कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2 :31-34-ज्ञान व याद रखने की क्षमता की दृष्टि से मनुष्य, फ़रिश्तों पर वरीयता रखता है।

सूरए बक़रह की आयत नंबर ३१ और ३२ का अनुवाद इस प्रकार है। और ईश्वर ने आदम को (सृष्टि की वास्तविकता के) सभी नामों की शिक्षा दी। फिर उन्हें...

सूरए बक़रह की आयत नंबर ३१ और ३२ का अनुवाद इस प्रकार है।

और ईश्वर ने आदम को (सृष्टि की वास्तविकता के) सभी नामों की शिक्षा दी। फिर उन्हें फ़रिश्तों के समक्ष प्रस्तुत किया और कहा कि यदि तुम सच कहते हो तो मुझे इनके नाम बताओ। (2:31) 

उन्होंने कहा कि प्रभुवर तू हर प्रकार की बुराई से पवित्र है। हमें तो बस उन्हीं बातों का ज्ञान है जो तूने हमें सिखाई हैं। निःसन्देह, तू सबसे अधिक जानकार और तत्वदर्शी है। (2:32)


ईश्वर ने फ़रिश्तों के समक्ष मनुष्य की योग्यता को सिद्ध करने के लिए दोनों गुटों की परीक्षा ली। पहले उन्हें कुछ ज्ञान सिखाए, फिर उनसे प्रश्न किए।

क़ुरआने मजीद ने इस ओर कोई संकेत नहीं किया कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम को कौन से ज्ञान सिखाए गए थे किंतु क़ुरआन के अधिकांश व्याख्याकारों का यह मानना है कि ईश्वर ने आरंभ में ही मनुष्य को सृष्टि की वास्तविकता से अवगत करा दिया था और सृष्टि के नाम हज़रत आदम को बता दिये थे और यह वस्तुओं को पहचानने तथा उनके नाम याद रखने की वही योग्यता है जो हम मनुष्यों की प्रवृत्ति में रखी गई है। इस आधार पर नामों का ज्ञान, शब्दों के ज्ञान के समान कोई वस्तु नहीं थी बल्कि सृष्टि और ब्रह्माण्ड की वास्तविकताओं और रहस्यों का ज्ञान था कि जो हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के लिए एक बड़ा गौरव था। ईश्वर ने उन्हें ज्ञान प्रदान किया था ताकि वे इस संसार की भौतिक व आध्यात्मिक विभूतियों को अपनी परिपूर्णता का मार्ग तै करने हेतु प्रयोग करे। इसी प्रकार उसने उन्हें वस्तुओं का नाम रखने की क्षमता भी प्रदान की थी ताकि वे समय पड़ने पर उन्हें उनके नाम से बुला सकें। यह सब ईश्वर की असीम कृपा थी। पिछली आयतों में कहा गया है कि फ़रिश्ते यह सोच रहे थे कि ईश्वर की बहुत अधिक उपासना करने के कारण उन्हें मनुष्यों पर श्रेष्ठता प्राप्त है और इसी कारण उन्होंने ईश्वर पर आपत्ति की थी। इस आयत में कहा गया है कि इसी कारण ईश्वर ने उनकी परीक्षा ली और कहा कि यदि तुम अपने दावे में सच्चे हो तो उन वास्तविकताओं के बारें में मुझे बताओ जिनसे मैंने तुम्हें अवगत करवाया है। फ़रिश्ते समझ गए कि उन्होंने ग़लती की है और धरती में ईश्वर के उत्तराधिकारी को ज्ञान के बहुत ऊंचे स्थान पर होना चाहिए अतः उन्होंने ईश्वर से क्षमा चाही और कहा कि वे हर ऐसे काम से दूर हैं जिसका कोई तर्कसंगत कारण न हो।
 इसके बाद ईश्वर ने हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से कहा कि वे अपने ज्ञान से फ़रिश्तों को अवगत कराएं। उन्होंने जो कुछ सीखा था वह फ़रिश्तों को बता दिया। तब फ़रिश्तों को पता चला कि ईश्वर ने मनुष्य को सीखने और याद रखने की क्षमता प्रदान की है जिससे वे वंचित हैं। आयत से यह भी पता चलता है कि फ़रिश्तों के पास उनका अपना ज्ञान नहीं है बल्कि जितना और जो कुछ ज्ञान ईश्वर ने उन्हें प्रदान किया है उसी से वे अवगत हैं।

इस आयत से मिलने वाले पाठः

मनुष्य का सबसे पहला शिक्षक ईश्वर है जिसने वास्तविकताओं को समझने और पहचानने की शक्ति उसे दी है। ईश्वरीय क्षमता की ऐसी शक्ति जिसके सभी मानव ज्ञान कृतज्ञ हैं।

