कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2 : 1-25
इस लेख में हम पवित्र क़ुरआन के दूसरे सूरे अर्थात सूरए बक़रह की व्याख्या आरंभ कर रहे हैं। बक़रह शब्द का अर्थ होता है गाय। बनी इस्राईल की ग...

1) अलिफ़ लाम मीम (2:1)
अरबी भाषा में इससे पहले इस प्रकार के अक्षरों का प्रयोग नहीं किया गया था। ऐसे अक्षरों को हुरूफ़े मुक़त्तेआत कहते हैं जिसका अर्थ होता है एक दूसरे से अलग-अलग अक्षर।
अधिकांश इन अक्षरों के पश्चात ऐसी आयतें आई हैं जिनमें क़ुरआन के मोजेज़ा अर्थात एक ऐश्वर्य चमत्कार होने तथा उसकी महानता एवं वास्तिवकता का उल्लेख किया गया है। जैसा कि सूरए शूरा में आया हैः हे पैग़म्बर, इस प्रकार ईश्वर ने तुम पर और तुमसे पहले वाले पैग़म्बरों पर अपना विशेष संदेश "वहि" उतारा।
मानो अल्लाह यह कहना चाहता है कि मैंने अपनी इस किताब को जो चमत्कार भी है, उन्ही अक्षरों से बनाया है जो तुम्हारे पास भी मौजूद है, ऐसे अक्षरों से नहीं जो तुम्हारे लिए अपरिचित हों। वे लोग जो क़ुरआन के एकेश्वरीय चमत्कार होने का इन्कार करते हैं यदि सच्चे हैं तो इन्ही अक्षरों से क़ुरआन के प्रकार की ऐसी किताब लिखें जो हर प्रकार से अदभुत हो। वास्तव में यह अल्लाह का चमत्कार ही है कि उसने सामान्य अक्षरों से एक ऐसी किताब का संकलन कर दिया कि मनुष्य उसके एक सूरे का भी उदाहरण नहीं ला सकता। जैसा कि प्रकृति में भी अल्लाह निर्जीव मिट्टी से हज़ारों प्रकार के पेड़-पौधे तथा फल-फूल उगाता है जबकि मनुष्य मिट्टी से ईंट और गारा बनाता है।
अल्लाह सूरए बक़रह में भी सूरए शूरा की ही भांति हुरूफ़े मुक़त्तआत के पश्चात कहता है: वह महान पुस्तक जिसकी सच्चाई में कोई शंका नहीं है, पवित्र तथा नेक लोगों की ही मार्गदर्शक है। (2:2)
आज के मनुष्य के लिए पिछली पीढ़ियों का सबसे मूल्यवान उत्तराधिकार पुस्तक है, जिसने अपनी मौन भाषा के बड़े-बड़े ज्ञान, मान्यताएं तथा अर्थ, संसार तक पहुंचाए हैं। यद्यपि पवित्र क़ुरआन एक किताब के रूप में आकाश से नहीं उतरा परन्तु पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम किसी भी प्रकार के परिवर्तन से अल्लाह की आयतों की सुरक्षा के लिए, जो आयत भी आप पर उतरती थी उसे लोगों के सामने पढ़ देते थे ताकि पढ़े-लिखे लोग, उसे लिख लें और सामान्य लोग उसे याद कर लें।
मनुष्य यदि ध्यानपूर्वक इस किताब का अध्धयन करे तथा उसके अर्थों को समझे तो उसे विश्वास हो जाएगा कि यह किताब अल्लाह की ओर से आई है तथा एक मनुष्य के लिए इस प्रकार की बातें बयान करना, वह भी चौदह शताब्दी पूर्व एक ऐसे राष्ट्र में जिसमें ज्ञान नाम की कोई वस्तु थी ही नहीं, असंभव है। जैसा कि हमने आरंभ में कहा था कि पवित्र क़ुरआन, सौभाग्य एवं कल्याण की ओर मनुष्य का मार्गदर्शन करने वाली किताब है तथा जो भी सफलता एवं सौभाग्य की इच्छा रखता है उसके पास अल्लाह की किताब के आदेशों का अनुसरण करने के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग नहीं है। वह अपने अस्तित्व में मौजूद योग्यताओं का उचित प्रयोग करके उन ख़तरों एवं संकटों से बच सकता है जो उसके शरीर या उसकी आत्मा को हानि पहुंचा सकते हैं।
सूरए बक़रह की ही १८५वीं आयत में ईश्वर कहता हैः क़ुरआने मजीद, रमज़ान के महीने में लोगों के मार्गदर्शन के लिए उतरा है। अलबत्ता यह बात भी स्पष्ट है कि इस एकेश्वरीय किताब से केवल वही लोग लाभान्वित हो सकते हैं जो सत्य को पहचानने तथा उसे स्वीकार करने के लिए तत्पर हों। अन्यथा हठधर्मी, धर्मांन्ध एवं स्वार्थी लोग न केवल सत्य के जिज्ञासु नहीं होते बल्कि जहां भी उन्हें सत्य मिल जाता है, उसे समाप्त करने का प्रयत्न करते हैं। अतः आरंभ में प्राकृतिक एवं आत्मिक पवित्रता की आवश्यकता है जो क़ुरआन के मार्गदर्शन को स्वीकार करने के लिए वातावरण अनुकूल करती है। इसी कारण इस आयत में कहा गया है कि क़ुरआन केवल उन लोगों का मार्ग दर्शन करता है जो पवित्र हों।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के असहाब अर्थात साथी, क़ुरआने मजीद के लिखने तथा उसके याद करने को बहुत महत्व देते थे। इसी कारण अल्लाह की ओर से आने वाली आयतें, एक किताब के रूप में आ गईं। हमें भी इस ईश्वरीय किताब के आदर तथा सम्मान की सुरक्षा करनी चाहिए।पवित्र क़ुरआन के विषय दृढ़ एवं स्थिर हैं क्योंकि वे अल्लाह की ओर से आए हैं।
पवित्र क़ुरआन समस्त मनुष्यों के मार्गदर्शन की किताब है न कि किसी विशेष गुट के मार्ग दर्शन की। इसी कारण हमें क़ुरआन ये यह आशा नहीं करनी चाहिए कि वह हमे भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र या गणित की समस्याएं बताएगा।
हम क़ुरआन के प्रकाश को उसी समय अपने हृदय में उतार सकते हैं जब हम वास्तविकताओं को स्वीकार करने के लिए तैयार हों। जी हां प्रकाश, उज्जवल शीशे से पार हो सकता है ईंट और मिट्टी से नहीं।
सूरए बक़रह; आयतें ३-६
सूरए बक़रह की तीसरी आयत इस प्रकार हैः
ये ऐसे लोग हैं जो ग़ैब (ईश्वर के गुप्त ज्ञान) पर बिना देखे ईमान लाते हैं, नमाज़ क़ाएम करते हैं तथा जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से दान देते हैं। (2:3)
पवित्र क़ुरआन ने जीवन तथा संसार को दो भागों में विभाजित किया है। एक वह भाग है जो अदृश्य तथा अज्ञेय है जिसका हमारी इन्द्रियां आभास तक नहीं कर सकतीं हैं तथा दूसरा वह भाग है जो भौतिक संसार है जिसका इन्द्रियों द्वारा आभास किया जाता है।
