इस्लाम का ऐतिहासिक सफ़र मक्के से कर्बला तक |
मुसलमानों का मानना है कि हर युग और हर दौर मैं अल्लाह ने इस धरती पर अपने दूत(संदेशवाहक/पैग़म्बर), अपने सन्देश के साथ इस उद्देश्य के...
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मुसलमानों के मुताबिक अब तक कुल 313 रसूल/नबी, अल्लाह की तरफ से भेजे जा चुके हैं, इनमें से 5 रसूल बड़े रसूल हैं. जो कि हैं:
1. हज़रत Abraham(इब्राहीम)
2. हज़रत Moses(मूसा)
3. हज़रत David(दावूद)
4. हज़रत Jesus (ईसा)
5. हज़रत Muhammad(मोहम्मद)
हज़रत मोहम्मद इन सब नबियो में सबसे आखिरी नबी हैं।
कुछ और दुसरे नबियों के नाम हैं:
हज़रत Adam (आदम)
हज़रत Nooh (नूह)
हज़रत Ishaaq (इसहाक़)
हज़रत Yaaqub (याक़ूब)
हज़रत Joseph (युसुफ़)
हज़रत Ismail (इस्माइल)
इस्लाम क्या है?
इस्लाम धर्म के मानने वालों को मुस्लिम कहा जाता है। मुस्लिम शब्द सबसे पहले हज़रत इब्राहीम के मानने वालों के लिए इस्तमाल किया गया था।
हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा:
पैग़म्बर हज़रत नूह के कई सौ साल बाद हज़रत इब्राहीम को अल्लाह ने अपना पैग़म्बर बनाया. हज़रत इब्राहीम के दो बेटे हुए, एक हज़रत इस्माइल और दुसरे हज़रत इस्हाक़. इस्हाक़ से बनी इसराइल की नस्ल चली और इस्माइल की नस्ल में हज़रत मोहम्मद ने जन्म लिया।
लेकिन हज़रत मोहम्मद के पूर्वजों में भी एक पूर्वज थे अब्दुल मनाफ़, जिनके यहाँ ऐसे जुड़वाँ बच्चे पैदा हुए जो आपस में जुड़े हुए थे. इन दोनों में से केवल एक ही को बचाया जा सकता था। इसलिए यह फैसला किया गया कि तलवार से काट कर दोनों को अलग किया जाए लेकिन तलवार से अलग किये जाने के बाद दोनों ही बच्चे जीवित रहे. इनमें से एक का नाम हाशिम और दूसरे का नाम उमय्या रखा गया। इसी लिए इन दोनों बच्चों की नस्लों को बनी हाशिम और बनी उमय्या कहा जाने लगा। बनी हाशिम को मक्का के सब से पवित्र धर्म स्थल क़ाबा की देख भाल और धार्मिक कार्य अंजाम देने की ज़िम्मेदारी सोंपी गई थी।
पैग़म्बर मोहम्मद के दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब अरब सरदारों में बहुत अहम समझे जाते थे, उन्हें सय्यदुल बतहा कहा जाता था। पैग़म्बर साहब के वालिद(पिता) का नाम हज़रत अब्दुल्लाह और वालिदा(माता) का नाम हज़रत आमिना था।
मोहम्मद साहब के पैदा होने से कुछ महीने पहले ही उनके वालिद का इंतिकाल हो गया और उनकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी दादा हज़रत मुत्तलिब को उठानी पड़ी. कुछ समय के बाद मोहम्मद साहब के दादा भी चल बसे और माँ का साया भी बचपन में ही उठ गया. अब इस यतीम बच्चे की सारी ज़िम्मेदारी चाचा अबूतालिब ने उठाली और हज़रत हलीमा नाम की दाई के संरक्षण मे मोहम्मद साहब की परवरिश की।
बचपन में मोहम्मद साहब भेड़-बकरी को रेवड़ चराने जंगलो में ले जाते थे और इस तरह उनका बचपन गुज़र गया. बड़े होने पर उन्हें अरब की एक धनी महिला हज़रत ख़दीजा के यहाँ नौकरी मिल गई और वह हज़रत ख़दीजा का व्यापार बढ़ाने मे लग गये।
मोहम्मद साहब की ईमानदारी, लगन, निष्टा और मेहनत से हज़रत ख़दीजा का कारोबार रोज़-बरोज़ बढ़ने लगा. मोहम्मद साहब के आला किरदार से हज़रत ख़दीजा इतना प्रभावित हुईं कि उन्होनें एक सेविका के ज़रिए मोहम्मद साहब के पास शादी का पैग़ाम भिजवाया जिस को हज़रत मोहम्मद ने खुशी के साथ क़ुबूल लिया।
इस बीच हज़रत मोहम्मद अरब जगत में अपनी सच्चाई, लगन, इंसानियत-नवाज़ी, बिना किसी पक्षपात वाले तौर तरीक़ो, अमानतदारी और श्रेष्ठ चरित्र के लिए मशहूर हो चुके थे।
एक ओर हज़रत मोहम्मद आम लोगो, ग़रीबों, लाचारों ज़रूरत मंदो और ग़ुलामों की मदद करने काम खामोशी से अंजाम दे रहे थे, दूसरी तरफ अरब जगत ज़ुल्म, अत्याचार, क्रूरता, झूठ, बेईमानी के अँधेरे में डूबता जा रहा था। हज़रत मोहम्मद ने पैग़म्बर होने का ऐलान करने से पहले अरब समाज में अपनी सच्चाई का लोहा मनवा लिया था। सारे अरब में उनकी ईमानदारी और अमानतदारी मशहूर हो चुकी थी। लोग उनको सच्चा और अमानतदार कहने लगे थे।
जब पेगंबर साहब 30 साल की उमर में पहुँचे तो उनके चाचा हज़रत अबूतालिब के घर में एक बच्चे का जन्म हुआ. पैग़म्बर साहब ने बच्चे की देखभाल की ज़िम्मेदारी अपने सिर ले ली। बाद में इसी बच्चे को दुनिया ने हज़रत अली के नाम से पहचाना. जब हज़रत अली 10 साल के हो गये तो लगभग चालीस साल की उमर में हज़रत मोहम्मद को अल्लाह की तरफ़ से पहली बार संदेश आया: “इक़्रा बिसमे रब्बीका” यानी पढ़ो अपने रब्ब के नाम के साथ। पैग़म्बर साहब यह सुन कर पानी-पानी हो गये और घर लौट कर सारा क़िस्सा अपनी पत्नी हज़रत ख़दीजा को बताया की किस तरह अल्लाह के भेजे हुए फरिश्ते ने उन्हें अल्लाह की खबर दी है. हज़रत ख़दीजा ने फ़ौरन ही यह बात मान ली कि हज़रत मोहम्मद अल्लाह द्वारा नियुक्त किये हुए पैग़म्बर हैं, फिर हज़रत अली ने भी फ़ौरन यह बात स्वीकार कर ली कि मोहम्मद साहब अल्लाह द्वारा भेजे हुए पैग़म्बर है।
शुरू में पैग़म्बर साहब ने ख़ामोशी से अपना अभियान चलाया और कुछ ख़ास मित्रों तक ही बात सीमित रखी. इस तरह तीन साल का वक़्त गुज़र गया. तब अल्लाह की और से सन्देश आया कि अब इस्लाम का प्रचार खुले आम किया जाए. इस आदेश के बाद पैग़म्बर साहब मक्का नगर कि पवित्र पहाड़ी “कोहे सफ़ा” पर खड़े हुए और जमा लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि अगर मैं तुम से कहूँ कि पहाड़ के पीछे से एक सेना आ रही है तो क्या तुम मेरा यक़ीन करोगे? सब ने कहा: “हाँ, क्योंकि हम तुमको सच्चा जानते हैं”, उसके बाद जब पैग़म्बर साहब ने कहा कि अगर तुम ईमान न लाये तो तुम पर सख्त अज़ाब (प्रकोप) नाज़िल होगा तो सब नाराज़ हो कर चले गए. इनमें अधिकतर उनके खानदान वाले ही थे। इस ख़ुतबे (प्रवचन) के कुछ समय बाद पैगंबर साहब ने एक दावत में अपने रिश्तेदारों को बुलाया और उनके सामने इस्लाम का संदेश रखा लेकिन हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा परिवार जन हज़रत मोहम्मद को अल्लाह का संदेशवाहक मानने को तैयार नहीं था। तीन बार ऐसी ही दावत हुई और हज़रत अली के अलावा कोई दूसरा व्यक्ति पैगंबर साहब की हिमायत के लिए खड़ा नहीं हुआ, हालाँकि पैगंबर साहब इस बात का न्योता भी दे रहे थे कि जो उनकी बात मानेगा वही उनका उत्तराधिकारी होगा।
