इस्लामी संस्कृति व इतिहास
इस्लामी संस्कृति व सभ्यता , मानव इतिहास की सबसे समृद्ध सभ्यताओं में से एक है। यद्यपि इस संस्कृति में , जो इस्लाम के उदय के साथ अस्ति...
https://www.qummi.com/2014/07/blog-post.html
इस्लामी संस्कृति व सभ्यता, मानव इतिहास की सबसे समृद्ध सभ्यताओं में से एक है। यद्यपि इस संस्कृति में, जो इस्लाम के उदय के साथ अस्तित्व में आई, बहुत अधिक उतार-चढ़ाव आए हैं किंतु इसका अतीत अत्यंत उज्जवल है। इस्लामी सभ्यता के इतिहास की समीक्षा से पता चलता है कि यह संस्कृति व सभ्यता, एक तर्कसंगत आधार पर अस्तित्व में आई है। आप को इस संस्कृति व सभ्यता से अधिक अवगत कराने के लिए हम इस्लामी सभ्यता का इतिहास नामक एक नई श्रंखला लेकर उपस्थित हैं। इसमें हम आपको इस्लामी सभ्यता के परवान चढ़ने,इसके उतार-चढ़ाव भरे इतिहास और इसकी प्रगति के आधारों से अवगत कराएंगे।
मानवता के लिए इस्लाम का उपहार वह महान एवं व्यापक संस्कृति व सभ्यता है जिसने सभी मनुष्यों विशेष कर मुसलमानों को सदा के लिए अपना ऋणी बना लिया है। आज इस्लामी संस्कृति व सभ्यता का परिचय, विभिन्न समाजों विशेश कर बुद्धिजीवी वर्ग के लिए एक महत्वपूर्ण एवं ध्यान योग्य मुद्दा है। मुसलमानों की भावी पीढ़ियों के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनके पूर्वज संस्कृति व सभ्यता की दृष्टि से किस स्तर पर थे। यह ज्ञान उनके व्यक्तित्व के निर्माण या पुनर्निर्माण में बहुत अधिक प्रभावी है। साम्राज्य ने पिछली दो शताब्दियों के दौरान विभिन्न राष्ट्रों विशेष कर मुसलमानों की सभ्यता व संस्कृति की मौलिकता व उपयोगिता का इन्कार करने का प्रयास किया है ताकि इसके माध्यम से अपनी संस्कृति व सभ्यता को देशों पर थोप सके। पश्चिम का वास्तविक लक्ष्य यह है कि संसार तथा विभिन्न संस्कृतियों के भीतर इस विचार को सबल बना दे कि उनके पास पश्चिम के रंग में रंगने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है।
इस्लामी सभ्यता के इन्कार और पूर्वी देशों पर पश्चिमी संस्कृति व मूल्यों को थोपने का एक लक्ष्य यह है कि पश्चिम वाले, एक ओर तो संसार के अन्य राष्ट्रों व सभ्यताओं की प्रगति को स्वयं से संबंधित कर सकें और दूसरी ओर मुसलमानों की तीव्र प्रगति एवं विकास को रोक सकें। ईरान के एक बुद्धिजीवी और विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर डाक्टर शफ़ीई सेरविस्तानी का मानना है कि पश्चिम अपनी श्रेष्ठ तकनीक एवं आर्थिक शक्ति की सहायता से, कि जो स्वयं ही देशों के शोषण से प्राप्त हुई है, वर्षों से पूरे संसार में अपनी संस्कृति को फैलाने और सांस्कृतिक भूमंडलीकरण के प्रयास में है। पश्चिम ने इस बात का बहुत अधिक प्रयास किया है कि जिस प्रकार से भी संभवहो, अपने प्रतीकों और मूल्यों को पूर्वी समाजों पर थोप दे।
चूंकि पश्चिम ने स्वयं को मानव सभ्यता का मूल स्थान दर्शाने और अपनी मान्यताएं अन्य क्षेत्रों पर थोपने के लिए व्यापक प्रयास किए हैं अतः इस्लामी संस्कृति व सभ्यता की महानता व उसके मूल आधारों का वर्णन अत्यंत आवश्यक है। अमरीका के एक विचारक और सभ्यताओं के बीच टकराव के दृष्टिकोण के जनक सेमुइल हेन्टिंग्टन इस संबंध में कहते हैं। “नवीनीकरण के विषय में पश्चिम ने न केवल विश्व को एक नए समाज की ओर बढ़ाया है बल्कि अन्य सभ्यताओं के लोग भी प्रगति करते करते पश्चिमवादी हो गए हैं। वे अपनी पारंपरिक मान्यताओं व संस्कारों को छोड़ कर उनके स्थान पर वैसे ही पश्चिमी प्रतीकों को अपना रहे हैं।
इस समय पश्चिमी संसार इस्लामी सभ्यता की प्रगति व विकास को रोकने के लिए, सांस्कृतिक वर्चस्व के माध्यम से अन्य देशों पर अपना राजनैतिक वर्चस्व जमाने की चेष्टा में है। उल्लेखनीय है कि पश्चिम ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से संसार का नेतृत्व अपने हाथ में लेने के प्रयास आरंभ कर दिए थे किंतु चूंकि कुछ राष्ट्र अपनी मान्यताओं व राष्ट्रीय व धार्मिक संस्कृति की सुरक्षा पर बल देते हैं और सरलता से बाहरी वर्चस्व के समक्ष घुटने नहीं टेकते अतः वह सांस्कृतिक वर्चस्व के माध्यम से राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। पश्चिम का प्रयास है कि ग़ैर अरब विशेष कर इस्लामी देशों में अपनी संस्कृति को फैला कर धीरे-धीरे उनकी संस्कृति में मूल परिवर्तन कर दे ताकि उन पर उसके राजनैतिक वर्चस्व का मार्ग प्रशस्त हो जाए।
अमरीका के एक शोधकर्ता व लेखक एडवर्ड बर्मन लिखते हैं कि पश्चिम, सामूहिक संचार माध्यमों व पत्र पत्रिकाओं और रॉक फ़ैलर,कारनेगी तथा फ़ोर्ड जैसी तथाकथित सांस्कृतिक संस्थाओं जैसे हथकंडों के माध्यम से विकासशील समाजों में विशेष ज्ञानों व विचारों का प्रसार करने का प्रयास कर रहा है। विचारों व संस्कृतियों को उत्पन्न करके उन्हें प्रचलित करना जिनके नियंत्रण में है वे प्रयास कर रहे हैं कि संसार और जीवन के प्रतिदिन के मामलों के संबंध में लोगों के सोचने की शैली को प्रभावित कर दें।
