सूरए आले इमरान 3:23-53

सूरए आले इमरान की आयत संख्या २३ और २४ इस प्रकार है। क्या तुम उन लोगों को नहीं देखते जिन्हें किताब (अर्थात) तौरेत का थोड़ा सा ज्ञान प्रा...

सूरए आले इमरान की आयत संख्या २३ और २४ इस प्रकार है।

क्या तुम उन लोगों को नहीं देखते जिन्हें किताब (अर्थात) तौरेत का थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त है। जब उन्हें उसी ईश्वरीय किताब की ओर बुलाया जाता है ताकि उसी के आधार पर उनके बीच फ़ैसला किया जाए, तो उनमें से एक गुट पीठ दिखा जाता है। (3:23) और ईश्वरीय आदेश की ओर से मुंह मोड़ लेता है। उनका यह कार्य इस कारण है कि वे कहते हैं कि नरक की आग हम तक नहीं पहुंच सकती सिवाए कुछ दिनों के। और यह झूठ जो उन्होंने स्वयं गढ़ा है, उन्हें उनके धर्म के प्रति धोखा देता है। (3:24)

 पिछले कार्यक्रम हमने में कहा था कि यद्यपि यहूदी विशेषकर उनके विद्वान इस्लाम की सत्यता को समझ चुके थे परन्तु उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया बल्कि शत्रुता और ईर्ष्या के कारण उसका इन्कार कर दिया।
 यह आयतें पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहती है कि यहूदी यदि तुम्हारे धर्म पर ईमान नहीं लाते तो तुम दुखी न हो क्योंकि वे अपने धर्म के प्रति भी प्रतिबद्ध नहीं हैं। जैसा कि उनमें से एक व्यक्ति ने जब बलात्कार किया तो तौरेत के आदेश से बचने के लिए वे तुम्हारे पास आए कि शायद इस्लाम में इस अपराध का दण्ड मृत्यु न हो। परन्तु जब तुमने क़ुरआन के आधार पर फ़ैसला सुनाया कि जो तौरेत ही की भांति था तो उन्होंने तौरेत ही का इन्कार कर दिया। क़ुरआन की दृष्टि में विशिष्टता प्राप्त की यह भावना एक प्रकार का धार्मिम अहं है जिसमे बनी इस्राईल फंसे हुए थे। वे सोचते थे कि ईश्वर उनसे अधिक प्रेम करता है और वे उच्च जाति के हैं अतः प्रलय में वे नरक में नहीं जाएंगे और यदि गए भी तो केवल कुछ ही दिन नरक में रहेंगे।
 इन आयतों से हमने सीखा कि किसी चीज़ का दावा करना ईमान की निशानी नहीं है। क़ेसास अर्थात जैसे का तैसा दंड जैसे ईश्वरीय आदेशों के पालन के समय लोगों के ईमान का पता चलता है।


 हर प्रकार का घमण्ड और स्वयं को दूसरो से बेहतर समझना वर्जित है यहां तक कि यदि उसका स्रोत धर्म और धर्म पालन ही क्यों न हो।
 सभी मनुष्य लोक-परलोक में ईश्वरीय क़ानूनों के समक्ष समान हैं और किसी को किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या २५ इस प्रकार है।

(जो लोग यह सोचते हैं कि वे ईश्वरीय दण्ड से दूर हैं) उनकी दशा कैसी होगी जब हम उन्हें (प्रलय के) दिन, जिसमें कोई संदेह नहीं है, एकत्रित करेंगे और हर व्यक्ति को, जो कुछ उसने किया है, उसका पूरा बदला दिया जाएगा और उन पर अत्याचार नहीं किया जाएगा। (3:25)


 पिछली आयत में यहूदियों की ग़लत धारणाओं का उल्लेख करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में कहता है कि जैसाकि वे सोचते हैं, वैसा नहीं है, और यहूदी व ग़ैर यहूदी में कोई अंतर नही है। हर किसी का महत्व उसके कर्मों के कारण है चाहे व किसी भी धर्म का हो।
 ऐसा नहीं है कि कोई विशेष धर्म किसी के लिए कोई ख़ास विशिष्टता लाए। ईश्वर न्याय के आधार पर ही लोगों के बीच फ़ैसला करता है तथा बदला देने में तनिक भी अन्याय नहीं करता।
 इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की ओर से भले या बुरे कर्मों का बदला ईमान व कर्म के आधार पर है न कि धार्मिक, राष्ट्रीय या जातीय संबंध के आधार पर।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या २६ तथा २७ इस प्रकार है।
हे पैग़म्बर कह दीजिए! हे प्रभुवर! हे राज्यों और शासनों के स्वामी! तू जिसे चाहता है शासन देता है और जिससे चाहता है शासन छीन लेता है, जिसे चाहता है सम्मान देता है और जिसे चाहता है अपमानित करता है। भलाई केवल तेरे ही हाथों में है और तू हर बात में सक्षम है। (3:26) तू रात को दिन में और दिन को रात में प्रविष्ट करता है। जीवित को मृत से और मृत को जीवित से बाहर निकालता है और तू जिसे चाहे बेहिसाब (आजीविका) देता है। (3:27)



