मौत से कब्र तक हदीस ए मासूमीन के आईने में।
Jaunpur Azadari Network Channel Feel the pain of Husain by Ayatullah Ali Naqi Naqvi [naqqan] Dua Baghair Amal ke Asar nahi dikhati Musalman...
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मौत से कब्र तक हदीस ए मासूमीन के आईने में।
तुम में से कोई शख्स कभी मौत की तमन्ना न करे, बल्कि यूं कहे:
"या अल्लाह! मुझे उस वक्त तक जिंदा रख जब तक जिंदगी मेरे लिए बेहतर है और मुझे उस वक्त मौत दे जब मौत मेरे लिए बेहतर हो।"
(वसाइल उश शिया, खंड 2, पृष्ठ 127)
2. रसूल-ए-ख़ुदा (स.अ.व):
एक व्यक्ति ने आपसे पूछा, "क्या वजह है कि मुझे मौत से नफरत है?"
आपने फरमाया, "क्या तेरे पास माल और दौलत है?"
उसने कहा, "हां।"
आपने फरमाया, "माल और दौलत अल्लाह की राह में खर्च करके आगे भेज दो।"
उसने कहा, "मैं ऐसा नहीं कर सकता।"
आपने फरमाया, "इंसान का दिल माल और दौलत के साथ होता है। अगर दौलत को इंसान आगे रवाना कर दे तो वह खुद भी आगे जाना पसंद करता है। और अगर दौलत दुनिया में अपने पास रखे तो उसका दिल दुनिया छोड़ने पर तैयार नहीं होता।"
(तफ़सीर नूर उस सकलैन, खंड 7, पृष्ठ 145)
3. इंसान का अपने लिए मौत की ख्वाहिश करना मकरूह है
रिवायत:
एक बार हज़रत रसूल-ए-ख़ुदा (स.अ.व) एक बीमार की मिजाजपुर्सी के लिए तशरीफ ले गए।
उसने (अपनी बीमारी से दिल बर्दाश्त खोकर) मरने की ख्वाहिश जाहिर की।
आपने फरमाया, "मौत की ख्वाहिश न कर, क्योंकि अगर तू नेक है तो ज्यादा जिंदा रहने से तेरी नेकियों में इज़ाफा होगा और अगर तू गुनहगार है तो तुझे इस ताखीर से अल्लाह को राज़ी करने का मौका मिलेगा। (बहरहाल) मौत की ख्वाहिश न किया करो।"
(वसाइल उश शिया, खंड 2, पृष्ठ 127)
4. इमाम सादिक़ (अ.स):
एक व्यक्ति ने कहा, "मैं जिंदगी से ऊब गया हूं, मैं अल्लाह से मौत की तमन्ना करता हूं।"
इमाम (अ.स) ने फरमाया, "जिंदगी की कीमत यह है कि तुम इबादत करो और गुनाह न करो। लिहाजा, अगर तुम जिंदा रहकर इबादत करो तो यह तुम्हारे लिए मौत से बेहतर है, जिसमें तुम न इबादत कर सकते हो और न ही गुनाह।"
(उयून अख़बार-ए-रज़ा, खंड 2, पृष्ठ 28)
5. आत्महत्या (सुसाइड):
i) इमाम बाक़िर (अ.स):
मोमिन हर तरह की बला में मुब्तिला होता है और हर तरह की मौत मरता है, लेकिन वह आत्महत्या (सुसाइड) नहीं करता।
(फुरू-ए-काफी, खंड 1, पृष्ठ 270)
ii) इमाम सादिक़ (अ.स):
जो शख्स खुद अपनी जान ले (आत्महत्या करे) तो वह हमेशा-हमेशा के लिए जहन्नुम में जाएगा।
(मन ला यहज़ारुल फकीह, खंड 3, पृष्ठ 62)
iii) इमाम सादिक़ (अ.स):
जो शख्स आत्महत्या (सुसाइड) करेगा, वह जहन्नुम में हमेशा के लिए रहेगा।
(सवाब-उल-अमाल और इकाब-उल-अमाल)
6. वसीयत (WASIYYAT)
i) इमाम सादिक़ (अ.स):
"जब किसी मरने वाले की मौत का वक्त आता है तो ख़ुदा वंदे आलम उसकी अक्ल, सुनने और देखने की ताकत को वसीयत करने के लिए लौटा देता है। अब यह उसकी मर्जी पर निर्भर है कि वह वसीयत करे या न करे। यही वह राहत है जिसे 'राहत-उल-मौत' कहा जाता है। यह हर मुसलमान पर लाज़िम है।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 124)
ii) रिवायत:
ख़ुदा वंदे आलम फरमाता है:
"ऐ फरज़ंद-ए-आदम! मैंने तुझ पर तीन एहसान किए हैं:
1. मैंने तेरे गुनाहों पर पर्दा डाला, अगर तेरे घरवालों को उनका पता चल जाता, तो वे तुझे दफ्न तक न करते।
2. मैंने तुझे वसी रिज़्क़ अता किया और फिर तुझसे कर्ज मांगा, मगर तूने कोई भलाई आगे नहीं भेजी।
3. मैंने तुझे मौत के वक्त अपने माल के एक-तिहाई (1/3) हिस्से में वसीयत करने की मोहलत दी, मगर तूने कोई खैरात आगे नहीं भेजी।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 125)
iii) इमाम अली (अ.स):
"जो शख्स (अपने माल के बारे में) इस तरह वसीयत कर जाए कि न किसी (वारिस) पर जफा़ करे और न ही किसी को नुकसान पहुंचाए, तो उसे ऐसा समझा जाएगा जैसे उसने अपनी ज़िंदगी में ही अपना माल सदक़ा कर दिया।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 125)