कुछ लोग ऐसे हैं जो केवल उन्हीं बातों को स्वीकार करते हैं जिन्हें वे आंखों से देखते और कानों से सुनते हैं जबकि हमारी सीमित इन्द्रियां, समस्त प्रकृति के आभास की शक्ति नहीं रखतीं। उदाहरण स्वरूप गुरुत्वाकर्षण शक्ति, जो एक भौतिक विशेषता है, उसका आभास हमारी इन्द्रियों द्वारा छूने या देखने से नहीं होता बल्कि वस्तुओं के नीचे की ओर गिरने से हमें यह समझ में आता है कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति पाई जाती है। अत गुरुत्वाकर्षण शक्ति के संबन्ध में हमारा ज्ञान, उसके परिणामों के अन्तर्गत है न कि सीधे इस शक्ति से।
कुछ लोगों को अपेक्षा होती है कि वे पहले ईश्वर को अपनी आंखों से देखें और फिर उस पर ईमान लाएं या विश्वास करें जैसा कि बनी इस्राईल नामक समुदाय ने हज़रत मूसा से कहा था कि जब तक हम ईश्वर को अपने समक्ष साक्षात रूप से नहीं देख लेंगे आप पर ईमान नहीं लाएंगे। जबकि ईश्वर शरीर नहीं रखता जो उसे देखा जा सके। हम सृष्टि में उसकी महान निशानियों के कारण उसके असितत्व का आभास करते हैं और उस पर ईमान लाते हैं। भले तथा वास्तविकता के खोजी लोग अपनी जिज्ञासा को केवल भौतिक संसार तक ही सीमित नहीं रखते बल्कि अज्ञेय संसार अर्थात ईश्वर, फ़रिश्तों, प्रलय तथा परलोक पर भी ईमान लाते हैं अर्थात उन बातों को भी स्वीकार करते हैं जो हमारी इन्द्रियों से छिपी हुई हैं।
ईमान, ज्ञान तथा पहचान से आगे का चरण है जिसमें मनुष्य का हृदय तथा उसकी आत्मा भी किसी के असितत्व की गवाही देती है, उसके साथ संबन्ध स्थापित करती है तथा उससे बहुत अधिक प्रेम करती है और स्पष्ट है कि ऐसे ईमान तथा विश्वास के कारण मनुष्य अच्छे एवं सुकर्म करता है। मूल रूप से इस्लाम के दृष्टिकोण से व्यवहार तथा कार्य के बिना केवल ईमान और विश्वास से मनुष्य प्रगति नहीं कर सकता।
यह आयत कहती है कि ईश्वर की अवज्ञा न करने वाले ग़ैब अर्थात अज्ञेय पर भी विश्वास रखते हैं तथा नमाज़ भी पढ़ते हैं और दान भी देते हैं। नमाज़ द्वारा जो, ईश्वर की याद भी है वे अपनी मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। अलबत्ता केवल नमाज़ पढ़ना पर्याप्त नहीं है बल्कि नमाज़ को क़ाएम करना चाहिए अर्थात मनुष्य स्वयं भी नमाज़ पढ़े और दूसरों को भी नमाज़ पढ़ने का निमंत्रण दे। नमाज़ को उसके निर्धारित समय पर मस्जिद में सामूहिक रूप से पढ़े। ऐसी स्थिति में नमाज़, समाज में प्रचलित हो जाएगी।
दान-दक्षिणा के संबन्ध में भी इस्लाम का लक्ष्य, केवल रुपये पैसे का दान नहीं है बल्कि क़ुरआन कहता हैः जो कुछ हमने तुम्हें दिया है उसमें से दान दो जिसमें धन-दौलत, शक्ति, ज्ञान तथा समस्त ईश्वरीय वरदान सम्मिलित हैं।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
संसार केवल भौतिक नहीं है बल्कि कुछ ऐसी बातें भी हैं जो हमारी दृष्टि से ओझल हैं परन्तु हमारी बुद्धि और आत्मा उनके होने की गवाही देती है अतः हमें उन पर विश्वास रखना चाहिए।
ईमान, अमल अर्थात कर्म से अलग नहीं है।
नमाज़, ईमान रखने वाले लोगों के कार्यों का केन्द्र है।
हमारे पास जो कुछ भी है वह ईश्वर का ही है अतः हमें उसका कुछ भाग ईश्वर के मार्ग में दान करना चाहिए ताकि संसार और परलोक में उसकी पूर्ति करे।
इस्लाम एक सम्पूर्ण धर्म है जो समाज की व्यवस्था चलाने के लिए है। इस्लाम ईश्वर से भी संपर्क रखने का आदेश देता है और लोगों के साथ सम्पर्क बनाने का भी। साथ ही इस्लाम समाज की आवश्यकताओं की ओर ध्यान देने का आदेश भी देता है।
सूरए बक़रह की चौथी आयत इस प्रकार हैः
हे पैग़म्बर! ईश्वर से डरने वाले वे लोग हैं जो, जो कुछ आप पर और आपसे पहले के पैग़म्बरों पर उतर चुका है, उस पर ईमान और परलोक पर विश्वास रखते हैं। (2:4)
ईश्वर को पहचानने का एकमात्र मार्ग "वहि" अर्थात ईश्वरीय संदेश है जिस पर उससे डरने वाले लोग विश्वास रखते हैं। जैसाकि हमने गत आयत में कहा था कि मनुष्य की पहचान केवल इन्द्रियों पर ही निर्भर नहीं है बल्कि भौतिक और इन्द्रियों द्वारा समझ में आने वाले संसार से आगे भी एक संसार है जिसकी गवाही बुद्धि देती है किंतु हमारी बुद्धि उसको पूर्ण रूप से समझने की क्षमता नहीं रखती। इसी कारण ईश्वर "वहि" भेजकर हमारी पहचान को परिपूर्ण करता है।
बुद्धि यह बताती है कि ईश्वर का असितत्व है और "वहि" हमें उस ईश्वर की विशेषता बताती है। बुद्धि कहती है कि मनुष्यों के कार्यों पर उन्हें पारितोषिक या दंड देने के लिए एक ईश्वरीय न्यायालय होना ही चाहिए। "वहि" बताती है कि प्रलय का एक दिन निश्चित है और इसमें यह विशेषताएं मौजूद हैं। अतः यह कहना चाहिए कि बुद्धि और "वहि" एक दूसरे के पूरक हैं। ईश्वर पर विश्वास एवं भरोसा रखने वाले दोनों से लाभ उठाते हैं।
"वहि" अर्थात ईश्वरीय संदेश, केवल पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से विशेष नहीं है बल्कि सभी पैग़म्बर किसी न किसी रूप में ईश्वरीय संबोधन "वहि" के पात्र बने हैं। इसी कारण भले और पवित्र लोग, भेदभाव के आधार पर अन्य पैग़म्बरों का इन्कार नहीं करते बल्कि वे पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अतिरिक्त अन्य पैग़म्बरों के प्रति भी श्रद्धा रखते हैं। परलोक उन अज्ञेय बातों में से है जिनका "वहि" के बिना पूर्ण रूप से समझा नहीं जा सकता। इस आधार पर अल्लाह पर ईमान रखने वाले मृत्यु को अपना अंत नहीं समझते और वे प्रलय पर विशवास रखते हैं।