 पिछली आयतों में इस्लाम के समक्ष यहूदियों के घमण्ड और अहं के वर्णन के पश्चात इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहा जा रहा है कि हर वस्तु का नियंत्रण ईश्वर के हाथ में है और वास्तविक आदर तथा शक्ति का स्रोत वहीं है। जैसाकि बिना किसी रक्तपात के ईश्वर ने तुम्हें मिथ्याचारियों पर विजय दिलाते हुए मक्के को स्वतंत्र कर दिया था वैसे ही संसार के अन्य स्थानों जैसे ईरान तथा रोम के लोगों के हृदय भी इस्लाम की ओर आकृष्ट हो जाएंगे।
 इस आयत के बारे में इतिहास में वर्णित है कि जब अहज़ाब या ख़ंदक़ नामक युद्ध में मीदने के चारों ओर ख़ंदक़ खोदी जा रही थी तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की कुदाल एक बड़े पत्थर से लड़ी और उसमें से चिंगारी निकली। आपने कहा, मैं इन चिंगारियों में कुफ़्र पर इस्लाम की विजय और मदायन तथा रोम के महलों को मुसलमानों के हाथों में देख रहा हूं।
 यह शुभ सूचना सुनकर मुसलमान उत्साहपूर्वक नारे लगाने लगे परन्तु मिथ्याचारियों ने उनका परिहास करते हुए कहा कि तुम लोग कैसी बेकार की आशाएं रखते हो, शत्रु के भय से तो अपने चारों ओर ख़ंदक़ खोद रहे हो और दिल में ईरान तथा रोम की विजय की आशा लगाए बैठे हो। इस अवसर पर यह आयत आई। इसमें ईश्वर ने पैग़म्बरे इस्लाम से कहाः
 इन सीमित विचार वालों से कहो कि पूरे संसार तथा ब्रह्माण्ड का स्वामी ईश्वर ही है। धरती और आकाश को वही न केवल यह कि अस्तित्व में लाया है बल्कि अपने धुव्रों पर उनको सुव्यवस्थित ढंग से वहीं चलाता है जिससे दिन और रात अस्तित्व में आते हैं। सभी प्राणियों का जीवन, उनकी मृत्यु तथा उनका भोजन सब ईश्वर के हाथ मे है। तो तुम्हें इस बात पर क्यों आश्चर्य होता है कि ईश्वर मुसलमानों को शासन दे देगा? और क्यों तुम लोग सत्ता व शासन प्राप्ति के लिए ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य के पास जाते हो? यदि तुम्हें शासन और सत्ता चाहिए तो उसे धर्म की छाया में खोजो। तुम धर्म के आदेशों का पालन करते रहो तो ईश्वर तुम्हें एसी शक्ति प्रदान कर देगा कि कोई भी अत्याचारी तुमपर स्वयं को थोप नहीं सकेगा।
 आज काफ़िर यदि संसार पर राज्य कर रहे हैं और मुसलमान पिछड़े हुए हैं तो इसके दो कारण हैं। प्रथम मुसलमानों के बीच फूट कि जो ईश्वरीय परंपरा के अनुसार अपमान और अत्याचारियों के शासन का कारण है और दूसरे काफ़िरों द्वारा ज्ञान प्राप्ति तथा क़ानून व व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास कि जो ईश्वरीय परंपरा के अनुसार सम्मान और सत्ता के बाक़ी रहने का कारण है।
 इस आधार पर ईश्वर किसी को भी न तो अकारण सम्मानित करता है और न ही अपमानित। सम्मान तथा अपमान का कारण स्वयं हमारे हाथ में होता है और हम ही अपने व्यवहार तथा कर्मों द्वारा अपने तथा समाज के भविष्य को सुनिश्चित करते हैं।
 इन आयतों से हमने सीखा कि पूरे संसार की व्यवस्था ईश्वर के हाथ में है, चाहे वह जीवों और अन्य वस्तुओं की सृष्टि से संबन्धित हो या अन्य मामलों से। अतः हमें ईश्वरीय क़ानून और परंपरा के अनुसार काम करना चाहिए ताकि हमें सौभाग्य प्राप्त हो सके।
 वास्तविक शासन और राज्य ईश्वर के हाथ में है, दूसरों के राज्य जल्दी ही समाप्त होने वाले हैं और अस्थाई हैं।
 प्रकृति की व्यवस्था, जीवन व मृत्यु जैसे दो ध्रुवों पर घूमती है। ईश्वर की शक्ति से निर्जीव दाने से पेड़-पौधे उगते हैं तथा निर्जीव खाद्यानों से जीवित कोशिकाएं बनती हैं।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या २८ तथा २९ इस प्रकार है।

ईमान वालों को मोमिनों के स्थान पर काफ़िरों से मित्रता नहीं करनी चाहिए और जिसने भी एसा किया तो ईश्वर के समीप उसे कोई लाभ नहीं मिलेगा, सिवाए इसके कि तुम उनसे तक़य्या करो अर्थात उनके ख़तरे से स्वयं की रक्षा के लिए उनके साथ मेल-जोल रखो और ईश्वर तुम्हें (अपना आज्ञापालन न करने के कारण) स्वयं से डराता है और जान लो कि सभी को उसी की ओर वापस जाना है। (3:28) हे पैग़म्बरः मुसलमानों से कह दो कि जो कुछ तुम्हारे हृदय में है उसे तुम छिपाओ या स्पष्ट करो, ईश्वर उसे जानता है, और वह हर उस वस्तु को जानता है जो धरती या आकाशों में है और ईश्वर हर काम में सक्षम है। (3:29)
 इन आयतों में इस बात का वर्णन किया गया है कि मुसलमानों का आपसी और काफ़िरों के साथ संबंध कैसा होना चाहिए। आयत कहती है कि दूसरों के साथ मोमिन का संबंध ईमान के आधार पर होना चाहिए क्योंकि धार्मिक संबंध, रिश्तेदारी, सामुदायिक व देशीय संबंधों से अधिक महत्वपूर्ण होता है। इस आधार पर सभी मोमिनों को चाहे वे संसार के किसी भी क्षेत्र से हो, आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने तथा आपस में एकता और सहायता उत्पन्न करने का प्रयास करते रहना चाहिए और इस बात की अनुमति नहीं देनी चाहिए कि काफ़िर उनको अपने नियंत्रण में ले लें।
 अलबत्ता जिस स्थान पर कुफ़्र और अनेकेश्वरवाद का शासन हो और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी न हो उस स्थान पर मोमिन को अपने विश्वासों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के बजाए, कि जो उसके तथा अन्य मोमिनों के विनाश का कारण बन सकता हो, अपने भीतर अपने विश्वासों को सुरक्षित रखते हुए अस्थाई रूप से शत्रु के साथ मेल-जोल रखना चाहिए।


 स्पष्ट है कि इस प्रकार का व्यवहार वास्तव में धर्म की सुरक्षा के लिए है अतः ऐसे स्थान पर जहां स्वयं धर्म की ख़तरे में हो, किसी से भी डरे बिना, हर वस्तु का बलिदान कर देना चाहिए। जिस प्रकार से पैग़म्बरे इस्लाम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद के मुक़ाबले में संघर्ष किया। हालांकि वे जानते थे कि वे और उनके साथी शहीद हो जाएंगे और उनके परिवार के बच्चे और महिलाओं को बंदी बना लिया जाएगा। यह आयत आगे चलकर कहती है कि कहीं ऐसा न हो कि तक़य्ये के बहाने तुम शत्रु के साथ मिल जाओ और उसकी सत्ता को स्वीकार कर लो क्योंकि ईश्वर तुम्हारे हृदय की बातों से परिचित है और वह जानता है कि तुमने किस उद्देश्य से काफ़िरों के साथ संपर्क बना रखा है।



 इन आयतों से हमने यह सीखा कि हर उस कार्य को स्वीकार करना वर्जित है जो मोमिनों पर काफ़िरों के प्रभुत्व का कारण बनता हो। मोमिनों को अपना आपसी संबंध इतना सुदृढ़ बनाना चाहिए कि शत्रु के प्रभाव के लिए कोई स्थान न बचे।
 काफ़िरों के ख़तरों से सुरक्षित रहने के लिए अपने धार्मिक विश्वास को छिपाने या उनमें मेल-जोल रखने में कोई बुराई नहीं है परन्तु शर्त यह है कि इस कार्य से धर्म ख़तरे में न पड़े।


