सूरए मोमिनून, आयतें 38-46: शीघ्र ही झूठे (अपने किए पर) पछतावा करेंगे |
सूरए मोमिनून, आयतें 38-46: शीघ्र ही झूठे (अपने किए पर) पछतावा करेंगे | सूरए मोमिनून की 38वीं, 39वीं और 40वीं आयत إِنْ هُوَ إِلَّا رَجُلٌ ...
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सूरए मोमिनून, आयतें 38-46: शीघ्र ही झूठे (अपने किए पर) पछतावा करेंगे |
सूरए मोमिनून की 38वीं, 39वीं और 40वीं आयत
वह तो बस एक ऐसा व्यक्ति है जिसने ईश्वर पर झूठा आरोप लगाया है और हम कदापि उस पर ईमान लाने वाले नहीं हैं। (23:38) सालेह ने कहा, हे मेरे पालनहार! इन्होंने जो मुझे झुठलाया है उस पर तू मेरी सहायता कर। (23:39) ईश्वर ने (उत्तर में) कहा, शीघ्र ही ये (अपने किए पर) पछता कर रहेंगे। (23:40)
इससे पहले की आयतों में समूद जाति का वर्णन किया गया जिसके सरदारों ने अपने पैग़म्बर को यह कहते हुए झुठला दिया कि वे उन्हीं के समान एक मनुष्य हैं और इसी बहाने वे उनकी बात मानने को तैयार न हुए। ये आयतें कहती हैं कि उन लोगों ने अपने कुफ़्र का औचित्य दर्शाने के लिए कहा कि यदि वे ईश्वर की ओर से होते तो हम उन पर ईमान ले आते किंतु वे झूठ में स्वयं को ईश्वर का पैग़म्बर बता रहे हैं, इसी लिए हम उन पर ईमान नहीं लाएंगे।
मानो वे सांकेतिक रूप से यह कहना चाहते थे कि हम ईश्वर को तो स्वीकार करते हैं किंतु इस व्यक्ति को ईश्वर का पैग़म्बर नहीं मानते क्योंकि आशा थी कि ईश्वर, लोगों के मार्गदर्शन के लिए फ़रिश्तों को भेजेगा। समूद जाति के पैग़म्बर हज़रत सालेह ने अपनी जाति के विरोधियों के हठधर्म और उनके द्वारा निरंतर झुठलाए जाने पर ईश्वर से सहायता मांगी और ईश्वर ने भी उन्हें वचन दिया कि वह शीघ्र ही विरोधियों को इस प्रकार दंडित करेगा कि वे अपने ग़लत कार्यों पर पछताने लगेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि कभी कभी काफ़िर और विरोधी, स्वंय को ईश्वरीय सीमाओं का समर्थक बता कर ईश्वर के प्रिय बंदों को झुठलाते हैं और उनका अपमान करते हैं।
अतीत के बुरे कर्मों पर पश्चाताप, अच्छा व लाभदायक काम है किंतु ईश्वरीय दंड के चिन्ह देख कर पछताने का कोई लाभ नहीं है।
सूरए मोमिनून की 41वीं, 42वीं और 43वीं आयत
فَأَخَذَتْهُمُ الصَّيْحَةُ بِالْحَقِّ فَجَعَلْنَاهُمْ غُثَاءً فَبُعْدًا لِلْقَوْمِ الظَّالِمِينَ (41) ثُمَّ أَنْشَأْنَا مِنْ بَعْدِهِمْ قُرُونًا آَخَرِينَ (42) مَا تَسْبِقُ مِنْ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسْتَأْخِرُونَ (43)
तो सच्चे वचन के अनुसार भयंकर चिंघाड़ ने उन्हें आ लिया और हमनेउन्हें घास-फूस जैसा बना कर रख दिया। तो अत्याचारी जाति (हमारी दया से) दूर है! (23:41) फिर हमने उनके पश्चात दूसरी जातियों को बनाया। (23:42) कोई समुदाय न तो अपने निर्धारित समय से आगे बढ़ सकता है और न पीछे रह सकता है। (23:43)
समूद जाति का अंत आकाश से आने वाली एक भयंकर चिंघाड़ के माध्यम से हुआ जो भारी वर्षा और विनाशकारी बाढ़ के साथ सुनाई दी। इसके कारण उस जाति के सभी घर और पूरा नगर तबाह हो गया और वे सबके सब काल के गाल में समा गए। तबाही वह अंत है जो सभी अत्यचारियों की प्रतीक्षा कर रहा है।
अगली आयत कहती है कि ईश्वर ने संसार के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक जातियां बनाई हैं किंतु जैसा कि प्रत्येक मनुष्य के लिए जीवन और मृत्यु होती है उसी प्रकार जातियों के लिए भी जीवन और मृत्यु होती है और उद्दंडी एवं अत्यचारी जातियां तबाह हो कर समाप्त हो जाती हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर की ओर से पारितोषिक और दंड देने की व्यवस्था न्याय पर आधारित है जब तक कोई जाति दंड की अधिकारी नहीं हो जाती तब तक ईश्वर उसे दंडित नहीं करता।
