इस्लामिक क़ानून - रमज़ान और रोज़ादार

 अयातुल्लाह सीस्तानी  1. रोज़े की नियत * 1559 - इंसान के लिए रोज़े की नियत दिल से गुजारना य मसलन यह कहना के "मै कल रोज़ा रखूंगा, ज...

 अयातुल्लाह सीस्तानी 
1. रोज़े की नियत
*1559 - इंसान के लिए रोज़े की नियत दिल से गुजारना य मसलन यह कहना के "मै कल रोज़ा रखूंगा, ज़रूरी नहीं बल्कि उसका इरादा करना काफी है की वो अल्लाह ताअला की रिज़ा के लिए अजाने सुबह से मगरिब तक कोई भी ऐसा काम नहीं करेगा जिससे रोज़ा बातिल होता हो और यह यकीन हासिल करने के लिए इस तमाम वक़्त में वो रोज़े  से रहा है ज़रूरी है की कुछ देर अजाने सुबह से पहले और कुछ देर मगरिब के बाद भी ऐसे काम से परहेज़ करे जिन से रोज़ा बातिल हो  जाता है !
1560 -  इंसान माहे रमजानुल मुबारक की हर रात उस से अगले दिन के रोज़े की नियत कर सकता है और बेहतर यह है की उस महीने की पहली रात को ही सारे महीने के रोज़े की नियत करे
*1561 - वो शख्स जिसका रोज़ा  रखने का इरादा हो उसके लिए माहे रमज़ान में रोज़े की नियत का आखरी वक़्त अजाने सुबह से पहले है ! यानी अजाने सुबह से पहले रोज़े की नियत ज़रूरी है, अगरचे नींद या ऐसी ही किसी वजह से अपने इरादे की तरफ मुतवज्जह न हो!
*1562 - जिस शख्स ने ऐसे कोई काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करे तो वह जिस वक़्त भी दिन में मुस्तहब रोज़े की नियत कर ले अगरचे मगरिब होने में वक़्त कम ही रह गया हो, उस का रोज़ा सही है!
*1563 - जो शख्स माहे रमजानुल मुबारक के रोजों और उसी तरह वाजिब रोजों में जिनके दिन मोईयन है रोज़े की नियत किये बगैर अजाने सुबह से पहले सो जाए अगर वोह जोहर से पहले बेदार हो जाए और रोज़े  की नियत करे तो उसका रोज़ा सही है, और अगर वो जोहर के बाद बेदार हो तो एह्तेयात की बिना पर ज़रूरी है की क़र्बते मुतलक की नियत न करे और उस दिन के रोज़े की कजा भी बजा लाये
* 1564 - अगर कोई शख्स माहे रमजानुल मुबारक के रोजों के अलावा कोई दूसरा रोज़ा रकना चाहे तो ज़रूरी है की उस रोज़े तो मोईयन करे मसलन नियत करे की "मै कजा या कफ्फारे का रोज़ा रख़ रहा हूँ" लेकिन माहे रमजानुल मुबारक में यह नियत करना ज़रूरी नहीं की मै सारे रमजानुल मुबारक का रोज़ा रख़ रहा हूँ बल्कि अगर किसी को इल्म न हो या भूल जाए की माहे रमज़ान है और किसी दुसरे रोज़े की नियत करे तब भी वह रोज़ा माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा
* 1565 - अगर कोई शख्स यह जानता हो के रमज़ान का महीना है और जान बूझ कर माहे रमज़ान के रोज़े के इलावा किसी दूसरी रोज़े की नियत करे तो वह रोज़ा जिसकी उसने नियत की है वह रोज़ा शुमार नहीं होगा और इसी तरह वह माहे रमज़ान का रोज़ा भी शुमार नहीं होगा अगर वह नियत क़स्दे कुर्बत के मनाफ़ी हो बल्कि अगर मनाफ़ी न हो तब भी एहतियात की बिना पर वह रोज़ा माहे रमज़ान का रोज़ा शुमार नहीं होगा
1566 - मिसाल के तौर पर अगर कोई शख्स माहे रमजानुल मुबारक के पहले रोज़े की नियत करे लेकिन बाद में मालूम हो की यह दूसरा या तीसरा रोज़ा था तो उसका रोज़ा सही है
1567  - अगर कोई शख्स अजाने सुबह से पहले रोज़े की नियत करने के बाद बेहोश हो जाए और फिर उसे दिन में किसी वक़्त होश आ जाए तो एहतियाते वाजिब यह है की उस दिन का रोज़ा तमाम करे और उसकी कजा भी बजा लाये
1568  - अगर कोई शख्स अजाने सुबह से पहले रोज़े की नियत करे और फिर बेहोश हो जाए और फिर उसे दिन में किसी वक़्त होश आ जाए तो एहतियाते वाजिब यह है की उस दिन का रोज़ा तमाम करे और उसकी कजा भी बजा लाये
1569 - अगर कोई शख्स अजाने सुबह से पहले रोज़े की नियत करे और सो जाए और मगरिब के बाद बेदार हो तो उसका रोज़ा सही है
*1570 - अगर किसी शख्स को इल्म ना हो या भूल जाए की माहे रमज़ान है और जोहर से पहले इस अम्र की जानिब मुतवज्जह हो और इस दौरान कोई ऐसा काम कर चुका हो जो रोज़े को बातिल करता है तो उसका रोज़ा बातिल होगा लेकिन यह ज़रूरी है की मगरिब तक कोई ऐसा काम न करे जो रोज़े को बातिल करता हो और माहे रमज़ान के बाद रोज़े की कजा भी करे और अगर जोहर के बाद मुतवज्जह हो की रमज़ान का महीना है तो एहतियात के बिना पर यही हुक्म है और अगर ज़ोंहर से पहले मुतवज्जह हो तो कोई ऐसा काम भी न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा सही है
*1571 - अगर माहे रमज़ान में बच्चा अजाने सुबह से पहले बालिग़ हो जाए तो ज़रूरी है की रोज़ा रखे और अगर अजाने सुनाह के बाद बालिग़ हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नहीं है लेकिन अगर मुस्तहब रोज़ा रखने का इरादा कर लिया हो तो इस सूरत में एहतियात के बिना पर उस दिन के रोज़े को पूरा करना ज़रूरी है
