पत्नियों पे तोहमत लगाने का दंड |... सूरए नूर, आयतें 15-23
सूरए नूर, आयतें 15-23, सूरए नूर की आयत क्रमांक 15 और 16 जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर लाते ...
https://www.qummi.com/2016/03/15-23.html
सूरए नूर, आयतें 15-23,
सूरए नूर की आयत क्रमांक 15 और 16
जब तुम उस (झूठ बात) को एक दूसरे से (सुन कर) अपनी ज़बानों पर लाते रहे और अपने मुँह से वह कुछ कहते रहेजिसके विषय में तुम्हें कोई ज्ञान ही न था और तुम उसे एक साधारण बात समझ रहे थेजबकि ईश्वर के निकट वह एक भारी बात है। (24:15) और क्यों जब तुमने उस (आरोप) को सुना तो यह नहीं कहा किहमारे लिए उचित नहीं कि हम ऐसी बात ज़बान पर लाएँ। (प्रभुवर!) तू (हर त्रुटि से) पवित्र है। यह तो एक बड़ा लांछन है? (24:16)
इससे पहले हमने कहा था कि मदीने के मिथ्याचारियों के एक गुट ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर बड़ा आरोप लगाया और मुसलमानों ने भी इस प्रकार का आरोप लगाने और अफ़वाह फैलाने वालों के साथ कड़ा व्यवहार करने के बजाए, इस बात को दूसरों तक स्थानांतरित किया। इससे पैग़म्बर और उनकी पत्नी को बहुत अधिक दुख हुआ।
ईश्वर इन आयतों में कहता है कि जब तुम्हें उस बात पर विश्वास नहीं था तो तुमने क्यों उसे एक दूसरे को बताया और दूसरों के सम्मान के साथ खिलवाड़ किया? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं था कि दूसरों के बारे में जो बातें तुम सुनते हो उन्हें अकारण दूसरों को नहीं बताना चाहिए और वह भी इतना बड़ा लांछन जो तुम्हारे पैग़म्बर की पत्नी पर लगाया जा रहा था?
यह आयत दो महत्वपूर्ण सामाजिक दायित्वों की ओर संकेत करती है, प्रथम तो यह कि जो कुछ तुम सुनते हो उसे अकारण स्वीकार न कर लिया करो ताकि समाज में अफ़वाहें फैलाने वालों को रोका जा सके क्योंकि संभव है कि इससे कुछ लोगों की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जाए कि यह इस्लाम की दृष्टि में बड़ा निंदनीय कार्य है।
इन आयतों से हमने सीखा कि जो बात लोगों की ज़बान पर होती है उसे बिना जांचे परखे स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए।
आरोपों को दूसरों तक पहुंचना और किसी के सम्मान को मिट्टी में मिलाना बड़ा सरल कार्य है किंतु ईश्वर की दृष्टि में यह अत्यंत बुरा व निंदनीय है।
दूसरों के सम्मान की रक्षा, समाज के सभी सदस्यों का दायित्व है। सुनी हुई बातों को फैलाने के बजाए, अफ़वाह फैलाने वाले के साथ कड़ा व्यवहार करना चाहिए।
सूरए नूर की आयत क्रमांक 17 और 18
ईश्वर तुम्हें नसीहत करता है कि यदि तुम मोमिन हो तो फिर कभी ऐसा न करना।(24:17) और ईश्वर अपनी आयतों को तुम्हारे लिए स्पष्ट रूप से बयान करता है। और ईश्वर तो अत्यंत ज्ञानी वतत्वदर्शी है। (24:18)
चूंकि ईश्वर के निकट दूसरों पर आरोप लगाना और वह भी नैतिक मामलों में, अत्यंत महत्वपूर्ण बात है इस लिए यह आयत एक बार फिर उसकी ओर संकेत करते हुए कहती है कि ईश्वर एक दयालु व कृपालु पिता की भांति, जो अपने बच्चे को समझाता है ताकि वह पुनः ग़लती न कर बैठे, तुम्हें नसीहत करता है कि ध्यान रखो कि इस्लामी समाज में इस प्रकार की ग़लती पुनः न होने पाए क्योंकि यह कार्य ईमान के प्रतिकूल है।
