सूरए नूर, आयतें 1-16 व्यभिचार और लांछन लगाने का दंड |

सूरए नूर, आयतें 1-5   अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। यह एक सूरा है, जिसे हमने उतारा है और इस (के आदेशों ...





सूरए नूर, आयतें 1-5


 
अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है। यह एक सूरा है, जिसे हमने उतारा है और इस (के आदेशों के पालन) को अनिवार्य किया है, और हमने इसमें स्पष्ट आयतें उतारी हैं कि शायद तुम शिक्षा प्राप्त करो। (24:1)


क़ुरआने मजीद के चौबीसवें सूरे अर्थात सूरए नूर की चौंसठ आयतें हैं और यह मदीना नगर में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर उतारा गया। इस सूरे की पैंतीसवीं आयत में ईश्वर को आकाशों व धरती का नूर अर्थात प्रकाश बताया गया है और इसी लिए इस सूरे का नाम नूर रखा गया है। इस सूरे की पैंतीसवीं आयत तक ईमान वालों को विवाह करने, गृहस्ती बसाने, नैतिक पवित्रता, अवैध संबंधों से दूरी और इसी प्रकार की बातों की सिफ़ारिश की गई है।



इसके बाद के भाग में ईश्वर की पहचान के बारे में धार्मिक शिक्षाओं, ईश्वरीय पैग़म्बरों के अनुसरण, भले लोगों के शासन की स्थापना, कुछ पारिवारिक मामलों और इसी प्रकार की कुछ अन्य बातों का उल्लेख किया गया है। यद्यपि क़ुरआने मजीद के सभी सूरे और आयतें, ईश्वर की ओर से ही आई हैं किंतु इस सूरे के आरंभ में इस बात को याद दिलाए जाने से उन आयतों और बातों के महत्व का पता चलता है जो सूरए नूर में वर्णित हैं। इनमें से कुछ बातें एकेश्वरवाद से संबंधित हैं जबकि कुछ अन्य पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के बारे में ईमान वाले पुरुषों व महिलाओं से संबंधित हैं।

स्वाभाविक है कि ईश्वर पर ईमान की सुदृढ़ता, सामाजिक स्तर पर पथभ्रष्ट व्यवहार में कमी का मार्ग प्रशस्त करती है और जीवन के मामलों में सुधार का कारण बनती है।

इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद, मुसलमानों के क़ानून की किताब है और उसके आदेशों व शिक्षाओं का पालन अनिवार्य है।

क़ुरआनी शिक्षाएं, निश्चेतना के पर्दों को हटा देती हैं और मनुष्य को उन बातों की याद दिलाती हैं जो उसकी बुद्धि व प्रवृत्ति के अनुकूल होती हैं।



 सूरए नूर की दूसरी और तीसरी आयत



व्यभिचारी महिला और व्यभिचारी पुरुष दोनों में से प्रत्येक को सौ कोड़े मारो और यदि तुम ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हो तो अल्लाह के धर्म (के क़ानून) के पालन में तुम्हें उन पर तरस न आए। और उन्हें दंड देते समय मोमिनों में से कुछ लोग उपस्थित रहें। (24:2) व्यभिचारी पुरुष किसी व्यभिचारी स्त्री या अनेकेश्वरवादी स्त्री से ही निकाह करे और (इसी प्रकार) व्यभिचारी महिला, किसी व्यभिचारी या अनेकेश्वरवादी पुरुष से ही विवाह करे और (उनसे) यह (विवाह) ईमान वालों के लिए वर्जित है। (24:3)



इस्लाम में दंड व पारितोषिक का आधार प्रलय है और सभी को उनके कर्मों का बदला प्रलय में ही दिया जाएगा किंतु ईश्वर ने समाज को पथभ्रष्टताओं व बुराइयों से सुरक्षित रखने हेतु संसार में भी अपराधियों के लिए कुछ दंड निर्धारित कर रखे हैं ताकि समाज में बुराइयों व अराजकता को फैलने से रोका जा सके। इन आदेशों में हत्यारे की जान लेना और चोर की उंगलियां काटना इत्यादि शामिल हैं।

