सूरए माएदा; 5 :आयतें 7-40-आदम और मूसा का वाक्या

माएदा की 7वीं आयत और अपने ऊपर ईश्वर की अनुकंपा तथा प्रतिज्ञा को याद करो जिसका वह तुमसे वादा ले चुका है, जब तुमने कहा था कि हमने सुना और...

माएदा की 7वीं आयत

और अपने ऊपर ईश्वर की अनुकंपा तथा प्रतिज्ञा को याद करो जिसका वह तुमसे वादा ले चुका है, जब तुमने कहा था कि हमने सुना और मान लिया। और ईश्वर से डरते रहो कि निःसन्देह, ईश्वर दिलों तक की बातें जानने वाला है। (5:7)


पिछली आयत में ईश्वर ने खाने-पीने के आदेशों, पारिवारिक समस्याओं तथा नमाज़ और उपवास के कुछ आदेशों का वर्णन किया था। इस आयत में वह कहता है कि यह ईश्वरीय मार्गदर्शन, तुम ईमान वालों पर उसकी सबसे बड़ी अनुकंपा है। तो तुम इसका मूल्य समझो और इस अनुकंपा को याद करते रहो।
आपको याद होगा कि इस सूरे की तीसरी आयत में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़िलाफ़त अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के उत्तराधिकारी के रूप में उनके निर्धारण की घटना का वर्णन हुआ था जो धर्म की परिपूर्णता और अनुकंपा के संपूर्ण होने का कारण बना। यह आयत भी ईमानवालों को, ईश्वरीय नेतृत्व की महान अनुकंपा का मूल्य समझने का निमंत्रण देते हुए उन्हें सचेत करती है कि तुमने ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अली इब्ने अबी तालिब की ख़िलाफ़त के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन सुना और स्वीकार किया था। ध्यान रहे कि इस ईश्वरीय प्रतिज्ञा पर तुम कटिबद्ध रहो और इसे न तोड़ो।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम व ईश्वरीय नेतृत्व की अनुकंपा सभी भौतिक अनुकंपाओं से बड़ी है और इस पर सदैव ध्यान रहना चाहिए।
ईश्वर ने बुद्धि, प्रवृत्ति और ज़बान द्वारा सभी मुसलमानों से यह प्रतिज्ञा ली है कि वे उसके आदेशों के पालन पर कटिबद्ध रहेंगे अतः इस मार्ग में की जाने वाली हर कमी, प्रतिज्ञा के उल्लंघन समान है।


आइए अब सूरए माएदा की 8वीं आयत

हे ईमान वालो! सदैव ईश्वर के लिए उठ खड़े होने वाले बनो और केवल (सत्य व) न्याय की गवाही दो और कदापि ऐसा न होने पाए कि किसी जाति की शत्रुता तुम्हें न्याय के मार्ग से विचलित कर दे। न्याय (पूर्ण व्यवहार) करो कि यही ईश्वर के भय के निकट है और ईश्वर से डरते रहो कि जो कुछ तुम करते हो निसन्देह, ईश्वर उससे अवगत है। (5:8)


आपको याद होगा कि इसी प्रकार की बातें सूरए निसा की १३५वीं आयत में भी वर्णित थीं। अलबत्ता उस आयत में ईश्वर ने कहा था कि न्याय के आधार पर गवाही दो चाहे वह तुम्हारे और तुम्हारे परिजनों के लिए हानिकारक ही क्यों न हो। इस आयत में वह कहता है कि तुम अपने शत्रुओं तक के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार करो और सत्य तथा न्याय के मार्ग से विचलित न हो। कहीं ऐसा न हो कि द्वेष और शत्रुता तुम्हारे प्रतिरोध का कारण बन जाए और तुम अन्य लोगों के अधिकारों की अनदेखी कर दो। सामाजिक व्यवहार में चाहे वह मित्र के साथ हो या फिर शत्रु के साथ, ईश्वर को दृष्टिगत रखो और यह जान लो कि वह तुम्हारे सभी कर्मों से अवगत है और न्याय के आधार पर दण्ड या पारितोषिक देता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक न्याय केवल ईश्वर पर ईमान और उसके आदेशों के पालन की छाया में ही संभव है।
न्याय केवल एक शिष्टाचारिक मान्यता ही नहीं है बल्कि परिवार व समाज में तथा मित्र व शत्रु के साथ जीवन के सभी मामलों में एक ईश्वरीय आदेश है।
ईश्वर से भय के लिए जाति व वर्ण संबंधी सांप्रदायिकता से दूरी आवश्यक है और यही द्वेषों तथा शत्रुताओं का कारण बनती है।

आइए अब सूरए माएदा की 9वीं और 10वीं आयत

ईश्वर ने ईमान लाने और भले कर्म करने वालों से वादा किया है कि उनके लिए क्षमा और महान पारितोषिक होगा (5:9) और जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया और हमारी निशानियों को झुठलाया वे नरक (में जाने) वाले हैं। (5:10)


यह दो आयतें इस महत्वपूर्ण बात की ओर संकेत करती है कि ईश्वर के दण्ड और पारितोषिक का आधार, ईमान व कुफ़्र और अच्छे व बुरे कर्म हैं। ईश्वर किसी भी जाति या गुट का संबंधी नहीं है कि उसे स्वर्ग में ले जाए या उसके शत्रुओं को नरक में डाल दे।
पिछली आयत में अनेक बार ईश्वर से डरते रहने की सिफ़ारिश की गई। यह आयतें भी कहती हैं कि यदि तुम इन दो बातों का पालन करो तो तुम वास्तव में ईमान वाले हो और स्वर्ग में जाओगे, अन्यथा तुम भी काफ़िरों के साथ नरक में जाओगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि स्वर्ग और नरक, ईमान वालों तथा काफ़िरों से ईश्वर का वादा है, और उसके वादे अटल होते हैं।
भले कर्म, ग़लतियों की क्षतिपूर्ति और क्षमा का भी कारण है तथा ईश्वरीय पारितोषिक प्राप्त करने का भी।


आइए अब सूरए माएदा की 11वीं आयत

हे ईमान वालो! अपने ऊपर ईश्वर की उस अनुकंपा को याद करो जब (शत्रु के) एक समुदाय ने तुम्हारी ओर (अतिक्रमण का) हाथ बढ़ाने का इरादा किया तो ईश्वर ने उनके हाथों को तुम तक पहुंचने से रोक दिया। और ईश्वर से डरते रहो और (जान लो कि) ईमान वाले केवल ईश्वर पर ही भरोसा करते हैं। (5:11)


इस्लाम के इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जब शत्रु षड्यंत्रों, युद्धों और झड़पों द्वारा इस्लाम का नाम तक मिटा देना चाहता था परन्तु ईश्वर ने सदैव ही अपनी दया व कृपा से मुसलमानों की रक्षा की और शत्रुओं के षड्यंत्रों को विफल बना दिया।
यह आयत कहती है कि हे ईमान वालो! सदैव इन ईश्वरीय कृपाओं को याद रखो और जान लो कि इन कृपाओं और अनुकंपाओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का मार्ग ईश्वर से डरते रहना और पापों से बचना है कि जो इन गुप्त ईश्वरीय सहायताओं के जारी रहने का भी कारण है।
ईमान वालों को जानना चाहिए कि मानवीय शक्ति पर भरोसा करने और लोगों से डरने या उनके वादों से लोभ के बजाए केवल ईश्वर की अनंत शक्ति पर भरोसा करें और केवल उसी से डरें। इस स्थिति में उन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त हो जाएगी कि वे ईश्वर पर भरोसा करके लोगों की सभी झूठी शक्तियों के मुक़ाबले में खड़े हो सकेंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की कृपा और उसकी अनुकंपाओं की याद, मनुष्य से घमण्ड और निश्चेतना को दूर करके उसमें ईश्वर से प्रेम में वृद्धि कर देती है।

असंख्य शत्रुओं से मुसलमानों की रक्षा, ईश्वर की सबसे महत्वपूर्ण अनुकंपाओं में से है और ज़बान तथा कर्मों द्वारा इसके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। (7)