जिस समय मुसलमानो की तादाद चालीस हो गई तो पैगंबर साहब ने मक्का के पवित्र स्थल क़ाबा में पहुँच कर यह ऐलान कर दिया कि “अल्लाह के अलावा कोई इबादत के क़ाबिल नही है”। इस प्रकार की घोषणा से मक्का के लोग हक्का बक्का रह गए और उन्होनें चालीस मुसलमानों की छोटी सी टुकड़ी पर हमला कर दिया और एक मुस्लिम नवयुवक हारिस बिन अबी हाला को शहीद कर दिया. उसके बाद हज़रत यासिर को शहीद किया गया, खबाब बिन अलअरत को जलते अंगारों पर लिटा कर यातना दी गई. हज़रत बिलाल को जलती रेत पर लिटा कर अज़ीयत दी गई. सुहैब रूमी का सारा समान लूट कर उन्हें मक़्क़े से निकाल दिया गया. इस्लाम धर्म क़ुबूल करने वाली महिलाओं को भी परेशान किया जाने लगा। इनमें हज़रत यासिर की पत्नी सुमय्या, हज़रत उमर की बहन फातेमा, ज़ुनैयरा, नहदिया और उम्मे अबीस जैसी महिलाएं शामिल थीं। इनमे से कुछ को क़त्ल भी कर दिया गया। अल्लाह के आदेश पर अपने को पैगंबर घोषित करने के पाँचवे साल पैग़म्बर साहब को अपने अनेक साथियों को मक्का छोड़ कर हब्श(अफ्रीका) की और जाने के लिए कहना पड़ा और 16 मुसलमान हबश चले गये. कुछ समय बाद 108 लोगो पर आधारित मुसलमानों का एक और दल हज़रत जाफ़र बिन अबू तालिब के नेतृत्व में मक्का छोड़ कर चला गया।
मुसलमानों के पलायन से मक्के के काफ़िरों का होसला बढ़ गया. ख़ास तौर पर अबू जहल नामक सरदार पैग़म्बर साहब को प्रताड़ित करने लगा. यह देख कर मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके शामिल होने से मुसलमानों को बहुत हौसला मिला क्योंकि हज़रत हम्ज़ा बहुत मशहूर योद्धा थे. फिर भी मक्के वालो ने पैग़म्बर साहब का जीना दूभर किये रखा. बड़े तो बड़े, छोटे छोटे बच्चो को भी पैग़म्बर साहब पर पत्थर फेंकने पर लगा दिया गया। औरते छतों से कूड़ा फेंकने पर लगाईं गई. इस दुश्वार घडी में पत्थर मारने वाले बच्चों को खदेड़ने का काम कम आयु के हज़रत अली ने अंजाम दिया, कूड़ा फैंकने वाली औरत के बीमार पड़ने पर उसकी खैरियत पूछने की ज़िम्मेदारी स्वंय पैग़म्बर साहब ने और मक्का के बड़े बड़े सरदारों की साजिशों से हज़रत मोहम्मद को सुरक्षित रखने का काम हज़रत अली के पिता हज़रत अबू तालिब ने अपने सर ले रखा था. जब हज़रत मोहम्मद का एकेश्वरवाद का सन्देश तेजी से फैलने लगा तो दमनकारी शक्तियाँ और हिंसक होने लगीं और पैग़म्बर साहब के विरोधी खिन्न हो कर उनके चाचा हज़रत अबू तालिब के पास पहुंचे और कहा कि या तो वे हज़रत मोहम्मद को अपने धर्म के प्रचार से रोके या फिर हज़रत मोहम्मद को संरक्षण देना बंद कर दें. हज़रत अबू तालिब ने मोहम्मद साहब को समझाने की कोशिश की लेकिन जब मोहम्मद (स) ने उनसे साफ़ साफ़ कह दिया कि “अगर मेरे एक हाथ में चाँद और दूसरे हाथ में सूरज भी रख दिया जाए तो भी में अल्लाह के सन्देश को फैलाने से बाज़ नहीं आ सकता। खुदा इस काम को पूरा करेगा या मैं खुद इस पर निसार हो जाऊँगा.
लोगों का मानना है कि इसी समय हज़रत अबू तालिब ने भी इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन मक्के के हालात देखते हुए उन्होंने इसकी घोषणा करना मुनासिब नहीं समझा. जब यह चाल भी नाकाम हो गई तो मक्के के सरदारों ने एक और चाल चली. उन्होंने अकबा बिन राबिया नाम के एक व्यक्ति को पैग़म्बर साहब के पास भेजा और कहलवाया कि “ऐ मोहम्मद! आखिर तुम चाहते क्या हो? मक्के की सल्तनत? किसी बड़े घराने में शादी? धन, दौलत का खज़ाना? यह सब तुम को मिल सकता है और बात पर भी राज़ी हैं कि सारा मक्का तुम्हे अपना शासक मान ले, बस शर्त इतनी है कि तुम हमारे धर्म मैं हस्तक्षेप न करो”. इसके जवाब में हज़रत मोहम्मद ने कुरआन शरीफ कि कुछ आयते (वचन) सुना दीं. इन आयातों का अकबा पर इतना प्रभाव हुआ कि उन्होंने मक्के वालों से जाकर कहा कि मोहम्मद जो कुछ कहते हैं वे शायरी नहीं है कुछ और चीज़ है। मेरे ख़याल में तुम लोग मोहम्मद को उनके हाल पर छोड़ दो अगर वह कामयाब हो कर सारे अरब पर विजय हासिल करते हैं तो तुम लोगो को भी सम्मान मिलेगा अन्यथा अरब के लोग उनको खुद ख़तम कर देंगे।
लेकिन मक्के वाले इस पर राज़ी नहीं हुए और हज़रत मोहम्मद के विरुद्ध ज़्यादा कड़े कदम उठाये जाने लगे. (हज़रत मोहम्मद को परेशान करने वालो में अबू सुफ्यान, अबू जहल और अबू लहब सबसे आगे थे). हज़रत मोहम्मद और उनके साथियों का सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया. कष्ट की इस घड़ी में एक बार फिर हज़रत मोहम्मद के चाचा हज़रत अबू तालिब ने एक शिविर का प्रबंध किया और मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की।
इस सुरक्षा शिविर को शोएब-ए-अबू तालिब कहा जाता है. इस दौरान हज़रत अबू तालिब हज़रत मोहम्मद की सलामती को लेकर इतना चिंतित थे कि हर रात मोहम्मद साहब के सोने की जगह बदल देते थे और उनकी जगह अपने किसी बेटे को सुला देते थे. तीन साल की कड़ी परीक्षा के बाद मुसलमानों का बायकाट खत्म हुए। लेकिन मुसलमानों को ज़ुल्म और सितम से छुटकारा नहीं मिला और मक्का वासियों ने मुसलामानों पर तरह तरह के ज़ुल्म जारी रखे।
हज़रत अबू तालिब के देहांत के बाद अत्याचार और बढ़ गए (इसी साल पैग़म्बर साहब की चहीती पत्नी हज़रत ख़दीजा का भी देहांत हो गया) और मोहम्मद साहब की जान के लिये खतरा पैदा हो गया।
मक्के की मुस्लिम दुश्मन शक्तियां मोहम्मद साहब को क़त्ल करने की साजिशें करने लगीं, लेकिन दस वर्ष के समय में पैग़म्बर साहब का फैलाया हुआ दीन मक्के की सरहदें पार कर के मदीने के पावन नगर में फ़ैल चुका था इसलिए मदीने के लोगो ने पैग़म्बर साहब को मदीने में बुलाया और उनको भरोसा दिया की वे मदीने में पूरी तरह सुरक्षित रहेंगे।