ये आयतें उन लोगों को, जो अवैध यौन संबंधों से दूषित हो चुके हैं, सचेत करती है कि यद्यपि इस अपराध पर उनको प्रलय में दंड दिया जाएगा किंतु ईश्वर ने आदेश दिया है कि इस संसार में भी लोगों के सामने उन्हें कड़ा दंड दिया जाए ताकि अन्य लोगों के लिए पाठ रहे।

अलबत्ता जब तक पाप खुल कर सामने नहीं आ जाता तब तक ईश्वर किसी की बदनामी का इच्छुक नहीं है और वह किसी की टोह में रहने की भी अनुमति नहीं देता किंतु उन लोगों को, जिन्हें अवैध संबंधों पर किसी प्रकार की शर्म नहीं आती, दंडित न किया जाए तो फिर वे समाज में बुराई और अनैतिकता फैलाने लगते हैं। यही कारण है कि ईश्वर ने इस प्रकार के लोगों के लिए कड़ा दंड निर्धारित किया है ताकि यह दंड उनके लिए भी और अन्य लोगों के लिए भी पाठ बन जाए।

आगे चल कर आयतों में व्यभिचारी पुरुषों व स्त्रियों से भले व पवित्र पुरुषों व महिलाओं के विवाह से रोका गया है। इसका कारण यह है कि पवित्र लोग, व्यभिचारी लोगों की संगत से पथभ्रष्ट और पापों से दूषित हो सकते हैं। एक अन्य कारण यह है कि अवैध संबंधों के कारण अस्तित्व में आने वाले विभिन्न रोगों को समाज में फैलने से रोका जा सके।

इस बात पर ध्यान रहना चाहिए कि इस आयत में व्यभिचारियों को जो सौ कोड़े मारने का आदेश है वह उन महिलाओं व पुरुषों के लिए है जिनके पति अथवा पत्नी नहीं हैं अन्यथा पति या पत्नी होने के बावजूद व्यभिचार करने वालों को मृत्युदंड देने का आदेश है। जिस प्रकार से कि कोई किसी से बलात्कार करे या अपने निकट परिजन से अवैध संबंध स्थापित करे तो उसे भी मृत्युदंड दिया जाता है।

इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम की दृष्टि में अवैध यौन संबंध, बहुत बड़ा पाप है जिसकी सज़ा मृत्युदंड भी हो सकती है।

समाज में अनैतिकता, अश्लीलता व व्यभिचार का प्रचार करने वालों को कड़ा दंड दिया जाना चाहिए और इस संबंध में दया व कृपा की भावनाओं से प्रभावित नहीं होना चाहिए।

अपराधी को दिया जाने वाला दंड उसे पाठ सिखाने और समाज में सार्वजनिक पवित्रता की रक्षा के लिए होता है।

व्यभिचार, किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराने के समान है और मनुष्य को ईमान के मार्ग से हटा देता है।

पति या पत्नी के चयन में उसकी नैतिक पवित्रता मूल शर्तों में से एक है।



 सूरए नूर की चौथी और पांचवीं आयत


और जो लोग पतिव्रता महिलाओं पर (व्यभिचार का) लांछन लगाएँ, (और) फिर चार गवाह (भी) न लाएँ, तो उन्हें अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी भी स्वीकार न करो कि यही लोग वास्तविक अवज्ञाकारी हैं। (24:4) सिवाय उन लोगों के जो इसके पश्चात तौबा कर लें और (अपने आपको) सुधार लें। तो निश्चित रूप से ईश्वर अत्यंत क्षमाशील वदयावान है। (24:5)


