नमाज़ की हकीकत |
नमाज़ और लिबास रिवायात मे मिलता है कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम नमाज़ का लिबास अलग रखते थे। और अल्लाह की खिदमत मे शरफ़याब होने के...
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नमाज़ और लिबास
रिवायात मे मिलता है कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम नमाज़ का लिबास अलग रखते थे। और अल्लाह की खिदमत मे शरफ़याब होने के लिए खास तौर पर ईद व जुमे की नमाज़ के वक़्त खास लिबास पहनते थे। बारिश के लिए पढ़ी जाने वाली नमाज़ (नमाज़े इस्तसक़ा) के लिए ताकीद की गयी है कि इमामे जमाअत को चाहिए कि वह अपने लिबास को उलट कर पहने और एक कपड़ा अपने काँधे पर डाले ताकि खकसारी व बेकसी ज़ाहिर हो। इन ताकीदों से मालूम होता है कि नमाज़ के कुछ मखसूस आदाब हैं। और सिर्फ़ नमाज़ के लिए ही नही बल्कि तमाम मुक़द्दस अहकाम के लिए अपने खास अहकाम हैं।
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को भी तौरात की आयात हासिल करने के लिए चालीस दिन तक कोहे तूर पर मुनाजात के साथ मखसूस आमाल अंजाम देने पड़े।
नमाज़ इंसान की मानवी मेराज़ है। और इस के लिए इंसान का हर पहलू से तैयार होना ज़रूरी है। नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा नमाज़ के आदाब, शराइत और अहकाम से लगाया जासकता है।
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने अपना वह लिबास जिसमे आपने दस लाख रकत नमाज़े पढ़ी थी देबल नाम के शाइर को तोहफ़े मे दिया। क़ुम शहर के रहने वाले कुछ लोगों ने देबल से यह लिबास खरीदना चाहा मगर उन्होने बेंचने से मना कर दिया। देबल वह इंक़िलाबी शाइर है जिन्होनें बनी अब्बास के दौरे हुकुमत मे 20 साल तक पौशीदा तौर पर जिंदगी बसर की। और आखिर मे 90 साल की उम्र मे एक रोज़ नमाज़े सुबह के बाद शहीद कर दिये गये।
- नमाज़ और दुआ
क़ुनूत मे पढ़ी जाने वाली दुआओं के अलावा हर नमाज़ी अपनी नमाज़ के दौरान एहदिनस्सिरातल मुस्तक़ीम कह कर अल्लाह से बेहतरीन नेअमत “हिदायत” के लिए दुआ करता है। रिवायात मे नमाज़ से पहले और बाद मे पढ़ी जाने वाली दुआऐं मौजूद हैं जिनका पढ़ना मुस्तहब है। बहर हाल जो नमाज़ पढ़ता वह दुआऐं भी करता है।
अलबत्ता दुआ करने के भी कुछ आदाब हैं। जैसे पहले अल्लाह की तारीफ़ करे फिर उसकी मखसूस नेअमतों जैसे माअरिफ़त, इस्लाम, अक़्ल, इल्म, विलायत, क़ुरआन, आज़ादी व फ़हम वगैरह का शुक्र करते हुए मुहम्मद वा आलि मुहम्मद पर सलवात पढ़े। इसके बाद किसी पर ज़ाहिर किये बग़ैर अपने गुनाहों की तरफ़ मुतवज्जेह हो कर अल्लाह से उनके लिए माफ़ी माँगे और फिर सलवात पढ़कर दुआ करे। मगर ध्यान रहे कि पहले तमाम लोगों के लिए अपने वालदैन के लिए और उन लोगों के लिए जिनका हक़ हमारी गर्दनों पर है दुआ करे और बाद मे अपने लिए दुआ माँगे।
क्योंकि नमाज़ मे अल्लाह की हम्दो तारीफ़ और उसकी नेअमतों का ब्यान करते हुए उससे हिदाय और रहमत की भीख माँगी जाती है। इससे मालूम होता है कि नमाज़ और दुआ मे गहरा राबिता पाया जाता है।
- नमाज़ के लिए क़ुरआन का अदबी अंदाज़े ब्यान
सूरए निसा की 161 वी आयत मे अल्लाह ने दानिशमंदो, मोमिनों, नमाज़ियों और ज़कात देने वालोंकी जज़ा(बदला) का ज़िक्र किया है। लेकिन नमाज़ियों की जज़ा का ऐलान करते हुए एक मखसूस अंदाज़ को इख्तियार किया है।
दानिशमंदों के लिए कहा कि “अर्रासिखूना फ़िल इल्म”
मोमेनीन के लिए कहा कि “अलमोमेनूना बिल्लाह”
ज़कात देने वालों के लिए कहा कि “अलमोतूना अज़्ज़कात”
नमाज़ियों के बारे मे कहा कि “अलमुक़ीमीना अस्सलात”
अगर आप ऊपर के चारों जुमलों पर नज़र करेंगे तो देखेंगे कि नमाज़ियों के लिए एक खास अंदाज़ अपनाया गया है। जो मोमेनीन, दानिशमंदो और ज़कात देने वालो के ज़िक्र मे नही मिलता। क्योंकि अर्रासिखूना, अलमोमेनूना, अल मोतूना के वज़न पर नमाज़ी लोगों का ज़िक्र करते हुए अल मुक़ीमूना भी कहा जा सकता था। मगर अल्लाह ने इस अंदाज़ को इख्तियार नही किया। जो अंदाज़ नमज़ियों के लिए अपनाया गया है अर्बी ज़बान मे इस अंदाज़ को अपनाने से यह मअना हासिल होते हैं कि मैं नमाज़ पर खास तवज्जुह रखता हूँ।
सूरए अनआम की 162वी आयत मे इरशाद होता है कि “अन्ना सलाती व नुसुकी” यहाँ पर सलात और नुसुक दो लफ़ज़ों को इस्तेमाल किया गया है। जबकि लफ़ज़े नुसक के मअना इबादत है और नमाज़ भी इबादत है। लिहाज़ा नुसुक कह देना काफ़ी था। मगर यहाँ पर नुसुक से पहले सलाती कहा गया ताकि नमाज़ की अहमियत रोशन हो जाये।
सूरए अनआम की 73 वी आयत मे इरशाद होता है कि “हमने अंबिया पर वही नाज़िल की कि अच्छे काम करें और नमाज़ क़ाइम करें।” नमाज़ खुद एक अच्छा काम है मगर कहा गया कि अच्छे काम करो और नमाज़ क़ाइम करो। यहाँ पर नमाज़ का ज़िक्र जुदा करके नमाज़ की अहमियत को बताया गया है।
- खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ना ईमान की पहली शर्त
सूरए मोमेनून की पहली और दूसरी आयत मे इरशाद होता है कि बेशक मोमेनीन कामयाब हैँ (और मोमेनीन वह लोग हैं) जो अपनी नमाज़ों को खुशुअ के साथ पढ़ते हैं।
याद रहे कि अंबिया अलैहिमस्सलाम मानना यह हैं कि हक़ीक़ी कामयाबी मानवियत से हासिल होती है। और ज़ालिम और सरकश इंसान मानते हैं कि कामयाबी ताक़त मे है।
फिरौन ने कहा था कि “ आज जिसको जीत हासिल हो गयी वही कामयाब होगा।” बहर हाल चाहे कोई किसी भी तरह लोगों की खिदमत अंजाम दे अगर वह नमाज़ मे ढील करता है तो कामयाब नही हो सकता ।
