कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:147-

 सूरए निसा की आयत संख्या 147  ईश्वर को तुम्हें दण्डित करने की क्या आवश्यकता है, यदि तुम कृतज्ञ रहो और ईमान लाओ तो ईश्वर सदैव कृतज्ञ और ज...

 सूरए निसा की आयत संख्या 147 
ईश्वर को तुम्हें दण्डित करने की क्या आवश्यकता है, यदि तुम कृतज्ञ रहो और ईमान लाओ तो ईश्वर सदैव कृतज्ञ और जानकार है। (4:147)

 पिछले कार्यक्रम में हमने जो आयतें सुनीं उनमें मथ्याचारियों को मिलने वाले कड़े दण्ड का उल्लेख किया गया था, इस आयत में कहा गया है कि यह मत सोचो कि ईश्वर द्वेष, प्रतिशोध या शक्ति प्रदर्शन के लिए अपराधियों को दण्डित करता है बल्कि उसके सभी दण्ड स्वयं तुम्हारे कर्मों के परिणाम हैं तथा ईश्वर को तुम्हे दण्डित करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
 आगे चलकर आयत कहती है कि जिस प्रकार से कि ईश्वर कृतज्ञ है और तुम्हारे भले कर्मों पर पारितोषिक देता है उसी प्रकार तुम्हें भी उसकी विभूतियों पर कृतज्ञ रहना चाहिए और उन विभूतियों को एसे मार्गों में प्रयोग करना चाहिए जिनसे ईश्वर प्रसन्नत होता हो। और यदि विभूतियों पर यह कृतज्ञता ईमान और भले कर्मों के साथ हो तो तुम्हे कभी दण्डित नहीं किया जाएगा।
 इस आयत का पहला संदेश यह है कि ईश्वरीय विभूतियों और अनुकंपाओं पर कृतज्ञता के लिए ईश्वर पर ईमान रखना आवश्यक है जिस प्रकार से कि ईश्वर का इन्कार, उसकी विभूतियों से अकृतज्ञता की निशानी है।
 इस आयत का दूसरा संदेश यह है कि कृतज्ञता, ईश्वरीय कोप से बचाव का भी कारण है और, अधिक कृपा प्राप्त करने का साधन भी है।
सूरए निसा की आयत संख्या 148 और 149 
ईश्वर पसंद नहीं करता कि कोई अपने कथनों द्वारा बुराइयों को स्पष्ट करे, सिवाए इसके कि उसपर अत्याचार हुआ हो और ईश्वर सुनने वाला तथा जानकार है। (4:148) (परन्तु) यदि तुम भलाइयों को स्पष्ट करो या उन्हें छिपाओ या फिर बुराई को क्षमा कर दो तो निःसन्देह, ईश्वर क्षमाशील और सामर्थ्य वाला है। (4:149)

 यह आयतें एक महत्वपूर्ण समाजिक सिद्धांत की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि समाज में दूसरों की बुराई और अवगुणों को स्पष्ट करने के चक्कर में रहने के बजाए दूसरों की ग़लतियों को क्षमा करने और उनकी भलाइयों को स्पष्ट करने का प्रयास करो, जैसाकि ईश्वर भी "सत्तारुल उयूब" है अर्थात बुराइयों को छिपाने वाला है जो लोगों की बुराइयों को स्पष्ट नहीं करता।
 अलबत्ता यदि किसी पर अत्याचार हुआ हो और वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का वर्णन किये बिना, अत्याचारी से अपना हक़ न ले सकता हो तो उसे अधिकार है कि वह जवाब में शिकायत करे और अपने हक़ का प्रतिरोध करे।
 इन आयतों से हमने सीखा कि दूसरों की बुराइयों और अवगुणों को स्पष्ट करना वर्जित है सिवाए अत्याचारग्रस्त के प्रतिरोध और अत्याचार को रोकने के लिए।
 प्रतिशोध का सामर्थय रखने के बावजूद अपराधी को क्षमा करना मूल्यवान है जैसाकि ईश्वर भी सभी मनुष्यों पर प्रभुत्व रखने के बावजूद, बहुत से पापियों को क्षमा कर देता है।

सूरए निसा की आयत संख्या 150 और 151 
निसन्देह, जो लोग ईश्वर और उसके पैग़म्बरों का इन्कार करते हैं तथा ईश्वर और उसके पैग़म्बरों के बीच जुदाई डालना चाहते हैं और कहते हैं कि हम कुछ पर ईमान रखते हैं और कुछ का इन्कार करते हैं, वे चाहते हैं कि (अपनी इच्छा के अनुसार) बीच का कोई मार्ग अपनाएं। (4:150) यही लोग वास्तविक काफ़िर हैं और हमने काफ़िरों के लिए अपमानजनक दण्ड तैयार कर रखा है। (4:151)

 यह आयत सभी ईश्वरीय धर्मों के अनुयाइयों को लगे रहने वाले एक ख़तरे की ओर संकेत करते हुए कहती है कि ईश्वरवादियों का एक गुट केवल अपने पैग़म्बरों को ही सत्य पर समझता है और अन्य ईश्वरीय पैग़म्बरों को असत्य पर मानकर उनका इन्कार करता है। जबकि सारे ही पैग़म्बर ईश्वर की ओर से आए हैं और इस दृष्टि से उनके बीच कोई अंतर नहीं है और स्पष्ट सी बात है कि सदैव इनमें से अन्तिम पर ईमान लाना और उसके आदेशों का पालन करना चाहिए।
 इस आयत का संबोधन आरंभ में उन यहूदियों से है जो ईसा मसीह के आने के पश्चात उनपर ईमान नहीं लाए। इसके पश्चात आयत में उन यहूदियों और इसाइयों को संबोधित किया गया है जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आने के पश्चात उनका इन्कार किया और उनकी पैग़म्बरी को स्वीकार किया।