इस्लामी संस्कृति व सभ्यता पर चर्चा के लिए उचित होगा कि इस सभ्यता को अस्तित्व में लाने वाले कारकों तथा पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता से उसकी तुलना के बारे में कुछ बात की जाए। इस्लामी सभ्यता को अस्तित्व प्रदान करने वाले महत्वपूर्ण कारकों में से एक,उसमें पाई जाने वाली विभिन्न संस्कृतियां हैं। इतिहास हमें बताता है कि गतिशील व सक्रिय संस्कृतियां किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं होतीं बल्कि सदैव अपने आपको सुरक्षित रखती हैं। उदाहरण स्वरूप यद्यपि इस्लामी संस्कृति व सभ्यता को अपने पूरे जीवनकाल में उतार-चढ़ाव और बाहरी लोगों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा है किंतु वह कभी भी उनसे पराजित व प्रभावित नहीं हुई है। इसके अतिरिक्त इस्लामी संस्कृति व सभ्यता, ईरानी, मिस्री व अरबी संस्कृतियों की भांति स्थानीय संस्कृतियों की रक्षा के कारण, विशेष सांस्कृतिक विविधता से संपन्न है जबकि पश्चिमी संस्कृति, अन्य संस्कृतियों व राष्ट्रियताओं को समाप्त करने और सभी संस्कृतियों को एकसमान बनाने के प्रयास में है। इस्लामी संस्कृति व सभ्यता में सभी संस्कृतियों व राष्ट्रियताओं को सुरक्षित रखा गया है और यह बात स्वयं इस्लामी सभ्यता के फलने-फूलने का एक कारण है।
अमरीकी इतिहासकार वेल डोरेन्ट सभ्यता और सभ्य समाज के बारे में कहते हैं कि सभ्यता, सामाजिक अनुशासन, क़ानून की सरकार तथा अपेक्षाकृत उचित स्थिति के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में आने वाली सांस्कृतिक रचनात्मकता को कहते हैं। सभ्यता, ज्ञान व संस्कृतिक के उत्थान का फल है। जो समाज, सामाजिक अनुशासन को स्वीकार करता है और ज्ञान से लाभ उठा कर मानवीय गुणों के विकास व परिपूर्णता के बारे में सोचता है वही, सभ्य समाज कहलाता है।
निश्चित रूप से विभिन्न जातियों व समुदायों को अपनाना, इस्लामी संस्कृति व सभ्यता की गतिशीलता के कारणों में से एक है। इस्लामी सभ्यता में जातियों के भेद का कोई महत्व नहीं है और यह सभ्यता किसी विशेष जाति या समुदाय से संबंधित नहीं है। इस्लाम प्रगति व विकास का धर्म है और उसने यह सिद्ध किया है कि वह व्यवहारिक रूप से विकास व कल्याण की ओर समाज का मार्गदर्शन कर सकता है।
इस्लामी सभ्यता की एक अन्य विशेषता अंधविश्वास व सांप्रदायिकता से दूरी है। इस्लाम ने एक ऐसे संसार में अपने निमंत्रण का आरंभ किया जिसमें लोग अंधकार और गतिहीनता में ग्रस्त थे। इस्लाम ने अपनी शिक्षाओं के माध्यम से, जो ज्ञान व बुद्धि पर आधारित हैं,अज्ञानता व अंधविश्वासों की ज़ंजीरों को तोड़ दिया, लोगों के बीच प्रेम व बंधुत्व का प्रचार किया तथा एक प्रकाशमान सभ्यता के अस्तित्व में आने और उसके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। वेल डोरेन्ट अपनी प्रख्यात पुस्तक मानव सभ्यता का इतिहास में लिखते हैं किइस्लामी सभ्यता से अधिक आश्चर्यचकित करने वाली कोई अन्य सभ्यता नहीं है। यदि इस्लाम गतिहीनता, निश्चलता और जड़ता का समर्थक होता तो इस्लामी समाज को अरब समाज की उसी आरंभिक सीमा तक रोके रखता जबकि एक शताब्दी से भी कम समय में उसने अपने पड़ोस की सभ्यताओं को अपनी ध्रुव पर एकत्रित कर लिया और उन सबसे मिला कर एक अधिक व्यापक सभ्यता को अस्तित्व प्रदान किया।
इस्लामी सभ्यता में, जिसका स्रोत एक पवित्र विचारधारा है, लोक-परलोक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो मानव जीवन के भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों आयामों पर ध्यान देता है। धर्म, मनुष्य की प्रगति एवं परिपूर्णता का माध्यम है और बुद्धि एवं विवेक से उसका गहरा नाता है। प्रख्यात मुस्लिम समाज शास्त्री इब्ने ख़ल्लदून का मानना है कि मनुष्य के धार्मिक व बौद्धिक आयाम,उसके मानवीय आयामों से जुड़ जाते हैं और इस प्रकार एक बड़ी सभ्यता जन्म लेती है।
यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि महान इस्लामी सभ्यता ने अपने से पहले वाली सभ्यताओं के नकारात्मक व अंधविश्वासपूर्ण तत्वों को नकार दिया और उनके सकारात्मक बिंदुओं को अपना कर महान इस्लामी सभ्यता के उत्थान और उसके फलने फूलने का मार्ग प्रशस्त किया|
मानव संस्कृति में इस्लामी सभ्यता व संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। पूरे इतिहास मेंविदेशियों ने इस्लामी सभ्यता की महान व बड़ी-२ उपलब्धियों की अनदेखी करके मुसलमान विद्वान व वैज्ञानिकों की कुछ खोजों को अपनी खोज बताने का प्रयास किया है। हमने पहले वाले कार्यक्रम में कुछ उन तत्वों व बातों की ओर संकेत किया था जिनकी इस्लामी सभ्यता के गठन में भूमिका रही है। हमने बताया था कि विभिन्न संस्कृतियों एवं जातियों के लोगों ने ईश्वरीय धर्म इस्लाम स्वीकारकिया और इस धर्म ने हर प्रकार के भेदभाव और अंध विश्वास से दूर रहकर लोगों के लोक-परलोक के मामलों को समन्वित करने के लिए महान सभ्यता की आधार शिला रखी। आज के कार्यक्रम में हम कुछ उन दूसरे तत्वों के बारे में चर्चा करेंगे जिनकी इस्लामी सभ्यता व संस्कृति के उतार- चढ़ाव में महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