*1572 - जो शख्स मैय्यत के रोज़े रखने के लिए अजीर बना हो या उसके जिम्मे कफ्फारे के रोज़े हो अगर वह मुस्तहब रोज़े रखे तो कोई हर्ज नहीं लेकिन अगर कजा  रोज़े किसी के जिम्मे हो तो वोह मुस्तहब रोज़ा नहीं रख़ सकता और अगर भूल कर मुस्तहब रोज़ा रख़ ले तो इस सूरत में अगर जोहर से पहले याद आ जाए तो उसका रोज़ा कलअदम हो जाता  है और वह अपनी नियत वाजिब रोज़े की जानिब मोड़ सकता है और अगर वह जोहर के बाद मुतवज्जह हो तो एहतियात  के बिना पर उसका रोज़ा बातिल है और अगर उसे मगरिब के बाद याद आये तो उसके रोज़े का सही होना इश्काल से खाली नहीं
*1573 - अगर माहे रमज़ान के रोज़े के इलावा कोई दूसरा मखसूस रोज़ा इंसान पर वाजिब हो मसलन उसने मन्नत मानी हो की एक मुक़र्रर दिन को रोज़ा रखेगा और जान बूझ कर अजाने सुबह तक नियत न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और अगर उसे मालूम न हो की उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब है या भूल जाए और जोहर से पहले उसे याद आये तो अगर उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और रोज़े की नियत कर ले तो उसका रोज़ा सही है और अगर जोहर के बाद उसे याद आये तो माहे रमज़ान के रोज़े में जिस एहतियात का ज़िक्र किया गया है उसका ख्याल रखे
1574 - अगर कोई शख्स किसी गैर मु'अययन वाजिब रोज़े के लिए मसलन रोज़े कफ्फारा के लिए जोहर के नज़दीक तक आ-मदन ना करे तो कोई हरज नहीं बल्कि अगर नियत से पहले मुसम्मम इरादा रखता हो के रोज़ा नहीं रखेगा या मुज़-बज़ब हो के रोज़ा रखे या नहीं रखे तो अगर उसने कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो और जोहर से पहले रोज़े की नियत कर ले तो उस का रोज़ा सही है
*1575 - अगर कोई काफिर माहे रमज़ान में जोहर से पहले मुसलमान हो जाए और अजाने सुबह से उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है की रोज़े की नियत करे और रोज़े को तमाम करे और अगर दिन का रोज़ा न रखे तो उसकी कजा बजा लाये
*1576 - अगर कोई बीमार शख्स माहे रमज़ान के किसी दिन में जोहर से पहले तंदुरुस्त हो जाए और उसमे उस वक़्त तक कोई ऐसा काम न किया हो जो रोज़े को बातिल करता हो तो नियत कर के उस दिन का रोज़ा रखना ज़रूरी है और अगर जोहर के बाद तंदरुस्त हो तो उस दिन का रोज़ा उस पर वाजिब नहीं है
*1577 - जिस दिन के बारे में इंसान को शक हो की शाबान की आखरी तारीख है या रमज़ान की पहली तारीख उस दिन का रोज़ा रखना उस पर वाजिब नहीं है और अगर रोज़ा रखना चाहे तो रमजानुल मुबारक के रोज़े की नियत नहीं कर सकता लेकिंग नियत कर के अगर रमज़ान है तो रमज़ान का रोज़ा है और अगर रमज़ान नहीं है तो कजा रोज़ा या उसी जैसा कोई और रोज़ है तो बईद नहीं की उसका रोज़ा सही हो लेकिन बेहतर यह है की कजा रोज़े वगैरा की नियत करे और अगर बाद में पता चले की माहे रमज़ान था तो रमज़ान का रोज़ा शुमार होगा लेकिन अगर नियत सिर्फ रोज़े की करे और बाद में मालूम हो के रमज़ान था तब भी काफी है
1578 - अगर किसी दिन के बारे में इंसान को शक हो की शाबान की आखिरी तारीख है य रमजानुल मुबारक की पहली तारीख तो वह कजा या मुस्तहब या ऐसे ही किसी और रोज़े की नियत करके रोज़ा रख़ ले, दिन में किसी वक़्त उसे पता चले की माहे रमज़ान है तो ज़रूरी है के माहे रमज़ान के रोज़े की नियत कर ले
*1579 - अगर किसी मुअययन वाजिब रोज़े के बारे में मसलन रमजानुल मुबारक के रोज़े के बारे में इंसान मुज़-बज़ब हो की अपने रोज़े को बातिल करे या न करे या रोज़े को बातिल करने का क़स्द करे तो ख्वाह उसने जो क़स्द किया हो उसे तर्क कर दे और कोई ऐसा काम भी न करे जिस में रोज़ा बातिल होता हो उसका रोज़ा एहतियात के बिना पर बातिल हो जाता है
*1580 - अगर कोई शख्स जो मुस्तहब या ऐसा वाजिब रोज़ा मसलन कफ्फारे का रोज़ा रखे हुए हो जिसका वक़्त मुअययन न हो किसी ऐसे काम का क़स्द करे जो रोज़े को बातिल करता हो या मुज़-बज़ब जो की कोई ऐसा काम करे या न करे तो अगर वोह कोई ऐसा काम ना करे और वाजिब रोज़े में जोहर से पहले और मुस्तहब रोज़े में गुरूब (आफताब) से पहले दुबारा रोज़े की नियत कर ले तो उसका रोज़ा सही है!
2. वह चीज़ें जो रोज़े को बातिल कराती हैं
* 1581 – चंद चीज़ें जो रोज़े  को  बातिल कर देती  हैं वो  यह  हैं  :
(1)   खाना  और पीना
(2)  जिमाअ करना
(3) इस्तेमना  – यानी इंसान  अपने साथ  या  किसी दुसरे के  साथ  जिमाअ  के अलावा ऐसा फेल करे जिसके नतीजे में मणि खारिज हो
(4) खुदाए तआला , पैगम्बरे अकरम  (सअवव) और अइम्मा -ए- ताहेरीन  (अस) से कोई  झूटी  बात मंसूब करना
(5)   गुबार हलक तक पहुंचाना
(6)   मशहूर कौल की बिना पर पूरा  सर  पानी  में  डुबाना
(7)   अजाने  सुबह तक  जनाबत  या  हैज़  और  निफासत  की  हालत  में  रहना
(8)   किसी  सैय्याल चीज़  से  हुकना  (एनिमा) करना
(9) कै करना

