सूरए माएदा; 5 :आयतें 1-6- खाना और वजू
सूरए माएदा क़ुरआने मजीद का पांचवां सूरा है जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की आयु के अन्तिम दिनों में उतरा है। इस स...

सूरए माएदा क़ुरआने मजीद का पांचवां सूरा है जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की आयु के अन्तिम दिनों में उतरा है। इस सूरे की 114वीं आयत में हज़रत ईसा मसीह की दुआ में प्रयोग होने वाले शब्द माएदतम मिनस्समाए के कारण ही इस सूरे का नाम माएदा रखा गया है। माएदा का अर्थ होता है दस्तरख़ान।
सूरए माएदा की पहली आयत|
ईश्वर के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। हे ईमान वालो! अपने वादों और मामलों पर कटिबद्ध रहो, यद्यपि तुम्हारे लिए सभी चौपाए हलाल या वैध कर दिये गए हैं सिवाए उनके जिनका तुम्हारे लिए वर्णन किया जाएगा, परन्तु जब तुम एहराम की स्थिति में हो तो शिकार को वैध न समझ लेना, निःसन्देह ईश्वर जो चाहता है आदेश देता है। (5:1)
चूंकि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की हज यात्रा से पूर्व उतरी है अतः इसमें मुसलमानों को हज के कुछ आदेश बताए गए हैं। इस आयत में हज के विशेष वस्त्र में शिकार को अवैध घोषित करने के आदेश की ओर संकेत किया गया है, परन्तु इस आयत के आरंभ में जो मुख्य व महत्वपूर्ण बात है कि जो वस्तुतः इस सूरे के आरंभ में भी आई है, वह वादों का पालन है और चूंकि यह शब्द बहुवचन के रूप में आया है, इसलिए इसमें सभी प्रकार के वादे और वचन शामिल हैं। चाहे शाब्दिक वादा हो या लिखित समझौता, कमज़ोर व्यक्ति से हो या बलवान से, मित्र से हो या शत्रु से, चाहे ईश्वर के साथ धार्मिक प्रतिज्ञा हो या लोगों के साथ आर्थिक मामला, चाहे पारिवारिक वचन हो या फिर सामाजिक वादा।
अन्य धार्मिक आदेशों के अनुसार अनेकेश्वरवादियों और खुल्लम-खुल्ला पाप करने वालों से किये गए समझौतों का पालन भी आवश्यक है, सिवाए इसके कि वे समझौतों का उल्लंघन कर दें कि ऐसी स्थिति में समझौते का पालन आवश्यक नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि मुसलमान को अपने सभी वादों और समझौतों का पालन करना चाहिए। यह ईश्वर पर ईमान की शर्त है।
मक्के में और हज के दिनों में न केवल हाजी बल्कि पशु भी ईश्वर की रक्षा और अमान में होते हैं और उनका शिकार अवैध है।
अब सूरए माएदा की दूसरी आयत |
हे ईमान वालो! ईश्वर की निशानियों, हराम महीनों, क़ुरबानी के जानवरों, जिन जानवरों के गले में (निशानी के रूप में) पट्टे बांध दिये गए हैं, ईश्वर का अनुग्रह और प्रसन्नता प्राप्त करने के उद्देश्य से ईश्वर के घर अर्थात काबे की ओर जाने वालों का अनादर न करो और जब तुम एहराम (की स्थिति) से बाहर आ जाओ तो शिकार कर सकते हो। (हे ईमान वालों) ऐसा न हो कि एक गुट की शत्रुता, केवल इस बात पर कि उसने तुम्हें मक्के में जाने से रोक दिया है, तुम्हें अत्याचार करने पर उकसा दे। (हे ईमान वालो!) भले कर्मों और ईश्वर से भय में एक दूसरे से सहयोग करो और कदापि पाप तथा अत्याचार में दूसरों से सहयोग न करो और ईश्वर से डरते रहो, निःसन्देह, ईश्वर अत्यंत कड़ा दण्ड देने वाला है। (5:2)
