क्यों हम अपनी पहचान खोते जा रहे हैं?
इस दुनिया में आने के बाद अपने माता पिता और समाज के लोगों के बीच रहता हुआ उन जैसा बनने लगता है |बड़े होने पे उसके जीवन में अपने माता पि...
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इस दुनिया में आने के बाद अपने माता पिता और समाज के लोगों के बीच रहता हुआ उन जैसा बनने लगता है |बड़े होने पे उसके जीवन में अपने माता पिता का धर्म और उस समाज के तौर तरीकों की झलक सी दिखने लगती है | हदीस में भी आया है की अपने तुम बूढ़े माता पिता की इज्ज़त करो जिससे तुम्हारी औलाद तुम्हारी इज्ज़त करे |
बालिग़ होने के बाद यह हर इंसान की ज़िम्मेदारी है की वो तहकीक करे की जो उसके माता पिता का धर्म था वो सही है या नहीं और जो कुछ उसने समाज से रीति रिवाज सीखे उनकी क्या हकीकत है ? आप यह भी कह सकते हैं कि हर बालिग़ इंसान की यह ज़िम्मेदारी है की खुद से सवाल करे की वो है कौन? उसका मज़हब कौन सा है उसका रब कौन है? और क्यों है ?
जब इंसान किसी धर्म को सही मानते हुए उसपे चलने लगे तो अब उसे यह शोभा नहीं देता की अपने ही धर्म की कुछ बातों को तो माने और कुछ का इनकार कर दे | ऐसे लोगों को कुरान में मुनाफ़िक़ कहा गया है और इनपे सख्त अज़ाब का वादा है |उन सामाजिक रीति रिवाजो में जिनका उसके धर्म से सम्बन्ध नहीं है वो आज़ाद है की उनको माने या ना माने लेकिन अपने धार्मिक उसूलों से इनकार फरेबी की पहचान है |
मैंने ऐसे बहुत से मुसलमान देखे हैं जो खुद को सच्चा मुसलमान मानते हैं | इस्लाम को अपना धर्म बताते हैं लेकिन चलते इस्लामिक हुक्म के खिलाफ हैं| कमाल तो यह हैं की यह गलती से इस्लामिक कानून के खिलाफ जाते हों ऐसा नहीं है बल्कि अपनी मर्जी से समझ बूझ के ऐसा करते हैं| हदीसों में भी आया है की दुनिया की लज्ज़त और झूटी शोहरत ,दौलत की चाह में अपनी नफ्स को सस्ते में न बेचो | अल्लाह के कहा है की तुम्हारे नफस की कीमत जन्नत है इसे सस्ते में न बेचना |
अब ज़रा गौर करें की यह इंसान कितने सस्ते में और किस चीज़ की चाह में अपनी नफस को बेच देता है और अपने रब से अल्लाह से बगावत करता है |
१) इस समाज में खुद को अल्लाह का बंदा कहने वाले मुसलमान लड़के के बाप दहेज़ बड़ी शान से मांगते मिल जाएंगे जबकि इस्लाम में दहेज़ लड़का देता है न की लड़की वाले |
२) दाढ़ी का न रखना एक आम बात हो गयी है| आज बहुत से मुसलमानों के जीवन में दाढ़ी रखी जाए या न रखा जाए यह हुक्म ऐ खुदा तय नहीं करता बल्कि उस समय का फैशन तय करता है | अगर फिल्मो में हीरो दाढ़ी रख रहा है तो उस दौर का मुसलमान भी रखेगा वरना नहीं रखेगा |
हजरत आदम( ने जब दुआ मांगी की ऐ खुदा उसे और खूबसूरत बना दे तो उनके दाढ़ी आ गयी| पैगम्बर इ इस्लाम की सुन्नत है यह दाढ़ी | मुसलमान को दाढ़ी रखना वाजिब है लेकिन यह सभी दलीलें बेकार हैं वो भी ऐसे मुसलमान के लिए जो खुद को बंदा इ खुदा कहता है |यह ताज्जुब की बात है | इमाम सज्जाद (अ.स) ने बताया की शेव किय मर्द देख के उन्हें यजीद की याद आती है और रंज होता है | फिर ही यह ग़म इ हुसैन में रोने वाला मुसलमान दाढ़ी नहीं रखता |
३) गीबत (किसी की पीठ पीछे बुराई करना, निंदा करना या ऐसी बात कहना जो उसके सामने कही जाए तो वो नापसंद करे ) : यह एक आम गुनाह है जिसके बगैर आज के इंसान का दिन पूरा होना मुमकिन नहीं | और यही ऐसा गुनाह है जो मुसलमान की सारी नेकियों को जाया कर देता है और मुसलमानों की परेशानियोका सबब है | इस गुनाह के बदले में इंसान को कुछ ख़ास हासिल नहीं होता बाद आदत है गीबत की निंदा सुख पाने की | ज़रा देखिये कितने सस्ते में इस इंसान ने खुद के नफस को बेच दिया |
४) मुसलमान औरतों की बेहिजाबी: सडको पे तो आप को यह समझने में मुश्किल हो सकती है कि कौन सी बेहिजाब औरत मुसलमान है और कौन सी नहीं | लेकिन सोशल वेबसाईट पे तो ऐलान के साथ बेहिजाबी देखने को मिलती है उनकी तस्वीरों पे लोग वह क्या खूब, बहुत सुंदर कहते हैं तो यह मुसलमान औरत जो अल्लाह को रब मानने का दावा करती है खुश हो हो के धन्यवाद् कहती है | फिर देखिये कितने सस्ते में नफस बेच दी | ताज्जुब न करियेगा यह वही औरतें हैं जो हर साल सवा दो महीने फर्श ऐ अजा बैठ जनाब इ जैनब को दरबार ऐ यजीद में बेहिजाब ले जाया गया सुन सुन के रोती हैं | क्यों की यह मानती हैं की बेहिजाब औरत बाज़ार में आम लोगों के सामने जाए तो इसका मतलब होता है ज़लील होना| ताज्जुब है की यह आज की मुसलमान औरतें खुद को ज़लील होता देख ख़ुशी महसूस करती हैं|
५) किरादर की बलंदी की इन्तहा यह है की मर्द तो मर्द औरतें भी इस सोशल वेबसाईट पे इश्क लड़ाते और बेहूदा गाने की तारीफ करती मिल जाएंगी | और नाम भी देखिये इन औरतों के कोई सईदा लिखती है, कोई आयशा तो कोई जैदी ,अबिदी |
कितना खुश होती है यह सबको बता के कि देखो हम हैं नस्ल ऐ हज़रात मुहम्मद (स.अ.व), हम हैं नस्ल ऐ जनाब इ फातिमा, हम वो हैं जिसका नाम हज़रात मुहम्मद (स.अ.व ) की बीवी का नाम है और किरदार है दुश्मने इस्लाम जैसा | अल्लाह से खुली बगावत और वो भी वक्ती ख़ुशी के लिए |
ऐसी मिसालें बहुत सी हैं बस ज़रुरत है गौर ओ फ़िक्र की के हम हैं कौन? बंदा ऐ खुदा या बंदा ऐ दुनिया ? यह फ़िक्र करने की बात है की हम यही नहीं समझ प् रहे हैं की हमारे लिए अल्लाह की ख़ुशी की अहमियत ज्यादा है या दुनिया की कुशी |
यह आज का कैसा मुसलमान है जिसे अल्लाह से अपने रब से बगावत में मज़ा आता है ? यह फ़िक्र का विषय है |