 मूल रूप से ईमान के लिए ईश्वर का आज्ञापालन आवश्यक है न कि अपनी इच्छओं और स्वार्थों की पूर्ति और जो धार्मिक वास्तविकताओं में से कुछ को स्वीकार करता है और कुछ का इन्कार करता है न कि ईश्वर के आदेशों का पालन।
 इन आयतों से हमने सीखा कि सभी पैग़म्बरों की सत्यता पर ईमान रखना आवश्यक है तथा उन सभी का और उनकी पुस्तकों का आदर करना चाहिए।
 धर्म परस्पर जुड़ी हुई वास्तविकताओं का एक समूह है, जिनमें से कुछ वास्तविकताओं का इन्कार करके कुछ वास्तविकताओं पर ईमान नहीं रखा जा सकता।
 धर्म के छोटे से छोटे मामले का इन्कार भी कुफ़्र है।

सूरए निसा की 152वीं आयत 
और जो लोग ईश्वर और उसके पैग़म्बरों पर ईमान रखते हैं और उनमें से किसी के बीच अंतर नहीं रखते उन्हें शीघ्र ही ईश्वर भला बदला देगा और ईश्वर क्षमाशील तथा दयावान है। (4:152)

 यह आयत वास्तविक ईमान वालों की विशेषताओं की ओर संकेत करते हुए कहती है कि वास्तविक ईमान वाला वह है जो सभी ईश्वरीय पैग़म्बरों पर ईमान रखता हो, न यह कि कुछ को स्वीकार करे और कुछ का इन्कार कर दे। उसमें ग़लत प्रकार की सांप्रदायिकता नहीं होती है कि केवल स्वयं को ईमान वाला समझे और अन्य धर्मों के अनुयाइयों को काफ़िर माने।
 स्पष्ट है कि ऐसे ही लोग ईश्वर की दया के पात्र होते हैं और लोक-परलोक में उन्हें ईश्वर की विशेष कृपा होती है।
सूरए निसा की आयत संख्या 153 
(हे पैग़म्बर!) आसमानी किताब वाले आप से चाहते हैं कि आप आसमान से उनके लिए कोई किताब उतारिए, निःसन्देह, उन्होंने इससे बड़ी बात मूसा से चाही थी जब उन्होंने मूसा से कहा था कि हमें ईश्वर को स्पष्ट रूप से दिखाओ, तो उनके अत्याचार के दण्ड स्वरूप उन्हें बिजली ने अपनी लपेट में ले लिया। और इसके बावजूद कि उनके लिए स्पष्ट चमत्कार आ चुके थे, उन्होंने बछड़े की पूजा आरंभ कर दी तब भी हमने उन्हें क्षमा कर दिया और हमने मूसा को स्पष्ट तर्क प्रदान किया। (4:153)

पिछले कार्यक्रम में हमने जाना था कि पैग़म्बरों के बीच अंतर रखने और कुछ को स्वीकार करने और कुछ का इन्कार करने के कारण क़ुरआन मजीद आसमानी किताब रखने वालों की आलोचना करता है। यह आयत इस्लाम स्वीकार न करने हेतु मदीने के यहूदियों के एक बहाने की ओर संकेत करते हुए कहती है कि उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से मांग की कि क़ुरआन भी तौरेत ही भांति एक बार आसमान से उतरे, जबकि वहि या ईश्वरीय संदेश उतरने की पद्धति ईश्वर के हाथ में है न कि पैग़म्बर के हाथ में।
इसके अतरिक्त ईश्वरीय संदेश के एक साथ आने या क्रमशः आने की उसके सत्य या असत्य होने में कोई भूमिका नहीं है जैसाकि क़ुरआने मजीद के सूरए अनआम की १७वीं आयत में कहा गया है कि यदि हम क़ुरआन को काग़ज़ में भी उतारते और यह उसे छू भी लेते तो काफ़िर बहाना बनाते और उसे स्पष्ट जादू कहते।
इसके पश्चात क़ुरआन, पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को सांत्वना देते हुए कहता है कि यहूदियों द्वारा इस प्रकार के बहाने बनाने से दुखी मत हो, क्योंकि उनके पूर्वजों ने भी मूसा से कहा था कि वे उन्हें ईश्वर को स्पष्ट रूप से दिखाएं ताकि वह उनपर ईमान ला सकें। उनकी इसी ज़िद और द्वेष के कारण, उनपर ईश्वर का कोप हुआ। यद्यपि यहूदियों के समक्ष हज़रत मूसा का तर्क अत्यन्त स्पष्ट था परन्तु उन्होंने बछड़े की पूजा आरंभ कर दी और ईश्वर को भुला दिया किंतु जब उन्होंने तौबा की तो ईश्वर ने उन्हें क्षमा कर दिया। इस आयत से हमने सीखा कि सत्य की खोज में रहना, बहानेबाज़ी से अलग है, जो सत्य को प्राप्त करने के प्रयास में रहता है स्पष्ट तर्क मिलने पर संतुष्ट हो जाता है परन्तु बहानेबाज़, प्रतिदिन एक नई मांग सामने रखता है।
ज़िद, द्वेष और इन्कार इस संसार में ईश्वरीय कोप की भूमिकाएं हैं पैग़म्बरों के आसमानी धर्मों के सामने मोर्चा नहीं खोलना चाहिए।
सूरए निसा की आयत संख्या 154 
और हमने बनी इस्राईल से वचन लेने के लिए तूर पर्वत को उनके सिरों पर लटका दिया और उनसे कहा कि सज्दा करते हुए द्वार से प्रवेष करो और उनसे कहा कि शनिवार के (आदेशों के) संबंध में ज़्यादती न करना और हमने उनसे ठोस वचन लिया। (4:154)

सूरए बक़रह की आयत संख्या ६३ और ९३ के समान विषय वाली यह आयत ईश्वर द्वारा बनी इस्राईल से वचन लेने की पद्धति की ओर संकेत करते हुए कहती है कि ईश्वर के इरादे से तूर नामक पर्वत अपने स्थान से उखड़ कर उनके सरों पर आकर ठहर गया। इसके पश्चात हज़रत मूसा ने ईश्वरीय वचनों का उल्लेख किया जिन्हें बनी इस्राईल ने स्वीकार कर लिया।
