो रोज़े नही रखे हैं उन की क़ज़ा बजा लाये और एहतियाते वाजिब की बिना पर हर दिन के लिए एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।
(1757) अगर कोई शख्स किसी उज़्र की वजह से रमाज़नुल मुबारक में रोज़े न रखे और रमाज़नुल मुबारक के बाद उस का उज़्र दूर हो जाये और आइंदा रमाज़नुल मुबारक तक अमदन रोज़ों की कज़ा न बजा लाये तो ज़रूरी है कि रोज़ों की क़ज़ा करे और हर दिन के लिए एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।
(1758) अगर कोई शख्स कज़ा रोज़े रखने में कोताही करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाये और वक़्त की तंगी में उसे कोई उज़्र पेश आ जाये तो ज़रूरी है कि अगले साल उन रोज़ों की कज़ा करे और हर एक दिन के लिए एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे। और अगर उसका पक्का इरादा हो कि उज़्र ख़त्म होने के बाद रोज़ों की क़ज़ा बजा लायेगा, लेकिन क़ज़ा बजा लाने से पहले तंग वक़्त में उसे कोई उज़्र पेश आ जाये तो इस सूरत में उसे चाहिए कि रोज़ों की क़ज़ा बजा लाये अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि हर रोज़ के बदले एक मुद तआम भी फ़क़ीर कोदे।
(1759) अगर इंसान का मरज़ चंद साल तक जारी रहे तो तंदुरूस्त होने के बाद अगर आने वाले रमज़ान में इतना वक़्त बाक़ी हो कि रोज़ा रख सकता हो तो उसे चाहिए कि आख़री रमज़ान के क़ज़ा रोज़े रखे उस साल से पहले के रमज़ान के महीनो के रोज़ों के लिए हर दिन के लिए एक मुद तआम फ़क़ीर को दे।
(1760) जिस शख्स के लिए हर रोज़ के बदले एक मुद तआम फ़क़ीर को देना ज़रूरी हो वह चंद दिनों के रोज़ों का कफ़्फ़ारा एक ही फ़क़ीर को दे सकता है।
(1761) अगर कोई शख्स माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों की क़ज़ा रखने में कई साल की ताख़ीर कर दे तो उसे चाहिए कि क़ज़ा रोज़े रखे और हर दिन एक मुद तआम भी फ़क़ीर को दे।
(1762) अगर कोई शख्स रमज़ानुल मुबारक के रोज़े जान बुझ कर न रखे तो ज़रूरी है कि उन की क़ज़ा बजा लाये और हर रोज़े के बदले दो महीने रोज़े रखे या साठ फ़क़ीरों का खाना खिलाये या एक ग़ुलाम आज़ाद करे और अगर आइंदा आने वाले रमज़ानुल मुबारक तक उन की कज़ा न रखे तो हर दिन के लिए फ़क़ीर को एक मुद तआम देना भी लाज़िम है।
(1763) बाप के मरने के बाद बड़े बेटे के चाहिए कि बाप की क़ज़ा नमाज़ो व रोज़ों को उस तफ़सील के मुताबिक़ बजा लाये जो क़ज़ा नमाज़ की बहस में बयान की गई है। एहतियाते वाजिब की बिना पर माँ के क़ज़ा रोज़ों को भी रखे।
(1764) अगर किसी के बाप ने माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़ों के अलावा दूसरे वाजिब रोज़े (मसलन मन्नती रोज़े) न रखे हों तो एहतियाते वाजिब की बिना पर बड़े बेटे को चाहिए कि उन रोज़ों की भी कज़ा बजा लाये।
मुसाफ़िर के रोज़ों के अहकाम