 सूरए माएदा; आयतें 12-14

निसन्देह, ईश्वर ने बनी इस्राईल से पक्का वादा लिया था और हमने उनमें से बारह लोगों को सरदार तथा अभिभावक के रूप में भेजा। ईश्वर ने उनसे कहा कि निसन्देह, मैं तुम्हारे साथ हूं यदि तुमने नमाज़ क़ाएम की, ज़कात देते रहे, मेरे पैग़म्बरों पर ईमान लाए, उनकी सहायता की और ईश्वर को भला ऋण दिया तो मैं तुम्हारे पापों को छिपा लूंगा और तुम्हें ऐसे बाग़ों में प्रविष्ट करूंगा जिसके पेड़ों के नीचे से नहरें बह रही होंगी। फिर इसके बाद तुममें से जो कोई कुफ़्र अपनाए तो वह वास्तव में सीधे मार्ग से भटक गया है। (5:12)

यह आयत और इसके बाद की आयतें उन वचनों की ओर संकेत करते हुए जो ईश्वर ने अपने पैग़म्बरों के माध्यम से पिछली जातियों से लिए हैं, कहती हैं कि ईश्वर ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के अतिरिक्त, जो बनी इस्राईल के पैग़म्बर थे, इस जाति के बारह क़बीलों के लिए बारह लोगों को नेता और अभिभावक निर्धारित किया ताकि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के माध्यम से उन्हें जो ईश्वरीय आदेश प्राप्त हो, उन्हें अपने क़बीलों तक पहुंचाएं। उन वचनों में से एक यह था कि बनी इस्राईल के शत्रुओं के मुक़ाबले में उन्हें ईश्वरीय समर्थन तभी प्राप्त होगा जब वे धार्मिक आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करेंगे और उन पर कटिबद्ध रहेंगे।
ईश्वर की सहायता और समर्थन उसी को प्राप्त होता है जो ईश्वर और पैग़म्बर पर ईमान भी रखता हो और धार्मिक आदेशों का पालन भी करता हो। इस प्रकार के लोग संसार में ही ईश्वरीय कृपा के पात्र बनते हैं और प्रलय में भी स्वर्ग की महान अनुकंपाओं से लाभान्वित होंगे।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कुछ कथनों के अनुसार उनके उत्तराधिकारियों की संख्या भी बनी इस्राईल के सरदारों की संख्या के बराबर अर्थात बारह है, जिनमें सबसे पहले हज़रत अली अलैहिस्सलाम और अन्तिम इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि केवल ईमान ही पर्याप्त नहीं है बल्कि भला कर्म भी आवश्यक है। इसी प्रकार पैग़म्बरों पर केवल ईमान लाना ही काफ़ी नहीं है बल्कि उनकी व उनके धर्म की सहायता भी आवश्यक है।
ईश्वर के बंदों पर किसी भी प्रकार का उपकार, ईश्वर के साथ लेन-देन के समान है अतः ग़रीबों पर उपकार नहीं जताना चाहिए बल्कि बड़े ही अच्छे व्यवहार द्वारा उनकी आवश्यकता की पूर्ति करनी चाहिए।


आइए अब सूरए माएदा की 13वीं आयत

फिर उनके द्वारा वचन तोड़ने के कारण हमने उन्हें अपनी दया से दूर करके उन पर लानत अर्थात धिक्कार की और उनके हृदयों को कठोर बना दिया। वे ईश्वरीय शब्दों को उनके स्थान से हटा देते हैं और उन्होंने हमारी नसीहतों का अधिकांश भाग भुला दिया है। और तुम उनके षड्यंत्रों और विश्वासघात से निरंतर अवगत होते रहोगे सिवाए कुछ लोगों के (जो विश्वासघाती और कठोर दिल नहीं हैं) तो हे पैग़म्बर! उन्हें क्षमा कर दो और उनकी ग़लतियों को माफ़ कर दो कि निसन्देह, ईश्वर भले कर्म करने वालों को पसंद करता है। (5:13)

पिछली आयत में ईश्वरीय वचनों का उल्लेख करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि यहूदियों ने इन वचनों को तोड़ा और वे ईश्वरीय दया से दूर हो गए तथा परिणाम स्वरूप उनके हृदय सत्य स्वीकार करने से इन्कार करने लगे और धीरे-धीरे वे कठोर होते चले गए क्योंकि उन्होंने न केवल यह कि वचन तोड़ा बल्कि अपने ग़लत कार्यों का औचित्य दर्शाने के लिए ईश्वर की किताब में भी फेर-बदल कर दिया। यहां तक कि उसके कुछ भागों को काट कर उन्हें भुला दिया।
अंत में यह आयत कहती है कि न केवल हज़रत मूसा के काल में यहूदी ऐसे थे बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में भी मदीना नगर के यहूदी भी सदैव ही ईमान वालों के विरुद्ध षड्यंत्र रचने और विश्वासघात करने का प्रयास करते रहते थे। उन्होंने अपनी यह पद्धति नहीं छोड़ी।
इस आयत से हमने सीखा कि पवित्र तथा साफ़ हृदयों में ही ईश्वरीय कथन को स्वीकार करने की योग्यता पाई जाती है, दूषित हृदय न केवल सत्य को स्वीकार नहीं करते बल्कि ईश्वरीय कथनों में फेर-बदल का प्रयास करते रहते हैं।
ऐतिहासिक दृष्टि से बनी इस्राईल का समुदाय वचन तोड़ने वाला और विश्वासघाती समुदाय है।
दूसरों के प्रति सबसे अच्छी भलाई, उनकी ग़लतियों को क्षमा करना है।

आइए अब सूरए माएदा की 14वीं आयत


और इसी प्रकार हमने उनसे भी वचन लिया जिन्होंने स्वयं को (हज़रत ईसा का अनुयायी बताया) परन्तु उन्होंने भी (बनी इस्राईल की भांति वचन तोड़ दिया और उन्हीं की भांति ईश्वरीय किताब के) कुछ भागों को भुला दिया जिसका उन्हें स्मरण कराया गया था तो हमने भी प्रलय तक के लिए उनके बीच शत्रुता और द्वेष उत्पन्न कर दिया और ईश्वर शीघ्र ही उन्हें, उससे अवगत करवा देगा जो वे करते रहे हैं। (5:14)


पिछली आयतों में यहूदियों द्वारा ईश्वरीय वचनों के उल्लंघन की ओर संकेत करने के पश्चात, ईश्वर इस आयत में ईसाइयों द्वारा ईश्वरीय वचन तोड़े जाने की ओर संकेत करते हुए कहता है कि हमने उन लोगों से भी जो, स्वयं हज़रत ईसा मसीह का अनुयायी और समर्थक बताते थे, वचन लिया कि वे ईश्वरीय धर्म की सहायता पर कटिबद्ध रहेंगे परन्तु उन्होंने भी वचन तोड़ दिया और बनी इस्राईल के ही मार्ग पर चल पड़े तथा उन्होंने पवित्र ईश्वरीय किताब में परिवर्तन किया और कुछ भागों को काट दिया जिसके परिणाम स्वरूप उनके बीच एक प्रकार का द्वेष और शत्रुता उत्पन्न हो गई जो प्रलय तक जारी रहेगी।
ईसाई धर्म में परिवर्तन और हेर-फेर का सबसे स्पष्ट उदाहरण, तीन ईश्वरों पर आस्था रखना है जिसने एकेश्वरवाद का स्थान ले लिया है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान का दावा करने वाले तो बहुत हैं पर धर्म के वास्तविक अनुयायी बहुत की कम हैं।
धार्मिक समाजों में मतभेद और विवाद का कारण, ईश्वर को भुला देना है। समाज की एकता वास्तविक एकेश्वरवाद पर निर्भर है।
अन्य धर्मों के अनुयाइयों द्वारा वचन तोड़ने के परिणामों से पाठ सीखना चाहिए और धार्मिक आदेशों के पालन के प्रति सदा कटिबद्ध रहना चाहिए।


