नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा 52-53-54-55-56-57-58

ख़ुत्बा-52 दुनिया अपना दामन समेट रही है और उस ने अपने रुख़ूसत होने (प्रस्थान) का एलान कर दिया है। उस की जानी पहचानी हुई चीज़ें अजनबी हो गई, ...

ख़ुत्बा-52

दुनिया अपना दामन समेट रही है और उस ने अपने रुख़ूसत होने (प्रस्थान) का एलान कर दिया है। उस की जानी पहचानी हुई चीज़ें अजनबी हो गई, और वह तेज़ी के साथ पीछे हट रही है और अपने रहने वालों को फ़ना (विनाश) की तरफ़ बढ़ा रही है। और अपने पड़ोस में बसने वालों को मौत की तरफ़ ढकेल रही है। उसके शीरीं (मीठे स्वाद) तल्ख (कड़वे) और साफ़ो शफ्फ़ाफ़ लम्हे (क्षण) मुकद्दर (गंदे) हो गए हैं। दुनिया से सिर्फ़ इतना बाक़ी रह गया है जितना बर्तन में थोड़ा सा बचाया पानी, या नपा तुला हुआ जुरअए आब (पानी का घूंट) कि प्यास अगर उसे पिये तो उस की प्यास न बुझे। ख़ुदा के बन्दो ! इस दारे दुनिया से कि जिस के रहने वालों के लिये ज़वाल (पतन) अमरे मुसल्लम (निशचित बात) है, निकलने का तहैया (निर्णय) करो। कहीं ऐसा न हो कि आर्ज़ूएं (आक्षाएं) तुम पर ग़ालिब आ जायं, और इस (चन्द रोज़ा ज़िन्दगी) की मुद्दत (अवधि) दराज़ (लम्बी) समझ बैठो। ख़ुदा की क़सम ! अगर तुम उंटनियों की तरफ़ फ़र्याद करो, जो अपने बच्चों को खो चुकी हों, और उन कबूतरों की तरह नालओ फ़ुग़ां करो (जो अपने साथियों से अलग हो गए हों), और उन गोशा नशीन राहिबों (सन्यासियों) की तरह चीख़ो चिल्लाओ जो घर बार छोड़ चुके हों। माल और औलाद से भी अपना हाथ उठा लो, इस ग़रज़ (उद्देश्य) से कि तुम्हें बारगाहे इलाही में तक़र्रुब हासिल (निकटता प्राप्त) हो। दरजे (श्रेणी) की बलन्दी (उच्चता) के साथ उस के यहां या उन गुनोहों (पापों) के मुआफ़ (क्षमा) होने के साथ जो नामए अमाल (चरित्र पंजिका) में दर्ज (उल्लिखित) और करामन कातिबीन (कर्म लिखने वाले फ़रिश्तों) को याद हैं। तो वह तमाम बेताबी (व्याकुलता) और नालओ फ़र्याद, उस सवाब (पुण्य) क् लिहाज़ से है, जिस का मैं तुम्हारे लिये उम्मीदवार हूं, और उस इक़ाब (दण्ड) के एतिबार से जिस का मुझे तुम्हारे लिये ख़ौफ़ व अन्देशा (भय एंव आशंका) है, बहुत ही कम होगी। ख़ुदा की क़सम ! अगर तुम्हारे दिल बिलकुल पिघल जांय, और तुम्हारी आंखें उम्मीदो बाम (आशा व निराशा) से ख़ून बहाने लगें और फिर रहती दुनिया तक (किसी हालत में ) जीते भी रहो, तो भी तुम्हारे आमाल (कर्म) अगरचे तुम ने कोई कसर न उठा रखी हो, उस की नेमाते अज़ीम की बखूशिश (उसके पुरस्कारों के महान दान) और ईमान की तरफ़ राहनुमाई (नेतृत्व) का बदला नहीं उतार सकते।

ख़ुत्बा-53

[ इसमें ईदे क़ुर्बान और उन सिफ़तों (गुणों) का ज़िक्र किया है जो गोस्फ़न्दे क़ुर्बानी (क़ुर्बानी के जानवर) में होना चाहियें। ]

क़ुर्बानी के जानवर का मुकम्मल (पूर्ण) होना यह है कि उसके कान उठे हुए हों (कटे हुए न हों) और उस की आंखें सहीह व सालिम हों। अगर कान और आंखें सालिम हैं तो क़ुर्बानी भी हर तरह से मुकम्मल है, अगरचे उस के सींग टूटे हुए हों और ज़ब्ह की जगह तक अपने पैर घसीट कर पहुंचे।