(1765) वह मुसाफ़िर जो सफ़र में अपनी चार रकअती नमाज़ों को दो रकअत पढ़ रहा हो तो उसे रोज़ा नही रखना चाहिये लेकिन वह मुसाफ़िर जो पूरी नमाज़ पढ़ता हो, मसलन जिस का पेशा ही सफ़र हो या जिस का सफ़र किसी नाजायज़ काम के लिए हो ज़रूरी है कि सफ़र में रोज़ा रखे।
(1766) माहे रमज़ानुल मुबारक में सफ़र में कोई हरज नही है लेकिन रोज़ों से बचने के लिए सफ़र करना मकरूह है।
(1767) अगर माहे रमज़ान के रोज़ों के अलावा कोई दूसरा मुऐय्यन रोज़ा इंसान पर वाजिब हो जैसे उस ने नज़र की हो कि एक ख़ास दिन रोज़ा रखेगा तो वह उस दिन सफ़र कर सकता है इसी तरह अगर तंग वक़्त में वह रमज़ान के क़ज़ा रोज़े रख रहा हो तब भी यही हुक्म है।
(1768) अगर कोई शख्स रोज़े की मन्नत माने लेकिन उस के लिए दिन मुऐय्यन न करे तो वह शख्स ऐसा मन्नती रोज़ा सफ़र में नहीं रख सकता। लेकिन अगर मन्नत माने कि सफ़र के दौरान एक मखसूस दिन रोज़ा रखेगा तो ज़रूरी है कि वह रोज़ा सफ़र में ही रखे और यह भी कि अगर मन्नत माने कि सफ़र में हो या न हो एक मखसूस दिन का रोज़ा रखेगा तो ज़रूरी है कि अगरचे सफ़र में हो तब भी उस दिन का रोज़ा रखे।
(1769) मुसाफ़िर तलबे हाजत के लिए तीन दिन मदीन-ए-तय्येबा में मुस्तहब रोज़ा रख सकता है और एहतियात यह है कि वह तीन दिन एक के बाद एक बुद्ध, जुमेरात और जुमा हों।
(1770) जिस शख़्स को यह इल्म न हो कि मुसाफ़िर का रोज़ा बातिल है, अगर वह सफ़र में रोज़ा रख ले और दिन ही में उसे मसअले का हुक्म मालूम हो जाये तो उस का रोज़ा बातिल है। लेकिन अगर मग़रिब तक हुक्म मालूम न हो तो उस का रोज़ा सही है।
(1771) अगर कोई शख्स यह भूल जाये कि वह मुसाफ़िर है या यह भूल जाये कि मुसाफ़िर का रोज़ा बातिल होता है और सफ़र में रोज़ा रख ले तो उस का रोज़ा बातिल है।
(1772) अगर रोज़े दार ज़ोहर के बाद सफ़र करे तो उसे चाहिए कि अपने रोज़े को पूरा करे और अगर ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो जिस वक़्त हद्दे तर्खुस पर पहुँच जाये यानी उस जगह पहुँच जाये जहाँ से उसके शहर की आख़री दीवार न दिखाई देती हो और अज़ान की आवाज़ न सुनाई देती हो तो अपने रोज़े को बातिल कर ले और अगर इस जगह पर पुँचने से पहले अपने रोज़े को बातिल कर ले तो एहतियात की बिना पर उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब हो जायेगा।
(1773) अगर मुसाफ़िर ज़ोहर से पहले अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ वह दस दिन रहना चाहता हो और उस ने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसे उस दिन का रोज़ा रखना चाहिए और अगर वह ज़ोहर के बाद पहुँचा हो या उसने रोज़े को बातिल करने वाला कोई काम कर लिया हो तो उस दिन का रोज़ा नही रख सकता।
(1774) मुसाफ़िर और वह शख्स जो किसी उज़्र की वजह से रोज़ा नही रख सकता हो उस के लिए माहे रमज़ानुल मुबारक में दिन के वक़्त जिमाअ(समभोग) करना और पेट भर कर खाना और पीना मकरूह है।
वह लोग जिन पर रोज़ा रखना वाजिब नही
