तक़वा
एक जाना पहचाना और बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला लफ़्ज़ (शब्द) है। कुर्आन में यह लफ़्ज़ noun और verb दोनों सूरतों में पचासों जगह पर आया है। यह लफ़्ज़ लगभग उतनी ही बार इस्तेमाल हुआ है जितनी बार मसलन ईमान या अमल का लफ़्ज़, या जितनी बार सलात (नमाज़) और ज़कात का लफ़्ज़। रोज़े के हवाले से कुर्आन में इसका तज़किरा बहुत ज़्यादा है।
एक जाना पहचाना और बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने वाला लफ़्ज़ (शब्द) है। कुर्आन में यह लफ़्ज़ noun और verb दोनों सूरतों में पचासों जगह पर आया है। यह लफ़्ज़ लगभग उतनी ही बार इस्तेमाल हुआ है जितनी बार मसलन ईमान या अमल का लफ़्ज़, या जितनी बार सलात (नमाज़) और ज़कात का लफ़्ज़। रोज़े के हवाले से कुर्आन में इसका तज़किरा बहुत ज़्यादा है। नहजुल बलाग़ा में जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल बार बार हुआ है उनमें से एक तक़वा भी है। नहजुल बलाग़ा में एक ख़ुत्बा (भाषण) है जिसका नाम ख़ुत-बए-मुत्तक़ीन है। यह ख़ुत्बा हज़रत अली (अ.) ने किसी शख़्स के जवाब में इरशाद फ़रमाया था जिसने यह कहा था कि आप मुत्तक़ी (तक़वे वाला) में पाई जाने वाली ऐसी ख़ास बातें बयान कीजिए कि जिससे हमें मालूम हो जाए कि मुत्तक़ी ऐसा होता है। शुरू में तो इमाम नें उसकी बात को नकार दिया सिर्फ़ तीन चार जुमले (वाक्य) ही बयान किए उसका नाम हम्माम बिन शुरैह था वह बहुत होशियार और तेज़ आदमी था वह मुतमइन न हुआ और इमाम से गुज़ारिश करता रहा तो आपने भी बहुत खुल कर मुत्तक़ी में पाई जाने वाली अच्छाइयों को बयान करना शुरू कर दिया 100 से ज़्यादा अच्छाइयाँ बताईं, एक मुत्तक़ी आदमी की सोच कैसी होती है उसका किरदार (चरित्र) कैसा होता है और वह क्या करता है।
लिखा हुआ है कि जैसे ही हज़रत अली (अ.) की बात ख़त्म हुई हम्माम ने एक चीख़ मारी और वहीं मर गया। कहने का मतलब यह है कि तक़वा एक ऐसा लफ़्ज़ है जिसे सब जानते और पहचानते हैं। तक़वा अरबी के लफ़्ज़ वक़्यः से बना है जिसके अर्थ हैं किसी चीज़ का बचाव। इत्तिक़ा के मानि हैं बचाए रखना लेकिन आम तौर पर यह देखने में नहीं आया कि कहीं तक़वा का तर्जुमा (अनुवाद) हिफ़ाज़त, बचाव या देख रेख में किया गया हो। जब यह लफ़्ज़ इस्म (noun, संज्ञा) के तौर पर इस्तेमाल होता है तो इसका तर्जुमा परहेज़गारी और मुत्तक़ी का तर्जुमा परहेज़गार किया जाता है कि यह हिदायत है परहेज़गारों के लिए, यानि परहेज़गारों को सीधे रास्ते पर लाने वाला है। अगर यही लफ़्ज़ फ़ेअल (verb,क्रिया) के तौर पर इस्तेमाल होता है तो तक़वा ख़ौफ़ और डर के मानि में आता है मिसाल के तौर पर इत्तक़ुल्लाह का तर्जुमा होगा अल्लाह से डरो और इत्तक़ुन्नार का तर्जुमा होगा जहन्नम की आग से डरो। अल्लाह से डरने का