आले इमरान की आयत संख्या ३० इस प्रकार है।
(प्रलय) वह दिन है जब हर व्यक्ति अपने हर अच्छे कर्म को तैयार पाएगा और उसने जो भी बुरा कर्म किया होगा उसके बारे में कामना करेगा कि काश उसके और उस बुरे कर्म के बीच लंबा अंतर होता। ईश्वर तुम्हें अपनी आज्ञा का पालन न करने की ओर से डराता है और वह अपने बंदों के प्रति कृपाशील है। (3:30)
 यह आयत सभी मोमिनों को सचेत करती है कि तुम्हारे सारे ही कार्य चाहे वे अच्छे हों या बुरे, इस संसार में समाप्त नहीं होते, बल्कि ईश्वर और फ़रिश्तों के पास अंकित होते रहते हैं। यही कर्म प्रलय के दिन तुम्हारी आखों के समक्ष साक्षात्कार रूप में उपस्थित होंगे अतः तुम लोग ईश्वर के कोप से डरो और बुरे कर्मों को छोड़ दो क्योंकि प्रलय के दिन तुम्हारे बुरे कर्म इतने विकृत रूप से तुम्हारे समक्ष आएंगे कि तुम स्वयं ही उनसे घृणा करोगे और उनकी दुर्गंध से पीड़ित हो जाओगे और यह कामना करोगे कि काश तुम्हारे तथा तुम्हारे इन कर्मों के बीच भारी अंतर होता।
 इस आयत से हमने सीखा कि ऐसे अनेक कार्य जिनसे हम संसार में प्रेम करते हैं, प्रलय में हमारी घृणा के पात्र होंगे अतः हमें अपने भविष्य के विचार में रहना चाहिए।
 ईश्वर की चेतावनियों का स्रोत उसका प्रेम और उसकी दया है। चूंकि वह हमसे प्रेम करता है अतः ख़तरों से वह हमें सचेत करता रहता है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ३१ तथा ३२ इस प्रकार है।

(हे पैग़म्बर! मुसलमानों से) कह दीजिए कि यदि तुम ईश्वर से प्रेम करते हो तो मेरा अनुसरण करो ताकि ईश्वर भी तुमसे प्रेम करे और तुम्हारे पापों को क्षमा कर दे। निःसन्देह, ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (3:31) हे पैग़म्बर! फिर कह दीजिए कि मुसलमानो! ईश्वर और पैग़म्बर की आज्ञा का पालन करो। फिर उन्होंने यदि अवहेलना की तो जान लो कि ईश्वर काफ़िरों को पसंद नहीं करता। (3:32)
 धर्म की एक मुसीबत बड़े-बड़े दावे करना है। कुछ लोग जो ईश्वरीय आदेशों का पालन नहीं करना चाहते, विभिन्न बहानों द्वारा ईश्वरीय आदेशों के पालन से बचना चाहते हैं। वे लोग अपने आलस्य का औचित्य दर्शाने के लिए कहते हैं कि मनुष्य को हृदय में ईश्वर व उसके पैग़म्बरों आदि के साथ प्रेम रखना चाहिए और यह विदित कर्म जो लोगों को धोखा देने और दिखावे का कारण हैं, आवश्यक नहीं हैं। हृदय महत्वपूर्ण है न कि कर्म।
 यह लोग जो बुद्धिजीवियों और धार्मिकों के भेस में इस प्रकार की बातें करते हैं उनका ध्यान इस बात पर नहीं है कि वास्वत मे वे स्वयं को धोखा दे रहे हैं क्यों ईश्वर से प्रेम की अभिव्यक्ति उसके और उसके पैग़म्बरों के आज्ञापालन के बिना केवल एक दावा है और कोई भी इस दावे को स्वीकार नहीं करेगा।



 दूसरी ओर हमारे प्रति ईश्वर का प्रेम और उसकी दया, हमारे द्वारा उसके आज्ञापालन पर निर्भर है। ईश्वर उसी से प्रेम करता है जो उसके बताए हुए क़ानूनों का पालन करता है। एसी दशा में ईश्वर उसके पिछले पापों को क्षमा करके उसको अपनी असीम क्षमा व दया का पात्र बना लेता है।
 आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा है? मनुष्य एसे स्थान तक पहुंच सकता है कि उसकी प्रसन्नता, ईश्वर की प्रसन्नता और उसका अनुसरण ईश्वर का अनुसरण बन जाए। जैसाकि इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम के अनुसरण को ईश्वर का अनुसरण बताया गया है।
 हार्दिक प्रेम का दावा, उपासना और व्यवहारिक अनुसरण के बिना निर्थक है। हर दावे को व्यावहारिक रूप में सिद्ध होना चाहिए।
 ईश्वर के कथन की ही भांति पैग़म्बर के कथन और व्यवहार को मानना भी हमारे लिए आवश्यक है और उनकी आज्ञा का पालन न करना कुफ़्र के समान है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ३३ तथा ३४ इस प्रकार है।

निःसन्देह ईश्वर ने आदम, नूह और इब्राहीम तथा इमरान के परिवार को संसार में से चुन लिया है। (3:33) ऐसा वंश जो (चुने हुए पिताओं द्वारा संसार में आया है और पवित्रता तथा विशेषताओं में एक समान है और) कुछ अन्य, कुछ दूसरों से हैं, और ईश्वर सुनने तथा जानने वाला है। (3:34)


 ईश्वर ने लोगों के सही मार्गदर्शन के लिए कुछ लोगों को अपने धर्म प्रचार हेतु चुन लिया है। उनका यह चयन, जन्मजात भी हो सकता है और अच्छे आचरण तथा विशिष्टता के कारण भी। अर्थात ईश्वर ने इस दृष्टि से कि उसका महत्वपूर्ण संदेश लोगों तक भलि-भांति पहुंच जाए, कुछ लोगों की सृष्टि को अन्य लोगों पर वरीयता दी है ताकि लोगों के मार्गदर्शन के कार्य में उन्हें अपने ईमान व प्रयास के अतिरिक्त व्यक्तितत्व की दृष्टि से अन्य लोगों पर एक विशिष्टता मिल जाए।
 अलबत्ता स्पष्ट सी बात है कि सृष्टि में दी गई यह विशिष्टता उन्हें सत्य के मार्ग के चयन पर विवश नहीं करती बल्कि वे अपनी मर्ज़ी और अपने चयन के इस मार्ग को स्वीकार करते हैं और इस मार्ग में प्रयासरत रहते हैं तथा इसी मात्रा में उनके अत्तरदायित्व में वृद्धि होती रहती है।
 इन आयतों में पैग़म्बरों की एक महत्वपूर्ण विशिष्टता अर्थात पवित्र व एकेश्वरवादी परिवार में जन्म की ओर संकेत करते हुए यह कहा गया है कि न केवल हज़रत इब्राहीम बल्कि उनका वंश भी जिसमें हज़रत ईसा मसीह, हज़रत मूसा तथा हज़रत मुहम्मद भी हैं, ईश्वर द्वारा चुन लिया गया है और लोगों के मार्गदर्शन का दायित्व उनपर है।
 इन आयतों से हमने सीखा कि सारे मनुष्य एक स्तर के नहीं हैं। ईश्वर ने उनकी तत्वदर्शिता के आधार पर कुछ मनुष्यों को मार्गदर्शन के लिए, अन्य लोगों का प्रतीक बनाया है।
 बच्चों तक पिता की परिपूर्णता और विशेषताओं के स्थानांतरण में विरासत की महत्वपूर्ण भूमिका है।


