कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:1-33

सूरए निसा; आयतें 1-3 सूरए आले इमरान की व्याख्या पिछले कार्यक्रम में समाप्त हो गई और अब हम क़ुरआन मजीद के चौथे सूरे अर्थात सूरए निसा की...


सूरए निसा; आयतें 1-3

सूरए आले इमरान की व्याख्या पिछले कार्यक्रम में समाप्त हो गई और अब हम क़ुरआन मजीद के चौथे सूरे अर्थात सूरए निसा की आयतों की व्याख्या आरंभ कर रहे हैं। सूरए निसा में 176 आयतें हैं और यह सूरा मदीना नगर में उतरा है। चूंकि इस सूरे की अधिकांश आयतें परिवार की समस्याओं और परिवार में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित हैं इसलिए इसे सूरए निसा कहा गया है जिसका अर्थ होता है महिलाएं।
तो आइये इस सूरे की पहली आयत की तिलावत सुनें।


अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)
 यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी।
 ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।
 क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।
 इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।
 मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है।
 सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये।
 ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।


 सूरे निसा की दूसरी आयत

अनाथों का माल उन्हें दे दो और अपना ख़राब माल उनके अच्छे माल से मत बदलो और उनके माल को अपने माल की ओर मत खींचो कि नि: संदेह यह बहुत बड़ा पाप है। (4:2)

 यह आयत सभी मानव समाजों में पाई जाने वाली एक समस्या अर्थात असहाय अनाथों की ओर संकेत करती है जो विरासत में मिलने वाली सम्पत्ति की रक्षा की क्षमता नहीं रखते। अत: वह सम्पत्ति उनके अभिभावक के नियंत्रण में आ जाती है और वह उसका ग़लत प्रयोग कर सकता है।
 इस आयत का सबसे स्पष्ट उदाहरण वे छोटे-छोटे बच्चे हैं जिनके माता-पिता का निधन हो जाता है तो अभिभावक बच्चों के अधिकारों को दृष्टिगत रखे बिना उत्तराधिकार में मिले धन को आपस में बांट लेते हैं और विरासत में से उन्हें कुछ भी नहीं देते या देते भी हैं तो अपनी इच्छा के अनुसार, न उस मात्रा में जो ईश्वर ने विरासत के संबंध में निर्धारित की है।
 यह आयत अनाथों के माल में हर प्रकार की गड़-बड़ या उसे प्रयोग करने से रोकते हुए इसे एक बड़ा पाप बताती है क्योंकि अनाथ के अभिभावक का कर्तव्य, अनाथ के माल की देखभाल तथा बड़े होने पर उसे उसके हवाले करना है न यह कि वह स्वयं को ही उसके माल का मालिक समझे बैठे और जैसा चाहे उस सम्पत्ति का प्रयोग करे।
इस आयत से हमने सीखा कि अनाथों का माल उन्हें देना चाहिये, चाहे वे न जानते हों या भूल गये हों।
बच्चे भी सम्पत्ति के मालिक होते हैं परंतु जब तक वे वयस्क न हो जायें, उसे प्रयोग नहीं कर सकते।
इस्लाम समाज के वंचित और बेसहारा लोगों पर ध्यान देता है और उनका समर्थन करता है।

 सूरए निसा की तीसरी आयत

और यदि तुम्हें भय हो कि तुम अनाथ लड़कियों के संबंध में न्याय नहीं कर सकोगे तो उनसे विवाह मत करो और अपनी पसंद की महिलाओं में दो, तीन या चार से विवाह करो, फिर यदि तुम्हें भय हो कि अपनी पत्नियों के बीच न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर पाओगे तो केवल एक से विवाह करो या उन दासियों को, जिनके तुम स्वामी हो, अपनी पत्नी बना लो। यह उत्तम मार्ग है ताकि तुम अत्याचार न करो। (4:3)


यह आयत अनाथ लड़कियों के संबंध में है जिन पर सदैव अधिक अत्याचार होते हैं। इसी कारण ईश्वर ने उनके बारे में अलग से बात की है और उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है। अवसर की खोज में रहने वाले लोग अनाथ लड़कियों के माल पर क़ब्ज़ा करने के लिए उनसे विवाह का प्रस्ताव रख सकते हैं और इस मार्ग में हर प्रकार का ग़लत कार्य कर सकते हैं पंरतु क़ुरआन कहता है कि यदि अनाथ लड़कियों से विवाह में तुम्में इस बात की तनिक भी संभावना हो कि तुम अत्याचार कर बैठोगे तो यह विवाह मत करो।
इस्लामी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित है कि इस्लाम के आरंभिक काल में कुछ दुष्ट लोग अनाथ लड़कियों की अभिभावकता स्वीकार करते हुए उन्हें अपने घर ले आते थे परन्तु कुछ समय बीतने के पश्चात उनसे विवाह कर लेते थे तथा न केवय यह कि उनकी सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा कर लेते थे बल्कि उनका मेहर भी सामान्य से कम देते थे। ईश्वर ने इसी सूरे की १२७वीं आयत भेज कर अनाथ लड़कियों के संबंध में हर प्रकार के अन्याय से रोका है।
चूंकि अनेक पुरुष अनाथ लड़कियों से दूसरी, तीसरी या चौथी पत्नी के रूप में विवाह करते थे अत: क़ुरआन उन लड़कियों के सम्मान की रक्षा के लिए कहता है कि यदि तुम दूसरी शादी करना चाहते हो तो इन अनाथ लड़कियों से क्यों करते हो? अन्य महिलाओं से विवाह करो या कम से कम अपनी दासियों से ही विवाह कर लो।
यद्यपि यह आयत पुरुषों को चार विवाह की अनुमति देती है परंतु इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि यह इस्लाम की पहल नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक व्यवस्था थी और है तथा परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए इस्लाम ने इस संबंध में कड़े क़ानून रखे हैं। दूसरे शब्दों में बहुविवाह का विषय इस्लाम ने प्रस्तुत नहीं किया है बल्कि यह उस समय के समाज की वास्तविकता थी जिसे इस्लाम ने विशेष क़ानून बनाकर नियंत्रित किया है।
वास्तविकता यह है कि महिलाओं के मुक़ाबले में पुरुषों को जान का ख़तरा अधिक होता है। युद्धों और झड़पों में पुरुष ही मारे जाते हैं और महिलाएं विधवा हो जाती हैं। इसी प्रकार प्रतिदिन के अन्य कामों में भी पुरुषों को महिलाओं से अधिक ख़तरा रहता है तथा हर समाज में पुरुषों की मृत्यु दर महिलाओं की मृत्यु दर से कहीं अधिक होती है, तो क्या ऐसे पुरुषों की पत्नियों से यह कहा जा सकता है कि चूंकि तुम्हारे पति मर चुके हैं अत: तुम अपने जीवन के अंत तक अभिभावक के बिना रहो? और दूसरी ओर क्या युवाओं को यह आदेश दिया जा सकता है कि विधवा व बच्चों वाली महिलाओं से विवाह करें यहां तक कि पश्चिमी समाजों में, जो इस्लाम के इस क़ानून को महिला अधिकारों का विरोधी समझते हैं, अनेक महिलाओं व पुरुषों के बीच अवैध संबंध होते हैं और इस संबंध में उनके यहां कोई नियम नहीं है। इस्लाम मनुष्य की प्राकृतिक इच्छाओं के आधार पर इस पारस्परिक आवश्यकता को नकारना नहीं चाहता और इस संबंध में उसने विशेष क़ानून बनाये हैं तथा उनकी संख्या को सीमित किया है और इसकी सबसे महत्वपूर्ण शर्त पत्नियों के बीच न्याय है।
क्या इसे महिला अधिकारों के विरुद्ध कहा जा सकता है? और जिन समाजों में महिलाओं तथा पुरुषों के बीच संबंधों के लिए कोई नियम और क़ानून नहीं है तथा स्वतंत्रता के झूठे नारों के साथ हर प्रकार के संबंधों यहां तक कि विवाहित महिला के साथ भी अवैध संबंधों की अनुमति होती है तो क्या यह महिला के अधिकारों के हित में है? पवित्र क़ुरआन इस संबंध में स्पष्ट रूप से कहता है कि यदि तुम अपनी पत्नियों के बीच न्याय नहीं कर सकते तो एक से अधिक विवाह मत करो।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम ने अनाथ लड़कियों के सम्मान की रक्षा और उनकी सम्पत्ति के ग़लत प्रयोग को रोकने के लिए उनके साथ व्यवहार, यहां तक कि उनके साथ विवाह के लिए जो मानदंड बनाया है, वह न्याय का पालन है।
विवाह हेतु जोड़े के चयन की एक शर्त हार्दिक लगाव व रुचि है। किसी को किसी के साथ विवाह के लिए विवश नहीं किया जा सकता।
यदि कोई बहुविवाह के विषय से ग़लत लाभ उठाता है तो यह इस विषय के ग़लत होने की निशानी नहीं है बल्कि इसके विपरीत इस विषय के प्रति समाज की आवश्यकता और इसके लिए विशेष के निर्धारण की आवश्यकता को दर्शाता है।

सूरए निसा; आयतें 4-6

और महिलाओं का मेहर उन्हें उपहार स्वरूप और इच्छा से दो यदि उन्होंने अपनी इच्छा से उसमें से कोई चीज़ तुम्हें दे दी तो उसे तुम आनंद से खा सकते हो। (4:4)

