माह ऐ मुहर्रम में अज़ादारी बिना नीयत की पाकीज़गी के नहीं हो सकती|
इस्लाम की निगाह में वह अमल सही है जो अल्लाह उसके रसूल स.अ. और इमामों के हुक्म के मुताबिक़ हों क्योंकि यही सेराते मुस्तक़ीम है, और जि...
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इस्लाम की निगाह में वह अमल सही है जो अल्लाह उसके रसूल स.अ. और इमामों के हुक्म के मुताबिक़ हों क्योंकि यही सेराते मुस्तक़ीम है, और जितना इंसान इस रास्ते से दूर होता जाएगा उतना ही गुमराही से क़रीब होता जाएगा।
इंसान को शरीयत के हिसाब से अमल करना चाहिए और ख़ुदा के अहकाम पर हर हाल में अमल करना चाहिए और इसी तरह दीनी अख़लाक़ पर अमल करना भी हर मुसलमान पर फ़र्ज़ है, तभी उसको पता चलेगा कि उसके आमाल कहां तक अल्लाह के लिए हैं, और इसी तरह पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. की सीरत को अपनी ज़िंदगी के लिए आइडियल बनाना चाहिए ताकि अल्लाह हमें जिस रास्ते पर चलते हुए देखना चाहता है हम उस पर चल सकें, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि अगर इंसान अपने आमाल को अल्लाह का पसंदीदा देखना चाहता है तो उसे आमाल में ख़ुलूस लाना पड़ेगा। ख़ुलूस, बंदगी की रूह का नाम है, ख़ुलूस के बिना इबादत किसी काम की नहीं है जैसाकि इमाम सादिक़ अ.स. ने फ़रमाया कि नीयत अमल से बेहतर है और याद रखना कि अमल की हक़ीक़त का नाम नीयत ही है। (उसूले काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16) इसलिए अगर नीयत में ख़ुलूस नहीं पाया गया तो नीयत बेकार और जब नीयत बेकार तो अमल किसी क़ाबिल नहीं रह जाएगा।
ख़ुलूस का मतलब नीयत का शिर्क और दिखावे से पाक रखना है, हदीसों में बयान हुआ है कि ख़ुलूस का संबंध दिल से है उसके बारे में किसी सामने की चीज़ के जैसा फ़ैसला नहीं किया जा सकता जैसाकि पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि अल्लाह तुम्हारी दौलत और तुम्हारे चेहरों का नहीं देखता बल्कि उसकी निगाहें तुम लोगों के दिल और तुम्हारे आमाल पर रहती हैं। (मीज़ानुल-हिकमह, जिल्द 2, पेज 16)
इंसान का अपने को ख़ुलूस की उस मंज़िल तक पहुंचाना कि उसका हर काम केवल अल्लाह के लिए हो यह बहुत सख़्त काम है और हर कोई आसानी से इस मंज़िल तक पहुंचने का दावा नहीं कर सकता, हालांकि इंसान को मायूस नहीं होना चाहिए बल्कि जितना हो सके अपनी नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने की कोशिश करनी चाहिए, ज़ाहिर है कि जिस तरह इंसान अपने बदन को सही आकार में लाने के लिए पसीना बहाता है रोज़ दौड़ता है और दूसरे बहुत से काम करता है तब कहीं जा कर धीरे धीरे उसका बदन सही शेप में आता है उसी तरह अपनी रूह की पाकीज़गी और नीयत और आमाल में ख़ुलूस पैदा करने के लिए धीरे धीरे क़दम उठाना होगा, और जिस तरह अपने जिस्म को सही शेप में लाने के लिए हम कम मेहनत से शुरू करते हैं और फिर घंटों मेहनत करते और पसीना बहाते हैं उसी तरह ख़ुलूस पैदा करने के लिए शुरू में अपनी नीयत और अमल में ख़ुलूस लाने के लिए धीरे धीरे अपने दिल और दिमाग़ से शिर्क और दिखावे को दूर करें और फिर पूरे ध्यान के साथ हर छोटे बड़े काम में ख़ुलूस लाने की कोशिश करें, जो लोग ख़ुलूस की ऊंचाईयों तक पहुंचे हैं उन्होंने कड़ी मेहनत की है अपने नफ़्स के साथ जेहाद किया है अपनी ख़्वाहिशों को मारा है तब जा कर अपनी नीयत को ख़ालिस कर सके हैं और तब कहीं जा कर उनके अमल अल्लाह की मर्ज़ी के मुताबिक़ हुए हैं।
इंसान को हमेशा अल्लाह से दुआ करना चाहिए कि वह काम के आख़िर तक ख़ुलूस बाक़ी रखने की तौफ़ीक़ दे, क्योंकि कभी कभी बीच रास्ते में कुछ ऐसी मुश्किलें आ जाती हैं जिनसे इंसान का ख़ुलूस को आख़िर तक बाक़ी रख पाना मुमकिन नहीं होता। हदीसों की किताबों में नीयत और अमल में ख़ुलूस पैदा करने के कुछ तरीक़े बताए हैं जिनमें से कुछ की तरफ़ इशारा किया जा रहा है ताकि उनको पहचान के और उन पर अमल कर के पता चल सके कि ख़ुलूस वाले काम किस के तरह होते हैं।
