कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:58-76
सूरए निसा; आयतें 58-59 नि:संदेह ईश्वर तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों को लौटा दो और जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो ...

नि:संदेह ईश्वर तुम्हें आदेश देता है कि अमानतों को उनके मालिकों को लौटा दो और जब कभी लोगों के बीच फ़ैसला करो तो न्याय से फ़ैसला करो, नि:संदेह ईश्वर तुम्हें अच्छे उपदेश देता है, निश्चित रूप से वह सुनने और देखने वाला भी है। (4:58)
उन लोगों की कल्पना के विरुद्ध, जो धर्म को एक व्यक्तिगत मामला और अपने तथा ईश्वर के बीच संपर्क समझते हैं, ईश्वरीय धर्मों विशेषकर इस्लाम ने अपनी आसमानी शिक्षाओं को व्यक्ति व समाज के कल्याण के लिए पेश किया है। यहां तक कि ईमान और धर्म के पालन के लिए समाज में न्याय और अमानतदारी को शर्त बताया गया है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम एवं उनके परिजनों के कथनों में आया है कि लोगों के लम्बे-2 सज्दों और रूकू को न देखो बल्कि उनकी सच्चाई और अमानतदारी को देखो क्योंकि अमानत में विश्वासघात, मिथ्या और दोमुंहेपन की निशानी है। अलबत्ता यहां यह बात ध्यान में रहे कि अमानत का अर्थ बहुत व्यापक है और इसमें ज्ञान, धन और परिवार जैसी सभी प्रकार की अमानतें शामिल हैं बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के कथनों के अनुसार समाज का नेतृत्व भी एक ईश्वरीय अमानत है जिसे सही हाथों में सौंपने के लिए जनता को अत्यधिक ध्यान देना चाहिये। कहा जा सकता है कि समाज के कल्याण की चाबी भले व न्यायप्रेमी लोगों का सत्ता में होना है जिस प्रकार से अधिकांश सामाजिक बुराइयों व समस्याओं का कारण अयोग्य लोगों का सत्ता में होना और उनका अत्याचारपूर्ण व्यवहार है।
मनुष्य के हाथों में जो अमानते हैं वे तीन प्रकार की हैं। एक मनुष्य और ईश्वर के बीच की अमानत है अर्थात ईश्वरीय आदेशों का पालन। यह ऐसी अमानत है जो मनुष्य के ज़िम्मे है। दूसरी वह अमानतें हैं जो मनुष्य एक दूसरे के पास रखते हैं तथा उनमें कण भर भी कमी किये बिना उनके मालिकों को लौटा देना चाहिये। तीसरी वे अमानतें हैं जो मनुष्य और स्वयं उसी के बीच मौजूद हैं जैसे आयु, शक्ति, शारीरिक व आत्मिक योग्यता इत्यादि। धर्म की दृष्टि से ये सारी बातें हमारे पास अमानत हैं और हम स्वयं अपने मालिक तक नहीं हैं बल्कि इन अंगों के अमानतदार हैं और हमें इन्हें इनके वास्तविक मालिक अर्थात ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग में बेहतरीन ढंग से प्रयोग करना चाहिये।
हर अमानत का कोई मालिक होता है और अमानत को उसी के हवाले करना चाहिये। सत्ता, शासन और न्याय जैसी सामाजिक अमानतों को अयोग्य लोगों के हाथों में देना ईमान से मेल नहीं खाता।
अमानत को उसके मालिक तक पहुंचाना चाहिये, चाहे वह काफ़िर हो या ईमान वाला। अमानत हवाले करने में उसके मालिक के काफ़िर या मोमिन होने की शर्त नहीं है।
केवल क़ाज़ी अर्थात पंच या न्यायाधीश को ही न्यायप्रेमी नहीं होना चाहिये बल्कि सभी ईमान वालों को पारिवारिक और सामाजिक मामलों में फ़ैसला करते समय न्याय से काम लेना चाहिये।
अमानत की रक्षा और न्याय के पालन में ईश्वर को उपस्थित और साक्षी मानना चाहिये। क्योंकि वह सुनने और देखने वाला है।
मनुष्य को सदैव उपदेश की आवश्यकता रहती है और सबसे अच्छा उपदेशक दयावान ईश्वर है।
सूरए निसा की 59वीं आयत
हे ईमान वालो! ईश्वर का आज्ञापालन करो तथा पैग़म्बर और स्वयं तुम में से ईश्वर द्वारा निर्धारित लोगों की आज्ञा का पालन करो। यदि किसी बात में तुममें विवाद हो जाये तो उसे ईश्वर की किताब और पैग़म्बर की ओर पलटाओ, यदि तुम ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हो। नि:संदेह विवादों को समाप्त करने के लिए यह पद्धति बेहतर है और इसका अंत अधिक भला है। (4:59)