(1775) जो शख्स बुढ़ापे की वजह से रोज़ा न रख सकता हो या रोज़ा रखने की वजह से उसे शदीद तकलीफ़ होती तो उस पर रोज़ा वाजिब नहीं है। लेकिन दूसरी हालत में ज़रूरी है कि हर रोज़े के बदले एक मुद तआम यानी गेहूँ या जौ या इन से मिलती जुलती कोई चीज़ फ़क़ीर को दे।
(1776) जिस शख्स ने बुढ़ापे की वजह से माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े न रखे अगर वह रमज़ानुल मुबारक के बाद रोज़े रखने के क़ाबिल हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि जो रोज़े न रखे हों उन की क़ज़ा बजा लाये।
(1777) अगर किसी शख्स को कोई ऐसी बीमारी हो जिस की वजह से उसे बहुत ज़्यादा प्यास लगती हो और वह प्यास बर्दाश्त न कर सकता हो या प्यासा रहने की वजह से उसे बहुत तकलीफ़ होती हो तो उस पर रोज़ा वाजिब नहीं है। लेकिन ज़रूरी है कि हर रोज़े के बदले एक मुद तआम फ़क़ीर को दे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि जितनी मिक़दार की बहुत ज़्यादा ज़रूरत हो उस से ज़्यादा पानी न पिये। और बाद में जब रोज़ा रखने के क़बिल हो जाये तो जो रोज़े न रखे हों उन की कज़ा बजा लाये।
(1778) जिस औरत के पेट में बच्चा हो अगर उस का रोज़ा रखना बच्चे के मुज़िर (हानी कारक) हो तो उस पर रोज़ा रखना वाजिब नही है। उसे चाहिए कि बाद में कज़ा रोज़े रखे और अगर रोज़ा रखना ख़ुद उस औरत के लिए मुज़िर हो तो तब भी उस पर रोज़ा वाजिब नही है उसे बाद में क़ज़ा रोज़े रखने चाहिए लेकिन हर दिन के बदले एक मुद तआम फ़क़ीर को देना चाहिए।
(1779) जो औरत बच्चे को दूद्ध पिलाती हो और उसका दूद्ध कम हो चाहे वह बच्चे की माँ हो या दाया और चाहे बच्चे को मुफ़्त दूद्ध पिला रही हो अगर उस का रोज़ा रखना खुद उस के या दूद्ध पीने वाले बच्चे के लिए मुज़िर्र(हानी कारक) हो तो उस औरत पर रोज़ा वाजिब नहीं है। लेकिन ऐसी सूरत में उसे हर दिन के बदले एक मुद तआम फ़क़ीर को देना चाहिए और दोनों सूरतों में जो रोज़े न रखे हों उन की क़ज़ा करे। लेकिन अगर कोई ऐसी औरत मिल जाये जो बच्चे को पैसा ले कर या मुफ़्त में दूद्ध पिला दे तो बच्चे को उस के हवाले कर के खुद रोज़ा रखना चाहिए।
महीने की पहली तारीख़ साबित होने का तरीक़ा
(1780) महीने की पहली तारीख़ निम्न लिखित चार चीज़ों से साबित होती हैः
(1) इंसान खुद चाँद देखे।
(2) एक ऐसा गिरोह जिस के कहने पर यक़ीन हो जाये अगर यह कहे कि हमने चाँद देखा है और इसी तरह हर वह चीज़ जिस की बदौलत यक़ीन हो जाये।
(3) शाबान की पहली तारीख़ से तीस दिन गुज़र जायें जिन के गुज़रने पर माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ साबित हो जाती है और रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ से तीस दिन गुज़र जायें जिन के गुज़रने पर शव्वाल की पहली तारीख़ साबित हो जाती है।