जैसा कि हमने पिछले कार्यक्रम में कहा कि सूरए निसा पारिवारिक आदेशों और विषयों से आरंभ होता है। सभी जातियों व राष्ट्रों के बीच परिवार के गठन के महत्वपूर्ण विषयों में एक पति द्वारा अपनी पत्नी को मेहर के रूप में उपहार दिया जाना है परंतु कुछ जातियों व समुदायों विशेषकर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के काल के अरबों के बीच, जहां व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में महिलाओं का कोई विशेष स्थान नहीं था, अनेक अवसरों पर पुरुष या तो मेहर देते ही नहीं थे या फिर मेहर देने के पश्चात उसे ज़बरदस्ती वापस ले लेते थे।
महिला के पारिवारिक अधिकारों की रक्षा में क़ुरआन पुरुषों को आदेश देता है कि वे मेहर अदा करें और वह भी स्वेच्छा तथा प्रेम से न कि अनिच्छा से और मुंह बिगाड़ के। इसके पश्चात वह कहता है कि जो कुछ तुमने अपनी पत्नी को मेहर के रूप में दिया है उसे या उसके कुछ भाग को वापस लेने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है बल्कि यदि वह अपनी इच्छा से तुम्हें कुछ वापस दे दे तो वह तुम्हारे लिए वैध है।
इस आयत में प्रयोग होने वाले एक शब्द नहलह के बारे में एक रोचक बात यह है कि यह शब्द नहल से निकला है जिसका अर्थ मधुमक्खी होता है। जिस प्रकार से मुधमक्खी लोगों को बिना किसी स्वार्थ के मधु देती है और उनके मुंह में मिठास घोल देती है उसी प्रकार मेहर भी एक उपहार है जो पति अपनी पत्नी को देता है ताकि उनके जीवन में मिठास घुल जाये। अत: मेहर की वापसी की आशा नहीं रखनी चाहिये।
मेहर पत्नी की क़ीमत और मूल्य नहीं बल्कि पति की ओर से उपहार और पत्नी के प्रति उसकी सच्चाई का प्रतीक है। इसी कारण मेहर को सेदाक़ भी कहते हैं जो सिद्क़ शब्द से निकला है जिसका अर्थ सच्चाई होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि मेहर पत्नी का अधिकार है और वह उसकी स्वामी होती है। पति को उसे मेहर देना ही पड़ता है और उससे वापस भी नहीं लिया जा सकता।
किसी को कुछ देने में विदित इच्छा पर्याप्त नहीं है बल्कि स्वेच्छा से और मन के साथ देना आवश्यक है। यदि पत्नी विवश होकर या अनमनेपन से अपना मेहर माफ़ कर दे तो उसे लेना ठीक नहीं है चाहे वह विदित रूप से राज़ी ही क्यों न दिखाई दे।

 सूरए निसा की 5वीं आयत

तुम अपने माल और धन सम्पत्ति को, जो तुम्हारे जीवन का आधार है, मूर्खों को मत दो परन्तु उस माल की आय से उन्हें खाना और कपड़ा दो तथा उनसे अच्छी और भली बात करो। (4:5)


इस आयत से पहली और बाद वाली आयतों से यह बात स्पष्ट होती है कि इस आयत का तात्पर्य यह है कि अनाथों का माल तब तक उन्हें नहीं देना चाहिये जब तक वे बौद्धिक व आर्थिक रूप से वयस्क न हो जायें। यदि कुछ अनाथ बौद्धिक रूप से व्यस्क न हो सकें और बुद्धिहीन रह जायें तो उनका माल उन्हें नहीं देना चाहिये बल्कि मूल राशि और उसकी आय को सुरक्षित रखते हुए खाने और कपड़े जैसी उनकी मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिये।
इसके पश्चात एक महत्वपूर्ण शिष्टाचारिक सिफ़ारिश करते हुए ईश्वर कहता है कि बुद्धिहीनों के साथ भी अच्छी बात करो, न बुरी बात करो, न बुरे ढंग से बात करो। यद्यपि तुम उनका माल उन्हें नहीं देते परंतु उनके साथ बात और व्यवहार में उनका सम्मान करो।
इस आयत से हमने सीखा कि धन सम्पत्ति समाज की सुदृढ़ता व प्रगति का साधन है परन्तु शर्त यह है कि यह पवित्र, भले व बुद्धिमान लोगों के हाथ में हो।
परिवार व समाज के आर्थिक मामलों में व्यक्ति व समाज के हितों को दृष्टिगत रखना चाहिये न कि शीघ्र ही समाप्त हो जाने वाली भावनाओं और कल्पनाओं को।
इस्लामी समाज के आर्थिक अधिकारियों को समझदार एवं अनुभवी होना चाहिये।
इस्लाम की दृष्टि में सांसारिक धन-दौलत न केवल यह कि बुरी चीज़ नहीं है बल्कि अर्थ व्यवस्था की सुदृढ़ता का कारण भी है अलबत्ता केवल उस स्थिति में जब वह बुद्धिहीनों के हाथ में न हो।

सूरए निसा की 6ठी आयत

और अनाथों को आज़माओ यहां तक कि वे विवाह के योग्य हो जायें तो यदि तुम उनके व्यवहार में प्रगति व युक्ति देखो तो उनका माल उन्हें लौटा दो और उसे इस भय से कि कहीं अनाथ बड़े न हो जायें जल्दी जल्दी अपव्यय के साथ ख़र्च मत करो और जो कोई भी आवश्यकतामुक्त है वह अनाथों की अभिभावकता का ख़र्चा न ले और जिसे आवश्यकता है वह प्रचलित और सामान्य मात्रा में ले सकता है। तो जब तुम उनका माल उन्हें लौटाओ तो उन पर गवाह बनाओ और जान लो कि हिसाब के लिए ईश्वर काफी है। (4:6)
इस आयत ने, जिसमें अनाथों के माल की रक्षा और उसे उन्हें लौटाने की पद्धति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है, समाज के निर्धन व कमज़ोर लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ क़ानून बनाये हैं। उदाहरण स्वरूप अनाथों को उनका माल लौटाने की शर्त उनका आर्थिक व वैचारिक दृष्टि से वयस्क होना है जो परीक्षण से सिद्ध हो चुका हो। दूसरी बात यह है कि उनका माल उन्हें देने तक सुरक्षित रखना चाहिये न यह कि उनके वयस्क होने से पूर्व उसे ख़र्च कर देना चाहिये। एक अन्य बात यह कि अनाथ के अभिभावक को उसकी सम्पत्ति से अपना ख़र्च चलाने का अधिकार नहीं है सिवाये इसके कि वह स्वयं दरिद्र हो कि ऐसी दशा में वह अपनी मेहनत के अनुरूप ख़र्च कर सकता है और इसी प्रकार अनाथ का माल उसे देते समय गवाह भी आवश्यक है ताकि भविष्य में संभावित मतभेदों से बचा जा सके।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने माल को ख़र्च करने के लिए शारीरिक वयस्कता के साथ ही वैचारिक व बौद्धिक विकास भी आवश्यक है। अत: बच्चों और नवयुवकों को अपना माल ख़र्च करने से पहले आर्थिक रूप से भी वयस्क होना चाहिये।
आर्थिक मामलों में ठोस काम करना चाहिये। ईश्वर को भी दृष्टिगत रखना चाहिये और समाज में अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए गवाह भी रखना चाहिये।
सम्पन्न लोगों को किसी अपेक्षा व लोभ के बिना समाज की सेवा करनी चाहिये तथा समाज के वंचित लोगों से कमाने के चक्कर में नहीं रहना चाहिये।

सूरए निसा; आयतें 7-10


माता-पिता और निकट परिजन मृत्यु के पश्चात जो माल छोड़ जाते हैं उसमें पुरुषों का भाग है और महिलाओं के लिए (भी) उस माल में भाग है जो माता-पिता या निकट परिजन मृत्यु के पश्चात छोड़ जाते हैं चाहे कम हो या अधिक। यह भाग ईश्वर की ओर से निर्धारित किया गया है। (4:7)


हमने पिछले कार्यक्रमों में कहा था कि सूरए निसा परिवार के विभिन्न मामलों के बारे में है जिनमें से एक बेसहारा और अनाथ बच्चों का मामला है। इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के एक साथी का निधन हो गया और यद्यपि उनकी पत्नी और बच्चे भी थे परन्तु उनके भतीजों ने सारा माल आपस में बांट लिया और उनकी पत्नी व बच्चों को कुछ न दिया क्योंकि इस्लाम से पूर्व अरबों में नियम था कि केवल युद्ध करने वाले पुरुष ही किसी के उत्तराधिकारी हो सकते हैं न कि महिलाएं और बच्चे। उस समय ईश्वर की ओर से यह आयत उतरी और उसमें महिला अधिकारों की रक्षा में कहा गया कि जिस प्रकार विरासत में पुरुषों का भाग है उसी प्रकार महिलाओं का भी भाग है, चाहे विरासत में छोड़ी गई सम्पत्ति कम हो या अधिक, हर का भाग ईश्वर की ओर से निर्धारित है।
इस आयत से हमने सीखा की इस्लाम केवल नमाज़-रोज़े का धर्म नहीं है बल्कि वह सांसारिक जीवन को भी महत्व देता है और इसी कारण वह आर्थिक मामलों, महिलाओं तथा अनाथों के अधिकारों की रक्षा को ईमान की शर्त समझता है।
मीरास या विरासत को ईश्वरीय आदेशों के अनुसार बांटना चाहिये न कि सामाजिक प्रथाओं व चलन के आधार पर और न ही मरने वाले की वसीयत व इच्छा के आधार पर।
मीरास की मात्रा की उसके बांटने में कोई भूमिका नहीं है। महत्वपूर्ण बात उत्तराधिकारियों के अधिकारों की रक्षा और न्याय का पालन है। मीरास के कम होने के कारण उत्तराधिकारियों के अधिकारों की अनदेखी नहीं होनी चाहिये।