एक रात मक्के के लगभग सभी क़बीले के लोगो ने पैग़म्बर साहब को जान से मार देने की साज़िश रच ली लेकिन इस साज़िश की खबर मोहम्मद साहब को पहले से लग गई और वेह अपने चचेरे भाई हज़रत अली से सलाह मशविरा करने के बाद मदीने के लिए प्रस्थान करने को तैयार हो गए।
लेकिन दुश्मनों ने उनके घर को चारो तरफ से घेर रखा था. इस माहोल में हज़रत अली मोहम्मद साहब के बिस्तर पर उन्ही की चादर ओढ़ कर सो गए और मोहम्मद साहब अपने एक साथी हज़रत अबू बक्र के साथ रात के अँधेरे में ख़ामोशी से मक्का छोड़ कर मदीने के लिए चले गये. जब इस्लाम के दुश्मनों ने पैग़म्बर साहब के घर पर हमला किया और उनके बिस्तर पर हज़रत अली को सोता पाया तो खीज उठे।
उन लोगों ने पैग़म्बर साहब का पीछा करने की कोशिश की और उन तक लगभग पहुँच भी गए लेकिन जिस गार(गुफा) में हज़रत मोहम्मद छुपे थे उस गुफा के बाहर मकड़ी ने जाला बुन दिया और कबूतर ने घोंसला लगा दिया जिससे कि पीछा करने वाले दुश्मन गुमराह हो गए और पैग़म्बर साहब की जान बच गई. कुछ समय बाद हज़रत अली भी पैग़म्बर साहब से आ मिले।
इस तरह इस्लाम के लिए एक सुनहरे युग की शुरुआत हो गई. मदीने में ही पैग़म्बर साहब ने अपने साथियो के साथ मिल कर पहली मस्जिद बनाई. यह मस्जिद कच्ची मिट्टी से पत्थर जोड़ कर बनाई गई थी और इस पर सोने चांदी की मीनार और गुम्बद नहीं थे बल्की खजूर के पत्तों की छत पड़ी हुई थी।
मक्का छोड़ने के बाद भी इस्लाम के दुश्मनों ने मोहम्मद साहब के खिलाफ़ साजिशें जारी रखीं और उन पर लगातार हमले होते रहे. मोहम्मद साहब के पास कोई बड़ी सेना नहीं थी. मदीने में आने के बाद जो पहली जंग हुई उसमे पैग़म्बर साहब के पास केवल तीन सो तेरह आदमी थे, तीन घोड़े, सत्तर ऊँट, आठ तलवारें, और छेह ज़िर्हे (ढालें) थी. इस छोटी सी इस्लामी फ़ौज का नेतृत्व हज़रत अली के हाथों में था, जो हज़रत अली के लिए पहला तजुर्बा था. लेकिन जिन लोगों को अल्लाह ने प्रशिक्षण दे कर दुनिया में उतारा हो, उन्हें तजुर्बे की क्या ज़रुरत? इतनी छोटी सी तादाद में होने के बावजूद मुसलमानों ने एक भरपूर लश्कर से टक्कर ली और अल्लाह पर अपने अटूट विश्वास का सबूत देते हुए मक्के वालों को करारी मात दी. इस जंग में काफ़िरो को ज़बरदस्त नुकसान उठाना पड़ा. जंगे-बद्र के नाम से मशहूर इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचाज़ाद भाई हज़रत अली और मोहम्मद साहब के चाचा हज़रत हम्ज़ा ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए और मक्के के फ़ौजी सरदार अबू सुफ्यान को काफ़ी ज़िल्लत(बदनामी) उठानी पड़ी. उसके साथ आने वाले बड़े बड़े काफिर सरदार और योद्धा मारे गए।
मोहम्मद साहब न तो किसी की सरकार छीनना चाहते थे न उन्हें देश और ज़मीन की ज़रुरत थी, वे तो सिर्फ इस धरती पर अल्लाह का सन्देश फैलाना चाहते थे. मगर उन पर लगातार हमले होते रहे जबकि खुद मोहम्मद साहब ने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही इस्लामी सेना ने किसी देश पर चढाई की. इस का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि पैग़म्बर साहब और उनके साथियों पर कुल मिला कर छोटे बड़े लगभग छियासी युद्ध थोपे गये और यह सारी लड़ाईयाँ मदीने के आस पास लड़ी गई. केवल जंगे-मौता के मौके पर इस्लामी फ़ौज मदीने से आगे बढ़ी क्योंकि रोम के बादशाह ने मुसलमानों के दूत को धोके से मार दिया था।
मगर इस जंग में मुसलमानों की तादाद केवल तीन हज़ार थी और रोमन लश्कर(सेना) में एक लाख सैनिक् थे इसलिए इस जंग में मुसलमानों को कामयाबी नहीं मिली. इस जंग में पैग़म्बर साहब के चचेरे भाई हज़रत जाफर बिन अबू तालिब और कई वीर मुसलमान सरदार शहीद हुए. यहाँ पर यह कहना सही होगा कि मोहम्मद साहब ने न तो कभी किसी देश पर हमला किया, न ही इस्लामी शासन का विस्तार करने के लिए उन्होंने किसी मुल्क पर चढ़ाई की बल्कि उन को ही काफ़िरो(नास्तिको) ने हर तरह से परशान किया. जंगे-अहज़ाब के मौके पर तो काफ़िरो ने यहूदियों और दूसरी इस्लाम दुश्मन ताकतों को भी मिला कर मुसलमानों पर चढ़ाई की, लेकिन इस के बाद भी वे मुसलमानों को मात नहीं दे सके।
जंगे-उहद के मौके पर तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) को अभूतपूर्व क़ुरबानी देनी पड़ी. इस जंग में पैग़म्बरे इस्लाम (स) के वीर चाचा हज़रत हम्ज़ा शहीद हो गए, उनकी शहादत के बाद पैग़म्बर अकरम (स) के सब से बड़े दुश्मन अबू सुफ्यान की पत्नी हिंदाह ने अपने ग़ुलाम की मदद से हज़रत हम्ज़ा का सीना काट कर उनका कलेजा निकाल कर उसे चबाया और उनके कान नाक काट कर अपने गले मैं हार की तरह पहना। इस के उलट हज़रत मोहम्मद (स) ने जंग में मारे गए दुसरे पक्ष के मृत सैनिको की लाशों को अपमान करने की मनाही की।
इसके बाद भी लगातार मुसलमानों को हर तरह से परेशान किया जाता रहा मगर काफ़िरो को सफलता नहीं मिली। इस्लाम का नूर(रौशनी) दूर दूर तक फैलने लगा। खुले आम थोपी जाने वाली जंगो के साथ साथ पैग़म्बरे इस्लाम (स) को चोरी छुपे मारने की कोशिशे भी होतीं रहीं। एक बार बिन हारिस नाम के एक काफिर ने मोहम्मद साहब को एक पेड़ के नीचे अकेला सोते हुए देख कर तलवार से हमला करना चाह और पैग़म्बर (स) को आवाज़ दे कर कहा कि “ऐ मोहम्मद इस वक़्त तुम को कोन बचा सकता है?” हज़रत ने इत्मीनान(आराम से/बिना किसी डर के) से जवाब दिया “मेरा अल्लाह”। यह सुन कर बिन हारिस के हाथ काँपने लगे और तलवार हाथ से छूट गई।
हज़रत ने तलवार उठा ली और पूछा: “अब तुझे कौन बचा सकता है?”। वह बोला, “आप का रहम-ओ-करम”। हज़रत ने जवाब दिया ” तुझ को भी अल्लाह ही बचाएगा”। यह सुन कर बिन हारिस ने अपने सर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पैरों पर रख दिया और मुसलमान हो गया।