इस्लामी सभ्यता की एक महत्वपूर्ण विशेषता व मापदंड नैतिकता एवं अध्यात्म है। लेबनान के ईसाई लेखक जुर्जी ज़ैदान लिखते हैं" मदीना में प्रवृष्ट होने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम का सबसे पहला लाभदायक व महत्वपूर्ण क़दम, यह था कि उन्होंने मक्का और मदीना के मुसलमानों के बीच बंधुत्व व मित्रता का समझौता कराया। मक्का से मदीना पलायन करने वाले मुसलमानों और पहले से मदीना में रहने वाले मुसलमानों के मध्य बंधुत्व का समझौता कराना एकता की दिशा में इस्लाम का पहला क़दम था जिसे पैग़म्बरे इस्लाम के आदेश वसुझाव पर किया गया। जुर्जी ज़ैदान के अनुसार उसी समय से मुसलमानों ने नैतिकता एवं आध्यात्म पर बल देकर इस्लाम धर्म के क़ानूनों को मान्यता एवं महत्व दिया और नैतिकता व अध्यात्म पर इस्लामी सभ्यता की बुनियाद रखी।
धर्म और नैतिकता का संस्कृति एवं सभ्यता से संबंध है और यह संस्कृति व सभ्यता के विकास में प्रभाव रखते हैं। वर्तमान समय केअधिकांश विचारक इस बात पर एकमत हैं कि पश्चिमी सभ्यता यद्यपि विज्ञान और उद्योग की दृष्टि से चरम बिन्दु पर है परंतु इस सभ्यता में नैतिकता का न केवल यह कि उस सीमा तक विकास नहीं हुआ है बल्कि वह पतन के मार्ग पर है। आज बहुत से विचारकों का विश्वास है कि पश्चिमी सभ्यता नैतिकता एवं आध्यात्म पर ध्यान न देने के कारण पतन की ओर जा रही है।
अमेरिकी लेखक Buchanan j. Patrick अपनी किताब west death में इस बात को लिखते हैं कि क्यों वह समाज विखंडित एवं मृत्यु के कगार पर है, जो वैज्ञानिक दृष्टि से प्रगति के मार्ग पर अग्रसर है?
विशेषज्ञों ने पश्चिमी सभ्यता के पतन के संदर्भ में विभिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं। पुनर्जागरण के बाद पश्चिम में फैली विचारधारा तीन स्तंभों पर आधारित थी। प्रथम मनुष्य, दूसरे उदारवाद और तीसरे सेकुलरिज़्म। पहली धारणा के अनुसार मनुष्य एक स्वतंत्र व स्वाधीन प्राणी है, परलोक से उसका कोई संबंध नहीं है और उसे ईश्वरीय मार्ग दर्शन की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके अतिरिक्त पश्चिमी संस्कृति व सभ्यता लिब्रालिज़्म पर विश्वास और केवल व्यक्तिगत हितों के महत्व के दृष्टिगत नैतिक एवं आध्यात्मिक सिद्धांतों का इंकार करती है। इस बात में संदेह नहीं है कि इन सिद्धांतों का इंकार, पश्चिमी समाज में किसी प्रकार की रोक- टोक न होने कापरिणाम है। पश्चिमी सभ्यता की एक विशेषता व आधार सेकुलरिज़्म या भौतिकवाद और इसके परिणाम में क़ानून और सामाजिक कार्यक्रम बनाने के क्षेत्रों में धर्म का इंकार किया जाता है। आज पश्चिमी सभ्यता पर लिब्रालिज़्म, भौतिकवाद और मनुष्य को मूल तत्व के रूप में मानने वाली विचार धारा का बोलबाला है जो मनुष्य के जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित कर रही है। अमेरिकी लेखकBuchanan इस प्रश्न के उत्तर में कि क्यों वह संस्कृति असहनीय हो गई है जिसका पश्चिम दम भरता है? कहते हैं" यह सभ्यता नैतिकता एवं आध्यात्म से विरोधाभास रखने और पारम्परिक व धार्मिक हस्तियों के साथ इस संस्कृति के क्रिया- कलापों के कारण घृणा का पात्र बन गयी है। वास्तव में पश्चिमी सभ्यता पर जिस सोच का बोलबाला है वह ईश्वरीय एवं मानवीय प्रवृत्ति से विरोधाभास रखती है।
अमेरिकी लेखक Buchanan नैतिकता की अनदेखी और पश्चिमी मनुष्य के जीवन से धर्म की समाप्ति को पश्चिमी सभ्यता के पतन का एक कारक मानते हैं। वह अपनी पुस्तक में लिखते हैं" वर्ष १९८३ में जब वाइट हाउस में चिकित्सा संकट के संबंध में चर्चा हो रही थी,एडस की बीमारी के कारण ६०० अमेरिकियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। समलैंग्गिकों ने प्रकृति से युद्ध की घोषणा कर दी थी और प्रकृति ने भी बुरी तरह उन्हें दंडित किया। वर्तमान समय में संक्रामक विषाणु एचआईवी से ग्रस्त लाखों लोग प्रतिदिन मिश्रित औषधिCOCKTAIL के सेवन से जीवित हैं। यौन चलन या बिना रोक- टोक यौन संबध भी मानव पीढ़ी को बर्बाद कर देने के लिए आरंभ हो चुका है। गर्भपात, तलाक़, जन्म दर में कमी, युवाओं द्वारा आत्म हत्या, मादक पदार्थों का सेवन, महिलाओं एवं बड़ी उम्र के लोगों के साथ दुर्व्यहार, बिना रोक टोक यौन संबंध और इस प्रकार के दूसरे दसियों विषय सबके सब इस बात के सूचक हैं कि पश्चिमी सभ्यता पतन की ओर बढ़ रही है" अमेरिकी लेखक Buchanan पश्चिमी समाज के प्रभाव को हीरोइन की भांति मानते हैं जो आरंभ में व्यक्ति को आराम देता है परंतु शरीर में मिल जाने के बाद मनुष्य को बर्दाद कर देता है। एक अन्य अमेरिकी लेखक KENNETH MINOG अपनी किताब नये मापदंड में लिखते हैं" नैतिकता से इतनी अधिक दूरी के कारण हम यह दावा नहीं कर सकते कि युरोपीय और पश्चिमीसभ्यता बेहतर है"
सैद्धांतिक रूप से उस समाज के बाक़ी व प्रगतिशील रहने की गारंटी है जिस समाज अथवा सामाजिक परिवेश में नैतिकता में विकास हो और लोग आध्यात्मिक एवं नैतिक सिद्धांतों का सम्मान करें। " इस्लामी और ईरानी संस्कृति व सभ्यता की प्रगतिशीलता" नामक मूल्यवान पुस्तक के लेखक डाक्टर अली अकबर विलायती लिखते हैं" यदि कोई समाज मान्य व स्वीकार्य सीमा तक सभ्यता में विकास कर चुका हो परंतु वह क़ानून का सम्मान न करे तो यह सभ्यता कमज़ोर हो जायेगी और अंततः असुरक्षा व अराजकता समाज के स्तंभों को हिला देंगी तथा उस सभ्यता की प्रगति रुक जायेगी। क्योंकि उद्देश्यहीन सभ्यता निरंकुशता का कारण बनेगी। इसीलिए इस्लामी सभ्यता का आधार नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों, एकता, और व्यक्तिगत तथा सामाजिक क़ानूनों पर रखा गया है।