(4) दो आदिल मर्द यह कहें कि हम ने रात चाँद देखा है लेकिन अगर वह चाँद की हालत अलग अलग बयान करें तो पहली तारीख़ साबित नही होगी। और अगर उन की गवाही ख़िलाफ़े वाक़ेअ हो मसलन कहें कि चाँद का नीचे वाला हिस्सा उपर की तरफ़ था तो तब भी यही हुक्म है। लेकिन अगर चाँद की कुछ खुसूसियतों को बयान करने में इख़्तेलाफ़ हो मसलन यह कि एक कहे कि चाँद ऊँचा था और दूसरा कहे कि ऊँचा नही था तो उन के कहने पर चाँद की पहली तारीख़ साबित हो जायेगी।
(5) अगर मुजतहि जामे उश शराइत हुक्म दे कि आज चाँद की पहली तारीख़ है।
(1781) अगर मुजतहिद जामे उश शराइत हुक्म करे कि आज पहली तारीख़ है तो जो उनकी तक़लीद नही करते उनको भी उनके हुक्म पर अमल करना पड़ेगा। लेकिन जो लोग यह जानते हों कि मुजतहिद जामे उश शराइत ने इशतबा किया है तो वह उसके हुक्म पर अमल नही कर सकते।
(1782) मुनज्जिमों(सितारो का ज्ञान रखने वालो) की पेशीन गोई से महीने की पहली तारीख़ साबित नहीं होती लेकिन अगर इंसान को उन के कहने से यक़ीन हासिल हो जाये तो उसे चाहिए कि उस पर अमल करे।
(1783) चाँद का असमान पर बलंद होना या उस का देर से ग़ुरूब होना इस बात की दलील नहीं कि इस से पहली रात चाँद रात थी।
(1784) अगर किसी शख्स पर माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख़ साबित न हो और वह रोज़ा न रखे और बाद में दो आदिल मर्द कहें कि हम ने रात चाँद देखा है तो उसे चाहिए कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।
(1785) अगर किसी शहर में महीने की पहली तारीख़ साबित हो जाये तो उन दूसरे शहरों में रहने वालों के लिए भी साबित हो जायेगी जिन का उफ़ुक़ उस शहर के उफ़ुक़ से मिलता हो या क़रीब हो या उस से पश्चिम में हो, लेकिन जो शहर उस से पूरब में होंगे उनके लिए पहली तारीख साबित नही होगी।
(1786) महीने की पहली तारीख़ टेलीफ़ून टेली ग्राम रेडियो और दूसरे जदीद वसाइल से इन सूरतों में साबित होगी
1- वह पहला शहर जिस में पहली तारीख़ साबित हुई है उस में पहली तारीख मसला न.1780 में बयान की गई सूरतों में से किसी के ज़रिये साबित हुई हो।
2- इंसान को इस ख़बर के सही होने का इतमिनान हो ।
3- जिस शहर में चाँद साबित हुआ है उसका उफ़ुक़ उस शहर से मिलता हो या उस शहर से पूरब में हो।
(1787)जिस दिन के बारे में इंसान को इल्म न हो कि रमज़ानुल मुबारक का अख़री दिन है या शव्वाल का पहला दिन, इस दिन ज़रूरी है कि रोज़ा रखे लेकिन अगर मग़रिब से पहले पता चल जाये कि आज शव्वाल की पहली (रोज़े ईद) है तो ज़रूरी है कि रोज़ा अफ़तार कर ले।
(1788) अगर कोई शख्स क़ैद में हो और माहे रमज़ान के बारे में यक़ीन न कर सके तो ज़रूरी है कि अपने गुमान पर अमल करे और अगर गुमान भी मुमकिन न हो तो जिस महीने में भी रोज़ा रखे सही है और जिस महीने में रोज़े रखे हैं उसके बाद ग्यारह महीने पूरे होने के बाद फिर एक महीने रोज़े रखे । अगर बाद में पता चले कि रमज़ान नही था तो उस के रोज़े सही हैं। और अगर यह साबित हो जाये कि अभी रमज़ान शुरू नही हुआ है तो उसे चाहिए कि दुबारा रोज़े रखे।
हराम और मकरूह रोज़े
