सूरए आले इमरान; आयतें १७४-१८६

सूरए आले इमरान की १७४वीं आयत (जो घायल व्यक्ति दूसरी बार प्रतिरक्षा के लिए तैयार हुए हैं) वे ईश्वर की कृपा से, बिना कोई क्षति उठाए वापस ...


सूरए आले इमरान की १७४वीं आयत
(जो घायल व्यक्ति दूसरी बार प्रतिरक्षा के लिए तैयार हुए हैं) वे ईश्वर की कृपा से, बिना कोई क्षति उठाए वापस लौट आए। उन्होंने ईश्वर की प्रसन्नता का अनुसरण किया और ईश्वर भी महान कृपा वाला है। (3:174)
पिछले कार्यक्रमों में हमने यह बताया था कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आदेश पर ओहद के युद्ध में घायल होने वाले व अन्य योद्धा, शत्रु का पीछा करने के लिए पुनः एकत्रित हो गए। परन्तु चूंकि मुसलमानों की इस भावना और तैयारी से शत्रु भयभीत हो गया था अतः वह मदीने पर आक्रमण का इरादा छोड़कर वापस लौट गया। यह आयत ओहद के युद्ध में घायल होने वालों की सराहना मे उतरी है।
 इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम अपने कर्तव्य का पालन करें तो हम ईश्वरीय कृपा के पात्र बनेंगे। बिना कर्तव्य पालन के ईश्वरीय कृपा की आशा रखना बेकार है।
 ईश्वर से प्रेम करने वालों के लिए उसकी प्रसन्नता प्राप्त करना महत्वपूर्ण होता है चाहे उसमें वे शहीद हों या घायल या इनमें से कुछ भी न हो।


सूरए आले इमरान की १७५वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है कि शैतान अपने साथियों व अनुयाइयों को (युद्ध में भाग लेने से) डराता है तो तुम उनसे न डरो और यदि तुम ईमान रखते हो तो केवल मुझसे डरो। (3:175)

 पिछली आयत में ईश्वर ने कहा था कि वे मुसलमान जो मुझे प्रसन्न करना चाहते हैं वे किसी ही शत्रु से नहीं डरते यहां तक कि यदि वे घायल हों तब भी शत्रु का पीछा करने जाते हैं। यह आयत कमज़ोर ईमान वाले मुसलमानों की ओर संकेत करती है कि शैतान व उसके बहकावे, उन पर इस सीमा तक प्रभाव डाल चुके हैं कि वे ईश्वर के बजाए शैतान का अनुसरण करते हैं और इसी करण ईश्वर के मार्ग में कठिनाइयां उठाने के लिए तैयार नहीं होते।
 क़ुरआन मुसलमानों को संबोधित करते हुए कहता है कि यदि तुम अपने ईमान में सच्चे हो तो केवल ईश्वर से डरो और उसके आदेशों का पालन करो और शत्रु की शक्ति से न डरो और न घबराओ कि ईश्वर की शक्ति उससे अधिक है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि इस्लामी समाज में भय व आतंक उत्पन्न होने का कारण बनने वाला हर प्रचार, शैतानी है। रणक्षेत्र में जाने से डरना, ईमान की कमज़ोरी और शैतान के अनुसरण की निशानी है।
 अत्याचारग्रस्तों की आवाज़ को दबाने और उनके आंदोलन व संघर्ष को रोकने के लिए बड़ी शक्तियों को एक शैतानी नीति, डराना और धमकाना है।