पिछली आयत में हमने कहा कि इस बात की सिफारिश की गई है कि शासन और न्याय का मामला योग्य और न्यायप्रेमी लोगों के हवाले करना चाहिये। यह आयत ईमान वालों से कहती है कि ईश्वर और उसके पैग़म्बर के अतिरिक्त उन न्यायप्रेमी मार्गदर्शकों का भी आज्ञापालन करो जिन्होंने समाज का मामला अपने हाथ में लिया है और उनका अनुसरण व आज्ञापालन ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान की शर्त है।
इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने तबूक नामक युद्ध के लिए जाते हज़रत अली अलैहिस्सलाम को मदीने में अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और कहा कि हे अली! तुम मेरे लिए वैसे ही हो जैसे मूसा के लिए हारून थे सिवाय इसके कि मेरे पश्चात कोई नबी या ईश्वरीय पैग़म्बर नहीं है। उसी के पश्चात ईश्वर की ओर से यह आयत उतरी और हमने लोगों को हज़रत अली अलैहिस्सलाम के आज्ञा पालन का आदेश दिया।
चूंकि संभव है कि कुछ लोग उलुलअम्र या ईश्वरीय अधिकार रखने वालों की विशेषताओं के निर्धारण या उन्हें पहचानने में मतभेद कर बैठें अत: आगे चलकर आयत कहती है कि ऐसी स्थिति में तुम्हें ईश्वर की किताब और पैग़म्बर के चरित्र तथा उनकी परंपरा को देखना चाहिये कि यह दोनों तुम्हारे लिए सबसे अच्छे पंच हैं और उनके निर्णय पर चलने से सबसे अच्छा अंत होगा।
अलबत्ता स्पष्ट है कि पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वालों का आज्ञापालन, ईश्वर के आज्ञापालन के परिप्रेक्ष्य में है और यह एकेश्वरवाद के विरुद्ध नहीं है क्योंकि हम ईश्वर के आदेश पर पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वाले के आदेशों का आज्ञापालन करते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में पैग़म्बर और ईश्वरीय अधिकार रखने वालों का आज्ञापालन बिना किसी शर्त के आया है जो यह स्पष्ट करता है कि यह लोग पाप और ग़लती से दूर अर्थात मासूम हैं।
पैग़म्बर के दो पद और स्थान थे एक ईश्वरीय आदेशों का वर्णन अर्थात जनता तक उसका संदेश पहुंचाना और दूसरे समाज में शासन स्थापित करना और समाज की विशेष आवश्यकताओं के आधार पर शासन के आदेशों का वर्णन।
लोगों को इस्लामी व्यवस्था को स्वीकार करना चाहिये तथा उसके न्यायप्रेमी नेताओं का अनुसरण व समर्थन करना चाहिये।
विभिन्न इस्लामी समुदायों के बीच विवाद और मतभेद के समाधान का सबसे अच्छा मार्ग, ईश्वरीय किताब कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की परंपरा से संपर्क है जिसे सभी मुसलमान स्वीकार करते हैं।
जो लोग मुसलमानों के बीच मतभेद उत्पन्न करना चाहते हैं उन्हें अपने ईमान पर संदेह करना चाहिये। मतभेदों को हवा देने के स्थान पर उन्हें समाप्त करने के लिए मार्ग खोजने के प्रयास में रहना चाहिये।
सूरए निसा; आयतें 60-63
क्या तुमने उन लोगों को नहीं देखा जो दावा करते हैं कि वे उस चीज़ पर ईमान रखते हैं जो तुम पर और तुमसे पहले वाले पैग़म्बरों पर उतारी गई है? जबकि वे फ़ैसलों को तागूत अर्थात ग़लत शासकों के पास ले जाना चाहते हैं और उन्हें आदेश दिया गया है कि वे इसका अनादर करें और यह शैतान ही है जो उन्हें सही मार्ग से पथभ्रष्ट करके बहुत दूर ले जाना चाहता है। (4:60)
पिछले कार्यक्रम में सूरए निसा की 59वीं आयत में हमने पढ़ा कि सभी विवादों और मतभेदों के समाधान का स्रोत ईश्वरीय किताब और पैग़म्बर का व्यवहार एवं उनकी परम्परा है। यह आयत उन लोगों की आलोचना करती है जो इन दो महान व पवित्र स्रोतों से संपर्क करने के स्थान पर ग़लत लोगों यहां तक कि सत्य के विरोधी शासकों के पास जाते हैं। पवित्र क़ुरआन इसे गहरी पथभ्रष्ठता बताता है।
इस संबंध में इतिहास में वर्णित है कि मदीने में एक यहूदी और एक मुसलमान के बीच कुछ विवाद हो गया। यहूदी ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के न्याय और अमानदारी के कारण उन्हें पंच के रूप में पेश किया जबकि मुसलमान व्यक्ति ने, जो अपने अवैध हितों की पूर्ति चाहता था, एक यहूदी धर्मगुरू को पंच बनाया क्योंकि वह जानता था कि उपहार इत्यादि देकर यहूदी धर्मगुरू को अपने पक्ष में कर सकता है। यह आयत इसी अनुचित व्यवहार की आलोचना में आई।
