नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा 44-45-46-47-48-49-50-51

ख़ुत्बा-44 [ जब मुस्क़ला का इब्ने हुबैरए शैबानी मुआविया के पास भाग गया चूंकि उस ने हज़रत के एक आमिल (कार्यकर्ता) से बनी नाजिया के कुछ असीर (...

ख़ुत्बा-44

[ जब मुस्क़ला का इब्ने हुबैरए शैबानी मुआविया के पास भाग गया चूंकि उस ने हज़रत के एक आमिल (कार्यकर्ता) से बनी नाजिया के कुछ असीर (क़ैदी) ख़रीदे थे, जब अमीरुल मोमिनीन ने उस से क़ीमत का मुतालबा किया तो वह बद दियानती करते हुए शाम चला गया जिस पर आप ने फ़रमाया ]

ख़ुदा मुस्क़ला का बुरा करे, काम तो उस ने शरीफ़ों का किया, लेकिन ग़ुलामों की तरह भाग निकला। उस ने मद्ह (प्रशंसा) करने वालों का मुंह बोलने से पहले ही बन्द कर दिया और तौसीफ़ (तारीफ़) करने वाले के क़ौल के मुताबिक (कथनानुसार) अपना अमल पेश करने से पहले ही उसे खामोश कर दिया। अगर वह ठहरा रहता तो हम उस से उतना ही लेते जितना उस के लिये मुम्किन (सम्भव) होता और बक़ीया (शेष) के लिये उस के माल के ज़ियादा होने का इन्तिज़ार करते।

तहकीम के बाद जब ख़वारिज ने सर उठाया, तो उन में से बनी नाजिया का एक शख़्स खिर्रीत इब्ने राशिद लोगों को भड़काने के लिये उठ खड़ा हुआ, और एक जत्थे के साथ मार धाड़ करता हुआ मदायन की तरफ़ चल पड़ा।