सूरए आले इमरान की १७६वीं और १७७वीं आयतों की तिलावत सुनते हैं।
हे पैग़म्बर! कुफ़्र में आगे बढ़ने वाले तुम्हें दुखी न करें, वे कदापि ईश्वर को कोई हानि नहीं पहुंचा सकते। ईश्वर चाहता है कि प्रलय के दिन उनके लिए कोई लाभ न रहे और उनके लिए बहुत ही कड़ा दण्ड है। (3:176) निःसन्देह, जिन लोगों ने ईमान के बदले कुफ़्र ख़रीद लिया है वे कदापि ईश्वर को कोई हानि नहीं पहुंचाएंगे और उनके लिए बहुत ही कठोर दण्ड है। (3:177)
 ओहद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात उनमें से एक गुट के भीतर भय व कमज़ोरी की भावना उत्पन्न हो गई और वे भयभीत व चिन्तित हो गए और वे एक दूसरे से पूछने लगे कि आगे क्या होगा?
 उनके इस प्रश्न के उत्तर में यह आयत पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि ओहद के युद्ध में काफ़िरो की विजय उनके कल्याण व मोक्ष का कारण नहीं है बल्कि वे कुफ्र के भंवर में और अधिक फंसते चले जाएंगे जो उन्हें प्रलय मे हर प्रकार के लाभ से वंचित कर देगा। इसके अतिरिक्त, उनका कुफ़्र ईश्वर को कोई हानि नहीं पहुंचा सकता बल्कि उसके कारण स्वयं उन्हीं को हानि होगी और प्रलय के दिन उन्हें बड़ा ही कठोर दण्ड भुगतना होगा।
 इस आयत की रोचक बातों में से एक, ईमान को गंवाने और कुफ़्र में फंसने के लिए ख़रीदने और बेचने की संज्ञा का प्रयोग है। क़ुरआन इस संसार को एक बाज़ार कहता है और लोगों को इस बाज़ार के विक्रेता, जो अपने अस्तित्व की पूंजी अर्थात कर्म और विश्वास को बेचते आए हैं। इस बाज़ार में बेचना अनिवार्य है क्योंकि हमारी आयु हमारे नियंत्रण में नहीं है परन्तु ग्राहक का चयन हमारे हाथ में है। ग्राहक या तो ईश्वर है या उसके अतिरिक्त कोई और। क़ुरआन ऐसे लोगों की सराहना करता है जो ईश्वर के साथ लेन-देन करते हैं और भारी लाभ उठाते हैं जो कि ईश्वरीय स्वर्ग है। इसी प्रकार से क़ुरआन उन लोगों की आलोचना करता है जो अपनी आयु के लेनेदेन में या लाभ नहीं उठाते या उन्हें भारी घाटा होता है।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वर को हमारे असित्तव या हमारे कर्मों की कोई आवश्यकता नहीं है कि यदि कोई काफ़िर हो जाए और अपने कर्तव्यों का पालन न करे तो उसे घाटा होगा या उसका धर्म कमज़ोर पड़ जाएगा।
 विश्वास में कुफ़्र और व्यवहार में कर्म में अकृतज्ञता मनुष्य को प्रलय में ईश्वरीय दया व कृपा से वंचित कर देती है।
 काफ़िर समुदायों और इस्लामी समाज की तुलना करते समय केवल उनके संसार को ही नहीं देखना चाहिए बल्कि प्रलय में ईश्वरीय अनुकंपाओं से उनके वंचित होने पर भी ध्यान देना चाहिए। इससे हमारे विचारों और आत्मा को शांति मिलेगी।