सूरए निसा की आठवीं आयत


और यदि मीरास बांटते समय ऐसे नातेदार जिनका मीरास में कोई अधिकार न हो और अनाथ व दरिद्र उपस्थित हो जायें तो उस मीरास से उन्हें भी लाभान्वित करो और उनके साथ अच्छाई से बात करो। (4:8)
चूंकि पारिवारिक संबंधों और रिश्तेदारी को सुदृढ़ बनाने और उनकी रक्षा के लिए प्रेमपूर्ण व्यवहार आवश्यक है। अत: पिछली आयत में मीरास के एक क़ानून के उल्लेख के पश्चात ईश्वर इस आयत में दो शिष्टाचारिक आदेशों का वर्णन करते हुए कहता है।
प्रथम तो यह कि मीरास बांटते समय उपस्थित होने वाले नातेदारों विशेषकर अनाथों और दरिद्रों को, जिनका मीरास में कोई भाग नहीं है, उत्तराधिकारियों की सहमति से कुछ न कुछ देना चाहिये ताकि मीरास से वंचित रहने से उनमें ईर्ष्या की भावना उत्पन्न न हो बल्कि पारिवारिक संबंध मज़बूत हों।
दूसरे यह कि उनके साथ प्रेमपूर्वक और अच्छे ढंग से बात करनी चाहिये ताकि उन्हें यह आभास न होने पाये कि दरिद्रता और वंचितता के कारण रिश्तेदार उनकी उपेक्षा कर रहे हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि वंचित की स्वाभाविक आशाओं और अपेक्षाओं का ध्यान रखना चाहिये और अनिवार्य मात्रा के अतिरिक्त भी विभिन्न बहानों से उनकी सहायता करनी चाहिये।
उपहार देकर और प्रेमपूर्वक व्यवहार द्वारा पारिवारिक संबंधों को सुदृढ़ बनाना चाहिये। भौतिक उपकारों और प्रेमपूर्ण आध्यात्मिक संबंधों द्वारा परिवार में ईर्ष्या व द्वेष को रोका जा सकता है।

सूरए निसा की 9वीं आयत


जो लोग अपने पश्चात कमज़ोर संतान छोड़ जाते हैं और उनके भविष्य से डरते रहते हैं उन्हें अनाथ बच्चों पर अत्याचार से डरना चाहिये तथा ईश्वर से भयभीत रहना चाहिये एवं ठोस बात करनी चाहिये। (4:9)
अनाथों के बारे में लोगों में प्रेम भावना उभारने के लिए क़ुरआन मजीद स्वयं उन्हीं के बेआसरा बच्चों का चित्रण करता है जो उनके पश्चात कठोर हृदय के लोगों की अभिभावकता में आ गये हैं जो न उनकी भावनाओं पर ध्यान देते हैं न उनके माल को ख़र्च करने में न्याय करते हैं। इसके पश्चात क़ुरआन कहता है कि यदि तुम अपने बच्चों के भविष्य की ओर से भयभीत हो कि तुम्हारे पश्चात लोग उनके साथ क्या करेंगे तो तुम भी दूसरों के अनाथ बच्चों के साथ व्यवहार में ईश्वर को दृष्टिगत रखो और न केवल यह कि उन पर अत्याचार न करो बल्कि उचित व अच्छी बातों व व्यवहार द्वारा दिल जीतो और उनके साथ प्रेम करके उनकी प्रेम संबंधी वंचितता को दूर करो।
इस आयत से हमने सीखा कि समाज के अनाथों और वंचितों से वैसा व्यवहार करना चाहिये जैसा हम चाहते हैं कि दूसरे हमारे बच्चों के साथ करें।
समाज में हमारे अच्छे या बुरे व्यवहार का प्रतिउत्तर मिलता है और न केवल हमारे जीवन में बल्कि मृत्यु के पश्चात भी उसके अच्छे या बुरे परिणाम हमारे बच्चों तक पहुंचते हैं। अत: हमें अपने सामाजिक व्यवहार की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिये।
अनाथ बच्चों की आवश्यकताएं केवल खाने पहनने तक सीमित नहीं हैं बल्कि उनकी प्रेम भावना को संतुष्ट करना अधिक महत्वपूर्ण है।

 सूरए निसा की 10वीं आयत


निसंदेह जो लोग अनाथों का माल अत्याचारपूर्वक खाते हैं वास्तव में वे लोग अपने पेटों में आग पहुंचा रहे हैं और शीघ्र ही वे भड़कती हुई आग में पहुंच जायेंगे। (4:10)


यह आयत अनाथों पर अत्याचार करने का परोक्ष चेहरा दिखाते हुए कहती है कि अनाथ का माल खाना वास्तव में आग निगलने जैसा है और अनाथों का माल खाने वाला प्रलय में इसी रूप में प्रकट होगा। मूल रूप से इस संसार में हमारे कर्मों का एक विदित चेहरा है जिसे हम आंखों से देखते हैं और दूसरा वास्तविक चेहरा है जो इस संसार में हमारी आंखों से ओझल है परंतु प्रलय में वह प्रकट होगा तथा प्रलय में हमें दिये जाने वाले दंड वास्तव में हमारे ही कर्मों का साक्षात रूप हैं।
जिस प्रकार अनाथ का माल खाना उसका दिल जलाता है और उसकी आत्मा को यातना पहुंचाता है उसी प्रकार इस कर्म का वास्तविक चेहरा दहकती हुई आग खाना है जो अत्याचारी के पूरे अस्तित्व को जला देगी।
पिछली आयत में अनाथों पर अत्याचार के सामाजिक परिणामों की ओर संकेत किया गया था और इस आयत में उसके परोक्ष परिणामों का उल्लेख किया गया है ताकि ईमान वाले अनाथों के माल की ओर हाथ बढ़ाते समय इन परिणामों की ओर ध्यान दें और यह काम न करें।
इस आयत से हमने सीखा कि हराम माल विशेषकर अनाथों का माल खाना यद्यपि विदित रूप से अच्छा व स्वादिष्ट लगता है परंतु वास्तव में यह आत्मा को यातना देने वाला तथा मनुष्य की भली आदतों को नष्ट करने वाला है। नरक की आग हमारे उन्हीं बुरे कर्मों की आग है जो हम प्रलय में ले गये हैं। ईश्वर अपने बंदों को जलाना पसंद नहीं करता बल्कि यह हम ही हैं जो स्वयं को अपने पापों की आग में जलाते हैं।

सूरए निसा; आयतें 11-14


तुम्हारी संतान की मीरास के बारे में ईश्वर तुमसे यह सिफ़ारिश करता है कि बेटे का भाग, दो बेटियों के भाग के बराबर है और यदि संतान दो या अधिक बेटियां हों तो दो तिहाई मीरास उनकी है और यदि केवल एक बेटी है तो आधा भाग उसका है और यदि मृतक की संतान हो तो उसके माता-पिता दोनों को मीरास का छठा भाग मिलेगा और यदि मृतक के कोई संतान न हो तो माता को एक तिहाई भाग तथा बाक़ी पिता को मिलेगा और यदि मृतक के भाई हों तो माता को छठा भाग मिलेगा। अलबत्ता मीरास का यह बंटवारा मृतक की वसीयत को पूरा करने या उसके ऋण को चुकाने के पश्चात होगा, तुम नहीं जानते कि तुम्हारे लिए माता-पिता या संतान में से कौन अधिक लाभदायक है। ये आदेश ईश्वर की ओर से निर्धारित किये गये हैं और नि:संदेह वह जानकार तथा तत्वदर्शी है। (4:11) और तुम्हारी पत्नियों ने जो कुछ छोड़ा हो उसमें तुम्हारा भाग आधा है। अलबत्ता यदि उनकी संतान न हो तो मीरास में तुम्हारा भाग एक चौथाई है अलबत्ता जो वसीयत कर जायें, उसे पूरा करने या जत ऋण उन पर हो, उसे चुकाने के पश्चात, और यदि पति मर जाये तो जो कुछ वह छोड़ गया है उसमें पत्नियों का भाग एक चौथाई है यदि पति की कोई संतान न हो तो, और यदि संतान हो तो चाहे दूसरी पत्नी से ही क्यों न हो तो पत्नी को मीरास का आठवां भाग मिलेगा। अलबत्ता उस वसीयत को पूरा करने के पश्चात जो तुम कर गये हो या उस ऋण को चुकाने के बाद जो तुमने लिया हो और यदि कोई स्त्री या पुरुष अपने मातृक भाई-बहनों का वारिस हो और एक भाई या एक बहन है तो उनमें से प्रत्येक को मीरास का छठा भाग मिलेगा और यदि वारिस एक से अधिक हों तो वे सब मीरास के तीसरे भाग में सहभागी होंगे। अलबत्ता मृतक की वसीयत को पूरा करने या उसके ऋण को चुकाने के पश्चात। शर्त यह है कि वसीयत या ऋण का आधार वारिस को हानि पहुंचाने पर न हो। यह ईश्वर की ओर से सिफ़ारिश है और ईश्वर जानने वाला तथा सहनशील है। (4:12)
चूंकि धार्मिक शिक्षाएं एवं आदेश ऐसे ईश्वर की ओर से हैं जो मनुष्य का रचयिता भी है अत: उसके क़ानून, मनुष्य की प्राकृतिक आवश्यकताओं से पूर्ण रूप से समन्वित हैं। मृत्यु, जो हमें दूसरे संसार में पहुंचाने का मार्ग है, इस संसार के सभी रिश्तों तथा समस्त भौतिक वस्तुओं पर से स्वामित्व के समाप्त होने का कारण बनती है परंतु ऐसे समय में यह प्रश्न उठता है कि मनुष्य ने अपने जीवन में जो कुछ कमाया है उसका क्या होगा और उसे किसे दिया जाना चाहिये?
कुछ जातियों के बीच मृतक का माल केवल बाप, भाई, बेटों जैसे समीपी परिजनों के बीच ही बांटा जाता था और पत्नी तथा बेटी के बच्चों को पुरुष की मीरास में से कुछ नहीं मिलता था। आज भी कई देशों में मृतक का सारा माल जनसम्पत्ति मान लिया जाता है और उस पर मरने वालों के परिजनों या बच्चों का कोई अधिकार नहीं होता परंतु इस्लाम, मीरास के क़ानून के अंतर्गत, जो पूर्णत: एक स्वाभाविक बात है तथा माता-पिता की आत्मिक व शारीरिक विशेषताओं को बच्चों में स्थानांतरित करती है, लोगों के धन और उनकी सम्पत्ति को इस क़ानून का पालन करते हुए उनके बीच बांटता है और मरने वाले के माल को उसके बच्चों, पत्नी तथा परिजनों का अधिकार समझता है। इसी के साथ इस्लाम ने स्वयं मृतक के लिए भी उसकी मृत्य के पश्चात उसके माल में एक भाग रखा है और उसे अनुमति दी है कि वह अपने माल के एक तिहाई भाग के बारे में जैसी चाहे वसीयत कर सकता है। इसी कारण बहुत से लोग, जिनके पास जीवन बिताने के लिए काफ़ी धन-सम्पत्ति भी होती है, जीवन के अंतिम समय तक काम करते रहते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि मरने के बाद उनका माल उन्हीं के बच्चों को मिलेगा जो उनके अस्तित्व को जारी और उनके नाम को बाक़ी रखेंगे। इसी आधार पर इस्लाम पहले चरण में मीरास, संतान के बीच बांटता है फिर अन्य परिजनों को मीरास का कुछ भाग देता है। इस बंटवारे में बेटों को बेटियों से दुगना भाग मिलता है क्योंकि जीवन का ख़र्चा चलाना पुरुषों का दायित्व है और इसके लिए उन्हें अधिक धन की आवश्यकता होती है।
यद्यपि विदित रूप से यह क़ानून महिलाओं के लिए हानिकारक लगता है परंतु अन्य धार्मिक क़ानूनों और आदेशों पर ध्यान देने से पता चलता है कि यह क़ानून वास्तव में महिलाओं के हित में है क्योंकि इस्लाम की पारिवारिक व्यवस्था में महिलाओं के ज़िम्मे कोई ख़र्चा नहीं रखा गया है और उनकी खाने-पीने तथा घर संबंधी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व पुरुष पर रखा गया है। अत: महिलाएं मीरास का अपना पूरा भाग बचा सकती हैं या कम से कम केवल स्वयं पर ही ख़र्च कर सकती हैं जबकि पुरुष को अपने भाग का कम से कम आधा हिस्सा परिवार पर ख़र्च करना पड़ता है।
वास्तव में महिलाएं मीरास के अपने भाग की भी स्वामी होती हैं और पुरुष के आधे भाग में भी सहभागी होती हैं जिसमें से वे एक को बचा और दूसरे को ख़र्च कर सकती हैं जबकि महिलाओं के भाग पर पुरुष का कोई अधिकार नहीं होता तथा उसे पत्नी की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। सूरए निसा की ११वीं और १२वीं आयतों में, जिनमें मृतक की संतान, माता-पिता और पत्नी के बीच मीरास के बंटवारे के आदेशों का वर्णन है, केवल मीरास के कुछ आदेशों का उल्लेख हुआ है अत: इस बारे में सम्पूर्ण जानकारी के लिए पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही, उनके परिजनों तथा विश्वस्त मित्रों के कथनों को पढ़ना चाहिये और इसी प्रकार यह भी जानना चाहिये कि मीरास का बंटवारा मृतक द्वारा किये लिए गये ऋण को लौटाने और उसके द्वारा एक तिहाई भाग में की गई वसीयत की पूर्ति के पश्चात किया जाना चाहिये क्योंकि उसका तथा लोगों का अधिकार वारिसों के अधिकार पर वरीयता रखता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि जिस प्रकार पुत्र का अस्तित्व पिता के अस्तित्व को जारी रखता है उसी प्रकार पिता के माल के वारिस भी पहले चरण में बच्चे ही हैं तो न तो अन्य लोग बच्चों को उनके माता-पिता की मीरास से वंचित कर सकते हैं और न ही माता-पिता उनके भाग को समाप्त कर सकते हैं।
यद्यपि मीरास में महिलाओं का भाग पुरुषों का आधा है परंतु यह अंतर सामाजिक जीवन के वास्तविक अंतरों तथा ईश्वर के आदेश के आधार पर है और ईमान की शर्त, ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहना है।
लोगों के अधिकारों का पालन और उनके अधिकारों पर ध्यान दिया जाना इतना महत्वपूर्ण है कि इन दोनों आयतों में चार बार इसका उल्लेख हुआ है ताकि वारिस अन्य लोगों के अधिकारों को भूल न जायें।