यदि अतीत में तुमने अज्ञानता या निश्चेतना के चलते इस प्रकार की ग़लती कर दी तो अब जबकि तुम्हें उसका पता चल गया है तो न केवल उससे तौबा करो बल्कि यह संकल्प भी करो कि अब भविष्य में कभी ऐसी ग़लती नहीं करोगे और जान लो कि ईश्वर तुम्हारे कार्यों, विचारों और नीयत से अवगत है।
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य को नसीहत व उपदेश की आवश्यकता होती है और क़ुरआने मजीद उपदेश की सबसे अच्छी किताब है अतः हमें उसे पढ़ना चाहिए और उसकी आयतों से नसीहत लेनी चाहिए।
दूसरों पर आरोप लगाना, जिसका मुख्य कारण उनके बारे में बुरे विचार हैं, ईमान की कमज़ोरी का चिन्ह है।
सबसे अच्छी नसीहत, पापों से तौबा करना है कि जो पिछले पापों को भी धो देती है और भविष्य में भी पापों को दोहराने से मनुष्य को रोक देती है।
सूरए नूर की आयत क्रमांक 19 और 20
निःसंदेह जो लोग यह चाहते है कि ईमान वालों के बीच अश्लीलता फैल जाए, उनके लिए लोक परलोक में पीड़ादायक दंड है और (इसे) ईश्वर जानता है और तुम नहीं जानते। (24:19) और यदि तुम पर ईश्वर का अनुग्रह और उसकी दया न होती और यह कि ईश्वर बड़ा करुणामयव अत्यन्त दयावान है (तो अवश्य ही तुम इसी संसार में कड़े दंड में ग्रस्त हो जाते।) (24:20)
इन आयतों में ईश्वर दूसरों पर आरोप लगाने की बुराई को बहुत बड़ा पाप बताते हुए कहता है कि न केवल यह कि दूसरों पर आरोप लगाना और समाज में इस आरोप को प्रचलित करना बड़ा पाप है बल्कि यदि कोई दिल से यह चाहता हो कि किसी ईमान वाले का अनादर करे ताकि लोगों के बीच उसे बुराई के साथ याद किया जाए तो यह आंतरिक इच्छा भी पाप है, चाहे वह इसके लिए व्यवहारिक रूप से कुछ भी न करे।
यद्यपि इस्लामी संस्कृति में पाप करने के इरादे को पाप नहीं समझा जाता किंतु दो मामलों में क़ुरआने मजीद ने आंतरिक इच्छा और इरादे को भी पाप बताया है। प्रथम दूसरों के बारे में बुरे विचार रखना कि इस संबंध में वह कहता है कि निश्चित रूप से कुछ बुरे विचार, पाप हैं। और दूसरे, अन्य लोगों के अनादर पर मन से राज़ी रहना कि यदि व्यक्ति इस संबंध में कुछ न भी करे तब भी उसने पाप किया है।
स्वाभाविक है कि ईश्वर के अतिरिक्त कोई भी लोगों के आंतरिक इरादों से अवगत नहीं है और हम उन लोगों को नहीं पहचानते जो दूसरों का अपमान व अनादर करना चाहते हैं किंतु ईश्वर अपनी दया व कृपा के चलते उन्हें दंडित करने में जल्दी नहीं करता कि शायद वे तौबा करके सुधर जाएं।
अलबत्ता जो लोग व्यवहारिक क़दम उठाते हुए दूसरों का अपमान करते हैं और उन पर व्यभिचार का आरोप लगाते हैं उन्हें इस संसार में भी दंडित किया जाता है और अस्सी कोड़े मारे जाते हैं तथा प्रलय में भी अत्यंत कड़ा दंड उनकी प्रतीक्षा में है।
इन आयतों से हमने सीखा कि पाप की इच्छा रखना, पाप की भूमिका है। सभी पापों के बीच वह एकमात्र पाप जिसकी इच्छा रखना भी बड़ा पाप है, दूसरों पर व्यभिचार का आरोप लगाना और उनका अपमान करना है।