 सूरए आले इमरान की १७८वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
और जो लोग काफ़िर हुए वे यह न सोचें कि हम उन्हें जो मोहलत देते हैं वह उनके लिए अच्छी है बल्कि इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है कि हम उन्हें मोहलत देते हैं ताकि वे अपने पापों में वृद्धि कर लें और उनके लिए अपमानजनक दण्ड है। (3:178)
 पिछली आयतों में मुसलमानों को यह सांत्वना देने के पश्चात कि वे काफ़िरों की विजय से दुखी व चिन्तित न हों, इस आयत में ईश्वर कहता है कि काफ़िरों को मोहलत देना ईश्वरीय परंपरा है न कि उन्हें दण्डित करने में ईश्वर की अक्षमता और अज्ञानता की निशानी। ईश्वर ने सभी मनुष्यों को चाहे वे अच्छे हों या बुरे, ईमान वाले हों या काफ़िर, यह अधिकार दिया है कि वे अपने कर्मों को पूरे अधिकार के साथ करें और अपने जीवन के मार्ग का चयन स्वयं करें। तो उन्हें मोहलत दी जानी चाहिए कि हर कोई अपने मन और इच्छा से जैसा करना चाहें वैसा करें, नहीं तो लोगों के चयन और अधिकार का कोई अर्थ नहीं रहेगा।
 अलबत्ता स्वाभाविक है कि काफ़िर इस ईश्वरीय मोहलत से ग़लत लाभ उठाता है और बुरे कर्म करता है और उस मोहलत का परिणाम, पापों में वृद्धि के रूप में निकलता है परन्तु स्वेच्छा से किये गए कर्म का मूल्य इतना अधिक है कि ईश्वर इस परिणाम को मनुष्य से अधिकार छीनने का कारण नहीं बनाता बल्कि वह काफ़िर को भी मोहलत देता है कि वह जैसा चाहे कर्म करे।
 यद्यपि काफ़िर इस मोहलत को अपने हित में समझते हैं और यह विचार करते हैं कि उनके कर्मों के लिए भूमि प्रशस्त होना, उनके तथा उनके कर्मों के अच्छे होने के अर्थ में है परन्तु स्वाभाविक है कि कुफ़्र और बुराई का अंत प्रलय में कड़े दण्ड के अतिरिक्त कुछ न होगा।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वरीय मोहलत उसकी दृष्टि में प्रिय होने की निशानी नहीं है। इन मोहलतों से धोखा नहीं खाना चाहिए।
 लंबी आयु महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि आयु से लाभ उठाने की पद्धति महत्व रखती है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने मकारिमुल अख़लाक नामक एक दुआ में ईश्वर से प्रार्थना की है कि यदि मेरी आयु शैतान की चरागाह बन रही है तो उसे छोटा कर दे।
 काफ़िरों की स्थिति देखकर तुरन्त ही निर्णय नहीं करना चाहिए बल्कि उनके अंत और प्रलय में उनकी दशा को भी दृष्टिगत रखना आवश्यक है।
 अत्याचारियों के शासन को, उनसे ईश्वर के प्रसन्न होने का चिन्ह नहीं समझना चाहिए और उनके मुक़ाबले में चुप नहीं बैठना चाहिए।

 सूरए आले इमरान की १७९वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
ईश्वर का यह इरादा नहीं है कि वह मोमिनों को उस स्थिति पर छोड़ दे जिसमें तुम हो यहां तक कि वह (परीक्षाओं द्वारा) बुरे को अच्छे से अलग कर दे। और ईश्वर का यह इरादा नहीं है कि वह तुमको ग़ैब (अर्थात अपने गुप्त ज्ञान) से अवगत कराए। किंतु ईश्वर अपने पैग़म्बरों में से जिसका चाहता है चयन करता है। (और उसे ग़ैब से अवगत कराता है) तो ईश्वर और उसके पैग़म्बरों पर ईमान लाओ और यदि तुम ईमान लाए और ईश्वर से डरते रहे तो तुम्हारे लिए महान पारितोषिक है। (3:179)
 यह आयत ओहद के युद्ध के बारे में इस सूर की अन्तिम आयत है। आयत ओहद के युद्ध की कटु व मीठी घटनाओं के निष्कर्ष के रूप में ईमान वालों को संबोधित करते हुए कहती है कि यह मत सोचो कि जो कोई भी ईमान का दावा करे ईश्वर उसी रूप में उसे स्वीकार कर लेगा और वह आराम से जीवन व्यतीत कर सकता है, नहीं, बल्कि ईश्वर सदैव कठिनाइयों द्वारा परीक्षा लेता रहता है ताकि मनुष्य के मन की बात बाहर आ जाए और यह स्पष्ट हो जाए कि कौन अपने ईमान के दावे में सच्चा है और कौन झूठा।
 अलबत्ता स्वयं ईश्वर मनुष्य की गुप्त तथा विदित हर बात से अवगत है औन बिना परीक्षा के भी अच्छे और बुरे को पहचानता है परन्तु वह कुछ पैग़म्बरों के अतिरिक्त किसी को भी इन गुप्त बातों से अवगत नहीं कराता, बल्कि वह कुछ ऐसा करता है कि हर व्यक्ति अपने भीतर व मन की बात को प्रकट कर दे और उसी के आधार पर उसे पारितोषिक और दण्ड दिया जाए।
 जैसा कि यही ओहद का युद्ध मिथ्याचारियों को पहचानने का साधन बन गया और लोगों को उनके भीतर की बुराइयों का ज्ञान हो गया। मूल रूप से यदि लोगों को ग़ैब द्वारा एक दूसरे की अच्छाई और बुराई का ज्ञान हो जाए तो सामाजिक संबन्ध टूट जाएंगे और जीवन अराजकता की भेंट चढ़ जाएगा अतः बेहतर है कि लोगों के एक दूसरे के भीतरी रहस्यों का ज्ञान न हो ताकि जीवन सामान्य रहे तथा लोगों की पहचान, परीक्षाओं द्वारा धीरे धीरे स्पष्ट हो।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि जैसा कि पिछली आयत में कहा गया था कि ईश्वर, अपने कुफ़्र पर आग्रह करने वाले हठधर्मी काफ़िरों को उनके हाल पर छोड़ देता है ताकि प्रलय में एक साथ उनका हिसाब करके उन्हें दण्डित किया जाए। परन्तु इस आयत में कहा गया है कि ईमान का दावा करने वाल मोमिनों को ईश्वर उनके हाल पर नहीं छोड़ता।
 लोगों की गुप्त बातों को जानने के चक्कर में नहीं रहना चाहिए क्योंकि यह ईश्वर की इच्छित बात नहीं है।
 ग़ैब का ज्ञान, ईश्वर से विशेष है और केवल कुछ ही पैग़म्बर और वे भी ईश्वर की अनुमति से गुप्त बातों का ज्ञान रखते हैं।
 हमारा कर्तव्य ईश्वर पर ईमान रखना और उससे डरते रहना है न यह कि हम कड़ी साधना से उस स्थिति पर पहुंच जाएं कि लोगों की गुप्त बातों और रहस्यों तक पहुंच जाएं और फिर उन्हें दूसरे लोगों को बताते फिरें।