 सूरए निसा की 13वीं और 14वीं आयत


यह जो कुछ कहा गया, ईश्वरीय नियम हैं तो इनका पालन करो और जान लो कि जो कोई ईश्वर और उसके पैग़म्बर का अनुसरण करे तो ईश्वर उसको स्वर्ग के ऐसे बाग़ों में प्रवृष्ट कर देगा जिनके पड़ों के नीचे नहरें बह रही हैं जिसमें वे अनंतकाल तक रहेंगे और यही बड़ी सफलता है। (4:13)

 जो कोई ईश्वर व उसके पैग़म्बरों की अवज्ञा करे तथा ईश्वरीय सीमाओं का हनन करे तो ईश्वर उसे ऐसी आग में डाल देगा जिसमें वह सदैव रहेगा और उसके लिए अपमानजनक दंड है। (4:14)


मीरास से संबंधित आयतों के पश्चात इन आयतों में क़ुरआन मजीद ईमान वालों को आर्थिक विशेषकर मीरास के मामलों में ईश्वरीय आदेशों के अनुसरण की सिफ़ारिश करता है और हर प्रकार की अवज्ञा से रोकता है क्योंकि ईश्वरीय सीमाओं और नियमों के हनन का बहुत बड़ा पाप है और इसका दंड अत्यंत कठोर है।
ये आयतें स्पष्ट रूप से कहती हैं कि ईश्वर का आज्ञापालन केवल उसकी उपासना नहीं है बल्कि सामाजिक व आर्थिक मामलों में लोगों के अधिकारों की रक्षा, ईमान और ईश्वर की उपासना की शर्त है तथा वही व्यक्ति समाज कल्याण प्राप्त कर सकता है जो व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में इन आयतों का पालन करे।
लोगों के अधिकारों का हनन करने वाले काफ़िरों की भांति ही कड़े और अपमानजनक दंड में फंसेंगे।
यद्यपि मरने वाला व्यक्ति उपस्थित नहीं होता कि उसके ऋणों को चुकाने या बच्चों के बीच उसके माल के बंटवारे में ध्यान पूर्वक काम कर सके परंतु उसका ईश्वर उपस्थित है और उसने लोगों व वारिसों के अधिकारों का हनन करने वालों के लिए अत्यंत कड़ा दंड रखा है।

सूरए निसा; आयतें 15-18

सूरए निसा की 15वीं आयत


और तुम्हारी महिलाओं में से जो कुकर्म करें उनके विरुद्ध अपने पुरुषों में से चार की गवाही लाओ तो यदि वे गवाही दे दें तो उन्हें उनके घरों में बंद कर दो यहां तक कि उन्हें मृत्य आ जाये या ईश्वर उनके लिए कोई मार्ग निकाले। (4:15)


हमने बताया कि सूरए निसा की आरंभिक आयतें पारिवारिक मामलों से संबंधित हैं। इस कार्यक्रम में हम उन महिलाओं और पुरुषों के दंडों के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे जो कुकर्म करते हैं तथा परिवार के पवित्र वातावरण को दूषित करते हैं। 15वीं आयत ऐसी विवाहित महिलाओं के दंड से संबंधित है जो अन्य पुरुषों से अवैध संबंध रखती हैं। अलबत्ता इस बात पर ध्यान रखना चाहिये कि इस्लाम ने दूसरों की टोह में रहने की अनुमति नहीं दी है और दूसरों के ग़लत कार्यों को सिद्ध करने के लिए किसी को प्रोत्साहित नहीं किया है। इसी कारण यदि तीन विश्वस्त लोग भी गवाही दे दें कि अमुक महिला ने कुकर्म किया है तो जब तक चौथा व्यक्ति गवाही न दे दे उनकी बात स्वीकार नहीं की जायेगी।
अलबत्ता इस आयत में जिस दंड का वर्णन किया गया है, जो कि आयत के अंतिम भाग से स्पष्ट है, कुकर्म के बारे में एक अस्थायी आदेश है और वह मृत्यु तक उस महिला को पति के घर में क़ैद रखना है अर्थात आजीवन कारावास। स्पष्ट है कि यह आदेश परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए है तथा पापियों के एक स्थान पर एकत्रित होने और एक दूसरे की ग़लत आदतें सीखने में बाधा डालता है जैसा कि आजकल देखा जाता है कि कारावास ग़ुंडों, और पापियों के लिए ग़लत आदतें सीखने के केन्द्र बन गये हैं।
अलबत्ता इस अस्थायी आदेश के पश्चात विवाहित कुकर्मियों को संगसार करने अर्थात पत्थर मार मार कर उनकी हत्या करने का स्थायी आदेश आया और नये आदेश के पश्चात घरों में बंद महिलाएं स्वतंत्र होकर अपने घरों को लौट गईं और अपने तथा अन्य महिलाओं के लिए पाठ बन गईं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान वाले व्यक्ति के सम्मान की रक्षा उसके ख़ून से भी अधिक महत्वपूर्ण है। हत्या दो गवाहों से सिद्ध हो जाती है परंतु कुकर्म सिद्ध करने के लिए चार गवाहों की आवश्यकता होती है। कुकर्म बहुत ही बुरा कार्य है परंतु कुकर्मी को अपमानित करने के लिए कोई काम करना उससे भी बुरा है।
इस्लाम ने अपने पारिवारिक व सामाजिक आदेशों के क्रियान्वयन को सुनिश्चित बनाने के लिए कड़े दंड रखे हैं जिनमें से एक कुकर्मी को आजीवन कारावास दिया जाना है।
समाज को स्वच्छ, स्वस्थ और पवित्र रखने के लिए अपराधी को गिरफ्तार करना और कारावास भेजना आवश्यक है। भावनाओं को ईश्वरीय आदेशों के पालन में आड़े नहीं आना चाहिये।


 सूरए निसा की 16वीं आयत

और तुममें से उन दो व्यक्तियों को, जो कुकर्म करें, यातना दो और कोड़े लगाओ तो यदि उन्होंने तौबा कर ली और पिछली ग़लतियों को सुधार लिया तो उन्हें छोड़ दो कि नि:संदेह ईश्वर तौबा स्वीकार करने वाला और दयावान है। (4:16)