व्यभिचारी पुरुषों व महिलाओं को दिए जाने वाले दंड के उल्लेख के बाद संभव था कि यह आदेश कुछ लोगों के हाथों बहाना बन जाए और वे लोगों के निजी जीवन में खोज-बीन करते तथा केवल कल्पना व पूर्वाग्रह के आधार पर पवित्र महिलाओं व पुरुषों पर व्यभिचार का आरोप लगाते, इसी लिए ये आयतें, इस आदेश का दुरुपयोग करके दूसरों पर व्यभिचार का लांछन लगाने वालों के लिए कड़े दंड का उल्लेख करती हैं। इन आयतों में कहा गया है कि इस प्रकार के आरोप को सिद्ध करने के लिए ऐसे चार लोगों की गवाही आवश्यक है जिनका न्यायवादी होना सिद्ध हो अन्यथा आरोप लगाने वाले लोगों को अस्सी कोड़े लगाए जाएंगे।

कुल मिला कर यह कि इस प्रकार के लोगों की बातें मूल्यहीन हैं और भविष्य में भी किसी भी मामले में उनकी गवाही स्वीकार नहीं की जाएगी सिवाय यह कि वे अपने बुरे कर्म को छोड़ दें, ईश्वर के समक्ष तौबा करें और अतीत के पापों का प्रायश्चित करें।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा गया कि हत्या की गवाही के लिए दो लोग ही काफ़ी हैं किंतु व्यभिचार की गवाही के लिए चार लोगों की आवश्यकता क्यों है? तो उन्होंने कहा कि हत्या का गवाह, एक व्यक्ति को दंडित करने के लिए गवाही देता है जबकि व्यभिचार का गवाह दो लोगों अर्थात व्यभिचारी महिला व पुरुष को दंडित करने के लिए गवाही देता है।

इन आयतों से हमने सीखा कि पतिव्रता महिलाओं पर लांछन लगाने का अधिक कड़ा दंड है।



पवित्र लोगों पर व्यभिचार का आरोप लगाने वाले का दंड अर्थात अस्सी कोड़े, व्यभिचारी को दिए जाने वाले दंड अर्थात सौ कोड़े से बहुत कम नहीं है।


ईश्वर के निकट लोगों का सम्मान इतना मूल्यवान है कि जब तक किसी की नैतिक बुराई के चार गवाह न हों, ईश्वर तीन लोगों को उसके पाप को सामने लाने की अनुमति नहीं देता बल्कि स्वयं इन लोगों को दंडित करने का आदेश देता है।

सूरए नूर की आयत क्रमांक छः से दस


और जो लोग अपनी पत्नियों पर (व्यभिचार का) लांछन लगाएं और उनके पास स्वयं के अतिरिक्त गवाह न हों, तो उनमें से प्रत्येक चार बार अल्लाह की क़सम खाकर यह गवाही दे कि वह सच्चों में से है। (24:6) और पाँचवी बार यह कहे कि यदि वह झूठा हो तो उस पर अल्लाह की लानत अर्थात धिक्कार हो। (24:7) और पत्नी का दंड इस प्रकार टल सकता है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खा कर गवाही दे कि वह (उस पर लांछन लगाने में) झूठा है। (24:8) और पाँचवी बार यह कहे कि (स्वयं) उस पर ईश्वर का प्रकोप हो, यदि वह सच्चा हो। (24:9) और यदि तुम पर  ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती (तो तुममें से अनेक कड़े ईश्वरीय दंड में ग्रस्त हो जाते) और यह कि ईश्वर बड़ा तौबा स्वीकार करने वाला और अत्यन्त तत्वदर्शी है। (24:10)




पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि यदि कोई किसी पर व्यभिचार का आरोप लगाए और चार गवाह न ला सके तो स्वयं उसे लांछन लगाने के अपराध में अस्सी कोड़े मारे जाएंगे। ये आयतें इस आदेश में एक अपवाद का उल्लेख करते हुए कहती हैं कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को किसी दूसरे मर्द के साथ देख ले और क़ाज़ी के पास जा कर गवाही दे तो उसे दूसरे गवाह लाने की आवश्यकता नहीं है बल्कि यही पर्याप्त है कि वह चार बार ईश्वर की सौगंध खा कर कहे कि वह सच बोल रहा है और एक बार यह कहे कि यदि मैं झूठ बोल रहा हूं तो मुझ पर ईश्वर की धिक्कार हो।