इन आयतों से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
समस्त पैग़म्बरों का लक्ष्य एक ही था अतः ईश्वरीय किताबों पर विश्ववास रखना आवश्यक है।
इस्लामी समुदाय, पिछली ईश्वरीय पुस्तकों का उत्तराधिकारी है अतः उसे उनकी सुरक्षा का प्रयास करना चाहिए।
प्रलय पर विशवास के बहुत से फल हैं। यह संसार को मनुष्य की दृष्टि में तुच्छ करता है, पापों से मनुष्यों की रक्षा करता है तथा उसके कार्यों को दिशा प्रदान करता है।
सूरए बक़रह की 5वीं आयत इस प्रकार हैः-
यही ईमान वाले तथा ईश्वर से भयभीत रहने वाले लोग, अपने ईश्वर द्वारा किये गए मार्गदर्शन पर हैं और यही लोग सफल हैं तथा इन्हीं लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होगी। (2:5)
इस आयत में पवित्र तथा ईमान वाले लोगों का परिणाम सफलता एवं मोक्ष बताया गया है जो ईश्वर के मार्गदर्शन को स्वीकार करने के कारण उन्हें प्राप्त होगा। मोक्ष या सफलता का अर्थ है आंतरिक इच्छाओं से स्वतंत्र और अच्छे आचरण तथा शिष्टाचार का विकास।
अरबी भाषा में मोक्ष को फ़लाह और किसान को फ़ल्लाह कहते हैं। इसका कारण यह है कि वह धरती के अन्दर मौजूद बीजों से पौधे के बाहर निकलने तथा उसके उगने में सहायता करता है। मनुष्य की परिपूर्णता का सबसे महान चरण मोक्ष है। पवित्र क़ुरआन की आयतों के अनुसार संसार को मनुष्य के लिए बनाया गया है और मानव की सृष्टि उपासना के लिए की गई है। उपासना का उद्देश्य, ईश्वर से डरना है। यह आयत कहती है कि ईश्वर से भयभीत रहने वालों को मोक्ष की प्राप्ति होगी।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
सफलता तथा मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग, ईश्वरीय मार्गदर्शन को स्वीकार करना है।
मोक्ष, प्रयत्न के बिना प्राप्त नहीं होता। उसके लिए ज्ञान और ईमान तथा अच्छे कर्मों की आवश्यकता होती है।
सूरए बक़रा की 6ठी आयत इस प्रकार हैः-
जिन लोगों ने कुफ़्र अपनाया, चाहे आप उन्हें ईश्वर के प्रकोप से डराएं या न डराएं उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला। वे लोग कदापि ईश्वर पर ईमान नहीं लाएंगे। (2:6)
पवित्र तथा ईश्वर से डरने वाले लोगों के परिचय के पश्चात क़ुरआन की इन आयतों में काफ़िरों को पहचनवाया गया है कि ये लोग इतने कट्टरपंथी, एवं धर्मांधी होते हैं कि इन पर सत्य बात का कोई प्रभाव नहीं होता और ये ईमान नहीं लाते।
अरबी भाषा में कुफ़्र का अर्थ है किसी वस्तु को छिपाना या उसकी उपेक्षा करना। कुफ़राने नेमत का अर्थ है विभूति की उपेक्षा करना। काफ़िर उस व्यक्ति को कहते हैं जो सत्य को छिपाता है तथा उसकी उपेक्षा करता है। यदि ईश्वर चाहता तो सारे लोग ही उसपर ईमान लाने पर बाध्य होते परन्तु इस प्रकार के ईमान का कोई लाभ नहीं है। ईश्वर तो चाहता है कि लोग स्वेच्छा से ईमान लाएं अतः हमें भी यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि सारे लोग ईमान वाले होंगे तथा ईश्वर से भयभीत रहेंगे।
इस आयत से जो बातें हमने सीखीं वे इस प्रकार हैं।
कुफ़्र मनुष्य को पत्थरों की भांति बना देता है और वह सत्य बातों एवं नसीहतों से भी प्रभावित नहीं होता।
यदि लोग सत्य को स्वीकार न करें तो पैग़म्बरों अर्थात ईश्वरीय दूतों के प्रयासों का भी कोई प्रभाव नहीं होगा। ईश्वरीय दूतों का मार्गदर्शन, वर्षा की भांति है कि जो यदि उपजाऊ धरती पर होती है तो वहां पर फूल उगते हैं पर बंजर धरती पर केवल कांटे ही उगते हैं।
चाहे हमें यह ज्ञात हो कि काफ़िर, ईमान नहीं लाएंगे परन्तु हमें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए उन्हें ईश्वर के प्रकोप से डराना चाहिए।
सूरए बक़रह; आयतें ७-९ (कार्यक्रम 5)
सूरए बक़रह की 7वीं आयत इस प्रकार हैः
अल्लाह ने उनके हृदय तथा कानों पर मुहर लगा दी है, उनकी आंखों पर पर्दा डाल दिया है तथा उनके लिए एक बड़ा दण्ड निर्धारित किया है। (2:7)
यद्यपि काफ़िरों के पास बुद्धि, आंख तथा कान आदि होते हैं परन्तु उनके घृणित कार्यों और उनके हठ ने उनके सामने पर्दा डाल दिया है और वे वास्तविकता को समझने, देखने तथा सुनने की योग्यता खो चुके हैं। यह तो उनके लिए सांसारिक जीवन का दण्ड है परन्तु परलोक में बहुत ही बड़ा दण्ड उनकी प्रतीक्षा में है।
यहां पर यह प्रश्न उठता है कि यदि ईश्वर ने काफ़िरों के हृदय, आंख व कान पर ताला डाल दिया है तो उनका अपराध क्या है? क्योंकि वे अपने कुफ़्र के संबन्ध में विवश थे। इस प्रश्न का उत्तर स्वयं क़ुरआन ने दिया है। सूरए मोमिन की ३५वीं आयत में आया हैः
अल्लाह घमण्डी तथा अत्याचारी लोगों के हृदय पर मुहर लगा देता है।
इसके अतिरिक्त सूरए निसा की १५५वीं आयत में हम पढ़ते हैं- अल्लाह ने उनके कुफ़्र के कारण उनके दिलों पर ताले लगा दिये हैं।
वास्तव में यह आयत मनुष्य के संबन्ध में अल्लाह की प्रथा व परंपरा को दर्शाती है कि यदि वह सत्य के मुक़ाबले में घमण्ड या हठ से काम लेगा तो उसकी पहचान की शक्ति समाप्त हो जाएगी और उसे हर वस्तु उल्टी ही दिखाई देगी तथा वह लोक-परलोक में घाटा उठाएगा।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
जो सत्य को समझने के बाद भी उसे स्वीकार नहीं करेगा, ईश्वर उसके हृदय, कान और आंख पर ताला लगा देगा जो कि ईश्वर का दण्ड है।