ख़ुत्बा-54

वह इस तरह बेतहाशा (तीव्र गति से) मेंरी तरफ़ लप्के जिस तरह पानी पीने के दिन वह ऊँट एक दूसरे पर टूटते हैं कि जिन्हें उन के सारबान ने पैरों के बंधन खोल कर छोड़ दिया हो। यहां तक मुझे यह गुमान होने लगा कि या तो मुझे मार डालेंगे या मेरे सामने इन में से कोई किसी का खून कर देगा। मैंने इस अम्र (प्रकरण) को अन्दर बाहर से उलट पलट कर देखा, तो मुझे जंग के अलावा कोई सूरत नज़र न आई। या यह कि मैं मोहम्मद (स.) के लाए हुए अहकाम से इन्कार कर दूं। लेकिन आख़िरत की सख्तियां झेलने से मुझे जंग की सख्तियां झेलना सहल नज़र आया, और आख़िरत की तबाहियों से दुनिया की हलाकतें मेरे लिये आसान नज़र आईं।

ख़ुत्बा-55

[ सिफ्फ़ीन में हज़रत के असहाब (साथियों ने) जब इज़्ने जिहाद (युद्धाज्ञा) देने में ताख़ीर (विलम्ब) पर बेचैनी (व्याकुलता) का इज़हार (प्रदर्शन) किया, तो आप ने फ़रमाया ]

तुम लोगों का यह कहना, यह पसो पेश (आगे पीछे देखना) क्या इस लिये है कि मैं मौत को ना खुश (अप्रिय) जानता हूं और उस से भागता हूं तो ख़ुदा की क़सम ! मुझे ज़रा भी पर्वा नहीं कि मैं मौत की तरफ़ बढूं या मौत मेरी तरफ़ बढ़े। और इसी तरह तुम लोगों का यह कहना कि मुझे अहले शाम से जिहाद करने के जवाज़ (औचित्य) में कुछ शुब्दा (सन्देह) है, तो खुदा की क़सम ! मैं ने जंग को एक दिन के लिये भी इलतवा (स्थगन) में नहीं डाला, मगर इस ख़याल से कि उन में शायद कोई गुरोह मुझ से आकर मिल जाए, और मेरी वजह से हिदायत पा जाए और अपनी चुंधयाई हुई आंखों से मेरी रौशनी को भी देख ले, और मुझे यह चीज़ गुमराही (पथभ्रष्टता) की हालत में उन्हें क़त्ल कर देने से कहीं ज़ियादा पसन्द है। अगरचे अपने गुनाहों (पापों) के ज़िम्मेदार बहरहाल (प्रत्येक दशा) यह ख़ुद होंगे।

ख़ुत्बा-56

हम (मुसलमान) रसूलुल्लाह (स.) के साथ हो कर अपने बाप, बेटों, भाइयों और चचाओं को क़त्ल करते थे, इस से हमारा ईमान बढ़ता था। इताअत (अनुकरण) और राहे हक़ की पैरवी में इज़ाफ़ा (बुद्धि) होता था और कर्ब व अलम (दुख व कष्ट) की सोज़िशों (जलन) पर सब्र (धैर्य) में ज़ियादती (बढ़ौतरी) होती थी और दुश्मनों से जिहाद (युद्ध) करने की कोशिशें (प्रयास) बढ़ जाती थीं। जिहाद की सूरत यह थी कि हम में का एक शख़्स और फ़ौजे दुश्मन का कोई सिपाही दोनों मर्दों की तरह आपस में भिड़ते थे और जान लेने के लिये एक दूसरे पर झपटते थे, कि कौन अपने हरीफ़ (प्रतिद्वन्द्वी) को मौत का प्याला पिलाता है। कभी हमारी जीत होती थी और कभी हमारे दुश्मन की। चुनांचे जब खुदा वन्दे आलम ने हमारी (नीयतों) की सच्चाई देख ली तो उस ने हमारे दुश्मनों को रुसवा व ज़लील (निन्दित एंव अपमानित) किया। और हमारी नुसरत व ताईद (साहयाता एंव समर्थन) फ़रमाई, यहां तक की इसलाम अपना सीना टेक कर अपनी जगह जम गया और अपनी मंज़िल पर बरक़रार (स्थाई) हो गया। ख़ुदा की क़सम ! अगर हम भी तुम्हारी तरह करते तो न कभी दीन (धर्म) का सुतून (स्तम्भ) गड़ता और न ईमान का तना (वृक्ष) बर्ग व बार (फूल पत्ती) लाता। ख़ुदा की क़सम ! तुम अपने किये के बदले में दूध के बजाय खून दुहोगे और आख़िर तुम्हें निदामत व शर्मिन्दगी (खेद व लज्जा) उठाना पड़ेगी।