1- पैग़म्बर स.अ. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस वाले इंसान की चार तरीक़े की पहचान हैं, पहले यह कि उसका दिल पाक साफ़ होता है, दूसरे यह कि उसके हाथ पैर और दूसरे बदन के हिस्से सही और सालिम होते हैं, तीसरे यह कि लोग उनके नेक कामों से फ़ायदा हासिल करते हैं, चौथे यह कि उनसे लोगों को किसी तरह का कोई ख़तरा नहीं होता। (तोहफ़ुल-ओक़ूल, पेज 16)
2- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि जिसका ज़ाहिर और बातिन एक जैसा हो और सामने और पीठ पीछे की बातें एक जैसी हों हक़ीक़त में उसने अमानत को अदा कर दिया और अपनी इबादतों में ख़ुलूस पैदा कर लिया है। (नहजुल बलाग़ा, ख़त न. 26)
3- इमाम अली अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ुलूस की आख़िरी हद गुनाहों से बचना है। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 213)
4- एक दूसरी रिवायत में मौला अमीर अ.स. ही का फ़रमान है कि ख़ालिस इबादत उसे कहते हैं कि जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और से थोड़ी भी उम्मीद न रखता हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से न डरता हो। (बिहारुल अनवार, जिल्द 74, पेज 229)
5- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि ख़ालिस अमल वही है जिसमें इंसान अल्लाह के अलावा किसी और की तारीफ़ का इंतेज़ार न करे।
(उसूल काफ़ी, जिल्द 2, पेज 16)
6- इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. फ़रमाते हैं कि कोई भी बंदा उस समय तक ख़ुलूस तक नहीं पहुंच सकता जब तक लोगों की तारीफ़ की चाहत ख़त्म न कर दे। (मिश्कातुल अनवार, पेज 11, अख़लाक़े अमली, आयतुल्लाह महदवी कनी, पेज 421)
7- हदीस में यह भी ज़िक्र हुआ है कि ख़ुलूस की शुरूआत अल्लाह के अलावा हर किसी से उम्मीद का तोड़ना है। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 430)
इन सभी हदीसों की रौशनी में यह बात साफ़ हो जाती है कि इबादत की बुनियाद ख़ुलूस है और आमाल को इबादत उसी समय कहा जा सकता है जब उसमें ख़ुलूस पाया जाता होगा, इस्लाम ने हमेशा अच्छे अमल को सराहा है , कभी अमल की भरमार के चलते अमल की रूह यानी ख़ुलूस और नीयत का साफ़ होना छूट जाए इसे इस्लाम सपोर्ट नहीं करता, अगर आप अपने अमल में ख़ुलूस का पता लगाना चाहते हैं तो आप कुछ समय तक अपने अमल और रोज़ाना के कामों पर ध्यान दीजिए और अपने दिल की गहराईयों में जा कर देखिए उसका हिसाब किताब कीजिए, अगर किसी वाजिब को सबके सामने ख़ुलूस से अंजाम नहीं दे सकते तो उसे भी तंहाई में अंजाम दीजिए, हालांकि बहुत कम होता है कि वाजिब अहकाम को अदा करने में दिखावा हो लेकिन अगर किसी को ऐसा लगता है कि वाजिब में भी दिखावा हो सकता है तो उसे भी अकेले में छिप कर अंजाम देना चाहिए क्योंकि ज़्यादातर दिखावे की मुश्किल लोगों के लिए मुस्तहब कामों में होती है, हमें केवल इस बात का ध्यान रखना है कि अमल वाजिब हो या मुस्तहब उसके अंदर दिखावा नहीं आना चाहिए और उसकी पहचान के लिए एक तरीक़ा यह भी है कि अमल अंजाम देने के बाद अपने नफ़्स की जांच पड़ताल करें अगर दुनिया की मोहब्बत और अल्लाह के अलावा किसी और को ख़ुश करने का इरादा और नीयत मिले तो समझ लीजिए उस अमल में ख़ुलूस नहीं है और अगर अमल के अंजाम के बाद अल्लाह से क़रीब होने का एहसास और उसको ख़ुश करने जैसा तसव्वुर पैदा हो तो समझ लीजिए आपने ख़ुलूस से अंजाम दिया है।
ध्यान रहे कभी कभी इंसान सवाब को हासिल करने और जन्नत में जाने के लिए अमल अंजाम देता है, ऐसा करने का बिल्कुल यह मतलब नहीं कि उस अमल में ख़ुलूस नहीं पाया जाता, और आख़िर में अपने इस लेख को को इस अहम हदीस पर ख़त्म कर रहे हैं कि जिसमें इमाम अ.स. ने फ़रमाया कि अपनी उम्मीदों को कम करो ताकि तुम्हारे अमल में ख़ुलूस पैदा हो। (फ़ेहरिस्ते मौज़ूई ग़ोरर, पेज 91, मेराजुस्-सआदह, पेज 491, चेहेल हदीस, इमाम ख़ुमैनी र.ह., पेज 51-55)
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