कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए हम्द
कुरान क्या है ? हमें ज्ञात है कि वर्तमान विकसित और औद्योगिक जगत में जो वस्तु भी बनाई जाती है उसके साथ उसे बनाने वाली कंपनी द्वारा एक पुस...

हमें ज्ञात है कि वर्तमान विकसित और औद्योगिक जगत में जो वस्तु भी बनाई जाती है उसके साथ उसे बनाने वाली कंपनी द्वारा एक पुस्तिका भी दी जाती है जिसमें उस वस्तु की तकनीकी विशेषताओं और उसके सही प्रयोग की शैली का उल्लेख होता है। इसके साथ ही उसमें उन बातों का उल्लेख भी किया गया होता है जिनसे उस वस्तु को क्षति पहुंचने की आशंका होती है।
हम और आप ही नहीं बल्कि सारे ही मनुष्य, वास्तव में एक अत्यधिक जटिल व विकसित मशीन है जिसे सक्षम व शक्तिशाली ईश्वर ने बनाया है और हम अपने शरीर व आत्मा की जटिलताओं और कमज़ोरियों के कारण सम्पूर्ण आत्मबोध और कल्याण के मार्ग के चयन में सक्षम नहीं है। तो क्या हम एक टीवी या फ़्रिज से भी कम महत्व रखते हैं? टीवी और फ़्रिज बनाने वाले तो उसके साथ मार्ग दर्शक पुस्तिका देते हैं किंतु हमारे लिए कोई ऐसी किताब नहीं है? क्या हम मनुष्यों को किसी प्रकार की मार्गदर्शक पुस्तिका की आवश्यकता नहीं है कि जो हमारे शरीर और आत्मा की निहित व प्रकट विशेषताओं को उजागर कर सके या जिसमें उसके सही प्रयोग के मार्गों का उल्लेख किया गया हो और यह बताया गया हो कि कौन सी वस्तु मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा के विनाश का कारण बनती है?
क्या यह माना जा सकता है कि ज्ञान व प्रेम के आधार पर हमें बनाने वाले ईश्वर ने हमें अपने हाल पर छोड़ दिया है और हमें सफलता व कल्याण का मार्ग नहीं दिखाया है?
पवित्र क़ुरआन वह अंतिम किताब है जिसे ईश्वर ने मार्गदर्शन पुस्तक के रूप में भेजा है। इसमें कल्याण व मोक्ष और इसी प्रकार से विनाश व असफलता के कारणों का उल्लेख किया गया है।
पवित्र क़ुरआन में सही पारिवारिक व सामाजिक संबंधों, क़ानूनी व नैतिक मुद्दों, शारीरिक व आत्मिक आवश्यकताओं, व्यक्तिगत व सामाजिक कर्तव्यों, विभिन्न समाजों की रीतियों व कुरीतियों, आर्थिक व व्यापारिक सिद्धान्तों तथा बहुत से ऐसे विषयों का वर्णन किया गया है जो व्यक्ति या समाज के कल्याण या विनाश में प्रभावी हो सकते हैं।
यद्यपि क़ुरआन में युद्धों, लड़ाइयों और अतीत की बहुत सी जातियों के रहन-सहन के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख किया गया है किंतु क़ुरआन कोई कथा की किताब नहीं है बल्कि हमारे जीवन के लिए एक शिक्षाप्रद किताब है। इसीलिए इस किताब का नाम क़ुरआन है अर्थात पाठ्य पुस्तक। ऐसी किताब जिसे पढ़ना चाहिए। अलबत्ता केवल ज़बान द्वारा नहीं क्योंकि यह तो पहली कक्षा के छात्रों की पढ़ाई की शैली है बल्कि इसे चिन्तन व विचार के साथ पढ़ना चाहिए क्योंकि क़ुरआन में भी इसी का निमंत्रण दिया गया है।
एक बात या एक वाक्य को आयत कहते हैं और इसी प्रकार कई आयतों के समूह को एक सूरा कहते हैं। पवित्र क़ुरआन में ११४ सूरे हैं।
उस ईश्वर के नाम से जो अत्याधिक कृपाशील व दयावान है। (1:1)
प्राचीनकाल से ही यह चलन रहा है कि लोग कोई काम करने से पूर्व शुभ समझे जाने वाले लोगों, वस्तुओं या फिर अपने देवताओं का नाम लेते हैं। किंतु ईश्वर सबसे बड़ा है। उसी की इच्छा से सृष्टि की रचना हुई है। इसलिए प्रकृति धर्म की पुस्तक अर्थात क़ुरआन और सभी ईश्वरीय ग्रंथ भी उसी के नाम से आरंभ हुए हैं।
इसके साथ ही इस्लाम धर्म हमें यह आदेश देता है कि हम अपने सभी छोटे-बड़े कार्यों को बिस्मिल्लाह से आरंभ करे ताकि उसका शुभारंभ हो सके।