 सूरए आल इमरान की १८०वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
जो लोग ईश्वर की कृपा से मिले हुए (धन व माल तथा अन्य चीज़ों) में कंजूसी करते हैं उनके बारे में कदापि यह न सोचो कि यह (कंजूसी) उनके लिए बेहतर है (नहीं) बल्कि उनके लिए हानिकारक है (क्योंकि) शीघ्र ही प्रलय में वे सारी चीज़ें उनके गले का तौक़ बन जाएंगी जिनमें उन्होंने कंजूसी की है। (जान लो कि) आकाशों और धरती की धरोहर ईश्वर ही की है और ईश्वर जो कुछ तुम करते हो, उससे भलि-भांति अवगत है। (3:180)


 पिछली आयतों में युद्ध, जेहाद तथा ईश्वर के मार्ग मे जान न्योछावर करने की बात करने के पश्चात इस आयत तथा बाद की आयतों में ईश्वर के मार्ग में धन ख़र्च करने तथा दान दक्षिणा करने हेतु प्रोत्साहित किया गया है क्योंकि कोई भी ईमान वाला व्यक्ति समाज के वंचित लोगों की ओर से निश्चेत रहकर केवल अपने हितों के बारे में ही नहीं सोच सकता। ईश्वर द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं में से एक यही है, जिसका उल्लेख पिछली आयत में किया गया था, कि कमज़ोर व दरिद्र लोगों के प्रति मनुष्य का व्यवहार क्या होता है। वह कंजूसी करता है या फिर उनकी आर्थिक सहायता करता है।
 आगे चलकर आयत कहती है कि यदि तुम अपने भविष्य के विचार में हो तो भी आर्थिक भलाई करो कि उसका लाभ स्वयं तुमको होगा और यदि तुम कंजूसी करोगे तो संसार में भी तुम्हारा घाटा होगा और प्रलय में भी वही कंजूसी तुम्हारे लिए दण्ड का कारण बनेगी।
 इस आयत से हमने सीखा कि यह सोचना तो बिल्कुल ही ग़लत है कि यदि हम अपने धन में से दूसरों को दान दक्षिणा नहीं देंगे तो धनवान हो जाएंगे। धन व संपत्ति, ईश्वर की कृपा के कारण है और यदि वह चाहे तो दूसरों के देने के बावजूद उसमें वृद्धि हो सकती है।
 वह धन जो ईश्वर के मार्ग में ख़र्च न हो भलाई नहीं बल्कि बुराई का कारण है।
इस संसार की हर वस्तु ईश्वर की है। हम ख़ाली हाथ आए हैं और ख़ाली हाथ ही वापस चले जाएंगे, फिर कंजूसी किस लिए?