उन वचनों में एकेश्वरवाद, माता-पिता के साथ भलाई, वंचितों की देख-भाल, नमाज़ पढ़ना और ज़कात देना इत्यादि शामिल थे। इन वचनों का विस्तारपूर्ण उल्लेख सूरए बक़रह में ४०वीं आयत और ८३वीं आयत के बाद किया गया है। इस आयत में भी उनमें से दो वचनों की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि अपने पापों से तौबा और प्रायश्चित के लिए उन्हें बैतुल मुक़द्दस में प्रवेष करते समय ईश्वर के भय के साथ सज्दा करते हुए प्रविष्ट होना चाहिए, जैसाकि शनिवार के दिन उन्हें भौतिक कार्यों और व्यापार को त्यागना चाहिए था और शनिवार को मछली के शिकार को वर्जित करने वाले ईश्वरीय आदेश का सम्मान करना चाहिए था परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया जबकि ईश्वर उनसे ठोस वचन ले चुका है।
इस आयत में हमने सीखा कि धर्म की स्वीकृति केवल बुद्धि और मन से नहीं होती बल्कि इसके लिए ईश्वरीय वचनों और आदेशों पर प्रतिबद्ध रहना चाहिए।
पवित्र स्थानों विशेषकर मस्जिदों के कुछ विशेष संस्कार हैं जिनका सम्मान करना चाहिए।
उपासना के विशेष समय में कोई सांसारिक काम करना एक प्रकार से ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन है।
 सूरए निसा की आयत संख्या 155 
तो हमने उनके द्वारा कथनों के उल्लंघन, ईश्वर की निशानियों के इन्कार, पैग़म्बरों की अनर्थ हत्या और इस कथन के कारण कि हमारे हृदय बंद हो चुके हैं और उन पर ताले लग गए हैं (हमने उनको दण्डित किया) बल्कि (इससे भी बढ़कर) ईश्वर ने उनके कुफ़्र के कारण उनके हृदयों पर मोहर लगा दी है और केवल कुछ ही लोग ईमान लाते हैं। (4:155)
पिछली आयत में बनी इस्राईल के सिरों पर तूर पर्वत को लटका कर उनसे कड़ा ईश्वरीय वचन लेने के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि इतनी ढेर सारी ईश्वरीय निशानियों के बावजूद उन्होंने अपने वचनों को तोड़ा और न केवल ईश्वरीय आदेशों का उल्लंघन किया बल्कि चमत्कारों का भी इन्कार कर दिया यहां तक कि ईश्वरीय पैग़म्बरों की हत्या भी की और अपने इस कार्य के औचित्य में वे कहने लगे कि इन कामों के लिए हमारे हृदय ढंके हुए हैं और यदि हमने कोई उल्लंघन किया तो यह हमारे बस में नहीं है।
क़ुरआन उनके उत्तर में कहता है कि इस कुफ़्र, द्वेष और ज़िद के कारण ही तुम्हारे हृदयों पर मुहर लगा दी गई और अब तुम्हारे मोक्ष और कल्याण का कोई मार्ग नहीं बचा है।
इस आयत से हमने सीखा कि अनुकंपा और विभूति पर अकृतज्ञता कभी इस सीमा तक पहुंच जाती है कि पैग़म्बरों के हाथों स्वतंत्र होने वाले ही उनके हत्यारे बन जाते हैं।
ईश्वरीय दण्ड, हमारे ही विचारों और कर्मों का परिणाम है। स्वेच्छा से किए गए कर्मों पर दण्ड भी स्वाभाविक है।
 सूरए निसा की आयत नंबर 156, 157 और 158 
और अपने कुफ़्र तथा अपनी बातों के कारण उन्होंने मरयम पर बहुत बड़ा लांछन लगाया (4:156) और बहुत बड़ा पाप कर बैठे और इसी प्रकार उनके इस कथन के कारण कि हमने ईश्वर के पैग़म्बर, मरयम के पुत्र ईसा की हत्या की, (उन पर हमारा कोप हुआ) जबकि उन्होंने न तो ईसा की हत्या की और न ही उन्हें सूली पर चढ़ाया, बल्कि मामला उनके लिए संदिग्ध बना दिया गया। और निःसंदेह जिन लोगों ने ईसा के बारे में मतभेद किया वे सभी संदेह में थे, उनमें से किसी को भी विचारों और कल्पनाओं के अतिरिक्त विश्वास नहीं था, उन्होंने विश्वास के साथ उनकी हत्या नहीं की थी (4:157) बल्कि ईश्वर उन्हें अर्थात हज़रत ईसा को अपनी ओर ऊपर ले गया था और ईश्वर अत्यंत शक्तिशाली एवं तत्वदर्शी है। (4:158)
पिछले कार्यक्रम में हमने उन आयतों का उल्लेख किया था जो बनी इस्राईल पर ईश्वरीय कोप और दण्ड के कारणों का वर्णन कर रही थीं, ये आयतें भी उसी विषय को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं कि यहूदियों ने पवित्र मरयम पर व्यभिचार का आरोप लगाया जो वास्तव में हज़रत ईसा मसीह के अवैध होने तथा मार्गदर्शन व पैग़म्बरी के लिए उनकी अक्षमता का आरोप था और यही आरोप उनके द्वारा हज़रत ईसा की पैग़म्बरी के इन्कार और कुफ़्र का तर्क बन गया।
वे न केवल यह कि इस प्रकार की अनुचित बातें करते थे बल्कि उन्होंने हज़रत ईसा मसीह की हत्या का षड्यंत्र भी रचा और अपने विचार में उन्हें सूली पर चढ़ा दिया, वे अपने हस कार्य पर गर्व भी करते थे और घमण्ड से कहते थे कि हम ही ने ईसा की हत्या की है परन्तु क़ुरआने मजीद कहता है कि उन लोगों ने ईसा के स्थान पर उन्हीं के जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को सूली पर चढ़ा दिया था और मामला उनकी समझ में न आ सका क्योंकि ईश्वर हज़रत ईसा को आकाशों पर ले गया और उसने, उन्हें यहूदियों के षड्यंत्रों से बचा लिया।