बिस्मिल्लाह कहना इस्लाम धर्म से ही विशेष नहीं है बल्कि क़ुरआन के अनुसार नूह पैग़म्बर की नौका भी बिस्मिल्लाह द्वारा ही आगे बढ़ी थी। सुलैमान पैग़म्बर ने जिन्हें यहूदी और ईसाई सोलोमन कहते हैं, जब सीरिया की महारानी सबा को पत्र लिखा था तो उसका आरंभ बिस्मिल्लाह से ही किया था। इस प्रकार बिस्मिल्लाह से हमें यह पाढ मिलता है। बिस्मिल्लाह अर्थात ईश्वर के नाम से आरंभ उसपर भरोसा करने और सहायता मांगने का चिन्ह है। बिस्मिल्लाह से मनुष्य के कामों पर ईश्वरीय रंग आ जाता है जिससे दिखावे और अनेकेश्वरवाद से दूरी होती है।
बिस्मिल्लाह अर्थात हे ईश्वर, मै तुझे भूला नहीं हूं तू भी मुझे न भूलना। इस प्रकार बिस्मिल्लाह करने वाला स्वयं को ईश्वर की असीम शक्ति व कृपा के हवाले कर देता है।
क़ुरआने मजीद के पहले सूरे की दूसरी, तीसरी और चौथी आयतें इस प्रकार है।
सारी प्रशंसा ईश्वर के लिए विशेष है जो पूरे ब्रहमाण्ड का पालनहार है। वह अत्यन्त कृपाशील और दयावान है और वही प्रलय के दिन का स्वामी है। (1:2,3,4)
हम ईश्वर के नाम और उसकी याद के महत्व से अवगत हो चुके हैं। अब हमारा सबसे पहला कथन ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के संबन्ध में है। वह ऐसा ईश्वर है जो पूरे ब्रहमाण्ड और संसार का संचालक है। चाहे वे जड़ वस्तुए हों, वनस्पतियां हों, पशु-पक्षी हों, मनुष्य हो या फिर धरती और आकाश। ईश्वर वही है जिसने पानी की एक बूंद से मनुष्य की रचना की है और उसके शारीरिक विकास के साथ ही उसके मानसिक मार्गदर्शन की भी व्यवस्था की है।
ईश्वर के प्रति हमारी और सभी वस्तुओं की आवश्यकता केवल सृष्टि की दृष्टि से नहीं है बल्कि सभी वस्तुओं से ईश्वर का संपर्क अत्यन्त निकट और अनंतकालीन है। अतः हमें भी सदैव ही उसकी अनुकंपाओं पर कृतज्ञ रहना चाहिए। उसकी बंदगी का तक़ाज़ा यह है कि हम तत्वदर्शी और सर्वशक्तिशाली ईश्वर की उस प्रकार से प्रशंसा करें जैसा उसने कहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ईश्वर सभी प्रशंसकों की प्रशंसा से कहीं उच्च है।
अगली आयत इस ओर संकेत करती है कि हम जिस ईश्वर पर ईमान रखते हैं वह प्रेम, क्षमा और दया का प्रतीक है। उसकी दया और कृपा के उदाहरणों को मनमोहक प्रकृति, नीले आकाश और सुन्दर पक्षियों में देखा जा सकता है। यदि कुछ आयतों में ईश्वर के कोप और दण्ड का उल्लेख किया गया है तो यह लोगों को चेतावनी देने के लिए है न कि द्वेष और प्रतिशोध के लिए। अतः जब भी ईश्वर के बंदों को अपने कर्मों पर पछतावा हो और वे प्रायश्चित करना चाहें तो वे ईश्वर की अनंत दया के पात्र बन सकते हैं।
चौथी आयत ईश्वर को प्रलय के दिन का स्वामी बताती है। यह आयत ईश्वर के बंदों के लिए एक चेतावनी है कि वे ईश्वरीय क्षमा के प्रति आशा के साथ ही प्रलय के दिन होने वाले कर्मों के हिसाब-किताब की ओर से निश्चेत न रहें। ईश्वर लोक-परलोक दोनों का ही मालिक है परन्तु प्रलय में उसके स्वामित्व का एक अन्य ही दृश्य होगा। धन-संपत्ति और संतान का कोई भी प्रभाव नहीं होगा। यहां तक कि मनुष्य अपने अंगों तक का स्वामी नहीं होगा। उस दिन स्वामित्व एवं अधिकार केवल ईश्वर के पास ही होगा। उस दिन दयालु सृष्टिकर्ता मनुष्य के किसी भी कर्म की अनेदखी नहीं करेगा और हमने जो भी अच्छे या बुरे कर्म किये हैं वह उनका हिसाब-किताब करेगा। अतः उचित है कि हम अपने भले कर्मों के साथ प्रलय में उपस्थित हों और ईश्वर की अनंत अनुकंपाओं के पात्र बनें।
सभी शक्तियों से उच्चतम और हमसे सबसे अधिक निकट ईश्वर की प्रशंसा के पश्चात अगली आयतों में हम उसके समक्ष हाथ फैलाते हैं और उससे मार्ग दर्शन की प्रार्थना करते हैं।
सूरए हम्द की पांचवी, छठी और सातवीं आयतें इस प्रकार हैं।