मदीने में एक तरफ तो पैग़म्बर (स) पर काफ़िरो के हमले हो रहे थे तो दूसरी तरफ़ हज़रत का परिवार फल फूल रहा था. उन की इकलोती बेटी हज़रत फ़ातिमा की शादी हज़रत अली (अ) से होने के बाद हज़रत मोहम्मद (स) के घर में दो चाँद हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के रूप में चमकने लगे थे। जिन्हें हज़रत मोहम्मद (अ) अपने बेटों से भी ज्यादा अज़ीज़ रखते थे, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बेटे हज़रत क़ासिम बचपन में ही अल्लाह को प्यारे हो गए थे इसलिए भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) अपने नवासो से बहोत प्यार करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम (स) की दो नवासियाँ भी थी जिनको इस्लामी इतिहास में हज़रत जैनब और हज़रत उम्मे कुलसूम कहा जाता है।
मदीने में रह कर इस्लाम के प्रचार प्रसार में लगे हज़रत मोहम्मद को किसी भी तरह हरा देने की साज़िशे रचने वाले काफ़िरो ने कई बार यहूदी और अन्य वर्गों के साथ मिल कर भी मदीने पर चढाई की मगर हर बार उनको मुंह की खानी पड़ी और उनके बड़े बड़े वीर योद्धा हज़रत अली के हाथों मारे गए. इन लडाइयों में जंगे-खैबर और जंगे-ख़न्दक का बहोत महत्त्व है। इस्लाम की हिफाज़त करने मैं हज़रत अली ने जिस बहादुरी और हिम्मत का सुबूत दिया, उससे इस्लाम का सर तो ऊँचा हुआ ही खुद हज़रत अली भी इस्लामी जगत मैं वीरता और बहादुरी के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने लगे और आज तक बहादुर और वीर लोग “या अली” कहकर मैदान में उतारते हैं. आम लोग संकट की घड़ी में “या अली” या “या अली मदद” कहकर उनको मदद के लिए आवाज़ देते हैं।
हज़रत अली (अ)ने इस्लाम की सुरक्षा और विस्तार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने बड़ी बड़ी जंगो मैं हिस्सा लिया और इस्लामी सेना को विजय दिलाई लेकिन इतिहास इस बात का भी गवाह है की उनके हाथों कोई बेगुनाह नहीं मारा गया और न ही उन्होंने किसी निहत्थे पर वार किया। जो भी उनसे लड़ने आया उसको उन्होंने यही मशविरा(सलाह/राय) दिया की अगर वह चाहे तो जान बचाकर जा सकता है और जान बचा कर भाग लेने में कोई शर्त भी नहीं थी।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) और मुसलमानों पर लगातार हमलों के बावजूद इस्लाम रोज़ बरोज़ फैलता जा रहा था आखिर थक आर कर मक्के के अनेक क़बीलो ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ समझोता कर लिया। यह समझोता “सुलह-ए-हुदेबिया” के नाम से मशहूर है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के शांति प्रिय होने का सबसे बड़ा सुबूत इस संधि के मौके पर देखने को मिला जब उन्होंने काफ़िरो के ज़ोर देने पर सहमती पत्र पर से अपने नाम के आगे से रसूल अल्लाह(अल्लाह के रसूल) काट दिया और केवल मोहम्मद बिन अब्दुल्लाह लिखा रहने दिया हालांकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी इस पर राज़ी नहीं थे की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के नाम के आगे से रसूल अल्लाह लफ्ज़ काटा जाए।
कुछ दिन बाद इस संधि को तोड़ते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सहयोगी क़बीले बनी खिज़ाअ के एक व्यक्ति को काफ़िरो के एक क़बीले बनी बकर ने मक्का नगर की सबसे सबसे पाक पवित्र जगह क़ाबा के आँगन में ही मार डाला तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने दस हज़ार मुसलमानों को लेकर मक्के की तरफ़ प्रस्थान किया। मक्के की सीमा पर पहुँचने से पहले ही इस्लाम का कट्टर और सबसे बड़ा दुश्मन अबू सूफ़ियान मुसलमानों की जासूसी करने के लिए आया लेकिन घिर गया। लेकिन मुसलमानों ने उसे मारा नहीं और बल्कि पनाह दे दी। पैग़म्बर के चाचा हज़रत अब्बास ने सुफियान को मशविरा दिया की वह इस्लाम स्वीकार कर ले। अबू सुफियान ने मजबूरी मैं इस्लाम कुबूल कर लिया और मक्के वालों की और से किसी तरह के प्रतिरोध के बिना मुसलमान लगभग आठ साल के अप्रवास के बाद मक्के में दाखिल हुए।
इस विजय की ख़ुशी में मुसलमानों का ध्वज उठा कर चल रहे सेनापति सअद बिन अबादा ने जोश में आकर यह ऐलान कर दिया कि आज बदले का दिन है और आज हर तरह का इंतिकाम जायज़ है। इस घोषणा से पैग़म्बरे इस्लाम (स) इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने अलम(झंडे) को सअद से लेकर हज़रत अली को सोंप दिया और दुनिया को बता दिया की इस्लाम जोश नहीं होश की मांग करता है. इस जीत के मौके पर बदला या इंतिकाम लेने कि जगह पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने सभी मक्का वासियों को माफ़ कर दिया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हिन्दा(अबू सूफ़ियान की पत्नी) नाम की उस औरत को भी माफ़ कर दिया जिसने मोहम्मद साहब के प्यारे चाचा हज़रत हम्ज़ा का कलेजा चबाने का जघन्य अपराध किया था।
लगभग अठारह दिन मक्के में रहने के बाद मुसलमान जब वापस मदीने लौट रहे थे तो ताएफ़ नामक स्थान पर काफिरों ने उन्हें घेर लिया. पहले तो मुसलमानों में अफ़रातफरी फैल गई। लेकिन बाद में मुसलमानों ने जम कर मुकाबला किया और काफ़िरो को करारी मात दी। इस जंग को जंग-ए-हुनैन कहा जाता है।
जंगे-ए-मौता में मुसलमानों को मात देने वाली रोम की सेना के हौंसले एक बार फिर बढ़ गए थे. रोम के हरकुलिस(Harqulis) बादशाह ने इस्लाम को मिटा देने के इरादे से फिर एक बार फौजें जमा कर लीं और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी सारे मुसलमानों से कह दिया की वह जान की बाज़ी लगाने को तैयार रहे। तबूक नामक स्थान पर इस्लामी सेनायें रोमियों का मुकाबला करने पहुँचीं. मगर रोम वाले मुसलामानों की ताक़त का अंदाज़ा लगा चुके थे इस लिए यह युद्ध टल गया। इस के बाद मुसलमानों के बीच घुस कर कुछ दुश्मनों ने पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऊंट को घाटी में गिरा कर मार डालने की साज़िश रची लेकिन अल्लाह ने उनको बचा लिया।
मक्का की विजय के लगभग एक साल बाद नज़रान नामक जगह के ईसाई मोहम्मद साहब से वाद विवाद के लिए आये और हज़रत ईसा मसीह को खुदा का बेटा साबित करने की कोशिश करने लगे तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने उनको बताया की इस्लाम धर्म, ईसा मसीह को अल्लाह का पवित्र पैग़म्बर मानता है, ईश्वर का बेटा नहीं. क्योंकि अल्लाह हर तरह के रिश्ते से परे है.