- नमाज़ और खुशी
सूरए निसा की 142वी आयत मे मुनाफ़ेक़ीन की नमाज़ के बारे मे इरशाद होता है कि वह सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ते हैं। यानी वह खुशी खशी नमाज़ अदा नही करते। इसी तरह सूरए तौबा की 54वी आयत मे उस खैरात की मज़म्मत की गयी है जिसमे खुलूस न पाया जाता हो। और इसकी वजह यह है कि इबादत और सखावत का असल मक़सद मानवी तरक़्क़ी है। और इसको हासिल करने के लिए मुहब्बत और खुलूस शर्त है।
- नमाज़ियों के दर्जात
(अ) कुछ लोग नमाज़ को खुशुअ (तवज्जुह) के साथ पढ़ते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम ने सूरए मोमेनून की दूसरी आयत मे ज़िक्र किया है “कि वह खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ते हैं।” खुशुअ एक रूहानी और जिसमानी अदब है।
तफ़्सीरे साफ़ी मे है कि एक बार रसूले अकरम (स.) ने एक इंसान को देखा कि नमाज़ पढ़ते हुए अपनी दाढ़ी से खेल रहा है। आपने फ़रमाया कि अगर इसके पास खुशुअ होता तो कभी भी इस काम को अंजाम न देता।
तफ़्सीरे नमूना मे नक़ल किया गया है कि रसूले अकरम (स.) नमाज़ के वक़्त आसमान की तरफ़ निगाह करते थे और इस आयत
(मोमेनून की दूसरी आयत) के नाज़िल होने के बाद ज़मीन की तरफ़ देखने लगे।
(ब) कुछ लोग नमाज़ की हिफ़ाज़त करते हैं।
जैसे कि सूरए अनआम की आयत न.92 और सूरए मआरिज की 34वी आयत मे इरशाद हुआ है। सूरए अनआम मे नमाज़ की हिफ़ाज़त को क़ियामत पर ईमान की निशानी बताया गया है।
(स) कुछ लोग नमाज़ के लिए सब कामों को छोड़ देते हैं।
जैसे कि सूरए नूर की 37वी आयत मे इरशाद हुआ है। अल्लाह के ज़िक्र मे ना तो तिजारत रुकावट है और ना ही वक़्ती खरीदो फ़रोख्त, वह लोग माल को ग़ुलाम समझते हैं अपना आक़ा नही।
(द) कुछ लोग नमाज़ के लिए खुशी खुशी जाते हैं।
(य) कुछ लोग नमाज़ के लिए अच्छा लिबास पहनते हैं ।
जैसे कि सूरए आराफ़ की 31वी आयत मे अल्लाह ने हुक्म दिया है “कि नमाज़ के वक़्त जीनत इख्तियार करो।”
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना मस्जिद को पुररौनक़ बनाना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना नमाज़ का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना लोगों का ऐहतिराम करना है।
नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना वक़्फ़ और वाक़िफ़ दोनों का ऐहतिराम है। लेकिन इस आयत के आखिर मे यह भी कहा गया है कि इसराफ़ से भी मना किया गया है।
(र) कुछ लोग नमाज़ से दायमी इश्क़ रखते हैं।
जैसे कि सूरए मआरिज की 23वी आयत मे इरशाद हुआ है कि “अल्लज़ीना हुम अला सलातिहिम दाइमून।”“वह लोग अपनी नमाज़ को पाबन्दी से पढ़ते हैं।” हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि यहाँ पर मुस्तहब नमाज़ों की पाबंदी मुराद है। लेकिन इसी सूरेह मे यह जो कहा गया है कि वह लोग अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं। यहाँ पर वाजिब नमाज़ों की हिफ़ाज़त मुराद है जो तमाम शर्तों के साथ अदा की जाती हैं।
(ल) कुछ लोग नमाज़ के लिए सहर के वक़्त बेदार हो जाते हैं।
जैसे कि सूरए इस्रा की 79वी आयत मे इरशाद होता है कि “फ़तहज्जद बिहि नाफ़िलतन लका” लफ़्ज़े जहूद के मअना सोने के है। लेकिन लफ़्ज़े तहज्जद के मअना नींद से बेदार होने के हैँ।
इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स.) से ख़िताब है कि रात के एक हिस्से मे बेदार होकर क़ुरआन पढ़ा करो यह आपकी एक इज़ाफ़ी ज़िम्मेदारी है। मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि यह नमाज़े शब की तरफ़ इशारा है।
(व) कुछ लोग नमाज़ पढ़ते पढ़ते सुबह कर देते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे आया है कि वह अपने रब के लिए सजदों और क़ियाम मे रात तमाम कर देते हैं।
(श) कुछ लोग सजदे की हालत मे गिरिया करते हैं।
जैसे कि क़ुरआने करीम मे इरशाद हुआ है कि सुज्जदन व बुकिय्यन।
अल्लाह मैं शर्मिंदा हूँ कि 15 शाबान सन् 1370 हिजरी शम्सी मे इन तमाम मराहिल को लिख रहा हूँ मगर अभी तक मैं ख़ुद इनमे से किसी एक पर भी सही तरह से अमल नही कर सका हूँ। इस किताब के पढ़ने वालों से दरखवास्त है कि वह मेरे ज़ाती अमल को नज़र अन्दाज़ करें। (मुसन्निफ़)
- नमाज़ हम से गुफ़्तुगु करती है
क़ुरआन और रिवायात मे मिलता है कि आलमे बरज़ख और क़ियामत मे इंसान के तमाम आमाल उसके सामने पेश कर दिये जायेंगे। नेकियोँ को खूबसूरत पैकर मे और बुराईयोँ को बुरे पैकर मे पेश किया जायेगा। खूब सूरती और बदसूरती खुद हमारे हाथ मे है। रिवायत मे मिलता है कि जो नमाज़ अच्छी तरह पढ़ी जाती है उसको फ़रिश्ते खूबसूरत पैकर मे ऊपर ले जाते हैं ।और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझको इसी तरह हिफ़्ज़ करे जिस तरह तूने मुझे हिफ़्ज़ किया।
लेकिन वह नमाज़ जो नमाज़ की शर्तों और उसके अहकाम के साथ नही पढ़ी जाती उसको फ़रिश्ते सयाही की सूरत मे ऊपर ले जाते हैं और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझे इसी तरह बर्बाद करे जिस तरह तूने मुझे बर्बाद किया। (किताब असरारूस्सलात इमाम खुमैनी (र)
नमाज़ अल्लाह की याद है।
अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो।