प्रभुवर हम तेरी ही उपासना करते हैं और केवल तुझी से ही सहायता चाहते हैं। हमें सीधे मार्ग पर बाक़ी रख। उन लोगों के मार्ग पर जिन्हें तूने अपनी अनुकंपाएं दी हैं। ऐसे लोगों के मार्ग पर नहीं जो तेरे कोप का पात्र बने और न ही पथभ्रष्ट लोगों के मार्ग पर। (1:5-6-7)
यह आयतें ईश्वर के प्रति उसके पवित्र बंदों की उपासना और निष्ठा से परिपूर्ण आत्मा का चित्रण करती हैं। ईश्वर सभी वस्तुओं से श्रेष्ठ है और इसीलिए उसकी उपासना का हक़ यह है कि प्रथम तो अपने सभी कर्मों में उसे उपस्थित समझे और दिल से यह बात समझे कि हम जीवित, युक्तिपूर्ण और तत्वदर्शी ईश्वर की बात कर रहे हैं और दूसरे यह कि हमारी उपासना एक उपस्थित और अवगत बंदे की उपासना हो न कि विदित रूप से हम उपासना करें परन्तु हमारा हृदय किसी और की ओर आकृष्ट हो। उपासना की इस प्रकार की समझ से हम ऐसे ईश्वर के समक्ष अपनी विनम्रता प्रकट करते हैं जिसका पवित्र अस्तित्व मानव मन में नहीं समा सकता। इस प्रकार हम यह कहते हैं कि उसके अतिरिक्त कोई भी उपासना के योग्य नहीं है और हम उसके समक्ष नतमस्तक रहते हुए अपने सभी मामलों में केवल उसी से सहायता चाहते हैं। फिर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि यदि हम सीधे मार्ग पर हैं तो हमें उसी मार्ग पर बाक़ी रख और यदि हम सीधे मार्ग पर नहीं हैं तो सीधे मार्ग की ओर वह हमारा मार्ग दर्शन करे। यह ऐसे लोगों का मार्ग है कि जिन्हें ईश्वर ने अपनी अनुकंपाएं दी हैं और जो पथभ्रष्ट नहीं हैं।
यह आयत बताती है कि जीवन के मार्ग के चयन में मनुष्यों के तीन गुट हैं। एक गुट वह है जो सीधे मार्ग का चयन करता है और अपने व्यक्तित्व तथा सामाजिक जीवन को ईश्वर के बताए हुए क़ानूनों के आधार पर संचालित करता है। दूसरा गुट उन लोगों का है जो यद्यपि सत्य को समझ चुके हैं परन्तु इसके बावजूद उससे मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसे लोग ईश्वर के अतिरिक्त अन्य लोगों की छाया में चले जाते हैं। ऐसे लोगों के कर्मों के परिणाम धीरे-धीरे उनके अस्तित्व में प्रकट होने लगते हैं और वे सीधे मार्ग से विचलित होकर ईश्वर के कोप का पात्र बनते हैं। तीसरा गुट उन लोगों का है जिनका कोई स्पष्ट और निर्धारित मार्ग नहीं है। यह लोग इधर-उधर भटकते रहते हैं। हर दिन एक नए मार्ग पर चलते हैं परन्तु कभी भी गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाते। आयत के शब्द में यह लोग पथभ्रष्ट हैं।
अलबत्ता सीधे मार्ग की पहचान सरल काम नहीं है क्योंकि ऐसे अनेक लोग हैं जो सत्य के नाम पर लोगों को ग़लत बातों और पथभ्रष्टता की ओर ले जाते हैं या ऐसे कितने मनुष्य हैं जो स्वयं अतिश्योक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। ईश्वर ने अनेक आयतों में सच्चों के व्यवहारिक उदाहरणों का उल्लेख किया है। ईश्वर ने सूरए निसा की ६९वीं आयत में कहा है कि पैग़म्बर, सत्यवादी, शहीद और भले कर्म करने वाले उसकी विशेष अनुकंपा के पात्र हैं। अतः सही मार्ग वह है जिसपर पैग़म्बर, ईश्वर के प्रिय बंदे और पवित्र तथा ईमानवाले लोग चले हैं। निश्चित रूप से कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न आएगा कि पथभ्रष्ट और ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनने वाले लोग कौन हैं? इस संबन्ध में क़ुरआने मजीद ने अनेक लोगों और गुटों को पेश किया है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण बनी इस्राईल या यहूदी जाति है। इस जाति के लोग एक समय ईश्वरीय आदेशों के पालन के कारण ईश्वर की कृपा का पात्र बने और अपने समय के लोगों पर उन्हें श्रेष्ठता प्राप्त हो गई किंतु यही जाति अपने ग़लत कर्मों तथा व्यवहार के कारण ईश्वरीय कोप और दण्ड में भी ग्रस्त हुई।