मगर मुसलमान हज़रत ईसा के चमत्कारिक जन्म पर यक़ीन रखते हैं और यह भी मानते हैं कि उनका कोई पिता नहीं था. जब ईसाइयों ने कहा की बिना बाप के कोई बच्चा कैसे जन्म ले सकता है तो हज़रत मोहम्मद ने कहा कि “वही अल्लाह जिसने हज़रत आदम(Adam) को बग़ैर माँ-बाप के पैदा किया, ईसा मसीह को बग़ैर पिता के क्यों पैदा नहीं कर सकता?” मगर ईसाईयों ने हट नहीं छोड़ी. इस पर हज़रत मोहम्मद ने क़ुरान में अल्लाह द्वारा कही गई आयत को आधार मानते हुए ईसाईयों को यह आयत सुना दी जिसमें अल्लाह ने कहा है कि “अगर यह लोग तुम से उलझते रहें, ऐसी विश्वस्निये दलीलों के बाद भी जो पेश हो चुकी हैं तो कह दो कि हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को बुलाओ और हम अपनी औरतों को बुलाएँ तुम अपनी औरतों को बुलाओ, हम अपने सबसे क़रीबी साथियों को बुलाएँ तुम अपने साथियों को बुलाओ फिर खुदा की तरफ(क़ाबे के तरफ़) रुख करें, और अल्लाह की लानत(अभिशाप/बद-दुआ) करार दें उन झूटों पर”. ईसाई इस पर राज़ी हो गए. यह वाद विवाद “मुबाहिला” के नाम से मशहूर है।
दूसरे दिन हज़रत मोहम्मद अपने छोटे छोटे नवासों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन, बेटी हज़रत फातिमा और दामाद हज़रत अली के साथ मैदान-ए-मुबाहिला मैं पहुँच गए. इन्हीं पवित्र लोगों को मुसलमान पंजतन कहते हैं. पाँच नूरानी व्यक्तित्व देख कर ईसाई घबरा गए और मुबाहिले के लिए तैयार हो गए. इस संधि के तहत ईसाई हर साल पैग़म्बरे इस्लाम (स) को एक निश्चित रक़म टेक्स के रूप मैं देने पर राज़ी हो गए जिसके बदले मैं पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने वायदा किया कि वे ईसाइयों को उनके घर्म पर ही रहने देंगे।
इस्लाम के खिलाफ चलने वाले सारे अभियानों को नाकाम करने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने हज़रत अली हो यमन देश मैं इस्लाम के प्रचार के लिए भेजा. वहाँ जाकर हज़रत अली ने इस तरह प्रचार किया कि हमदान का पूरा क़बीला मुसलमान हो गया।
इसी साल हज़रत मोहम्मद अपनी अंतिम हज यात्रा पर गए. हज़रत अली भी यमन से सीधे मक्का पहुँच गए जहाँ से वो लोग हज करने के लिए मैदाने अराफ़ात, मुज्द्लिफ़ा और मीना गए और फिर हज के अंतिम चरण में मक्का पहुँचे।
हज से वापस लौटते समय पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ग़दीर-ए- ख़ुम नाम के स्थान पर क़ाफिले को रोक कर इस बात का ऐलान किया कि अल्लाह का दीन अब मुक़म्मल हो गया है और आज से सब लोग बराबर हैं. अब किसी को किसी पर कोई बरतरी प्राप्त नहीं हैं. अब न तो कोई क़बीले की बुनियाद पर ऊँचा है, न किसी को रंग और नसल के आधार पर कोई बुलंद दर्जा हासिल हैं। आज से श्रेष्ठता और बड़ाई का कोई मेअयार (मापदंड) अगर है तो बस यह है कि कौन चरित्रवान है और किस के दिल मैं अल्लाह का कितना खौफ़ है. इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने ऐलान किया कि “जिस जिस का मैं मौला (नेता/स्वामी) हूँ, यह अली भी उसके मौला हैं”।
इसके लगभग दो महीने बाद 29 मई 632 में पैग़म्बरे इस्लाम (स) का मदीने मैं ही निधन हो गया. पैग़म्बरे इस्लाम (स) के दोस्त और अनेक वरिष्ठ साथी उनके निघन के समय मौजूद नहीं थे क्योंकि वे लोग सकीफ़ा नामक उस जगह पर उस मीटिंग में हिस्सा ले रहे थे जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुनने के लिए वाद विवाद चल रहा था। पैग़म्बरे इस्लाम (स) को हज़रत अली ने केवल परिवार वालों कि मौजूदगी मैं दफ़न किया।
इस बीच मुसलमानों के उस गिरोह ने जो कि सकीफ़ा मैं जमा हुआ था, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एक वरिष्ट मित्र हज़रत अबू बकर को मोहम्मद साहब के उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इस घटना के बाद मुसलमानों मैं उत्तराधिकार के मामले को लेकर कलह पैदा हो गई. क्योंकि मुसलामानों के एक वर्ग का कहना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ग़दीर-ए-खुम मैं हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके हैं परन्तु दुसरे वर्ग का कहना था कि मौला का मतलब दोस्त भी होता है. इस लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) की घोषणा उत्तराधिकारी के मामले मैं लागू नहीं होती।
जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मित्र और साथी वापस आये तो मोहम्मद साहब को दफ़न किया जा चुका था. शिया मुसलामानों की धार्मिक पुस्तकों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद उनके परिवार जनों को काफ़ी प्रताड़ित किया गया। हज़रत अली के घर के दरवाज़े मैं आग लगाई गई. दरवाज़ा गिरने से पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पवित्र बेटी हज़रत फ़ातिमा की कोख में पल रहे हज़रत मोहसिन का निधन हो गया।
मगर इस्लाम मैं वीरता और साहस के प्रतीक के रूप मैं पहचाने जाने वाले हज़रत अली, सहनशीलता और सब्र का प्रतीक बनकर हर दुःख को चुपचाप सह गए क्योंकि उस समय अगर हज़रत अली कि तलवार उठ जाती तो हज़रत अली दुश्मनों को तो ख़त्म कर देते, लेकिन उससे इस्लाम को भी नुक्सान पहुँचता क्योंकि उस समय हज़रत मोहम्मद द्वारा फैलाया हुआ इस्लाम शुरूआती दौर में था और मुसलामानों की तादाद आज की तरह करोड़ों-अरबों में न होकर केवल हज़ारों में थी। हज़रत अली सत्ता तो प्राप्त कर लेते लेकिन इस्लाम का कहीं नामों-निशान न होता, जोकि इस्लाम के दुश्मन चाहते थे। इसका सबूत यह है कि जब इस्लाम का घोर दुश्मन रह चुका अबू सुफियान हज़रत अली के पास आया और बोला कि अगर अली अपने हक के लिए लड़ना चाहते हैं तो वह मक्के की गलियों को हथियार बंद सिपाहियों और खुड़सवारों से भर सकता है. इस पर हज़रत अली ने जवाब दिया कि “ए अबू सुफियान, तू कब से इस्लाम का हमदर्द हो गया?”।
हज़रत अली और उनके परिवार को आतंकित करने की इस घटना का हज़रत फ़ातिमा पर इतना असर हुआ कि वे केवल अठारह साल कि उम्र मैं ही इस दुनिया से कूच कर गईं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हज़रत फ़ातिमा पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद केवल नौ दिन ही ज़िन्दा रहीं जबकि कुछ कहते हैं कि हज़रत फ़ातिमा बहत्तर दिनों तक ज़िन्दा रहीं। इस तरह पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार जनों को खुद मुसलामानों द्वारा सताए जाने की शुरुआत हो गई।