मनुष्य सभी ज्ञानों की प्राप्ति और जीवन की सभी वास्तविकताओं की खोज की क्षमता व योग्यता रखता है यद्यपि अभी वह मार्ग के आरंभ में ही है और बहुत सी अज्ञात बातें व वस्तुएं उसके समक्ष हैं।
मुझे ज्ञात नहीं, यह वाक्य कहने से शर्माना नहीं चाहिए क्योंकि फ़रिश्तों ने स्पष्ट रूप से अपनी अज्ञानता को स्वीकार करते हुए कहा कि हमें केवल उतना ही ज्ञान है जितना तूने हमें दिया है।
क्षमा व प्रायश्चित, मोक्ष व मुक्ति का कारण है। फ़रिश्ते, कि जो अपनी उपासना और महिमागान को मनुष्य पर अपनी वरीयता का कारण समझते थे, जैसे ही उन्हें वास्तविकता का पता चला, उन्होंने अपनी बात पर क्षमा मांगी और ईश्वर ने उनकी क्षमा याचना को स्वीकार भी कर लिया किंतु शैतान कि जो आग से अपनी सृष्टि को, मिट्टी से बनने वाले आदम पर वरीयता का कारण समझता था, जब उसने अपने निराधार व ग़लत दावे पर आग्रह व हठधर्मी से काम लिया तो उसे ईश्वर के दरबार से निकाल दिया गया।


सूरए बक़रह; आयत ३३ 
सूरए बक़रह की आयत नंबर ३३ का अनुवाद इस प्रकार है।

ईश्वर ने कहा, हे आदम! फ़रिश्तों को उन (वास्तविकताओं के) नामों से अवगत कराओ। तो जब उन्होंने वे नाम बता दिये तो ईश्वर ने कहा कि क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि मैं ही आकाशों और धरती के गोपनीय ज्ञानों का जानकार हूं और जो कुछ तुम प्रकट रूप से करते हो और जो कुछ छिपाते हो मैं सबको जानता हूं। (2:33)

इस परीक्षा में आदम सफल हुए और ईश्वरीय शिक्षा के आधार पर उन्होंने फ़रिश्तों के समक्ष संसार के रहस्यों का नाम लिया और वे यह वास्तविका समझ गए कि ईश्वर ने मनुष्य को याद रखने की क्षमता प्रदान की है जिससे वे वंचित हैं।
इस परीक्षा के पश्चात ईश्वर फ़रिश्तों को संबोधित करते हुए कहता है कि तुम सोच रहे थे कि धरती पर ईश्वरीय उत्तराधिकार के लिए तुम सबसे उपयुक्त हो परन्तु तुम इस बात को छिपा रहे थे और स्पष्ट शब्दों में नहीं कह रहे थे किंतु जान लो कि ईश्वर जितना तुम्हारे विदित से अवगत है उतना ही तुम्हारी अंदर की बातों को भी जानता है। इसी प्रकार वह संसार की सभी बातों को जानता है और कोई भी बात उससे छिपी हुई और उसके अधिकार से बाह नहीं है।
वस्तुओं और लोगों की खुली हुई तथा छिपी हुई बातों से ईश्वर के ज्ञान पर बल देकर यह आयत कहना चाहती है कि तुम जो जीवन तथा संसार के रहस्यों को नहीं जानते, और केवल विदित पहलुओं को देखते हो अकारण ईश्वर के कार्यों पर आपत्ति न करो जो सबके सब तर्कपूर्ण एवं ज्ञान पर आधारित होते हैं। यदि संसार की कोई बात तुम्हें ग़लत और तर्कहीन दिखाई पड़ती है तो यह तुम्हारी अज्ञानता के कारण है और ईश्वर के काम में कोई कमी नहीं है।

इस आयत से मिलने वाले पाठः
ज्ञान व याद रखने की क्षमता की दृष्टि से मनुष्य, फ़रिश्तों पर वरीयता रखता है। इसी कारण फ़रिश्ते जिन बातों का ज्ञान नहीं रखते थे, आदम ने उनकी सूचना दी।

योग्यता व श्रेष्ठता को सिद्ध करने के लिए परीक्षा आवश्यक है। यद्यपि ईश्वर को फ़रिश्तों पर आदम की वरीयता का ज्ञान था, किंतु उसने दूसरों पर यह बात सिद्ध करने के लिए इ प्रकार की परीक्षा ली।
फ़रिश्तों के पास ग़ैब अर्थात ईश्वरीय रहस्यों का ज्ञान नहीं है बल्कि ईश्वर उन्हें जितनी अनुमति देता है, उतना वे ग़ैब का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
हमें क्षमताओं योग्यताओं के विकसित होने और फलने फूलने के लिए वातावरण तैयार करना चाहिए। ईश्वर ने एक परीक्षा का आयोजन करके आदम की छिपी हुई योग्यता को प्रकट कर दिया ताकि मनुष्य अपनी इस योग्यता से अवगत हो जाए और दूसरों को भी इस बारे में पता चल जाए।