इस आयत से हमने सीखा कि असत्य और असत्यवादियों से दूरी के बिना ईमान, वास्तविक नहीं होता बल्कि वह खोखला ईमान है।
जो लोग ईमान का दावा करते हैं किन्तु व्यवहार में ईश्वर नहीं बल्कि दूसरों से संपर्क करते हैं, वे वास्तव में शैतान के साथ मिलकर ईश्वर और पैग़म्बर के विरुद्ध मोर्चाबंदी करते हैं।
असत्य पर चलने वालों के शासन की स्वीकारोक्ति समाज में शैतान की गतिविधियों की भूमि समतल कर देती है।
सूरए निसा 61वीं आयत
और जब उनसे कहा जाता है कि उस चीज़ की ओर, जो ईश्चर ने उतारी है अर्थात किताब और पैग़म्बर की ओर आओ तो तुम मिथ्याचारियों को देखते हो कि वे लोगों को तुम्हारा निमंत्रण स्वीकार करने से कड़ाई से रोकते हैं। (4:61)
यह आयत फ़ैसला कराने के लिए दूसरों से संपर्क को मिथ्या की निशानी बताते हुए कहती है, ये मुनाफिक़ अर्थात मिथ्याचारी हैं जो क़ुरआन और ईश्वरीय परंपरा से कतराते हैं और काफ़िरों के विचार उन्हें भले लगते हैं। वे न केवल यह कि स्वयं ईश्वरीय आदेशों को स्वीकार नहीं करते बल्कि दूसरों को भी ईमान लाने से रोकते हैं ताकि दूसरे भी उन्हीं की भांति कर्म करें और फिर कोई उन्हें रोकने वाला न रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों को ईश्वर की ओर बुलाना हमारा कर्तव्य है चाहे हम जानते हों कि वे स्वीकार नहीं करेंगे और ईश्वरीय आदेश के समक्ष नतमस्तक नहीं होंगे।
सत्य और सच्चे नेतृत्व का विरोध मिथ्याचारियों की सबसे स्पष्ट निशानियों में से एक है।
सूरए निसा की 62वीं और 63वीं आयत
तो उस समय उनका क्या होगा जब उन पर उनके कर्मों के कारण मुसीबत आयेगी और वे उससे निकलने के लिए तुम्हारे पास आकर ईश्वर की सौगन्ध खायेंगे कि असत्यवादी पंचों से संपर्क करने का हमारा लक्ष्य केवल दोनों पक्षों के बीच एकता उत्पन्न करना और उनके साथ भलाई करना था। (4:62) यही वे लोग हैं जिनके मन की भी बात ईश्वर जानता है तो हे पैग़म्बर! तुम उन्हें दंडित न करो, हां उन्हें उपदेश देते रहो और उनसे प्रभावी तथा दिल में बैठ जाने वाली बातें करो। (4:63)
पिछली आयतों में मिथ्याचारियों के बुरे व्यवहार की आलोचना के पश्चात ईश्वर इन आयतों में स्वयं मिथ्याचारियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार का वर्णन करते हुए कहता है कि उनको किसी भी प्रकार का शारीरिक दंड मत दो और केवल बातों द्वारा उनको उपदेश दो तथा उनके कर्मों के परिणामों की ओर से सचेत करो। उनके दंड को ईश्वर के हवाले कर दो।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के समीप फ़ैसलों के लिए मामले न ले जाने हेतु मिथ्याचारियों का एक बहाना यह था कि यदि हम पैग़म्बर के पास जाते तो वे स्वाभाविक रूप से एक के पक्ष में और दूसरे के विरुद्ध फ़ैसला करते जिसके कारण एक पक्ष पैग़म्बर से अप्रसन्न हो जाता जो कि पैग़म्बरी की शान के विरुद्ध है इसी कारण हम पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के सम्मान, उनकी स्थिति तथा लोकप्रियता की रक्षा के लिए अपने मामले उनके पास नहीं ले जाते।
स्पष्ट है कि इस प्रकार के बहाने कर्तव्यों और दायित्वों से बचने के लिए होते हैं और यदि यही तै होता कि पैग़म्बर की लोकप्रियता की रक्षा इस प्रकार से जायेगी तो ईश्वर इस बात से अधिक अवगत है।
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य तथा समाज की अनेक समस्याओं की जड़ स्वयं मनुष्य के कर्म हैं चाहे वह उनका कारण न जाने या स्वयं को अनभिज्ञ प्रकट करे। इसी कारण दुर्घटनाओं और कठिनाइयों को ईश्वर के ज़िम्मे नहीं डालना चाहिये।
ग़लत कार्यों का औचित्य दर्शाना मिथ्याचारियों की निशानी है जिस प्रकार से कि मिथ्याचारी पैग़म्बर की स्थिति की रक्षा के बहाने उन्हें कमज़ोर बना रहे थे।