इन आयतों से हमने सीखा कि कभी-2 पवित्रतम लोगों पर सबसे बुरे आरोप लगाए जाते हैं, अपनी जाति में हज़रत मरयम से अधिक पवित्र कोई नहीं था तथा एक महिला के लिए व्यभिचार के आरोप से बढ़कर कोई आरोप नहीं हो सकता।
मनुष्य का शिष्टाचारिक पतन कभी-2 इस सीमा तक बढ़ जाता है कि वह ईश्वरीय पैग़म्बर की हत्या पर गर्व करने लगता है।
जिस प्रकार हज़रत ईसा मसीह का जन्म असामान्य थी, उसी प्रकार संसार से उनका जाना भी असामान्य था और वे आकाश पर चले गए।
सूरए निसा की आयत नंबर 159 
और आसमानी किताब का कोई भी अनुयाई नहीं है जब तक वह मृत्यु से पूर्व हज़रत ईसा पर ईमान न ले आए। और वह (अर्थात हज़रत ईसा) प्रलय के दिन उनके लिए गवाही देंगे। (4:159)
इस्लामी इतिहास और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम व उनके परिजनों के कथनों के आधार पर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम, ईश्वर के आदेश से आकाशों पर चले गए हैं और संसार के अंतिम काल में आकाश से नीचे आएंगे तथा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के वंशज इमाम महदी अलैहिस्सलाम के पीछे नमाज़ पढ़ेंगे जो अत्याचार से लड़ने और न्याय व शांति स्थापित करने के लिए संघर्ष करेंगे।
उस समय सभी ईसाई उन पर ईमान ले आएंगे किंतु सही और सच्चा ईमान, न यह कि उन्हें ईश्वर का पुत्र समझें। यहूदी भी हज़रत ईसा मसीह की पैग़म्बरी की गवाही देंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि मृत्यु, सभी मनुष्यों यहां तक कि पैग़म्बरों तक के लिए एक निश्चित परंपरा है। हज़रत ईसा मसीह भी जो शताब्दियों से आकाशों में जीवित हैं, धरती पर आएंगे और उन्हें भी मृत्यु आएगी।
पैग़म्बर अपने अपने समुदाय के लोगों के कर्मों के गवाह हैं और प्रलय के दिन अपनी गवाही पेश करेंगे।
 सूरए निसा की आयत नंबर 160 
तो यहूदियों ने (अपने आप पर और दूसरों पर) जो अत्याचार किया उसके कारण उनके और उनके द्वारा अनेक लोगों को ईश्वर के मार्ग से रोके जाने के कारण, हमने उन पवित्र वस्तुओं को जो उनके लिए वैध थीं, अवैध कर दिया। (4:160)
जैसा कि वर्तमान तौरैत में भी मौजूद है, ईश्वर ने यहूदी समुदाय को दंडित करने के लिए कुछ वैध वस्तुओं को उनके लिए अवैध कर दिया था और हज़रत ईसा मसीह के आने के पश्चात उन्हें फिर से वैध कर दिया गया। इस बात से पता चलता है कि ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभान्वित होने में लोगों व समाज के कर्मों तथा परिस्थितियों का प्रभाव होता है।
क़ुरआने मजीद की कुछ अन्य आयतों में हम पढ़ते हैं कि कुछ अनुकंपाओं से वंचितता का कारण समाज के अनाथों एवं वंचितों की अनदेखी है। जिस प्रकार से कि ईश्वर पर ईमान और भले कर्म, आकाश से विभूतियों व अनुकंपाओं के उतरने का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की ओर से कुछ वंचितताएं, कभी-2 दण्ड देने के लिए होती हैं, न यह कि उनका कारण वस्तुओं में पाया जाने वाला नुक़्सान या गंदगी हो।
दूसरों पर अत्याचार, ईश्वरीय विभूतियों व अनुकंपाओं से वंचित होने के कारणों में से एक है।
सूरए निसा की आयत नंबर 161 
और व्याज लेने के कारण, जिससे रोका गया था, तथा लोगों का माल अवैध रूप से खाने के कारण (वैध वस्तुओं को हमने उनके लिए अवैध कर दिया) और उनमें से जो लोग काफ़िर हैं हमने उनके लिए कड़ा दण्ड तैयार कर रखा है। (4:161)
पिछली आयत में बनी इस्राईल पर ईश्वरीय कोप व दण्ड के कारणों का उल्लेख करने के पश्चात यह आयत कहती है कि। यद्यपि बनी इस्राईल को व्याज लेने से रोका गया था परंतु उन्होंने इस ईश्वरीय आदेश की अवहेलना की और अवैध ढंग से लोगों का माल खाते रहे, अतः ईश्वर ने भी संसार की अनेक हलाल व वैध वस्तुओं को उनके लिए अवैध कर दिया।
इस आयत से हमने सीखा कि व्याज लेना सभी ईश्वरीय धर्मों में वर्जित रहा है और सभी ईश्वरीय विचारधाराओं में आर्थिक संबंधों के मामले में मानवाधिकारों की रक्षा पर बल दिया गया है।
व्याज लेना, यद्यपि विदित रूप से अधिक आय का स्रोत और सफलता का कारण है परन्तु वास्तव में वंचितता और दण्ड की भूमिका है।
सूरए निसा की आयत नंबर 162 