अमीरुल मोमिनीन ने उस की रोक थाम के लिए ज़ियाद इब्ने हफ़्सा को एक सौ तीन आदमियों के साथ रवाना किया। चुनांचे जब मदायन में दोनों का फ़रीक़ का आमना सामना हुआ, तो तलवारें ले कर एक दूसरे पर टूट पड़े। अभी एक आध झड़प ही होने पाई थी कि शाम का अंधेरा फैलने लगा और जंग रोक देना पड़ी। जब सुब्ह हुई तो ज़ियाद के साथियों ने देखा कि ख्वारिज के पांच लाशे पड़े हैं और खुद मैदान छोड़ कर जा चुके हैं। यह देख कर ज़ियाद अपने आदमियों के साथ बसरा की तरफ़ चल पड़ा, तो वहां से मालूम हुआ कि ख्वारिज अहवाज़ की तरफ़ चले गए हैं। ज़ियाद ने सिपाह की क़िल्लत (कमी) की वजह से क़दम रोक लिये और अमीरुल मोमिनीन को इस की इत्तिलाअ दी। हज़रत ने ज़ियाद को वापस बुलवा लिया और मअक़िल इब्ने क़ैसे रियाही को दो हज़ार नबर्द आज़माओं के हमराह अहवाज़ की तरफ़ रवाना किया, और वारिये बसरा अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास को तहरीर फ़रमाया कि बसरा के दो हज़ार शमशीर ज़न मअक़िल की कुमक के लिये भेज दो। चुनांचे बसरा का दस्ता भी उन से अहवाज़ में जा मिला। और यह पूरी तरह मुनज़्ज़म (सुसंगठित) हो कर दुश्मन पर हमला करने के लिये तैयार हो गए। लेकिन खिर्रीयत अपने लाव लशकर को लेकर हुर्मुज़ की पहाड़ियों की तरफ़ चल दिया। यह लोग भी उसका पीछा करते हुए आगे बढ़े और उन पहाड़ियों के क़रीब उस को आ लिया। दोनों ने अपने अपने लश्कर की सफ़ बन्दी की, और एक दूसरे पर हमले शुरुउ कर दिये। इस झड़प का नतीजा यह हुआ कि ख्वारिज के तीन सौ सत्तर आदमी मैदान में खेत रहे, और बाक़ी भाग खड़े हुए। मअक़िल ने अपनी कारगुज़ारी और दुश्मन के फ़रार की इत्तिला अमीरुल मोमिनीन को दी तो हज़रत ने तहरीर फ़रमाया कि अभी तुम उन का पीछा करो और इस तरह उन्हें झिंझोड़ कर रख दो कि फिर सर उठाने का उन में दम न रहे। चुनांचे इस फ़रमान के बाद वह अपना लश्कर लेकर आगे बढ़े, और बहरे फार्स के साहिल पर उसे पा लिया कि जहां उस ने लोगों को बगला फुसला कर अपना हमनवा बना लिया था, और इधर उधर से लोगों को अपने साथ मिला कर अच्छी ख़ासी जमईयत बहम पहुंचा ली थी। जिस वक्त मअक़िल वहां पहुचे तो आप ने पहले अमान का झंडा बलन्द किया और एलान किया कि जो लोग इधर उधर से जमअ हो गए हैं वह अलग हो जायें उन से तअर्रुज़ न किया जायेगा। इस एलान का नतीजा यह हुआ कि उस की क़ौम के अलावा दूसरे लोग छंट गए। उस ने उन्हीं को मुनज़्ज़म किया और जंग छेड़ दी। मगर कूफ़ा व बसरा के सर फ़रोशों ने तेग़ ज़नी के वह जौहर दिखाए कि देखते ही देखते बाग़ियों के एक सौ सत्तर आदमी मारे गए और खिर्रीत से नोमान इब्ने सहबान ने दो दो हाथ लिये और आखिर उसे मार गिराया जिसके गिरते ही दुश्मन के क़दम उखड़ गए और वह मैदान छोड़ कर भाग खड़े हुए। उस के बाद मअक़िल ने उन की क़ियाम गाहों में जितने मर्द, औरतें और बच्चे पाए उन्हें एक जगह जममा किया। उन में जो मुसलमान थे उन से बैअत लेकर उन्हें रिहा कर दिया और जो मुर्तद हो गए थे उन्हें इसलाम क़बूल करने को कहा। चुनांचे एक बूढ़े नसरानी के अलावा अलावा इसलाम क़बूल कर के रिहाई पाई और बूढ़े को क़त्ल कर दिया गया। और जिन बनी नाजिया के ईसाइयों ने इस शोरिश अंगेज़ी में हिस्सा लिया था उन्हें उन के अहलो अयाल समेत कि जिन की तअदाद पांच सौ थी अपने हमराह ले लिया, और जब मअक़िल अदेशीर खुर्रह (ईरान का एक शहर) पहुंचे तो यह क़ैदी वहां के हाकिम मसक़ला इब्ने हुबैरा के सामने चीखे चिल्लाए और गिड़गिड़ा कर उन से इलतिजायें कीं कि उनकी रिहाई की कोई सूरत की जाय। मसक़ला ने ज़हल इब्ने हारिस के ज़रीए मअक़िल को कहलवाया कि इन असीरों को मेरे हाथ बेच दो। मअक़िल ने इसे मनज़ूर किया, और पांच लाख दिरहम में वह असीर उस के हाथ बेच डाले और उस से कहा कि इन की क़ीमत जल्द अज़ जल्द अमीरुल मोमिनीन को भेज दो। उस ने कहा कि मैं पहली क़िस्त अभी भेज रहा हूं, और बक़ीया क़िस्तें भी जल्द भेज दी जायेंगी। जब मअक़िल अमीरुल मोमिनीन के पास पहुंचे, तो यह सारा वाक़िआ उन से बयान किया। हज़रत ने इस इक़दाम को सराहा और कुछ दिनों तक क़ीमत का इन्तिज़ार किया। मगर मुसक़ला ने ऐसी चुप साध ली कि गोया उस के ज़िम्मे कोई मुतालबा ही नहीं है। आखिर हज़रत ने एक क़ासिद उस की तरफ़ रवाना किया और उसे कहलवा भेजा कि या तो क़ीमत भेजो या ख़ुद आओ। वह हज़रत के फ़रमान पर कूफ़े आया और क़ीमत तलब करने पर दौ लाख दिरहम पैश कर दिये और बक़या मुतालबे से बचने के लिये मुआविया के पास चला गया। जिस ने उसे तबरस्तान का हाकिमबना दिया। हज़रत को जब इस का इल्म हुआ तो आप ने यह कलिमात इर्शाद फ़रमाए जिन का माहसल (सारांश) यह है कि अगर वह ठहरा रहता तो हम माल की वसूली में उस से रिआयत करते, और उस की माली हालत दुरुस्त होने का इन्तिज़ाम करते। लेकिन वह तो एक नुमाइशी कारनामा दिखा कर ग़ुलामों की तरह भाग निकला। अभी उस के बलन्द हौसले के चर्चे शुरुउ ही हुए थे कि ज़बानों पर उस की दिनायत व पस्ती के तज़किरे आने लगे।