पिछली आयत में हज के कुछ आदेशों के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि जो बात और वस्तु हज से संबंधित है उसका विशेष सम्मान है और उसके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए। क़ुरबानी के जानवर, पवित्र स्थल, हज का समय जो युद्ध के लिए वर्णित महीनों में से है, और स्वयं हाजी जो ईश्वर की प्रसन्नता के लिए हज करने आता है, यह सब के सब सम्मानीय हैं और इनका आदर करना चाहिए।
आगे चलकर आयत छठी शताब्दी हिजरी की एक ऐतिहासिक घटना की ओर संकेत करती है जब मुसलमान पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम के साथ हज करने के लिए मदीने से मक्के आए थे परन्तु अनेकेश्वरवादियों ने उन्हें मक्के में प्रवेश नहीं करने दिया। दोनों पक्षों ने युद्ध से बचने के लिए "हुदैबिया" नामक स्थान पर एक संधि पर हस्ताक्षर किये, परन्तु मक्के पर विजय के पश्चात कुछ मुसलमानों ने प्रतिशोध लेने का प्रयास किया। उन्हें इस काम से रोकते हुए आयत कहती है कि प्रतिशोध लेने और अत्याचार करने के बजाए एक दूसरे से सहयोग करके उन्हें भी ईश्वर की ओर बुलाने तथा भले कर्म का निमंत्रण देने का प्रयास करो तथा समाज में भलाई के विकास का मार्ग प्रशस्त करो, न यह कि उनपर अतिक्रमण और अत्याचार के लिए एकजुट हो जाओ और पुरानी शत्रुताओं तथा द्वेषों को फिर से जीवित करो।
यद्यपि सहयोग का विषय इस आयत में हज के संबंध में आया है परन्तु यह केवल हज से ही विशेष नहीं है। सहयोग, इस्लाम के महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से एक है जिसमें सभी प्रकार के मामले शामिल हैं जैसे समाजिक, पारिवारिक और राजनैतिक। इस सिद्धांत के आधार पर मुस्लिम समुदाय के बीच सहयोग का आधार केवल भले कर्म हैं न कि अत्याचार, पाप और अतिक्रमण। यह अधिकांश समाजों के संस्कारों के विपरीत हैं जिनके अन्तर्गत अपने भाई, मित्र और देशवासी का समर्थन करना चाहिए। चाहे वह अत्याचारी हो या अत्याचारग्रस्त।
इस आयत से हमने सीखा कि जिस चीज़ में भी ईश्वरीय रंग आ जाए वह पवित्र व पावन हो जाती है और उसका सम्मान करना चाहिए, चाहे वह क़ुरबानी का जानवर ही क्यों न हो।
किसी समय में दूसरों की शत्रुता, किसी दूसरे समय में हमारे अत्याचार और अतिक्रमण का औचित्य नहीं बनती।
सामाजिक और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के संबंध में निर्णय लेने का आधार न्याय, भलाई और पवित्रता होना चाहिए न कि जाति, मूल और भाषा का समर्थन।
अब सूरए माएदा की तीसरी आयत