सभ्यता सहित समाज और मनुष्य से संबंधित विषयों में उतार- चढ़ाव आते हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि हर सभ्यता अपने लम्बे जीवन में कुछ चरणों से गुज़रती है जिसके दौरान वह कभी विकास करती है तो कभी पतन की ओर जाती है। जैसाकि हमने बताया कि नैतिकता व आध्यात्मिकता का होना संस्कृति व सभ्यता के विकास का कारण बन सकता है। इसके विपरीत यदि कोई समाज सभ्य हो परंतु वह नैतिक और धार्मिक आधारों की अनदेखी कर दे तो दीर्घावधि में उसे अपूर्णीय क्षति का सामना होगा। इस बात का एक स्पष्ट प्रमाण एन्डालुशिया andalusia में मुसलमानों का कटु परिणाम है। बहुत से विशेषज्ञ इस्लामी एवं नैतिक मूल्यों की उपेक्षा को andalusia में मुसलमानों के पतन का कारण मानते हैं। यह ऐसी स्थिति में है कि ईश्वरीय धर्म इस्लाम नैतिक व आध्यात्मिक गुणों को निखारने एवं उनकी सुरक्षा पर बहुत बल देता है। इस्लामी इतिहास में आया है कि पैग़म्बरे इस्लाम का मक्का से मदीना पलायन का एक कारण यह था कि मुसलमान मक्के में प्रचलित अज्ञानता की संस्कृति से दूर हो जायें और नैतिक गुणों को निखारने हेतु अपने आपको नये वातावरण में रहने के लिए तैयार करें।
सभ्यताओं के पतन का एक कारण अज्ञानता, स्वार्थ और भ्रष्टाचार है। अमेरिकी लेखक वेल डोरेन्ट ज्ञान और संस्कार में टकराव कोसभ्यता की तबाही का एक कारण मानता है। इस्लामी समाज का विशेषज्ञ एवं इतिहासकार इब्ने खलदून भी स्वार्थ, तानाशाही और भ्रष्टाचार को सभ्यताओं की बर्बादी का कारक समझता है। दूसरे कारक कि जो सभ्यताओं के पतन की भूमि प्रशस्त करते हैं, समाज में एकता व एकजुटता का अभाव है। ईरानी इतिहासकार एवं लेखक अब्दुल हुसैन ज़र्रीन कूब समाज में एकता व एकजुटता के अभाव कोसभ्यता के ठहराव का कारण मानते हैं और मेल-जोल तथा एकता को समाज की एकजुटता का कारण बताते हैं। उनका मानना है कि अमवी शासकों के काल से अरब मूल्यों व मान्यताओं को ग़ैर अरब मूल्यों पर वरियता दी जाने लगी तथा धीरे- धीरे वह ऊंची इमारत जिसकी बुनियाद मदीने में रखी गयी थी, ख़राब होने लगी और इस्लामी सभ्यता के पतन का काल उसी समय से आरंभ हो गया। ज़र्रीन कूब भ्रष्टाचार और एश्वर्य को भी, जो लगभग शाम अर्थात वर्तमान सीरिया में बनी उमय्या की सरकार की स्थापना के समय आरंभ हुआ,इस्लामी सभ्यता की कमज़ोरी का एक अन्य कारक मानते हैं।
विदेशी शत्रुओं का आक्रमण भी संस्कृति के कमज़ोर होने या ठहराव का कारण बन सकता है। विदेशी शत्रुओं ने बारम्बार इस्लामी सभ्यता वाले क्षेत्रों पर आक्रमण किया है। इस्लामी जगत में मंगोलों के आक्रमण और क्रूसेड युद्ध जैसे बड़े युद्ध इस्लामी क्षेत्रों पर आक्रमण के कुछ उदाहरण हैं परंतु सौभाग्य से मुसलमान अपनी संस्कृति को नहीं भूले और आक्रमण के कुछ समय बाद दोबारा अपनी सभ्यता के अनुसार रहने लगे। प्रत्येक दशा में यदि इस्लामी देशों के इतिहास पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो यह बात स्पष्ट हो जायेगी कि इतिहास के विभिन्न कालों में इस्लामी सभ्यता को परवान चढ़ाने में मुसलमानों ने बहुत प्रयास किया है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का एक महत्वपूर्ण क़दम, इस्लामी शासन के प्रशासनिक केंद्र के रूप में मस्जिद का निर्माण था। वस्तुतः इस बात की आवश्यकता थी कि एक ऐसे केंद्र का निर्माण किया जाए जो मुसलमानों का उपासना स्थल भी हो और साथ ही वहां उनकेराजनैतिक, न्यायिक, शैक्षिक यहां तक कि सामरिक मामलों को भी तैयार किया जाए। आरंभ में मस्जिद को,जनकोष, युद्धों से प्राप्त होने वाले धन-संपत्ति यहां तक कि बंदियों और युद्ध बंदियों की देख-भाल का स्थान समझा जाता था। वस्तुतः मस्जिद के कार्यक्षेत्र में सभी राजनैतिक व सामाजिक इकाइयां आती थीं, इसी आधार पर मदीना नगर में नवगठित इस्लामी शासन की स्थिरता एवं सुदृढ़ता में मस्जिद की विशेष भूमिका थी।
मस्जिद की भूमिका और क्रियाकलाप के बारे में यह कहना उचित होगा कि इस्लाम के आरंभिक काल में ज्ञान व ईमान के बीच सबसे गहरे संबंध मस्जिद में ही स्थापित होते थे। सभी इस्लामी शिक्षाओं व आदेशों का वर्णन मस्जिद में ही किया जाता था और धार्मिक शिक्षाओं बल्कि लिखने-पढ़ने से संबंधित सभी मामलेभी मस्जिद में अंजाम दिए जाते थे। बाद में जब धीरे-धीरे प्रशासनिक और न्यायिक मामलों की इकाइयां मस्जिद से अलग हुईं तब भी ज्ञान प्राप्ति के केंद्र मस्जिद के पड़ोस में ही बने रहे। इस आधार पर पिछली कुछ शताब्दियों तक इस्लामी देशों में बड़े मदरसे और विश्वविद्यालय नगर की जामा मस्जिदों केपास ही बनाए जाते थे।