इतिहास के परिवर्तन, ईश्वरीय परंपराओं के अधीन होते हैं। इन परंपराओं के अनुसार अत्याचारी जातियां मिट जाती हैं और नई जातियां उनका स्थान ले लेती हैं।
सूरए मोमिनून की 44वीं आयत
ثُمَّ أَرْسَلْنَا رُسُلَنَا تَتْرَى كُلَّ مَا جَاءَ أُمَّةً رَسُولُهَا كَذَّبُوهُ فَأَتْبَعْنَا بَعْضَهُمْ بَعْضًا وَجَعَلْنَاهُمْ أَحَادِيثَ فَبُعْدًا لِقَوْمٍ لَا يُؤْمِنُونَ (44)
फिर हम निरन्तर अपने पैग़म्बर भेजते रहे। जब भी किसी समुदाय के पास उसका पैग़म्बर आता तो उस (के लोग) उसे झुठला देते। तो हमने एक के बाद एक उन्हें विनष्ट कर दिया और उन्हें क़िस्से-कहानियाँ बना कर रख दिया। तो ईमान न लाने वाले (ईश्वरीय दया से) दूर हैं। (23:44)
ईश्वर ने पूरे इतिहास में बड़ी संख्या में पैग़म्बर भेजे जो स्नेह और प्रेम के साथ लोगों को सत्य के मार्ग की ओर बुलाते थे किंतु कुछ लोग अपने भौतिक हितों की रक्षा के लिए और कुछ अन्य सांसारिक मोह माया के कारण उनके निमंत्रण को स्वीकार नहीं करते थे और पैग़म्बरों के स्पष्ट तर्कों को नहीं मानते थे। वे विभिन्न रूपों में पैग़म्बरों को धमकियां देते, उनका अनादर करते, उन्हें झुठलाते यहां तक कि उनकी हत्या तक कर देते थे।
अलबत्ता जब उनका कुफ़्र और उद्दंडता सीमा से आगे बढ़ जाती तो फिर ईश्वर उद्दंडी जातियों व समुदायों के विनाश का आदेश जारी करके उन्हें संसार से मिटा देता था। इस प्रकार उनकी संस्कृति व सभ्यता के चिन्हों का केवल नाम ही बाक़ी बचता ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए पाठ बन सके।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर ने हर समुदाय में पैग़म्बर भेजा है ताकि लोगों के पास कोई बहाना बाक़ी न बचे।
जो समुदाय भी ईश्वरीय कोप में ग्रस्त हो जाए वह नष्ट हो जाता है और उसका केवल नाम बाक़ी बचता है।
सूरए मोमिनून की 45वीं और 46वीं आयत
ثُمَّ أَرْسَلْنَا مُوسَى وَأَخَاهُ هَارُونَ بِآَيَاتِنَا وَسُلْطَانٍ مُبِينٍ (45) إِلَى فِرْعَوْنَ وَمَلَئِهِ فَاسْتَكْبَرُوا وَكَانُوا قَوْمًا عَالِينَ (46)
फिर हमने मूसा और उनके भाई हारून को अपनी निशानियों और स्पष्ट चमत्कारों के साथ भेजा। (23:45) फ़िरऔन और उसके सरदारों की ओर किन्तु उन्होंने अहंकार किया और वे बड़े ही वर्चस्ववादी लोग थे। (23:46)
हज़रत नूह की जाति, समूद जाति और कुछ अन्य जातियों के वृत्तांत के वर्णन के पश्चात क़ुरआने मजीद इन आयतों में फ़िरऔन के मुक़ाबले में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के आंदोलन का उल्लेख करते हुए कहता है कि ईश्वर ने हज़रत मूसा को उनके भाई हारून के साथ फ़िरऔन के दरबार में भेजा।
उन्होंने एक ओर ईश्वरीय चमत्कार प्रस्तुत करके और दूसरी ओर स्पष्ट बौद्धिक तर्क देकर फ़िरऔन तथा उसके सरदारों को एकेश्वरवाद का निमंत्रण दिया किंतु उन्होंने, जो अत्यंत शक्तिशाली और धनवान थे तथा स्वयं को बनी इस्राईल से श्रेष्ठ जाति समझते थे, उनकी बात को स्वीकार नहीं किया और अहंकार करने लगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि अत्यचारी शासक, जातियों व समुदायों की तबाही का कारण होते हैं। हज़रत मूसा को, मिस्र के लोगों को एकेश्वरवाद का निमंत्रण देने से पूर्व फ़िरऔन तथा उसके दरबारियों के पास जाने का आदेश दिया गया क्योंकि जब तक समाज के नेता नहीं सुधर जाते तब तक समाज के सुधार की संभावना नहीं होती।
धर्म के प्रचार और लोगों के मार्गदर्शन में बौद्धिक तर्क का अत्यंत महत्वपूर्ण एवं मूल स्थान है।
धर्म के प्रचार में कभी-कभी आवश्यकता के अनुसार सार्वजनिक रूप से काम करना चाहिए और दूसरों से भी सहायता लेनी चाहिए।