इन मुब्तलात के तफ्सीली अहकाम

(1) खाना और पीना
1582 - अगर रोजादार इस अम्र की जानिब मुतवज्जह होते ही की रोज़े से हैं कोई चीज़ जान बूझ कर खाए या पिए तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है! क़तए नज़र इस से की वो चीज़ ऐसी हो जिसे उमूसन खाया या पीया जाता हो मसलन रोटी और पानी या ऐसी हो जिसे उमूसन खाया य पीया ना जाता हो मसलन मिटटी और दरख़्त की शीरा ख्वाह कम हो या ज्यादा हत्ता की अगर रोजादार मिस्वाक मुंह से निकाले और दुबारा मुंह में ले जाए और उस की तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जाता है सिवाए इस सूरत के की मिस्वाक की तरी लुआबे दहन में घुल मिल कर इस तरह ख़तम हो जाए की उसे बैरूनी तरी ना कहा जा सके
1583 - जब रोजादार खाना ख़ा रहा हो, अगर उसे मालूम हो जाए की सुबह हो गयी है तो ज़रूरी है की जो लुक्मः मुंह में हो उसे उगल दे और अगर जान बूझ कर वो लुक्मः निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल है! और उस हुक्म के मुताबिक, जिस का ज़िक्र बाद में होगा उस पर कफ्फारा भी वाजिब है!
1584 - अगर रोजादार गलती से कोई चीज़ ख़ा ले या पी ले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता
1585 - जो इंजेक्शन उज़्व को बेहिस कर देते हैं या किसी और मकसद के लिए इस्तेमाल होते हैं अगर रोज़ादार इन्हें इस्तेमाल करे तो कोई हर्ज नहीं लेकिन बेहतर यह है की उन इंजेक्शनो से परहेज़ किया जाए जो दवा और गिज़ा के बजाये इस्तेमाल होते हैं
1586 - अगर रोज़ादार की दांतों के रेखों में फँसी हुई कोई चीज़ अमदन निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है
1587 - जो शख्स रोज़ा रखना चाहता हो उस के लिए अजाने सुबह  से पहले दांतों में खिलाल ज़रूरी नहीं है लेकिन अगर उसे इल्म हो जाये की जो गिज़ा दांतों के रेखों में रह गयी है वह दिन के वक़्त पेट में चली जायेगी तो खिलाल करना ज़रूरी है!
1588 - मुंह का पानी निगलने से रोज़ा बातिल नहीं होता ख्वाह तुर्शी वगैरा के तसव्वुर से ही मुंह में पानी भर आया हो
1589- सर और सीने का बलगम जब तक मुंह के अंदर वाले हिस्से तक ना पहुंचे उसे निगलने में कोई हर्ज नहीं लेकिन अगर मुंह में आ जाए तो एहतियाते वाजिब है की उसे थूक दे
* 1590 - अगर रोजादार को इतनी प्यास लगे की की उसे प्यास से मर जाने का खौफ हो जाए या उसे नुकसान का अंदेशा हो या इतनी सख्ती उठानी पड़े जो उस के लिए ना काबिले बर्दाश्त हो तो इतना पानी पी सकता है की उन उमूर का खौफ ख़तम हो जाए लेकिन उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा और अगर माहे रमज़ान हो तो एहतियाते लाजिम की बिना पर ज़रूरी है की उस से ज्यादा पानी ना पिए और दिन के बाकी हिस्से में वह काम करने से परहेज़ करे जिससे रोज़ा बातिल हो जाता है
1591 - बच्चे या परिंदे को खिलाने के लिए गिज़ा का चबाना या गिज़ा का चखना और इसी तरह के काम जिस में गिज़ा उमुमन हलक तक नहीं पहुँचती ख्वाह वह इत्तेफकान हल्क़ तक पहुँच जाए तो रोज़े को बातिल नहीं करती, लेकिन अगर इंसान शुरू से जानता हो की यह गिज़ा हल्क़ तक पहुँच जायेगी तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है और ज़रूरी है की उस की कजा बजा लाये और कफ्फारा भी उस पर वाजिब है
1592- इंसान (मामूली) नकाहत की वजह से रोज़ा नहीं छोड़ सकता, लेकिन अगर नकाहत इस हद तक हो की उमूमन बर्दाश्त ना हो सके तो फिर रोज़ा छोड़ने में कोई हर्ज नहीं
(2) जिमाअ
1593 -  जिमाअ रोज़े को बातिल कर देता है ख्वाह उज़्वे तनासुल सुपारी तक ही दाखिल हो और मनी भी खारिज ना हो
* 1594 - अगर आलाए तनासुल सुपारी से कम दाखिल हो और मनी भी खारिज ना हो तो रोज़ा बातिल नहीं होता लेकिन जिस शख्स की सुपारी कटी हुई हो अगर वह सुपारी की मिकदार से कमतर मिकदार दाखिल करे तो अगर यह कहा जाए की उसने हमबिस्तरी की है तो उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा
* 1595 - अगर कोई शाल्ख्स आमदन जिमाअ का इरादा करे और फिर शक करे की सुपारी के बराबर दाखिल हुआ था या नहीं तो एहतियाते लाजिम की बिना पर उस का रोज़ा बातिल है और ज़रूरी है की उस रोज़े की कजा बजा लाये लेकिन कफ्फारा वाजिब नहीं है
1596 - अगर कोई शख्स भूल जाए की रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस तरह मजबूर किया जाए की उसका इख्तियार बाक़ी ना रहे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाए की रोज़े से है या मजबूरी ख़तम हो जाए तो ज़रूरी है की फ़ौरन तर्क करे और अगर ऐसा ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है
(3) इस्तेमना
1597 - अगर रोजादार इस्तेमना करे (इस्तेमना के मानी मसाइल संख्या 1571 में बताये जा चुके हैं), तो उसका रोज़ा बातिल है
1598 - अगर बे-इख्तियारी की हालत में किसी की मनी खारिज हो जाए तो  उसका रोज़ा बातिल नहीं है
1599 - अगरचे रोज़ादार को मालूम है की अगर दिन में सोयेगा तो उसे एहतिलाम हो जाएगा यानी सोते में उसकी मनी खारिज हो जायेगी तो भी उसके लिए सोना जाएज़ है, ख्वाह ना सोने की वजह से उसे कोई तकलीफ न भी हो और उसे एहतिलाम हो जाए तो बी उसका रोज़ा बातिल नहीं होता है
1600 - अगर रोज़ादार मनी खारिज होते वक़्त नींद से बेदार हो जाए तो उसपर यह वाजिब नहीं की मनी को निकलने से रोके
1601 - जिस रोज़ेदार को एहतिलाम हो गया हो तो वह पेशाब कर सकता है ख्वाह उसे यह इल्म हो की पेशाब करने से बाक़ी मानदः मनी नाली से बाहर आ जायेगी
1602 - जब रोज़ेदार को एहतिलाम हो जाए अगर उसे मालूम हो की मनी नाली में रह गयी है और वह गुसल से पहले पेशाब नहीं करेगा तो गुसल के बाद मनी उसके जिस्म से खारिज होगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है की गुसल से पहले पेशाब करे
* 1603 - जो शख्स मनी निकालने के इरादे से छेड़ छाड़ और दिल्लगी करे तो ख्वाह मनी न भी निकले तो एहतियाते लाजिम की बिना पर ज़रूरी है की रोज़े को तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाये!
1604 - अगर रोजादार मनी निकालने के इरादे के बगैर मिसाल के तौर पर अपनी बीवी से छेड़ छाड़ और हंसी मजाक करे और उसे इत्मीनान हो की मनी खारिज नहीं होगी अगरचे इत्तेफाक़न मनी खारिज हो जाए , उसका रोज़ा सही है, अलबत्ता उसे इत्मीनान ना हो तो उस सूरत में जब मनी खारिज होगी तो उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा
(4) ख़ुदा व रसूल पर बोहतान बाँधना
* 1605 - अगर रोज़ादार  ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीके से अल्लाह तआला या रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) या आपके (बार हक़) जा नशीनो में से किसी से जान बूझ कर कोई झूठी बात मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन कह दे की मैंने झूठा कहा है या तौबा कर ले तब भी एहतियाते लाजिम की बिना पर हजरत फातिमा ज़हरा (सल्वातुल्लाहे अलैहा) और तमाम अम्बियाए मुरसलीन (अस) और उन के जा नशीनो से भी कोई झूठी बात मंसूब  करने का यही हुक्म है