पशुओं और मनुष्यों के बीच केवल बुद्धि का ही अंतर है और कुफ़्र के कारण यह अन्तर भी समाप्त हो जाएगा।
सूरए ब़क़रह की 8वीं आयत इस प्रकार हैः
लोगों का एक गुट कहता है कि हम ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान ले आए हैं जबकि वे ईमान नहीं लाए हैं। (2:8)
क़ुरआन जो कि ईश्वर की ओर से मार्गदर्शन की किताब है हमें ईमान वालों, काफ़िरों तथा मुनाफ़िक़ों अर्थात मिथ्याचारियों की विशेषताएं बताती है ताकि हम स्वयं को पहचानें कि हम किस गुट में हैं और अन्य लोगों को भी पहचान सकें तथा उनके साथ उचित व्यवहार कर सकें।
सूरए बक़रह के आरंभ से यहां तक चार आयतों में ईमान वालों का और दो आयतों में काफ़िरों का परिचय कराया गया है। इस आयत में और इसके बाद वाली पांच आयतों में तीसरे गुट अर्थात मिथ्याचारियों का परिचय कराया जा रहा है। इस गुट में न तो पहले गुट की सी पवित्रता तथा उज्जवलता है और न ही दूसरे गुट की भांति खुल्लम-खुल्ला इन्कार व उपेक्षा। इस प्रकार के लोगों के मन में न तो ईमान है और न ही ज़बान पर कुफ़्र है। यह लोग डरपोक मुनाफ़िक़ या मिथ्याचारी हैं जो अपने आंतरिक कुफ़्र को छिपा कर दिखावे के लिए इस्लाम की घोषणा करते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वे आलेही वसल्लम ने मक्के से मदीने हिजरत अर्थात पलायन किया और अनेकेश्वरवादियों को मुसलमानों के मुक़ाबले में भारी पराजय हुई तो मक्के और मदीने के कुछ लोगों ने दिल से इस्लाम पर विश्वास न होने के बावजूद अपनी जान या संपत्ति की सुरक्षा या किसी पद की प्राप्ति के लिए दिखावे के तौर पर इस्लाम लाने की घोषणा की और वे मुसलमानों में घुलमिल गए। स्पष्ट सी बात है कि यह लोग डरपोक थे और इनमें इतना साहस नहीं था कि वे अन्य काफ़िरों की भांति अपने कुफ़्र पर खुल्लम-खुल्ला डटे रहते।
बहरहाल मिथ्याचार और रंग बदलना ऐसी समस्या है जिसका सभी क्रांतियों एवं सामाजिक परिवर्तनों को सामना करना पड़ता है इसीलिए हमें कभी यह नहीं सोचना चाहिए कि जो कोई अपने आप को ईमान वाला बताए उसके दिल में ईमान अवश्य होगा। ऐसे लोग बहुत हैं जो ऊपर से इस्लाम पर विश्वास दिखाते हैं परन्तु भीतर से उसकी जड़ें काटते हैं।
इस आयत से हमनें जो बातें सीखीं वे यह हैं।
ईमान एक आंतरिक वस्तु है न कि ज़बानी अतः हमें केवल लोगों की बातों से ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।
सूरए बक़रह की 9वीं आयत इस प्रकार हैः
वे लोग अल्लाह और ईमान वालों को धोखा देते हैं, जबकि वास्तव में वे अपने अतिरिक्त किसी को भी धोखा नहीं देते और यह बात उनकी समझ में नहीं आती। (2:9)
मुनाफ़िक यह सोचते हैं कि वे बहुत चतुर हैं और ईमान का ढोंग रचाकर ईश्वर को धोखा दे रहे हैं। वे पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वे आलेही वसल्लम और मुसलमानों को धोखा देकर उचित समय पर इस्लाम पर प्रहार करना चाहते हैं जबकि ईश्वर उनके हृदय की बातों से परिचित है और उनकी मिथ्या को भलिभांति जानता है। वह उचित अवसर पर उनके कुरूप चेहरे पर पड़े हुए पर्दे को उठा देता है।
यदि रोगी अपने चिकित्सक से झूठ बोले कि मैंने दवा खाई है तो वह अपनी सोच के अनुसार चिकित्सक को धोखा देता है जबकि वास्तव में उसने स्वयं को धोखा दिया है। इसी प्रकार से मुनाफ़िक़ सोचते हैं कि उन्होंने ईश्वर को धोखा दिया है किंतु वास्तव में वे स्वयं धोखे में हैं।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं-
मुनाफ़िक़ अर्थात मिथ्याचारी, धोखेबाज़ होता है अतः हमें उसकी ओर से सदैव ही सचेत रहना चाहिए।
हमें स्वयं भी दूसरों को धोखा नहीं देना चाहिए क्योंकि धोखे के परिणाम स्वयं धोखा देने वाले तक अवश्य वापस आते हैं।
इस्लाम भी मुनाफ़िक़ के साथ वैसा ही व्यवहार करता है जैसाकि मुनाफ़िक़ इस्लाम से करता है। वह दिखावे के लिए इस्लाम लाता है और इस्लाम भी उसे दिखावे का मुसलमान समझता है।
मुनाफ़िक़ के हृदय में ईमान नहीं होता इसीलिए प्रलय में ईश्वर उसे भी काफ़िर के ही समान दण्ड देगा।
मुनाफ़िक़ स्वयं को चतुर समझता है जबकि वह अत्यन्त मूर्ख होता है क्योंकि वह यह नहीं समझता कि ईश्वर उसकी हर बात से अवगत है।
सूरए बक़रह; आयतें १०-१२
सूरए बक़रह की 10वीं आयत इस प्रकार है
उन मुनाफ़िक़ों अर्थात मिथ्याचारियों के हृदय में रोग है और ईश्वर ने उनके रोग में वृद्धि कर दी है तथा उनके झूठ के कारण उनके लिए दण्ड है। (2:10)
क़ुरआन की दृष्टि में मनुष्य की आत्मा भी कभी उसके शरीर की ही भांति रोगी हो जाया करती है। समय रहते यदि उसका उपचार न किया जाए तो यह रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है यहां तक कि उस रोग के कारण मनुष्य की मानवता मर जाती है। निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या, आत्मा का वह भयानक रोग है जिससे मनुष्य की आत्मा तथा उसके हृदय को सदैव ख़तरा लगा रहता है। स्वस्थ मनुष्य का एक ही चेहरा होता है तथा उसके हृदय व आत्मा में पूर्ण रूप से समन्वय होता है। उसकी ज़बान वही कहती है जो उसके हृदय में होता है।
निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या का रोग अन्य भयानक रोगों के कारण होता है। क़ुरआन की दृष्टि में निफ़ाक़ का मूल कारण झूठ है। झूठ केवल ज़बान से नहीं होता बल्कि अपने व्यवहार द्वारा भी बोला जाता है। यदि मनुष्य का कार्य उसके ईमान और विश्वास के अनुसार न हो तो वह भी झूठ है। जैसे पानी मे पड़े हुए किसी जीव के दुर्गंधपूर्ण शव पर जितनी भी वर्षा हो उसकी गंदगी समाप्त नहीं होती बल्कि बढ़ती ही जाती है। निफ़ाक़ भी एक दुर्गंधमयी शव की भांति है कि यदि वह मनुष्य के हृदय या उसकी आत्मा में रह जाए तो ईश्वर की ओर से आने वाले किसी भी आदेश को नहीं मानता, भले ही उसमें उसका लाभ हो बल्कि वह उसको मानने के स्थान पर पाखण्ड और दिखावा करने लगता है। इस प्रकार से उसका निफ़ाक़ और अधिक स्पष्ट हो जाता है। निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या शब्द के बड़े विस्तृत अर्थ हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैं कि जिस व्यक्ति में तीन बातें हों वह मुनाफ़िक़ है भले ही वह नमाज़ पढ़ता हो, रोज़ा रखता हो तथा स्वयं को मुसलमान समझता हो। यह तीन बातें हैं अमानत में ख़यानत, अर्थात अमानत रखी हुई वस्तु में बेईमानी, झूठ और वचन का पालन न करना।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
निफ़ाक़ या मिथ्या, एक मानसिक रोग है और मिथ्याचारी न तो स्वस्थ्य है, न मृत, न ईमान वाला है और न ही काफ़िर।
निफ़ाक़ का स्रोत झूठ है और झूठ बोलना मुनाफ़िक़ों की आदत है।
सूरए बक़रह की 10वीं आयत इस प्रकार हैः
उन मुनाफ़िक़ों अर्थात मिथ्याचारियों के हृदय में रोग है और ईश्वर ने उनके रोग में वृद्धि कर दी है तथा उनके झूठ के कारण उनके लिए दण्ड है। (2:10)
क़ुरआन की दृष्टि में मनुष्य की आत्मा भी कभी उसके शरीर की ही भांति रोगी हो जाया करती है। समय रहते यदि उसका उपचार न किया जाए तो यह रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जाता है यहां तक कि उस रोग के कारण मनुष्य की मानवता मर जाती है। निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या, आत्मा का वह भयानक रोग है जिससे मनुष्य की आत्मा तथा उसके हृदय को सदैव ख़तरा लगा रहता है। स्वस्थ मनुष्य का एक ही चेहरा होता है तथा उसके हृदय व आत्मा में पूर्ण रूप से समन्वय होता है। उसकी ज़बान वही कहती है जो उसके हृदय में होता है।
निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या का रोग अन्य भयानक रोगों के कारण होता है। क़ुरआन की दृष्टि में निफ़ाक़ का मूल कारण झूठ है। झूठ केवल ज़बान से नहीं होता बल्कि अपने व्यवहार द्वारा भी बोला जाता है। यदि मनुष्य का कार्य उसके ईमान और विश्वास के अनुसार न हो तो वह भी झूठ है। जैसे पानी मे पड़े हुए किसी जीव के दुर्गंधपूर्ण शव पर जितनी भी वर्षा हो उसकी गंदगी समाप्त नहीं होती बल्कि बढ़ती ही जाती है। निफ़ाक़ भी एक दुर्गंधमयी शव की भांति है कि यदि वह मनुष्य के हृदय या उसकी आत्मा में रह जाए तो ईश्वर की ओर से आने वाले किसी भी आदेश को नहीं मानता, भले ही उसमें उसका लाभ हो बल्कि वह उसको मानने के स्थान पर पाखण्ड और दिखावा करने लगता है। इस प्रकार से उसका निफ़ाक़ और अधिक स्पष्ट हो जाता है। निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या शब्द के बड़े विस्तृत अर्थ हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम फ़रमाते हैं कि जिस व्यक्ति में तीन बातें हों वह मुनाफ़िक़ है भले ही वह नमाज़ पढ़ता हो, रोज़ा रखता हो तथा स्वयं को मुसलमान समझता हो। यह तीन बातें हैं अमानत में ख़यानत, अर्थात अमानत रखी हुई वस्तु में बेईमानी, झूठ और वचन का पालन न करना।
इस आयत से हमने जो बातें सीखीं वे इस प्रकार हैं।
निफ़ाक़ या मिथ्या, एक मानसिक रोग है और मिथ्याचारी न तो स्वस्थ्य है, न मृत, न ईमान वाला है और न ही काफ़िर।
निफ़ाक़ का स्रोत झूठ है और झूठ बोलना मुनाफ़िक़ों की आदत है।
सूरए बक़रह की 11वीं और 12वीं आयतें इस प्रकार है।
जब मुनाफ़िक़ों अर्थात मिथ्याचारियों से कहा जाता है कि धरती पर दंगा, फ़साद और बिगाड़ पैदा न करो तो वे कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले लोग हैं। जान लो कि वास्तव में यही बिगाड़ पैदा करने वाले हैं परन्तु यह लोग नहीं समझते। (2:11,12)
नेफ़ाक़ या मिथ्याचार एक संक्रामक रोग है। यदि इसकी रोकथाम न की जाए तो शीघ्र ही समाज के अधिकांश लोग इससे पीड़ित हो जाते हैं तथा समाज में चापलूसी, दिखावा तथा दोहरा मापदंड प्रचलित हो जाता है।
चूंकि मुनाफ़िक़ स्वयं धार्मिक आदेशों का पालन नहीं करता, इसलिए वह चाहता है कि अन्य लोग भी उसी के समान हो जाएं। इसी कारण वह सदैव ही ईश्वरीय आदेशों का परिहास तथा अपमान करके लोगों को उनके कर्तव्यों की ओर से निश्चेत करना चाहता है।
क़ुरआने मजीद ने सूरए तौबा और सूरए मुनाफ़ेक़ून में मिथ्याचारियों के इस प्रकार के बुरे व्यवहारों के नमूनों का उल्लेख किया है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार से मुनाफ़िक़, इस्लाम के शत्रुओं से जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध के अवसर पर पीठ दिखाकर भाग खड़े होते हैं और इस प्रकार से धर्म योद्धाओं के मनोबल को कमज़ोर करते हैं या दान-दक्षिणा के अवसर पर ईमान वालों का परिहास करते हैं कि इतने कम दान का क्या लाभ होगा।
इन आयतों से हमने यह सीखा किः
नेफ़ाक़ या मिथ्याचार के परिणाम केवल एक मनुष्य तक ही सीमित नहीं रहते बल्कि पूरे समाज को बुराई में ग्रस्त कर देते हैं।
यदि मिथ्याचार किसी मनुष्य के हृदय तक पहुंच जाए तो वह मनुष्य को वास्तविकताओं को समझने और देखने से रोक देता है।
