कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए बक़रह 2:40-43- नमाज़

सूरए बक़रह; आयतें ४०-४३ (कार्यक्रम 26) सूरए बक़रह की आयत संख्या ४० इस प्रकार है। हे बनी इस्राईल! मैंने तुम्हें अपनी जो अनुकंपाएं प्रदा...

सूरए बक़रह; आयतें ४०-४३ (कार्यक्रम 26)
सूरए बक़रह की आयत संख्या ४० इस प्रकार है।

हे बनी इस्राईल! मैंने तुम्हें अपनी जो अनुकंपाएं प्रदान की हैं, उन्हें याद करो और मुझे दिये गए वचन का पालन करो ताकि मैं तुम्हें दिये गए वचन का पालन करूं और केवल मुझ ही से डरो। (2:40)


धरती में हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकार तथा ईश्वर को दिये गए वचन को भूलने के कारण उनके स्वर्ग से निकाले जाने की घटना के वर्णन के पश्चात इस आयत में आदम की संतान के एक गुट अर्थात बनी इस्राईल के वृत्तांत की ओर संकेत किया गया है जिनका परिणाम भी हज़रत आदम की भांति हुआ था।
ईश्वरीय पैग़म्बर हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम का उपनाम इस्राईल था और बनी इस्राईल का अर्थ है याक़ूब की संतान। बनी इस्राईल का इतिहास बहुत उतार-चढ़ाव भरा है और क़ुरआने मजीद की अनेक आयतों में उनकी ओर संकेत किया गया है।
इस आयत में तीन आदेश दिये गए हैं जो सभी ईश्वरीय कार्यक्रमों का आधार हैं। प्रथम, ईश्वरीय अनुकंपाओं को याद करते रहना कि जो मनुष्य में कृतज्ञता की भावना को जीवित रखती है और ईश्वर से प्रेम तथा उसके आज्ञा पालन का कारण बनती है।
दूसरे इस बात पर ध्यान रखना कि यह अनुकंपाएं बिना शर्त नहीं हैं और ईश्वर ने इनके बदले में मनुष्य से कुछ वचन लिए हैं तथा इनके संबन्ध में मनुष्य उत्तरदायी है। ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभान्वित होने की शर्त यह है कि मनुष्य, ईश्वरीय मार्ग पर चलता रहे।
इस आयत का तीसरा आदेश यह है कि ईश्वरीय आदेशों के पालन में किसी भी शक्ति से भयभीत और शत्रुओं के कुप्रचारों तथा धमकियों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
ईश्वरीय अनुकंपाओं से लाभ उठाते समय ईश्वर को याद करना चाहिए तथा उसके प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए।
ईश्वरीय मार्ग में किसी भी शक्ति से नहीं डरना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत नंबर ४१ इस प्रकार है।

और जो कुछ मैंने (क़ुरआन में से) उतारा है उस पर ईमान लाओ, यह क़ुरआन उन बातों की पुष्टि करने वाला है जो कुछ (तौरेत के रूप में) तुम्हारे पास है। और सबसे पहले इसका इन्कार करने वाले न बनो और मेरी आयतों को सस्ते दामों न बेचो और केवल मुझ ही से डरो। (2:41)

 यह आयत यहूदियों के विद्वानों व धर्मगुरूओं को संबोधित करते हुए कहती है कि तुम तौरेत की भविष्यवाणियों के अनुसार पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे थे तो अब तुम्हें उनके क़ुरआन पर ईमान ले आना चाहिए कि जो तुम्हारी तौरेत से समन्वित है।
अपनी स्थिति को बचाने के लिए तौरेत की उन आयतों को न छिपाओ जिनमें पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से संबन्धित चिन्हों व निशानियों का उल्लेख किया गया है। तुम्हें अपने धर्म को संसार के लिए नहीं बेचना चाहिए।
या कम से कम उनका इन्कार करने वालों में अग्रणी न रहो कि तुम्हारा अनुसरण करते हुए समस्त यहूदी इस्लाम लाने से कतराने लगे हैं।
एक मुस्लिम व्यक्ति सभी आसमानी किताबों तथा पिछले पैग़म्बरों पर ईमान रखता है किंतु चूंकि इस्लाम सबसे अंतिम ईश्वरीय धर्म है और पिछली आसमानी किताबों में फेरबदल हो चुका है अतः वह केवल पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का अनुसरण करता है।
यही कारण है कि ईश्वर पिछले धर्मों के अनुयाइयों को निमंत्रण देता है कि वे क़ुरआने मजीद पर ईमान ले आएं जिसकी बातें उनकी किताबों से समन्वित हैं और उसमें किसी भी प्रकार का फेरबदल नहीं हुआ है। इस संबन्ध में उन्हें अन्य लोगों को नहीं केवल ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिए।