सूरए माएदा; आयतें 15-17

हे आसमानी किताब वालो! निसंन्देह, हमारा पैग़म्बर तुम्हारी ओर आया ताकि आसमानी किताब की उन अनेक वास्तविकताओं का तुम्हारे लिए उल्लेख करे जिन्हें तुम छिपाते थे और वह अनेक बातों को क्षमा भी कर देता है। निसन्देह ईश्वर की ओर से तुम्हारे लिए नूर अर्थात प्रकाश और स्पष्ट करने वाली किताब आ चुकी है। (5:15)

पिछले कार्यक्रम में उन आयतों की व्याख्या की गई थी जिनमें यहूदियों और ईसाइयों के विद्वानों को संबोधित करते हुए कहा गया था कि तुम पवित्र ईश्वरीय किताब में क्यों हेर-फेर करते हो? या उसकी बातों को छिपाते हो? क्या तुम ईश्वरीय वचन को भूल गए हो?
यह आयत भी उन्हीं को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम जो स्वयं आसमानी किताब वाले हो और ईश्वरीय निशानियों को पहचानते हो, क्यों नहीं पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लाते कि उनका अस्तित्व प्रकाश की भांति और उनकी किताब वास्तविकताओं को स्पष्ट करने वाली है, वही वास्तविकताएं जिन्हें तुमने पिछली आसमानी किताबों से छिपा रखा है और स्पष्ट नहीं होने देते।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम सार्वभौमिक और सर्वकालीन धर्म है और पिछले सभी धर्मों के अनुयाइयों को अपनी अनंत किताब क़ुरआन की ओर आमंत्रित करता है।
ईश्वरीय शिक्षाएं प्रकाश हैं और संसार उसके बिना अंधकारमय है।


आइए अब सूरए माएदा की 16वीं आयत

ईश्वर इस (प्रकाश और स्पष्ट करने वाली किताब) के माध्यम से, उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने का प्रयास करने वालों को शांतिपूर्ण एवं सुरक्षित मार्गों की ओर ले जाता है और अपनी कृपा से उन्हें अंधकार से प्रकाश में लाता है और सीधे रास्ते की ओर उनका मार्गदर्शन करता है। (5:16)

पिछली आयत में क़ुरआने मजीद को वास्तविकताएं स्पष्ट करने वाली किताब बताने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि मार्गदर्शन स्वीकार करने की कुछ शर्तें हैं। इन शर्तों में सबसे महत्तवपूर्ण सत्य की खोज करना और उसे मानना है। क़ुरआने मजीद का मार्गदर्शन वही स्वीकार करेगा जो सांसारिक धन-दौलत और पद की प्राप्ति तथा आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयासरत न हो बल्कि केवल सत्य का अनुसरण और ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करना चाहता हो।
यह शर्त यदि व्यवहारिक हो जाए तो फिर ईश्वर उसे पाप और पथभ्रष्टता के अंधकारों से निकालकर ईमान और शिष्ट कर्मों के प्रकाशमयी रास्ते की ओर उसका मार्गदर्शन करेगा। स्वभाविक है कि यह मार्गदर्शन हर ख़तरे में मनुष्य और उसके परिवार की आत्मा व विचारों की रक्षा करता है और प्रलय में भी मनुष्य को ईश्वर के शांतिपूर्ण स्वर्ग में सुरक्षित ले जाएगा।
इस आयत से हमने सीखा कि शांति एवं सुरक्षा तक पहुंचना ईश्वरीय मार्ग के अनुसरण पर निर्भर है और क़ुरआन इस मार्ग पर पहुंचने तथा अंतिम गंतव्य तक जाने का माध्यम है।
मनुष्य केवल आसमानी धर्मों की छत्रछाया में ही एक दूसरे के साथ शांतिपूर्ण ढंग और प्रेम के साथ रह सकता है।
मनुष्य को ईश्वर तक पहुंचाने वाले कार्य विभिन्न हैं। भला कर्म हर काल में सभी लोगों के लिए अलग-अलग हो सकता है परन्तु लक्ष्य यदि ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति हो तो सब एक ही मार्ग पर जाकर मिलते हैं और वह सेराते मुस्तक़ीम का सीधा मार्ग है।
आइए अब सूरए माएदा की 17वीं आयत.

निसन्देह वे लोग काफ़िर हो गए जिन्होंने कहा कि मरयम के पुत्र (ईसा) मसीह ही ईश्वर हैं। (हे पैग़म्बर! उनसे) कह दीजिए कि यदि ईश्वर, मरयम के पुत्र मसीह, उनकी माता और जो कोई धरती पर है उसकी मृत्यु का इरादा कर ले तो कौन उन्हें ईश्वरीय इरादे से बचाने वाला है? और (जान लो कि) आकाशों, धरती और जो कुछ इन दोनों के बीच है सब पर ईश्वर ही का शासन है। वह जिसे चाहता है पैदा करता है और ईश्वर हर बात की क्षमता रखने वाला है। (5:17)

पिछली आयत में सभी आसमानी किताब वालों को इस्लाम का निमंत्रण देने के पश्चात यह आयत कहती है कि ईसाई, ईसा मसीह अलैहिस्सलाम को ईश्वर क्यों मानते हैं और क्यों उन्हें ईश्वर का समकक्ष ठहराते हैं? क्या ईसा मसीह ने हज़रत मरयम की कोख से जन्म नहीं लिया? तो फिर वे किस प्रकार ईश्वर हो सकते हैं? क्या उनकी माता हज़रत मरयम ने अन्य लोगों की भांति जन्म नहीं लिया? तो फिर किस प्रकार उन्हें भी एक ईश्वर माना जाता है? क्या ईश्वर हज़रत ईसा मसीह और उनकी माता हज़रत मरयम को मृत्यु देने में सकक्षम नहीं है? तो फिर यह दोनों कैसे ईश्वर हैं जिन्हें मृत्यु आ सकती है?
यदि गंभीरता के साथ इस प्रकार की आस्था की समीक्षा की जाए तो यह पता चलेगा कि यह एक प्रकार से ईश्वर का इन्कार है क्योंकि ईश्वर के स्तर पर किसी भी मनुष्य को ले आना वास्तव में ईश्वर के स्थान को एक मनुष्य की सीमा तक नीचे लाने के समान है।
यह आयत अंत में कहती है कि ईश्वर होने के लिए संपूर्ण व असीमित ज्ञान, शक्ति और सत्ता का होना आवश्यक है। हज़रत ईसा मसीह और उनकी माता में यह बातें नहीं थीं। रचयिता केवल ईश्वर ही है जो हर वस्तु का स्वामी है तथा हर प्रकार की बात में सक्षम है। ईश्वर होने के योग्य केवल वही है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम का एक लक्ष्य पिछले आसमानी धर्मों में पाई जाने वाली अनुचित एवं ग़लत आस्थाओं से मुक़ाबला करना है।
ईश्वरीय पैग़म्बर हर हाल में मनुष्य ही है, उसका स्थान चाहे कितना ही उच्च क्यों न हो। पैग़म्बर के बारे में अतिश्योक्ति, धर्मों की एकेश्वरवादी आत्मा से मेल नहीं खाती।
ईसा मसीह यदि ईश्वर हैं तो उनके शत्रु और विरोधी उन्हें सूली पर चढ़ाने में कैसे सफल हो गए? क्या बंदे ईश्वर पर आक्रमण कर सकते हैं?