(1789) ईदे फ़ित्र और ईदे क़ुरबान के दिन रोज़ा रखना हराम है और यह भी कि जिस दिन के बारे में इंसान को यह इल्म न हो कि शाबान की आख़री तारीख़ है या रमज़ानुल मुबारक की पहली तो अगर उस दिन पहली रमज़ानुल मुबारक की नियत से रोज़ा रखे तो हराम है।
(1790) अगर औरत के मुस्तहब रोज़ा रखने से शौहर की हक़ तलफ़ी होती हो तो औरत के लिए रोज़ा रखना जायज़ नही है और अगर शौहर की हक़ तलफ़ी न भी होती हो लेकिन वह उसे मुस्तहब रोज़ा रखने से मना करे तो एहतियाते वाजिब यह है कि वह रोज़ा न रखे।
(1791) अगर औलाद का मुस्तहब रोज़ा माँ बाप या जद के लिए अज़िय्यत का सबब हो (माँ बाप या जद की औलाद से शफ़क़त की वजह से) तो औलाद के लिए मुस्तहब रोज़ा रखना जायज़ नही है।
(1792) अगर बेटा बाप की इजाज़त के बग़ैर मुस्तहब रोज़ा रखे और दिन में बाप उसे रोज़ा रखने से माना करे और बाप फ़ितरी शफ़क़त की बिना पर होने वाली अज़ियत के सबब मना कर रहा हो तो बेटे को चाहिये कि रोज़ा तोड़ दे।
(1793) अगर कोई शख्स जानता हो कि रोज़ा रखना उस के लिए मुज़िर(हानी कारक) नहीं है तो अगर डाक्टर भी कहे कि मुज़िर है उसे चाहिए कि रोज़ा रखे और अगर कोई शख्स यक़ीन या गुमान रखता हो कि रोज़ा उस के लिए मुज़िर है तो अगर डाक्टर कहे कि मुज़िर नहीं है तो उसे चाहिए कि वह रोज़ा न रखे और अगर रोज़ा रखे तो उस का रोज़ा सही नही है।
(1794) अगर किसी शख्स को एहतेमाल हो कि रोजा रखना उस के लिए मुज़िर्र है और उस एहतेमाल की बिना पर उस के दिल में ख़ौफ़ पैदा हो जाये तो अगर उस का यह एहतेमाल लोगों की नज़र में सही हो तो उसे रोज़ा नही रखना चाहिये। और अगर वह रोज़ा रख तो रोज़ा सही नही है, लेकिन अगर क़स्दे क़ुरबत से रखे और बाद में मालूम हो जाये कि नुक़्सान नही पहुँचाया है।
(1795) जिस शख्स को एतेमाद हो कि रोज़ा रखना उस के लिए मुज़िर नही है अगर वह रोज़ा रख ले और मग़रिब के बाद पता चले कि रोज़ा रखना उस के लिए मुज़िर था तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उस रोज़े की क़ज़ा करना ज़रूरी है।
(1796) ऊपर बयान किये गये रोज़ों के अलावा और भी हराम रोज़े है जो फ़िक़ह की मुफ़स्सल किताबों में बयान किये गये हैं।
(1797) आशूर के दिन रोज़ा रखना मकरूह है और उस दिन का रोज़ा भी मकरूह है जिस के बारे में शक हो कि अरफ़े का दिन है या ईदे क़ुरबान का दिन। लेकिन मुस्तहब है कि इंसान आशूर के दिन रोज़े की नियत के बग़ैर अस्र के वक़्त तक खाने पीने से परहेज़ करे।
मुस्तहब रोज़े
(1798) हराम और मकरूह रोज़ों के अलावा जिन का ज़िक्र किया जा चुका है साल के तमाम दिनों के रोज़े मुस्तहब है और बाज़ दिनों के रोज़े रखने की बहुत ताकीद की गई है जिन में से चंद यह हैः
(1) हर महीने की पहली और आख़री जुमेरात और पहला बुध जो महीने की दसवीं तारीख़ के बाद आये। और अगर कोई शख्स यह रोज़े न रखे तो मुस्तहब है कि उन की कज़ा करे और अगर कोई बिल्कुल रोज़ा न रख सकता हो तो मुस्तहब है कि हर दिन के बदले एक मुद तआम या 12/6 नुख़ुद चाँदी फ़क़ीर को दे।