तुम्हारे लिए मरा हुआ जानवर, रक्त, सुअर का मांस, वह जानवर जिसे अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर ज़िबह किया गया हो, वह जानवर जो गला घुटकर, ऊंचाई से गिरकर, चोट खाकर या सींग लगने से मरा हो या जिसे किसी हिंसक पशु ने फाड़ खाया हो हराम व वर्जित कर दिया गया। सिवाए इसके कि तुम उसे जीवित पाकर स्वयं ज़िबह कर लो। इसी प्रकार वह जानवर जिसे पत्थरों के सामने भेंट चढ़ाया जाए और वह जिसे जुए के लिए बांटा गया हो, तुम्हारे लिए हराम है तथा ईश्वर की अवज्ञा का कारण है। (हे ईमान वालो!) आज काफ़िर तुम्हारे धर्म की ओर से निराश हो गए हैं तो उनसे भयभीत न हो बल्कि केवल मुझसे डरते रहो। आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया और तुम पर अपनी अनुकंपा पूरी कर दी और तुम्हारे लिए इस्लाम को एक धर्म के रूप में पसंद किया, तो जो कोई (भूख से) विवश हो जाए और पाप की ओर आकृष्ट न हो तो (वह इन वर्जित वस्तुओं में से खा सकता है) निःस्नदेह, ईश्वर अत्यन्त क्षमाशील और दयावान है। (5:3)
अभी जिस आयत की तिलावत की गई उसमें पूर्णतः दो भिन्न विषयों का वर्णन किया गया है। आयत के पहले भाग में पिछली आयतों की बहस को जारी रखते हुए खाने की हराम अर्थात वर्जित वस्तुओं का उल्लेख है। इसमें दस प्रकार के हराम मांसों का वर्णन है जिनमें से कुछ वे जानवर हैं जो प्राकृतिक रूप से या किसी घटनावश मर गए हैं और चूंकि उन्हें ज़िबह नहीं किया गया है अतः उनका मांस खाना हराम है। कुछ दूसरों का मांस हलाल होने और उनके ज़िबह होने के बावजूद, उन्हें नहीं खाया जा सकता क्योंकि उन्हें अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर ज़िबह किया गया है।
इससे पता चलता है कि ईश्वर द्वारा निर्धारित हलाल या हराम अर्थात वैध या वर्जित केवल मानव शरीर के लाभ या हानि पर आधारित नहीं है वरना उस जानवर के मांस में कोई अंतर नहीं है जो ईश्वर के नाम पर ज़िबह हो या किसी अन्य के नाम पर। परन्तु यह बात मनुष्य की आत्मा और उसके मानस पर अवश्य ही ऐसा प्रभाव डालती है कि ईश्वर ने ऐसे जानवरों का मांस खाने से रोका है।
अलबत्ता जैसा कि ईश्वर ने क़ुरआने मजीद की कुछ अन्य आयतों में संकेत किया है कि जब मनुष्य विवश हो जाए तो मरने से बचने के लिए आवश्यकता भर वर्जित वस्तु खाना वैध है। परन्तु इसकी शर्त यह है कि मनुष्य ने पाप करने के लिए स्वयं इस विवशता की भूमिका न बनाई हो।
जैसाकि हमने कहा कि इस आयत के दो भाग हैं। पहला भाग उन बातों पर आधारित था जिनका हमने अभी वर्णन किया। इस आयत का दूसरा भाग मुसलमानों के इतिहास के एक महान और निर्णायक दिन का परिचय करवाता है। वह दिन जब क़ुरआन के शब्दों में, मुसलमानों पर वर्चस्व की ओर से काफ़िर निराश हो गए, वह दिन जब इस्लाम अपनी परिपूर्णता को पहुंचा और ईश्वर ने ईमान वालों पर अपनी अनुकंपाएं पूरी कर दीं।
यह कौन सा दिन है? इस्लामी इतिहास या पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के जीवन का वह कौन सा दिन है जिसमें ऐसी विशेषता पाई जाती है? क्या पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पैग़म्बर घोषित होने का दिन, अपने पूरे महत्व के साथ, धर्म की परिपूर्णता का दिन है? या मक्के से मदीने की ओर पैग़म्बर की हिजरत का दिन यह विशेषताएं रखता है?