यद्यपि विदित रूप से इस आयत में कुकर्म करने वाले सभी पुरुष शामिल हैं परंतु क़ुरआन की व्याख्या करने वाले अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में इस आयत का संबोधन अविवाहित महिला और पुरुष से है और उनका दंड केवल उन्हें कोड़े लगाना है।
अलबत्ता जब तक न्यायालय में उनका अपराध सिद्ध नहीं होता और उन्हें कोड़े लगाने का दंड निश्चित नहीं हो जाता यदि अपराधी तौबा कर ले और स्वयं को सुधारना चाहे तो उसके मामले को क्षमा करके ईश्वर के हवाले कर देना चाहिये ताकि वह जैसा चाहे उसके साथ व्यहार करे। ईश्वर भी दयावान है और वास्तविक तौबा करने वाले की तौबा को स्वीकार करता है।
इस आयत से हमने सीखा कि अपराधी को इस्लामी समाज में सुरक्षा का आभास नहीं होना चाहिये बल्कि सरकार के अधिकारियों को उचित दंडों द्वारा अपराधियों को उनके किये की सज़ा देनी चाहिये।
अपराधियों पर तौबा व प्रायश्चित का मार्ग बंद नहीं करना चाहिये बल्कि जो लोग वास्तव में अपने किये पर पछता रहे हैं उन्हें समाज में लौटने की अनुमति देनी चाहिये।


 सूरए निसा की 17वीं और 18वीं आयत

नि:संदेह ईश्वर उन लोगों की तौबा स्वीकार करता है जो अनजाने में कोई बुरा काम कर बैठते हैं और फिर शीघ्र ही तौबा कर लेते हैं यही वे लोग हैं जिनकी तौबा ईश्वर स्वीकार कर लेता है और ईश्वर जानने वाला तथा तत्वदर्शी है। (4:17) और तौबा उन लोगों के लिए नहीं है जो बुरे कर्म करते हैं यहां तक कि उनमें से एक को मौत आ लेती है और वह कहता है अब मैंने तौबा कर ली और इसी प्रकार जो लोग काफ़िर मर जायें उनकी भी तौबा स्वीकार नहीं है उनके लिए हमने बहुत ही कड़ा दंड तैयार कर रखा है। (4:18)
पिछली आयतों में पापियों को तौबा की संभावना प्रदान करने के पश्चात इन आयतों में उसकी शर्त और समय को स्पष्ट किया गया है। तौबा की सबसे महत्वपूर्ण शर्त यह है कि पाप अनजाने में चिश्चेतना के कारण और पाप के बुरे परिणामों पर ध्यान दिये बिना तथा इच्छाओं के दबाव में आकर किया गया हो न कि आदत के आधार पर और पाप की बुराई को हीन समझ कर।


दूसरी शर्त यह है कि पाप की बुराई से अवगत होने और पश्चाताप के तत्काल बाद तौबा की जाये न ये कि मनुष्य तौबा को टालता रहे और पाप को दोहराता जाये यहां तक कि उसका अंतिम समय आ जाये और पाप करने की कोई संभावना न रहे तब तौबा करे क्योंकि तौबा स्वीकार होने की शर्त सुधार है और ऐसी स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं है।
मूल रूप से तौबा में विलम्ब इस बात का कारण बनता है कि पाप मनुष्य की आदत व प्रवृत्ति बनता जाये और उसे इस प्रकार अपने घेरे में ले ले कि वह तौबा कर ही न सके और यदि ज़बान से तौबा कर भी ले तो भी उसका हृदय उसे स्वीकार न करे।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर ने पापियों की वास्तविक तौबा को स्वीकार करने को स्वयं के लिए आवश्यक बताया है तो जब तक हम जीवित हैं इस अवसर से लाभ उठायें।
जो मनुष्य अपनी आंतरिक इच्छाओं से मुक़ाबले की शक्ति न रखता हो वह अज्ञानी है चाहे विदित रूप से ज्ञानी ही क्यों न हो।
तौबा स्वीकार होने की चाबी, तौबा में विलम्ब न करना है और मूल रूप से जब तक पाप अधिक न हुए हों तौबा सरल है।
अपने अधिकार और स्वतंत्रता के साथ की गई तौबा का मूल्य व महत्व है न कि ख़तरे या मौत के समक्ष आ जाने के बाद की गई तौबा का।
सूरए निसा; आयतें 19-23


हे ईमान वालो! तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि ज़बरदस्ती महिलाओं के वारिस बन जाओ या महिलाओं से अनिच्छा के बावजूद तुम केवल इसलिए उनसे विवाह करो ताकि उनके वारिस बन जाओ और उन पर कड़ाई न करो कि तुमने उन्हें जो मेहर दिया है उसका कुछ भाग अत्याचारपूर्वक ले सको सिवाए इसके कि वे खुल्लम खुल्ला कोई बुरा काम करें और उनके साथ भला व्यवहार करो तो यदि वे तुम्हें पसंद न आयें तो उन्हें तलाक़ मत दो क्योंकि बहुत सी चीज़ें तुम्हें पसंद नहीं हैं परंतु ईश्वर ने इसमें तुम्हारे लिए बहुत अधिक भलाई रखी है। (4:19)
यह आयत जो पारिवारिक मामलों में महिला के अधिकारों की रक्षा से संबंधित है, आरंभ में पुरुषों को महिलाओं के प्रति हर प्रकार के बुरे व्यवहार से रोकती है और अंत में पारिवारिक व्यवस्था की सुरक्षा के लिए एक मूल नियम का उल्लेख करती है।
पत्नी के चयन में एक ग़लत और अनुचित भावना उसकी धन सम्पत्ति को दृष्टिगत रखना है। अर्थात पुरुष किसी महिला को पसंद न करने के बावजूद केवल उसके माल का स्वामी बनने के लिए उससे विवाह करे। यह आयत इस कार्य से रोकती हुए कहती है तुम लोगों के लिए, जो ईमान का दावा करते हो, यह कार्य वैध नहीं है। इसी प्रकार कुछ जातियों में यह बुरी बात प्रचलित है कि पुरुष पत्नी को दिये गये मेहर का कुछ भाग वापस लेने के लिए उस पर दबाव डालता है। विशेष कर ऐसी स्थिति में जब मेहर काफ़ी अधिक हो।
क़ुरआन इस ग़लत व्यवहार से रोकते हुए पत्नियों के धन और उनके अधिकारों के सम्मान को आवश्यक बताता है और केवल पत्नी द्वारा खुल्लम खुल्ला ग़लत काम करने पर ही उसके साथ कड़ाई को वैध समझता है ताकि वह अपना मेहर माफ़ करके तलाक़ ले ले और यह वास्तव में ग़लत काम करने वाली पत्नियों के लिए एक प्रकार का दंड है।
इसके पश्चात ईश्वर एक मूल सिद्धांत का उल्लेख करके पुरुषों को अपनी पत्नियों के साथ भला व्यवहार करने की सिफ़ारिश करते हुए कहता है यदि किसी कारण तुम अपनी पत्नी को पसंद नहीं करते और वह तुम्हें अच्छी नहीं लगती तो तत्काल ही अलग होने और तलाक़ देने का निर्णय न लो और उसके साथ बुरा व्यवहार न करो क्योंकि बहुत सी बातें मनुष्य को विदित रूप से अच्छी नहीं लगतीं परंतु ईश्वर ने उनमें बहुत भलाई और हित रखे हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि पत्नी के चयन में उसके धन या संपत्ति को मापदंड नहीं बनाना चाहिये बल्कि विवाह में मूल आधार प्रेम होता है न कि धन दौलत।
महिलाएं अपने मेहर और धन दौलत की मालिक होती हैं पुरुषों को उन्हें अपने अधिकार में लेने का कोई हक़ नहीं है।
परिवार की व्यवस्था की रक्षा का दायित्व पुरुष पर है और उसे संदेह तथा कड़ाई को दुर्व्यवहार और अंतत: तलाक़ का कारण नहीं बनने देना चाहिये।

 सूरए निसा की आयत नम्बर 20 और 21


और यदि तुमने एक पत्नी के स्थान पर दूसरी पत्नी को लाने का संकल्प किया और तुम पहली पत्नी को मेहर के रूप में बहुत माल दे चुके हो तो उसमें से कुछ वापस न लो। क्या तुम आरोप लगाकर मेहर वापस लोगे? और यह बहुत बुरा व स्पष्ट पाप है। (4:20) और तुम किस प्रकार मेहर वापस लोगे जबकि तुम दोनों में से हर एक अपना अधिकार प्राप्त कर चुका है और इसके अतिरिक्त तुम्हारी पत्नियों ने विवाह के समय तुमसे ठोस प्रतिज्ञा ली थी। (4:21)
इस्लाम से पूर्व के अरब जगत में एक अत्यंत बुरी प्रथा यह थी कि जब कोई पुरुष दूसरा विवाह करना चाहता था तो अपनी पहली पत्नी पर आरोप लगाता था ताकि वह आत्मिक दबाव का शिकार हो जाये और अपना मेहर माफ़ कर दे तथा पति से तलाक़ ले ले। उसके पश्चात पति उसी वापस लिए हुए मेहर से दूसरा विवाह कर लेता था।
यह आयत इस बुरी परंपरा को रद्द करते हुए विवाह के समय की जाने वाली प्रतिज्ञा की ओर संकेत करती है और कहती है तुमने एक दूसरे के साथ रहने का समझौता किया है और पुरुषों ने उसमें अपनी पत्नियों को मेहर देने का वादा किया है और इसी आधार पर तुमने वर्षों तक एक दूसरे की इच्छाओं का पालन किया है तो अब तुम किस प्रकार किसी अन्य से अपनी इच्छा की पूर्ति कराने के लिए अपनी पिछली प्रतिज्ञा का उल्लंघन कर रहे हो यहां तक कि इसके लिए तुम अपनी पत्नी के चरित्र पर उंगली उठाने के लिए भी तैयार हो।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम महिला के अधिकारों का समर्थन करता है और पहली पत्नी के अधिकारों के हनन के मूल्य पर पुरुष के दूसरे विवाह को स्वीकार नहीं करता।
मेहर वापस लेना वैध नहीं है विशेषकर यदि पुरुष, पत्नी को अपमानित करके इस उद्देश्य की पूर्ति करना चाहे तो ऐसी स्थिति में उसका पाप दोहरा होगा।
विवाह का बंधन एक मज़बूत बंधन है जिसके आधार पर ईश्वर ने पति-पत्नी को एक दूसरे के लिए वैध कर दिया है। अत: इस बंधन की रक्षा दोनों पक्षों के लिए आवश्यक है।