ईमान वालों को मिथ्याचारियों के धोखे में नहीं आना चाहिए।
जो चतुरता, समाज व सत्य की भलाई के लिए न हो वह मूर्खता है।
सूरए बक़रह; आयतें १३-१४
सूरए बक़रह की 13वीं आयत इस प्रकार हैः
और जब मुनाफ़िक़ों से कहा जाता है कि तुम भी अन्य लोगों की भांति ईमान ले आओ तो वे अकड़कर घमण्ड से कहते हैं कि क्या हम मूर्ख लोगों की भांति ईमान ले आएं? जान लो कि यही लोग मूर्ख हैं परन्तु यह नहीं जानते। (2:13)
घमण्ड करना, स्वयं को श्रेष्ठ समझना तथा अन्य लोगों का अपमान करना आदि मिथ्याचार की निशानियां हैं। मिथ्याचारी स्वयं को चतुर एवं बुद्धिमान समझते हैं और ईमान वालों को मूर्ख बताते हैं। इसी कारण जब उनसे कहा जाता है कि तुम लोगों से अलग क्यों रहते हो और ईमान क्यों नहीं लाते? तो इसके उत्तर में वे उन लोगों को मूर्ख कहते हैं जो सभी कड़ी परिस्थितियों में धर्म तथा धर्मगुरू के सहायक रहे हैं। वे अपने मिथ्याचार को बुद्धि तथा चतुराई की निशानी समझते हैं।
पवित्र क़ुरआन ऐसे लोगों के उत्तर में कहता है कि तुम लोग, जो ईमान वालों को मूर्ख कहते हो, वास्तव में स्वयं ही मूर्खता में पड़े हुए हो परन्तु कठिनाई यह है कि तुम अपनी मूर्खता को समझ नहीं पाते। मूर्खता से भी बुरी अज्ञानता है कि मनुष्य यह समझे कि वह सब कुछ समझता है।
इन आयतों से हमने यह बातें सीखीं।
ईमान वालों का अपमान करना मिथ्याचारियों की आदत है।
मिथ्याचारी स्वयं को दूसरों से अच्छा और उच्चतम समझता है।
घमण्डी के साथ उसी जैसा व्यहार करना चाहिए।
जो किसी जनसमूह का अपमान करता है, समाज में उसका अपमान होना चाहिए ताकि उसका घमण्ड समाप्त हो सके।
दूसरों का अपमान तथा परिहास, मूर्खतापूर्ण कार्य है। बुद्धिमान व्यक्ति तर्कशील बात करता है जबकि मूर्ख परिहास करता है।
सूरए बक़रह की 14वीं आयत इस प्रकार है।
मिथ्याचारी जब ईमानवालों से मिलते हैं तो कहते हैं कि हम भी तुम्हारी भांति ईमान रखते हैं और जब वे अपने ही जैसे शैतानी सोच रखने वालों से एकांत में मिलते हैं तो कहते हैं कि हम तुम्हारे साथ हैं, हम तो केवल ईमान वालों का परिहास करते हैं। (2:14)
मिथ्याचार या नेफ़ाक़ की एक निशानी यह है कि मिथ्याचारी का व्यक्तित्व स्थाई नहीं होता। वह हर स्थान पर वहीं के रंग में रंग जाता है। जब वह ईमान वालों के बीच होता है तो ईमान की बात करता है और जब धर्म के शत्रुओं के बीच होता है तो उनके साथ मिलकर ईमान वालों के विरुद्ध बात करता है। उनका ध्यान आकृष्ट करने के लिए ईमान वालों का परिहास करता है।
यह आयत भी हमें सचेत करती है कि हमें लोगों की दिखावे की बातों के धोखे में नहीं आना चाहिए। हर वह व्यक्ति जो ईमान का दावा करे, उसे मोमिन नहीं समझ लेना चाहिए बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि उसका उठना-बैठना कैसे लोगों के साथ है और उसके मित्र कौन लोग हैं।
यह कदापि स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि कोई व्यक्ति मोमिन हो और वह धर्म तथा धार्मिक नेता के शत्रुओं का मित्र भी हो। ईमान तथा धर्म के शत्रुओं के साथ मित्रता, दो परस्पर विरोधी बातें हैं। यह एक अटल वास्तविकता है कि जिसके पास ईमान होगा वह अवश्य ही धर्म के शत्रुओं का शत्रु होगा।
इस आयत से हमने यह बातें सीखीं।
शैतान केवल इबलीस नहीं है बल्कि जो लोग दूसरों को सही मार्ग से भटका देते हैं वे भी शैतान हैं अतः हमें उनसे दूर रहना चाहिए।
सत्य पर आधारित शासन व्यवस्था के विरुद्ध छिप कर बैठकें करना, अपना विचार प्रकट करने का साहस न होने की निशानी है।
ईमान वालों का परिहास करने वाले मिथ्याचारी स्वयं डरपोक होते हैं।
सूरए बक़रह; आयतें १५-१६
सूरए बक़रह की पन्द्रहवीं आयत इस प्रकार है।
अल्लाह भी उनका परिहास करता है और उनको उनकी ढिठाई में ढील दिए जाता है ताकि वे भटकते फिरें। (2:15)
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अहलेबैत अर्थात उनके परिवार के सदस्यों में से एक, इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम कहते हैं कि "ईश्वर किसी के साथ भी परिहास या धोखा नही करता परन्तु शत्रुओं के परिहास और धोखे का उत्तर अवश्य देता है। वास्तव में अहंकारमय हृदय तथा उलझन के साथ भटकने से बढ़कर और क्या दंड हो सकता है कि जिसमें मिथ्याचारी फंसे हुए हैं। ईश्वर की परंपरा यह है कि वह अत्याचारियों और अवज्ञाकारियों को ढील देता है, परन्तु यह ढील अर्थात समय देना केवल उस समय ईश्वरीय दया का कारण बनता है जब मनुष्य अपने अत्याचार और पाप से अवगत हो जाए और प्रायश्चित करना चाहे वरना यह ढील, पापों में और अधिक डूबने तथा मनुष्य के विनाश का कारण बनती है।
मिथ्याचारियों के लिए अल्लाह का एक दण्ड उन्हें उनके हाल पर छोड़ देना है जो स्वयं उलझन का कारण है। उनके पास न तो लक्ष्य होता है और न ही शांति एवं संतोष।
इस आयत से हमने यह बातें सीखीं।
ईश्वरीय दण्ड मनुष्य के पापों के अनुसार होते हैं। परिहास का दण्ड परिहास है।
ईश्वर की ओर से दी गई ढील या उपहार पर घमण्ड नहीं करना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि यह सब दया की निशानी न हो।
ईश्वर मोमिनों का समर्थक है। यदि मिथ्याचारी, मोमिनों का परिहास करते हैं तो ईश्वर मिथ्याचारियों का परिहास करता है और वह उन्हें दण्ड देगा।
सूरए बकरह की सोलहवीं आयत इस प्रकार हैः
यही वे लोग हैं जिन्होंने मार्गदर्शन खोकर पथभ्रष्टता ख़रीदी है, परन्तु इस व्यापार में उन्हें कोई लाभ नहीं हुआ और उन्हें मार्गदर्शन नहीं मिला है। (2:16)