(2) हर महीने की तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख़।
(3) रजब और शाबान के पूरे महीने के रोज़े। या उन दो महीनों में जितने रोज़े रख सकें चाहे वह एक दिन ही क्यों न हो।
(4) ईदे नौ रोज़ के दिन।
(5) ज़ीक़ादा की पच्चीसवीं और उनतीसवी तारीख़।
(6) जिल हिज्जह की पहली तारीख से नवीं तारीख़ (यौमे अरफ़ा) तक लेकिन अगर इंसान रोज़े की वजह से पैदा होने वाली कमज़ोरी की बिना पर यौमे अरफ़ा की दुआयें न पढ़ सके तो उस दिन का रोज़ा मकरूह है।
(7) ईदे सईदे ग़दीर के दिन (18 ज़िलहिज्जा)
(8) मुहर्रामुल हराम की पहली, तीसरी और सातवीं तारीख़।
(9) रसूसले अकरम (स0) की विलादत के दिन (17 रबी-उल-अव्वल)
(10) ईदे बेसत यानी रसूले अकरम (स0) के ऐलाने रिसालत के दिन (27 रजब)
जो शख्स मुस्तहब रोज़ा रखे उस के लिए वाजिब नहीं है कि उसे पूरा करे बल्कि अगर उस का कोई मोमिन भाई उसे खाने की दावत दे तो मुस्तहब है कि उस की दावत क़बूल कर ले और दिन में ही रोज़ा अफ्तार कर ले।
वह सूरतें जिन में मुबतिलाते रोज़ा से परहेज़ मुस्तहब है
(1758) नीचे लिखे छः इंसानों के लिए मुस्तहब है कि अगरचे रोज़े से न भी हों तब भी माहे रमज़ानुल मुबारक में उन कामों से परहेज़ करें जो रोज़े को बातिल करते है।
(1) वह मुसाफ़िर जिस ने सफ़र में कोई ऐसा काम किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और वह ज़ोहर से पहले अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ दस दिन रहने का इरादा रखता हो ।
(2) वह मुसाफ़िर जो ज़ोहर के बाद अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ वह दस दिन रहना चाहता हो।
(3) वह मरीज़ जो ज़ोहर से पहले तंदुरूस्त हो जाये और रोज़े को बातिल करने वाला कोई काम अंजाम दे चुका हो।
(4) वह मरीज़ जो ज़ोहर के बाद तंदुरूस्त हो जाये।
(5) वह औरत जो दिन में हैज़ या निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाये।
(6) वह काफ़िर जो रमज़ान के किसी दिन में मुसलमान हो जाये।
(1759) रोज़े दार के लिए मुस्तहब है कि रोज़ा अफ़तार करने से पहले मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर कोई दूसरा शख्स उस का इंतिज़ार कर रहा हो या उसे इतनी भूक लगी हो कि हुज़ूरे क़ल्ब के साथ नमाज़ न पढ़ सकता हो तो बेहतर है कि पहले रोज़ा अफ़तार करे। लेकिन ज़हाँ तक मुमकिन हो नमाज़ फ़ज़ीलत के वक़्त में ही अदा करे।
http://haqaurbatil.blogspot.com/2010/11/blog-post_06.html




























































































































































































































































































































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