7. सदका (SADQA)
i) रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"एक शख्स का अपनी जिंदगी में एक चांदी का सिक्का खैरात में देना, मौत के वक्त सौ सिक्के देने से बेहतर है।"
(उद्दतुद-दाई)
ii) इमाम अली रज़ा (अ.स):
"सदका (यकीनी तौर पर) मौत को टाल देता है।"
(बेहार-उल-अनवार, खंड 5, पृष्ठ 479)
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8. मरने वाले से क्या दोहराया जाए
i) इमाम सादिक़ (अ.स):
"जब तुम किसी मरने वाले के पास जाओ, तो उसे 'शहादतैन' की तलकीन करो, यानी:
लाआ इलााह इल्लल्लाहु वह्दहु ला शरीका लह, व अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुह पढ़ाओ।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 130)
ii) रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"मरने वाले से ला इलााहा इल्लल्लाह दोहराने को कहो, क्योंकि जिसके आखिरी अल्फ़ाज़ ला इलााहा इल्लल्लाह होंगे, वह जन्नत में जाएगा।"
(रूल्स रिलेटिंग टू द डिसीस्ट)
iii) रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"जो शख्स मुझ पर ज्यादा सलवात भेजता है, वह मौत की कड़वाहट और जान निकलने की तकलीफ से महफूज़ रहेगा।"
(फ़ज़ाएल-ए-सलवात)
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9. मरने वाले को कहां और कैसे सुलाना चाहिए
i) रिवायत:
"जब मरने वाले की जान-कनी (आखिरी सांस) सख्त हो जाए, तो उसे उस जगह मुन्तक़िल (स्थानांतरित) करो, जहां वह नमाज पढ़ता था, या उसकी जाए-नमाज़ (मुसल्ले) पर रखो।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 136)
ii) इमाम सादिक़ (अ.स):
"जब किसी पर 'नज़अ' (जान निकलने का) वक्त सख्त हो, तो उसे उस जगह मुन्तक़िल कर दो, जहां वह नमाज पढ़ा करता था।"
(फुरू-ए-काफी, खंड 1, पृष्ठ 277)
iii) रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"मरने वाले को रु-बा-क़िबला (क़िबले की तरफ) करो (उसका चेहरा और दोनों कदमों के तलवे क़िबले की तरफ किए जाएं)। जब ऐसा करोगे तो मलाइका उसकी तरफ मुतवज्जेह होंगे और ख़ुदा भी उसकी तरफ ध्यान देगा (उस पर रहमत नाज़िल करेगा)। और जब तक उसकी रूह क़ब्ज़ न हो, वह बराबर इसी हालत में रहेगा (ताकि ख़ुदा और उसके मलाइका की तवज्जोह का मरकज़ बना रहे)।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 130)
10. तहारत (TAHAARAT)
रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"अगर हो सके तो दिन-रात पाक और ताहिर रहो; अगर तुम इस हालात (तहारत, वुज़ू के साथ) में मर गए, तो तुम शहीद की मौत मरोगे।"
(अमाली - शेख मुफीद, पृष्ठ 112)
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11. नजासत (NAJAASAT)
इमाम सज्जाद (अ.स):
"कोई भी ज़ी-रूह (जानदार/जीवित प्राणी) नहीं मरता जब तक वह नुत्फ़ा (वीर्य) बाहर न निकाले, जिससे वह पैदा हुआ है, चाहे वह मुँह से निकले या कहीं और से।"
(फुरू-ए-काफी, खंड 1, पृष्ठ 298)
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12. रसूल-ए-ख़ुदा (स.व.व):
"तुम में से कोई शख्स उस वक्त तक न मरे जब तक वह ख़ुदा-ए-अज़्ज़-वा-जल्ल के बारे में हुस्न-ए-ज़न्न (सकारात्मक राय) न रखे, क्योंकि ख़ुदा के (अफ्वो-सफ़ह और उसके रहम व करम के) मुताल्लिक हुस्न-ए-ज़न्न रखना जन्नत की कीमत है।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 126)
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13. रूह निकालने की तकलीफ और शिद्दत (ROOH NIKALNE KI TAKLEEF AUR SHIDDAT)
इमाम सादिक़ (अ.स):
"एक बार ह. ईसा (अ.स) ने ह. याह्या (अ.स) की क़ब्र पर आकर उन्हें ज़िंदा किया और कहा, 'मैं चाहता हूँ कि तुम तबलीग़ में मेरी मदद करो।'
ह. याह्या (अ.स) ने जवाब दिया, 'जान-कनी (दम निकलने) की शिद्दत और तकलीफ मैं अभी तक नहीं भूला। क्या तुम मुझे फिर उसी तकलीफ में मुबतला करना चाहते हो?'"