ख़ुत्बा-45

तमाम हम्द (प्रशंसा, बन्दना) उस अल्लाह के लिये है, जिस की रहमत (दया) से ना उमीदी (निराशा) नहीं और जिस की नेमतों (उपहारों) से किसी का दामन ख़ाली (रिक्त) नहीं। न उस की मग़फ़िरत (मुक्ति) सो कोई मायूस (निराश) है, न उस की इबादत (पूजा) से किसी को आर (लज्जा) हो सकता है, और न उस की रहमतों (दयालुता) का सिलसिला (क्रम) टूटता है, और न उस की नेमतों (उपहारों) का फ़ैज़ान (लाभ वितरण) कभी रुकता है। दुनिया एक ऐसा घर है जिसके लिये फ़ना (विनाश) तयशुदा अम्र (निश्चित बात) है। और इस में बसने वालों के लिये यहां से बहर सूरत (प्रत्येक दशा में) निकलना है। यह दुनिया शीरीं (मीठी) न शादाब (हरी भरी) है। अपने चाहने वाले की तरफ़ तेज़ी से बढ़ती है, और देखने वाले के दिल में समा जाती है। जो तुम्हारे पास बेहतर से बेहतर तोशा (सफ़र में साथ ले चलने वाला खाला) हो सके उसे लेकर दुनिया से चल देने के लिये तैयार हो जाओ। इस दुनिया में अपनी ज़रुरत से ज़ियादा (आवश्यकता से अधिक) न चाहो, और जितने से ज़िन्दगी बसर (जीवन निर्वाह) हो सके उस से ज़ियादा (अधिक) की ख़्वाहिश (इच्छा) न करो।

ख़ुत्बा-46

[ जब शाम की तरफ़ रवाना होने का क़सद किया तो यह कलिमात (वाक्य) फ़रमाए ]

ऐ अल्लाह ! मैं सफ़र की मशक्कत (यात्रा के कष्ट) और वापसी के अन्दोह (दुख) और अहलो माल (आश्रितों एंव धन) की बदहाली के मंज़र (दृश्त) से पनाह (शरण) मांगता हूं। ऐ अल्लाह ! तू ही सफ़र में रफ़ीक़ (साथी) और बाल बच्चों का मुहाफ़िज़ (संरक्षक) है। सफ़र व हज़र (यात्रा एंव गृह विश्राम) दोनों को तेरे अलावा कोई यकजा (एकत्र) नहीं कर सकता, क्योंकि जिसे (यात्रा में जाते हुए) पीछे छोड़ा जाए वह साथी नही हो सकता, और जिसे साथ लिया जाए वह पीछे नहीं छोड़ा जा सकता।

ख़ुत्बा-47

ऐ कूफ़ा ! यह मंज़र (दृश्य) गोया (जैसे) मैं अपनी आंखों से देख रहा हूं कि तुझे इस तरह खींचा जा रहा है जैसे बाज़ारे उकाज़ के दबाग़त किये हुए(कमाए हुए) चमड़े को और मसाइब व आलाम (दुखों एंव आपत्तियों) की ताख्त व ताराज (विनाशकारियों) से तुझे कुचला जा रहा है और शदाइदो हवादिस (अत्याचारों व दुर्धटनाओं) का तू मर्कब (सवारी) बना हुआ है। मैं जानता हूं कि जो ज़ालिम सर्कश (अत्याचारी व विद्रोही) तुझ से बुराई का इरादा करेगा, अल्लाह उसे किसी मुसीबत (आपदा) में जकड़ देगा। और किसी क़ातिल (हत्यारे) की ज़द (परिधि) पर ले आएगा।