पति की इन सौगंधों के मुक़ाबले में पत्नी या तो अपने ग़लत कार्य को स्वीकार करके पति के दावे की पुष्टि करेगी या फिर उस कार्य का इन्कार कर देगी। इस स्थिति में उसे अपने बचाव में पुरुष की ही भांति पांच बार सौगंध खानी होगी। इस प्रकार से कि चार बार यह कहे कि ईश्वर की सौगंध! मेरा पति झूठ बोल रहा है और पांचवी बार कहे कि यदि मेरा पति सच बोल रहा हो तो मुझ पर ईश्वर की ओर से कोप आए।

पति व पत्नी की सौगंधों के बाद पति पर से लांछन लगाने का दंड समाप्त हो जाएगा तथा पत्नी पर से व्यभिचार की सज़ा ख़त्म हो जाएगी। अलबत्ता इन सौगंधों के कुछ परिणाम भी हैं, जैसे यह कि वे तलाक़ के बिना ही सदा के लिए एक दूसरे से अलग हो जाएंगे और फिर कभी वे एक दूसरे से विवाह नहीं कर सकेंगे। इस आधार पर जिस मामले में गवाह मौजूद न हो उसमें केवल ईश्वर की सौगंध ही दावे के सिद्ध या रद्द होने का आधार बन सकती है और इसमें महिला व पुरुष में कोई अंतर नहीं है।

इन आयतों से हमने सीखा कि पारिवारिक मामलों में महिला व पुरुष के सम्मान की रक्षा और समाज में अश्लीलता के प्रचलन को रोकने के लिए, स्वयं उन्हीं की बात उनके संबंध में तर्क का दर्जा रखती है और बाहरी गवाहों की आवश्यकता नहीं है।

सौगंधों के बारे में इस्लाम के नियम लोगों के नियंत्रण के लिए हैं ताकि वे एक दूसरे को अपमानित न कर सकें।

इस्लामी समाज में ईश्वर की सौगंध बहुत अधिक पावन होनी चाहिए ताकि कोई अकारण सौगंध खाने या उसे झुठलाने का दुस्साहस न कर सके।



सूरए नूर की आयत क्रमांक ग्यारह



निःसंदेह जिन लोगों ने वह लांछन लगाया वे स्वयं तुम्हारे ही भीतर का एक गुट था। उसे तुम अपने लिए बुरा मत समझो, बल्कि वह तुम्हारे लिए अच्छा ही है (क्योंकि यह पवित्र लोगों की विरक्तता और झूठों के अपमान का कारण है।) उनमें से प्रत्येक व्यक्ति के लिए उतना ही भाग है जितना पाप उसने कमायाऔर उनमें से जिसने उसके एक बड़े भाग का दायित्व अपने सिर लिया उसके लिए बड़ी यातना है। (24:11)




पिछली आयतों में पतिव्रता महिलाओं पर लांछन लगाने के दंड का उल्लेख करने के पश्चात यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल में उनकी एक पत्नी के संबंध में घटने वाली घटना की ओर संकेत करती है। इतिहास की किताबों में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम एक यात्रा में अपनी पत्नी हज़रत आयशा को भी अपने साथ ले गए। मदीना वापसी के समय वे एक निजी काम से कारवां से अलग हो गईं और उससे थोड़ा पीछे रह गईं। पैग़म्बरे इस्लाम के एक साथी ने, जो कारवां से पिछड़ गए थे, आयशा को कारवां तक पहुंचा दिया। कुछ लोगों ने आयशा और पैग़म्बर के उस साथी पर अनुचित आरोप लगाया और यह झूठ, लोगों के बीच फैल गया।

ईश्वर ने यह आयत भेजी और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके साथियों को, जो इस घटना से अत्यंत दुःखी थे, सांत्वना दी कि इस घटना में उनके लिए भलाई निहित है और वह यह कि इससे कुछ मिथ्याचारियों के चेहरे सामने आ गए हैं जिन्हें इस झूठ और अफ़वाह के कारण लोगों ने पहचान लिया है। यह अफ़वाह फैलाने में उनमें से जिसकी, जितनी भी भूमिका होगी उसी के अनुपात से उसे दंडित किया जाएगा। इन मिथ्याचारियों में अब्दुल्लाह इब्ने उबय को, जो मदीने के मिथ्याचारियों का सरग़ना था, यह झूठ और आरोप फैलाने के कारण कड़ा दंड दिया जाएगा।