(रूहुल हयात)
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14. मोमिन की मौत की निशानियाँ (MOMIN KI MAUT KI NISHANIYA'N)
i) इमाम सादिक़ (अ.स):
"मौत के वक्त मोमिन की जुबान बंद हो जाती है (बर्गाह-ए-इलाही में हाज़िरी के खौफ से)।"
(मन ला यहजरहुल फक़ीह, खंड 1, पृष्ठ 97)
ii) इमाम बाक़िर (अ.स):
"मोमिन की निशानी यह है कि जब उसकी मौत का वक्त आता है, तो उसके चेहरे का रंग जितना सफेद था उससे ज्यादा सफेद और रोशन हो जाता है। पेशानी पर पसीना आने लगता है, और उसकी आँखों से आँसू की तरह नमी बहने लगती है। यही उसकी रूह निकलने की निशानी है।"
(मन ला यहजरहुल फक़ीह, खंड 1, पृष्ठ 100)
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15. शैतान की कोशिश (SHAITAAN KI KOSHISH)
इमाम सादिक़ (अ.स):
"जब कोई भी शख्स मरने लगता है, तो इबलीस ल'ईन अपने शैतानों में से किसी शैतान को मुक़र्रर कर देता है, जो मरने वाले को काफिर बनने और दीन-ओ-ईमान में शक करने की रग़बत दिलाता है। और यह सिलसिला उसकी रूह निकलने तक जारी रहता है।
लेकिन जो शख्स मोमिन होता है, उस पर शैतान का तसल्लुत नहीं होता। इसीलिए जब तुम मरने वालों के पास जाओ तो उन्हें मरते दम तक शाहादत-ए-तौहीद और रिसालत की तलकीन किया करो।"
(वसाइल-उश-शिया, खंड 2, पृष्ठ 130)
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16. मोमिन मौत से पहले जन्नत में अपनी जगह देखता है (MOMIN MAUT SE PEHLE JANNAT MEIN APNI JAGAH DEKHTA HAI)
i) इमाम सादिक़ (अ.स):
"जब मोमिन की जान उसके गले में अटक जाती है, तो वह जन्नत में अपना मुक़ाम देख लेता है और कहता है, 'जरा मुझे छोड़ो, जो कुछ मैंने देखा है वह अपने घरवालों को बता दूं।'
तो उससे कहा जाता है कि इसकी कोई सबील (गुंजाइश) नहीं।"
(मन ला यहजरहुल फक़ीह, खंड 1, पृष्ठ 101)
ii) इमाम सादिक़ (अ.स):
"मोमिन इस दुनिया से अपनी मर्जी के बगैर रुख़्सत (विदा) नहीं करता। यह इस तरह है कि अल्लाह तआला उसके सामने से पर्दे उठा देता है, यहाँ तक कि वह जन्नत में अपनी जगह और जो कुछ अल्लाह तआला ने उसके लिए वहाँ फराहम किया है, उसे देख लेता है।
फिर दुनिया को भी उसके लिए बेहतरीन तरीके से सजाकर पेश करता है और उसे इख़्तियार दिया जाता है कि वह उन दोनों में से जिसे चाहे अपने लिए चुन ले।
तो वह अपने लिए वह चुनता है जो अल्लाह तआला ने फराहम किया है और कहता है, 'मैं इस दुनिया और उसकी बलाओं और मुसीबतों में रहकर क्या करूंगा…।'"
(मन ला यहजरहुल फक़ीह, खंड 1, पृष्ठ 99)