सूरए बक़रह; आयत ३४ 
सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ३४ इस प्रकार है।

और जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो सबने सजदा किया सिवाए इब्लीस के। उसने इन्कार किया और वह काफ़िरों में से हो गया। (2:34)

पिछली आयतों में मनुष्य पर ईश्वर की भौतिक व आध्यात्मिक नेमतों व उपहारों के वर्णन तथा ईश्वरीय उत्तराधिकार को मनुष्य के लिए महानता की निशानी बताने के पश्चात यह आयत मनुष्य के लिए एक अन्य विशेषता का वर्णन कर रही है जो फ़रिश्तों द्वारा आदम अलैहिस्सलाम का सजदा है।
जैसाकि सूरए "हिज्र" और सूरए "साद" की आयतों से परिणाम निकलता है कि ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि के समय फ़रिश्तों से कहा थाः "जब मैं आदम की सृष्टि पूरी कर लूं और उसमें अपनी आत्मा फूंक दूं तो तुम सब उसके समक्ष सजदे में गिर पड़ना।"
अतः यह सजदा मनुष्य की सृष्टि के कारण था न कि उसके उत्तराधिकार के कारण तथा धरती में उत्तराधिकार का विषय और फ़रिश्तों की परीक्षा इस चरण के पश्चात की बातें हैं तथा मूल रूप से यदि सजदे का आदेश आदम के उत्तराधिकार के स्थान के स्पष्ट होने के पश्चात दिया गया है तो यह फ़रिश्तों के लिए अधिक गर्व की बात नहीं समझी जा सकती क्योंकि फिर यह सजदा ईश्वर की उपासना के आधार पर या उसके आदेश पर नहीं था बल्कि आदम के स्थान के कारण था।

अलबत्ता इस बीच इबलीस ने, जो सूरए कहफ़ की पचासवीं आयत के अनुसार जिन्नों में से था परन्तु ईश्वर की अत्यधिक उपासना के फलस्वरूप फ़रिश्तों की पंक्ति में आ गया था, ईश्वर के इस आदेश की अवहेलना की। उसे घमण्ड ने घेर लिया और वह सोचने लगा कि सृष्टि में वह आदम से श्रेष्ठ है अतः आदम को उसका सजदा करना चाहिए न कि उसे आदम का।

उसने न केवल व्यवहारिक रूप से पाप किया बल्कि वैचारिक दृष्टि से भी उसने ईश्वरीय आदेश को अन्यायपूर्ण और तर्कहीन समझा और इसी कारण वह कुफ़्र और अधर्म का शिकार हो गया तथा अपने ईमान से हाथ धो बैठा।
आदम के समक्ष फ़रिश्तों का सजदा उनकी उपासना के लिए नहीं था क्योंकि ईश्वर के अतिरिक्त किसी की भी उपासना वैध नहीं है बल्कि फ़रिश्तों ने ईश्वर के आदेश पर सम्मान के नाते उनको सजदा किया और वास्तविक रूप से यह ईश्वर के लिए था परन्तु इस प्रकार के महान जीव की सृष्टि के कारण, मनुष्य के नाम पर।

इस आयत से हमने यह पाठ सीखा।

वास्तविक उपासना यह है कि मनुष्य, ईश्वर के आदेश के पालन हेतु कोई कार्य करे न यह कि जिस आदेश के पालन का उसका मन करे उसका चयन करके उसे करे। इब्लीस, ईश्वर के समक्ष शताब्दियों तक सजदा करने के लिए तैयार था परन्तु एक क्षण भी आदम को सजदा करने के लिए तैयार नहीं था। 

यह बात अत्यंत अन्यायपूर्ण है कि सारे फ़रिश्ते मनुष्य को सजदा करें और स्वयं मनुष्य ईश्वर के समक्ष सजदा करने के लिए तैयार न हो।

सत्य के विपरीत घमण्ड, मनुष्य को कुफ़्र और अधर्म की ओर ले जाता है।

यदि ईश्वर के अतिरिक्त किसी और को सजदा करना या उसके समक्ष झुकना ईश्वर के आदेशानुसार हो तो न केवल यह कि अनेकेश्वरवाद नहीं है बल्कि पूर्णतः एकेश्वरवाद और उपासना है।
योग्यता, आयु और अनुभव से अधिक महत्वपूर्ण है। पुराने फ़रिश्तों को नए आए हुए आदम के समक्ष सजदा करना पड़ा।

आदम के समक्ष सजदा केवल उन्हीं के लिए नहीं था बल्कि उनके मूल और आने वाली संतानों के लिए भी था।
इसी कारण सूरए आराफ़ की बारहवीं आयत में कहा गया हैः "हे लोगो! हमने तुम्हारी सृष्टि की, तुम्हें रूप प्रदान किया, फ़िर फ़रिश्तों से कहा कि आदम का सजदा करो।" 

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