1606 - अगर (रोज़ादार) कोई ऐसी रिवायत नकल करना चाहे जिस के कतई होने की दलील न हो और उस के बारे में उसे यह इल्म न हो की सच है की झूठ तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है की जिस शख्स से वह रिवायत हो या जिस किताब में लिखी देखी हो उसका हवाला दे!

1607 - अगर किसी रिवायत के बारे में इख्तालाफ रखता हो की वह वाकई कौले खुदा या कौले पैगम्बर (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) है और उसे अल्लाह तआल़ा या पैगम्बरे अकरम (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) से मंसूब करे और बाद में मालूम हो की निस्बत ठीक नहीं थी तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा!
*1608 - अगर रोज़ादार किसी चीज़ के बारे में यह जानते हुए की झूठ है उसे अल्लाह तआल़ा और रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) से मंसूब करे और बाद में उसे पता चले की जो कुछ उसने कहा था वह दुरुस्त था तो एहतियाते लाजिम की बिना पर ज़रूरी है की रोज़े को तमाम करे और उसकी क़ज़ा भी बजा लाये
* 1609 -  अगर रोज़ादार किसी ऐसे झूठ को जो खुद रोज़ादार ने नहीं बल्कि किसी दुसरे ना गढ़ा हो जान बूझ कर अल्लाह तआला या रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) या आपके (बर हक़) जानशीनो से मंसूब कर दे तो एहतियाते लाजिम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा लेकिन अगर जिसने झूठ गढ़ा हो उसका कौल नकल करे तो कोई हरज नहीं!


* 1610 - अगर रोज़ादार से सवाल किया जाए की किया रसूले मोहतषम (स:अ) ने ऐसा फरमाया है और वह अमदन जहाँ जवाब "नहीं" देना चाहिए वहां "इसबात" में दे और जहाँ "इसबात" में देना चाहिए वहां अमदन "नहीं" दे तो एहतियाते लाजिम की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है!