अजीब बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के जीवन मैं उनके परिवार जन काफिरों के आतंकवाद का निशाना बनते रहे और मोहम्मद साहब के इंतिक़ाल के बाद उन्हें ऐसे लोगों ने ज़ुल्मों सितम का निशाना बनाया जो खुद को मुसलमान कहते थे. हज़रत फातिमा को फिदक़ नामक बाग़ उनके पिता ने तोहफे के रूप में दिया था. इस बाग़ का हज़रत अबू बकर की सरकार ने क़ब्ज़ा कर लिया था. इस बात से भी हज़रत फ़ातिमा बहुत दुखी रहीं क्योंकि वह अपने पिता के दिए हुए तोहफे से बहुत प्यार करती थीं।
हज़रत फ़ातिमा के निधन के लगभग 6 महीने बाद तक हज़रत अली और हज़रत अबू बकर के बीच सम्बन्ध बिगड़े रहे. इस बीच हज़रत अली पवित्र क़ुरान कि प्रतियों को इकठ्ठा करते रहे और खुद को केवल धार्मिक कामों में सीमित रखा।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुसलमान दो हिस्सों में बंट गए, एक वर्ग इमामत पर यकीन रखता था और दूसरा खिलाफत पर. इमामत पर यकीन रखने वाले दल का मानना था कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) के उत्तराधिकारी का फैसला केवल अल्लाह की तरफ से हो सकता है और हज़रत मोहम्मद अपने दामाद हज़रत अली को पहले ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुके थे. जबकि दूसरे दल का मानना था कि केवल मदीने के पवित्र नगर में आबाद मुसलमान मिल कर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का उत्तराधिकारी चुन सकते हैं।
दो वर्ष बाद हज़रत अबू बक़र का निधन हो गया और मरते समय उन्होंने अपने दोस्त हज़रत उमर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया।
हज़रत उमर ने लगभग ग्यारह साल तक राज किया और एक जानलेवा हमले में घायल होने के बाद नए खलीफा का चयन करने के लिए छः सदस्यों की एक कमिटी बना दी. इस कमिटी के सामने खलीफा के पद के लिए दो नाम थे. एक हज़रत अली का और दूसरा हज़रत उस्मान का. इस कमिटी मैं एक व्यक्ति को वीटो पावर भी हासिल थी। समिति ने हज़रत अली से जब यह जानना चाहा कि वे अपने से पहले शासक रह चुके दो खलीफाओं की नीतियों पर चलेंगे? तो हज़रत अली ने कहा कि वे केवल पैग़म्बरे इस्लाम (स) और पवित्र कुरान का अनुसरण करने को बाध्य हैं। इस जवाब के बाद और वीटो पावर की बुनियाद पर हज़रत उस्मान को ख़लीफा बना दिया गया। हज़रत उस्मान के शासन काल में उनकी नीतियों से मुसलमानों में बहुत असंतोष फैल गया। ख़ास तौर पर उनके द्वारा नियुक्त किये गए एक अधिकारी मर-वान ने लोगों को बहुत सताया। मुस्लिम समुदाय मर-वान के ज़ुल्मो के खिलाफ दुहाई देने के लिए मदीने में जमा हुआ मगर उनको इंसाफ के बदले धोखा मिला, तत्पश्चात मुसलमानों में उग्रवाद फैल गया और एक क्रुद्ध भीड़ ने हज़रत उस्मान की हत्या कर दी. शासक द्वारा आम जनता का खून बहाना तो सदियों से एक मामूली सी बात है लेकिन किसी शासक की आम जनता द्वारा हत्या अपने आप में एक अभूतपूर्व घटना थी. इसने सारे मुस्लिम जगत को हिला कर रख दिया और शासको तक यह पैग़ाम भी पहुँच गया की किसी भी मुस्लिम शासक को शासन के दौरान अपनी नीतियों को लागू करने का अधिकार नहीं है बल्कि केवल कुरान और सुन्नत(पैग़म्बरे इस्लाम (स) का आचरण) ही शासन की बुनियाद हो सकता है।
हज़रत अली और उनके विरोधी
हज़रत उस्मान की हत्या के बाद तीन दिन तक स्थिति बहुत ही ख़राब रही। मदीने में अफरातफरी का माहोल था, ऐसे में जनता की उम्मीद का केंद्र एक बार फिर पैग़म्बरे इस्लाम (स) का घर हो गया. हजारों नर-नारी बनीहाशिम के मोहल्ले में उस पवित्र घर पर आशा की नज़रें टिकाये थे, जहाँ हज़रत अली (अ) रहते थे। इन लोगो ने फ़रियाद की कि दुःख की इस घडी में हज़रत अली (अ) खिलाफत का पद संभालें। इस बार न तो सकीफ़ा जैसी चुनावी प्रक्रिया अपनाई गई न ही किसी ने हज़रत अली (अ) को मनोनीत किया और न कोई ऐसी कमिटी बनी जिसमें किसी को वीटो पावर प्राप्त थी।
हज़रत अली (अ) ने जनता के आग्रह को स्वीकार किया और खिलाफत संभाल ली. लेकिन खलीफा के पद पर बैठते ही हज़रत अली (अ) के विरोधी सक्रिय हो गए. पहले तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की एक पत्नी हज़रत आयशा को यह कह कर भड़काया गया कि हज़रत उस्मान के क़ातिलों को हज़रत अली (अ) सजा नहीं दे रहे हैं और इस तरह के इलज़ाम भी लगाये गए की जैसे खुद हज़रत अली (अ) भी हज़रत उस्मान की हत्या में शामिल रहे हो। जब्कि हज़रत अली (अ) ने हज़रत उस्मान और उनके विरोधियों के बीच सुलह सफाई करवाने की पूरी कोशिश की और घेराव के दौरान उनके लिए खाना पानी अपने बेटों हज़रत हसन और हज़रत हुसैन (अ) के हाथ लगातार भेजा. हज़रत आयशा जो पहले खलीफा हज़रत अबू बक़र की बेटी थीं, अनेक कारणों से हज़रत अली (अ) से नाराज़ रहती थीं. वह ख़िलाफ़त की गद्दी पर अपने पिता के पुराने मित्रों तल्हा और ज़ुबैर को देखना चाहती थीं।
जब लोगों ने क़त्ले उस्मान को लेकर उनके कान भरे तो उन्हें हज़रत अली (अ) से पुरानी दुश्मनी निकालने का मौका मिल गया. उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर हमला कर दिया और इस अभियान को क़त्ले-उस्मान का इंतिकाम लेने वाला जिहाद करार दिया। यहीं से जिहाद के नाम को बदनाम करने का सिलसिला शुरू हुआ। जब्कि हज़त उस्मान का क़त्ल मिस्र देश के दूसरे भागों से आये हुए असंतुष्ट लोगो के हाथो हुआ था. मगर हज़रत आयशा इस का इंतिकाम हज़रत अली (अ) से लेना चाहती थीं।
उन्होंने हमले के लिए इराक के बसरा नगर को चुना क्योंकि वहां पर हज़रत अली (अ) के शिया मित्र बड़ी संख्या में रहते थे। बसरा के गवर्नर उस्मान बिन हनीफ़ को हज़रत आयशा की सेना ने बहुत अपमानित किया। हनीफ, हज़रत आयशा की सेना का सही ढंग से मुकाबला नहीं कर सके क्योंकि हज़रत अली (अ) की इस्लामी सेनाएं उस वक़्त तक बसरा में पहुँच नहीं सकीं थीं।