एक मख़सूस तरीक़े से अल्लाह की याद जिसमे इंसान के बदन के सर से पैर तक के तमाम हिस्से शामिल होते हैं।वज़ू के वक़्त सर का भी मसाह करते हैं और पैरों का भी, सजदे मे पेशानी भी ज़मीन पर रखी जाती है और पैरों के अंगूठे भी। नमाज़ मे ज़बान भी हरकत करती है और दिल भी उसकी याद मे मशग़ूल रहता है। नमाज़ मे आँखे सजदह गाह की तरफ़ रहती हैं तो रुकू की हालत मे कमर भी झूकी रहती है। अल्लाहो अकबर कहते वक़्त दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ उठ ही जाते हैं। इस तरह से बदन के तमाम हिस्से किसी न किसी हालत मे अल्लाह की याद मे मशग़ूल रहते हैं।
27- नमाज़ और अल्लाह का शुक्र
नमाज़ के राज़ो मे से एक राज़ अल्लाह की नेअमतों का शुक्रियाअदा करना भी है। जैसे कि क़ुरआन मे ज़िक्र हुआ है कि उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुमको और तुम्हारे बाप दादा को पैदा किया।अल्लाह की नेअमतों का शुक्रिया अदा करना बड़ी अहमियत रखता है। सूरए कौसर मे इरशाद होता है कि हमने तुम को कौसर अता किया लिहाज़ा अपने रब की नमाज़ पढ़ा करो। यानी हमने जो नेअमत तुमको दी है तुम उसके शुक्राने के तौर पर नमाज़ पढ़ा करो। नमाज़ शुक्र अदा करने का एक अच्छा तरीक़ा है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसका हुक्म खुद अल्लाह ने दिया है। तमाम नबियों और वलीयों ने इस तरीक़े पर अमल किया है। नमाज़ शुक्रिये का एक ऐसा तरीक़ा है जिस मे ज़बान और अमल दोनो के ज़रिया शुक्रिया अदा किया जाता है।
28- नमाज़ और क़ियामत
क़ियामत के बारे मे लोगों के अलग अलग ख़यालात हैं।
क- कुछ क़ियामत के बारे मे शक करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा
अगर तुम क़ियामत के बारे मे शक करते हो।
ख- कुछ लोग क़ियामत के बारे मे गुमान रखते हैं जैसे कि क़ुरआन
ने कहा है कि वह लोग गुमान करते हैं कि अल्लाह से मुलाक़ात
करेंगे।
ग- कुछ लोग क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं।
घ- कुछ लोग क़ियामत का इंकार करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि (वह लोग कहते है कि) हम क़ियामत के दिन को झुटलाते हैं।
ङ- कुछ लोग क़ियामत पर ईमान रखते हैं मगर उसे भूल जाते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत के दिन को भूल गये हैं।
क़ुरआन ने शक करने वालों के शक को दूर करने के लिए दलीलें दी हैं। क़ियामत का इंकार करने वालों से सवाल किया है कि बताओ तुम्हारे मना करने की दलील क्या है? और भूल जाने वालों को बार बार तंबीह की है ताकि वह क़ियामत को न भूलें। और क़ियामत पर यक़ीन रखने वालों की तारीफ़ की है।
नमाज़ शक को दूर करती है और ग़फ़लत को याद मे बदल देती है। क्योँकि नमाज़ मे इंसान 24 घँटे मे कम से कम 10 बार अपनी ज़बान से अल्लाह को मालिकि यौवमिद्दीन(क़ियामत के दिन का मालिक) कह कर क़ियामत को याद करता है।
29- नमाज़ और सिराते मुस्तक़ीम
हम हर रोज़ नमाज़ मे अल्लाह से सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न रहने की दुआ करते हैं। इंसान को हर वक़्त एक नयी फ़िक्र लाहक़ होती है। दोस्त दुशमन, अपने पराये, सरकशी पर आमादा अफ़राद, और शैतानी वसवसे पैदा करने वाले लोग, नसीहत, शौक़, खौफ़, वहशत, और परोपैगंडे के तरीक़ो से काम लेकर इंसान के सामने एक से एक नये रास्ते पेश करते हैं।और इस तरह मंसूबा बनाते हैं कि अगर इंसान को अल्लाह की तरफ़ से मदद ना मिले तो हवाओ हवस के इन रास्तो मे उलझ कर रह जाये। और मुखतलिफ़ तरीक़ो के बीच उलझन का शिकार होकर सिराते मुस्तकीम से भटक जाये।
ऐहदि नस्सिरातल मुस्तक़ीम यानी हमको सिराते मुस्तक़ीम(सीधे रास्ते पर) पर बाक़ी रख।
सिराते मुसतक़ीम यानी
1- वह रास्ता जो अल्लाह के वलीयों का रास्ता है।
2- वह रास्ता जो हर तरह के खतरे और कजी से पाक है।
3- वह रास्ता जो हमसे मुहब्बत करने वाले का बनाया हुआ है।
4- वह रास्ता जो हमारी ज़रूरतों के जानने वाले ने बनाया है।
5- वह रास्ता जो जन्नत से मिलाता है।
6- वह रास्ता जो फ़ितरी है।
7- वह रास्ता कि अगर उस पर चलते हुए मर जायें तो शहीद कहलाऐं।
8- वह रास्ता जो आलमे बाला से वाबस्ता और हमारे इल्म से दूर है।
9- वह रास्ता जिस पर चल कर इंसान को शक नही होता।
10-वह रास्ता जिस पर चलने के बाद इंसान शरमिन्दा नही होता।
11-वह रास्ता जो तमाम रास्तों से ज़्यादा आसान, नज़दीक, रोशन और साफ़ है।
12-वह रास्ता जो नबियों, शहीदों, सच्चे और नेक लोगों का रास्ता है।
यही तमाम चीज़े सिराते मुस्तक़ीम की निशानियाँ हैं। जिनका पहचानना बहुत मुशकिल काम है।इस पर चलने और बाक़ी रहने के लिए हमेशा अल्लाह से मदद माँगनी चाहिए।
30- नमाज़ शैतानो से जंग है
हम सब लफ़्ज़े महराब को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। यह लफ़्ज़ क़ुरआन मे जनाबे ज़िक्रिया अलैहिस्सलाम की नमाज़ के बारे मे इस्तेमाल हुआ है। (सूरए आले इमरान आयत न. 38, 39) यहाँ पर नमाज़ मे खड़े होने को महराब मे क़ियाम से ताबीर किया गया है। महराब का मअना जंग की जगह है। लिहाज़ा महराबे नमाज़ मे क़ियाम और नमाज़ शैतान से जंग है।
31- महराब जंग की जगह
अगर इंसान दिन मे कई बार किसी ऐसी जगह पर जाये जिसका नाम ही मैदाने जंग हो, जहाँ पर शैतानों, शहवतो, ताग़ूतों, सरकशों और हवस से जंग होती हो तो इस ताबीर का इस्तेमाल एक फ़र्द या पूरे समाज की ज़िंदगी मे कितना ज़्यादा मोस्सिर होना चाहिए।
इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुए कि आज के ज़माने मे ग़लत रस्मो रिवाज की बिना पर इन महराबों को दुल्हन के कमरों से भी ज़्यादा सजाया जाने लगा है।इन ज़रो जवाहिर और फूल पत्तियों की नक़्क़ाशी ने तो मामले को बिल्कुल बदल दिया है। यानी महराब को शैतान के भागने की जगह के बजाए, उसके पंजे जमाने की जगह बना दिया जाता है।