सूरए माएदा; आयतें 18-22


और यहूदियों तथा इसाइयों ने कहा कि हम ईश्वर के पुत्र और उसके मित्र हैं। (हे पैग़म्बर उनसे) कह दो कि फिर ईश्वर तुम्हारे पापों के कारण तुम्हें क्यों दण्डित करता है? तुम भी ईश्वर द्वारा पैदा किये गए अन्य लोगों की भांति ही मनुष्य हो। यह ईश्वर है जो, जिसको चाहता है क्षमा कर देता है और जिसको चाहता है दण्डित कर करता है। और आकाशों और धरती तथा जो कुछ इन दोनों के बीच है सब पर ईश्वर का प्रभुत्व है और सभी को उसी की ओर लौटना है। (5:18)


पिछली आयतों में हमने पढ़ा कि ईसाई, हज़रत ईसा मसीह को मनुष्य के स्तर से बढ़ाकर ईश्वर मानते हैं। यह आयत कहती है कि ईसाई न केवल अपने पैग़म्बर को अन्य पैग़म्बरों से उच्च मानते थे बल्कि वे स्वयं को भी अन्य धर्मों के अनुयाइयों से बेहतर और श्रेष्ठ समझते थे। उनका विचार था कि वे ईश्वर के पुत्रों और मित्रों की भांति हैं जिन्हें कोई दण्ड नहीं दिया जाएगा।
रोचक बात यह है कि यहूदी भी ऐसी ही ग़लत धारणा रखते हैं और वे केवल स्वयं को मुक्ति और मोक्ष का पात्र समझते हैं। उनकी इस ग़लत धारणा के उत्तर में क़ुरआन कहता है कि जब हज़रत ईसा मसीह भी अन्य लोगों की भांति एक मनुष्य थे और तुम उनके अनुयायी भी दूसरों के समान हो। किसी को किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, सिवाए ईश्वर के भय और भले कर्म के। प्रलय में भी मनुष्य की मुक्ति का एकमात्र साधन भला कर्म होगा न कि उसका संबंध।
इस आयत से हमने सीखा कि जातिवाद और विशिष्टता प्रेम, धर्म और ईमान के नाम पर भी सही नहीं है।
धार्मिक अहं, वह ख़तरा है जो सदैव ही धर्मों के अनुयाइयों को लगा रहा है। धार्मिकता के कारण स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझकर घमण्ड और अहं में नहीं फंसना चाहिए।
स्वर्ग और नरक का बंटवारा हमारे हाथ में नहीं है कि हम स्वयं को स्वर्ग वाला और दूसरों को नरक वाला समझें। यह कार्य तो ईश्वर का है जो न्याय और तत्वदर्शिता के आधार पर जिस पापी को चाहेगा दण्डित करेगा और जिसको चाहेगा क्षमा कर देगा।


आइए अब सूरए माएदा की 19वीं आयत

हे आसमानी किताब वालो! पैग़म्बर उस समय तुम्हारे पास आए जब दूसरे पैग़म्बर नहीं थे, ताकि तुम्हारे लिए (धार्मिक वास्तविकताओं का) वर्णन करें ताकि कहीं ऐसा न हो कि तुम प्रलय के दिन यह कह दो कि हमें कोई शुभ सूचना देने और डराने वाला नहीं आया तो निसन्देह तुम्हारे पास शुभ सूचना देने और डराने वाला आया और ईश्वर हर बात में सक्षम है। (5:19)

ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का शुभ जन्म सन ५७० ईसवी में हुआ और सन ६१० में उनकी पैग़म्बरी की घोषणा की गई। इस हिसाब से हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बीच लगभग छः सौ वर्षों का अंतर है। इस बीच कोई भी पैग़म्बर नहीं आया परन्तु धरती, ईश्वरीय प्रतिनिधियों से ख़ाली नहीं रही और सदैव प्रचार करने वाले लोगों को ईश्वरीय धर्म के बारे में बताते रहे।
यह आयत यहूदियों और ईसाइयों को संबोधित करते हुए कहती है कि ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को तुम्हारी ओर भेजा और चूंकि तुम्हारे पास पहले भी पैग़म्बर आ चुके थे अतः तुम्हें दूसरों से पहले उन पर ईमान लाना चाहिए था और उनके धर्म को स्वीकार करना चाहिए था।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों के आगमन ने मनुष्य के लिए बहानों का मार्ग बंद कर दिया है और वह नहीं कह सकता कि मैं नहीं जानता था या मैं नहीं समझता था।
पैग़म्बरों का दायित्व अच्छे कर्मों के प्रति पारितोषिक की शुभ सूचना देना और बुराइयों तथा पापों के प्रति कड़े दण्ड की ओर से लोगों को डराना है।
आइए अब सूरए माएदा की 20वीं आयत

और (याद करो) उस समय को जब मूसा ने अपनी जाति से कहा था कि हे मेरी जाति (वालो!) अपने ऊपर ईश्वर की अनुकंपाओं को याद करो कि उसने तुम्हारे बीच पैग़म्बर भेजे और तुम्हें (धरती का) शासक बनाया और उसने तुम्हें (शासन और) ऐसी वस्तुएं प्रदान कीं जो उसने संसार में किसी को भी नहीं दी थीं। (5:20)

इस आयत में और इसके बाद आने वाली आयतों में ईश्वर, बनी इस्राईल के साथ हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की बातों का वर्णन करता है जिनका आरंभ उन विशेष अनुकंपाओं की याद है जो ईश्वर ने बनी इस्राईल को दी थीं। इन अनुकंपाओं में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम और हज़रत सुलैमान अलैहिस्सलाम जैसे पैग़म्बरों का बनी इस्राईल में आगमन है जिन्हें शासन प्राप्त हुआ और वे बनी इस्राईल के सम्मान, शक्ति और वैभव का कारण बने परन्तु बनी इस्राईल ने इन अनुकंपाओं की उपेक्षा की और परिणाम स्वरूप उन पर फ़िरऔन जैसा अत्याचारी शासक, शासन करने लगा तथा वे लोग उसके दास बन गए।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम उस उज्जवल अतीत की याद दिलाकर बनी इस्राईल को प्रयास करने के लिए प्रेरित करते थे ताकि वे अपनी पुरानी सत्ता को प्राप्त कर लें और सुस्ती तथा आलस्य से बाहर आ जाएं।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरी, सत्ता और स्वतंत्रता की अनुकंपा ईश्वर की महानतम अनुकंपाओं में से है और हमें इसका महत्त्व समझना चाहिए और कृतज्ञ रहना चाहिए।
इतिहास से पाठ सीखना चाहिए। ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभान्वित होने और सत्ता प्राप्त करने के बावजूद बनी इस्राईल अपमान, लज्जा और दरिद्रता में घिर गए।

आइए अब सूरए माएदा की 21वीं और 22वीं आयत

(हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने उनसे कहा) हे मेरी जाति (वालो!) पवित्र धरती में प्रवेश करो जिसे ईश्वर ने तुम्हारे लिए निर्धारित किया है और पीछे न हटो कि तुम घाटा उठाने वालों में से हो जाओगे। (5:21) बनी इस्राईल ने उत्तर में कहा, हे मूसा! उस धरती पर अत्याचारी गुट है हम उस (धरती) में कदापि प्रवेश नहीं करेंगे सिवाए इसके कि वह गुट उस धरती से निकल जाए। तो यदि वह निकल गया तो हम निसन्देह, प्रविष्ट हो जाएंगे।(5:22)

हज़रत मूसा अलैहिस्लाम ने बनी इस्राईल से कहा कि वह जेहाद और प्रयास द्वारा तत्कालीन सीरिया और बैतुलमुक़द्दस में प्रवेश करें और वहां के अत्याचारी शासकों के सामने डट जाएं परन्तु वे लोग जो वर्षों तक फ़िरऔन के शासन में जीवन व्यतीत कर चुके थे, इतने डरपोक हो गए थे कि कहने लगे कि हम यह काम नहीं कर सकते। हममें संघर्ष की शक्ति नहीं है। वे लोग यदि स्वयं ही उस धरती से निकल जाएं और उसे हमारे हवाले कर दें तो हम उसमें प्रवेश करेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय धर्मों के अनुयाइयों को पवित्र धार्मिक स्थानों को अत्याचारियों के चुंगल से छुड़ाना चाहिए।
शत्रु के साथ मुक़ाबले में पराजय का कारण अपने दुर्बल होने का आभास है और पैग़म्बरों ने इस आभास को समाप्त करने के लिए संघर्ष किया है।

सूरए माएदा; आयत 23-26
ईश्वर का भय रखने वाले दो लोगों ने, जिन्हें ईश्वर ने (ईमान और साहस की) विभूति प्रदान की थी, कहा। नगर के द्वार से शत्रु के यहां घुस जाओ, और यदि तुम प्रविष्ट हो गए तो निसन्देह, तुम्हीं विजयी होगे और केवल ईश्वर पर ही भरोसा रखो यदि तुम ईमान वाले हो। (5:23)