इन प्रश्नों के उत्तर के लिए हमें यह देखना होगा कि यह आयत कब उतरी है ताकि पता चल सके कि आयत में किस दिन की ओर संकेत किया गया है। क़ुरआन के सभी व्याख्याकारों का मानना है कि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अन्तिम हज की यात्रा के दौरान और उनकी आयु के अन्तिम दिनों में उतरी है। एक गुट का यह मानना है कि उक्त आयत ९ ज़िलहिज्जा को उतरी जबकि अधिकांश लोगों का कहना है कि यह आयत १८ ज़िलहिज को ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर उतरी।
विख्यात इतिहासकारों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ग़दीरे ख़ुम के स्थान पर हाजियों के सामने एक विस्तृत ख़ुतबा दिया और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बातें बयान कीं। इन बातों में सबसे महत्वपूर्ण विषय उनके उत्तराधिकार का था। इस अवसर पर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम को अपने हाथों पर उठाकर, जो ईमान और सभी युद्धों में पैग़म्बरे इस्लाम के साथ रहने की दृष्टि से, सभी ईमान वालों पर वरीयता रखते थे, लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि हे ईमान लाने वालो, जिस-जिस का मैं स्वामी हूं उसके ये अली स्वामी हैं।
इस महत्त्वपूर्ण घटना के पश्चात सूरए माएदा की इस आयत का यह भाग उतरा कि आज वे काफ़िर निराश हो गए जिन्हें यह आशा थी कि पैग़म्बर के स्वर्गवास के पश्चात मुसलमानों पर वे विजयी हो जाएंगे और इस्लाम को जड़ से समाप्त कर देंगे। क्योंकि पैग़म्बरे इस्लाम का न तो कोई पुत्र है और न ही उन्होंने किसी को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया है। परन्तु इस आयत के उतरते ही काफ़िरों की आशा, निराशा में परिवर्तित हो गई।
दूसरी ओर ईश्वरीय आदेशों और क़ानूनों का संग्रह धर्म, किसी ईश्वरीय व न्यायप्रेमी नेता के बिना अधूरा था। पैग़म्बर के पश्चात के नेता के निर्धारण के पश्चात धर्म भी पूर्ण हो गया और ईश्वर ने पैग़म्बर तथा क़ुरआन के आने के पश्चात लोगों को मार्गदर्शन की जो अनुकंपा दी थी उसे ही हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तरदायी निर्धारित करके पूरा कर दिया। इस प्रकार यह धर्म ईश्वर की पसंद का पात्र बना।
इस आयत से हमें अनेक पाठ मिलते हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं। न्यायप्रेमी और ईश्वरीय नेता का अस्तित्व इतना महत्त्वपूर्ण है कि उसके बिना धर्म पूरा नहीं है क्योंकि नेतृत्व के बिना सारी अनुकंपाएं और शक्तियां बेकार रहती हैं।
इस्लाम का जीवन और उसकी सुदृढ़ता सही नेतृत्व अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पश्चात बारह इमामों की इमामत स्वीकार करने में निहित है। इन इमामों में पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम हैं और अन्तिम, इमाम मेहदी अलैहिस्सलाम हैं जो हमारी आंखों से ओझल हैं।
सूरए माएदा की चौथी आयत ।