यह संसार जिसमें हम जीवन व्यतीत कर रहे हैं एक बाज़ार के समान है और हम सब ऐसे व्यापारी हैं जो अपनी पूंजी लगाने पर विवश हैं। अपनी आयु की पूंजी, जवानी की पूंजी, बुद्धि की पूंजी, प्रकृति की पूंजी, शक्ति की पूंजी और ईश्वर की ओर से मिली हुई समस्त क्षमताओं की पूंजी।
इस संसार रूपी बाज़ार में एक गुट को लाभ प्राप्त होता है और वह सफल हो जाता है जबकि दूसरा गुट दीवालिया हो जाता है। दिवालिया होने वाले को न केवल यह कि कोई लाभ नहीं होता बल्कि वह अपनी मूल पूंजी भी खो बैठता है। इसका उदाहरण वह बर्फ बेचने वाला है जो यदि अपना माल न बेचे तो न केवल यह कि उसको कोई लाभ नहीं होगा बल्कि उसकी मूल पूंजी भी पानी होकर हाथ से निकल जाएगी।
पवित्र क़ुरआन ने अनके स्थानों पर मनुष्य के अच्छे और बुरे कार्यों को व्यापार के समान बताया है। सूरए सफ़्फ़ की नवीं आयत में ईमान तथा धर्मयुद्ध को लाभदायक व्यापार बताते हुए कहा गया है।
"ईमान वालो! क्या मैं एक ऐसे व्यापार की ओर तुम्हारा मार्गदर्शन करूं जो तुम्हें दुखदाई दण्ड से मुक्ति दिलाए? तुम ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर पर ईमाल ले आओ और उसके मार्ग में धन एवं प्राण से जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध करो।"
इस आयत में मिथ्याचारी ऐसे व्यापारी बताए गए हैं जिन्होंने उचित मार्गदर्शन बेचकर गुमराही और पथभ्रष्टता ख़रीदी है। संभवतः इस आयत का अर्थ यह है कि मिथ्याचारी, पाप तथा मिथ्याचार की आदत के कारण अपने भीतर स्वभाविक रूप से मौजूद मार्गदर्शन स्वीकार करने की क्षमता से भी हाथ धो बैठते हैं।
इस आयत से हमने सीखाः
मार्गदर्शन या पथभ्रष्टता स्वयं हमारे कार्यों का ही फल है। इसमें ईश्वर के इरादे, ज़बरदस्ती या भाग्य की कोई भूमिका नहीं होती।
नेफ़ाक़ अर्थात मिथ्याचार का परिणाम घाटे और पथभ्रष्टता के अतिरिक्त और कुछ नहीं है जबकि ईमान के कारण मनुष्य को सफलता तथा सौभाग्य प्राप्त होता है।
सूरए बक़रह; आयतें १७-१८
सूरए बक़रह की सत्रहवीं आयत इस प्रकार है।
इन मिथ्याचारियों का उदाहरण उस व्यक्ति की भांति है जिसने आग भड़काई और जब आग ने उसके चारों ओर प्रकाश फैला दिया तो ईश्वर ने उस प्रकाश को ले लिया तथा उसे ऐसे अंधकार में छोड़ दिया जहां उसे कुछ सुझाई नहीं देता। (2:17)
इससे पहले की आयतों में मिथ्याचारियों के व्यवहार तथा उनकी बात-चीत का उल्लेख किया गया था। इस आयत में उनकी उपमा एक ऐसे व्यक्ति से देते हुए, जो अंधकारमय मरुस्थल में आग जलाता है, कहा गया है कि मिथ्याचारियों के ईमान का प्रकाश भी आग के प्रकाश की भांति कमज़ोर और अस्थिर है जो धुएं, राख और गर्मी के साथ ही समाप्त हो जाता है। ये लोग ईमान का प्रकाश दिखाने का प्रयास तो करते हैं किंतु इनके भीतर कुफ़्र की आग निहित होती है।
यह कमज़ोर प्रकाश भी उस पवित्र प्रवृत्ति के कारण है जो ईश्वर ने उनके अस्तित्व में रखी है परन्तु उनके हठधर्म और भेदभाव के कारण यह प्रकाश कमज़ोर होता चला जाता है। यहां तक कि अत्याचार तथा अज्ञान के पर्दे उसे भी छिपा देते हैं तथा कुफ़्र का अंधकार उनके सम्पूर्ण अस्तित्व को अपनी लपेट में ले लेता है।
मिथ्याचारी निफ़ाक़ अर्थात मिथ्या का मार्ग अपनाकर यह सोचते हैं कि वे काफ़िरों को भी, जो नरक वाले हैं प्रसन्न कर लेंगे और स्वर्ग वाले मोमिनों को भी। वे सोचते हैं कि काफ़िरों के संसार से भी लाभ उठाएंगे और मोमिनों के परलोक से भी। यही कारण है कि पवित्र क़ुरआन ने उन्हें ऐसे व्यक्ति की उपमा दी है जो आग जलाकर नार और नूर अर्थात अग्नि तथा प्रकाश को इकट्ठा करके दोनों से लाभ उठाना चाहता है किंतु जीवन का मैदान उस अंधकारमय मरुस्थल की भांति है जिसे पार करने तथा लक्ष्य तक कुशलतापूर्वक पहुंचने के लिए तीव्र और स्थिर प्रकाश की आवश्यकता होती है। कारण यह है कि घटनाओं की आंधी हर कमज़ोर ज्योति को बुझा कर मनुष्य को अंधकार में छोड़ देती है।
इन आयतों से हमने जो बातें सीखी हैं वे यह हैं-
मिथ्याचारी का प्रकाश, आग के प्रकाश की भांति कमज़ोर और अस्थाई होता है।
मिथ्याचारी का अस्तित्व उपद्रव तथा उत्तेजना भड़काने का कारण बनता है।
मिथ्याचारी प्रकाश तक पहुंचने के लिए आग का प्रयोग करता है जिसमें मात्र राख, आंच और धुआं होता है।
मिथ्याचारी का भविष्य अंधकारमय व अनिश्चित है तथा उसके मोक्ष की कोई आशा नहीं है।
मिथ्याचार, वह भी ईश्वर के लिए बुद्धिमानी एवं चतुराई की निशानी नहीं है बल्कि यह विनाश का कारण बनता है।
सूरए बक़रह की अट्ठारहवीं आयत इस प्रकार हैः-
वे लोग अर्थात मिथ्याचारी (सत्य सुनने से) बहरे, (सत्य बोलने से) गूंगे तथा (सत्य देखने से) अंधे हैं अतः वे (अपने कुफ़्र को छोड़कर सत्य की ओर) वापस आने वाले नहीं हैं। (2:18)
यद्यपि मिथ्याचारी भी अन्य लोगों की भांति आंख, कान और ज़बान रखता है परन्तु उसकी आंख सत्य तथा वास्तविकता को देखने के लिए, उसके कान सत्य बात को सुनने के लिए और उसकी ज़बान वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होती इसीलिए पवित्र क़ुरआन में मिथ्याचारियों को ऐसे लोगों के समान बताया गया है जिनके पास मानो शरीर के यह अंग हैं ही नहीं। इस आयत के अतिरिक्त अन्य आयतों में भी मिथ्याचारियों के बारे में "ला यशअरून" अर्थात वे नहीं समझते "ला यालमून" अर्थात वे नहीं जानते तथा "ला युबसिरून" अर्थात वे नहीं देखते जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है।