इस्लामी समाज में बुराइयों का प्रसार, चाहे वह कथन द्वारा हो या व्यवहार द्वारा, मनुष्य के लोक-परलोक दोनों को तबाह कर देता है।
सूरए नूर, आयतें 21-23,
हे ईमान वालो! शैतान के पद चिन्हों पर न चलो और जो कोई शैतान के पद चिन्हों पर चलेगा तो वह उसे अश्लीलता और बुराई का ही आदेश देगा। और यदि तुम पर ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती तो तुममें से कोई भी (पाप में ग्रस्त होने से) पवित्र नहीं रह सकता था किन्तु ईश्वर जिसे चाहता है, पवित्र बना देता है और ईश्वर सब कुछ सुनने वाला औरजानकार है। (24:21)
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाए जाने की घटना से संबंधित आयतों की समाप्ति के बाद यह आयत एक मूल विषय की ओर संकेत करते हुए कहती है कि शैतान की ओर से सदैव सचेत रहना चाहिए क्योंकि वह धीरे-धीरे पथभ्रष्टता और पतन की ओर ले जाता है।
इस आयत में प्रयोग होने वाला ख़ुतुवाते शैतान अर्थात शैतान के पद चिन्ह का शब्द क़ुरआने मजीद की चार आयतों में आया है ताकि लोगों को इस बड़े ख़तरे की ओर से सावधान करे कि शैतान, मनुष्य को क़दम-क़दम पाप के लिए उकसाता है। हर पाप, मनुष्य के विचार व उसकी आत्मा में पथभ्रष्टता पैदा करता है और उसे दोहराए जाने से अधिक बड़े पाप का मार्ग प्रशस्त होता है यहां तक कि मनुष्य पतन की खाई में गिर पड़ता है।
क़ुरआने मजीद, शैतान के बहकावों और उसके कार्यों की पहचान के लिए एक स्पष्ट मानदंड प्रस्तुत करता है और वह यह कि हर वह कार्य बुरा है जिसकी बुराई को, स्वस्थ बुद्धि वाला व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के आधार पर समझ लेता है, जैसे विश्वास घात, झूठा आरोप लगाना, चोरी, हत्या और इसी प्रकार के अन्य बुरे कर्म।
अलबत्ता तत्वदर्शी एवं दयालु ईश्वर ने, शैतान के बहकावों और आंतरिक उकसावों को नियंत्रित करने के लिए मनुष्य को आंतरिक व बाहरी साधन प्रदान किए हैं। बुद्धि व प्रवृत्ति भीतर से और पैग़म्बर तथा ईश्वरीय किताब बाहर से निरंतर मनुष्य को सावधान करते रहते हैं और उसे जीवन का सही मार्ग दिखाते हैं। यदि ये न होते तो आंतरिक इच्छाएं भीतर से और शैतान के बहकावे बाहर से सदैव मनुष्य को बुरे कर्मों की ओर धकेलते रहते और सभी को पापों व अपराधों में ग्रस्त कर देते।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान वाले अपने ईमान पर कभी भी घमंड न करें और स्वयं को मुक्ति प्राप्त न समझें क्योंकि मनुष्य सदैव ही शैतान के उकसावों और पथभ्रष्टता के ख़तरे में ग्रस्त रहता है।
शैतान धीरे-2, क्रमशः और क़दम क़दम करके मनुष्य की आत्मा में पैठ बनाता है अतः हमें उसके प्रभाव के सभी मार्गों की ओर से सावधान रहना चाहिए और पहले ही क़दम से उसकी ओर से सचेत हो जाना चाहिए।
सूरए नूर की आयत क्रमांक 22
और तुममें जो संपन्न और सामर्थ्यवान हैं, वे यह सौगंध न खाएं कि नातेदारों, ग़रीबों और ईश्वर के मार्ग में पलायन करने वालों को धन नहीं देंगे (बल्कि) उन्हें चाहिए कि (उनकी ग़लतियों को) क्षमा कर दें और उन्हें माफ़ कर दें। क्या तुम यह नहीं चाहते कि ईश्वर तुम्हें क्षमा करे? और ईश्वर तो बहुत क्षमाशील और अत्यन्त दयावान है। (24:22)