सौगन्ध खाना वह पर्दा है जिसे झूठे मिथ्याचारी अपने ग़लत कर्मों और लक्ष्यों पर डालते हैं।
पापी और उल्लंघनकर्ता अपने कुकर्मों को भलाई, सुधार और उपकार जैसे पवित्र शब्दों की आड़ में छिपाते हैं ताकि उनके कर्मों पर कोई उन्हें रोक-टोक न सके।
मिथ्याचारियों के साथ इस प्रकार व्यवहार करना चाहिये कि उनसे दूरी भी रहे और उन्हें उपदेश भी दिया जाये।
सूरए निसा; आयतें 64-68
और हमने किसी भी पैग़म्बर को नहीं भेजा सिवाए इस उद्देश्य से कि ईश्वर की अनुमति से उसका अनुसरण किया जाए और यदि वे विरोधी, जब उन्होंने अपने आप पर अत्याचार किया और ईश्वरीय आदेश की अवज्ञा की, तुम्हारे पास आते और ईश्वर से क्षमा याचना करते और पैग़म्बर भी उन्हें क्षमा करने की सिफ़ारिश करते तो नि:संदेह वे ईश्वर को बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान पाते। (4:64)
पिछले कार्यक्रमों में हमने कहा था कि कुछ मिथ्याचारी मुसलमानों ने अपने सामाजिक विवादों के निवारण के लिए पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बजाए असत्यवादी शासकों से संपर्क किया। यह आयत कहती है कि लोगों का कर्तव्य है कि वे विभिन्न मामलों में पैग़म्बर का अनुसरण करें। पैग़म्बर केवल ईश्वर का संदेश पहुंचाने के लिए नहीं आये हैं बल्कि वे शासन के अधिकारी हैं तथा दूसरों को नहीं बल्कि मुसलमानों को उनका आज्ञापालन करना चाहिये।
अलबत्ता पैग़म्बर का आज्ञापालन भी ईश्वर के आदेश से है अन्यथा किसी का भी यहां तक कि पैग़म्बर का भी अनुसरण यदि ईश्वर की अनुमति से न हो तो कुफ्र और अनेकिश्वरवाद है। आगे चलकर आयत कहती है कि पैग़म्बर की अवज्ञा के पाप की तौबा पैग़म्बर से संपर्क है और यह तौबा केवल उसी स्थिति में स्वीकार होगी जब पैग़म्बर उसकी तौबा को स्वीकार कर लें और उसके लिए ईश्वर से क्षमा याचना करें।
स्पष्ट है कि यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल से विशेष नहीं है और जिस काल में जो कोई भी ईश्वर और पैग़म्बर का विरोध करे यदि वह पैग़म्बर की क़ब्र की ज़ियारत के लिए जाए और उनसे ईश्वर के समक्ष अपने लिए क्षमा याचना का अनुरोध करे तो पैग़म्बर के माध्यम से उसके पाप की क्षमा स्वीकार होने की भूमि समतल हो जाती है।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों का मार्गदर्शन ईश्वरीय पथप्रदर्शकों के अनुसरण पर निर्भर है। केवल ईमान पर्याप्त नहीं है बल्कि व्यवहार में आज्ञापालन भी आवश्यक है।
पैग़म्बरों की शिक्षाओं से दूरी और असत्यवादी शासकों से संपर्क पवित्र व भले लोगों पर नहीं बल्कि अपने आप पर अत्याचार है।
ईश्वर के पवित्र बंदों की क़ब्रों की ज़ियारत के लिए यात्रा और ईश्वर के समक्ष क्षमा याचना के लिए उनसे अनुरोध करना क़ुरआन की सिफ़ारिश है।
सूरए निसा की 65वीं आयत
तुम्हारे पालनहार की सौगन्ध कि वे वास्तविक ईमान तक नहीं पहुंचेगे जब तक कि वे अपने विवादों में केवल तुम्हें पंच न बनायें और फिर हृदय में भी तुम्हारे फ़ैसले से अप्रसन्न न हों और तुम्हारे फ़ैसले के समक्ष पूर्णत: नतमस्तक रहें। (4:65)
पिछली आयतों में विवादों के फ़ैसले के लिए पैग़म्बर के पास जाने और दूसरों के पास न जाने की सिफारिश की गई है। यह आयत कहती है कि न केवल यह कि तुम पैग़म्बर से संपर्क करो बल्कि उनके फ़ैसले का पूर्णरूप से आज्ञापालन भी करो और न केवल यह कि ज़बान से कुछ न हो बल्कि हृदय में अप्रसन्नता का आभास न करो क्योंकि संभवत: पैग़म्बर का फ़ैसला तुम्हारे विरुद्ध हो सकता है।