(हे पैग़म्बर!) यह आपसे पूछते हैं कि इनके लिए क्या हलाल अर्थात वैध किया गया है? कह दीजिए कि तुम्हारे लिए सारी हलाल चीज़ें वैध की गई हैं और जो कुछ तुम्हें ईश्वर ने सिखाया है उसके आधार पर तुम शिकारी कुत्तों को शिकार का प्रशिक्षण देते हो तो वे जो शिकार तुम्हारे लिए पकड़ें उन्हें खा लो और उस (शिकार) पर अल्लाह का नाम लो और ईश्वर से डरते रहो, निःसन्देह, ईश्वर बहुत ही जल्दी हिसाब करने वाला है। (5:4)
आपको अवश्य ही याद होगा कि सूरए माएदा की पिछली आयत में खाने-पीने की हराम अर्थात वर्जित वस्तुओं का उल्लेख किया गया था। यह आयत कहती है कि पिछली आयत में हमने जिन जानवरों का उल्लेख किया उसके अतिरिक्त हर जानवर का मांस तुम्हारे लिए वैध है चाहे तुम स्वयं उन्हें पकड़कर ज़िबह करो या तुम्हारे शिकारी कुत्ते उनका शिकार करके तुम्हारे पास ले आएं।
रोचक बात यह है कि इस आयत में ईश्वर शिकारी कुत्तों जैसे जानवरों के प्रशिक्षण के विषय की ओर संकेत करते हुए कहता है कि शिकार का यह तरीक़ा जो तुम जानवरों को सिखाते हो, वास्तव में ईश्वर ने तुम्हें सिखाया है, तुम इसे अपने आप नहीं सीख गए। यह ईश्वर ही है जिसने कुत्तों को तुम्हारे नियंत्रण में दिया ताकि जो कुछ तुम कहो वे करें और तुम्हारी सेवा में रहें।
इस आयत से हमने सीखा कि खाने-पीने की वस्तुओं में मूल सिद्धांत और नियम यह है कि जो कुछ पाक और पवित्र हो वह हलाल अर्थात वैध है सिवाए इसके कि स्पष्ट रूप से उसके वर्जित होने का उल्लेख किया गया हो।
खाने-पीने में ईश्वर के भय का ध्यान रखना चाहिए और हराम वस्तुओं से दूर रहना चाहिए क्योंकि ईश्वर हराम खाने वालों को बहुत जल्दी दण्ड देता है।
सूरए माएदा की 5वीं आयत ।
आज तुम्हारे लिए सारी पवित्र व पाक वस्तुएं हलाल कर दी गई हैं। इसी प्रकार आसमानी किताब वालों का भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है जिस प्रकार से कि तुम्हारा भोजन उनके लिए वैध है। इसी प्रकार ईमान वालों की पवित्र महिलाएं और उनकी पवित्र महिलाएं जिन्हें तुमसे पूर्व किताब दी गई है, तुम्हारे लिए हलाल हैं, शर्त यह है कि तुम उन्हें उनका मेहर दे दो और स्वयं तुम भी पवित्र रहो, न कि व्यभिचारी रहो और न अवैध रूप से गुप्त संबंध स्थापित करो। और आज जो कोई भी ईमान लाने से इन्कार करे तो निःसन्देह उसके सारे कर्म अकारत हो गए और प्रलय में वह घाटा उठाने वालों में से होगा। (5:5)
.
इस आयत में आसमानी किताब रखने वालों के संबंध में दो विषयों का विर्णन है। पहला उनका भोजन खाने के संबंध में और दूसरा उनकी महिलाओं के साथ निकाह के बारे में। आसमानी पुस्तक वालों का भोजन खाने के संबंध में, उन आदेशों और शर्तों के दृष्टिगत जो पिछली आयतों में वर्णित हुए, यह बात स्पष्ट है कि उनके द्वारा बनाए गए मांसाहारी भोजन खाना ठीक नहीं है परन्तु उनके अन्य खानों को प्रयोग किया जा सकता है।
विवाह के बारे में भी जैसा कि आयत में कहा गया है, केवल उनकी महिलाएं अपने यहां विवाह करके लाई जा सकती हैं, अपनी महिलाएं उन्हें नहीं दी जा सकतीं। शायद इस कारण कि अपने नर्म स्वभाव के चलते अधिकतर महिलाएं अपने पतियों से प्रभावित रहती हैं और इस बात की प्रबल संभावना पाई जाती है कि मुस्लिम पति के साथ जीवन व्यतीत करके और इस्लाम के बारे में जानकारी प्राप्त करके वह उस पर ईमान ले आएं।