किंतु उनमें जो लोग ज्ञान में परिपक्व और ईमान वाले हैं, वे उन सब पर आस्था रखते हैं जो तुम पर उतरा है या तुमसे पूर्व उतर चुका है। और जो विशेष रूप से नमाज़ स्थापित करने वाले, ज़कात देने वाले और ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान रखने वाले हैं, हम शीघ्र ही उन्हें पारितोषिक देंगे। (4:162)
पिछले कुछ कार्यक्रमों में यहूदी जाति के बुरे लोगों के उल्लंघनों और पापों की ओर संकेत किया गया था परंतु यहूदी जाति में कुछ भले लोग भी पाए जाते थे जो सच्चे ईमान वालों की भांति ईश्वर के आदेशों का पालन करते और उसके समक्ष नतमस्तक रहते थे। क़ुरआने मजीद ने, जो पिछली जातियों की बातों और घटनाओं के वर्णन में पूर्णतः न्याय से काम लेता है, इस गुट की ओर भी संकेत किया है, वह कहता है।
जिनके दिलों में ईमान घर कर चुका है, चाहे वे यहूदी हों या अन्य ईमान वाले, वे हर उस बात पर ईमान रखते हैं जो ईश्वर की ओर से हो। व्यवहारिक रूप से भी वे नमाज़ पढ़ने वाले तथा ज़कात देने वाले हैं। अतः ईश्वर अपनी दया व कृपा से उन्हें बहुत बड़ा बदला व पारितोषिक देगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर और सत्य पर ईमान के लिए कोई स्थान या सीमा निर्धारित नहीं है, जो भी ईश्वर पर ईमान रखेगा, चाहे वह किसी भी वर्ण या जाति का हो, उस पर ईश्वर की विशेष कृपा होगी।
नमाज़ और ज़कात सभी ईश्वरीय धर्मों में रहे हैं परंतु सेवा के बिना उपासना का कोई अर्थ नहीं, जैसे कि बिना उपासना के सेवा, घमण्ड और अहं का कारण बनती है।
सूरए निसा की आयत नंबर 163 
(हे पैग़म्बर!) हमने आपके पास (ईश्वरीय संदेश) वहि भेजा जिस प्रकार से हमने नूह और उसके बाद के पैग़म्बरों के पास वहि भेजी। जैसा कि हमने इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और उनके पुत्रों तथा ईसा, अय्यूब, युनुस, हारून और सुलैमान के पास वहि भेजी और हमने दावूद को ज़बूर दी। (4:163)
यह आयत पूरे इतिहास में पैग़म्बरों के भेजे जाने और उनकी पैग़म्बरी की प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कहती है कि स्वयं आसमानी किताब रखने के बावजूद यहूदी और ईसाई इस बात पर क्यों आश्चर्य करते हैं कि क़ुरआन तुम पर उतरा है? क्या उन्हें नहीं पता कि ईश्वर ने हज़रत ईसा व मूसा सहित अनेक मनुष्यो को पैग़म्बर बनाया तथा उन्हें किताब दी है? तो वे तुम पर ईश्वरीय संदेश वहि आने को क्यों स्वीकार नहीं करते और तुम्हारी पैग़म्बरी पर ईमान क्यों नहीं लाते?
इस आयत से हमने सीखा कि सभी ईश्वरीय धर्मों के लक्ष्य और उद्देश्य एक हैं क्योंकि उन सभी का स्रोत ईश्वर है।
पूरे इतिहास में पैग़म्बरी के क्रम पर ध्यान देने से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की पैग़म्बरी को स्वीकार करने का मार्ग प्रशस्त होता है।
सूरए निसा की आयत नंबर 164 और 165 
और हमने जिन का उल्लेख तुम से किया और जिनका उल्लेख तुमसे नहीं किया, उन सभी पैग़म्बरों पर भी वहि भेजी और ईश्वर ने मूसा से वैसे बात की जैसे बात करने का हक़ है। (4:164) ये सारे पैग़म्बर शुभ सूचना देने और डराने वाले थे ताकि पैग़म्बरों के आने के पश्चात ईश्वर के समक्ष लोगों का कोई तर्क (और बहाना) न रह जाए और ईश्वर सदैव ही शक्तिशाली एवं तत्वदर्शी है। (4:165)
पिछली आयत में कुछ पैग़म्बरों के नामों का उल्लेख करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि यह मत सोचो कि पैग़म्बरी केवल इतने ही लोगों में सीमित रही है, नहीं, बल्कि कुछ पैग़म्बरों का नाम क़ुरआने मजीदतक में नहीं है और बहुत कम ही पैग़म्बरों का उल्लेख किसी विशेष बात के अवसर पर किया गया है।
इसके पश्चात ईश्वर, पैग़म्बरों के दायित्व की ओर संकेत करते हुए कहता है कि पैग़म्बरों का मूल दायित्व डराना और शुभ सूचना देना है। ख़तरों की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कराना तथा भले कर्मों के लिए प्रोत्साहित करना और उनके पारितोषिक की ओर से आशावान रखना। जिस व्यक्ति तक यह भय और आशा पहुंच जाती है वह प्रलय के दिन ईश्वर के न्याय की अदालत में यह तर्क नहीं प्रस्तुत कर सकता कि मैं अच्छे और बुरे को नहीं पहचानता था कि उन पर अमल कर सकता।
अलबत्ता यह बात यहां उल्लेखनीय है कि बुद्धि और अक़्ल भी ईश्वर का तर्क है परंतु चूंकि उसके सोचने और समझने की योग्यता संसार तक सीमित है अतः ईश्वर प्रलय में केवल उसी को दंडित करेगा जिस तक पैग़म्बरों का निमंत्रण पहुंच चुका हो।