* 1611-  अगर कोई शख्स अल्लाह तआला या रसूले अकरम (सललल्लाहो इलैहे व आलेही व सल्लम) का कौले दुरुस्त नक़ल करे और बाद में कहे की मैंने झूठ कहा है या रात को कोई झूठी बात उनसे मंसूब करे और दुसरे दिन जबकि रोज़ा रखा हुआ हो कहे की जो कुछ मैंने गुज़श्तः रात कहा ठा वह दुरुस्त है तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन अगर वह रिवायत के (सही या गलत होने के) बारे में बताये (तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता है)!
(5) ग़ुबार को हलक़ तक पहुंचाना
* 1612 - एहतियाते वाजिब की बिना पर कसीफ़ गुबार का हलक़ तक पहुंचाना रोज़े को बातिल कर देता है ख्वाह गुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना हलाल हो मसलन आटा या किसी ऐसी चीज़ का हो जिसका खाना हराम हो मसलन मिट्टी
* 1613 - अक़वा यह है की गैरे कसीफ़ गुबार हलक़ तक पहुँचने से रोज़ा बातिल हो जाता है
* 1614  - अगर हवा की वजह से गुबार पैदा हो सुर इंसान मुतवज्जह होने और एहतियात कर सकने के बावजूद एहतियात ना करे और गुबार उसके हलक़ तक पहुँच जाए तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है
* 1615 - एहतियाते वाजिब यह है की रोजादार सिगरेट और तम्बाकू वगैरा का धुआं भी हलक़ तक ना पहुंचाए !
* 1616 - अगर इंसान एहतियात न करे और गुबार य धुआं वगैरा हलक़ में चला जाए तो अगर उसे यकीन य इत्मीनान था की यह चीज़ें हलक़ में ना पहुंचेगी तो उसका रोज़ा सही है लेकिन अगर उसे गुमान था की यह हलक़ तक नहीं पहुंचेगी तो बेहतर है की रोज़े की क़ज़ा बजा लाये!
1617 - अगर कोई शख्स यह भूल जाए की रोज़े से है एहतियात ना करे या बे इख्तियार गुबार वगैरा उसके हलक़ तक पहुँच जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता !
(6) सर को पानी में डुबोना
* 1618 - अगर रोज़ादार जान बूझ कर सारा सर पानी में डुबो दे तो ख्वाह उस का बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे मशहूर  कौल की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन बईद नहीं की ऐसा करना रोज़े को बातिल न करे ! अगरचे ऐसा करने में शदीद कराहत है और मुमकिन हो तो उससे एहतियात करना बेहतर है!
* 1619 - अगर रोज़ादार अपने निस्फ सर को एक दफा और बक़ी निस्फ सर को दूसरी दफा पानी में डुबोये तो उसका रोज़ा सही होने में कोई इश्काल नहीं है!
* 1620 - अगर सारा सर पानी में डूब जाए तो ख्वाह कुछ बाल पानी से बाहर भी रह जाएँ तो उसका हुक्म भी मसअला 1618  की तरह है!
* 1621 - पानी के इलावा दूसरी सय्याल चीज़ों मसलन दूध में सर डुबोने से रोज़े को कोई ज़रर नहीं पहुँचता और मुजाफ पानी में सर डुबोने का भी यही हुक्म है!
* 1622 - अगर रोज़ादार बे इख्तियार पानी में गिर जाए और उसका पूरा सर पानी में डूब जाए य भूल जाए की रोज़े से है और सर पानी में डुबो ले तो उसक एरोज़े में कोई इश्काल नहीं है!
* 1623 - अगर कोई रोज़ादार यह ख्याल करते हुए अपने आपको पानी में गिरा दे की उसका सर पानी में नहीं डूबेगा लेकिन उसका पूरा सर पानी में डूब जाए तो उसके रोज़े में बिलकुल इश्काल नहीं है!
* 1624 - अगर कोई शख्स भूल जाए की रोज़े से है और सर पानी में डुबो दे तो अगर पानी में डूबे हुए उसे याद आये की रोज़े से है तो बेहतर यह है की रोज़ादार फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाले और अगर ना निकाले तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा !
* 1625 - अगर कोई शख्स रोज़ादार के सर को ज़बरदस्ती पानी में डुबो दे तो उसके रोज़े में कोई इश्काल नहीं है लेकिन जबकि अभी वह  पानी में है दूसरा शख्स अपना हाथ हटा ले तो बेहतर है की फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाल ले!
* 1626- अगर रोज़ादार ग़ुस्ल की नियत से सर पानी में डुबो दे तो उस का रोज़ा और ग़ुस्ल दोनों सही हैं!
* 1627 - अगर कोई रोज़ादार किसी को डूबने से बचाने की ख़ातिर सर को पानी में डुबो दे ख्वाह उस शख्स तो बचाना वाजिब ही क्यों ना हो एहतियाते मुस्तहब है की रोज़े की क़ज़ा बजा लाये!


(7 ) अजाने सुबह तक जनाबत, हैज़, और निफासत की हालत में रहना

* 1628  - अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ानुल मुबारक में जान बूझ कर अजाने सुबह तक  ग़ुस्ल ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख्स का वजीफा तय्मुम हो और जान बूझ कर तय्मुम न करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान की क़ज़ा का हुक्म भी यही है!
1629 - अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान के रोज़ों और उनकी क़ज़ा के इलावा उन वाजिब रोज़ों में जिनका वक़्त माहे रमज़ान के रोज़ों की तरह मुअययन है जान बूझ कर अजाने सुबह तक ग़ुस्ल ना करे तो अजहर यह है की उसका रोज़ा सही है!

* 1630  - अगर कोई शख्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में जुनुब हो जाए तो अगर वह अमदन ग़ुस्ल न करे हत्ता की वक़्त तंग हो जाए तो ज़रूरी है की तय्मुम करे और रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब यह है की उसकी क़ज़ा भी बजा लाये!
1631  - अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाए और एक दिन के बाद उसे याद आये तो ज़रूरी है की उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो उतने दिनों के रोज़ों की क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो उतने दिनों के रोज़ा की क़ज़ा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो की वह जुनुब या मसलन अगर उसे यह इल्म न हो की तीन दिन जुनुब रहा था या चार दिन तो ज़रूरी है की तीन दिनों के रोजो की क़ज़ा करे!
1632 - अगर कोई ऐसा शख्स अपने आप को जुनुब कर ले जिसके पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तय्मुम में से किसी के लिए भी वक़्त न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और उसपर क़ज़ा और कफ्फारा दोनों वाजिब है!

* 1633 - अगर रोज़ादार यह जान्ने के लिए जुस्तजू करे  की उस के पास वक़्त है या नहीं और गुमान करे की उसके पास ग़ुस्ल के लिए वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में उसे पता चले की वक़्त तंग था और तय्मुम करके रोज़ा रखे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है की उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे!