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के दो साथियों में अपने खजूरों के बाग़ों की सिंचाई के मामले पर मतभेद हो गया। वे दोनों पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आए और उनसे फ़ैसला करने को कहा परंतु जब उन्होंने पैग़म्बर का फ़ैसला सुना तो जिसके विरुद्ध फ़ैसला हुआ था उसने पैग़म्बर पर आरोप लगाया कि चूंकि दूसरा पक्ष उनका रिश्तेदार था इसलिए उन्होंने उसके हित में फ़ैसला दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम इस बात से अत्यंत अप्रसन्न हुए और उनके चेहरे का रंग बदल गया। इसी अवसर पर यह आयत उतरी और उसने मुसलमानों को चेतावनी दी।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान, नतमस्तक हुए बिना नहीं प्राप्त होता। सच्चा मोमिन वह है जो ईश्वर और पैग़म्बर के आदेशों का पालन भी करता है और उनके आदेशों से अप्रसन्नता का आभास भी नहीं करता तथा दिल से भी उनके आदेशों को स्वीकार करता है।
लोगों के बीच फ़ैसला करना, पैग़म्बरों और ईश्वरीय मार्गदर्शकों की एक विशेषता रही है। धर्म केवल कुछ शुष्क उपासनाओं के कुछ आदेशों का नाम नहीं है बल्कि लोगों की सामाजिक समस्याओं का निवारण भी धार्मिक नेताओं के कर्तव्यों में से एक है।
सूरए निसा की 66वीं 67वीं और 68वीं आयत
और यदि हम इन मिथ्याचारियों को यह आदेश देते कि वे अपनी हत्या कर लें या अपने घरों को छोड़कर निकल जायें तो कुछ लोगों के अतिरिक्त कोई भी आज्ञापालन न करता जबकि इन्हें जो उपदेश दिया गया है उसका पालन करते तो उन्हीं के हित में अच्छा होता और इनका ईमान अधिक सुदृढ़ होता। (4:66) और हम अपनी ओर से बड़ा बदला भी देते। (4:67) और सीधे रास्ते की ओर इनका मार्गदर्शन भी कर देते। (4:68)
पिछली आयतों को पूर्ण करते हुए ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के न्यायपूर्ण फ़ैसलों से अप्रसन्न होने वालों से कहती हैं हमने तुम पर कोई कड़ा और जटिल दायित्व नहीं डाला है कि तुम इस प्रकार का आभास कर रहे हो। हमने पिछले समुदायों और जातियों को जैसे यहूदी जाति को जब उन्होंने गाए के बछड़े की उपासना आरंभ कर दी थी उनके पापों के प्रायश्चित के लिए एक दूसरे की हत्या और अपनी धरती से बाहर निकल जाने का आदेश दिया था। निश्चित रूप से यदि इस प्रकार का आदेश तुम्हें दिया जाता तो केवल कुछ ही लोग उसका पालन करते।
आगे चलकर आयत मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहती है यदि तुम ईश्वरीय आदेशों को मानो तो यह स्वयं तुम्हारे लिए बेहतर है सही रास्ते पर तुम्हारा मार्गदर्शन भी होगा तथा तुम्हारा ईमान दृढ़ हो जायेगा और प्रलय में भी तुम्हें ईश्वर की ओर से बड़ा बदला मिलेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईमान के दावेदार तो बहुत हैं पंरतु ईश्वरीय परीक्षाओं में सफल होने वाले बहुत कम हैं।
ईश्वरीय आदेश ऐसे उपदेश हैं जिनका लाभ स्वयं हमें मिलता है। इससे ईश्वर को कोई लाभ नहीं है।
ईश्वर के मार्ग में जितना आगे बढ़ते जायेंगे उतना ही हमारा ईमान बढ़ता और सुदृढ़ होता जायेगा।
सूरए निसा; आयतें 69-73
जो लोग ईश्वर और पैग़म्बर का अनुसरण करें तो वे उन लोगों के साथ रहेंगे जिन्हें ईश्वर ने अपनी विभूतियां दी हैं जैसे; पैग़म्बर, सच बोलने वाले, शहीद और भलाई करने वाले और ये लोग कितने अच्छे साथी हैं। (4:69) ये सब कृपायें ईश्वर की ओर से हैं और बंदों के भले कामों को जानने के लिए ईश्वर काफ़ी है। (4:70)
पिछली आयतों में हमें पता चला कि जो लोग ईश्वरीय आदेशों का पालन करते हैं उन्हें इसी संसार में अपने कर्मों का फल दिया जाता है और ईश्वर सदैव उन्हें अपने विशेष मार्गदर्शन की छाया में रखता है। इन आयतों में ईश्वर कहता है कि ऐसे लोग प्रलय में भी पैग़म्बर और पवित्र लोगों के साथ रहेंगे और वहां भी उनके अस्तित्व से लाभान्वित होते रहेंगे।
सूरए हम्द में, जिसे हर नमाज़ में पढ़ा जाता है, हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमें सीधे मार्ग पर बाक़ी रखे, उन लोगों के मार्ग पर जिन्हें उसने अपनी विशेष अनुकम्पायें प्रदान की हैं। सूरए निसा की इस आयत में हम पैग़म्बरों, सच्चे, शहीद और पवित्र लोगों के सबसे अच्छे प्रतीकों को पहचानते हैं। तो हम हर नमाज़ में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वो हमें स्वर्ग में ऐसे ही लोगों के साथ रखे।