इन आयतों से हमने सीखा कि इतिहास की सभी घटनाओं को सुनने के लिए न मनुष्य की आयु पर्याप्त है और न ही पूरा इतिहास सुनने की आवश्यकता है। यदि हमारे पास सुनने वाले कान हों तो एक ही घटना शिक्षा के लिए काफ़ी है। इसी कारण क़ुरआने मजीद पैग़म्बरों के इतिहास की शिक्षाओं और पाठों की केवल कुछ झलक दिखाता है, उनका पूरा इतिहास नहीं सुनाता।
वास्तविकता स्पष्ट होती है, पैग़म्बरों का काम पढ़ाना और सिखाना नहीं बल्कि भय और आशा के मार्ग से लोगों को सचेत और सावधान करना है।
यद्यपि सभी पैग़म्बरों पर ईश्वरीय संदेश उतरा है और ईश्वर ने उनसे बात की है परंतु फ़िरऔन से संघर्ष के संबंध में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के कड़े दायित्व के कारण उन्हें ईश्वर से अधिक व निकट संपर्क की आवश्यकता थी इसी लिए उन्हें कलीमुल्लाह या ईश्वर से बात करने वाला कहते हैं। {jcomments on}
 सूरए निसा की आयत नंबर 166 
(हे पैग़म्बर! यद्यपि काफ़िर आपकी पैग़म्बरी को स्वीकार नहीं करते) परंतु ईश्वर उस चीज़ के बारे में गवाही देता है जो उसने आपकी ओर भेजी है क्योंकि उसने उसे अपने ज्ञान के आधार पर उतारा है और फ़रिश्ते भी आपकी सत्यता पर गवाही देते हैं (यद्यपि) ईश्वर की गवाही (आपके लिए) काफ़ी है। (4:166)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि काफ़िर और आसमानी किताब वाले सांप्रदायिकता और द्वेष के कारण इस्लाम धर्म और पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की सत्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम को सांत्वना देते हुए कहती है कि यदि ये लोग आपकी पैग़म्बरी को नकार रहे हैं तो इसका कोई महत्व नहीं है क्योंकि ईश्वर ने क़ुरआने मजीद को अपने अपार ज्ञान के आधार पर उतारा है और उसकी बातें इसका स्पष्ट प्रमाण हैं कि यह किताब मनुष्यों के विचारों से कहीं ऊपर है और यही बात उसके ईश्वरीय होने का सबसे अच्छा प्रमाण है।
यह बात किस प्रकार संभव है कि जिस व्यक्ति ने किसी भी मनुष्य से लिखना-पढ़ना न सीखा हो वह अनेकेश्वरवाद, अज्ञान और अंधविश्वास से भरे क्षेत्र में लोगों को ऐसी शिक्षाएं दे जिनका महत्व और मूल्य आज 14 शताब्दियां बीत जाने के बाद समझ में आ रहा है। ऐसी शिक्षाएं जिनकी छाया में लोगों में परिवर्तन आया तथा फूट, एकता में, कंजूसी, बलिदान में, अनेकेश्वरवाद, एकेश्वरवाद में, अज्ञान, ज्ञान में तथा अपमान, सम्मान में परिवर्तित हो गया और एक महान इस्लामी समुदाय अस्तित्व में आया।
इस आयत से हमने सीखा कि वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश का स्रोत ईश्वर का अपार ज्ञान है, इसी कारण जैसे जैसे विज्ञान प्रगति करता जा रहा है, वैसे वैसे ईश्वरीय शिक्षाओं और रहस्यों के बारे में जानकारी बढ़ती जा रही है।
हर धर्म प्रचारक की आशा का केंद्र और सबसे अच्छा सहारा, ईश्वर होना चाहिए तथा लोगों का इन्कार, उसके मार्ग की सत्यता को प्रभावित न करे।
अब सूरए निसा की आयत नंबर 167, 168 और 169 
निसंदेह जो लोग काफ़िर हुए और लोगों को ईश्वर के मार्ग (पर चलने) रोकते रहे वे बड़ी पथभ्रष्टता में जा गिरे। (4:167) निसंदेह जिन काफ़िरों ने अत्याचार किया, ईश्वर उन्हें क्षमा करना तथा किसी मार्ग की ओर उनका मार्गदर्शन नहीं करना चाहता। (4:168) सिवाए नरक के मार्ग के जहां वे सदैव रहेंगे और यह ईश्वर के लिए अत्यंत सरल है। (4:169)
पिछली आयतों में ईमान न लाने वाले लोगों तथा उनके बारे में इस्लाम के व्यवहार के संबंध में बात की गई। ये आयतें काफ़िरों के एक गुट की ओर संकेत करती हैं जो स्वयं पथभ्रष्ट होने के साथ ही दूसरों को भी बहकाने का प्रयास करता है। उसने अपने ऊपर भी अत्याचार किया और दूसरों पर भी। स्वयं भी पथभ्रष्ट हुआ और अनेक लोगों की पथभ्रष्टता का भी कारण बना।
इसी कारण ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ऐसे लोग अपना मार्ग छोड़ेंगे अतः उनके मोक्ष व मुक्ति और उन पर ईश्वर की दया की भी कोई आशा नहीं है। वे केवल नरक में जाएंगे जिसे उन्होंने अपने कर्मों द्वारा स्वयं के लिए तैयार किया है। अलबत्ता अधिकांश काफ़िर, ईश्वर की चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लेते जबकि वे एक दिन देखेंगे कि यह कड़ा दंड ईश्वर के लिए अत्यंत सरल है।
इन आयतों से हमने सीखा कि कुफ़्र स्वयं व अन्य लोगों पर अत्याचार का कारण है और स्वयं अपने, अपने वंश और समाज के प्रति वैचारिक और सांस्कृतिक अत्याचार से बढ़ कर कौन सा अत्याचार हो सकता है?