पिछली आयतों में उन लोगों की कड़ी आलोचना की गई थी कि जिन्होंने पैग़म्बर की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाया था और ईश्वर ने इस मामले में ढिलाई के कारण मुसलमानों के साथ कड़ा व्यवहार किया था। इसके बाद कुछ धन संपन्न लोगों ने यह निर्णय किया कि वे पैग़म्बर की पत्नी पर लगे आरोप को फैलाने वालों की किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं करेंगे चाहे वे उनके अपने परिजन ही क्यों न हों। ईश्वर ने यह आयत भेजी और उन्हें इस कार्य से रोका। शायद इसका कारण यह था कि ग़रीबों और वंचितों की सहायता रोकना, चाहे वे अपराधी ही क्यों न हों, उन्हें दंडित करने की सही शैली नहीं है बल्कि उनकी सहायता जारी रख कर और उनसे सामाजिक संबंधों को बनाए रख कर ऐसा कार्य करना चाहिए कि उन्हें अपनी ग़लती का आभास हो जाए और वे इस्लामी समाज की क्षमा के पात्र बन जाएं।
आगे चल कर आयत एक महत्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत करती है और कहती है कि क्या अब तक तुमने कोई ग़लती नहीं की है? इस स्थिति में तुम्हें ईश्वर से क्या अपेक्षा है? तौबा व प्रायश्चित के लिए समय व मोहलत देने की अपेक्षा या शीघ्र ही कोप व दंड भेजने की अपेक्षा? यदि तुम्हें ईश्वर से क्षमा की आशा है तो तुम भी उसके ग़लती करने वाले बंदों को क्षमा करो।
इस आयत से हमने सीखा कि जो दूसरों की ग़लतियों को क्षमा करता है और अपने धन से उनकी सहायता भी करता है, वह ईश्वरीय दया व क्षमा का पात्र बनता है।
ग़लती करने वालों के संबंध में अत्यधिक कड़ाई से काम नहीं लेना चाहिए और उन पर सभी दरवाज़े नहीं बंद कर देने चाहिए।
किसी का वंचित होना, उसकी आर्थिक सहायता के लिए पर्याप्त शर्त है, उसका सदकर्मी होना आवश्यक नहीं है।
सूरए नूर की आयत क्रमांक 23
निःसंदेह जो लोग पतिव्रता, (बुराई से पूर्णतः) अनभिज्ञ और ईमान वाली महिलाओं पर (व्यभिचार का) लांछन लगाते है उन पर लोक-परलोक में धिक्कार की गई है और उनके लिए बहुत बड़ा दंड (तैयार) है। (24:23)
पैग़म्बर की एक पत्नी पर अनुचित आरोप लगाए जाने संबंधी आयतों के अंत में यह आयत सभी पतिव्रता व पाक दामन महिलाओं के संबंध में एक मूल सिद्धांत के रूप में कहती है कि किसी को भी इस बात का अधिकार नहीं है कि अनैतिक बुराई से दूर किसी ईमान वाली महिला पर अपने ग़लत विचारों या दूसरों से सुनी हुई निराधार बातों के आधार पर व्यभिचार का आरोप लगाए और उसे बेइज़्ज़त कर दे। इस प्रकार के व्यक्ति को जानना चाहिए कि उसका सामना ईश्वर से है और ईश्वर अत्याचाग्रस्त का समर्थन करते हुए उसे अत्यंत कड़ा दंड देगा। उसे लोक-परलोक में अपनी असीम दया से वंचित कर देगा और प्रलय में उसे स्थायी रूप से नरक में डाल देगा।
इस आयत से हमने सीखा कि पतिव्रता महिलाओं के अधिकारों की रक्षा क़ुरआने मजीद और इस्लाम की शिक्षाओं में से है।
महिलाओं को अपने पारिवारिक व सामाजिक संबंधों में ऐसे हर व्यवहार से दूर रहना चाहिए जो उन पर लांछन लगने का मार्ग प्रशस्त करे।