इन आयतों से हमने सीखा कि लोक-परलोक में अच्छे मित्र और साथी प्राप्त करने का मार्ग ईश्वर व पैग़म्बर के आदेशों का पालन है।
मित्र के चयन में ईमान और पवित्रता मूल शर्त है।
इस बात पर ईमान कि ईश्वर हमारे समस्त कर्मों से अवगत है, भले कर्म करने के लिए सबसे अच्छा प्रोत्साहन है।
सूरए निसा की 71वीं आयत
हे ईमान वालो! अपने शस्त्र ले लो और पूर्ण रूप से सचेत व तैयार रहो, फिर बंटे हुए गुटों में या एक साथ मिलकर शत्रु की ओर बढ़ो। (4:71)
चूंकि इस्लाम जीवन का धर्म है और जीवन के विभिन्न व्यक्तिगत व सामाजिक पहलू होते हैं इसी लिए क़ुरआन मजीद के आदेश, उपासना और व्यक्तिगत कर्तव्यों के अतिरिक्त समाज के विभिन्न मामलों पर आधारित हैं। हर समाज के महत्वपूर्ण मामलों में से एक आंतरिक और बाहरी शत्रु से निपटने की पद्धति है। क़ुरआन मजीद ने अनेक आयतों में ईमान वालों को इस्लामी क्षेत्रों, धर्म और इस्लामी मान्यताओं का निमंत्रण दिया है और इस मार्ग में हर प्रकार की हानि और ख़तरे को अत्यंत मूल्यवान बताया है।
जैसा कि पिछली आयतों में क़ुरआने मजीद ने शहीदों का स्थान पैग़म्बरों के समान बताया था जहां पहुंचने की कामना हर ईमान वाले के हृदय में होती है। इस आयत में भी ईमान वालों से कहा गया है कि अपनी सैनिक क्षमता में वृद्धि करें ताकि उनमें शत्रु के हर प्रकार के आक्रमण का मुक़ाबला करने की तैयारी रहे। इस आयत में प्रयोग होने वाले शब्द हिज़्र का अर्थ है रक्षा का साधन। अर्थात तुम्हें दूसरों पर आक्रमण नहीं करना चाहिये पंरतु यदि दूसरों ने तुम पर आक्रमण किया तो तुममें अपनी प्रतिरक्षा की तैयारी होनी चाहिये ताकि तुम्हारा सम्मान और तुम्हारी सत्ता सुरक्षित रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि मुसलमानों को शत्रु की सैनिक योजनाओं, पद्धतियों तथा संभावनाओं से अवगत रहना चाहिये ताकि वे उन्हीं के अनुसार अपनी प्रतिरक्षा के साधन तैयार कर सकें और मुक़ाबले के लिए तैयार रहें।
इस्लामी समाज के किसी विशेष गुट को नहीं बल्कि सभी को सैनिक प्रशिक्षण लेना चाहिये ताकि शत्रु के आक्रमण के समय सभी एकजुट होकर अपने देश और धर्म की रक्षा कर सकें।
सूरए निसा की 72वीं और 73 वीं आयत
निसंदेह तुम्हारे बीच लोगों का ऐसा गुट भी है जो स्वयं भी सुस्त है और दूसरों को भी सुस्ती पर उकसाता है। तो जब युद्ध में तुम पर कोई संकट आता है तो वह कहता है कि ईश्वर ने मुझ पर कृपा की जो मैं उनके साथ उपस्थित नहीं था (4:72) और जब ईश्वर की ओर से तुम्हें कोई कृपा प्राप्त हो जाती है और तुम विजयी हो जाते हो तो कहता है, काश मैं भी उनके साथ होता ताकि मुझे भी महान कल्याण प्राप्त हो जाता। वह इस प्रकार से कहता है मानो तुम्हारे और उनके बीच कोई प्रेम और संबंध था ही नहीं और तुम्हारी विजय उनकी विजय नहीं है। (4:73)
पिछली आयत में बाहरी शत्रु के मुक़ाबले में मुसलमानों की तैयारी की ओर संकेत किया गया था। ये आयतें मिथ्याचारियों और आंतरिक शत्रुओं की ओर से सचेत करती हैं। अवसर वादी लोग, जो केवल अपने हितों को दृष्टिगत रखते हैं न केवल यह कि धर्म के मार्ग में कठिनाइयां झेलने के लिए तैयार नहीं होते बल्कि दूसरों को भी इस प्रकार के कार्यों से रोकने का प्रयास करते हैं ताकि वे स्वयं बदनाम न हों। ये आयतें ऐसे लोगों की निशानी इस प्रकार बताती हैं कि जब इस्लामी समाज पर संकट और कठिनाइयां पड़ती हैं तो वे स्वयं को अलग कर लेते हैं और अपनी जान बच जाने पर ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करते हैं तथा आराम और विजय के समय स्वयं के वंचित रह जाने के कारण खेद प्रकट करते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि युद्ध और जेहाद का मैदान ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों की पहचान व परीक्षा का सबसे अच्छा स्थान है।