* 1634  - जो शख्स माहे रमज़ान की किसी रात को जुनुब हो और जानता हो की अगर सोयेगा तो सुबह तक बेदार ना होगा, उसे बगैर ग़ुस्ल किये न सोना चाहिए और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मर्जे से सो जाए और सुबह तक बेदार न हो तो उसका रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ्फारा दोनों उस पर वाजिब हैं!

* 1635 - जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सोकर जाग उठे तो एहतियाते वाजिब यह है की अगर वह बेदार होने के बारे में मुतमइन हो तो ग़ुस्ल से पहले न सोये अगरचे इस बात का एह्तिमाल हो की अगर दुबारा सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा!

* 1636 - अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो की अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा और उसका मुसम्मम इरादा हो की बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाए और अज़ान तक सोता रहे तो उसका रोज़ा सही है! और अगर कोई शख्स सुबह की अज़ान से पहले बेदार होने के बारे में मुतमइन हो तो उसके लिए भी यही हुक्म है!
1637 - अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इल्म हो या एह्तिमाल हो की अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा और वह इस बात से ग़ाफिल हो की बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो उस सूरत में जबकि वह सो जाए और सुबह की अज़ान तक सोया रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा वाजिब हो जाती है!

* 1638 - अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में किसी रात में जुनुब हो और उसे यक़ीन हो या एह्तिमाल इस बात का हो की अगर वह सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो उस सूरत में जबकि वह सो जाए और बेदार न हो उस का रोज़ा बातिल है, और क़ज़ा और कफ्फ़ारा उस के लिए लाजिम है! और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो की ग़ुस्ल करे या न करे तो एहतियाते लाजिम की बिना पर यही हुक्म है!
* 1639 - अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में सोकर जाग उठे और उसे यक़ीन हो या इस बात का एह्तिमाल हो की अगर दुबारा सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जाएगा और वोह मुसम्मम इरादा भी रखता हो की बेदार होने बाद के ग़ुस्ल करेगा और दुबारा सो जाए और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है की बतौरे सज़ा उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे! और अगर दूसरी नींद से बेदार हो जाए और तीसरी दफा सो जाए और सुबह की अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है की उस दिन के रोज़े के क़ज़ा करे और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर कफ्फ़ारा भी दे!
1640 - जब इंसान को नींद में एहतिलाम हो जाए तो पहली, दूसरी और तीसरी नींद से मुराद वह नींद है की इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोये लेकिन वह नींद जिसमे एहतिलाम हुआ पहली नींद में शुमार नहीं होती!
1641 - अगर किसी शख्स को दिन में एहतिलाम हो जाए तो फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं!
1642 - अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे की उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो की यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है, उस का रोज़ा सही है!

* 1643 - जो शख्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और वह सुबह की अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उसका इस हालत में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख़ सकता और अगर अमदन नो हो तो रोज़ा रख़ सकता है अगरचे एहतियात यह है की रोज़ा न रखे

* 1644 - जो शख्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुबह की अज़ान के बाद बेदार हो और देखे की उसे एहतिलाम हो गया है और जानता हो की यह एहतिलाम उसे सुबह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की नियत से रोज़ा रख़ सकता है!
1645  - अगर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़ों के इलावा ऐसे वाजिब रोज़ों में की जिन का वक़्त मुअय्यन नहीं है मसलन कफ्फारे के रोज़े में कोई शख्स अमदन अजाने सुबह तक जुनुब रहे तो अज़हर यह है की उसका रोज़ा सही है लेकिन बेहतर है की उस दिन के अलावा किसी दुसरे दिन का रोज़ा रखे!
* 1646 - अगर रमज़ान के रोज़ों में औरत सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफास से पाक हो जाए और अमदन ग़ुस्ल ना करे या वक़्त तंग होने की सूरत में - अगरचे उसके अख्त्यार में हो और रमज़ान का रोज़ा हो - तय्मुम न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और एहतियात की बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म है (यानी उस का रोज़ा बातिल है) और इन दो के इलावा दीगर सूरतों में बातिल नहीं अगरचे अहवत यह है के ग़ुस्ल करे! माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़िम्मेदारी हैज़ या निफास के ग़ुस्ल के बदले तय्मुम हो और इसी तरह एहतियात की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा में अगर जान बूझ कर अजाने सुबह से पहले तय्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है!
* 1647 - अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल के लिए वक़्त न हो तो ज़रूरी है की तय्मुम करे और सुबह की अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नहीं है! जिस जुनुब शख्स का वज़ीफ़ा तय्मुम हो उसके लिए भी यही हुक्म है!
1648  - अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुनाह की अज़ान के नज़दीक हैज़ या निफास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल या तय्मुम किसी के किये भी वक़्त बाकी न हो तो उस का रोज़ा सही है!
1649 - अगर कोई औरत सुबह की अज़ान के बाद हैज़ य निफास के खून से पाक हो जाए या दिन में उसे हैज़ या निफास का खून आ जाए तो अगरचे यह  खून मगरिब के क़रीब ही क्यों न आये, उसका रोज़ा बातिल है!
1650 - अगर औरत हैज़ या निफास का ग़ुस्ल करना भूल जाए और उसे एक या कई दिन के बाद याद आये तो जो रोज़े उसने रखे हैं वोह सही हैं!
* 1651 - अगर औरत माहे रमज़ानुल मुबारक में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफास से पाक हो जाए और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तय्मुम भी ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है, लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुन्तजिर हो की ज़नाना हम्माम मुयस्सर आ जाए ख्वाह उस मुद्द्त में वह तीन दफः सोये और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तय्मुम करने में भी कोताही न करे तो उसका रोज़ा सही है!
* 1652 - जो औरत इस्तिहाज़ाये कसीरः की हालत में हो अगर वह अपने गूसलों को उस तफसील के साथ न बजा लाये जिसका ज़िक्र मसअला 402 में किया गया है तो उसका रोज़ा सही है! ऐसे ही इस्तिहाज़ाये मुत्तवाससित में अगरचे औरत ग़ुस्ल भी न करे, उसका रोज़ा सही है!
1653 - जिस शख्स ने मैय्यत को मस किया है यानी अपने बदन का कोई हिस्सा मैय्यत के बदन से छुआ हो वह गुसले मैय्यत के बगैर रोज़ा रख़ सकता है और अगर रोज़े की हालत में भी मैय्यत को मस करे तो उस का रोज़ा बातिल नहीं होता है!
(8) हुक्ना लेना
1654  - सैय्याल चीज़ से हुकना (एनिमा) अगरचे ब अमरे मजबूरी और इलाज की गरज से लिया जाए, रोज़े को बातिल कर देता है!