 सूरए आल इमरान की आयत नंबर १८१ और १८२ की तिलावत सुनते हैं।
निःसन्देह ईश्वर ने उन लोगों की बात सुनी जिन्होंने कहा कि ईश्वर दरिद्र है और हम धनवान। हम शीघ्र ही उनकी बातों और उनके द्वारा पैग़म्बरों की अकारण हत्या को लिखेंगे और उनसे कहेंगे कि जलाने वाले दण्ड का (मज़ा) चखो। (3:181) यह दण्ड तुम्हारे पिछले कर्मों के कारण है जिन्हें तुमने भेजा है वरना ईश्वर कभी भी अपने बंदों पर अत्याचार नहीं करता। (3:182)
 क़ुरआन की व्याख्या की पुस्तकों में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने मदीने के सीमपवर्ती एक यहूदी क़बीले को पत्र लिखा और उन्हें इस्लामी स्वीकार करने, नमाज़ पढ़ने और ज़कात देने का निमंत्रण दिया। उस यहूदी क़बीले के मुखिया ने परिहास करते हुए कहा कि इस निमंत्रण के अनुसार ईश्वर को हमारी आवश्यकता है जबकि हम आवश्यकतामुक्त हैं। उसने हमसे धन चाहा है और हमें प्रलय में उसमें वृद्धि का वचन दिया है।
 यह आयत उतरी और पैग़म्बर को संबोधित करते हुए कहा, उनकी यह अनुचित बातें और इसी प्रकार से उनके पूर्वजों द्वारा ईश्वरीय पैग़म्बरों की हत्या के नृशंस कार्य पर उनकी रज़ामंदी, अनुत्तरित नहीं रहेगी और इन्हें नरक में जलाने वाले दण्ड का मज़ा चखना होगा।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि वंचितों की सहायता करना या उन्हें ऋण देना इसमें ईश्वर की आवश्यकता की निशानी नहीं है क्योंकि वास्वत में जो भी माल हम देते हैं वह तो ईश्वर ही का है और हमारे पास अमानत के रूप में है।
 धर्म की पवित्र बातों के सम्मान की रक्षा होनी चाहिए, धर्म या धार्मिक पवित्र बातों के अनादर का कड़ा दण्ड दिया जाएगा।
 ईमान वालों के अनादर या बातों द्वारा उनका दिल दुखाने का पाप, किसी पैग़म्बर की हत्या के पाप से कम नहीं है। प्रलय के दिन दिया जाने वाला दण्ड, स्वयं हमारे ही कर्मों का फल है न कि अत्याचार या ईश्वरीय प्रतिशोध।
 सूरए आले इमरान की १८३वीं आयत की तिलावत सुनते हैं।
वही लोग जिन्होंने कहा कि ईश्वर ने हमसे वचन लिया है कि हम किसी भी पैग़म्बर पर ईमान न लाएं सिवाए इसके कि वह हमारे लिए एक ऐसी बलि लाए जिसे आग व बजिली खा जाए। (हे पैग़म्बर!) कह दो कि निःसन्देह मुझसे पूर्व भी पैग़म्बर आए हैं जिनके पास स्पष्ट चमत्कार और निशानिया थीं और जो कुछ तुमने कहा वे ले आए, तो फिर तुमने उनकी हत्या क्यों की यदि तुम सच्चे हो। (3:183)
 यहूदियों का एक गुट पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान न लाने के लिए सदैव बहाने बनाता रहता था जिनमें से एक बहाने की ओर आयत में संकेत किया गया है। वे कहते थे हम तो उस पैग़म्बर पर ईमान लाएंगे जो किसी पशु को बलि करे और आकाश की बिजली उसे लोगों के सामने जला दे, जो उस बलि के स्वीकार होने की निशानी है जैसाकि हज़रत आदम के बेटों हाबील और क़ाबील के बारे में ईश्वर ने हाबील की बलि को आकाश की बिजली से जलाकर स्वीकार कर लिया तथा क़ाबील की बलि को स्वीकार नहीं किया।
 ईश्वर, यहूदियों के इस बहाने के उत्तर में कहता है कि प्रथम तो यह आवश्यकता नहीं है कि सभी पैग़म्बरों के चमत्कार एक दूसरे के समान हों बल्कि हर पैग़म्बर का कोई न कोई चमत्कार होना चाहिए। दूसरे जिन पैग़म्बरों ने इस प्रकार का चमत्कार दिखाया भी तो तुमने उन्हें स्वीकार नहीं किया बल्कि तुम लोगों के पूर्वजों ने उनकी हत्या करदी जिसकी पुष्टि तौरेत में भी की गई है।
 इस आयत से हमने सीखा कि सत्य को स्वीकार करने से बचने के लिए अपने कार्यों को धर्म तथा ईश्वर की ओर संबन्धित करके उनका औचित्य नहीं दर्शाना चाहिए क्योंकि यह अच्छा काम नहीं है।
 ईश्वर के मार्ग में पशुओं की बलि चढ़ाना एक प्राचीन परंपरा है और कभी कभी इसे पैग़म्बरों के चमत्कार के रूप में भी प्रयोग किया गया है।