 सूरए निसा की 22वीं और 23वीं


और उन महिलाओं से विवाह न करो जिनसे तुम्हारे बाप दादा विवाह कर चुके हों सिवाय उसके कि जो इस आदेश से पहले हो चुका हो। नि:संदेह यह अत्यंत बुरा कर्म, घृणित और बहुत ही बुरी पद्धति है। (4:22)

 तुम्हारे ऊपर विवाह करना हराम किया गया है अपनी माताओं से, बेटियों से, बहनों से, फूफियों से, मौसियों से, भाई की बेटियों से, बहन की बेटियों से, उन माओं से, जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया हो, दूध पिलाने वाली मां की बेटियों से, अपनी पत्नियों की माताओं से, अपनी पत्नी की, पिछले पति की बेटियों से, जो तुम्हारी गोदियों में पली हों इस शर्त के साथ कि तुमने उनकी माताओं से संबंध स्थापित किया हो और यदि संबंध स्थापित न किया हो तो कोई रुकावट नहीं है और इसी प्रकार विवाह करना वैध नहीं है तुम्हारे उन बेटों की पत्नियों से जो तुम्हारे वंश से हों और एक ही समय में दो सगी बहनों से सिवाय इसके कि जो इस आदेश से पहले हो चुका हो। नि:संदेह ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (4:23)


इन दो आयतों में महरम अर्थात उन महिलाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है जिनके साथ विवाह करना अवैध है। इन आयतों में इसे मानव प्रवृत्ति के विरुद्ध बताया गया है। मूल रूप से तीन बातें महिलाओं के इस गुट से विवाह के अवैध होने का कारण हैं। पहली बात वंशीय रिश्ता जो मां, बहन, बेटी, फूफी, मौसी, भांजी और भतीजी के साथ विवाह के हराम होने का कारण बनता है।
 दूसरा विवाह के कारण बनने वाला रिश्ता कि किसी महिला से किसी पुरुष के विवाह के पश्चात उस महिला की मां, बहन और बेटी उस व्यक्ति पर हराम हो जाती हैं और तीसरा दूध पिलाने का रिश्ता कि यदि कोई महिला किसी शीशु को निर्धारित अवधि तक अपना दूध पिलाये तो उस महिला और उसका दूध पीने वाली सभी लड़कियों से उस बच्चे का विवाह नहीं हो सकता।
इन आयतों से हमने सीखा कि परिवार के सम्मान की रक्षा के लिए उन महिलाओं से विवाह करना वैध नहीं है जो मनुष्य की महरम हों ताकि उनके साथ व्यवहार में उसकी दृष्टि ग़लत न होने पाये।
हर बात में हलाल व हराम अर्थात वैध या अवैध का निर्धारण केवल ईश्वर के हाथ में है चाहे वह खाने पीने का मामला हो या विवाह जैसे अन्य मामले हों क्योंकि ईश्वर मनुष्य का रचयिता है और उसकी आवश्यकताओं से भलि-भांति अवगत है।

सूरए निसा; आयतें 24-25


और विवाहित महिलाएं भी तुम पर हराम हैं सिवाए उनके जो दासी के रूप में तुम्हारे स्वामित्व में हों। ये ईश्वर के आदेश हैं जो तुम पर लागू किये गये हैं और जिन महिलाओं का उल्लेख हो चुका उनके अतिरिक्त अन्य महिलाओं से विवाह करना तुम्हारे लिए वैध है कि तुम अपने माल द्वारा उन्हें प्राप्त करो। अलबत्ता पवित्रता के साथ न कि उनसे व्यभिचार करो और इसी प्रकार जिन महिलाओं से तुमने अस्थायी विवाह द्वारा आनंद उठाया है, उन्हें उनका मेहर एक कर्तव्य के रूप में दे दो और यदि कर्तव्य निर्धारण के पश्चात आपस में रज़ामंदी से कोई समझौता हो जाये तो इसमें तुम पर कोई पाप नहीं है। नि:संदेह ईश्वर जानने वाला और तत्वदर्शी है। (4:24)
पिछली आयतों के पश्चात यह आयत दो अन्य प्रकार के निकाहों का वर्णन करती है जो ईश्वर के आदेश से वैध हैं तथा यह आयत ईमान वालों को ईश्वरीय सीमाओं के पालन की सिफ़ारिश करती है। आरंभ से लेकर अब तक मानव समाजों की एक कटु वास्तविकता जातीय व धार्मिक युद्ध व झड़पें हैं जिनके कारण दोनों पक्षों के अनेक लोग हताहत और बेघर हो जाते हैं और चूंकि युद्धों का मुख्य भार पुरुषों पर होता है अत: दोनों पक्षों के अनेक परिवार बेसहारा हो जाते हैं। दूसरी ओर चूंकि प्राचीन युद्ध क़ानूनों में युद्धबंदियों की देखभाल के लिए कोई स्थान नहीं होता था अत: बंदी बनाये जाने वाले पुरुषों को दास और महिलाओं को दासी या लौंडी बना लिया जाता था। इस्लाम ने इस क़ानून को एकपक्षीय रूप से समाप्त नहीं किया बल्कि कफ़्फ़ारे अर्थात पाप के प्रायश्चित जैसे क़ानून बनाकर ग़ुलामों और दासियों की धीरे धीरे स्वतंत्रता की भूमि प्रशस्त कर दी। इसी प्रकार उसने बंदी बनाई गई महिलाओं से विवाह को वैध घोषित किया जिसके कारण पत्नी और माता के रूप में बंदी महिलाओं को सम्मान प्राप्त हो गया।
इसमें एकमात्र कठिनाई यह थी कि बंदी बनाई जाने वाली कुछ महिलाएं उस समय विवाहित होती थीं जिनके पति भी बंदी बनाये जा चुके होते थे। इस्लाम ने तलाक़ की भांति बंदी बनाये जाने को उनके बीच जुदाई का कारण बताया तथा महिलाओं के पुन: विवाह के लिए एक अवधि निर्धारित कर दी ताकि पता चल जाये कि वे गर्भवती नहीं हैं और पिछले पति से उनके पेट में कोई बच्चा नहीं है। स्वाभाविक है कि यह बात महिलाओं को उनके हाल पर छोड़ देने और उनकी स्वाभाविक इच्छाओं की उपेक्षा से कहीं बेहतर व तर्कसंगत है।
इसी प्रकार आतंरिक मोर्चे पर भी अनेक मुसलमान शहीद होते थे और उनके परिवार बेसहारा हो जाया करते थे। इस्लाम ने इस समस्या के समाधान के लिए दो मार्ग सुझाए। एक बहुविवाह का क़ानून अर्थात एक विवाहित व्यक्ति चार विवाह कर सकता है और उसे अपनी पत्नियों के साथ भी पहली पत्नी की भांति व्यवहार करना चाहिये तथा उसकी दूसरी पत्नियां भी स्थायी रूप से उसके विवाह में आ जाती हैं। पिछली आयत में इस बात पर चर्चा की गई। इस आयत में दूसरा मार्ग अस्थायी विवाह का बताया गया है। अस्थायी विवाह भी स्थायी विवाह की भांति ही एक ऐसा संबंध है जो ईश्वर के आदेश से वैध है केवल इसकी अवधि सीमित परंतु वृद्धि योग्य है। रोचक बात यह है कि तथाकथित बुद्धिजीवी और पश्चिम से प्रभावित लोग इस्लाम की इस योजना का परिहास करते हुए इसे महिलाओं का अनादर बताते हैं जबकि पश्चिम में पुरुषों और महिलाओं के संबंधों की कोई सीमा नहीं है तथा वहां कई पुरुषों से एक महिला के खुले व गुप्त संबंधों को वैध माना जाता है। उनसे यह पूछना चाहिये कि किस प्रकार बिना किसी नियम के वासना पर आधारित स्त्री और पुरुष के संबंध वैध हैं और यह महिलाओं का अनादर नहीं है परंतु यदि यही संबंध एक निर्धारित और पूर्णत: पारदर्शी नियम के अंतर्गत बिल्कुल स्थायी विवाह की भांति हों तो इसमें महिलाओं का अनादर हो जाता है?
खेद के साथ कहना पड़ता है कि ईश्वरीय आदेशों तथा पैग़म्बरों की परम्परा के प्रति इस प्रकार के मनचाहे व्यवहार इस्लाम के आरंभिक काल में भी होते थे परंतु पैग़म्बर के पश्चात अस्थायी विवाह को प्रतिबंधित घोषित कर दिया गया जिसके कारण गुप्त संबंधों और व्यभिचार की भूमि समतल हो गयी क्योंकि अस्थायी विवाह के आदेश को रोक देने से मानवीय इच्छायें और आवश्यकताएं तो समाप्त नहीं हो जातीं बल्कि ग़लत मार्गों से उनकी आपूर्ति होने लगती है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक व पारिवारिक मामलों के संबंध में हमें वास्तविकतापूर्ण दृष्टि रखनी चाहिये न कि भावनाओं और अपने निजी या किसी गुट के विचारों का अनुसरण करना चाहिये। इस संबंध में सबसे अच्छा मार्ग मनुष्य के सृष्टिकर्ता और मानवीय तथा समाजिक आवश्यकताओं से पूर्णत: अवगत ईश्वर के आदेशों का पालन है।
विवाह, चाहे स्थायी हो या अस्थायी, स्त्री व पुरुष की पवित्रता और उनके सम्मान की रक्षा के लिए एक सुदृढ़ दुर्ग है।
विवाह के मेहर में स्त्री और पुरुष दोनों का राज़ी होना आवश्यक है न कि केवल पुरुष ही उसकी राशि का निर्धारण करे।