धार्मिक आस्थाओं की रक्षा व उनके प्रचलन के लिए, जो पैग़म्बरे इस्लाम का मुख्य लक्ष्य था, निश्चित रूप से राजनैतिक, प्रशासनिक और सामरिक सहारे की आवश्यकता थी। उन्होंने सरकार के आधारों को सुदृढ़ बनाने तथा प्रशासनिक व्यवस्था के गठन के लिए सक्षम लोगों का चयन किया और उनमें से प्रत्येक को कुछ दायित्व सौंपे। उनमें से कुछ लोगों ने ज़कात और दान-दक्षिणा एकत्रित करने का काम आरंभ किया जबकि कुछ अन्य ने सामाजिक मामलों को सुव्यवस्थित करने का दायित्व संभाला। मदीना नगर की सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यंत सरल व सादा किंतु व्यापक थी। कुछ लोगों को समझौतों, संधियों और सहमति पत्रों को पंजीकृत करने, करों के मानक निर्धारित करने, युद्ध से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति का रिकार्ड रखने यहां तक कि क़ुरआने मजीद की आयतों को लिखने का दायित्व सौंप गया।
पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कुछ लोगों को इस बात के लिए भी नियुक्त किया था कि वे लोगों अथवा क़बीलों को दी जाने वाली भूमियों या जल स्रोतों की सूचि तैयार करें और उन लोगों अथवा क़बीलों के लिए स्वामित्व के दस्तावेज़ तैयार करें। यह अरबों की बीच पूर्ण रूप से नई शैली थी क्योंकि अरबों के बीच प्राचीन काल से चले आ रहे मतभेदों का एक कारण, भूमि व विभिन्न संपत्तियों विशेष कर कुओं और नहरों जैसे जल स्रोतों पर स्वामित्व हुआ करता था।
पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इसी प्रकार यहूदी व ईसाई क़बीलों सहित विभिन्न क़बीलों के साथ कई संधियां व समझौते किए। इन समझौतों की विषयवस्तु, समय व स्थान और इसी प्रकार मुस्लिम सेना की कमज़ोरी व मज़बूती के दृष्टिगत भिन्न हुआ करती थी, इस प्रकार से कि कभी कभी उन लोगों को बहुत आश्चर्य होता था जिन्हें परिस्थितियों का पूरा ज्ञान नहीं था। उदाहरण स्वरूप पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मक्के के अनेकेश्वरवादियों से हुदैबिया नामक जो संधि की थी उसके अनुच्छेदों से कुछ लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ जबकि कुछ अन्य ने उस पर अपनी अप्रसन्नता व विरोध की घोषणा की। आगे चल कर इतिहास ने यह दर्शा दिया कि किस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने किस प्रकार मदीने में नवगठित सरकार की रक्षा व उसे सुदृढ़ बनाने तथा उसके लक्ष्यों व नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए अत्यंत दूरदर्शितापूर्ण कूटनीति का प्रयोग किया और मामलों को सुव्यवस्थित किया।
इन प्रशासनिक कार्यों के साथ ही पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ईरान, रोम, मिस्र, यमन और ईथोपिया सहित विभिन्न पड़ोसी देशों केशासकों को पत्र लिखे। इन पत्रों का मुख्य विषय, उन शासकों को इस्लाम और एकेश्वरवाद का निमंत्रण देना था। अधिकांश इतिहासकारों का मानना है कि इन पत्रों में लिखी गई बातें, पैग़म्बरे इस्लाम की विदेश नीति का भाग थीं। उन्होंने विभिन्न अवसरों पर टकराव और युद्ध पर निमंत्रण और कूटनीति कोप्राथमिकता देने के अपने विश्वास का उल्लेख किया है। यदि उनके साथी किसी को भी इस्लाम स्वीकार करने का निमंत्रण दिए बिना बनाते थे तो आप उस व्यक्ति को स्वतंत्र कर देते थे।
पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक अन्य कार्यवाही, इस्लामी शासन के विस्तार और इस्लामी शासन की सीमाओं के भीतर शांति वसुरक्षा की स्थापना पर आधारित थी। इसके लिए उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी किया। वे कभी स्वयं युद्ध में सम्मिलित होते और कभी किसी अन्य को सेना की कमान सौंप देते थे। इसी प्रकार उन्होंने विभिन्न पड़ोसी क़बीलों के साथ संधियां कीं। उनकी इस प्रकार की कार्यवाहियां, उस समय के अरब जगत के राजनैतिक मंच से बाहर इस्लाम के प्रचार और उसके वैश्विक संदेश के प्रसार के लिए थीं।
अमरीकी इतिहासकारी वेल डोरेन्ट इस्लामी व्यवस्था की रूपरेखा तैयार करने में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम कीतत्वदर्शितापूर्ण भूमिका की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि उस काल में पैग़म्बर न केवल मुसलमानों के नेता थे अपितु मदीना नगर का राजनैतिक नेतृत्व भी उन्हीं के पास था तथा वे उस नगर के मुख्य न्यायाधीश भी समझे जाते थे। एक ईरानी इतिहासकार व अध्ययनकर्ता अब्दुल हुसैन ज़र्रीनकूब ने लिखा है कि विशेष रूप से मदीना नगर में इस्लामी आदेशों का मुख्य भाग निर्धारित हुआ। क़िबले के परिवर्तन के कुछ ही समय बाद, रमज़ान के महीने में रोज़े रखने और नमाज़ पढ़ने व ज़कात अदा करने के आदेश भी व्यवहारिक हो गए। उनके अनुसार जेहाद, युद्ध से प्राप्त होने वाले माल के बंटवारे,मीरास, शराब पर प्रतिबंध, हज और इसी प्रकार के कुछ अन्य आदेशों ने अरबों के जीवन के पूर्ण रूप से परिवर्तित करके उनके बीचए एकता उत्पन्न कर दी।