(9 ) कै करना
1655 - अगर रोज़ादार जान बूझ कर कै करे तो अगरचे वह बिमारी की वजह से ऐसा करने पर मजबूर हो तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन अगर सहवन या बे इख्तियार हो कर कै करे तो कोई हर्ज नहीं है!
* 1656 - अगर कोई शख्स रात को ऐसी चीज़ ख़ा ले जिसके बारे में मालूम हो की उस के खाने की वजह से दिन में बे इख्तियार कै आयेगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है की उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे!
* 1657 -  अगर रोज़ादार कै कर सकता हो और ऐसा करना उस के लिए मुज़ीर और तकलीफ का बाइस न हो तो बेहतर यह है  की कै को रोके!
* 1658 - अगर रोज़ादार के हलक़ में मकखी चली जाए य चुनांचे वह इस हद तक अंदर चली गयी हो की उसके नीचे ले जाने को निगलना न कहा जाए तो ज़रूरी नहीं की उसे बाहर निकाला जाए और उसका रोज़ा सही है लेकिन अगर मकखी काफी हद तक अंदर न गयी हो तो ज़रूरी है की बाहर निकाले अगरचे उसको कै करके ही निकालना पड़े मगर यह है की कै करने में रोजादार को ज़रूर और तकलीफ न हो और अगर वह कै न करे और उसे निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा!
1659 - अगर रोज़ादार सहवन कोई चीज़ निगल ले और उसके पेट में पहुँचने से पहले उसे याद आ जाए की रोज़े से है तो उस चीज़ का निकालना लाजिमी नहीं और उसका रोज़ा सही है!
1660 - अगर किसी रोज़ादार को यक़ीन हो की डकार लेने की वजह से कोई चीज़ उसके हलक़ से बाहर आ जायेगी तो एहतियात की बिना पर उसे जान बूझ कर डकार नहीं लेनी चाहिए, लेकिन उसे यक़ीन न हो तो कोई हर्ज नहीं!
1661 - अगर रोज़ादार डकार ले और कोई चीज़ उसके मुंह या हलक़ में आ जाए तो ज़रूरी है की उसे उगल दे और अगर वह चीज़ बे इख्तियार पेट में चली जाए तो उसका रोज़ा सही है!
3. उन चीज़ों के अहकाम जो रोज़े को बातिल करती हैं |
* 1662 - अगर इंसान जान बूझ कर और इख्तियार के साथ कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है और अगर कोई ऐसा काम जान बूझ कर न करे तो फिर इश्काल नहीं लेकिन अगर जुनुब सो जाए और उस तफसील के मुताबिक जो मसअला 1639  में ब्यान की गयी है सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल ना करे तो उसका रोज़ा बातिल है! चुनांचे अगर इंसान न जानता हो के जो बातें बताईं गयीं हैं उनमे से बाज़ रोज़े को बातिल करती हैं यानी जाहिल क़ासिर हो और इनकार भी न करता हो ( ब अल्फाज़े दीगर मुक़स्सिर "न" हो) या यह के शरई हुज्जत पर एतेमाद रखता हो और खाने पीने और जिमाअ के इलावा उन अफआल में से किसी फेल को अंजाम दे तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होगा!
* 1663 - अगर रोज़ेदार सहवन कोई ऐसा कम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और इस गुमान से की उस का रोज़ा बातिल हो गया है दुबारा अमदन कोई ऐसा ही काम करे तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है!
* 1664 - अगर कोई चीज़ ज़बरदस्ती रोज़ादार के हलक़ में उँडेल दी जाए तो उसका रोज़ा बातिल नहीं होता लेकिन अगर उसे मजबूर किया जाए मसलन उसे कहा जाए की अगर तुम गिज़ा नहीं खाओगे तो हम तुम्हे माली या जानी नुकसान पहुंचाएंगे और वह नुकसान से बचने के लिए अपने आप कुछ ख़ा ले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाएगा!
* 1665 - रोज़ादार को ऐसी जगह नहीं जाना चाहिए जिसके बारे में वह जानता हो की लोग कोई चीज़ उसके हलक़ में डाल देंगे या उसे रोज़ा तोड़ने पर मजबूर  करेंगे और अगर ऐसी जगह जाए या ब अमरे-मजबूरी वह खुद कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है और अगर कोई चीज़ उसके हलक़ में उँडेल दी जाए तो एहतियाते लाजिम की बिना पर यही हुक्म है!
4. वो चीज़ें जो रोज़दारों के लिए मकरूह हैं
* 1666 - रोजादारों के लिए कुछ चीज़ें मकरूह हैं और उनमें से बाज़ यह हैं :
(1)  आँख में दवा डालना और सुरमा लगाना जबकि उस का मज़ा या बू हलक़ में पहुंचे
(2) हर ऐसा काम जो कमजोरी का बाइस हो मसलन फसद खुलवाना और हम्माम जाना
(3)  (नाक से) नास खींचना बशर्ते की यह इल्म न हो की हलक़ तक पहुंचेगी और अगर यह इल्म हो की हलक़ तक पहुंचेगी तो उस का इस्तेमाल जाइज़ नहीं है!
(4) खुशबूदार घास (और जडी बूटियाँ) सूंघना!
(5) औरत का पानी में बैठना
(6) शैय्याफ़ इस्तेमाल करना यानी किसी खुश्क चीज़ से एनीमा लेना!
(7) जो लिबास पहन रखा हो उसे तर करना
(8) दांत निकलवाना और वह काम करना जिसकी वजह से मुंह से खून निकले!
(9) तर लकड़ी से मिस्वाक करना!
(10) बिना वजह पानी या कोई और सय्याल चीज़ मुंह में डालना