हुनैन ने इस घटना की जानकारी जीकार के स्थान पर मौजूद हज़रत अली (अ) तक पहुंचाई। हज़रत अली (अ) ने विभिन्न लोगो से हज़रत आयशा तक यह सन्देश भिजवाया कि वह युद्ध से बाज़ आ जाए और अपने राजनितिक मकसद को पूरा करने के लिए मुसलामानों का खून न बहाएं मगर वो राज़ी नहीं हुई।
हिजरत के 36 वें वर्ष में इराक़ के बसरा नगर में हज़रत अली (अ) और हज़रत आयशा की सेनाओ के बीच युद्ध हुआ. इस जंग को जंग-ए-जमल भी कहते हैं क्योंकि इस युद्ध में हज़रत आयशा ने अपनी सेना का नेतृत्व ऊँट पर बेठ कर किया था और ऊँट को अरबी भाषा में जमल कहा जाता है।
इस जंग का नतीजा भी वही हुआ जो इस से पहले की तमाम इस्लामी जंगो का हुआ था, जिसमें नेतृत्व हज़रत अली (अ) के हाथों में था। हज़रत आयशा की सेना को मात मिली। हज़रत आयशा जिस ऊँट पर सवार थीं जंग के दौरान उस से नीचे गिरी, हज़रत अली (अ) ने उनको किसी प्रकार की सज़ा देने के बदले उनको पूरे सम्मान के साथ उनके छोटे भाई मोहम्मद बिन अबू बक़र और चालीस महिला सिपाहियों के संरक्षण में मदीने वापस भेज दिया. इस तरह उन इस्लामी आदर्शों की हिफ़ाज़त की जिनके तहत महिलाओं के मान सम्मान का ख्याल रखना ज़रूरी है। हज़रत अली (अ) की तरफ से अच्छे बर्ताव का ऐसा असर हुआ कि हज़रत आयशा राजनीति से अलग हो गईं। इस युद्ध के बाद और इस्लामी शासन के लिए लगातार बढ़ रहे खतरे को देखते हुआ हज़रत अली (अ) ने इस्लामी सरकार की राजधानी मदीने से हटा कर इराक के कूफा नगर में स्थापित कर दी।
इस जंग के बाद कबीले वाद की पुश्तेनी दुश्मनी ने एक बार फिर सर उठाया और उमय्या वंश के एक सरदार अमीर मुआविया ने हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इसका एक कारण यह भी था की पैग़म्बरे इस्लाम (स) के निधन के बाद इस्लामी नेतृत्व दो हिस्सों में बँट गया था, एक को इमामत और दूसरे को ख़िलाफ़त कहा जाता था।
इमामों पर विशवास रखने वाले दल को यकीन था की इमाम व पैग़म्बर सिर्फ अल्लाह द्वारा चुने होते हैं। जबकि खिलाफत पर विश्वास रखने वाले दल का मानना था की पैग़म्बर अल्लाह की तरफ से नियुक्त होते हैं लेकिन उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार जनता को प्राप्त है या कोई ख़लीफ़ा मरते वक़्त किसी को मनोनीत कर सकता था अथवा कोई ख़लीफ़ा मरते समय एक चयन समिति बना सकता था. इन्हीं मतभेदों को लेकर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद मुस्लिम समाज दो बागों में बंट गया।
खिलाफत पर यकीन रखने वाला दल संख्या में ज्यादा था और इमामत पर यकीन रखने वालों की संख्या कम थी। बाद में कम संख्या वाले वर्ग को शिया और अधिक संख्या वाले दल को सुन्नी कहा जाने लगा लेकिन जब हज़रत अली (अ) ख़लीफ़ा बने तो इमामत और खिलाफत सा संगम हो गया और मुसलमानों के बीच पड़ी दरार मिट गई। यही एकता इस्लाम के पुराने दुश्मनों को पसंद नहीं आई और उन्होंने मुसलामानों के बीच फसाद फैलाने की ग़रज़ से तरह तरह के विवाद को जन्म देना शुरू कर दिए और मुसलामानों का खून पानी की तरह बहने लगा।
अमीर मुआविया ने पहले तो क़त्ले उस्मान के बदले का नारा लगाया लेकिन बाद में ख़िलाफ़त के लिए दावेदारी पेश कर दी. मुआविया ने ताक़त और सैन्य बल के ज़रिये सत्ता पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश के तहत सीरिया के प्रान्त इस्लामी राज्य से अलग करने की घोषणा कर दी। मुआविया को हज़रत उस्मान ने सीरिया का गवर्नर बनाया था। दोनों एक ही काबिले बनी उम्म्या से ताल्लुक अखते थे, फिर मुआविया ने एक बड़ी सेना के साथ हज़रत अली (अ) के इस्लामी शासन पर धावा बोल दिया और इस को भी जिहाद का नाम दिया. जबकि यह इस्लामी शासन के खिलाफ खुली बगावत थी।
हिजरत के 39वे वर्ष में सिफ्फीन नामन स्थान पर इस्लामी सेनाओं और सीरिया के गवर्नर अमीर मुआविया के सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ. मुआविया की सेनाओ ने रणभूमि में पहले पहुँच कर पानी के कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया और हज़रत अली की सेना पर पानी बंद करके मानवता के आदर्शो पर पहला वार किया. हज़रत अली की सेनाओं ने जवाबी हमला करके कुओं पर क़ब्ज़ा कर लिया. लेकिन इस बार किसी पर पानी बंद नहीं हुआ और मुआविया की फ़ौज भी उसी कुएं से पानी लेती रही जिस पर अली वालों का क़ब्ज़ा था. इस युद्ध में जब हज़रत अली की सेना विजय के नज़दीक पहुँच गई और इस्लामी सेना के कमांडर हज़रत मालिक-ए-अश्तर ने दुश्मन फ़ौज के नेता मुआविया को लगभग घेर लिया तो बड़ी चालाकी से सीरिया की सेना ने पवित्र कुरान की आड़ ले ली और क़ुरान की प्रतियों को भालो पर उठा कर आपसी समझोते की बात करना शुरू कर दी. अंत में शांति वार्ता के ज़रिये से युद्ध समाप्त हो गया.
हज़रत अली के प्रतिनिधि अबू मूसा अशरी के साथ धोका किये जाने के साथ ही सुलह का यह प्रयास विफ़ल हो गया और एक बार फिर जंग के शोले भड़क उठे. अबू मूसा के साथ धोका होने की वजह से हज़रत अली की सेना के सिपाहियों द्वारा फिर से युद्ध शुरू करने के आग्रह और समझोता वार्ता से जुड़े अन्य मुद्दों को लेकर हज़रत अली के सेना का एक टुकड़ा बाग़ी हो गया. इस बाग़ी सेना से हज़रत अली को नहर-वान नामक स्थान पर जंग करनी पड़ी. हज़रत अली से टकराने के कारण इस दल को इस्लामी इसिहास मैं खारजी(निष्कासित) की संज्ञा दी गई है.
हज़रत अली की सेना में फूट और मुआविया के साथ शांति वार्ता नाकाम होने के बाद सीरिया में मुआविया ने सामानांतर सरकार बना ली. इन लडाइयों के नतीजे मैं मुस्लिम समाज चार भागो में बंट गया. एक वर्ग हज़रत अली को हर तरह से हक़ पर समझता था. इस वर्ग को शिया आने अली कहा जाता है. यह वर्ग इमामत पर यकीन रखता है और हज़रत अली से पहले के तीन खलीफाओं को मान्यता नहीं देता है. दूसरा वर्ग मुआविया की हरकातो को उचित करत देता था. इस ग्रुप को मुआविया का मित्र कहा जाता है. यह वर्ग मुआविया और यजीद को इस्लामी ख़लीफ़ा मानता है. तीसरा वर्ग ऐसा है जो कि मुआविया और हज़रत अली दोनों को ही अपनी जगह पर सही क़रार देता है और दोनों के बीच हुई जंग को ग़लतफ़हमी का नतीजा मानता है, इस वर्ग को सुन्नी कहा जाता है(लेकिन इस वर्ग ने भी मुआविया को अपना खलीफा नहीं माना). चौथे ग्रुप की नज़र में………………….