सूरए आले इमरान की आयत नंबर १८४ की तिलावत सुनते हैं।
हे पैग़म्बर! यदि (बहाने बनाने वाले) तुम्हें भी झुठला दें (तो दुखी मत हो क्योंकि) तमु से पहले भी जो पैग़म्बर चमत्कारों तत्वदर्शी लेखों और स्पष्ट करने वाली किताब के साथ आए थे, उनको भी झुठलाया गया था। (3:184)
 यह आयत पैग़म्बर को संबोधित करते हुए कहती है कि सत्य का इन्कार करना और उसे झुठलाना, सदा से ही विरोधियों की आदत रही है। यह न सोचो कि केवल तुम्हारे ही सामने एक गुट खड़े होकर तुम्हें झुठला रहा है बल्कि तुमसे पूर्व भी जो पैग़म्बर थे, यद्यपि उन्होंने अपनी सत्यता के प्रमाण में स्पष्ट तर्क व निशानियां प्रस्तुत की थीं परन्तु उन्हें भी झुठलाया गया।
 मूल रूप से विरोध व इन्कार, ईश्वर ने मनुष्य को जो चयन का अधिकार दिया है उसी से प्रभावित होता है। यदि सारे लोग पैग़म्बरों पर ईमान ले आते तो उनकी सत्यता के बारे में संदेह होता कि यह कैसा धर्म है जो हर प्रकार के अच्छे और बुरे विचारों के अनुकूल है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि पिछले लोगों के इतिहास का ज्ञान तथा सत्य व असत्य के बीच होने वाले संघर्ष की जानकारी मनुष्य में धैर्य व संयम की भावना को बढ़ा देती है और उसके मन को शांत करती है।
 पैग़म्बरों का आन्दोलन कथन व किताब के द्वारा एक सांस्कृतिक आन्दोलन था और विरोधियों से जेहाद बाद के चरण में तथा लोगों पर उनके शासन को रोकने के उद्देश्य से था।



 सूरए आले इमरान की आयत संख्या १८५ की तिलावत सुनते हैं।
हर कोई मृत्यु का स्वाद चखने वाला है और निःसन्देह प्रलय के दिन तुम्हें (तुम्हारे कर्मो का) बदला पूर्ण रूप से दे दिया जाएगा। तो जो कोई नरक से दूर रखा जाए और स्वर्ग में चला जाए तो निश्चित रूप से उसे कल्याण प्राप्त हो गया है और (जान लो कि) संसार का जीवन धोखे की वस्तु के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (3:185)