और यह भी मकरूह है मनी निकालने के क़स्द के बगैर इंसान अपनी बीवी का बोसा ले या कोई शहवत अंगेज़ काम करे और अगर ऐसा करना मनी निकालने के क़स्द से हो और मनी न निकले तो एहतियाते लाजिम की बिना पर रोज़ा बातिल हो जाता है!
5. ऐसे मौक़े जिनमे रोज़ा की क़ज़ा और कफ्फ़ारा वाजिब हो जाते हैं
* 1667 - अगर   कोई शख्स माहे रमज़ान के रोज़े को  खाने, पीने या हमबिस्तरी या इस्तिमना या जनाबत पर बाकी रहने की वजह से बातिल करे जबकि जब्र और नाचारी की बिना पर नहीं बल्कि अमदन और इख्तियारन  ऐसा किया हो तो उस पर क़ज़ा के इलावा कफ्फारा भी वाजिब होगा और जो कोई मुज़क्किरा उमूर के इलावा किसी और तरीके से रोज़ा बातिल करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है की वह क़ज़ा के इलावा कफ्फारा भी दे!
* 1668 - जिन उमूर का ज़िक्र किया गया है अगर उन में से किसी फेल को अंजाम दे जबकि उसे पुख्ता यक़ीन हो की उस अमल से उस का रोज़ा बातिल नहीं होगा तो उस पर कफ्फारा वाजिब नहीं है!
6. रोज़े का कफ्फ़ारा
* 1669 - माहे रमज़ान का रोज़ा तोड़ने के कफ्फारे के तौर पर ज़रूरी है की इंसान एक गुलाम आज़ाद करे या उन अहकाम के मुताबिक जो आइन्दा मसअले में ब्यान किये जायेंगे दो महीने रोज़े रखे या साथ फकीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या हर फ़क़ीर को एक मुद तकरीबन 3/4 किलो तआम यानी गंदुम या जौ या रोटी वगैरा दे और अगर यह अफआल अंजाम देना उसके लिए मुमकिन  न हो तो ब-क़द्रे इमकान सदक़ा देना ज़रूरी है और अगर यह मुमकिन न हो तो तौबा व इस्तिग्फार करे और एहतियाते वाजिब यह है की जिस वक़्त (कफ्फ़ारा देने के काब्बिल हो जाए कफ्फ़ारा दे!
   1670 - जो शख्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ्फारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे तो ज़रूरी है की एक पूरा महीना और उस से अगले महीने के एक दिन तक मुसलसल रोज़े रखे और अगर बाक़ी मांदा रोज़े मुसलसल न भी रखे तो कोई इश्काल नहीं!
* 1671 - जो शख्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ्फारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे ज़रूरी है की वह रोज़े ऐसे वक़्त न रखे जिसके बारे में वह जानता हो की एक महीने और एक दिन के दरमियान ईद कुर्बान की तरह कोई ऐसा दिन आ जाएगा जिसका रोज़ा रखना हराम है!
   1672 - जिस शख्स को मुसलसल रोज़े रखना ज़रूरी है अगर वह उनके बीच में बगैर उज़्र के एक दिन रोज़ा न रखे तो ज़रूरी है की दुबारा अज़ सरे नौ  रोज़े रखे!
* 1673  - अगर उन दिनों के दरमियान जिन में मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी हैं रोज़ादार को कोई गैर इक्ख्तियारी उज़्र पेश आ जाए मसलन हैज़ या निफास य ऐसा सफ़र जिसे इख्तियार  करने पर  वह मजबूर हो तो उज़्र के दूर होने के बाद बाक़ी मांदा रोज़े रखे!
* 1674 - अगर कोई शख्स हराम चीज़ से अपना रोज़ा बातिल कर दे ख्वाह वह चीज़ बज़ाते खुद हराम हो जैसे शराब और जीना या किसी वजह से हराम हो जाए जैसे की हलाल गिज़ा जिस का खाना इंसान के लिए बिल उमूम मुज़ीर हो या वह अपनी बीवी से हालते  हैज़ में  मुजामिअत करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है की मज्मुँ कफ्फारा दे! यानी उसे चाहिए की एक गुलाम आज़ाद करे और दो महीने रोज़े रखे और साथ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या उनमे से हर फ़क़ीर को एक मुद गंदुम या जौ की रोटी वगैरा दे और अगर यह तीनों चीज़ें उसके लिए मुमकिन न हो तो उनमे से जो कफ्फारा मुमकिन हो, दे!
* 1675 - अगर रोज़ादार जान बूझ कर अल्लाह तआल़ा य नबिय अकरम स्वलल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम से कोई झूटी बात मंसूब करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है की मजमुअन कफ्फारा वाजिब है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह  है की हर दफआ के लिए एक-एक कफ्फारा दे!

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7. वह सूरतें जिन में फ़क़त रोज़े की क़ज़ा वाजिब है



8. क़ज़ा रोज़े के अहकाम


9. मुसाफिर के रोज़ों के अहकाम


10. वह लोग जिन पर रोज़ा रखना वाजिब नहीं


11. महीने की पहली तारीख साबित होने का तरीक़ा



12. हराम और मकरूह रोज़े

13. मुस्तहब रोज़े

14. वह सूरतें जिनमे मुब्त्लाते रोज़ा से परहेज़ मुस्तहब है

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  1. bhtrin nayi or zruri jaankari ke liyen shukriya bhaai jaan .akhtar khan akela kota rajsthan

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