मदीना नगर पर पैग़म्बरे सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दस वर्षीय शासन के दौरान उन्होंने लगभग 80 छोटे-बड़े युद्धों का नेतृत्व किया। या तोवे स्वयं युद्ध में उपस्थित हो कर इस्लामी सेना का नेतृत्व करते थे या फिर स्वयं नगर में रहते और अपने किसी साथी को सेना का कमांडर निर्धारित कर देते थे। युद्धों में सेना के नेतृत्व की पैग़म्बरे इस्लाम की बौद्धिक युक्तियों और सामरिक मामलों में अन्य लोगों से परामर्श करने की उनकी शैली पर सभी इतिहासकारों ने विशेष ध्यान दिया है। यद्यपि युद्ध अथवा संधि के बारे में अंतिम निर्णय वे स्वंय लेते थे किंतु युद्ध व प्रतिरक्षा की शैली व रणनीतियों के बारे में वे अपने साथियों से अवश्य परामर्श करते थे। महत्वपूर्ण युद्धों से पूर्व वे प्रायः युद्ध परिषद का गठन करते थे और अन्य लोगों के विचार भी सुना करते थे। उदाहरण स्वरूप उहुद नामक युद्ध में, यद्यपि उनका विचार भिन्न था किंतु उन्होंने एक विचार पर अधिकांश लोगों के सहमत होने के कारण उस विचार को ही स्वीकार किया।
अरब के निकटवर्ती देशों व क्षेत्रों पर विजय प्राप्ति के पश्चात इस्लामी शासन का क्षेत्र फल बढ़ता चला गया। मुसलमान, विभिन्न राष्ट्रों की भिन्न-भिन्न संस्कृतियां से परिचित हुए जो स्वाभाविक रूप से एक समान न थीं। यह परिचय इस बात का कारण बना कि इन संस्कृतियों की कुछ परंपराएं, मुसलमानों के सरल एवं सादा जीवन में भी प्रविष्ट हो जाएं। इस्लामी संस्कृति को अचानक ही विभिन्न प्रकार की परंपराओं, संस्कारों एवं आचरणों का सामना हुआ किंतु इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर जो परंपरा और जो संस्कार धर्म से विरोधाभास नहीं रखता था, वह धर्म में सम्मिलित हो गया। यह स्थिति इस सीमातक जारी रही कि दूसरे ख़लीफ़ा के शासन काल की समाप्ति पर मदीन के सामाजिक वातावरण का ढांचा पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया।
दूसरी ओर जीते गए क्षेत्रों की रक्षा और वहां के मामलों के सही संचालन के लिए विशेष प्रकार के ज्ञान व अनुभव की आवश्यकता थी जिससे आरंभ मेंमुसलमान अनभिज्ञ थे किंतु जब उन्होंने निरंतर विजय प्राप्त करनी आरंभ की तो विभिन्न प्रकार की कलाओं, राजनैतिक युक्तियों और संचालन की शैली सीखने का अधिक आभास होने लगा और उन्होंने इन क्षेत्रों में दक्षता प्राप्त करने के प्रयास आरंभ कर दिए। इसी समय से धीरे-धीरे नवगठित मुस्लिम समाज में राजनैतिक तंत्र को सुव्यवस्थित करने हेतु संचालन संस्थाएं अस्तित्व में आने लगीं। शायद कहा जा सकता है कि ये संस्थाएं, मदीने में जनकोष की स्थापना के साथ अस्तित्व में आना आरंभ हुईं और उमवी व अब्बासी शासनकाल में प्रशासन व संचालन की विभिन्न संस्थाएं गठित हो गईं।
इस्लामी शासन द्वारा प्राप्त की गई विजयों के बारे में इस महत्वपूर्ण बिंदु की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए कि युद्धों से प्राप्त होने वाले धन और संपत्ति ने अनचाहे में ही इस्लामी समाज में ऐश्वर्य और हित प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। इन समस्याओं ने बाद के काल में इस्लाम की शासन व्यवस्था पर बड़े बुरे प्रभाव डाले और विभिन्न प्रकार की पथभ्रष्टताओं का कारण बनीं। यहां तक कि अरबों ने अपने सांसारिक हितों को अधिक से अधिक प्राप्त करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों तक के अधिकारों की अनदेखी कर दी। अल्बत्ता इसी के साथ यह भी कहनाचाहिए कि इस्लामी शासन की विजयों के काल में होने वाले परिवर्तनों के चलते ही अन्य क्षेत्रों विशेष कर ईरानी मुसलमानों के माध्यम से आने वाले विभिन्नज्ञानों ने इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस्लामी शासन की आरंभिक विजयों के बाद ही अनेक प्रचारकों काप्रशिक्षण किया गया जो दूरवर्ती क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार भी करते थे और इस्लामी सभ्यता के क्षेत्र में विभिन्न प्रकार के ज्ञान भी स्थानांतरित करते थे। यह बात इस्लामी सभ्यता की रूपरेखा तैयार करने में अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई।
पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने धर्म के प्रचार के लिए मदीना नगर में एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था की नींव डाली जिसमें आदर्श न्यायिक विभाग, सैनिक संस्था तथा कार्यालय तंत्र था यह इस्लामी सभ्यता धीरे धीरे फैलती गई।
ज्ञान और चिंतन पर इस्लामी शिक्षाओं में विशेष रूप से बल दिया गया है। यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि इस्लाम के अतिरिक्त किसी भी धर्म ने ज्ञान एवं विद्या ग्रहण करने के विषय पर इतना अधिक बल नहीं दिया है। क़ुरआन मजीद और पैग़म्बरे इस्लाम के प्रवचनों के अध्ययन से समझा जा सकता है कि ईश्वर तथा ईश्वरीय दूत मुसलमानों ही नहीं बल्कि दूसरे मतों के अनुयायियों सहित सभी मनुष्यों को चिंतन मनन तथा बुद्धि से काम लेने का निमंत्रण दिया। ईश्वर के निकट अंधा विश्वास और सोच-विचार से रिक्त आस्था स्वीकार्य नहीं है। बुद्धि ऐसा साधन है जो ईश्वर की पहचान प्राप्त करने में मनुष्य की सहायता करता है। ईश्वर तथा एकेश्वरवाद को समझने का मार्ग भी चिंतन मनन ही है। ईश्वर ने सूरए अन्बिया की आयत नम्बर 67 में कहता है कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य अस्तित्व को ईश्वर समझ बैठने का करण चिंतन और विचार से दूरी है। आयत में कहा गया है कि धिक्कार हो तुम पर और उस पर जिसे तुम ईश्वर समझ बैठे हो, क्या तुम सोच समझ नहीं रहे हो?!