जब मोहम्मद इब्ने अबी बक्र शहीद कर दिये गए तो मुआविया ने अब्दुल्लाह इब्ने आमिरे हज़रमी को बसरे की तरफ़ भेजा ताकि अहले बसरा (बसरा वासियों) को फिर से क़त्ले उसमान के इन्तिक़ाम (बदले) के लिये आमादा करे। चूंकि बेशतर (अधिकांश) अहले बसरा (बसरा निवासी) और खुसूसन बनी तमीम का तबई रुजहान (स्वाभाविक प्रवृत्ति) हज़रत उसमान की तरफ़ था। चुनांचे वह बनी तमीम ही के यहां आ कर फ़रोकश हुआ (पधारा) यह ज़माना (समय) वह था कि वालिये बसरा अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास ज़ियाद इब्ने उबैद को क़ाइम मक़ाम (प्रतिनिधी) बनाकर मोहम्मद इब्ने अबी बक्र की तअज़ियत (शोक प्रकट करने) के लिये कूफ़ा गए हुए थे।

जब बसरा की फ़ज़ा (वातावरण) बिगड़ने लगी तो ज़ियाद ने अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) को तमाम वाक़िआत (घटनाओं) की इत्तिला (सूचना) दी। हज़रत ने कूफ़े के बनी तमीम को बसरा के लिये आमादा करना चाहा। मगर उन्होंने चुप साध ली और कोई जवाब न दिया। अमीरुल मोमिनीन ने जब उन की इस कमज़ोरी व बे हमीयती (बे हयाई) को देखा, तो यह ख़ुत्बा इर्शाद फ़रमाया कि हम तो पैग़म्बर (स.) के ज़माने में यह नहीं देखते थे कि हमारे हाथों से क़त्ल होने वाले हमारे ही भाई और क़रीबी अज़ीज़ होते हैं बल्कि जो हक़ से टकराता था हम उस से टकराने को तैयार हो जाते थे और अगर हम भी तुम्हारी तरह ग़फ़लत व बे अमली की राह पर चलते तो न दीन की बुनियादें मज़्बूत होतीं और न इस्लाम पर्वान चढ़ता। चुनांचे इस झिंझोड़ने का नतीजा यह हुआ कि अअयुन इब्ने सबीअह तैयार हुए, मगर वह बसरे पहुंच कर दुश्मन की तलवारों से शहीद हो गए। फिर हज़रत ने जारिया इब्ने क़दामा को बनी तमीम के पचास अफ़राद के साथ रवाना किया। उन्होंने अपने क़ौम क़बीले को समझाने बुझाने की सर तोड़ कोशिशें कीं मगर वह राहे रास्त पर आने के बजाय गालम गलौज और दस्त दराज़ी (हाथा पाई) पर उतर आए तो जारिया ने ज़ियाद इब्ने अज़्द को अपनी मदद के लिये पुकारा। उन के पहुंचते ही इब्ने हज़रमी अपनी जमाअत को लेकर निकल आया। दोनों तरफ़ से कुछ देर तक तलवारें चलती रहीं। आख़िर इब्ने हज़रमी सत्तर आदमियों के साथ भाग खड़ा हुआ और सबीले सअदी के घर में पनाह ली। जारिया को जब कोई चारा नज़र न आया तो उन्हों ने उस के घर में आग लगवा दी। जब आग के शोले बलन्द हुए तो वह सरासीमा हो कर बचने के लिये हाथ पैर मारने लगे मगर फ़रार में कामयाब न हो सके। कुछ दीवार के नीचे दब कर मर गए कुछ क़त्ल कर दिये गए।

ख़ुत्बा-57

[ अपने अस्हाब (साथियों) से फ़रमाया ]