एक दिन पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैह से फ़रमाया कि इस पर्दे को मेरी नज़रो के सामने से हटा दो। क्योंकि इस पर बेल बूटे बने हैं जो नमाज़ की हालत मे मेरी तवज्जुह को अपनी तरफ़ खीँच सकते हैं।
लेकिन आज हम महराब को संगे मरमर और नक़्क़ाशी से सजाने के लिए एक बड़ी रक़म खर्च करते हैं। पता नही कि हम मज़हबी रसूम और मेमारी के हुनर के नाम पर असल इस्लाम से क्यों दूर होते जा रहे हैं? इस्लाम को जितनी ज़्यादा गहराई के साथ बग़ैर किसी तसन्नो के पहचनवाया जायेगा उतना ही ज़यादा कारगर साबित होगा। सोचिये कि हम इन तमाम सजावटों के ज़रिये कितने लोगों को नमाज़ी बनाने मे कामयाब हुए। अगर मस्जिद की सजावट पर खर्च होने वाली रक़म को दूसरी अहम बुन्यादी ज़रूरतों को पूरा करने मे खर्च किया जाये तो बहुतसे लोग मस्जिद और नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जाह होंगे।
32-सुस्त लोग भी शामिल हो जाते हैं
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जमाअत के फ़लसफ़े को ब्यान करते हुए फ़रमाया कि “नमाज़े जमाअत का एक असर यह भी है कि इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है और वह भी साथ मे शामिल हो जाते हैं।” मिसाल के तौर पर जब हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम आता है तो आपके मुहिब ऐहतराम के लिए खड़े हो जाते हैं। इनको खड़े होता देख कर सुस्त लोग भी ऐहतरामन खड़े हो जाते हैं।इस तरह इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है।
33- हज़रत मूसा अलै. को सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अपनी बीवी के साथ जारहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ। जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया। यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा ताल्लुक़ है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है। हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।
34- नमाज़ को छोड़ना तबाही का सबब बनता है
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि नबीयों के बाद कुछ लोग उनके जानशीन बने उन्होने नमाज़ को छोड़ दिया और शहवत परस्ती मे लग गये।
इस आयत मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि उन्होने पहले नमाज़ को छोड़ा और बाद मे शहवत परस्त बन गये। नमाज़ एक ऐसी रस्सी है जो बंदे को अल्लाह से मिलाए रखती है। अगर यह रस्सी टूट जाये तो तबाही के ग़ार मे गिरना यक़ीनी है। ठीक इसी तरह जैसे तस्बीह का धागा टूट जाने पर दाने बिखर जाते हैं और बहुत से गुम हो जाते हैं।
35- तमाम अदयान की इबादत गाहों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए हज की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि अगर इंक़िलाबी मोमेनीन अपने हाथों मे हथियार लेकर फ़साद फैलाने वालों और तफ़रक़ा डालने वालों से जंग न करें, और उन्हें न मारे तो ईसाइयों, यहूदीयों और मुसलमानो की तमाम इबादतगाहें वीरान हो जायें।
अगर अल्लाह इन लोगों को एक दूसरे से दफ़ ना करता तो दैर, कलीसा, कनीसा और मस्जिदें जिन मे कसरत के साथ अल्लाह का ज़िक्र होता है कब की वीरान होगईं होतीं। बहर हाल अगर इबादत गाहों की हिफ़ाज़त के लिए खून भी देना पड़े तो इनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए।
दैर--- आबादी से बाहर बनाई जाने वाली इबादतगाह जिसमे बैठ कर ज़ाहिद लोग इबादत करते हैं।
कलीसा--- ईसाइयों की इबादतगाह
कनीसा---- यहूदीयों की इबादतगाह और यह इबरानी ज़बान के सिलवसा लफ़्ज़ का अर्बी तरजमा है।
मस्जिद----मुसलमानो की इबादतगाह
36- तहारत और दिल की सलामती
जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।
इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”
हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”
क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।
वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।
वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।
वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।
वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।
वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।
वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।
वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)
नमाज़ सभी उम्मतों मे मौजूद थी
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) से पहले हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शरीअत मे भी नमाज़ मौजूद थी।
क़ुरआन मे इस बात का ज़िक्र सूरए मरियम की 31 वी आयत मे मौजूद है कि हज़रत ईसा (अ.स.) ने कहा कि अल्लाह ने मुझे नमाज़ के लिए वसीयत की है। इसी तरह हज़रत मूसा (अ. स.) से भी कहा गया कि मेरे ज़िक्र के लिए नमाज़ को क़ाइम करो। (सूरए ताहा आयत 26)
इसी तरह हज़रत मूसा अ. से पहले हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम भी नमाज़ पढ़ते थे जैसे कि सूरए हूद की 87वी आयत से मालूम होता है। और इन सबसे पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम थे। जो अल्लाह से अपने और अपनी औलाद के लिए नमाज़ क़ाइम करने की तौफ़ीक़ माँगते थे।
और इसी तरह हज़रत लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे को वसीयत करते हैं कि नमाज़ क़ाइम करना और अम्रे बिल मअरूफ़ व नही अज़ मुनकर को अंजाम देना।