 सूरए निसा की 25वीं आयत


और तुममें से जिसके पास इतनी आर्थिक क्षमता न हो कि पवित्र व ईमान वाली स्वतंत्र महिला से विवाह कर सके तो उसे उन ईमान वाली दासियों से विवाह करना चाहिये जिनके तुम मालिक हो और ईश्वर तुम्हारे ईमान से सबसे अधिक अवगत है कि तुम ईमान वाले सबके सब एक दूसरे से हो और तुम में कोई अंतर नहीं है तो ईमान वाली दासियों से उनके मालिक की अनुमति से विवाह करो और उनका जो बेहतर व प्रचलित मेहर हो वह उन्हें दो, अलबत्ता ऐसी दासियां जो पवित्र चरित्र की हों न कि व्यभिचारी और गुप्त रूप से अन्य पुरुषों से संबंध रखने वाली। तो जब वे विवाह कर लें और उसके पश्चात व्यभिचार करें तो स्वतंत्र महिला को दिये जाने वाले दंड का आधा दंड उन्हें दिया जायेगा। इस प्रकार का विवाह उन लोगों के लिए है जिन्हें पत्नी न होने के कारण पाप में पड़ने का भय हो परंतु यदि धैर्य रखो यहां तक कि आर्थिक क्षमता प्राप्त करके स्वतंत्र महिला से विवाह कर लो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है और ईश्वर क्षमाशील एवं दयावान है। (4:25)


पिछली आयत में दासियों और युद्ध में बंदी बनाई जाने वाली महिलाओं से विवाह को वैध बताने के पश्चात यह आयत मुस्लिम पुरुषों को, जो भारी मेहर के कारण स्वतंत्र महिलाओं से विवाह की आर्थिक क्षमता नहीं रखते, बंदी महिलाओं से विवाह के लिए प्रोत्साहित करती है ताकि वे सही मार्ग से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पर्ति कर सकें और समाज में बुराई न फैलने पाये तथा वे महिलाएं भी बिना पति के न रहें। यहां रोचक बात यह है कि क़ुरआने मजीद विवाह की अस्ली शर्त ईमान बताता है चाहे दासी के साथ हो या स्वतंत्र महिला के साथ। इस बात से पता चलता है कि यदि युवा लड़के-लड़की में कोई जान पहचान न हो और सामाजिक दृष्टि से भी वे एक दूसरे के स्तर के न हों परंतु ईमान वाले और धार्मिक आदेशों पर प्रतिबद्ध हों तो सफल व शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकते हैं परंतु यदि उनमें ईमान न हों तो चाहे वे धन सम्पत्ति, पद और सुन्दरता के उच्च स्तर पर हों तब भी उनके वैवाहिक जीवन के सुखी होने की संभावना नहीं है क्योंकि ये सारी बातें समय के साथ-साथ समाप्त हो जाती हैं।

इस आयत से हमने सीखा कि दासी से विवाह को सहन कर लेना चाहिये परंतु पाप की बेइज़्ज़ती की नहीं।
जो लोग भारी ख़र्चे के कारण विवाह करने में अक्षम हैं उनके लिए इस्लाम में कोई बंद गली नहीं है।
विवाह और उसे दृढ़तापूर्वक बाक़ी रखने की मूल शर्त अवैध संबंधों से दूर रहना तथा एक दूसरे से विश्वास घात न करना है।
बुरे चरित्र के लोगों को, जो समाज में बुराई फैलाते हैं, प्रलय के दण्ड के अतिरिक्त इस संसार में भी दंड देना चाहिये ताकि दूसरों को भी इससे पाठ मिले और स्वयं भी इस प्रकार का काम न करें। {jcomments on}
सूरए निसा; आयतें 26-31


ईश्वर चाहता है कि इन आदेशों द्वारा कल्याण का मार्ग तुम्हारे लिए स्पष्ट कर दे और अतीत के भले लोगों की परम्पराओं की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करे और तुम्हारे पापों को क्षमा करके अपनी दया तुम तक पलटा दे और ईश्वर जानने वाला तथा तत्वदर्शी है। (4:26) और ईश्वर तुम्हारे पापों को क्षमा करना चाहता है परंतु जो लोग अपनी आंतरिक इच्छाओं का अनुसरण करते हैं वे तुम्हें बड़ी पथभ्रष्टता की ओर खींचना चाहते हैं। (4:27) ईश्वर चाहता है कि तुम्हारे कर्तव्यों का भार हल्का कर दे (क्योंकि) मनुष्य को कमज़ोर बनाया गया है। (4:28)


पिछली आयतों में विवाह की ओर प्रोत्साहित करने और उसके आदेशों व शर्तों के वर्णन के पश्चात ईश्वर इन आयतों में कहता है कि ये सारे आदेश तुम्हारे ही हित में हैं। तुम्हें कल्याण तक पहुंचाने और बुराइयों से दूर रखने के लिए ही ईश्वर ने तुम्हारे लिए ये आदेश दिये हैं क्योंकि ईश्वर की परम्परा लोंगों के सुधार व मार्गदर्शन पर आधारित रही है और इसी कारण उसने लोगों के लिए पैग़म्बर व आसमानी किताबें भेजी हैं परंतु कुछ लोग, जो स्वयं पथभ्रष्ठ हैं, अन्य लोगों को भी बिगाड़ना चाहते हैं और आंतरिक इच्छाओं तथा वासना की बातें करके अन्य लोगों को भी तुच्छ आंतरिक इच्छाओं के अधीन बनाना चाहते हैं। २८वीं आयत कहती है कि ईश्वरीय आदेश कड़े और कठिन नहीं हैं बल्कि ईश्वर ने इस प्रकार की इच्छाओं के समक्ष आम लोगों के कमज़ोर इरादों के दृष्टिगत सरलता प्रदान की है और विभिन्न प्रकार के विवाह प्रस्तुत करके मनुष्य की इच्छाओं के समक्ष वैध व नियंत्रित मार्ग रखे हैं ताकि वह पाप से दूषित न हो और समाज में भी बुराई न फैलाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि धार्मिक आदेश, मनुष्य पर ईश्वर की कृपा हैं क्योंकि वे जीवन के सही मार्ग के चयन में मनुष्य का मार्गदर्शन करते हैं।
मनुष्य की अन्य आवश्यकताओं की भांति ही उसकी शारीरिक आवश्यकताएं भी स्वाभाविक व प्राकृतिक हैं परन्तु अश्लीलता और अवैध संबंध पारिवारिक व्यवस्था और अंतत: समाज की तबाही का कारण बनते हैं।
इस्लाम एक सरल धर्म है और इसमें कोई बंद गली नहीं है। धर्म का आधार ऐसे आदेशों पर है जिनका पालन मनुष्य की क्षमता से बाहर नहीं है।


 सूरए निसा की 29वीं और 30वीं आयत


हे ईमान वालो! आपस में एक दूसरे का माल ग़लत ढंग से न खाओ सिवाये इसके कि वह तुम्हारी इच्छा से होने वाला व्यापार और लेन-देन हो और एक दूसरे की हत्या न करो। नि:संदेह ईश्वर तुम्हारे लिए दयावान है। (4:29) और जो कोई भी अतिक्रमण और अत्याचार के आधार पर ऐसा करे तो हम शीघ्र ही उसे नरक में डाल देंगे और यह ईश्वर के लिए बहुत ही सरल बात है। (4: 30)


पिछली आयतों में, जो हर प्रकार व्याभिचारिक अतिक्रमण से स्वयं व्यक्ति व अन्य लोगों की इज़्ज़त की रक्षा के बारे में थीं, मनुष्य को अन्य लोगों की पवित्रता को दाग़दार करने से रोकने के पश्चात इन आयतों में ईश्वर ईमान वालों को लोंगो की जान व माल के प्रति अतिक्रमण से भी रोकता है और कहता है दूसरों की जान और माल को भी अपनी जान व माल की भांति समझो तथा दूसरों पर अत्याचार न करो। दूसरों के माल पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण ग़लत व अवैध है सिवाए यह कि वह किसी प्रकार का वैध लेन-देन हो और उसके मालिक ने अपनी इच्छा से वह मामला किया हो। इसी प्रकार लोगों की जान पर अतिक्रमण करना भी अत्याचारी व अतिक्रमणकारी प्रवृत्ति का परिचायक है और इसी कारण इसका दंड भी बहुत कड़ा होता है। यह दंड प्रलय में नरक की दहकती हुई आग के रूप में प्रकट होगा और अत्याचारी के पूरे अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम में व्यक्तिगत स्वामित्व सम्मानीय है और हर प्रकार के लेन-देन में मालिक का राज़ी होना आवश्यक है।
ग़लत आर्थिक व्यवस्था समाज में असमानताएं उत्पन्न होने का कारण बनती है और हत्या व अन्य विवादों की भूमि प्रशस्त करती है।
मनुष्य की जान अत्यंत सम्मानीय है, आत्म हत्या का करना वर्जित है और दूसरों की हत्या करना भी।
ईश्वर अपने बंदों पर कृपाशील है पंरतु अतिक्रमणकारियों के प्रति कड़ाई बरतता है क्योंकि उसकी दृष्टि में लोगों के अधिकार सम्मानीय हैं।



 सूरए निसा की 31वीं आयत
हे ईमान वालो! यदि तुम वर्जित किये गये बड़े पापों से बचोगे तो हम तुम्हारे छोटे पापों को छिपा देंगे और तुम्हें एक अच्छे स्थान में प्रविष्ट कर देंगे। (4: 31)


