इस्लाम का नजरिया मानवाधिकार के प्रति |

इंसान का सामना हमेशा, न्याय और अन्याय, समानता और पक्षपात, आज़ादी और अत्याचार, युद्ध और शांति जैसे विरोधाभासी विषयों से होता है। इस सं...



इंसान का सामना हमेशा, न्याय और अन्याय, समानता और पक्षपात, आज़ादी और अत्याचार, युद्ध और शांति जैसे विरोधाभासी विषयों से होता है। इस संदर्भ मे बड़ी से बड़ी चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, वह अभी आदर्श स्थिति तक नहीं पहुंचा है।समस्त इंसानों में संयुक्त बिंदु, ईश्वरीय सृष्टि है। इस प्रकार, इसी ईश्वरीय सृष्टि को आधार बनाकर, मानवाधिकारों का मूल स्रोत प्राप्त किया जा सकता है।

खेद की बात है कि इंसान के जीवन के इतिहास में धमकी, असुरक्षा, निर्धनता, भूख, अतिक्रमण, हत्या और नरसंहार वे चीज़ें हैं जो हमेशा समाजों की समस्याएं रही हैं और आज भी वे समाजों व राष्ट्रों के लिए समस्यायें बनी हुई हैं। मानव इतिहास इस बात का सूचक है कि शक्तिशाली लोगों, वर्गों और गुटों का वर्चस्व सदैव कमजोर लोगों पर रहा है। इस प्रकार समाज में शक्तिशाली लोगों के निर्बल लोगों पर वर्चस्व की संस्कृति प्रचलित हो गयी और इस प्रकार की संस्कृति से मानवीय प्रतिष्ठा को आघात पहुंचा परंतु पूरे इतिहास में न्यायप्रेमी और अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले संघर्ष व आंदोलन भी रहे हैं जिन्होंने इंसानों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बहुत अधिक प्रयास किये हैं। इसके अतिरिक्त हज़रत आदम से लेकर पैग़म्बरे इस्लाम तक के समस्त ईश्वरीय दूतों का प्रयास समाज में न्याय की स्थापना रहा है।



हर धर्म ने अपनी शिक्षाओं में मनुष्य पर विशेष ध्यान दिया है और उसके अधिकारों और दायित्वों का निर्धारण करके उसके कल्याम को दृष्टिगत रखा है। सभी धर्मों में मनुष्य को एक मूल्यवान व प्रतिष्ठित या दूसरे शब्दों में पवित्र अस्तित्व के रूप में देखा गया है। 

समस्त इंसानों के कुछ अधिकार हैं जिनकी रक्षा और उनसे लाभ उठाना सबकी ज़िम्मेदारी है।विश्व के समस्त इंसानों के लिए मानवाधिकारों का समान संदेश होना चाहिये। स्पष्ट है कि विभिन्न चीज़ें इस प्रकार के क़ानून का स्रोत नहीं हो सकतीं। इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार मानवाधिकार के स्रोत को समस्त इंसानों के मध्य संयुक्त होना चाहिये। क्योंकि अधिकार स्थाई चीज़ है और स्पष्ट है कि अधिकार के स्रोत को भी स्थाई होना चाहिये। मानवाधिकारों का एक स्रोत उस समय हो सकता है जब विश्व के समस्त लोग उसे स्वीकार करें और उसमें रंग, जाति, लिंग, शिष्टाचार और परम्परा आदि पर ध्यान न दिया जाये।

इस परिणाम पर पहुंचा जा सकता है कि यदि मनुष्य  क़ानून बनाता है तो उसे अत्यधिक कमियों और त्रुटियों का सामना करना पड़ता है। यही बातें इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि मनुष्य, मानवाधिकारों के मानदंड का निर्धारण करने में अक्षम है।  इसके मुक़ाबले में ईश्वर की ओर से निर्धारित किये गए मानदंडों में कोई भी त्रुटि नहीं होती है।  