सूरए आले इमरान की आयत संख्या ३५ और ३६ की इस प्रकार है।
 (हे पैग़म्बर या करो उस समय को) जब इमरान की पत्नी ने कहा, प्रभुवर! जो बच्चा मेरे गर्भ में है उसे मैंने तेरे लिए समर्पित कर दिया है ताकि वह (तेरे उपासनागृह की देखभाल करे और भौतिक आनंदों से) स्वतंत्र रहे अतः तू मुझ से स्वीकार कर कि निःसन्देह तू बड़ा सुनने और जानने वाला है। (3:35) और जब उसकी प्रसूति हुई तो उसने कहा, "प्रभुवर! मैने बेटी को जन्म दिया है (जो तेरे घर की दासी नहीं हो सकती।") जबकि ईश्वर उसके बारे में अधिक जानने वाला है और वह जानता है कि जिस बेटे की वह कामना कर रही थी वह इस बेटी के समान नहीं है और इमरान की पत्नी ने कहा, प्रभुवर! मैंने इसका नाम मरयम रखा और मैं तुझसे शरण मांगती हूं इसके और इसके वंश के लिए धुत्कारे हुए शैतान से। (3:36)

 ३३वीं आयत में इमरान के वंश की ओर संकेत करने के पश्चात यह आयतें आरंभ में इमरान की बेटी मरयम और फिर उनके पुत्र ईसा मसीह के जन्म के बारे में वर्णन कर रही है और इसी कारण इस सूरे का नाम सूरए आले इमरान अर्थात इमरान का वंश रखा गया है।
 इतिहास में वर्णित है कि इमरान और ज़करिया, बनी इस्राईल के दो महान पैग़म्बर थे। इन दोनों का विवाह दो बहनों से हुआ था परन्तु इनमें से किसी को भी संतान नहीं हो रही थी। यहां तक कि इमरान की पत्नी ने ईश्वर से प्रतिज्ञा की कि यदि ईश्वर उन्हें संतान दे तो वे उसको बैतुल मुक़द्दस का सेवक बनाएंगी और ईश्वर के मार्ग में स्वतंत्र कर देंगी। उनकी प्रार्थना पूरी हुई परन्तु जन्म बेटी ने लिया। यह बात उनकी चिंता का विषय बन गई क्योंकि इससे पूर्व कभी भी किसी लड़की को बैतुलमुक़द्दस की सेवा के लिए स्वीकार नहीं किया गया था।
 इस स्थान पर क़ुरआन कहता है कि ईश्वर तत्वदर्शिता के आधार पर संतान देता है और उसे इस बात का अधिक ज्ञान होता है कि किसको कौन सी संतान दी जा रही है अतः यह संतान यद्यपि लड़की है परन्तु उस बेटे से बेहतर है जिसकी कामना इसकी मां कर रही थी। इस लड़की को अनेक विशेषताएं प्राप्त होने वाली थीं। इन विशेषताओं में से एक हज़रत ईसा मसीह की माता बनने का सौभाग्य था।


 इन आयतों से हमने यह सीखा कि दूरदर्शी लोग, संतान के जन्म से पूर्व ही उसके सही जीवन मार्ग के विचार में रहते हैं और उसे धर्म तथा समाज सेवा के लिए समर्पित कर देते हैं।
 मस्जिद की सेवा करना इतना महत्वपूर्ण और मूल्यवान कार्य है कि इतिहास के बड़े-बड़े लोग अपने बच्चों को इस पवित्र कार्य के लिए समर्पित कर दिया करते थे।
 अपने बच्चों के प्रशिक्षण के लिए केवल अपनी गतिविधियों पर ही भरोसा नहीं करना चाहिए बल्कि ईश्वर से भी प्रार्थना करनी चाहिए कि वो उन्हें पथभ्रष्टता और शैतानी बहकावे से सुरक्षित रखे।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ३७ इस प्रकार है।

तो उसके पालनहार ने उसे अच्छे ढंग से स्वीकार कर लिया और उसका बड़ा अच्छा प्रशिक्षण किया और उसकी अभिभावकता, ज़करिया को दी। जब भी हज़रत ज़करिया उसके अर्थात हज़रत मरयम के नमाज़ पढ़ने के स्थान पर जाते तो वहां पर खाद्य सामग्री पाते। उन्होंने पूछा हे मरयम तुम्हारा यह आहार किसकी ओर से है तो मरयम ने कहाः ईश्वर की ओर से कि निःसन्देह, वह जिसे चाहता है बेहिसाब रोज़ी देता है। (3:37)


 जैसा कि पिछली आयतों में कहा गया है कि हज़रत मरयम की माता ने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी संतान को बैतुल मुक़द्दस का सेवक बनाएंगी और इसी कारण उनकी इच्छा थी कि उनके यहां पुत्र हो ताकि उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो सके परन्तु ईश्वर ने उन्हें संदेश दिया कि वे बेटी को भी बैतुल मुक़द्दस की सेविका के रूप में स्वीकार करेगा। हज़रत मरयम के पिता, उनके जन्म से पूर्व ही इस नश्वर संसार से चले गए थे अतः उनकी माता उन्हें बैतुल मुक़द्दस में लाईं और यहूदी विद्वानों से कहा कि यह शिशु बैतुल मुक़द्दस का उपहार है। तुममें से कोई भी इसकी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ले। हज़रत ज़करिया ने उन बच्ची का दायित्व स्वीकार कर लिया।
 हज़रत ज़करिया की अभिभावकता में हज़रत मरयम बड़ी हुईं। ईश्वर की उपासना में वे इतनी लीन रहा करती थीं कि उन्हें अपने लिए भोजन जुटाने तक का विचार नहीं आता था। इसीलिए उनके पास स्वर्ग से ईश्वर की ओर से भोजन आता था। जब भी हज़रत ज़करिया उनके पास उपासना स्थल में जाते तो हज़रत मरयम का विशेष भोजन उनके समीप होता था।
 इस आयत से हमने सीखा कि यदि ईश्वर के लिए काम किया जाए तो वह दिन-प्रतिदिन उसमें वृद्धि करता है।
 आध्यात्मिक परिपूर्णता में महिला ऐसे स्थान तक पहुंच सकती है कि ईश्वरीय पैग़म्बर भी चकित रह जाएं।
 हमें ईश्वर की उपासना और उसके आज्ञापालन के संबंध में अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभाना चाहिए। ईश्वर भी बंदों को रोज़ी देने का अपना कर्तव्य बहुत ही अच्छे ढंग से निभाता है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ३८ तथा ३९ इस प्रकार है।
 जब ज़करिया ने (मरयम के पास स्वर्ग का भोजन देखा तो उन्होंने) अपने पालनहार से प्रार्थना की (और) कहा, प्रभुवर मुझे (मरयम जैसी) पवित्र संतान दे, निःसन्देह, तू ही प्रार्थना सुनने वाला है। (3:38) तो जब वे मेहराब में खड़े होकर नमाज़ पढ़ रहे थे तो फ़िरश्तों ने उन्हें पुकारा कि ईश्वर तुम्हें यहया (नाम के पुत्र) की शुभ सूचना देता है जो (भविष्य में) ईश्वर की निशानी (ईसा मसीह) की पुष्टि करेगा, लोगों का सरदार होगा, धर्म में अत्यंत पवित्र और भले पैग़म्बरों में से होगा। (3:39)