इस आयत से पता चलता है कि ईश्वर की दृष्टि में पाप दो प्रकार के होते हैं, छोटे और बड़े। अलबत्ता स्पष्ट है कि हर पाप चाहे वह छोटा हो या बड़ा चूंकि ईश्वरीय आदेश के विरुद्ध होता है अत: अत्यंत बुरा व घृणित होता है परंतु हर पाप के परिणामों के दृष्टिगत उसे छोटे या बड़े पाप की श्रेणी में रखा जा सकता है।
जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके पवित्र परिजनों के कथनों में इस प्रकार के पापों का विस्तार से वर्णन किया गया है या उनके छोटे अथवा बड़े होने के मानदण्ड का उल्लेख किया गया है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि पाप की सीमा जितनी अधिक होगी और जितना अधिक वह व्यक्ति परिवार व समाज को क्षति पहुंचाएगा वह उतना ही बड़ा और घृणित पाप होगा।
इस आधार पर संभव है कि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया पाप छोटा हो परंतु वही पाप यदि कोई दूसरा व्यक्ति करे तो बड़ा समझा जाये। उदाहरण स्वरूप यदि कोई साधारण व्यक्ति एक पाप करे तो वह छोटा माना जायेगा परंतु वही पाप समाज का यदि कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति करे तो वह बड़ा पाप कहलाएगा क्योंकि अनेक लोग उस व्यक्ति का अनुसरण करते हैं। बहरहाल इस आयत में ईश्वर दया व कृपा के अंतर्गत कहता है कि यदि तुम मनुष्य बड़े पापों से दूर रहोगे तो मैं तुम्हारे छोटे पापों की अनदेखी करते हुए तुम्हें क्षमा कर दूंगा और तुम्हें स्वर्ग में ले जाऊंगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर हमारे छोटे पापों को क्षमा कर देता है। अत: हमें भी दूसरों की छोटी ग़लतियों को क्षमा कर देना चाहिये।
यदि मनुष्य के वैचारिक व व्यवहारिक सिद्धांत ठीक हों तो ईश्वर छोटे पापों को हमारी तौबा के बिना भी क्षमा कर देता है।

सूरए निसा; आयतें 32-33


और ईश्वर ने तुम में से कुछ को कुछ दूसरों पर जिन बातों से वरीयता दी है, उनकी कामना मत करो। पुरुषों ने जो कुछ प्राप्त किया है उसमें उनका भाग है और महिलाओं ने जो कुछ प्राप्त किया है उसमें उनका भाग है। हे ईमान वालो! ईर्ष्या और अनुचित कामनाओं के स्थान पर ईश्वर से उसकी कृपा चाहो नि:संदेह वह हर बात का जानने वाला है। (4:32)


ईश्वर द्वारा सृष्टि की व्यवस्था, अंतर और भिन्नता पर आधारित है। ईश्वर ने सृष्टि और संसार की व्यवस्था चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के जीवों इत्यादि की रचना की है। कुछ की जड़ वस्तुओं के रूप में, कुछ की वनस्पति के रूप में, कुछ की जीवों की रूप में और कुछ की मनुष्य के रूप में रचना की है। मनुष्य के बीच भी उसने स्त्री व पुरुष जैसे दो गुट बनाये हैं पुरुषों और महिलाओं के बीच भी शायद दो मनुष्य ऐसे न मिलें जो हर प्रकार से समान हों बल्कि उनके शरीर या आत्मा में अवश्य ही कोई न कोई भिन्नता होगी।
स्पष्ट है कि मनुष्यों के बीच यह अंतर और भिन्नता तत्वदर्शिता के आधार पर और मानव समाज की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए है। जैसाकि एक गाड़ी को चलाने के लिए लचकदार टायर भी आवश्यक है और इंजन के लिए मज़बूत फौलाद भी, इसी प्रकार चालक को आगे देखने के लिए पारदर्शी कांच भी आवश्यक है और रात में देखने के लिए हेड लाइट भी। तो एक गाड़ी के निर्माण में हज़ारों कल पुर्ज़ों का प्रयोग किया जाता है जो बनावट और प्रयोग की दृष्टि से समान नहीं होते परंतु जब उन्हें एक साथ जोड़ दिया जाये तो वे एक ऐसा साधन बन जाते हैं जो एक चाबी लगाते ही स्टार्ट हो जाता है।
इस महान सृष्टि को भी अरबों विभिन्न वस्तुओं और जीवों की आवश्यकता है जिनमें से प्रत्येक पर कुछ न कुछ दायित्व है और वह सृष्टि का काम सही ढंग से चलने का कारण बनता है। मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था में भी विभिन्न क्षमताओं व योग्यताओं वाले लोगों की आवश्यकता होती है ताकि सभी लोगों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।
यह अंतर और भिन्नता भेदभाव के अर्थ में नहीं है क्योंकि प्रथम तो यह कि किसी भी जीव का कोई दायित्व ईश्वर पर नहीं है और दूसरे यह कि यह अंतर तत्वदर्शिता के आधार पर है न कि अत्याचार, कंजूसी या ईर्ष्या के आधार पर।
हां यदि ईश्वर सभी मनुष्यों से एक ही प्रकार के कर्तव्य पालन की मांग करता तो अत्याचार होता। क्योंकि उसने सबको एक प्रकार की संभावनाएं नहीं दी हैं परंतु क़ुरआन की कुछ आयतों और पैग़म्बर व उनके पवित्र परिजनों के कथनों से पता चलता है कि ईश्वर ने हर एक से उसकी क्षमता के अनुसार ही कर्तव्य पालन की मांग की है जैसा कि सूरए तलाक़ की ७वीं आयत में कहा गया है। ईश्वर किसी पर भी कर्तव्य पालन अनिवार्य नहीं करता सिवाय उस क्षमता के अनुसार जो उसने उसे दी है।
अलबत्ता मनुष्य व अन्य जीवों के बीच एक मूल अंतर है और वह यह कि केवल मनुष्य ही वैचारिक शक्ति, चयन और संकल्प का अधिकार रखने के कारण अपनी प्रगति व उत्थान या पतन व बर्बादी का मार्ग स्वयं प्रशस्त कर सकता है। दूसरे शब्दों में ईश्वर ने जो कुछ मनुष्य को दिया है वह दो प्रकार का है। एक वह मामले जिनमें मनुष्य की कोई भूमिका नहीं है जैसे शारीरिक विशेषताएं इत्यादि और दूसरे वह बातें जो मनुष्य के अधिकार में और प्राप्त करने योग्य हैं जैसे ज्ञान, शक्ति और धन आदि।
स्वाभाविक है कि इस दूसरे क्षेत्र में अपनी क्षमता व योग्यता के अनुसार प्रयास व मेहनत करके अपनी शक्ति की भूमि प्रशस्त करनी चाहिये तथा इस मामले में हर प्रकार की सुस्ती व आलस्य स्वयं मनुष्य से संबंधित है न कि ईश्वर से। इसी कारण इस आयत के आरंभ में ईश्वरीय और प्राप्त न किये जाने वाले गुणों तथा विभूतियों की ओर संकेत करते हुए ईश्वर कहता है। उन बातों में, जिन्हें हमने कुछ को दिया है और कुछ को नहीं दिया है, एक दूसरे से ईर्ष्या न करो और अनुचित कामनायें भी मत करो। इसी प्रकार प्राप्त न करने योग्य क्षेत्र में भी। जो स्त्री और पुरुष जितना प्रयास और परिश्रम करेगा उसे उतना ही लाभ होगा। तुम लोग भी प्रयास करो और ईश्वर से प्राथना करो कि वह अपनी कृपा से तुम्हारे प्रयासों को सफल बना दे।
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों की विभूतियों और योग्यताओं को देखने के स्थान पर,जिससे हमारे भीतर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है, हमें अपनी संभावनाओं और योग्यताओं को देखना तथा उनसे लाभ उठाना चाहिये।
अपने भीतर से अनुचित इच्छाओं और कामनाओं की भावनाओं को समाप्त करना चाहिये क्योंकि यह अनेक शिष्टाचारिक बुराइयों की जड़ है।
यद्यपि हम परिश्रम व प्रयास करते हैं परंतु हमें कदापि यह नहीं सोचना चाहिये कि हमारी रोज़ी में ईश्वर की कोई भूमिका नहीं है। हमें कार्य व प्रयास भी करना चाहिये और ईश्वर से रोज़ी भी मांगनी चाहिये।
जिस प्रकार पुरुष अपने कमाये हुए धन का स्वामी होता है उसी प्रकार महिलाएं भी मीरास, मेहर या व्यापार आदि से मिलने वाली राशि की स्वामी होती हैं।


सूरए निसा की 33वीं आयत

और जो कुछ माता-पिता और निकट परिजन छोड़ जाते हैं हमने उसमें वारिस बनाये हैं और जिन लोगों को तुम वचन दे चुके हो, मीरास में से उन्हें उनका भाग भी दे दो। नि:संदेह ईश्वर हर बात को देखने वाला है। (4:33)
पिछली आयत में इस बात का उल्लेख करने के पश्चात कि स्त्री और जो कुछ परिश्रम द्वारा प्राप्त करें, वे उसके स्वामी होते हैं। इस आयत में ईश्वर कहता है इसी प्रकार स्त्री और पुरुष अपने माता-पिता तथा निकट परिजनों द्वारा छोड़े गये माल के भी मालिक होते हैं। आगे चलकर आयत में कहा गया है कि कमाई और मीरास के अतिरिक्त अन्य लोगों से वैध मामलों और समझौतों द्वारा मनुष्य को जो माल प्राप्त होता है वह उसका भी स्वामी होता है।
इतिहास में वर्णित है कि इस्लाम से पूर्व अरबों में एक प्रकार का समझौता प्रचलित था जिसके अंतर्गत दो व्यक्ति एक दूसरे के साथ समझौता कर लेते थे कि जीवन में सदैव एक दूसरे की सहायता करेंगे और जब भी किसी एक को कोई क्षति होगी तो दूसरा उसकी क्षति पूर्ति करेगा। इसी प्रकार मरने के पश्चात वे एक दूसरे के वारिस होंगे।
इस्लाम ने इस समझौते को, जो आजकल की बीमा योजनाओं की भांति है, स्वीकार कर लिया परंतु एक दूसरे के वारिस बनने की शर्त, मृतक का कोई अन्य वारिस न होना बताया।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम में मीरास का क़ानून, ईश्वरीय क़ानून है कोई भी इसमें पूर्ण या आरंभिक रूप से परिवर्तन नहीं कर सकता।
समझौते या वचन का पालन अत्यंत आवश्यक है विशेषकर वे समझौते जिनका आर्थिक पहलू होता है और उसके उल्लंघन से दूसरों को क्षति होती है।
हर किसी का समझौता या वचन सम्मानीय होता है यहां तक कि उसकी मृत्यु के पश्चात भी, मरने से वचन या समझौता नहीं टूटता।

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