और अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली की शहादत के 1400 साल पूरे हो गए |
मुसलमानो के खलीफा हज़रत अली इब्ने अभी तालिब को मस्जिद ऐ कूफ़ा में सुबह की नमाज़ में एक ज़ालिम इब्ने मुल्जिम से उस वक़्त शहीद किया जब हज़रत...


यह अली अबितलिब ही थे की जब लोगों ने इब्ने मुल्जिम को पकड़ लिया और रस्सियों से बाँधा तो इब्ने मुल्जिम की कराह सुन के मौला ने कहा इसकी रस्सियां ढीली कर दो इसे तकलीफ हो रही है | हज़रत अली इब्ने अबितलिब के इल्म का कोई मुक़ाबला नहीं था | अदालत ,सदाक़त ,सब्र के साथ साथ उनकी दी हुयी हिदायतें आज तक मुसलमानो के लिए मिसाल बनी हुयी है |
हर मुसलमान पे अली की विलायत का इक़रार फ़र्ज़ है जिसका मतलब होता है उनकी पैरवी करो उन्ही हिदायतों नसीहतों और हुक्म को मानो | यह अली ने ही तो बताया है ना की दनिया का हर इंसान तुम्हारा किसी न किसी रिश्ते से भाई है चाहे वो धर्म भाई हो या इंसानियत के रिश्ते से भाई हो | यह अली ने ही तो सिखाया है की भूखे प्यासे से उसका धर्म नहीं पूछा जाता पहले उसकी भूख मिटाओ |
ऐसी ना जाने कितनी मिसालें उनके जीवन से दी जा सकती है जो मेरा इस वक़्त विषय नहीं है | यह अली की ही ज़ात है की दुनिया का कर मुसलमान उनकी इज़्ज़त करता है और उनकी याद दिलों में बसाय रहता है | आज १४०० सालो से १९ से २१ रमज़ान उनको चाहने वाले उनकी शहादत को लोगों को बता के आंसू बहाते हैं और केवल इतना ही नहीं अली के दर से मुरादें पूरी होती है मुश्किलें दूर होती है |
अहम् सवाल यह है की हमारे दिलों में अली की याद हरदम रहती है उनके दर से मुरादें पूरी होंगी यह यक़ीन हर चाहने वाले को है लेकिन क्या अली का पैगाम फ़क़त इतना था की उनकी याद में आंसू कहा लो और मुरादें पूरी करवा लो ?
क्या उनकी पैरवी करना उनकी हिदायतों पे चलना हमारे लिए ज़रूरी नहीं ? यक़ीनन अली की सारी क़ुर्बानियां इसी लिए थी की हम सब को एक ऐसा ज़िन्दगी जीने का सलीक़ा सीखा जाएं जिसमे दनिया में भी कामयाबी हासिल होती हो और आख़िरत में भी लेकिन हमने अली की याद को चद आंसुओं और मुरादें मांगने में ही महदूद कर दिया और असल मक़सद भूल गए |
आज १४०० साल शहादत के पूरा होने पे हमें इस बात पे गौर औ फ़िक्र करने की ज़रुरत है की हम कहाँ तक अपनी ज़िम्मेदारियाँ निभा सके हैं और अली (अ .स) के मक़सद को पूरा कर सके हैं |