श्रोताओ आपको अवश्य ही याद होगा कि पिछले कार्यक्रम मे हमने कहा था कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल से कहा था कि वे लोग अत्याचारियों से संघर्ष करें और अपने नगर को मुक्त कराएं परन्तु वे लोग जेहाद और संघर्ष के लिए तैयार नहीं हुए और कहने लगे कि हम लोग शहर में प्रविष्ट नहीं होंगे जब तक कि वे स्वयं ही वहां से निकल न जाएं।
यह आयत कहती है कि यहूदी जाति के दो लोगों ने जिनका नाम तौरेत में यूशा और क़ालिब वर्णित है, बनी इस्राईल से कहा था कि शत्रु से नहीं बल्कि ईश्वर से डरो और उसी पर भरोसा करो, इसी नगर के द्वार से प्रविष्ट हो जाओ और अचानक ही शत्रु पर आक्रमण कर दो। निश्चिंत रहो कि तुम ही विजयी होगे अलबत्ता यदि अपने ईमान पर डटे रहो और ईश्वर की ओर से निश्चेत न हो ।
इस आयत से हमने सीखा कि जो ईश्वर से डरता है वह अन्य शक्तियों से भयभीत नहीं होगा। ईश्वर पर ईमान, शक्ति तथा सम्मान और महानता का कारण है।
यदि हम पहल करें तो ईश्वर की ओर से सहायता मिलती है, बिना कुछ किये, सहायता की आशा रखना बेकार है।
बिना प्रयास के ईश्वर पर भरोसा रखना निरर्थक है। साहस और निर्भीकता भी आवश्यक है साथ ही ईश्वर पर भरोसा तथा उसका भय भी।.

आइए अब सूरए माएदा की 24वीं आयत

बनी इस्राईल ने कहा कि हे मूसा! जब तक वे अत्याचारी नगर में हैं हम कदापि उसमें प्रविष्ट नहीं होंगे। तो तुम और तुम्हारा पालनहार जाओ और युद्ध करो। हम यहीं पर बैठे हुए हैं। (5:24)

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के आह्वान और बनी इस्राईल के वरिष्ठ लोगों के प्रोत्साहन के बावजूद, यहूदी संघर्ष के लिए तैयार नहीं हुए और उन्होंने बड़े ही दुस्साहस के साथ कहा कि हम युद्ध के लिए क्यों जाएं? हे मूसा! आप ही युद्ध के लिए जाएं क्योंकि आपका पालनहार आपके साथ है अतः आप तो निश्चित रूप से विजयी होंगे। जब आप नगर को अपने नियंत्रण में ले लेंगे तो हम भी उसमें प्रविष्ट हो जाएंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि बनी इस्राईल के लोग अशिष्टता, बहानेबाज़ी, आलस्य, और आराम पसंदी का उदाहरण थे। हमें उन जैसा नहीं होना चाहिए वरना हमारा परिणाम ही उन्हीं जैसा होगा।
ईश्वरीय प्रतिनिधियों और समाज सुधारकों की उपस्थिति के बाद भी, जनता का कर्तव्य और दायित्व समाप्त नहीं होता कि लोग कहें कि कार्यवाही करने वाले मौजूद हैं और हमारा कोई दायित्व नहीं है।


आइए अब सूरए माएदा की 25वीं आयत
मूसा ने कहा कि हे मेरे पालनहार! मुझे अपने भाई के अतिरिक्त किसी पर नियंत्रण प्राप्त नहीं है (और यह लोग मेरी बात नहीं मानते) तो तू हमारे और इस अवज्ञाकारी जाति के बीच जुदाई डाल दे। (5:25)


इतिहास बहुत ही विचित्र है। वह जाति जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के संघर्ष के कारण फ़िरऔन के चुंगल से मुक्त हुई और उसकी स्थाई पहचान बनी, आज अपने नगर में प्रविष्ट होने के लिए एक क़दम भी उठाने पर तैयार नहीं है। उसे प्रतीक्षा है कि ईश्वर का पैग़म्बर हर काम स्वयं कर ले और तब उन्हें नगर में आने का निमंत्रण दे। यह देखकर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने बनी इस्राईल को श्राप दिया और ईश्वर से प्रार्थना की थी कि इस जाति के अवज्ञाकारियों और उद्दंडियों को दण्डित करे क्योंकि अब उनके सुधार की कोई आशा नहीं थी और इस दण्ड से बचने के लिए उन्होंने कहा कि हमारे और उनके बीच जुदाई डाल दे।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों ने अपने दायित्वों के पालन में कोई कमी नहीं की है, यह तो लोग थे जो मोक्ष और मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रयास तथा जेहाद करने के लिए तैयार नहीं हुए।
पैग़म्बरों की पद्धति, लोगों तक ईश्वर का संदेश पहुंचाना थी न कि आदेशों के पालन के लिए लोगों को विवश करना था।
आइए अब सूरए माएदा की 26वीं आयत

ईश्वर ने मूसा से कहा कि निःसन्देह यह पवित्र धरती इनके लिए ४० वर्षों तक वर्जित हो गई। यह इस जंगल और मरुस्थल में भटकते रहेंगे। तो हे मूसा! तुम इस अवज्ञाकारी जाति के लिए दुखी मत हो। (5:26)


ईश्वरीय दण्ड प्रलय से विशेष नहीं है बल्कि कभी ईश्वर कुछ लोगों या जाति को उसके कर्मों का दण्ड इसी संसार में देता है। ईश्वर ने बनी इस्राईल के लोगों की अवज्ञा और बहानेबाज़ी के दण्डस्वरूप उन्हें ४० वर्षों तक सीना नामक मरूस्थल में भटकाया तथा उन्हें उस पवित्र धरती की अनुकंपाओं से वंचित कर दिया। इस ईश्वरीय दण्ड का उल्लेख वर्तमान तौरेत में भी हुआ है। इतिहास के अनुसार बनी इस्राईल के लोग ४० वर्षों तक सीना नामक मरूस्थल में भटकने और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को खोने के पश्चात, नगर में प्रविष्ट होने के लिए अंततः सैनिक आक्रमण पर ही विवश हुए। उनके पुराने आलस्य का परिणाम ४० वर्षों तक भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं निकला।
इस आयत से हमने सीखा कि शत्रु के मुक़ाबले में कमज़ोरी और आलस्य दिखाने तथा युद्ध व जेहाद से फ़रार होने का परिणाम, अनुकंपाओं से वंचितता और भटकने के अतिरिक्त कुछ नहीं है।
जेहाद के मोर्चे से फ़रार होने वालों को समाज की संभावनाओं और सुविधाओं से वंचित कर देना चाहिए।
ईश्वर के पवित्र बंदे बुरे लोगों को भी दण्डित होता नहीं देख सकते परन्तु अपराधी को दण्डित करना ऐसी दवा है जो समाज के स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है।
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सूरए माएदा; आयत 27-31

(हे पैग़म्बर!) लोगों को आदम के दो पुत्रों का हाल उस प्रकार सुना दीजिए जिस प्रकार उसका हक़ है। जब दोनों ने (ईश्वर के निकट बलि चढ़ाई तो उनमें से एक की क़ुर्बानी स्वीकार हुई और दूसरे की स्वीकार नहीं हुई। तो (क़ाबील ने जिसकी क़ुरबानी स्वीकार नहीं हुई थी अपने भाई हाबील से) कहा, मैं अवश्य तुम्हारी हत्या करूंगा। उसने उत्तर में कहा, ईश्वर तो केवल उन्हीं से (क़ुर्बानी) स्वीकार करता है जो उसका भय रखते हैं। (5:27)