इस्लाम धर्म ने अज्ञानी व्यक्ति की आलोचना की है। अज्ञानी का अर्थ निरक्षर व्यक्ति नहीं है। संभव है कि कुछ लोग शिक्षित हों किंतुवास्तव में अज्ञानी हों। वे संसार की वस्तुओं की जानकारी एकत्रित करके अपने आप को ज्ञानी समझ बैठे हैं जबकि उनके मन में सूचनाओं के भंडार के अतिरिक्त कुछ नहीं है। वे जीवन के मूल विषयों और मामलों के बारे में कभी कोई सोच विचार नहीं करते इसी लिए सही मार्ग नहीं खोज पाते।
मानव इतिहास में जो लोग धर्म और ज्ञान को एक दूसरे के विपरीत मानते रहे हैं वो इस्लाम धर्म में ज्ञान के स्थान और महत्व को देखकर निश्चित रूप से आवाक रह जाएंगे और उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकलेगा। इस्लाम धर्म के इतिहास तथा ज्ञान स्रोतों में कहीं भी धर्म और ज्ञान का कोई टकराव नहीं दिखाई देता है। जाबिर इब्ने हय्यान, मोहम्मद मूसा ख़्वारज़्मी, मोहम्मद बिन ज़करिया राज़ी,फ़ाराबी, इब्ने हैसम, इब्ने सीना, इब्ने रुश्द और दूसरे अनेक विद्वान इस्लाम में धर्म और ज्ञान के संगम तथा ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान के प्रतीक हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम पर उतरने वाले पहले ही सूरे में ईश्वर कहता है कि पढ़ो अपने पालनहार के नाम से कि जिसने रचना की, जमे हुए ख़ून से मनुष्य की रचना की, पढ़ो कि तुम्हारा पालनहार सबसे बड़ा है, वही जिसने क़लम से ज्ञान दिया और मनुष्य को उस बात का ज्ञान दिया जो वो नहीं जानता था। इस विषय का महत्व उस समय और भी विधिवत ढंग से समझ में आएगा जब हम इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित रखें कि जिन दिनों यह आयतें उतरीं मक्के और हिजाज़ के क्षेत्र में न क़लम था और न लिखने वाले। यदि कुछ लोगों को थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना आता भी था तो मक्के में, जो धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक केन्द्र था, उनकी संख्या बीस से अधिक नहीं थी। इन परिस्थितियों में ईश्वर ने लिखने और पढ़ने की सौगंध खायी है, जिससे इस्लाम धर्म के निकट ज्ञान और शिक्षा के महत्व का अनुमान होता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने एक महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने ज्ञान और शिक्षा को सार्वजनिक किया। उन्होंने मदीना नगर में परिश्रम करके ज्ञान और शिक्षा के साधनों और संभावनाओं तक हरेक की पहुंच को संभव बनाया। इस प्रकार किसी भी वर्ग से संबंध रखने वाला कोई भी व्यक्ति अपने प्राकृतिक क्षमताओं के आधार पर तथा अपने प्रयासों और परिश्रम के अनुसार परिपूर्णता तक पहुंच सकता था। बद्र युद्ध में मुसलमानों को विजय प्राप्त हुई और नास्तिकों के कुछ लोग युद्धबंदी बन गए। इन युद्ध बंदियों में कुछ पढ़े लिखे थे। पैग़म्बरे इस्लाम ने घोषणा कर दी कि हर युद्ध बंदी दस मुसलमानों को लिखना-पढ़ना सिखाकर रिहाई प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार बहुत से मुसलमानों को शिक्षा प्राप्त हो गई। ज़ैद बिन साबित उन लोगों में थे जिन्होंने इन्हीं युद्धबंदियों से शिक्षा प्राप्त की। पैग़म्बरे इस्लाम के इस पक्ष से जहां ज्ञान और शिक्षा पर इस्लाम धर्म के विशेष ध्यान का पता चलता है वहीं युद्ध बंदियो के अधिकारों की रक्षा के संबंध में इस्लाम का दृष्टिकोण भी सामने आता है जो मानव समाजों के लिए शिक्षाप्रद बिंदु है।
क़ुरआन की आयतों और पैग़म्बरे इस्लाम तथा उनके परिजनों के प्रवचनों में ज्ञान और शिक्षा के बारे में जो कुछ कहा गया है यदि उसे बिना किसी विवरण और विशलेषण के एकत्रित कर दिया जाए तो कई बड़ी पुस्तकें तैयार हो जाएंगी। यह निश्चित है कि यदि इस्लाम धर्म के महापुरुषों ने ज्ञान और शिक्षा के महत्व पर इतना अधिक बल न दिया होता तो इस्लाम को इतना महान स्थान पर भी प्राप्त न हो पाता। इतिहास में भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि इस्लमी सभ्यता के काल में इस्लामी जगत में विभिन्न विषयों और ज्ञान का बड़ाविकास हुआ तथा मुसलमनों ने ज्ञान ग्रहण करने के साथ ही कुछ नए विषयों का अविष्कार भी किया। विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में विभिन्न विषयों की शिक्षा दी जाती थी। धार्मिक एवं ज्ञान केन्द्रों में बहुत बड़े पुस्तकालय तथा अध्ययन केन्द्र बनाए गए तथा धर्म व ज्ञान का एक साथ प्रसार हुआ। महान इस्लामी बुद्धिजीवी एवं धर्मगुरू शहीद मुरतज़ा मुतह्हरी ने ज्ञान एवं ईमान के विषय पर चर्चा करते हुए ज्ञान और ईमान के टकराव के बारे में ईसाई धर्म के विचार की ओर संकेत किया है और कहा है कि धर्म और ज्ञान के आपसी संबंध के बारे में ईसाई मत के लोगों के ग़लत निष्कर्ष के कारण यूरोप के सभ्य समाज का इतिहास ज्ञान और धर्म के टकराव का साक्षी बना। किंतु इस्लामी इतिहास के हर युग में चाहे उत्थान का काल हो या पतन का ज्ञान और धर्म दोनों सदैव एक साथ दिखाई देते हैं। शहीद मुतह्हरी इसके बाद कहते हैं कि हमें ईसाइयों के इस विचार से स्वयं को दूर रखना चाहिए और इस पर कदापि विश्वास नहीं करना चाहिए कि धर्म और ज्ञान के बीच टकराव पाया जाता है। उनका कहना है कि ज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक और सहायक हैं और इन दोनों के सहारे मनुष्य परिपूर्णता तक पहुंचता है।