दिल चस्प बात यह है कि अक्सर मक़ामात पर नमाज़ के साथ ज़कात अदा करने की ताकीद की गई है। मगर चूँकि मामूलन नौजवानों के पास माल नही होता इस लिए इस आयत में नमाज़ के साथ अम्र बिल माअरूफ़ व नही अज़ मुनकर की ताकीद की गई है।
2- नमाज़ के बराबर किसी भी इबादत की तबलीग़ नही हुई
हम दिन रात में पाँच नमाज़े पढ़ते हैं और हर नमाज़ से पहले अज़ान और इक़ामत की ताकीद की गई है। इस तरह हम
बीस बार हय्या अलस्सलात (नमाज़ की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अलल फ़लाह (कामयाबी की तरफ़ आओ।)
बीस बार हय्या अला ख़ैरिल अमल (अच्छे काम की तरफ़ आओ)
और बीस बार क़द क़ामःतिस्सलात (बेशक नमाज़ क़ाइम हो चुकी है)
कहते हैं। अज़ान और इक़ामत में फ़लाह और खैरिल अमल से मुराद नमाज़ है। इस तरह हर मुसलमान दिन रात की नमाज़ों में 60 बार हय्या कह कर खुद को और दूसरों को खुशी के साथ नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जेह करता है। नमाज़ की तरह किसी भी इबादत के लिए इतना ज़्याद शौक़ नही दिलाया गया है।
हज के लिए अज़ान देना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी थी, मगर नमाज़ के लिए अज़ान देना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। अज़ान से ख़ामोशी का ख़ात्मा होता है। अज़ान एक इस्लामी फ़िक्र और अक़ीदा है।
अज़ान एक मज़हबी तराना है जिसके अलफ़ाज़ कम मगर पुर मअनी हैं
अज़ान जहाँ ग़ाफ़िल लोगों के लिए एक तंबीह है। वहीँ मज़हबी माहौल बनाने का ज़रिया भी है। अज़ान मानवी जिंदगी की पहचान कराती है।
3- नमाज़ हर इबादत से पहले है
मखसूस इबादतें जैसे शबे क़द्र, शबे मेराज, शबे विलादत आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम, शबे जुमा,रोज़े ग़दीर, रोज़े आशूरा और हर बा फ़ज़ीलत दिन रात जिसके लिए मख़सूस दुआऐं व आमाल हैं वहीँ मख़सूस नमाज़ों का भी हुक्म है। शायद कोई भी ऐसा मुक़द्दस दिन नही है जिसमे नमाज़ की ताकीद ना की गई हो।
4- नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में पाई जाती हैं
अगरचे जिहाद ,हज ग़ुस्ल और वज़ु की कई क़िस्मे हैं,मगर नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में हैँ। अगर हम एक मामूली सी नज़र अल्लामा मुहद्दिस शेख़ अब्बास क़ुम्मी की किताब मफ़ातीहुल जिनान के हाशिये पर डालें तो वहां पर नमाज़ की इतनी क़िसमें ज़िक्र की गयीं है कि अगर उन सब को एक जगह जमा किये जाये तो एक किताब और वजूद मे आ सकती है। हर इमाम की तरफ़ एक नमाज़ मनसूब है जो दूसरो इमामो की नमाज़ से जुदा है। मसलन इमामे ज़मान की नमाज़ अलग है और इमाम अली अलैहिमस्सलाम की नमाज़ अलग है।
5- नमाज़ व हिजरत
जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से अर्ज़ किया कि ऐ पालने वाले मैंने इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए अपनी औलाद को बे आबो गयाह(वह सूखा इलाक़ा जहाँ पर पीनी की कमी हो और कोई हरयाली पैदा न होती हो।) मैदान मे छोड़ दिया है। हाँ नमाज़ी हज़रात की ज़िम्मेदारी ये भी है कि नमाज़ को दुनिया के कोने कोने मे पहुचाने के लिए ऐसे मक़ामात पर भी जाऐं जहां पर अच्छी आबो हवा न हो।
6- नमाज़ के लिए मुहिम तरीन जलसे को तर्क करना
क़ुरआन मे साबेईन नाम के एक दीन का ज़िक्र हुआ। इस दीन के मानने वाले सितारों के असारात के क़ाइल हैं और अपनी मख़सूस नमाज़ व दिगर मरासिम को अनजाम देते हैं और ये लोग जनाबे याहिया अलैहिस्सलाम को मानते हैं। इस दीन के मान ने वाले अब भी ईरान मे खुज़िस्तान के इलाक़े मे पाय़े जाते हैं। इस दीन के रहबर अव्वल दर्जे के आलिम मगर मग़रूर क़िस्म के होते थे। उन्होने कई मर्तबा इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से गुफ़्तुगु की मगर इस्लाम क़बूल नही किया। एक बार इसी क़िस्म का एक जलसा था और उन्ही लोगों से बात चीत हो रही थी। हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की एक दलील पर उनका आलिम लाजवाब हो गया और कहा कि अब मेरी रूह कुछ न्रम हुई है और मैं इस्लाम क़बूल करने पर तैयार हूँ। मगर उसी वक़्त अज़ान शुरू हो गई और हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम जलसे से बाहर जाने लगें, तो पास बैठे लोगों ने कहा कि मौला अभी रूक जाइये ये मौक़ा ग़नीमत है इसके बाद ऐसा मौक़ा हाथ नही आयेगा।
इमाम ने फ़रमाया कि नही, “पहले नमाज़ बाद मे गुफ़्तुगु” इमाम अलैहिस्सलाम के इस जवाब से उसके दिल मे इमाम की महुब्बत और बढ़ गई और नमाज़ के बाद जब फिर गुफ़्तुगु शुरू हुई तो वह आप पर ईमान ले आया।
7- जंग के मैदान मे अव्वले वक़्त नमाज़
इब्ने अब्बास ने देखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम जंग करते हुए बार बार आसमान को देखते हैं फिर जंग करने लगते हैं। वह इमाम अलैहिस्सलाम के पास आये और सवाल किया कि आप बार बार आसमान को क्यों देख रहे है? इमाम ने जवाब दिया कि इसलिए कि कहीँ नमाज़ का अव्वले वक़्त न गुज़र जाये। इब्ने अब्बास ने कहा कि मगर इस वक़्त तो आप जंग कर रहे है। इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि किसी भी हालत मे नमाज़ को अव्वले वक़्त अदा करने से ग़ाफ़िल नही होना चाहिए।
8- अहमियते नमाज़े जमाअत