इस्लामी इतिहास की पुस्तकों और इसी प्रकार तौरेत में वर्णित है कि आरंभ में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के दो पुत्र थे, हाबील और क़ाबील। हाबील चरवाहे थे और क़ाबील किसान। हाबील क़ुर्बानी के लिए अपनी सबसे अच्छी भेड़ें लाए जबकि क़ाबील ने अपनी उपज का सबसे घटिया अंश ईश्वर से सामिप्य के लिए पेश किया। अतः हाबील की क़ुर्बानी स्वीकार हो गई और क़ाबली की क़ुर्बानी अस्वीकार कर दी गई।
यह बात हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के पास ईश्वरीय संदेश भेजकर उन दोनों को बता दी गई। क़ाबील ने, जो एक ईर्ष्यालु और अंधकारमय प्रवृत्ति वाला व्यक्ति था, स्वयं को सुधारने के बजाए अपने भाई से बदला लेने की ठानी और इस मार्ग में वह इतना आगे बढ़ गया कि उसने हाबील की हत्या करने का निर्णय कर लिया।
परन्तु हाबील ने, जो एक भले और पवित्र प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, इस बात के उत्तर में कहा, ईश्वर की ओर से हमारे कर्मों का स्वीकार या अस्वीकार किया जाना तर्कहीन नहीं है। तुम अकारण ही मुझसे ईर्ष्या कर रहे हो। ईश्वर उस कर्म को स्वीकार करता है जो पूरी निष्ठा और पवित्रता के साथ किया गया हो, अब वह काम जो भी हो और जितना भी हो। ईश्वर उसी वस्तु को ख़रीदता है जिसपर पवित्रता की मुहर लगी हो अन्यथा उसका कोई महत्व नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि अतीत के लोगों का इतिहास आगामी पीढ़ियों के मार्ग का सबसे अच्छा चिराग़ है। इतिहास की महत्तवपूर्ण घटनाओं को बार-बार दोहराना चाहिए, ताकि वह नई पीढ़ी के लिए शिक्षा सामग्री बन सके।
केवल भला कर्म ही काफ़ी नहीं है बल्कि उसके साथ अच्छी भावना भी होनी चाहिए जो उस कार्य को मूल्यवान बनाए।
ईर्ष्या, भाई की हत्या की सीमा तक बढ़ सकती है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना में भी शैतान ने ईर्ष्या के हथकण्डे से उनके और उनके भाइयों के बीच जुदाई डाल दी।

आइए अब सूरए माएदा की 28वीं तथा 29वीं आयतों

(हाबील ने अपने भाई क़ाबील से कहा) यदि मेरी हत्या करने के लिए तुम मेरी ओर हाथ बढ़ाओगे तब भी मैं कदापि तुम्हारी हत्या के लिए तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाने वाला नहीं हूं क्योंकि मैं संसार के पालनहार ईश्वर से डरता हूं।(5:28) मैं चाहता हूं कि तुम मेरे और अपने पापों का केन्द्र बन जाओ और नरक वालों में से हो जाओ और यही अत्याचारियों का बदला है।(5:29)

क़ाबील जैसे ईर्ष्यालु और अपराधी भाई के मुक़ाबले में, हाबील किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने के स्थान पर कहते हैं, यद्यपि मैं जानता हूं कि तुम मेरी हत्या करना चाहते तो किंतु मैं तुमसे पहले यह काम नहीं करूंगा क्योंकि मैं प्रलय के दिन ईश्वर के न्याय से डरता हूं और जानता हूं कि अपराध से पूर्व बदला लेना वैध नहीं है।
अलबत्ता अत्याचार के मुक़ाबले में अपनी रक्षा आवश्यक है परन्तु केवल यह जानकर कि कोई पाप करने का इरादा रखता है उसे दण्डित करना ठीक नहीं है क्योंकि संभव है कि वह यह कार्य न करे परन्तु पाप होने से रोकने के लिए, उस व्यक्ति से पाप के साधन छीने जा सकते हैं।
प्रत्येक दशा में हाबील ने कहा कि मैं तुमसे पहले यह कार्य नहीं करूंगा और यदि तुमने ऐसा किया और मेरी हत्या कर दी तो जान लो कि तुम नरक वालों में से हो जाओगे और मैं तुमसे वहां पर अपना हक़ लूंगा क्योंकि तुम्हारे पास कोई भला कर्म तो होगा नहीं कि तुम उसे मुझे दे दो और मैं तुम्हें क्षमा कर दूं। अतः तुम मेरे पापों का बोझ भी ढोने के लिए विवश होगे और तुम्हें दोहरा दण्ड मिलेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईर्ष्यालु और हठधर्मी लोगों के सामने शांति से बात करनी चाहिए, उनकी ईर्ष्या को और अधिक नहीं भड़काना चाहिए।
महत्त्वपूर्ण और मूल्यवान बात यह है कि कमज़ोरी और आलस्य के कारण नहीं बल्कि ईश्वर से डरते हुए पाप नहीं करना चाहिए। हाबील ने यह नहीं कहा कि चूंकि मेरे पास शक्ति नहीं है अतः मैं तुम्हें क्षमा करता हूं। बल्कि उन्होंने यह कहा कि मैं ईश्वर से डरता हूं कि अपने भाई की हत्या करूं।
मनुष्य को पाप से रोकने में ईश्वर का भय, सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है।

आइए अब सूरए माएदा की 30वीं और 31वीं आयतों

फिर क़ाबील के (उद्दंडी) मन ने उसे अपने भाई की हत्या पर तैयार कर लिया तो उसने हाबील की हत्या कर दी और वह घाटा उठाने वालों में से हो गया। (5:30) तो ईश्वर ने एक कौवा भेजा जो ज़मीन खोद रहा था ताकि उसे बताए कि किस प्रकार अपने भाई के शव को छिपाए। उसने कहा कि धिक्कार हो मुझ पर कि मैं इस कौवे जैसा भी नहीं हो सका कि अपने भाई के शव को धरती में छिपा देता (उसने ऐसा ही किया) और वह पछताने वालों में शामिल हो गया। (5:31)


हाबील की नसीहतों और उन दोनों के बीच होने वाली बातों के बावजूद अंततः क़ाबील के दुष्ट मन ने उस पर नियंत्रण कर ही लिया और उसने अपने ही भाई के ख़ून से अपने हाथ रंग लिए परन्तु शीघ्र ही उसे अपने इस कार्य पर पछतावा होने लगा किंतु पछतावे से अब कोई लाभ नहीं था। इसी कारण क़ाबील असमंजस में था कि वह अपने भाई के शव का क्या करे? इसी अवसर पर ईश्वर ने एक कौवे को भेजा जिसने ज़मीन खोद कर क़ाबील को यह समझा दिया कि उसे अपने भाई को मिट्टी में दफ़न कर देना चाहिए।
धरती पर यह पहली हत्या थी। इसने आदम के बेटों के मन में द्वेष और ईर्ष्या के बीज बो दिये। खेद के साथ कहना पड़ता है कि द्वेष और ईर्ष्या के यह बीज अभी भी बलि ले रहे हैं और मनुष्यों के बीच अशांति तथा समस्याओं का कारण बने हुए हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि सत्य तथा असत्य के बीच युद्ध, धरती पर मनुष्य के जन्म के समय से ही चला आ रहा है और मनुष्य की पहली मौत शहादत से आरंभ हुई है।
कभी-कभी ईश्वर पशुओं को, मनुष्य को कुछ बातें सिखाने के लिए भेजता है। मनुष्य अपने ज्ञान के कुछ भाग के लिए पशुओं का कृतज्ञ है।
ईश्वर की इच्छा के आधार पर मनुष्य के शव को दफ़्न करना चाहिए।


सूरए माएदा; आयतें 32-35

इसी कारण हमने बनी इस्राईल के लिए लिख दिया कि जो कोई किसी व्यक्ति की, किसी व्यक्ति के बदले में या धरती पर बुराई फैलाने के अतिरिक्त (किसी अन्य कारणवश) हत्या कर दे तो मानो उसने समस्त मानव जाति की हत्या कर दी, और जिसने किसी व्यक्ति को जीवित किया (और उसे मृत्यु से बचाया) तो मानो उसने सभी मनुष्यों को जीवित कर दिया, और निसन्देह, हमारे पैग़म्बर बनी इस्राईल के पास स्पष्ट निशानियां लेकर आए परन्तु उनमें से अधिकांश लोग (सत्य को जानने के बाद भी) धरती में अतिक्रमण करने वाले ही रहे। (5:32)


हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के दो पुत्रों की घटना का वर्णन किया था। हमने बताया था कि क़ाबील ने ईर्ष्या के कारण अपने भाई हाबील की हत्या कर दी और एक कौवे को देखकर हाबील के शव को मिट्टी मे दफ़्न कर दिया और अपने काम पर पछताने लगा।
इस आयत में ईश्वर कहता है कि इस घटना के पश्चात हमने यह निर्धारित कर दिया कि किसी एक व्यक्ति की हत्या, सभी मनुष्यों की हत्या के समान है और इसी प्रकार किसी एक व्यक्ति को मौत से बचाना भी पूरे मानव समाज को मौत के मुंह से बचाने के समान है।
क़ुरआने मजीद इस आयत में एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक वास्तविकता की ओर संकेत करते हुए कहता है कि मानव समाज एक शरीर की भांति है और समाज के सदस्य उस शरीर के अंग हैं। इस समाज में एक सदस्य को पहुंचने वाली हर क्षति का प्रभाव, अन्य सदस्यों में स्पष्ट होता है। इसी प्रकार जो कोई किसी निर्दोष के ख़ून से अपने हाथ रंगता है वह वास्तव में अन्य निर्दोष लोगों की हत्या के लिए भी तैयार रहता है। वह हत्यारा होता है और निर्दोष लोगों या दोषियों के बीच कोई अंतर नहीं समझता।
यहां पर रोचक बात यह है कि पवित्र क़ुरआन, मनुष्य के जीवन को इतना महत्त्व देता है और एक व्यक्ति की हत्या को पूरे समाज की हत्या के समान बताने के बावजूद दो स्थानों पर मनुष्य की हत्या को वैध बताता है। पहला स्थान हत्यारे के बारे में है कि उसके अपराध के बदले में उसे क़ेसास किया जाना चाहिए अर्थात हत्यारे को मृत्यु दण्ड दिया जाना चाहिए। दूसरा स्थान उस व्यक्ति के बारे में है जो समाज में बुराई फैलाता है, यद्यपि ऐसा व्यक्ति किसी की हत्या नहीं करता किंतु समाज की व्यवस्था को बिगाड़ देता है। इस प्रकार के लोगों का भी सफ़ाया कर देना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके परिजनों के कथनों में लोगों को जीवित करने और उनकी हत्या करने का उदाहरण, उनके मार्गदर्शन और पथभ्रष्टता में बताया गया है। जो कोई भी दूसरों की पथभ्रष्टता का कारण बनता है मानो वह एक समाज को पथभ्रष्ट करता है और जो कोई किसी एक व्यक्ति का मार्गदर्शन करता है मानो वह एक पूरे समाज को मुक्ति दिलाता है।
इस आयत के अंत में क़ानून तोड़ने की बनी इस्राईल की आदत की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि यद्यपि हमने बनी इस्राईल के लिए अनेक पैग़म्बर भेजे और उनके कानों तक वास्तविकता पहुंचा दी किंतु इसके बावजूद वे ईश्वरीय सीमाओं को लांघते रहे और पाप करते रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि मनुष्यों का भविष्य एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। मानव इतिहास एक ज़ंजीर की भांति है कि यदि उसकी एक कड़ी को तोड़ दिया जाए तो बाक़ी कड़ियां भी बर्बाद हो जाती हैं।
कर्म का मूल्य उसकी भावना और उद्देश्य से संबंधित है। अतिक्रमण के उद्देश्य से एक व्यक्ति की हत्या पूरे एक समाज को मारने के समान है किंतु एक हत्यारे को मृत्युदण्ड देना, समाज के जीवन का कारण है।
जिनका कार्य लोगों की जान बचाना है, उन्हें डाक्टरों की भांति अपने काम का मूल्य समझना चाहिए। किसी भी रोगी को मौत से बचाना पूरे समाज को मौत से बचाने के समान है।

आइए अब सूरए माएदा की 33वीं और 34वीं आयत

निसन्देह जो लोग ईश्वर और उसके पैग़म्बर से युद्ध करते हैं और धरती में बिगाड़ पैदा करने का प्रयास करते हैं, उनका दण्ड यह है कि उनकी हत्या कर दी जाए या उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाए या उनके हाथ पांव विपरीत दिशाओं से काट दिये जाएं (अर्थात दायां पांव और बायां हाथ या इसका उल्टा) या फिर उन्हें देश निकाला दे दिया जाए। यह अपमानजनक दण्ड तो उनको संसार में मिलेगा और प्रलय में भी उनके लिए बहुत ही कड़ा दण्ड है। (5:33) सिवाए उन लोगों के जो तुम्हारे नियंत्रण में आने से पहले ही तौबा कर लें। तो जान लो कि ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (5:34)


पिछली आयत में मनुष्यों की जान के महत्त्व और सम्मान के वर्णन के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि किसी ने यदि इस सम्मान की रक्षा नहीं की तो फिर स्वयं उसकी जान भी सम्मानीय नहीं है और उसे कड़ा दण्ड दिया जाएगा ताकि दूसरे उससे पाठ सीखें।
इन आयतों में चार प्रकार के दण्डों का उल्लेख किया गया है। हत्या करना, सूली देना, हांथ-पांव काटना और देश निकाला देना। स्पष्ट है कि यह चारों दण्ड एक समान नहीं हैं और इस्लामी शासक अपराध के स्तर के अनुरूप ही इनमें से किसी एक दण्ड का चयन करता है।
रोचक बात यह है कि ईश्वर ने इस आयत में लोगों को जान से मारने की धमकी को ईश्वर तथा पैग़म्बर से युद्ध के समान बताया है। वास्तव में यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। अर्थात अपराधी को यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर और उसका पैग़म्बर उसके सामने हैं, उसे यह नहीं सोचना चाहिए कि उसने किसी कमज़ोर और दुर्बल व्यक्ति को पकड़ लिया है अतः उस पर जो भी अत्याचार चाहे कर सकता है।
अंत में आयत कहती है कि इन सांसारिक दण्डों से, प्रलय का दण्ड समाप्त नहीं होता, और एक बड़ा दण्ड उसकी प्रतीक्षा में है। सिवाए इसके कि इस प्रकार के लोग तौबा करें तो ईश्वर जो कुछ उससे संबंधित है उसे क्षमा कर देगा परन्तु लोगों के अधिकारों को अदा करना ही होगा क्योंकि लोगों के अधिकारों को ईश्वर तब तक क्षमा नहीं करता जब तक स्वयं अत्याचार ग्रस्त व्यक्ति क्षमा न कर दे।
इन आयतों से हमने सीखा कि समाज में सुधार के लिए उपदेश भी आवश्यक हैं और न्याय का कड़ा व्यवहार भी।
जो लोग समाज की शांति को समाप्त करते हैं तो समाज में उनकी किसी भी प्रकार की उपस्थिति को समाप्त कर देना चाहिए।
इस्लाम के दण्डात्मक आदेशों को लागू करने के लिए, इस्लामी सरकार का गठन और इस सरकार की सत्ता आवश्यक है।
आइए अब सूरए माएदा की 35वीं आयत

हे ईमान वालो! ईश्वर से डरो और (उससे सामिप्य के लिए) साधन जुटाओ तथा उसके मार्ग में जेहाद करते रहो कि शायद तुम्हें मोक्ष प्राप्त हो जाए। (5:35)

पिछली आयतों में हत्या, अपराध, धमकी और दूसरों की शांति छीनने जैसे कुछ पापों के कड़े दण्डों के वर्णन के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि इस संसार में मुक्ति और मोक्ष के दो ही मार्ग हैं। एक ईश्वर का भय और दूसरे उसके सामिप्य के लिए साधन। मन की आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण, अपराध तथा पाप की भूमि समतल होने को रोक देता है, और इसी के साथ उन साधनों का प्रयोग जो ईश्वर ने मनुष्य के लिए निर्धारित किये हैं, मनुष्य को ईश्वर के समीप कर देता है। जैसे क़ुरआने मजीद, पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा और उनके परिजनों तथा पवित्र लोगों के चरित्रों का अनुसरण। यह सब बातें ईश्वर से मनुष्य के निकट होने का कारण बन सकती हैं, जिस प्रकार से कि ईश्वर से भय पापों से मनुष्य की दूरी का कारण बनता है।
इस आयत से हमने सीखा कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए बुराइयों से दूर भी रहना चाहिए और पवित्रताओं तथा पवित्र लोगों के समीप ही रहना चाहिए।
ईश्वर का भय और उसके सामिप्य के साधन, मोक्ष व कल्याण के मार्ग हैं। यदि अन्य शर्तें उपलब्ध हों तो मनुष्य गंतव्य तक पहुंच जाएगा।