भेदभाव तथा अंधे अनुसरण का परिणाम, वास्तविक्ताओं को न समझने तथा हृदय के अंधकार के रूप में सामने आता है। मिथ्याचारी का आंतरिक कुफ़्र, उसकी आंख, कान तथा ज़बान को इस प्रकार प्रभावित करता है और वास्तविकताओं को छिपाता है कि काफ़िरों की ही भांति वह भी वास्तविकताओं को उलटा देखता है और सत्य तथा असत्य में अंतर की शक्ति खो बैठता है।
पिछली आयत में कहा गया है कि ईमान के प्रकाश की समाप्ति के पश्चात कुफ़्र का अंधकार इस प्रकार उसके अस्तित्व को अपने घेरे में ले लेता है कि उसमें देखने की शक्ति ही नहीं रह जाती परन्तु यह आयत कहती है कि वह न केवल देखने की शक्ति बल्कि वास्तविकता और सत्य को सुनने और कहने की शक्ति भी खो देता है और अंधकारमय घाटी में चलने का परिणाम विनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है तथा इस मार्ग से वापसी एवं मोक्ष की कोई भी संभावना नहीं है।
सूरए बक़रह; आयतें 19-20 (कार्यक्रम 10)
सूरए बक़रह की 19वीं आयत इस प्रकार हैः-
या उनका उदाहरण उन लोगों जैसा है जो आकाश से हो रही तेज़ वर्षा, अंधकार तथा गरज व चमक में फंस गए हों या बिजली की कड़क के कारण मृत्यु के भय से अपने कानों में उंगलियां ठूंसे ले रहे हों हालांकि अल्लाह काफ़िरों को अपने घेरे में लिए हुए है। (2:19)
१७वीं आयत में ईश्वर ने मिथ्याचारियों की उपमा, मार्ग भटक जाने वाले ऐसे लोगों से दी है जो अपना प्रकाश खो चुके हैं तथा अन्धकार में हाथ-पैर मार रहे हैं और उनकी वापसी का कोई मार्ग नहीं है। यह आयत कहती है कि मिथ्याचारी कीचड़ में फंसे उस व्यक्ति की भांति है जिसे मूसलाधार वर्षा, रात का अंधकार, कान फाड़ देने वाली बिजली की गरज, आखों को चकाचौंध कर देने वाली चमक तथा मृत्यु का भय घेरे में लिए हुए है किंतु उसके पास न वर्षा से बचने का कोई साधन है न ही अंधकार का मुक़ाबला करने के लिए कोई प्रकाश और न ही ख़तरनाक बिजली से बचने का कोई मार्ग।
इस आयत से हमने यह सीखाः
मिथ्याचारी सदा ही कठिनाइयों और समस्याओं में घिरे रहते हैं। इस संसार में भी वे सदैव ही परेशानी और घबराहट का शिकार रहते हैं। उनको सदा ही मौत का धड़का लगा रहता है तथा उनकी आत्मा को चैन नहीं मिलता।
ईश्वर मिथ्याचारियों पर हावी है तथा उनके रहस्यों और षड्यंत्रों से पर्दा उठाता रहता है। मिथ्याचार का परिणाम कुफ़्र होता है क्योंकि इस आयत में कहा गया है कि ईश्वर, काफ़िरों को अपमान में ग्रस्त करता है। यह नहीं कहा गया है कि अल्लाह मिथ्याचारियों को अपमानित करता है।
आकाश की वर्षा से मिथ्याचारियों को केवल बिजली की कड़क और चमक मिलती है। पवित्र क़ुरआन ईश्वर की दया और कृपा का कारण है जो मनुष्य पर उतारा गया है परन्तु मिथ्याचारी या मुनाफ़िक़ के लिए ख़तरे की घंटी है और अपमान का साधन।
सूरए बक़रह की 20वीं आयत इस प्रकार हैः-
शीघ्र ही बिजली की चमक उनकी आखों को चकाचौंध कर देगी। जब उस अंधकारमय मरुस्थल में बिजली चमकती है तो वे उसके प्रकाश में कुछ क़दम आगे बढ़ते हैं परन्तु जैसे ही अंधेरा हो जाता है वे ठहर जाते हैं और यदि अल्लाह चाहे तो उनकी देखने और सुनने की शक्ति समाप्त कर सकता है। निःसन्देह, वह हर चीज़ पर सक्षम है। (2:20)
बिजली, उसकी चमक तथा वर्षा, धरती व धरती वासियों के लिए हर्ष व उल्लास की निशानी है परन्तु सबके लिए नहीं बल्कि केवल उन्हीं के लिए जो इस ईश्वरीय उपहार से लाभ उठाने के लिए तैयार हों किंतु राह भटके हुए एक अकेले यात्री के लिए इसका क्या लाभ है? यह मिथ्याचारियों का मार्गदर्शन नहीं कर सकते क्योंकि पहला प्रकाश अस्थाई तथा दूसरा, वर्षा होने का सुखद समाचार देता था जो मिथ्याचारियों और राह भटके हुए लोगों के लिए केवल एक मुसीबत ही थी।
ईश्वर की वहि या संदेश आकाश की चकाचौंध कर देने वाली बिजली है जिसे देखने की शक्ति मिथ्याचारियों में नहीं है तथा वे उसके उपहार पैग़म्बर से प्राप्त करना नहीं चाहते। यद्यपि वे ईमान का दिखावा करके इस प्रकाश से लाठ उठाना चाहते हैं परन्तु यह बिजली उनके नेत्रों का प्रकाश छीनती है और सही रास्ता उनके लिए अंधकारमय हो जाता है। क़ुरआन उन्हें इस प्रकार अपमानित करता है कि वे ईमान वालों के साथ आगे न बढ़ने पर विवश हो जाते हैं अब न उनके पास आगे बढ़ने का मार्ग है न पीछे हटने का मोह, वे व्याकुल, परेशान तथा आश्चर्यचकित है। अलबत्ता ये सब ईश्वर तथा मोमिनों से मिथ्याचार के केवल सांसारिक परिणाम हैं और यदि ईश्वर उन्हें वास्तविक दंड दे तो न केवल वे आगे चल नहीं पाएंगे बल्कि उनकी देखने व सुनने की शक्ति भी समाप्त हो जाएगी।
इस आयत से हमने जो कुछ सीखा वह यह हैः-
मिथ्याचारी ईश्वर के प्रकाश को देखने की क्षमता नहीं रखते तथा ईश्वर का कथन बिजली की भांति उनकी आंखों को चकाचौंध कर देता है।
मुनाफ़िक़ या मिथ्याचारी के पास स्वयं अपना कोई प्रकाश नहीं होता और वह ईमान वालों के प्रकाश की छाया में आगे बढ़ता है। यद्यपि मिथ्याचारी कभी-कभी कुछ क़दम आगे बढ़ जाता है परन्तु उसमें प्रगति नहीं होती और वह रुक जाता है।
अपने दुष्कर्मों के कारण मिथ्याचारियों को कभी भी ईश्वरीय दंड का सामना करना पड़ सकता है।
मिथ्याचारी ईश्वर को धोखा नहीं दे सकता और न उसके दंड से बच सकता है क्योंकि अल्लाह हर काम की क्षमता एवं शक्ति रखता है।