रणक्षेत्र तथा मोर्चों पर मिथ्याचारियों की उपस्थिति, लड़ने वालों की भावनाएं कमज़ोर पड़ने का कारण हैं। अत:ऐसे लोगों को पहचानना चाहिये और उन्हें मोर्चे पर नहीं भेजना चाहिये।
युद्ध और इस्लामी समाज की कठिनाइयों के मैदान से भागना मिथ्या की निशानी है।
ऐसे आराम का मूल्य है जो समाज के अन्य लोगों के आराम के साथ हो, न यह कि दूसरे कठिनाई में रहें और हम आराम से।
मिथ्याचारियों की दृष्टि में मोक्ष और कल्याण सांसारिक और भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति है हमें ऐसा नहीं होना चाहिये।
जो व्यक्ति ईमान वालों के दुख में भाग नहीं लेता परंतु उनके लाभों में शामिल होना चाहता है वह मिथ्याचारी प्रवृत्ति का है।
सूरए निसा; आयतें 74-76
तो जिन लोगों ने संसार के जीवन को प्रलय के बदले बेच दिया है उन्हें ईश्वर के मार्ग में युद्ध करना चाहिये और जान लेना चाहिये कि जो भी ईश्वर के मार्ग में युद्ध करेगा चाहे वह मारा जाए या विजयी हो हम उसे शीघ्र ही महान बदला देंगे। (4:74)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिथ्याचारी व्यक्ति की एक निशानी यह है कि वह विभिन्न बहानों से जेहाद में शामिल होने से बचता रहता है और न केवल यह कि स्वयं सुस्ती करता है बल्कि दूसरों को भी मोर्चों पर जाने से रोकता है।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए यह आयत कहती है युद्ध से भागना ईश्वर और प्रलय पर ईमान न होने की निशानी है और यदि कोई परलोक में मिलने वाले बदले पर ईमान रखता हो और संसार की अस्थाई ज़िन्दगी को परलोक के स्थाई जीवन के लिए एक खेती की भांति समझता हो तो वह बड़ी सरलता से ईश्वर के मार्ग में संघर्ष और युद्ध करता है क्योंकि ऐसा ईमान वाला व्यक्ति जानता है कि उसका कर्तव्य ईश्वर के शत्रुओं से उसके धर्म की सुरक्षा करना है तथा वह अपना कर्तव्य पालन करना चाहता है परिणाम चाहे जो भी हो। विजय या पराजय से उसे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि ईश्वर के मार्ग में रहना और उसकी प्रसन्नता के लिए काम करना महत्वपूर्ण है न कि शत्रु को पराजित करने के लिए।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम में जेहाद का लक्ष्य ईश्वरीय धर्म की रक्षा है न कि विस्तारवाद, प्रतिशोध, साम्राज्य या भूमि विस्तार।
ईमान की परीक्षा का एक मंच रणक्षेत्र है जो ईमान वाले को मित्थाचारी से अलग कर देता है।
सत्य के मोर्चे पर फ़रार या पराजय का अस्तित्व नहीं है; या शहादत मिलेगी या विजय।
सूरए निसा की 75वीं आयत .
हे ईमान वालो! तुम उन अत्याचारग्रस्त पुरुषों, महिलाओं और बच्चों की मुक्ति के लिए युद्ध क्यों नहीं करते जो कहते हैं कि प्रभुवर! हमें इस नगर से निकाल दे जिसके लोग अत्याचारी हैं और तू अपनी ओर से हमारे लिए कोई अभिभावक पैदा कर और अपनी ओर से किसी को हमारा सहायक बना। (4:75)
जिस प्रकार से कि पिछली आयतें मोमिनों को प्रलय पर ईमान पर भरोसा और लोक व परलोक की तुलना करके ईश्वर के मार्ग में जेहाद में निमंत्रण देती थीं उसी प्रकार यह आयत मानवीय भावनाओं से लाभ उठाते हुए ईमान वालों से कहती है कि वे अत्याचारियों के चंगुल में फंसे हुए लोगों की मुक्ति के लिए उठ खड़े हों और चुप न बैठें।
यह आयत भलि-भांति स्पष्ट करती है कि अत्याचारियों के चंगुल से अत्याचारग्रस्तों की मुक्ति और स्वतंत्रता इस्लामी जेहाद के लक्ष्यों में से है और इस मार्ग में युद्ध ईश्वर के मार्ग में युद्ध है। वास्तविक ईमान वालों का अपने धर्म और देश वालों के प्रति दायित्व होता है और वे ऐसी स्थिति में केवल अपने और अपने परिजनों के आराम का ध्यान नहीं रख सकते कि जब वे लोग संकट में हों।
इस आयत से हमें यह पाठ मिलता है कि इस्लाम में जेहाद ईश्वरीय होने के साथ मानवीय भी है और मनुष्यों की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष ईश्वरीय संघर्ष है।
पीड़ितों की चीख़ व पुकार की उपेक्षा पाप है। साहस और शक्ति के साथ उनकी सहायता करनी चाहिये।