एक रोज़ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम ने नमाज़े सुबह की जमाअत मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम को नही देखा तो, आपकी अहवाल पुरसी के लिए आप के घर तशरीफ़ लाये। और सवाल किया कि आज नमाज़े जमाअत मे क्यों शरीक न हो सके। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने अर्ज़ किया कि आज की रात अली सुबह तक मुनाजात मे मसरूफ़ रहे। और आखिर मे इतनी ताक़त न रही कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ सके, लिहाज़ा उन्होने घर पर ही नमाज़ अदा की। रसूले अकरम स. ने फ़रमाया कि अली से कहना कि रात मे ज़्यादा मुनाजात न किया करें और थोड़ा सो लिया करें ताकि नमाज़े जमाअत मे शरीक हो सकें। अगर इंसान सुबह की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ने की ग़र्ज़ से सोजाये तो यह सोना उस मुनाजात से अफ़ज़ल है जिसकी वजह से इंसान नमाज़े जमाअत मे शरीक न हो सके।
9- नमाज़ को खुले आम पढ़ना चाहिए छुप कर नही
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मोहर्रम की दूसरी तारीख को कर्बला मे दाखिल हुए और दस मोहर्रम को शहीद हो गये।इस तरह कर्बला मे इमाम की मुद्दते इक़ामत आठ दिन है। और जो इंसान कहीँ पर दस दिन से कम रुकने का क़स्द रखता हो उसकी नमाज़ क़स्र है। और दो रकत नमाज़ पढ़ने मे दो मिनट से ज़्यादा वक़्त नही लगता खास तौर पर ख़तरात के वक़्त। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम रोज़े आशूरा बार बार ख़ैमे मे आते जाते थे। अगर चाहते तो नमाज़े ज़ोहर को खैमे मे पढ़ सकते थे। मगर इमाम ने मैदान मे नमाज़ पढ़ने का फैसला किया। और इसके लिए इमाम के दो साथी इमाम के सामने खड़े होकर तीर खाते रहे ताकि इमाम आराम के साथ अपनी नमाज़ को तमाम कर सकें। और इस तरह इमाम ने मैदान मे नमाज़ अदा की। नमाज़ को ज़ाहिरी तौर पर पढ़ने मे एक हिकमत पौशीदा है। लिहाज़ा होटलों, पार्कों, हवाई अड्डों, वग़ैरह पर नमाज़ ख़ानो को कोनों मे नही बल्कि अच्छी जगह पर और खुले मे बनाना चाहिए ताकि नमाज़ को सब लोगों के सामने पढ़ा जा सके।(क्योकि ईरान एक इस्लामी मुल्क है इस लिए होटलों, पार्कों, स्टेशनों, व हवाई अड्डो पर नमाज़ ख़ाने बनाए जाते हैं। इसी लिए मुसन्निफ़ ने ये राय पेश की।) क्योंकि दीन की नुमाइश जितनी कम होगी फ़साद की नुमाइश उतनी ही ज़्यादा बढ़ जायेगी।
10- मस्जिद के बनाने वाले नमाज़ी होने चाहिए
सुराए तौबाः की 18वी आयत में अल्लाह ने फ़रमाया कि सिर्फ़ वही लोग मस्जिद बनाने का हक़ रखते हैं जो अल्लाह और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखते हों, ज़कात देते हों और नमाज़ क़ाइम करते हों।
मस्जिद का बनाना एक मुक़द्दस काम है लिहाज़ा यह किसी ऐसे इंसान के सुपुर्द नही किया जा सकता जो इसके क़ाबिल न हो। क़ुरआन का हुक्म है कि मुशरेकीन को मस्जिद बनाने का हक़ नही है। इसी तरह मासूम की हदीस है कि अगर ज़ालिम लोग मस्जिद बनाऐं तो तुम उनकी मदद न करो।
11- शराब व जुए को हराम करने की वजह नमाज़ है
जबकि जुए और शराब मे बहुत सी जिस्मानी, रूहानी और समाजी बुराईयाँ पाई जाती है। मगर क़ुरआन कहता है कि जुए और शराब को इस लिए हराम किया गया है क्योंकि यह तुम्हारे बीच मे कीना पैदा करते हैं,और तुमको अल्लाह की याद और नमाज़ से दूर कर देते हैं। वैसे तो शराब से सैकड़ो नुक़सान हैं मगर इस आयत मे शराब से होने वाले समाजी व मानवी नुक़सानात का ज़िक्र किया गया है। कीने का पैदा होना समाजी नुक़सान है और अल्लाह की याद और नमाज़ से ग़फ़लत मानवी नुक़सान है।
12- इक़ामए नमाज़ की तौफ़ीक़ हज़रत इब्राहीम की दुआ है
सूरए इब्राहीम की 40वी आयत में इरशाद होता है कि “पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बनादे।” दिलचस्प यह है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ दुआ ही नही की बल्कि इस आरज़ू के लिए मुसीबतें उठाईं और हिजरत भी की ताकि नमाज़ क़ाइम हो सके।
13- इक़ामए नमाज़ पहली ज़िम्मेदारी
सूरए हिज्र की 41 वी आयत मे क़ुरआन ने ब्यान किया है कि बेशक जो मुसलमान क़ुदरत हासिल करें इनकी ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है। खुदा न करे कि हमारे कारोबारी अफ़राद की फ़िक्र सिर्फ मुनाफा कमाना, हमारे तालीमी इदारों की फ़िक्र सिर्फ़ मुताखस्सिस अफ़राद की परवरिश करना और हमारी फ़िक्र सिर्फ़ सनअत(प्रोडक्शन) तक महदूद हो जाये। हर मुसलमान की पहली ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है।
14- नमाज़ के लिए कोई पाबन्दी व शर्त नही है।
सूरए मरियम की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि----
इस्लाम के सभी अहकाम व क़वानीन मुमकिन है कि किसी शख्स से किसी खास वजह से उठा लिए जायें। मसलन अँधें और लंगड़े इंसान के लिए जिहाद पर जाना वाजिब नही है। मरीज़ पर रोज़ा वाजिब नही है। ग़रीब इंसान पर हज और ज़कात वाजिब नही है।
लेकिन नमाज़ तन्हा एक ऐसी इबादत है जिसमे मौत की आखिरी हिचकी तक किसी क़िस्म की कोई छूट नही है। (औरतों को छोड़ कर कि उनके लिए हर माह मख़सूस ज़माने मे नमाज़ माफ़ है)
15- नमाज़ के साथ इंसान दोस्ती ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की 83वी आयत मे हुक्मे परवर दिगार है कि -------
“नमाज़ी को चाहिए लोगों के साथ अच्छे अन्दाज़ से गुफ़्तुगु करे।”हम अच्छी ज़बान के ज़रिये अमलन नमाज़ की तबलीग़ कर सकते हैं। लिहाज़ा जो लोग पैगम्बरे इस्लाम स. के अखलाक़ और सीरत के ज़रिये मुसलमान हुए हैं उनकी तादाद उन लोगों से कि जो अक़ली इस्तिदलाल(तर्क वितर्क) के ज़रिये मुसलमान हुए हैं कहीं ज़्यादा है। कुफ़्फ़ार के साथ मुनाज़रा व मुबाहिसा करते वक़्त भी उनके साथ अच्छी ज़बान मे बात चीत करने का हुक्म है। मतलब यह है कि पहले उनकी अच्छाईयों को क़बूल करे और फ़िर अपने नज़रीयात को ब्यान करे।