ज़मानए जाहिलीयत (इसलाम से पूर्व) में हर साल मक्के के क़रीब एक बाज़ार लगता था जिस का नाम उकाज़ था। जहां ज़ियादातर (अधिकांश) खालों की खरीद व फ़रोख्त (क्रय विक्रय) होती थी। जिस की वजह से चमड़े को उस की तरफ़ निस्बत दी जाती थी। खरीदो फ़रोख्त के अलावा शेरो सुखन (कविता गायन) की महफ़िलें भी जमती थीं और अरब अपने कारनामे (कवितायें) सुना कर दादो तहसीन (प्रशंसा) हासिल करते थे। मगर इस्लाम के बाद उस का नेमुल बदल हज के इजतिमाअ (जनसमूह) की सूरत में हासिल हो जाने की वजह से वह बाज़ार सर्द (ठंडा) पड़ गया। अमीरुल मोमिनीन की यह पेशीनगोई (भविष्यवाणी) हर्फ़ ब हर्फ़ (अक्षरश :) पूरी हुई और दुनिया ने देख लिया कि जिन लोगों ने कूफ़े में अपनी क़हरमानी कुव्वतों (बर्बरतापूर्ण शक्तियों) के बल बूते पर ज़ुल्मों सितम ढाए। उन का अंजाम (परिणाम) कितना इबरतनाक हुआ और उन की हलाकत आफ़रीनियों (हत्यापूर्ण कार्यवाहियों) ने उन के लिये हलाकत (वध) के क्या क्या साज़ो सामान किये। चुनांचे ज़ियाद इब्ने अबीह का हश्र (दुर्गत) यह हुआ कि जब उसने अमीरुल मोमिनीन के खिलाफ़ नासज़ा कलिमात (अभद्र शब्द) कहलवाने के लिये खुत्बा (भाषण) दिया तो अचानक उस पर फ़ालिज गिरा और फिर वह बिस्तर से न उठ सका। उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद की सफ्फ़ाकियों (अत्यचारों) का नतीजा (परिणाम) यह हुआ कि वह कोढ़ में मुब्तला हो गया, और आखिर खून आशाम तलवारों ने उसे मौत के घाट उतार दिया। हज्जाज इब्ने युसुफ़ की खूंख़्वारियों ने उसे यह रोज़े बद दिखाया, कि उस के पेट में सांप पैदा हो गए जिस की वजह से उस ने तड़प तड़प कर जान दी। अमर इब्ने हुबैरा मबरुस हो कर मरा। खालिदे क़सरी ने क़ैदो बन्द की सख्तियां झेलीं और बुरी तरह मारा गया। मस्अब इब्ने ज़ुबैर और यज़ीद इब्ने मोहलब भी तेग़ों की नज़र हुए।

ख़ुत्बा-48

अल्लाह के लिये हम्दो सना (वन्दना व प्रशंसा है) है जब भी रात आए और अंधेरा फैले, और अल्लाह के लिये तअरीफ़ व तौसीफ़ है जब भी सितारा निकले और डूबे। और उस अल्लाह के लिये मदहो सताइश है कि जिस के इनआमात (पुरस्कार) कभी ख़त्म नहीं होते और जिस के एहसानात (आभारों) का बदला कभी चुकाया नहीं जा सकता।

आगाह रहो (विदित रहो) कि, मैंने फ़ौज का हरावल दस्ता आगे भेज दिया है और उसे हुक्म दिया है कि मेरा फ़रमान पहुंचाने तक उस दरिया के किनारे पड़ाव डाले रहे। और मेरा इरादा है कि पानी को उबूर (पार) कर के उस छोटे से गुरोह के पास पहुंच जाऊँ जो अतराफ़े दजला (मदायन) में आबाद है, और उसे भी तुम्हारे साथ दुशमनों के मुक़ाबले में खड़ा करुं और उन्हें तुम्हारी कुमक के लिये ज़ख़ीरा बनाऊं।