यह आयत इसी प्रकार से मुसलमानों को विवाह के लिए भी प्रोत्साहित करती है। आयत में यहां तक कहा गया है कि तुम्हें यदि कोई ईसाई लड़की पसंद है तो उससे गुप्त मित्रता या अवैध संबंधों के बजाए तुम उससे विवाह कर लो कि ईश्वर इस मार्ग को बेहतर समझता है। ऐसा न हो कि उसे प्राप्त करने के लिए तुम अपना धर्म और ईमान छोड़ दो।
इस आयत से हमने सीखा कि महिलाओं की पवित्रता चाहे वे जिस धर्म की हों मूल्यवान है जैसा कि पुरुषों के लिए भी पवित्रता और अवैध संबंधों से बचना आवश्यक है।
क़ुरआन की दृष्टि में जीवन साथी के चयन के दो मापदण्ड हैं। एक ईमान और दूसरे पवित्रता।
सूरए माएदा की छठी आयत ।
हे ईमान वालो! जब भी नमाज़ के लिए उठो तो अपने चेहरों को और हाथों को कोहनियों तक धोओ और अपने सिर के कुछ भाग और गट्टे तक पैरों का मसह करो और तुम यदि अपवित्र हो तो ग़ुस्ल अर्थात स्नान करो। और यदि तुम बीमार हो या यात्रा में हो या तुममें से किसी ने शौच किया हो या पत्नी के निकट गया हो और (वुज़ू या ग़ुस्ल के लिए) पानी न पाओ तो पवित्र मिट्टी पर तयम्मुम कर लो, इस प्रकार से कि अपने चेहरे और हाथों का उस मिट्टी से मसह कर लो। (हे ईमान वालो!) ईश्वर तुम्हें कठिनाई में डालना नहीं चाहता बल्कि वह तुम्हें पवित्र और तुम पर अपनी अनुकंपाएं पूरी करना चाहता है कि शायद इस प्रकार से तुम उसके कृतज्ञ बंदे बन जाओ। (5:6)
पिछली आयतों में खाने-पीने की वैध व वर्जित वस्तुओं के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि तुम्हें उस ईश्वर के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए और नमाज़ पढ़नी चाहिए जिसने तुम्हें इतनी अधिक अनुकंपाएं दी हैं और तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की है परन्तु ईश्वर के समक्ष उपस्थित होने की शर्त, शरीर और आत्मा की पवित्रता है। नमाज़ से पूर्व वुज़ू करो अर्थात अपने चेहरे और हाथों को धो कर तथा सिर व पैरों का मसह करके शरीर को पाक करो और तुम यदि अपवित्र हो तो ग़ुस्ल अर्थात विशेष प्रकार का स्नान करो।
यह आयत आगे चलकर कहती है कि यद्यपि साधारण स्थिति में तुम्हें वुज़ू या ग़ुस्ल करना चाहिए परन्तु ईश्वर तुम्हें बंद गली में नहीं छोड़ता और जब कभी रोग अथवा यात्रा के कारण तुम्हें पानी न मिले या तुम्हारे लिए पानी हानिकारक हो तो पानी के स्थान पर पवित्र मिट्टी से तयम्मुम कर लिया करो और ईश्वर के भय के साथ नमाज़ पढ़ो। जान लो कि तुम मिट्टी से ही बाहर आए हो और मिटटी में ही लौट कर जाओगे।
इस आयत से हमने सीखा कि शरीर तथा आत्मा की अपवित्रता, ईश्वर से सामिप्य के मार्ग में बाधा है। पवित्रता ईश्वर की बंदगी में शामिल होने की शर्त है।
इस्लाम धर्म में कोई बंद गली नहीं है। धर्म के आदेशों से छूट हो सकती है किंतु उन्हें समाप्त नहीं किया जा सकता।
धर्म के आदेश प्रकृति से जुड़े हुए है। उदाहरण स्वरूप वुज़ू, ग़ुस्ल और तयम्मुम पानी और मिटटी से, नमाज़ का समय सूर्योदय तथा सूर्यास्त से और क़िब्ले की दिशा सूर्य एवं सितारों से जुड़ी हुई है।