16- अल्लाह और क़ियामत पर ईमान के बाद पहला वाजिब नमाज़ है
क़ुरआन मे सूरए बक़रा के शुरू मे ही ग़ैब पर ईमान( जिसमे ख़ुदावन्दे मुतआल क़ियामत और फ़रिश्ते सब शामिल हैं) के बाद पहला बुन्यादी अमल जिसकी तारीफ़ की गई है इक़ाम-ए-नमाज़ है।
17- नमाज़ को सब कामो पर अहमियत देने वाले की अल्लाह ने तारीफ़ की है
क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 37वी आयत में अल्लाह ने उन हज़रात की तारीफ़ की है जो अज़ान के वक़्त अपनी तिजारत और लेन देन के कामों को छोड़ देते हैं। ईरान के साबिक़ सद्र शहीद रजाई कहा करते थे कि नमाज़ से यह न कहो कि मुझे काम है बल्कि काम से कहो कि अब नमाज़ का वक़्त है। ख़ास तौर पर जुमे की नमाज़ के लिए हुक्म दिया गया है कि उस वक़्त तमाम लेन देन छोड़ देना चाहिए। लेकिन जब नमाज़े जुमा तमाम हो जाए तो हुक्म है कि अब अपने कामो को अंजाम देने के लिए निकल पड़ो। यानी कामों के छोड़ने का हुक्म थोड़े वक़्त के लिए है। ये भी याद रहे कि तब्लीग़ के उसूल को याद रखते हुए लोगों की कैफ़ियत का लिहाज़ रखा गया है। क्योंकि तूलानी वक़्त के लिए लोगों से नही कहा जा सकता कि वह अपने कारोबार को छोड़ दें।लिहाज़ा एक ही सूरह( सूरए जुमुआ) मे कुछ देर कारोबार बन्द करने के ऐलान से पहले फ़रमाया कि “ऐ ईमान वालो” ये ख़िताब एक क़िस्म का ऐहतेराम है। उसके बाद कहा गया कि जिस वक़्त अज़ान की आवाज़ सुनो कारो बार बन्द करदो न कि जुमे के दिन सुबह से ही। और वह भी सिर्फ़ जुमे के दिन के लिए कहा गया है न कि हर रोज़ के लिए और फ़िर कारोबार बन्द करने के हुक्म के बाद फ़रमाया कि “ इसमे तुम्हारे लिए भलाई है” आखिर मे ये भी ऐलान कर दिया कि नमाज़े जुमा पढ़ने के बाद अपने कारो बार मे फिर से मशगूल हो जाओ। और “नमाज़” लफ़्ज़ की जगह ज़िकरुल्लाह कहा गया हैइससे मालूम होता है कि नमाज़ अल्लाह को याद करने का नाम है।
18- नमाज़ को छोड़ने वालों, नमाज़ से रोकने वालों और नमाज़ से ग़ाफिल रहने वालों की मज़म्मत
कुछ लोग न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते हैं।
क़ुरआन मे सूरए क़ियामत की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि कुछ लोग ऐसें है जो न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते है। यहाँ क़ुरआन ने हसरतो आह की एक दुनिया लिये हुए अफ़राद के जान देने के हालात की मंज़र कशी की है।
बाज़ लोग दूसरों की नमाज़ मे रुकावट डालते हैं।
क्या तुमने उसे देखा जो मेरे बन्दे की नमाज़ मे रुकावट डालता है। अबु जहल ने फैसला किया कि जैसे ही रसूले अकरम सजदे मे जाऐं तो ठोकर मार कर आप की गर्दन तोड़ दें। लोगों ने देखा कि वह पैगम्बरे इसलाम के क़रीब तो गया मगर अपने इरादे को पूरा न कर सका। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तुम ने जो कहा था वह क्यों नही किया? उसने जवाब दिया कि मैंने आग से भरी हुई खन्दक़ देखी जो मेरे सामने भड़क रही थी( तफ़सीर मजमाउल ब्यान)
कुछ लोग नमाज़ का मज़ाक़ उड़ाते हैं।
क़ुरआन मे सूरए मायदा की आयत न.58 मे इस तरह इरशाद होता है कि जिस वक़्त तुम नमाज़ के लिए आवाज़ (अज़ान) देते हो तो वोह मज़ाक़ उड़ाते हैं।
कुछ लोग बेदिली के साथ नमाज़ पढ़ते हैं
क़ुरआन के सूरए निसा की आयत न.142 मे इरशाद होता है कि मुनाफ़ेक़ीन जब नमाज़ पढते हैं तो बेहाली का पता चलता है।
कुछ लोग कभी तो नमाज़ पढ़ते हैं कभी नही पढ़ते
क़ुरआन करीम के सूरए माऊन की आयत न.45 मे इरशाद होता है कि वाय हो उन नमाज़ीयो पर जो नमाज़ को भूल जाते हैं और नमाज़ मे सुस्ती करते हैं। तफ़सीर मे है कि यहाँ पर भूल से मतलब वोह भूल है जो लापरवाही की वजाह से हो यानी नमाज़ को भूल जाना न कि नमाज़ मे भूलना कभी कभी कुछ लोग नमाज़ पढ़ना ही भूल जाते हैं। या उसके वक़्त और अहकाम व शरायत को अहमियत ही नही देते। नमाज़ के फ़ज़ीलत के वक़्त को जान बूझ कर अपने हाथ से निकाल देते हैं। नमाज़ को अदा करने में सवाब और छोड़ने मे अज़ाब के क़ाइल नही है। सच बताइये कि अगर नमाज़ मे सुस्ती बरतने से इंसान वैल का हक़ दार बन जाता है तो जो लोग नमाज़ को पढ़ते ही नही उनके लिए कितना अज़ाब होगा।
कुछ लोग अगर दुनियावी आराम से महरूम हैं तो बड़े नमाज़ी हैं। और अगर दुनिया का माल मिल जाये तो नमाज़ से ग़ाफ़िल हो जाते हैँ।
अल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूरए जुमुआ मे इरशाद फ़रमाया है कि जब वह कहीँ तिजारत या मौज मस्ती को देखते हैं तो उस की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं।और तुमको नमाज़ का ख़ुत्बा देते हुए छोड़ जाते हैं। यह आयत इस वाक़िए की तरफ़ इशारा करती है कि जब पैगम्बरे इस्लाम नमाज़े जुमा का ख़ुत्बा दे रहे थे तो एक तिजारती गिरोह ने अपना सामान बेंचने के लिए तबल बजाना शुरू कर दिया। लोग पैगम्बरे इस्लाम के खुत्बे के बीच से उठ कर खरीदो फरोख्त के लिए दौड़ पड़े और हज़रत को अकेला छोड़ दिया। जैसे कि तारीख मे मिलता है कि हज़रत का ख़ुत्बा सुन ने वाले सिर्फ़ 12 अफ़राद ही बचे थे।
19- नमाज़ के लिए कोशिश
* अपने बच्चो को मस्जिद की खिदमत के लिए छोड़ना
क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।
* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं
क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।
* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम की दुआ का नतीजा है।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं
क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस (नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।
• कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं
नहजुल बलाग़ा के नामा न. 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।
• कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।
कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।
अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,
अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर (पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं
जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।
• कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।
* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं
जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।
*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं
जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।
* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं
जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।
19- नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें
क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”
नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।
20- नमाज़ छोड़ने वाले को कोई उम्मीद नही रखनी चाहिए।
अर्बी ज़बान मे उम्मीद के लिए रजाअ,अमल,उमनिय्याह व सफ़ाहत जैसे अलफ़ाज़ पाये जाते हैं मगर इन तमाम अलफ़ाज़ के मअना मे बहुत फ़र्क़ पाया जाता है।
जैसे एक किसान खेती के तमाम क़ानून की रियायत करे और फिर फ़सल काटने का इंतेज़ार करे तो यह सालिम रजाअ कहलाती है(यानी सही उम्मीद)
अगर किसान ने खेती के उसूलों की पाबन्दी मे कोताही की है और फ़िर भी अच्छी फ़सल काटने का उम्मीदवार है तो ऐसी उम्मीद अमल कहलाती है।
अगर किसान ने खेती के किसी भी क़ानून की पाबन्दी नही की और फिर भी अच्छी फ़सल की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को उमनिय्याह कहते हैं।
अगर किसान जौ बोने के बाद गेहूँ काटने की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को हिमाक़त कहते हैं।
अमल व रजा दोनो उम्मीदें क़ाबिले क़बूल है मगर उमनिय्याह और हिमाक़त क़ाबिले क़बूल नही हैँ। क्योंकि उमनिय्याह की क़ुरआन मे मज़म्मत की गई है। अहले किताब कहते थे कि यहूदीयों व ईसाइयों के अलावा कोई जन्नत मे नही जा सकता। क़ुरआन ने कहा कि यह अक़ीदा उमनिय्याह है। यानी इनकी ये आरज़ू बेकार है।
खुश बख्ती तो उन लोगों के लिए है जो अल्लाह और नमाज़ से मुहब्बत रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैँ। बे नमाज़ी अफ़राद को तो निजात की उम्मीद ही नही रखनी चाहिए।
22- तमाम इबादतों के क़बूल होने का दारो मदार नमाज़ पर है।
नमाज़ की अहमियत के बारे मे बस यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने नुमाइंदे मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ना। क्योंकि तुम्हारे दूसरे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं। रिवायत मे यह भी है कि अगर नमाज़ कबूल हो गई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायेंगी, लेकिन अगर नमाज़ क़बूल न हुई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल नही की जायेंगी। दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ की अहमियत को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे डराइविंग लैसंस माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरी अहम सनद पेश करें तो वह उसको क़बूल नही करेगा। जिस तरह डराइविंग के लिए डराइविंग लैसंस का होना ज़रूरी है और उसके बग़ैर तमाम सनदें बेकार हैं। इसी तरह इबादत के मक़बूल होने के लिए नमाज़ की मक़बूलियत भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।
23- नमाज़ पहली और आखरी तमन्ना
कुछ रिवायतों मे मिलता है कि नमाज़ नबीयों की पहली तमन्ना और औलिया की आखरी वसीयत थी। इमामे जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है कि आपने अपनी ज़िंदगी के आखरी लम्हात मे फ़रमाया कि तमाम अज़ीज़ो अक़ारिब को बुलाओ। जब सब जमा हो गये तो आपने फ़रमाया कि “हमारी शफ़ाअत उन लोगों को हासिल नही होगी जो नमाज़ को हलका और मामूली समझते हैं।”
24- नमाज़ अपने आप को पहचान ने का ज़रिया है
रिवायत मे है कि जो इंसान यह देखना चाहे कि अल्लाह के नज़दीक उसका मक़ाम क्या है तो उसे चाहिए कि वह यह देखे कि उसके नज़दीक अल्लाह का मक़ाम क्या है।(बिहारूल अनवार जिल्द75 स.199 बैरूत)
अगर तुम्हारे नज़दीक नमाज़ की अज़ान अज़ीम और मोहतरम है तो तुम्हारा भी अल्लाह के नज़दीक मक़ाम है। और अगर तुम उसके हुक्म को अंजाम देने मे लापरवाही करते हो तो उसके नज़दीक भी तुम्हारा कोई मक़ाम नही है। इसी तरह अगर नमाज़ ने तुमको बुराईयों और गुनाहों से रोका है तो यह नमाज़ के क़बूल होने की निशानी है।
25. क़ियामत मे पहला सवाल नमाज़ के बारे मे
रिवायत मे है कि क़ियामत के दिन जिस चीज़ के बारे मे सबसे पहले सवाल किया जायेगा वह नमाज़ है।(बिहारूल अनवार जिल्द 7 स.267 बैरूत