अत्याचारियों से छुटकारे के लिए ईश्वर और उसके प्रिय दासों से सहायता मांगनी चाहिये न कि हर एक से हर रूप में।
सूरए निसा की 76वीं आयत
धर्म पर निष्ठा रखने वाले ईश्वर के मार्ग में संघर्ष करते हैं और नास्तिक, बुराई के प्रतीक के मार्ग में लड़ाई करते हैं तो हे ईमान लाने वालो शैतान के अनुयाइयों और चेलों से लड़ो तथा डरो मत, शैतान की योजना कमज़ोर है। (4:76)
इस्लाम में जेहाद के अर्थ को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस आयत में धर्म पर निष्ठा रखने वालों और नास्तिकों के युद्ध के लक्ष्यों पर प्रकाश डाला गया है। आयत में कहा जाता है कि ईमान लाने वाले ईश्वर के धर्म की सुदृढ़ता और सुरक्षा के लिए जेहाद करते हैं न कि सत्ता और पद के लिए। उनका लक्ष्य ईश्वर होता है जबकि ईश्वर का इन्कार करने वाले अत्याचारियों और बुराइयों के प्रतीकों की सत्ता को मज़बूत करने के लिए युद्ध करते हैं और उनका लक्ष्य अन्य लोगों पर वर्चस्व जमाना तथा देश की सीमा बढ़ाना होता है।
इसके बाद इस आयत में इस प्रकार के वर्चस्व वादी गुटों से युद्ध करने पर मोमिनों को प्रोत्साहित करते हुए कहा गया है।
यह न सोचो कि वे शक्तिशाली हैं और तुम कमज़ोर बल्कि इसके विपरीत तुम ईश्वर पर विश्वास के कारण सबसे बड़ी शक्ति के स्वामी हो और वे शैतान के अनुसरण के कारण अत्यंत कमज़ोर हैं तो फिर शैतान व बुराइयों के प्रतीकों की सेना के विरुद्ध लड़ाई से न डरो और अपनी पूरी शक्ति के साथ उनका मुक़ाबला करो और जान लो कि तुम ही श्रेष्ठ हो क्योंकि वे शैतान के अनुयायी हैं कि जो स्वयं ईश्वर के संकल्प के आगे कमज़ोर है।
इस आयत से हमें यह पाठ मिलता है कि ईश्वर के मार्ग में होना अर्थात ईश्वर के लिए होना इस्लामी समाज में समस्त कार्यवाहियों और गतिविधियों का प्रतीक व चिन्ह है।
उपेक्षा और वैराग्य मोमिन के लिए उचित नहीं होता बल्कि ईमान व ईश्वर पर विश्वास का चिन्ह बुराइयों का आदेश देने वाली इच्छाओं के विरुद्ध संघर्ष है।
ईश्वर का इन्कार बुराइयों के प्रतीक और शैतान के त्रिभुज के तीन आयाम हैं जिनमें से प्रत्येक का जीवन एक दूसरे पर निर्भर है। इसीलिए इनमें से हर एक दूसरे को शक्ति प्रदान करने की दिशा में प्रयासरत रहता है।
शैतान के अनुसरण का परिणाम विफलता होता है क्योंकि शैतान और उसके अनुयाइयों को प्राप्त होने वाला समर्थन कमज़ोर व कम होता है।
मैंने कई विद्वानों की लिखी कुरआन की तफसीरें और हिंदी अनुवाद पढ़ी हैं लेकिन आप की व्याख्या ने मुझे बहुत प्रभावित किया ।
ReplyDeleteकुरआन अनुवाद में आपकी हिंदी बहुत ऊँचे दर्जे
की है और अनुवाद प्रवाहमय है ।
सामान्यतः शब्दानुवाद करने से भाषा जटिल हो जाती है ।
अनुवाद में केवल औपचारिक हिंदी का प्रयोग है न कि अन्य की तरह खिचड़ी भाषा का !
तफसीर बहुत ही स्पष्ट है , विवरण विस्तृत है , सन्दर्भ के साथ है , अप्रासंगिक तथ्य से परहेज़ है ।अंत में moral of the story भी है ।
क्या आपकी लिखी सभी तफ्सीरें (सभी 114 सूरह) मुझे pdf में उपलब्ध हो सकती हैं ??
निवेदक -
फैज़ अकरम
DY.S.P.
Jharkhand Jaguar (STF)
RANCHI
JHARKHAND
मैंने कई विद्वानों की लिखी कुरआन की तफसीरें और हिंदी अनुवाद पढ़ी हैं लेकिन आप की व्याख्या ने मुझे बहुत प्रभावित किया ।
ReplyDeleteकुरआन अनुवाद में आपकी हिंदी बहुत ऊँचे दर्जे
की है और अनुवाद प्रवाहमय है ।
सामान्यतः शब्दानुवाद करने से भाषा जटिल हो जाती है ।
अनुवाद में केवल औपचारिक हिंदी का प्रयोग है न कि अन्य की तरह खिचड़ी भाषा का !
तफसीर बहुत ही स्पष्ट है , विवरण विस्तृत है , सन्दर्भ के साथ है , अप्रासंगिक तथ्य से परहेज़ है ।अंत में moral of the story भी है ।
क्या आपकी लिखी सभी तफ्सीरें (सभी 114 सूरह) मुझे pdf में उपलब्ध हो सकती हैं ??
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फैज़ अकरम
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