 पिछले कार्यक्रम में आपने सुना कि हज़रत मरयम की माता ने उन्हें बैतुल मुक़द्दस की सेवा के लिए समर्पित कर दिया और वे अपना अधिक समय ईश्वर की उपासना में बिताती थीं। वे ईश्वर की उपासना में इतना लीन हो जाती थीं कि उन्हें खाने पीने का कोई विचार ही नहीं रहता था। जब भी हज़रत ज़करिया उनके उपासना स्थल में जाते तो देखते कि उनके पास स्वर्ग का खाना रखा हुआ है। एक बार जब हज़रत ज़करिया ने यह देखा तो ईश्वर से प्रार्थना की कि जिस प्रकार उसने बांझ होने के बावजूद हज़रत मरयम की माता को ऐसी पवित्र संतान दी उसी प्रकार वह उनकी पत्नी को भी मरयम जैसी संतान दे।
 हज़रत ज़करिया की यह प्रार्थना स्वीकार हुई और जब वे अपने उपासना स्थल में नमाज़ पढ़ने में व्यस्त थे तो फ़रिश्तों ने आकर उन्हें शुभ सूचना दी कि शीघ्र ही उन्हें यहया नामक पुत्र प्रदान किया जाएगा जिसमें कई विशेषताएं होंगी। प्रथम यह कि वह अपने समय के पैग़म्बर अर्थात हज़रत ईसा मसीह पर ईमान लाएगा जबकि वह स्वयं ईसा मसीह से बड़ा होगा और लोगों में भलाई और पवित्रता के लिए विख्यात होगा और उसका यही कार्य हज़रत ईसा पर लोगों के अधिक ईमान का कारण बनेगा।
 दूसरे यह कि उसके शिष्टाचार और अच्छे कर्मों के कारण लोग उसे अपना सरदार मानेंगे। तीसरे यह कि वह सांसारिक व भौतिक आनंदों से दूर रहेगा और संसार से दूषित नहीं होगा और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इन विशेषताओं के कारण ईश्वर उसे अपने पैग़म्बर बनाएगा।
 इस आयत से हमें यह पता चलता है कि संतान का मूल्य उसकी पवित्रता और भलाई से है न कि उसके लड़का या लड़की होने से।
 इस घटना में ईश्वर ने इमरान को बेटी और ज़करिया को बेटा दिया परन्तु दोनों इतिहास में पवित्र लोगों में शामिल हुए।
सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४० और ४१ इस प्रकार है।
 (ज़करिया ने यह शुभ सूचना सुनकर कहा) प्रभुवर! किस प्रकार मेरे यहां पुत्र हो सकता है जबकि मुझ पर बुढ़ापा आ चुका है और मेरी पत्नी बांझ है? तो ईश्वर ने कहा कि ऐसे ही ईश्वर जो चाहता है कर देता है। (3:40) ज़करिया ने कहा प्रभुवर! मेरे लिए कोई निशानी निर्धारित कर दे। ईश्वर ने कहा, तुम्हारी निशानी यह है कि तुम लोगों से तीन दिन तक बात नहीं कर सकोगे सिवाए संकेत के। और तुम अपने पालनहार को बहुत याद करो तथा रात और भोर समय उसका गुणगान करो। (3:41)

 यद्यपि हज़रत ज़करिया ने स्वयं ईश्वर से प्रार्थना की थी कि वे उन्हें संतान दे परन्तु जब उन्होंने अपने लिए पुत्र की शुभ सूचना सुनी तो वे आश्चर्य चकित रह गए क्योंकि उनकी पत्नी युवा अवस्था से ही बांझ थीं जो कि बच्चे को जन्म देने का समय होता है और इस समय तो वे स्वयं हज़रत ज़करिया की भांति वृद्ध हो चुकी थीं और उनमें गर्भ धारण करने की कोई निशानी नहीं थी।
 यह एकदम स्वाभाविक सी बात है कि जब कोई भी मनुष्य प्रकृति के नियम के विरुद्ध कोई बात देखे या सुने तो वह आश्चर्य चकित रह जाता है। उसका हृदय इसे स्वीकार करने के स्थान पर उसे देखने की इच्छा करता है। इसी कारण हज़रत ज़करिया ने ईश्वर से इच्छा प्रकट की थी कि वह उन्हें अपनी असीम शक्ति का एक उदाहरण दिखाए। ईश्वर ने भी उनके लिए एक निशानी निर्धारित कर दी।
 ईश्वरीय चमत्कार के कारण हज़रत ज़करिया, जो पूर्ण रूप से स्वस्थ थे और उन्हें बात करने में कोई कठिनाई नहीं थी, तीन दिनों तक बोलने की क्षमता खो बैठे। वे संकेतों और होंठ हिलाने के माध्यम से ही अपनी बात दूसरों तक पहुंचा सकते थे। तीन दिनों के भीतर जब भी वे ईश्वर का गुणगान करना चाहते थे तो उनकी ज़बान खुल जाती थी और वे ईश्वर का गुणगान करने लगते थे।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि ईश्वर का इरादा हर चीज़ से बड़ा होता है। यदि वह चाहे तो बाप का बुढ़ापा और मां का बांझपन बच्चे के जन्म में रुकावट नहीं बन सकता।
 ईश्वर हर काम करने में सक्षम है। यदि वह चाहे तो जीभ को बात-चीत का साधन बनाए और यदि चाहे तो जीभ से यह क्षमता छीन ले।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४२ और ४३ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर! याद करो उस समय को) जब फ़रिश्तों ने कहा कि हे मरियम! ईश्वर ने तुम्हारा चयन किया और तुम्हें पवित्र किया और सारे संसार की महिलाओं पर तुम्हें प्राथमिकता दी। (3:42) तो हे मरियम! अपने पालनहार के समक्ष झुक जाओ, उसका सजदा करो और रूकू करने वालों के साथ रूकू करो। (3:43)