इस आयत से हमने सीखा कि शत्रु सदैव बाहर से ही वार नहीं करता बल्कि कभी-2 घर के मिथ्याचारी भी अफ़वाह फैला कर चोट पहुंचाते हैं और इस्लामी समाज को अनेक समस्याओं में ग्रस्त कर देते हैं।

सार्वजनिक पापों और अपराधों में हर कोई अपनी भागीदारी के हिसाब से अपराधी होता है। निश्चित रूप से उन लोगों का दंड दूसरों से अधिक कड़ा होता है जो अपराधों और षड्यंत्रों में मुख्य भूमिका निभाते हैं।



सूरए नूर की आयत क्रमांक 12, 13, और 14 



ऐसा क्यों न हुआ कि जब तुम लोगों ने उस (आरोप) को सुना था, तब मोमिन पुरुष और महिलाएं अपने आपसे अच्छी सोच रखते और कहते कि यह तो खुला हुआ लांछन है? (24:12) वे इस पर चार गवाह क्यों न लाए? अब जबकि वे गवाह नहीं लाए, तो ईश्वर के निकट वही झूठे हैं। (24:13) और यदि लोक-परलोक में तुम पर ईश्वर की कृपा और उसकी दया न होती तो जिस बात में तुम पड़ गए उसके कारण निश्चय ही एक बड़ा दंड तुम्हें आ लेता। (24:14)


 ये आयतें उन ईमान वालों को संबोधित करती हैं जो अपने भोलेपन के कारण प्रभावित हो गए और उन्होंने बिना किसी जांच के आरोप की यह अफ़वाह दूसरों तक पहुंचा दी। आयत कहती है कि जब उन्होंने ईमान वालों के बारे में मिथ्याचारियों की बात सुनी तो ईमान वालों के बारे में भला विचार क्यों न रखा और क्यों नहीं कहा कि यह खुला हुआ झूठ है? तुम लोगों को पैग़म्बर की पत्नी की पवित्रता व सतीत्व का विश्वास था और मिथ्याचारियों द्वारा अफ़वाहें फैलाए जाने की बात भी तुम्हारे लिए नई नहीं थी तो तुमने क्यों इस बात को स्वीकार कर लिया? क्यों तुमने उन लोगों से चार गवाह प्रस्तुत करने के लिए नहीं कहा ताकि यदि वे चार गवाह प्रस्तुत न कर पाते तो तुम पवित्र लोगों पर आरोप लगाने के दोष में उन्हें दंडित करते?

वस्तुतः ईमान वालों के लिए इस आयत का संदेश यह है कि न केवल यह कि उन्हें दूसरों के बारे में बुरे विचार नहीं रखने चाहिए बल्कि यदि वे कोई आरोप सुनें भी तो उसे स्वीकार न करें और पवित्र लोगों का बचाव करें। हां, यदि स्पष्ट तर्कों और प्रमाणों से किसी का दोषी होना सिद्ध हो जाए तो बात अलग है।

इन आयतों से हमने सीखा कि समाज में फैलने वाली अफ़वाहों के संबंध में उचित प्रतिक्रिया प्रकट करनी चाहिए, इस संबंध में न तो मौन ही सही है और न ही अफ़वाह को फैलने देना।

समाज के किसी भी सदस्य पर आरोप, बाक़ी सभी सदस्यों पर आरोप के समान है।

ईमान वालों के संबंध में भले विचार रखना, ऐसा सिद्धांत है जो इस्लामी समाज के सभी लोगों के संबंध में अपनाया जाना चाहिए।


पैग़म्बर तथा उनके परिजनों के सम्मान की रक्षा सभी मुसलमानों के लिए अनिवार्य है और जो भी जिस प्रकार भी उन पर प्रश्न चिन्ह लगाने का प्रयास करे उसे गंभीरता से रोका जाना चाहिए।




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