 यह आयत पैग़म्बरों और उनके अनयाइयों को, जिन्हें सदैव ही विरोधियों की यातनाओं का सामना रहा है संबोधित करते हुए कहती है कि धैर्य रखों और प्रतिरोध करो तथा जानलो कि यह सब हठधर्मिता अस्थाई है और सभी मरने वाले हैं अतः प्रलय में अपने अंजाम के बारे में सोचते रहो कि जो कोई नरक से बच गया और स्वर्ग में चला गया वही सफल है। अतः इस नश्वर एवं अल्पकालीन संसार से मन न लगाओ कि इसकी चकाचौंध केवल एक धोखा है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि मृत्यु सबके लिए है चाहे वह सुधार करने वाला पैग़म्बर हो या बिगाड़ पैदा करने वाला व्यक्ति। न काफ़िर इस संसार में रहने वाला है और न ही मोमिन। सभी यहां आते हैं और कुछ समय के पश्चात वापस चले जाते हैं।
 मृत्यु अंत नहीं है बल्कि यह एक सराय से दूसरी सराय तक स्थानांतरण है। हर कोई इस स्थानांतरण का स्वाद चखेगा। अब कुछ को यह अच्छा लगता है जबकि कुछ को बुरा
 संसार में काफ़िरों की धन दौलत तुम्हें धोखा न देने पाए क्योंकि अनंत विभूति केवल प्रलय के स्वर्ग में मिलेगी न कि संसार में।




सूरए आले इमरन की आयत नंबर १८६ की तिलावत सुनते हैं।
निःसन्देह, तुम्हारे धन व माल तथा जान द्वारा तुम्हारी परीक्षा ली जाएगी और जिन लोगों को तुमसे पूर्व किताब दी गई है और इसी प्रकार से जिन लोगों ने किसी को ईश्वर का समकक्ष बना दिया है उनकी ओर से तुम बहुत यातनाएं (झेलो और) सुनोगे। और जान लो कि यदि तुम संयम बरतो और केवल ईश्वर से डरो तो यह कर्मों की दृढ़ता की निशानी है। (3:186)
 इतिहास में वर्णित है कि जब मुसलमानों ने मक्के से मदीने की ओर पलायल किया तो अनेकेश्वरवादी उनके धन व संपत्ति पर अतिक्रमण करते थे अन्य मुसलमानों को मौखिक रूप से घाव लगाते थे। दूसरी ओर मदीने के यहूदी भी मुसलमनों को ताने देकर या मुसलिम महिलाओं का अनादर करके उन्हें यातनाएं दिया करते थे। यह कार्य इतना बढ़ गया था कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने इस अभियान के अगुआ की हत्या का आदेश दे दिया।
 यह आयत ईश्वर की एक महान परंपरा अर्थात परीक्षा की ओर संकेत करते हुए मुसलमानों से कहती है कि यह मत सोचो कि इस्लाम लाने से तुम्हें आराम प्राप्त हो जाएगा। बल्कि तुम्हें सदैव शत्रुओं की ओर से षड्यंत्रों और यातनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए। यहां तक कि यदि तुम उन्हें उनकी स्थिति पर छोड़ दो तब भी वे नहीं मानेंगे और किसी न किसी रूप में अपने कुफ़्र व अपनी शत्रुता को प्रकट करते ही रहेंगे।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि धन, संपत्ति तथा ज्ञान सदैव परीक्षा की कगार पर है। हमें इस प्रकार से जीवन व्यतीत करना चाहिए कि सदैव ईश्वर के मार्ग में जान व माल देने के लिए तैयार रहें।
 इस्लाम के शत्रु, इस्लाम व मुसलमानों को क्षति पहुंचाने में समन्वय रखते हैं अतः उनसे मुक़ाबले के लिए मुसलमानों को भी समन्वित होना चाहिए।
 धैर्य व ईश्वर से भय दोनों एक साथ सफलता का कारण बनते हैं परन्तु ज़िद्दी लोगों के ईश्वर से डर के बिना भी दृढ़ता व स्थिरता उतपन्न हो सकती है।

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