 हज़रत मरयम की पवित्रता, नमाज़ और ईश्वर की निष्ठापूर्वक उपासना इस बात का कारण बनी कि ईश्वर उनका चयन करे और उन्हें अन्य महिलाओं से ऊंचा स्थान दे। उनका स्थान इतना ऊंचा था कि फ़रिश्ते उनसे बात किया करते थे और ईश्वर की शुभ सूचनाएं या आदेश उन तक सीधे पहुंचाया करते थे। उन्हें इस बात के लिए चुन लिया गया था कि हज़रत ईसा मसीह जैसे पैग़म्बर उनकी ही कोख से जन्म लें तथा उनकी गोद में पलें। फ़रिश्तों ने हज़रत मरयम से कहा कि ईश्वर की इस कृपा और विभूति के धन्यवाद के लिए उसके प्रति अपना झुकाव जारी रखो और अन्य नमाज़ पढ़ने वालों के साथ जमाअत में सजदे और रूकू किया करो।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर किसी का भी चयन अकारण नहीं करता बल्कि ईश्वर का चयन क्षमता और योग्यता के आधार पर हुआ करता है। हज़रत मरयम, जिन्होंने काफ़ी समय तक निष्ठापूर्वक उपासना की वे इसी प्रकार के स्थान के योग्य बनीं।
 फ़रिश्ते पैग़म्बरों के अतिरिक्त अन्य लोगों के साथ ही बात कर सकते हैं अलबत्ता इसके लिए शर्त यह है कि उसे भी इसके योग्य होना चाहिए।
 नमाज़े जमाअत में महिलाओं की उपस्थिति सराहनीय है अलबत्ता इस शर्त के साथ कि वे मरयम जैसी हों।

सूरए आलेइमरान की आयत संख्या ४४ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर! जो कुछ हमने मरयम के जन्म के बारे में कहा वह) ग़ैब के समाचार अर्थात ईश्वर के विशेष ज्ञान पर आधारित हैं जो हम तुम्हें वहि (विशेष संदेश) द्वारा बता रहे हैं। और तुम उनके पास नहीं थे जब यहूदियों के बड़े-बड़े मुखिया मरयम की अभिभावक्ता प्राप्त करने के लिए अपना-अपना क़लम गिरा रहे थे ताकि स्पष्ट हो जाए कि कौन मरयम का अभिभावक होगा? और तुम उनके पास नहीं थे जब वे इस विशिष्टता को प्राप्त करने के लिए आपस में भिड़ रहे थे। (3:44)


 मक्के के अनेकेश्वरवादी, क़ुरआने मजीद के ईश्वरीय संदेश और ईश्वरीय वाणी होने का इन्कार करने के लिए कहते थे कि क़ुरआन एक मनगढ़ंत पुस्तक से अधिक से कुछ नहीं है और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम) ने इसे यहूदियों के बड़े-बूढ़ों से सुना है या प्राचीन किताबों में पढ़ा है।
 इसके उत्तर में ईश्वर कहता है कि क़ुरआन में आने वाली अनके घटनाएं ग़ैब अर्थात ईश्वर के गोपनीय ज्ञान पर आधारित हैं जिन्हें कोई नहीं जानता और पैग़म्बर भी ईश्वरीय वहि द्वारा उनसे अवगत होते हैं। जैसाकि हज़रत मरयम की माता की प्रतिज्ञा के बारे में ईश्वर के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था या हज़रत मरयम की अभिभावक्ता का मामला तुम्हें नहीं मालूम था। यह सक ग़ैब की बाते हैं जो वहि द्वारा पैग़ंम्बर के ज्ञान में आती हैं।



 हज़रत मरयम की अभिभावकता के बारे में हमने गत कार्यक्रमों में कहा था कि उनकी माता ने ईश्वर से प्रतिज्ञा की थी कि यदि उनके संतान हुई तो वे उसे बैतुल मुक़द्दस का सेवक बनाएंगी। जब वे हज़रत मरयम को लेकर बैतुल मुक़द्दस गईं तो उस पवित्र स्थान के सेवकों के बीच इस उत्तरदायित्व को लेकर प्रतिस्पर्धा होने लगी क्योंकि हज़रत मरयम के माता और पिता बनी इस्राईल के अत्यंत आदरणीय परिवारों में से थे और हर कोई चाहता था कि यह सौभाग्य उसे प्राप्त हो। ईश्वर ने तुम्हें आदेश दिया कि अपने-अपने क़लम पानी में गिराएं। जिसका क़लम पानी पर तैरने लगे वही अभिभावक बनेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि पवित्र क़ुरआन, ईश्वर की वाणी है और उसका संदेश है न कि दूसरी पुस्तकों से उतारी हुई घटनाओं का संग्रह।
प्रतिस्पर्धा, पवित्र व आध्यात्मिक उत्तरदायित्वों के लिए होनी चाहिए न कि सांसारिक पदों की प्राप्ति के लिए।


सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४५ इस प्रकार है।
(हे पैग़म्बर! याद करो उस समय को) जब फ़रिश्तों ने कहा, हे मरयम! निःसन्देह, ईश्वर तुम्हें अपनी महान निशानियों की शुभ सूचना देता है जिसका नाम मसीह, ईसा इब्ने मरयम होगा, जो लोक-परलोक में सम्मानीय और ईश्वर के निकट लोगों में से होगा। (3:45)
 मरयम वह कन्या हैं जो अपनी माता की प्रतिज्ञा द्वारा मस्जिद की सेविका बनीं और ईश्वर की उपासना व आराधना में उन्होंने अपनी आयु बिता दी। उनमें यह योग्यता पैदा हो गई थी कि ईश्वर उन्हें ऐसा पुत्र देता जो लोगों की दृष्टि में भी सम्मानीय होता और ईश्वर के पास भी उसके निकटतम बंदों में होता।