हर प्रकार का अत्याचार, ईश्वरीय क्षमा और मार्गदर्शन से वंचित होने और नरक में जाने का कारण है।
 सूरए निसा की आयत नंबर 170 
हे लोगो! पैग़म्बर सत्य के साथ तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से आए हैं तो उन पर ईमान लाओ और यदि तुम इन्कार करते हो तो निसंदेह जो कुछ आकाशों और धरती में है वह सब ईश्वर ही का है और ईश्वर अत्यंत जानकार तथा तत्वदर्शी है। (4:170)
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर ज्ञात होता है कि आसमानी किताब वाले, विशेष कर यहूदी अपनी किताबों में मौजूद शुभ सूचनाओं के अंतर्गत अरब मूल के एक पैग़म्बर के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे और इसी कारण उनका एक गुट मदीना नगर भी गया था। इसी प्रकार अनेकेश्वरवादियों ने भी इस संबंध में कुछ बातें सुन रखी थीं और वे भी पैग़म्बर के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
अतः इस संबंध में क़ुरआने मजीद कहता है कि वही पैग़म्बर जिसकी तुम प्रतीक्षा कर रहे थे, सत्य कथन के साथ और वास्तविकता के आधार पर तुम्हारी ओर आया है। जान लो कि यदि तुम उस पर ईमान लाओगे और उसकी बताई बातों का पालन करोगे तो यह तुम्हारे हित में है और यदि तुम उसका इन्कार करते हो तो इससे उसे या उसके ईश्वर को कोई क्षति नहीं होगी।
क्योंकि ईश्वर सभी आकाशों और धरती का स्वामी है और तुम्हारी नमाज़ों या उपासना की उसे कोई आवश्यकता नहीं है। अलबत्ता ईश्वर ने तुम्हें जो आदेश दिए हैं वे उसके अनंत ज्ञान व तत्वदर्शिता के आधार पर हैं और उसने तुम्हारे हितों को दृष्टिगत रखा है।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों की शिक्षाओं की सबसे बड़ी विशेषता, उनका सत्य और सत्यता पर आधारित होना है और यही बात उनके निमंत्रण के फैलने का कारण है।
हमें अपने ईमान से ईश्वर पर उपकार नहीं जताना चाहिए बल्कि हम पर ईश्वर का उपकार है कि उसने हमारा मार्गदर्शन किया है।
न लोगों का कुफ़्र ईश्वर को क्षति पहुंचाता है और न उनके ईमान से उसे कोई लाभ होता है। ईमान स्वयं लोगों के हित में है।
पहले सूरए निसा की आयत नंबर 171 
हे आसमानी किताब वालो! अपने धर्म में अतिशयोक्ति न करो और सत्य के अतिरिक्त कोई बात ईश्वर से संबंधित न करो। निःसंदेह मरयम के पुत्र ईसा मसीह ईश्वर के पैग़म्बर और उसकी निशानी के अतिरिक्त कुछ नहीं, जिसे ईश्वर ने मरयम की ओर भेजा और (ईसा मसीह) ईश्वर की (ओर से) आत्मा हैं तो ईश्वर और उसके पैग़म्बरों पर ईमान लाओ और (कदापि) तीन का नाम भी न लो, इसे छोड़ दो कि यही तुम्हारे लिए बेहतर है, और ईश्वर तो केवल अनन्य अल्लाह है और यह उसकी महिमा के प्रतिकूल है कि उसके कोई पुत्र हो। जो कुछ आकाशों और धरती में है, उसी का है और संसार की अभिभावकता एवं युक्ति के लिए ईश्वर पर्याप्त है। (4:171)
अतीत से लेकर अब तक ईसाइयों की एक आस्था तीन ईश्वरों पर विश्वास की रही है, अर्थात वे ईश्वर को ईशपिता, हज़रत ईसा मसीह को ईशपुत्र तथा पवित्र आत्मा को इन दोनों के बीच संपर्ककर्ता समझते हैं। यह बात मुसलमानों के दृष्टिकोण से अनकेश्वरवाद या शिर्क है क्योंकि हज़रत ईसा ईश्वर के बंदे और उसकी रचना हैं और बंदा कभी भी ईश्वर नहीं हो सकता चाहे उसकी सृष्टि और जन्म अन्य लोगों से भिन्न ही क्यों न हो।
यदि ईश्वर की आज्ञा से अविवाहित हज़रत मरयम से ईसा मसीह का जन्म, ईश्वर होने की निशानी है हज़रत आदम अलैहिस्सलाम, जो बिना माता-पिता के ईश्वर की आज्ञा से संसार में आए, ईश्वर होने के अधिक समीप हैं। इसके अतिरिक्त ईश्वर की को पत्नी और समकक्ष भी नहीं है कि हज़रत ईसा उसके पुत्र हों बल्कि वे ईश्वर की शक्ति की निशानी हैं जो उसके इरादे के अंतर्गत हज़रत मरयम के माध्यम से संसार मे आए।
इस आयत से हमने सीखा कि धार्मिक नेताओं और धर्म के बारे में अतिशयोक्ति मनुष्य को सत्य के मार्ग से विचलित करके असत्य के अंधेरों में पहुंचा देती है।
ईश्वर के निकट बहुत उच्च स्थान रखने के बावजूद, ईश्वरीय पैग़म्बर मनुष्य ही हैं और वे कदापि ईश्वर नहीं हो सकते।
सूरए निसा की आयत नंबर 172 
न (ईसा) मसीह को इस बात से इन्कार है कि वे ईश्वर के बंदे हैं और न (ईश्वर के) निकट फ़रिश्तों को (उसकी बंदगी से इन्कार है) और जो कोई ईश्वर की बंदगी का इन्कार करेगा तो (जान लो कि) ईश्वर शीघ्र ही सबको अपने पास एकत्रित करेगा। (4:172)
यह आयत ईसाइयों को संबोधित करते हुए कहती है कि क्यों तुम लोग ईसा मसीह को ईश्वर के स्थान तक पहुंचा देते हो जबकि उन्हें स्वयं ईश्वर का बंदा होने से इन्कार नहीं है, जैसा कि ईश्वर के फ़रिश्ते भी उससे अत्यधिक समीप होने के बावजूद उसकी बंदगी से इन्कार नहीं करते और मूल रूप से क्या इस बात की संभावना पाई जाती है कि कोई ईश्वर की महानता के सामने बड़ाई दिखाए और उसकी बंदगी से इन्कार करे।
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने अपने काल के ईसाइयों के नेता से कहा कि हज़रत ईसा मसीह की हर बात अच्छी थी किंतु वे उपासना नहीं करते थे। वह अप्रसन्न हो कर कहने लगा कि हज़रत ईसा मसीह सबसे अधिक उपासना किया करते थे। इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ने उससे पूछा कि वे किसकी उपासना करते थे? वह निरुत्तर हो कर चुप हो गया क्योंकि वह समझ गया था कि इमाम के कहने का उद्देश्य यह है कि उपासक कभी उपासनीय नहीं हो सकता।
इस आयत से हमने सीखा कि धार्मिक मामलों में अतिशयोक्ति नहीं करनी चाहिए, जब हज़रत ईसा मसीह स्वयं को ईश्वर का बंदा कहते हैं तो हम उन्हें ईशपुत्र क्यों समझें?