जब अमीरुल मोमिनीन ने सिफ्फ़ीन के इरादे से वादिये नुखैला में पड़ाव डाला। तो 5 शव्वाल सन् 37 हिज्री बरोज़ चहारशंबा (बुधवार) यह खुत्बा इरशाद फ़रमाया। इस में हज़रत ने जिस हरावल दस्ते का ज़िक्र किया है, उस से वह बाहर हज़ार अफ़राद मुराद हैं जो ज़ियाद इब्ने नज़र और शुरैह इब्ने हानी की ज़ेरे नज़र क़ियादत सिफ्फ़ीन की तरफ़ रवाना फ़रमाए थे। और मदायन के जिस छोटे से गुरोह का ज़िक्र किया है वह बारह सौ अफ़राद का एक जत्था था जो आप की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुए उठ खड़ा हुआ था।

ख़ुत्बा-49

तमाम हम्द (वन्दना, प्रशंसा) उस अल्लाह के लिये है जो छिपी हुई चीज़ों की गहराइयों में उतरा हुआ है। उस के ज़ाहिर व हुवैदा (प्रकट एंव प्रत्यक्ष) होने की निशानियां उस के वुजूद (अस्तित्व) का पता देती हैं। गो देखने वाले की आंख से वह नज़र नहीं आता, फिर भी देखने वाली आंख उस का इन्कार नहीं कर सकती। और जिस ने उस का इन्क़ार (स्वीकार) किया उस का दिल उस की हक़ीक़त (यथार्थ) को नहीं पा सकता। वह इतना बलन्द व बरतर है कि कोई चीज़ उस से बलन्द तर नहीं हो करती। और इतना क़रीब से क़रीब तर हैकि कोई शय उस से क़रीब तर नहीं है। और न उस की बलन्दी ने उसे मख़्लूक़ात (सृष्टियों) से दूर कर दिया है और न उस के क़ुर्ब (निकटता) ने उसे दूसरों की सत्ह (स्तर) पर ला कर उन के बराबर (सामान) कर दिया है। उस ने अक़लों (बुद्धियों) को अपनी सिफ़तों (गुणों) की हद का निहायत (सीमा व अन्त) पर मुत्तला (सूचित) नहीं किया, और ज़रुरी मिक़दार (आवश्यक मात्रा) में मअरिफ़त हासिल (परिचय प्राप्त) करने के लिये उन के आगे पर्दे भी हाइल (अवरुद्ध) नहीं किये। वह ज़ात (अस्तित्व) ऐसी है कि जिस के वुजूद (होने) के निशानात (लक्षण) इस तरह उस की शहादत (गवाही) देते हैं कि ज़बान से इन्कार करने वाले का दिल भी इन्कार किये बग़ैर नहीं रह सकता। अल्लाह उन लोगों की बातों से बलन्द व बरतर है जो मख़लूक़ात (सृष्टियों) से उस की तशबीह (उपमा) देते हैं, और उस के वुजूद (अस्तित्व) का इन्कार करते हैं।

ख़ुत्बा-50

फ़ित्नों (विद्रोहों) के वुक़ूउ (घटित होने) का आग़ाज़ (आरम्भ) वह नफ़्सानी ख़्वाहिशात (स्वार्थपूर्ण इच्छायें) होती हैं जिन की पैरवी (अनुकरण) की जाती है और वह नए ईजाद कर्दा अहकाम (नवीन आविष्कृत आदेश) जिन में क़ुरआन की मुख़ालिफ़त (विरोध) का जाती है। और जिन्हें फ़रोग़ (प्रगति) देने के लिये कुछ लोग दीने इलाही के ख़िलाफ़ बाहम (परस्पर) एक दूसरे के मददगार (सहयोगी) हो जाते हैं। तो अगर बातिल (अधर्म) हक़ (यथार्थ) की आमेज़िश (मिश्रण) से ख़ाली (रिक्त) होता तो वह ढूंढने वालों की नज़रों से पोशीदा (गुप्त) न रहता, और अगर हक़ (यथार्थ) बातिल (अधर्म) के शाइबे (आभा, झलक) से पाक व साफ़ सामने आता तो इनाद (द्वैष) रखने वाली ज़बानें भी बन्द हो जातीं। लेकिन होता यह है कि कुछ इधर से लिया जाता है और कुछ उधर से और दोनों को आपस में ख़ल्त मल्त कर दिया जाता है। इस मौक़े पर शैतान दोस्तों पर छा जाता है और सिर्फ़ वही लोग बचे रहते हैं जिन के लिये तौफ़ीक़े इलाही व इनायते खुदावन्दी (अल्लाह की कृपा व दया) पहले से मौजूद हो।