सूरए माएदा; आयतें 36-40

निसन्देह जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया, यदि उनके पास वह सब कुछ हो जो धरती पर है और उतना ही उसके साथ और भी हो कि वे उसे देकर प्रलय के दिन के दण्ड से बच जाएं तब भी उनसे स्वीकार नहीं किया जाएगा और उनके लिए दुखदायी दण्ड है। (5:36) वे लोग चाहते हैं कि (नरक की) आग से निकल जाएं परन्तु वे उससे बाहर निकलने वाले नहीं हैं और उनके लिए स्थाई दण्ड है।(5:37)


पिछली आयतों में ईमान वालों को भलाई, प्रयासरत रहने, ईश्वर से भय और उसके मार्ग में जेहाद का निमंत्रण देने के पश्चात इन आयतों में ईश्वर कहता है कि हे ईमान वालो, काफ़िरों की धन-संपत्ति और सुख-वैभव सब कुछ इस नश्वर संसार तक ही सीमित हैं। यह प्रलय में इनके कुछ भी काम नहीं आएंगे। न केवल यह कि धरती की पूरी संपत्ति बल्कि यदि उससे दोगुनी संपत्ति भी लोगों के पास हो फिर भी वह उनके नरक से बचने का कारण नहीं बन सकती।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर के न्याय के दरबार में, नरक से बचने के लिए कोई भी बदला स्वीकार्य नहीं है।
मनुष्य के कल्याण का कारक, आंतरिक तत्व है न कि बाहरी। ईमान और कर्म, कल्याण के कारक हैं न कि धन।
जो संसार में अपने कुफ़्र और द्वेष पर डटा रहा, प्रलय में उसका दण्ड भी स्थाई ही होगा।

आइए अब सूरए माएदा की 38वीं आयत


चोरी करने वाले पुरुष और महिला के हाथ उनके कर्म के बदले काट दो कि यह ईश्वर की ओर से दण्ड है और ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और तत्वदर्शी है। (5:38)


पिछले कार्यक्रम में खुल्लम-खुल्ला शस्त्र के बल पर लोगों की जान व माल के लिए ख़तरा बनने वाले व्यक्ति के बारे में मूल आदेश का वर्णन किया गया था। यह आयत विशेष परिस्थितियों में चोर के लिए आदेश बयान करती है जो प्रायः चोरी-छिपे लोगों की धन या संपत्ति चुराता है।
चूंकि अधिक्तर चोरियां हाथों से होती हैं और जो हाथ लोगों के माल में चोरी करे, उसका कोई मूल्य नहीं है, अतः इस आयत में ईश्वर कहता है कि जो कोई चोरी करे, चाहे वह पुरुष हो या स्त्री उसके हाथ काट दिये जाएं कि जो स्वयं उसके कर्म का बदला है न कि ईश्वर का अत्याचार। तत्वदर्शी ईश्वर ने समाज में शांति और सुरक्षा के लिए इस प्रकार के दण्ड रखे हैं।
अलबत्ता इस बात का ध्यान रहना चाहिए कि हर चोर के हाथ नहीं काटे जा सकते बल्कि हाथ काटे जाने की शर्त यह है कि चोरी किया गया माल कम से कम एक दश्मलव दो पांच ग्राम सोने के बराबर हो, चोर ने भूख से विवश होकर चोरी न की हो और इसी प्रकार के कुछ अन्य आदेश जो धार्मिक पुस्तकों में वर्णित हैं।
इसी प्रकार हाथ काटने का अर्थ, हाथ की उंगलियों का काटा जाना है न कि कलाई से पूरा हाथ। आश्चर्य की बात यह है कि कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी इस इस्लामी आदेश को अमानवीय और उग्र आदेश मानते हैं जबकि कुछ विश्वासघाती लोगों के हाथ काटना पूरे समाज की सुरक्षा के लिए पूर्णतः मानवीय बात है और अनुभवों ने यह दर्शा दिया है कि जिन समाजों ने इन ईश्वरीय आदेशों को अपनाया है उनमें चोरी के आंकड़े बहुत कम हैं जबकि पश्चिमी समाजों में चोरी के आंकड़ें बहुत अधिक हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम के दण्डात्मक क़ानूनों में अपराधियों को सज़ा दिये जाने के अतिरिक्त अन्य लोगों के सीख लेने की बात भी दृष्टिगत है अतः लोगों के सामने अपराधियों को सज़ा दी जाती है ताकि इससे दूसरे लोग पाठ ले सकें।
व्यक्तिगत स्वामित्व और सामाजिक सुरक्षा को इस्लाम इतना महत्तव देता है कि जो कोई भी इन दोनों को क्षति पहुंचाए उसके साथ अत्यंत कड़ा व्यवहार करता है।
इस्लाम, व्यक्तिगत धर्म नहीं है बल्कि उसके पास सामाजिक समस्याओं के समाधान के कार्यक्रम हैं। इसी प्रकार इस्लाम, केवल प्रलय और परलोक का धर्म नहीं है बल्कि लोगों के संसार के लिए भी वह कार्यक्रम रखता है।
आइए अब सूरए माएदा की 39वीं और 40वीं आयतों


तो जो कोई (दूसरों पर किये) अपने अत्याचार से तौबा कर ले (और अपने पापों का प्रायश्चित) तथा सुधार कर ले तो निसन्देह, ईश्वर उसकी तौबा स्वीकार कर लेता है कि निसंदेह, ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (5:39) क्या तुम नहीं जानते कि आकाशों और धरती का शासन ईश्वर के लिए ही है? वह (अपनी तत्वदर्शिता और न्याय के आधार पर) जिसे चाहता है दण्डित करता है और जिसे चाहता है क्षमा कर देता है और ईश्वर हर वस्तु पर अधिकार रखने वाला है।(5:40)


पिछली आयत में चोरी के दण्ड का वर्णन किया गया था परन्तु ईश्वर की दया के द्वार सदा ही खुले रहते हैं और ईश्वर की दया उसके क्रोध से आगे है अतः यह आयत कहती है कि यदि कोई अपने इस काम से तौबा करले और अपराध की क्षतिपूर्ति कर ले तो उसे ईश्वर क्षमा कर देता है।
स्पष्ट सी बात है कि वास्तविक तौबा, न्यायालय में अपराध सिद्ध होने से पहले की जाने वाली तौबा है वरना हर चोर जब स्वयं को कड़े दण्ड के सामने पाता है तो तौबा का दावा करता है। अतः अपराध सिद्ध होने से पूर्व यदि चोर, ईश्वर के समक्ष तौबा कर ले और चुराई हुई सभी वस्तुएं उसके मालिक को लौटा दे या किसी को नुक़सान पहुंचाया हो तो उसकी क्षतिपूर्ति करके उसे राज़ी कर ले तो ईश्वर भी उसे क्षमा कर देता है और उसका दण्ड माफ़ किया जाता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि तौबा केवल एक आंतरिक पश्चाताप नहीं है बल्कि यह पापों और अपराधों की क्षतिपूर्ति के साथ किया जाने वाला प्रायश्चित है।
तौबा करके मनुष्य यदि सीधे मार्ग पर वापस आ जाए तो ईश्वर भी अपनी कृपा व दया को लौटा देता है।
दण्ड और क्षमा दोनों ही ईश्वर के हाथ में हैं तथा बंदों के बारे में ईश्वर के हाथ बंधे हुए नहीं हैं परन्तु वह न्याय के आधार पर अपराधी को दण्ड देता है और तौबा करने वाले को क्षमा करता है।

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