 ईसाइयों के विश्वास के विपरीत हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम न तो ईश्वर हैं और न ही ईश्वर के पुत्र। वे हज़रत मरयम के पुत्र और ईश्वर की सृष्टि एवं रचना हैं। अलबत्ता वे ऐसी सृष्टि हैं जो ईश्वर की शक्ति, महानता और रचना की निशानी है। इसी कारण ईश्वर ने उन्हें "कलमा" शब्द द्वारा परिचित करवाया है जिसका अर्थ होता है निशानी। जैसा कि सूरए कह्फ़ की १०९वीं आयत में ईश्वर की सभी रचनाओं को कलेमात अर्थात निशानियां कहा गया है।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि फ़रिश्ते, पैग़म्बरों के अतिरिक्त ईश्वर के भले बंदों से भी बात-चीत कर सकते हैं। वह चाहे पुरुष हो या महिला।
 यद्यपि हज़रत ईसा मसीह का जन्म बिना पिता के हुआ है परन्तु वे ईश्वर के पुत्र नहीं हैं बल्कि हज़रत मरयम के पुत्र हैं। इसका कारण यह है कि वे ९ महीनों तक अपनी माता के गर्भ में रहे।
सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४६ इस प्रकार है।
(हे मरयम! हमने तुम्हें जिस पुत्र की शुभ सूचना दी है) वह पालने में, बड़े लोगों के समान अन्य लोगों से बातें करेगा और वह भले लोगों में से होगा। (3:46)
 हज़रत मरयम ने जब पुत्र की शुभसूचना सुनी तो वे चिन्तित हो गईं। वे यह सोच कर चिंतित हो रही थीं कि लोग उन पर लांछन लगाएंगे क्योंकि उनका विवाह नहीं हुआ था अतः फ़रिश्तों ने उनसे कहा कि ईश्वर तुम्हारी पवित्रता की रक्षा करने और उसे लोगों के समक्ष सिद्ध करने के लिए ऐसा करेगा कि शिशु बड़े लोगों की भांति बोलने लगे और वह तुम पर लगाए गए हर प्रकार के लांछन को नकार देगा।
 वह प्रौढ़ों की भांति इस प्रकार स्पष्ट व खुले शब्दों में बात करेगा कि सभी लोग आश्चर्यचकित रह जाएंगे और उसके जीवन की सृष्टि में ईश्वरीय चमत्कार को देखेंगे।
 इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की शक्ति में संदेह नहीं करना चाहिए। जो बिना पिता के मरयम को पुत्र दे सकता है वह पालने में शिशु को बोलने योग्य भी कर सकता है।
 यदि मां पवित्र और भली हो तो, भलाई और सौभाग्य के लक्षण संतान में भी दिखाई देने लगते हैं।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४७ इस प्रकार है।
मरयम ने कहा, प्रभुवर! किस प्रकार मेरे बच्चा हो सकता है जबकि किसी पुरुष ने मुझे छुआ तक नहीं है? उत्तर में ईश्वर ने कहा, वह जिसकी चाहता है इसी प्रकार से सृष्टि कर देता है। जब भी वह किसी बात का इरादा करता है तो उससे कहता है कि हो जा तो वह हो जाती है। (3:47)
 ईश्वर की ओर से अपने लिए मां बनने के समाचार के पश्चात हज़रत मरयम के मस्तिष्क में यह प्रश्न आया कि किस प्रकार से संभव है कि मैं बिना पति के मां बन जाऊं क्योंकि इस संसार में उपस्थित हर अस्तित्व को सृष्टि के लिए कुछ कारणों की आवश्यकता होती है।
 इस स्वाभाविक प्रश्न के उत्तर में ईश्वर ने फ़रिश्तों द्वारा हज़रत मरयम को सूचना दी कि प्रकृति तथा सृष्टि की रचना भी तो उसी ने की है और सृष्टि पर भी उसी का आदेश चलता है। उसकी विवेकपूर्ण शक्ति ऐसी है कि जब वह चाहे तो बिना प्राकृतिक कारणों के भी वस्तुओं और जीवों की सृष्टि कर सकता है।



 आयत के अंत में ईश्वर द्वारा वस्तुओं की सृष्टि के बारे में एक मूल सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि जैसे ही ईश्वर किसी वस्तु की सृष्टि का इरादा करता है, वह वस्तु अस्तित्व में आ जाती है तथा उसे समय बीतने या प्राकृतिक मार्गों से गुज़रने की आवश्यकता नहीं पड़ती, ठीक उस व्यक्ति की भांति जो किसी वस्तु को बनाना चाहे और उसके "हो जा" कहने से वह वस्तु अस्तित्व में आ जाए।
 इस आयत से हमने सीखा कि सृष्टि के संबंध में ईश्वर का हाथ खुला हुआ है। प्राकृतिक या अप्राकृतिक मार्गों से सृष्टि करना उसके लिए एक समान है।