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ४२ इस प्रकार है।

और सत्य को अस्त्य से गड-मड न कर दो तथा वास्तविकता को न छिपाओ जबकि तुम उसे जानते हो। (2:42)

किसी भी जाति के विद्वानों और धर्म गुरूओं के समक्ष एक बड़ा ख़तरा यह रहता है कि लोगों से वास्तविकताओं को छिपाया जाए या फिर सत्य और असत्य को उस प्रकार बयान किया जाए जिस प्रकार वे स्वयं चाहते हैं।
इसके परिणाम स्वरूप लोग अज्ञानता, निश्चेतना तथा संदेह में ग्रस्त हो जाते हैं। यह किसी भी जाति के विद्वानों एवं धर्मगुरुओं की ओर से सबसे बड़ा अत्याचार है।
नहजुल बलाग़ा नामक पुस्तक में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का यह कथन वर्णित है कि यदि असत्य को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत किया जाए तो चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि लोग उसके असत्य होने को समझ जाएंगे और स्वयं ही उसे छोड़ देंगे।
इसी प्रकार यदि सत्य को भी स्पष्ट रूप से लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए तो विरोधियों की ज़बान बंद हो जाएगी और लोग बड़ी ही सरलता से उसे स्वीकार कर लेंगे। ख़तरा वहां होता है जहां पर असत्य, सत्य के साथ गड-मड हो जाता है जिससे लोगों पर शैतान के वर्चस्व की भूमि प्रशस्त हो जाती है।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
किसी भी जाति के विद्वानों एवं धर्मगुरुओं के लिए सबसे बड़ा ख़तरा सत्य को छिपाना है
सत्य को यदि स्पष्ट रूप से लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाए और व्यवहारिक रूप से उसे जीवन में लागू किया जाए तो वे बड़ी ही सरलता से उसे स्वीकार कर लेते हैं।
ज़बान का एक पाप, सत्य को छिपाना है अर्थात मनुष्य किसी सत्य को जानता हो किंतु अपने हितों के लिए उसे छिपा दे।

सूरए बक़रह की आयत क्रमांक ४३ इस प्रकार है।

और नमाज़ स्थापित करो तथा ज़कात दो और ईश्वर के समक्ष झुकने वालों के साथ झुको। (2:43)

केवल सत्य को समझना और उसे पहचानना पर्याप्त नहीं है बल्कि ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति को कर्म भी करना चाहिए। सबसे उत्तम कर्म ईश्वर की उपासना तथा उसकी रचनाओं की सेवा है।
क़ुरआने मजीद की अधिकांश आयतों में नमाज़ और ज़कात का उल्लेख एक साथ किया गया है ताकि यह समझाया जा सके कि नमाज़ और उपासना के कारण लोगों की सेवा तथा वंचितों पर ध्यान देने में रुकावट नहीं आनी चाहिए।
यहां तक कि इस आयत में नमाज़ पढ़ने की शैली के संबन्ध में भी लोगों के बीच उपस्थिति को आवश्यक बताया गया है और कहा गया है कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ो तथा अन्य मुसलमानों के साथ रुकू और सजदा करो क्योंकि इस्लाम में समाज से कटकर अलग-थलग और एकांत में रहना निंदनीय है।
इस आयत से मिलने वाले पाठः
 ईमान, कर्म से अलग नहीं है। नमाज़ समस्त आसमानी धर्मों में ईश्वर का सबसे पहला आदेश है।
 असली नमाज़, जमाअत के साथ होती है तथा जमाअत में सम्मिलित होना, एक धार्मिक दायित्व है।

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