मेरे बाद जल्द ही तुम पर एक ऐसा शख़्स (व्यक्ति) मुसल्लत होगा (आधिपत्य जमायेगा) जिस का हल्क़ कुशादा (कंठ विशाल) और पेट बड़ा होगा, जो पायेगा निगल जायेगा और जो न पायेगा उस की उसे खोज लगी रहेगी। (अच्छा तो यह होगा कि) तुम उसे क़त्ल कर डालना। लेकिन यह मअलूम है कि तुम उसे हरगिज़ (कदापि) क़त्ल न करोगे। वह तुम्हें हुक्म देगा कि मुझे बुरा कहो और मुझ से बेज़ारी का इज़हार (घृणा का प्रदर्शन) करो। जहां तक बुरा कहने का तअल्लुक़ (सम्बंध) है, मुझे बुरा कह लेना, इस लिये कि मेरे लिये पाक़ीज़गी (पवित्रता) का सबब (कारण) और तुम्हारे लिये (दुश्मनों से) निजात (मुक्ति) का बाइस (साधन) है। लेकिन (दिल से) बेज़ारी (घृणा) इख़तियार (ग्रहण) न करना इस लिये कि मैं दिने फ़ितरत (स्वाभाविक धर्म) पर पैदा हुआ हूं और ईमान व हिजरत (प्रस्थान) में साबिक़ (प्रथन) हूं।

इस ख़ुत्बे में जिस शख़्स (व्यक्ति) की तरफ़ अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) ने इशारा (संकेत) किया है उस के बअज़ (कुछ) ने ज़ियाद इब्ने अबीह बअज़ ने हज्जाज इब्ने यूसुफ़ और बअज़ ने मुग़ीरा इब्ने शअबा को मुराद लिया है। लेकिन असर शारेहीन (अधिकांश टीकाकारों) ने इस से मुआविया मुराद (अभिप्राय) लिया है, और यही सहीह है क्योंकि जो औसाफ़ (विशेषताएं) हज़रत ने बयान फरमाई हैं वह उसी पर पूरे तौर पर (पूर्ण रूप से) सादिक़ (सत्य) आते हैं। चुनांचे इब्ने अबिल हदीद ने मुआविया की ज़ियादा ख़ोरी (अधिक खोराक़) के मुतअल्लिक़ (बारे में) लिखा है कि पैग़म्बर (स.) ने एक दफ़आ (बार) उसे बुलवा भेजा तो मअलूम हुआ कि वह खाना खा रहा है। फिर दोबारा सेहबारा (तीसरी बार) आदमी भेजा तो यही ख़बर लाया। जिस पर आं हज़रत ने फ़रमाया '' अल्लाह हुम्मा ला तशबे बत्नेह '' (खुदाया उस के पेट को कभी न भरना) इस बद दुआ (श्राप) का असर (प्रभाव) यह हुआ कि जब खाते खाते उक्ता जाता था तो कहने लगता था कि दस्तर ख़्वान बढ़ाओ ! ख़ुदा की क़सम मैं तो खाते खाते आजिज़ आ गया हूं मगर पेट है कि भरने में ही नहीं आता। यूं ही अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) पर सब्बो शत्म (गालम गलौज) करना और अपने आमिलों (कर्मचारियों) को इस का हुक्म देना तारीखी मुसल्लिमात (ऐतिहासिक सत्य) में से है कि जिस से इन्कार की कोई गुंजाइश नहीं और मिंबर पर ऐस अलफ़ाज़ (शब्द) कहे जाते थे कि जिन की ज़द ( परिधि) में अल्लाह और रसूल (स.) भी आ जाते थे। चुनांचे उम्मुल मोमिनीन उम्मे सलमा ने मुआविया को लिखा, '' तुम अपने मिंबरों पर अल्लाह और उसके रसूल पर लअनत करते हो। वह यूं कि तुम अली इब्ने अबी तालिब (अ.स.) और उन्हें दोस्त रखने वालों पर लअनत करते हो, और मैं गवाही देता हूं कि अली (अ.स.) को अल्लाह भी दोस्त रखता था और उस का रसूल (स.) भी। (इक़दुल फ़रीद जिल्द 3 सफ़्हा 131)

ख़ुदा अमर इब्ने अब्दुल अज़ीज़ का भला करे जिस ने उसे बन्द कर दिया, और ख़ुत्बों में सब्बो शत्म की जगह उस आयत को रिवाज दिया :--

'' अल्लाह तुम्हें इन्साफ़ (न्याय) और हुस्ने सुलूक (सदव्यवहार) का हुक्म देता है और लगूव (वयर्थ) बातों बुराईयों और सितमकारियों (अत्याचारों) से रोकता है। अल्लाह इस से तुम्हें नसीहत (उपदेश) करता है कि शायद तुम सोच विचार से काम लो। ''