सूरए आले इमरान की आयत संख्या ४८ तथा ४९
(और फ़रिश्तों ने मरयम से अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा) और ईश्वर उसे किताब और तत्वदर्शिता तथा तौरेत व इंजील का ज्ञान देगा। (3:48) और बनी इस्राईल की ओर पैग़म्बर बनाकर भेजेगा। (फिर ईसा मसीह ने बनी इस्राईल को आमंत्रित किया और कहा कि निश्चित रूप से) मैं तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से निशानी लेकर आया हूं। मैं तुम्हारे लिए मिट्टी से चिड़ियों की आकृति जैसी वस्तु बनाता हूं और फिर उसमें फूंक मारता हूं तो ईश्वर की आज्ञा से वह सचमुच की चिड़िया बन जाती है और मैं ईश्वर की आज्ञा से अंधे तथा कोढ़ी लोगों को अच्छा कर देता हूं तथा मुर्दे को जीवित करता हूं और तुम्हें बता सकता हूं जो कुछ तुम खाते हो और जो कुछ घरों में एकत्रित करते हो। निःसन्देह इसमें तुम्हारे लिए बड़ी निशानी है यदि तुम ईमान वाले हो। (3:49)
 पिछले कार्यक्रमों में हमने कहा था कि हज़रत ईसा मसीह ने जन्म के पश्चात पालने में ही लोगों से बात की और अपनी मां की पवित्रता की गवाही दी। इन आयतों में हज़रत ईसा मसीह की कुछ अन्य विशेषताओं का उल्लेख किया गया है।
 जो पैग़म्बर समाज में मार्गदर्शन का दायित्व संभालना चाहता है उसमें कई विशेषताएं होनी चाहिए कि जिनमें से एक ज्ञान व शिक्षा है अतः पैग़म्बरों की शिक्षा और उनका प्रशिक्षण, ईश्वर द्वारा होता है ताकि उनकी शिक्षा-दीक्षा हर प्रकार की त्रुटि से दूर रहे और दूसरे यह कि उन विदित ज्ञानों के अतिरिक्त जो सभी लोगों के पास होते हैं उन्हें ईश्वर के गोपनीय ज्ञान तथा अतीत व भविष्य की बातों की भी जानकारी रहे।
 परन्तु केवल जानकारी ही काफ़ी नहीं है बल्कि हर पैग़म्बर को कुछ चमत्कारों द्वारा अपनी पैग़म्बरी अर्थात ईश्वरीय प्रतिनिधित्व को सिद्ध करना होता है ताकि लोग पूर्ण रूप से निश्चिंत होकर उसकी बातें सुनें और उसके आदेशों का पालन करें।
 यद्यपि हज़रत ईसा मसीह का अस्तित्व स्वयं चमत्कार था क्योंकि हज़रत मरयम ने ईश्वरीय संकल्प के आधार पर, बिना पति के उन्हें जन्म दिया था और उन्होंने जन्म के तत्काल बाद ही पालने में लोगों से बात की परन्तु ईश्वर की ओर से बनी इस्राईल के लिए भेजे गए एक पैग़म्बर के रूप में हज़रत ईसा ने उन्हें कुछ चमत्कार भी दिखाए ताकि वे उन पर ईमान ले आएं। वे मिट्टी से जीवित पक्षी बना लेते, कोढ़ियों को पलक झपकते में ठीक कर देते, मरे हुए को जीवित कर देते और लोगों को, जो कुछ उनके घरों में हुआ, उसकी सूचना देते थे। यह सब कार्य ईश्वर की अनुमति और उसकी इच्छा से होते थे क्योंकि जीवों की सृष्टि या अनदेखी बातों का ज्ञान ईश्वर से ही विशेष है। ईश्वर जिसके बारे में चाहे, वही यह काम कर सकता है।
 परन्तु जो लोग हज़रत ईसा मसीह पर ईमान लाए उन्होंने हज़रत ईसा के जन्म की विशेष स्थिति और उनके द्वारा दिखाए गए इन चमत्कारों के कारण उन्हें, ईश्वर के पुत्र का शीर्षक दे दिया जबकि वे मरयम के पुत्र थे न कि ईश्वर के। हज़रत ईसा के बारे में जो कुछ हुआ या जो कुछ उनके हाथों से हुआ वह सब ईश्वर की शक्ति और उसकी इच्छा से हुआ था न कि हज़रत ईसा मसीह की शक्ति से।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय प्रतिनिधि, ईश्वर की शक्ति और इच्छा से सृष्टि और प्राकृति में परिवर्तन ला सकता है।
 यदि ईश्वर के प्रिय और भले बंदे संसार में मरे हुए लोगों को जीवित कर सकते हैं तो फिर प्रलय के दिन ईश्वर द्वारा मरे हुए लोगों को जीवित करना असंभव कार्य नहीं है।
 ईश्वरीय प्रतिनिधियों के बारे में अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए और उन्हें मानवता से ऊपर नहीं मानना चाहिए क्योंकि यह एकेश्वरवाद के सिद्धांत से पथभ्रष्टता के समान होगा।
सूरए आले इमरान की आयत संख्या ५० और ५१ इस प्रकार है।
(ईसा मसीह ने कहा) और मैं इस तौरेत की पुष्टि करने वाला हूं जो मेरे सामने है। कुछ चीज़े जो तुम्हारे लिए वर्जित थीं उनको मैं तुम्हारे लिए हलाल अर्थात वैध करूंगा और मैं तुम्हारे पालनहार की ओर से तुम्हारे लिए निशानी लाया हूं तो ईश्वर से डरो और मेरा अनुसरण करो। (3:50) निःसन्देह, ईश्वर मेरा और तुम्हारा पालनहार है अतः उसी की उपासना करो कि यही सीधा मार्ग है। (3:51)
 बनी इस्राईल का पैग़म्बर होने के नाते हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम, आसमानी किताब के रूप में उनके लिए तौरेत लाए थे अतः इस आयत में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम लोगों को सूचित करते हैं कि मैं भी मूसा के ही ईश्वर की ओर से आया हूं और उनकी किताब की भी पुष्टि करता हूं। मैं तौरेत के कुछ आदेशों को, जो तुम्हारे पापों के दण्ड स्वरूप दिये गए थे, इस शर्त के साथ तुम्हारे लिए समाप्त कर दूंगा कि तुम ईश्वर से डरो और अशिष्ट कर्म न करो तथा मेरे आदेशों का पालन करो कि जो ईश्वरीय धर्म है।
 इसके पश्चात हज़रत ईसा मसीह स्वयं को ईश्वर का बंदा बताते हुए कहते हैं कि ईश्वर, मेरा और तुम्हारा पालनहार है। हम सबको उसकी उपासना करनी चाहिए। हमें उसी के मार्ग पर चलना चाहिए जो सीधा व संतुलित मार्ग है।
 इन आयतों से हमने सीखा कि सभी ईश्वरीय पैग़म्बर एक दूसरे को स्वीकार करते थे और अपने से पहले वाले पैग़म्बर के धर्म और उसकी किताब की पुष्टि करते थे।
 पैग़म्बर भेजना सदैव ही ईश्वरीय परंपरा रही है। यह परंपरा किसी विशेष स्थान या समय से संबन्धित नहीं है।
सूरए आले इमरान की आयत संख्या ५२ और ५३ इस प्रकार है।
तो जब ईसा ने बनी इस्राईल की ओर से कुफ़्र का आभास किया तो कहा, ईश्वर के मार्ग में मेरे सहायक कौन हैं? हवारियों ने (जो उनके विशेष शिष्य थे) कहा, हम ईश्वर के (धर्म) के सहायक हैं। हम ईश्वर पर ईमान लाए हैं और हे ईसा! गवाही दे दो कि हम ईश्वर के प्रति समर्पित हैं। (3:52) प्रभुवरः जो कुछ तूने उतारा है हम उस पर ईमान लाए और तेरे पैग़म्बर का अनुसरण किया अतः हमें उन लोगों की पंक्ति में रख जिन्होंने (हज़रत ईसा की पैग़म्बरी की) गवाही दी। (3:53)
 हज़रत ईसा के बारे में ढेरों ईश्वरीय निशानियां देखने के बाजवूद, बनी इस्राईल के अनेक लोग उन पर ईमान नहीं लाए और उनके पैग़म्बर होने का इन्कार करते रहे। केवल कुछ लोग ही हज़रत ईसा मसीह पर ईमान लाए और वे उनका समर्थन करते रहे। पवित्र क़ुरआन ने इन लोगों को "हवारी" का नाम दिया है जिसका अर्थ होता है ऐसे लोग जो जनता के ग़लत मार्ग को छोड़कर सत्य के मार्ग से जुड़ गए हों।
 इन आयतों से हमने सीखा कि ईमान वाले तथा धर्म के प्रति वफ़ादार लोगों को पहचान कर उन्हें व्यवस्थित करना तथा एक केन्द्र पर लाना धार्मिक नेताओं का एक कर्तव्य है।
 पैग़म्बर लोगों को ईश्वर के लिए चाहते हैं न कि अपने स्वार्थ कि लिए, जैसा कि हज़रत ईसा मसीह ने कहा कि कौन लोग ईश्वरीय धर्म के सहायक हैं?
 ईमान के पश्चात समर्पण का चरण आता है अर्थात ईश्वर पर ईमान रखने वाले को ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर के आदेशों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए।

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