जिस दिन मनुष्य की रचना की गई उसी दिन से ईश्वर ने उसके सामने आसमानी किताबें रखी हैं ताकि उसके जीवन का मार्गदर्शन हो सके। इन मार्गदर्शक किताबों में मनुष्य को बताया गया है कि वह कहां से आया है, कहां जा रहा है  और उसे किस प्रकार ईश्वर तक पहुंचने के लिए सीधे मार्ग पर चलना चाहिए। 


सूरए मुमतहना की आठवीं आयत में बयान हुआ है जिसमें मुसलमानों को भी आदेश दिया गया है कि वे वैश्विक परिवार के बाक़ी दो सदस्यों अर्थात ग़ैर मुस्लिम एकेश्वरवादियों और ईश्वर का इन्कार करने वालों के अधिकारों का सम्मान करें। यहां तक कि काफ़िरों के संबंध में न्याय से काम लेने के लिए प्रोत्साहित भी किया गया है। आयत कहती हैः ईश्वर तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निःसंदेह ईश्वर न्याय करने वालों को पसन्द करता है।

मूल रूप से इस्लाम का बुनियादी आदेश यह है कि मुसलमान, वैश्विक परिवार के सदस्यों को सम्मान और वफ़ादारी की नज़र से देखें और केवल उनकी ओर से मुंह मोड़ें जिन्होंने उन्हें राजनैतिक व सामाजिक दबाव में डाल रखा है। इसी कारण राजनैतिक रवैये के बारे में भी मुसलमानों को यह आदेश दिया गया है कि वे कभी भी अपने वचन को न तोड़ें और जब तक दूसरा पक्ष अपने वादे का पालन कर रहा है, वे भी अपने वादे का सम्मान करते रहें। सूरए तौबा की 7वीं आयत में कहा गया हैः जब तक वे अपने वादे पर कटिबद्ध रहें तुम भी अपने वादे का पालन करते रहो। सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 83 में कहा गया हैः लोगों से अच्छी बात (और अच्छा व्यवहार) करो। मुसलमानों को, वैश्विक परिवार के सदस्यों के अधिकारों के पालन का निमंत्रण देने वाली क़ुरआने मजीद की एक अन्य आयत जिसका तीन सूरों में तीन पैग़म्बरों की ज़बान से उल्लेख किया गया है, एक अत्यंत मूल्यवान व व्यापक आदेश है। सूरए आराफ़ की 85वीं, सूरए हूद की 85वीं और सूरए शोअरा की 183वीं आयत में कहा गया हैः और लोगों की वस्तुओं में से कुछ कम न करो

यहां पर एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुसलमानों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए अन्य इंसानों से युद्ध करें जैसा कि आजकल कुछ चरमपंथी तथाकथित इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए कर रहे हैं। इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए जो मार्ग अपनाना चाहिए वह भलाइयों का आदेश देने और बुराइयों से रोकने का है। यह, वही शैली है जो क़ुरआने मजीद ने मुसलमानों को सिखाई है। सूरए हज की 41वीं आयत में कहा गया है। ये वही लोग हैं जिन्हें हमने जब भी धरती में सत्ता प्रदान की तो वे नमाज़ क़ायम करते हैं, ज़कात देते हैं, भलाई का आदेश देते हैं और बुराई से रोकते हैं और सभी मामलों का अंजाम तो ईश्वर ही के हाथ में है।


 मुसलमानों को यह अधिकार नहीं है कि वे इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए अन्य इंसानों से युद्ध करें जैसा कि आजकल कुछ चरमपंथी तथाकथित इस्लामी आदेशों को लागू करने के लिए कर रहे हैं। इस्लाम वैश्विक परिवार के सभी सदस्यों का सम्मान करता है और उसने अपने सभी अनुयाइयों को इस बात के लिए कटिबद्ध किया है कि वे इस परिवार के सदस्यों को सही व अच्छी बातों की ओर बुलाएं 



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