इस्लामी विचारधारा के अनुसार धर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं हैं बल्कि दोनों के बीच बहुत निकट संबंध है। क़ुरआन में अस्सी बार अनेक स्थानों पर ज्ञान का शब्द आया है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस्लाम ज्ञान को विशेष महत्व की दृष्टि से देखता है और उसे विशेष सम्मान देता है। ईश्वर ने क़ुरआन के सूरए मुजादेला की आयत नम्बर ११ में कहा है कि ईश्वर ईमान लाने वालों और ज्ञान प्राप्त करने वालों को उच्च स्थान प्रदान करता है।
ईश्वर बुद्धिमान लोगों को सृष्टि, धरती की रचना, आसमान, सितारों, सूर्च और चंद्रमा की उत्पत्ति के बारे में चिंतन का निर्देश देता है। कुरआन की कुछ आयतों का मुसलमानों को गणित और खगोल शास्त्र की शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करने में विशेष प्रभाव रहा है। ईश्वर सूरए युनुस की आयत क्रमांक ५ में कहता है कि वो (ईश्वर) वही है जिसने सूर्य को प्रकाश तथा चंद्रमा को ज्योति बनाया तथा उनके लिए कुछ स्थान निर्धारित किए हैं ताकि तुम वर्षों की संख्या और हिसाब को समझ सको, ईश्वर ने इनकी रचना नहीं की सिवाए इसके कि हक़ के साथ। वो निशानियों को बुद्धि रखने वालों के लिए बयान करता है।
आयतों और प्रवचनों में ज्ञान के महत्व तथा ज्ञानियों के उच्च स्थान को विशेष रूप से बयान किया गया है। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम के एक साथी उनकी सेवा में पहुंचे और कहा कि हे ईश्वर के दूत किसी जनाज़े के अंतिम संस्कार में सम्मिलिति तथा ज्ञान की सभा में उपस्थिति में आपके निकट कौन अधिक प्रिय है? पैग़म्बरे इस्लाम ने उत्तर दिया कि यदि अंतिम संस्कार के लिए कुछ लोग उपलब्ध हैं तो एक ज्ञानी की सभा में जाना हज़ार मृतकों के अंतिम संस्कार में भाग लेने, एक हज़ार बीमारों को दखने जाने, हज़ार रातों की उपासना,एक हज़ार रोज़े रखने, ग़रीबों को दान स्वरूप एक हज़ार दिरहम देने, एक हज़ार बार हज करने, ईश्वर के मार्ग में एक हज़ार युद्धों में भागलेने से भी बहुत बेहतर है। क्या तुम नहीं जानते कि ईश्वर की उपासना केवल ज्ञान के माध्यम से ही की जा सकती है। लोक परलोक की भलाई ज्ञान में है तथा लोक परलोक की बुराई अज्ञानता में।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के जीवन काल में विशेष रूप से इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के युग में ज्ञान और शिक्षा का बड़ा विकास हुआ। इन महापुरुषों ने अपने अनुयायियों और श्रद्धालुओं को ज्ञान अर्जित करने के लिए बहुत अधिक प्रोत्साहित किया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा है कि यदि कोई ज्ञान और तत्वदर्शिता के बिना कोई काम करता है तो एसा ही है जैसे कोई पथिक सही मार्ग के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग पर चल निकला है अतः वो जितना आगे बढ़ेगा उतना ही सही मार्ग से दूर होता जाएगा।
आयतों और प्रवचनों से पता चलता है कि इस्लाम के निकट धर्म और ज्ञान में न केवल यह कि कोई टकराव नहीं है बल्कि दोनों एक दूसरे के लिए अनिवार्य हैं। इसके अतिरिक्त इस्लामी सभ्यता की ज्ञान के क्षैत्र में प्रकाशमय गतिविधियां भी इस बात की सूचक हैं कि मुसलमान ज्ञानी विभिन्न विषयों में ज्ञान संबंधी गतिविधियों को उपासना का दर्जा देते थे और यह लोग प्रायः धर्म पर गहरी आस्था रखने वाले होते थे। शरफ़ुद्दीन ख़ुरासानी ने इस्लामी विश्वकोष में लिखते हैं कि प्रख्यात दार्शनिक एवं चिकित्सक अबू अली सीना ने अपनी जीवनी में कहा ह कि जब भी उन्हें तर्क शास्त्र के अध्ययन के समय कोई गुत्थी परेशान कर देती थी वे उठकर मस्जिद जाते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा ईश्वर से इस समस्या का समाधान प्राप्त करने की दुआ मांगते थे।
इस बिंदु पर भी ध्यान रखना आवश्यक है कि इस्लाम में ज्ञान ग्रहण करने के कुछ संस्कार निर्धारित किए गए हैं। इस्लाम में ज्ञान,उपासना तथा शिष्टाचार को एक दूसरे के लिए अभिन्न ठहराया गया है और तीनों को एक साथ रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया है। वस्तुतः इस्लाम धर्म में ज्ञानी एक प्रतिबद्ध एवं ज़िम्मेदार मनुष्य होता है जबकि शिष्टाचार से वंचित ज्ञानी समाज के लिए हानिकारक सिद्ध होता है। यह इस्लाम धर्म की एक अद्वितीय विशेषता है कि उसने ज्ञान एवं प्रशिक्षण के विषय में निर्धारित सिद्धांत रखे हैं।