हज़रत अली की सेनाओं को कमज़ोर पाकर मुआविया ने मिश्र में भी अपनी सेनाएं भेज कर वह के गवर्नर मोहम्मद बिन अबू बक़र(जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पत्नी हज़रत आयशा के छोटे भाई और पहले खलीफा अबू बक़र के बेटे थे) को गिरफ्तार कर लिया और बाद में उनको गधे की खाल में सिलवा कर ज़िन्दा जलवा दिया. इसी के साथ मुआविया ने हज़रत अली के शासन के तहत आने वाले गानों और देहातो में लोगो को आतंकित करना शुरू कर दिया. बेगुनाह शहरियों को केवल हज़रत अली से मोहब्बत करने के जुर्म में क़त्ल करने का सिलसिला शुरू कर दिया गया. इस्लामी इतिहास की पुस्तक अल-नसायह अल काफ़िया में हज़रत अली के मित्रो को आतंकित करने की घटनाओं का बयान इन शब्दों में किया गया है: “अपने गुर्गों और सहयोगियों की मदद से मुआविया ने हज़रत अली के अनुयाइयों में सबसे अधिक शालीन और श्रेष्ट व्यक्तियों के सर कटवा कर उन्हें भालों पर चढ़ा कर अनेक शहरो में घुमवाया. “इस युग में ज़्यादातर लोगों को हज़रत अली के प्रति घृणा प्रकट करने के लिए मजबूर किया जाता अगर वो ऐसा करने के इनकार करते तो उनको क़त्ल कर दिया जाता.
हज़रात अली की शहादत
अपनी जनता को इस आतंकवाद से छुटकारा दिलाने के लिए हज़रत अली ने फिर से इस्लामी सेना को संगठित करना शुरू किया. हज़रत इमाम हुसैन, क़ेस बिन सअद और अबू अय्यूब अंसारी को दस दस हज़ार सिपाहियों की कमान सोंपी गई और खुद हज़रत अली के अधीन 29 हज़ार सैनिक थे और जल्द ही वो मुआविया की सेना पर हमला करने वाले थे, लेकिन इस के पहले कि हज़रत अली मुआविया पर हमला करते, एक हत्यारे अब्दुल रहमान इब्ने मुल्ज़िम ने हिजरत के 40वें वर्ष में पवित्र रमज़ान की 18वी तारीख़ को हज़रत अली कि गर्दन पर ज़हर में बुझी तलवार से उस समय हमला कर दिया जब वो कूफ़ा नगर की मुख्य मस्जिद में सुबह की नमाज़ का नेतृत्व(इमामत) कर रहे थे और सजदे की अवस्था में थे. इस घातक हमले के तीसरे दिन यानी 21 रमज़ान (28 जनवरी 661 ई०) में हज़रत अली शहीद हो गए. इस दुनिया से जाते वक़्त उनके होटों पर यही वाक्य था कि “रब्बे क़ाबा(अल्लाह) कि कसम, में कामयाब हो गया”. अपनी ज़िन्दगी में उन्होंने कई लड़ाइयाँ जीतीं. बड़े-बड़े शूरवीर और बहादुर योद्धा उनके हाथ से मारे गए मगर उन्होंने कभी भी अपनी कामयाबी का दावा नहीं किया. हज़रत अली की नज़र में अल्लाह कि राह मैं शहीद हो जाना और एक मज़लूम की मौत पाना सब से बड़ी कामयाबी थी. लेकिन जंग के मैदान में उनको शहीद करना किसी भी सूरमा के लिए मुमकिन नहीं था. शायद इसी लिए वो अपनी इस क़ामयाबी का ऐलान कर के दुनिया को बताना चाहते थे कि उन्हें शहादत भी मिली और कोई सामने से वार करके उन्हें क़त्ल भी नहीं कर सका. वे पहले ऐसे व्यक्ति हैं जो क़ाबा के पावन भवन के अन्दर पैदा हुए और मस्जिद में शहीद हुए।
हज़रत अली ने अपने शासनकाल में न तो किसी देश पर हमला किया न ही राज्य के विस्तार का सपना देखा. बल्कि अपनी जनता को सुख सुविधाएँ देने की कोशिश में ही अपनी सारी ज़िन्दगी कुर्बान कर दी थी. वो एक शासक की तरह नहीं बल्कि एक सेवक की तरह ग़रीबों, विधवा औरतों और अनाथ बच्चों तक सहायता पहुँचाते थे. उनसे पहले न तो कोई ऐसा शासक हुआ जो अपनी पीठ पर अनाज की बोरियाँ लादकर लोगों तक पहुँचाता हो न उनके बाद किसी शासक ने खुद को जनता की खिदमत करने वाला समझा।
हज़रत अली के बाद उनके बड़े बेटे हज़रत इमाम हसन ने सत्ता संभाली, लेकिन अमीर मुआविया की और से उनको भी चैन से बेठने नहीं दिया गया. इमाम हसन के अनेक साथियों को आर्थिक फ़ायदों और ऊँचे पदों का लालच देकर मुआविया ने हज़रत हसन को ख़लीफ़ा के पद से अपदस्थ करने में कामयाबी हासिल कर ली. हज़रत हसन ने सत्ता छोड़ने से पहले अमीर मुआविया के साथ एक समझौता किया।
26 जुलाई 661ई० को इमाम हसन और अमीर मुआविया के बीच एक संधि हुई जिसमें यह तय हुआ कि मुआविया की तरफ से धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं होगा. (2) हज़रत अली के साथियों को सुरक्षा प्रदान की जाएगा. (3) मुआविया को मरते वक़्त अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं होगा.(4) मुआविया की मौत के बाद ख़िलाफ़त(सत्ता) पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के किसी विशिष्ट व्यक्ति को सौंप दी जायेगी।
समझोते का एहतराम करने के स्थान पर मुआविया की और से पवित्र पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार के सदस्यों और हज़रत अली के चाहने वालों को प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया. इसी नापाक अभियान की एक कड़ी के रूप में इमाम हसन को केवल 47 वर्ष की उम्र में एक महिला के ज़रिये ज़हर दिलवा कर शहीद कर दिया गया।
अमीर मुआविया ने इमाम हसन के साथ की गई संधि को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने के बाद इस को रद्दी की टोकरी में डाल कर अपने परिवार का शासन स्थापित कर दिया. मुआविया को अपने खानदान का राज्य स्थापित करने में तो कामयाबी मिल गई लेकिन मुआविया का खलीफा बनने का सपना पूरा नहीं हो सका. मुआविया ने लगभग 12 वर्ष राज किया और जिहाद के नाम पर दूसरे देशों पर हमला करने का काम शुरू करके जिहाद जैसे पवित्र काम को बदनाम करना शुरू किया. इस के अलावा मुआविया ने इस्लामी आदर्शों से खिलवाड़ करते हुए एक ऐसी परंपरा शुरू की जिसकी मिसाल नहीं मिलती. इस नजिस पॉलिसी के तहत उस ने हज़रत अली और उनके परिवार जनों को गालियाँ देने के लिए मुल्ला किराए पर रखे. अमीर मुआविया ने अपने जीवन की सबसे बड़ी ग़लती यह की कि अपने जीवन में ही अपने कपूत यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया।
इन सब हरकतों का नतीजा यह हुआ की समस्त मुसलामानों ने ख़िलाफ़त के सिलसिले को समाप्त मान कर इमाम हसन के बाद खिलाफत-ए-राशिदा(सही रास्ते पर चलने वाले शासकों) के ख़त्म हो जाने का ऐलान कर दिया. इस तरह मुआविया को सत्ता तो मिल गई लेकिन मुसलामानों का भरोसा हासिल नहीं हो सका।
यजीद ही सत्ता अगले लेख में