हज़रत ने इस कलाम में उस के क़त्ल का हुक्म इस बिना (आधार) पर दिया है कि पैग़म्बरे इसलाम (स.) का इर्शाद है :--

'' जब मुआविया को मेरे मिंबर पर देखो तो उसे क़त्ल कर दो। ''

ख़ुत्बा-58

[ ख़वारिज को मुख़ातिब फ़रमाते हुआ आप के कलाम का एक हिस्सा ]

तुम पर सख़त आंधियां आएं और तुम में कोई इस्लाह (सुधार) करने वाला बाक़ी न रहे। क्या मैं अल्लाह पर ईमान लाने और रसूल अल्लाह (स.) के साथ जिहाद करने के बाद अपने ऊपर कुफ़्र (अधर्म) का गवाही दे सकता हूं ? फिर तो मैं गुमराह (पथभ्रष्ट) हो गया, और हिदायत याफ़्ता (दीक्षित) लोगों में से न रहा। तुम अपने (पिछले) बदतरीन ठिकानों की तरफ़ पलट जाओ। याद रखो कि तुम्हें मेरे बाद छा जाने वाली ज़िल्लत (अपमान) और काटने वाली तलवार से दो चार होना है और ज़ालिमों (अत्याचारियों) के उस वतीरे (आचरण) से साबिक़ा (पाला) पड़ना है कि वह तुम्हें महरूम (वंचित) कर के हर चीज़ अपने लिये मख्सूस (विशिष्ट) कर लें।

इतिहास साक्षी (तारीख शाहिद) है कि अमिरुल मोमिनीन (अ.स.) के बाद ख़्वारिज को हर तरह की ज़िल्लतों (अपमानों) और ख़्वारियों (निरादृतियों) से दो चार होना पड़ा, और जब भी उन्हों ने फ़ित्ना अंगेज़ी (आतंकवाद) के लिये सर उठाया, तो तलवारों और नेज़ों पर घर लिये गए। चुनांचे ज़ियाद इब्ने अबीह, उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद, मस्अब इब्ने ज़ुबैर, हज्जाज इब्ने यूसुफ़, और मोहलब इब्ने अबी सुफ़्रा ने उन्हें सफ़्हए हस्ती से नाबूद (उनका सर्वनाश) करने में कोई कसर उठा नहीं रखी। खुसूसन (विशेषतया) मोहल्लब ने उन्नीस वर्ष तक उन का मुक़ाबला कर के उन के सारे दम खम निकाल दिये और उन की तबाही व बर्बादी को तकमील तक पहुंचा कर ही दम लिया।

तबरी ने लिखा है कि मक़ामे सिल्ली सलबरी में जब दस हज़ार खवारिज जंगो क़िताल (युद्ध एंव बध) के लिये सिमट कर जमअ हो गए तो मोहल्लब ने इस तरह डटकर मुक़ाबिला किया कि सात हज़ार खारजियों को तहे तेग़ कर दिया और बक़ीया तीन हज़ार किरमान भाग कर जान बचा सके। लेकिन वालिये फ़ार्स उबैदुल्लाह इब्ने अमर ने जब उन की शोरिश अंगेज़ियां (आतंक) देखीं तो मक़ामे साबूर में उन्हें घेर लिया और उन में काफ़ी तअदाद (अधिक संख्या) वहीं पर खत्म (समाप्त) कर दी और जो बचे कुचे रह गए वह फिर इसफ़हान व किरमान की तरफ़ भाग खड़े हुए और वहां से फिर जत्था बना कर बसरा की राह से कूफ़े की तरफ़ बढ़े। तो हारिस इब्ने अबी रबीअह और अब्दुर्रहमान इब्ने मख़्नफ़ छह हज़ार जंग आज़माओं (युद्धानुभवियों) को ले कर उन का रास्ता रोकने के लिये खड़े हो गए और इराक़ की सरहद (सीमा) से उन्हें निकाल बाहर किया। यूं ही ताबड़ तोड़ हमलों (आक्रमणों) ने उन की अस्करी क़ुव्वतों (सैन्य शक्तियों) को पामाल (कुचल) कर के रख दिया और आबादियों से निकाल कर सहराओं और जंगलों में खाक छानने पर मजबूर कर दिया और बाद में भी जब कभी जत्था बना कर उठे तो कुचल कर रख दिये गए।

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