ईश्वर की उपासना और उसकी बंदगी छोड़ने का कारण मनुष्य में घमण्ड व अहं का अस्तित्व है जो मनुष्य को सभी आध्यात्मिक विभूतियों से वंचित करके अनके ख़तरों के समक्ष ढकेल देता है।
 सूरए निसा की आयत नंबर 173 
तो जो लोग ईश्वर पर ईमान लाए और भले कर्म करते रहे, ईश्वर उन्हें पूर्ण बदला देगा और अपनी कृपा से उसमें वृद्धि भी करेगा। और जिन लोगों ने इन्कार और घमण्ड किया, ईश्वर उन्हें कठोर दण्ड देगा और उन्हें ईश्वर के अतिरिक्त न कोई अभिभावक मिलेगा और न ही कोई सहायक। (4:173)
हज़रत ईसा मसीह के बारे में ईसाइयों की ग़लत आस्थाओं के वर्णन के पश्चात यह आयत कहती है कि आसमानी किताब वालों में जो लोग ईमान रखने और भले कर्म करने वाले थे, उन्हें ईश्वर की ओर से पूर्ण बदला और पारितोषिक प्राप्त होगा तथा उन्हें मुक्ति प्राप्त हो जाएगी किंतु जिन लोगों ने सत्य को स्वीकार करने से इन्कार किया और ईश्वर के मुक़ाबले में घमण्ड किया वे प्रलय के कड़े दण्ड में फंसेंगे क्योंकि प्रलय में ईमान और भला कर्म ही काम आएगा और किसी भी धर्म या पैग़म्बर से संबंध, मुक्ति का कारण नहीं बनेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि सच्चे ईमान को कर्म पर प्राथमिकता प्राप्त है और बिना ईमान के कर्म, जाली नोट की भांति महत्तवहीन होता है।
ईमान व कर्म के बिना सिफ़ारिश की आशा नहीं रखनी चाहिए, यद्यपि ईश्वरीय पैग़म्बर सिफ़ारिश की क्षमता रखते हैं।
सूरए निसा की आयत नंबर 174 और 175 
हे लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से स्पष्ट तर्क आ चुका है और हमने (क़ुरआन जैसा) स्पष्ट करने वाला प्रकाश भी तुम्हारी ओर उतारा है। (4:174) तो जो लोग ईश्वर पर ईमान लाए और उस (की रस्सी) को मज़बूती से थामे रहे, उन्हें वह शीघ्र ही अपनी दया व कृपा में प्रविष्ट कर लेगा और सीधे रास्ते की ओर उनकी मार्गदर्शन करेगा। (4:175)
यह आयत एक बार पुनः सभी मनुष्यों विशेष कर आसमानी किताब वालों को संबोधित करते हुए कहती है कि ईश्वर ने अपने अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को भेज कर तुम्हारे मार्गदर्शन के संबंध में अपना दायित्व पूरा कर दिया है और इस संबंध में अब तुम्हारे पास कोई तर्क नहीं है क्योंकि अरब के पिछड़े वातावरण में किसी से भी शिक्षा प्राप्त न करने वाल व्यक्ति की ओर से इस प्रकार की उच्च शिक्षाएं उसकी किताब के ईश्वरीय होने का स्पष्टतम तर्क हैं। यह ऐसी किताब है जो तुम्हारे मार्ग पर प्रकाश डालती है और ईश्वर की ओर जाने वाले रास्ते पर तुम्हारा मार्गदर्शन करती है और स्पष्ट है कि इस किताब और इसकी शिक्षाओं से लाभान्वित होने वालों और केवल ईश्वर के आदेशों का पालन करने वालों को ही मुक्ति और मोक्ष प्राप्त होगा। यह मुक्ति और मोक्ष ईश्वर की दया व कृपा की छाया में होगा तथा लोक-परलोक में मनुष्य को ईश्वर की ओर अग्रसर करेगा।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस्लाम का संदेश पूरे संसार के लिए है और वह हर काल के सभी लोगों को संबोधित करता है।
ईश्वर का पारितोषिक, उसकी दया व कृपा है न कि हमारा अधिकार जैसा कि मूल मार्गदर्शन भी ईश्वर की कृपा ही है।
 सूरए निसा की आयत नंबर 176 
(हे पैग़म्बर!) ये लोग आपसे (मीरास के आदेशों के बारे में) फ़तवा पूछते हैं तो आप कह दीजिए कि कलाला (अर्थात एक पिता या एक माता-पिता से जन्म लेने वाले भाई-बहन) की मीरास के बारे में ईश्वर तुम्हें यह आदेश देता है कि यदि कोई व्यक्ति मर जाए और उसकी कोई संतान (या माता-पिता) न हों परंतु बहन हो तो उसे मृतक के माल का आधा भाग मिलेगा और यदि बहन मर जाए और उसके कोई संतान न हो तो भाई उसका वारिस होगा और यदि मरने वाले व्यक्ति की दो बहनें हों तो वे माल का दो तिहाई भाग मीरास में लेंगी और यदि कई भाई और कई बहनें हों तो पुरुष का भाग महिला के भाग से दोगुना है। ईश्वर यह सब आदेश बयान कर रहा है ताकि तुम लोग पथभ्रष्ट न हो जाओ और जान लो कि ईश्वर हर वस्तु से भली भांति अवगत है। (4:176)

क़ुरआने मजीद का यह चौथा सूरा, महिलाओं की मीरास के बारे में एक अन्य आदेश के साथ समाप्त होता है। यह भाई से बहन को मिलने वाली मीरास है कि जो अन्य भाई बहनों की उपस्थिति से परिवर्तित होती रहती है। जैसा कि इसी सूरे की 11वीं आयत की व्याख्या के दौरान हमने कहा था कि ईश्वर वारिसों के अधिकारों के सम्मान पर, चाहे वे लड़कियां हो या लड़के, अत्यधिक बल देता है और उसने ईमान वालों को आदेश दिया है कि वे मीरास और वसीयत को लागू करने में बहुत अधिक ध्यान दें।
इस आयत से हमने सीखा कि धर्म केवल लोगों के परलोक संबंधी कल्याण के लिए ही नहीं वरन् उनके सांसारिक जीवन के लिए भी कार्यक्रम रखता है, मीरास का विषय एक आयाम से आर्थिक है और दूसरे से पारिवारिक, तथा इस्लाम ने दोनों आयामों के लिए अलग-2 आदेश दिए हैं।
पुरुष को महिला से दोगुनी मीरास की प्राप्ति, ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर है न कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के काल की विशेष सामाजिक परिस्थिति के कारण, जिसमें महिलाओं को कमज़ोर समझा जाता था, अतः हमें ईश्वर के आदेश के समक्ष नतमस्तक रहना चाहिए।

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