ख़ुत्बा-51

[ जब सिफ्फ़ीनमें मुआविया के साथियों ने अमीरुल मोमिनीन के असहाब (साथियों) पर ग़लबा (आधिपत्य) पा कर फ़ुरात के धाट पर क़ब्ज़ा जमा लिया और पानी लेने से माने (बाधक) हुए तो आप ने फ़रमाया ]

वह तुम से जंग के लुक़्मे तलब (युद्ध के कौर की मांग) करते हैं। तो अब या तुम ज़िल्लत (अपमान) और अपने मक़ाम (स्थान) की पस्ती व हिक़ारत (नीचता एंव तुच्छता) पर सरे तस्लीम ख़म कर दो (सर झुका कर स्वीकार कर लो) या तलवारों की पियास खून से बुझा कर अपनी प्यास पानी से बुझाओ। तुम्हारा उन से दब जाना जीते जी मौत है और ग़ालिब आकर (विजयी होकर) मरना भी जीने के बराबर है। मुआविया गुमकर्दा राह (पथभ्रष्ट) सर फिरों का एक जत्था लिये फिरता है और वाक़िआत (घटनाओं) से उन्हें अंधेरे में रख छोड़ा है। यहां तक कि उन्होंने अपन् सिनों को मौत (के तीरों) का हदफ़ (लक्ष्य) बना लिया है।

अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) अभी सिफ्फ़ीन में न पहुंचे थे कि मुआविया ने घाट का रास्ता बन्द करने के लिये दरिया के किनारे चालीस हज़ार आदमियों का पहरा लगा दिया, ताकि शामियों के अलावा वहां से कोई पानी न ले सके। जब अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) का लश्कर वहां पर उतरा तो उस घाट के अलावा आस पास कोई घाट न था कि वहां से पानी ले सकते। और अगर था, तो ऊंचे ऊंचे टीलों को उबूर (पार) कर के वहां तक पहुंचना दुश्वार (कठिन) था। हज़रत ने सअसअह इब्ने सौहान को मुआविया के पास भेजा, और उसे कहलवाया कि पानी से पहरा उठा लिया जाय। मगर मुआविया ने इन्कार किया। इधर अमिरुल मोमिनीन (अ.स.) का लश्कर प्यासा पड़ा था। हज़रत ने यह सूरत देखी, तो फ़रमाया कि उठो और तलवारों के ज़ोर पर पानी हासिल करो। चुनांचे उन तशना कामोंने तलवारें नयामोंसे खींच लीं, और तीर कमानों में जोड़ लिये और मुआविया की फ़ौजों को दरहम व बरहम करते हुए दरिया के अन्दर तक उतर गए और उन पहरा दारों को मार भगाया और ख़ुद घाट पर क़ब्ज़ा कर लिया।

अब हज़रत के असहाब ने भी चाहा कि जिस तरह मुआविया ने घाट पर क़ब्ज़ा जमाकर पानी की बन्दिश कर दी थी वैसा ही उस के और उसके साथियों के साथ बर्ताव किया जाय, और एक शामी को भी पानी न लेने दिया जाय और एक एक को प्यासा तड़पा कर मारा जाय। मगर अमिरुल मोमिनीन (अ.स.) ने फ़रमाया कि क्या तुम भी वही जाहिलाना क़दम उठाना चाहते हो जो उन शामियों ने उठाया था ? हरगिज़ किसी को पानी से न रोको, जो चाहे पिये और जिस का जी चाहे ले जाए। चुनांचे अमिरुल मोमिनीन (अ.स.) की फ़ौज का दरिया पर क़बज़ा होने के बावजूद किसी को पानी से नहीं रोका गया और हर शख़्स को पानी लेने की पूरी पूरी आज़ादी दी गई।

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