मतलब क्या है? क्या अल्लाह कोई डरने वाली चीज़ है? वह तो ऐसा है कि उससे मुहब्बत की जाए, उसे दोस्त रखा जाए फिर उससे डरने के क्या मानी? जब हम यह कहते हैं कि अल्लाह से डरना चाहिए तो इसका मतलब यह होता है कि उसके अद्ल व इन्साफ़ (न्याय) वाले क़ानून से डरना चाहिए। जैसा कि एक दुआ में आया है कि ऐ वह जिसके फ़ज़्ल व करम (कृपा) ही से उम्मीदें और ख़ौफ़ सिर्फ़ उसके अद्ल (न्याय) का है। इसी तरह एक दूसरी दुआ में यह भी आया है कि तू इससे बहुत परे है .कि तुझसे सिवाए तेरे अद्ल के किसी और वजह से डरा जाए और तुझसे सिवाए तेरे लुत्फ़ व करम के कोई और उम्मीद रखी जाए। अद्ल व इन्साफ़ ब ज़ाते ख़ुद (स्वंय) कोई डरने और ख़ौफ़ खाने की चीज़ नहीं इन्सान अगर अद्ल से डरता है तो वह सचमुच अपने आपसे या अपने आमाल (कर्मों ) से डरता है कि कहीं उसने पीछे कोई ग़ल्ती न की हो या आगे कोई ग़ल्ती हो जाए और दूसरों का हक़ मार बैठे इसलिए ख़ौफ़ और उम्मीद के यह अर्थ हैं कि एक मोमिन बन्दे को ख़ौफ़ भी रखना चाहिए और उम्मीद भी। अपनी ग़लत चाहतों से डरता रहे कि कहीं अक़्ल व ईमान की डोर हाथ से न छूट जाए साथ ही अल्लाह पर भरोसा रखे और यह आस लगाए रहे कि अल्लाह की तरफ़ से हमेशा मदद होती रहेगी। चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबेदीन अ0 दुआए अबू हमज़ा सुमाली में फ़रमाते हैं कि मेरे आक़ा जब मैं अपनी ग़ल्तियाँ देखता हूँ तो डर जाता हूँ, लेकिन जब तेरा करम देखता हूँ तो उम्मीद बंध जाती है।
सचमुच तक़वा क्या है और इसके क्या अर्थ हैं? अगर इन्सान यह चाहता है कि उसकी ज़िन्दगी का कोई उसूल हो तो वह उस उसूल पर चलता रहे । तक़वा हर उस आदमी की ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है जो यह चाहता है कि इन्सान बन कर रहे और अक़्ल के साथ ज़िन्दगी बसर करे और किसी ख़ास उसूल को अपना ले। दीन की दुनिया में तक़वा के मानि यह हैं कि इन्सान अपनी ज़िन्दगी में दीनी उसूलों को अपना लें और जो काम दीन के नुकतए नज़र (द्रष्टिकोण) से ग़लत और गुनाह है और नापाक व बुरे समझे गए हैं उनसे बचे। इसका मतलब यह है कि गुनाहों से अपने आप को बचाए रखने का नाम तक़वा है। यह तक़वा कभी कमज़ोर होता है और कभी ज़ेरदार। कमज़ोर तक़वा यह है कि हम गुनाहों से अपने आप को बचाए रखें और उन बातों से बचें जिन की वजह से गुनाह होते हैं और अपने आप को गुनाह के माहौल से दूर रखें, यह ऐसा ही है जैसे कोई आदमी अपने को बीमारी से बचाए रखने के लिए सेहत के उसूलों पर अमल करे मसलन उन जगह पर न जाऐ जहाँ छूत की , यह ऐसा ही है जैसे कोई आदमी अपने को बीमारी से बचाए रखने के लिए सेहत के उसूलों पर अमल करे मसलन उन जगह पर न जाऐ जहाँ छूत की बीमारियाँ फैली हुई हैं न चीज़ों का इस्तेमाल न करे जिन से ऐसी बीमारियाँ फैल जाती हैं। ताक़तवर और ज़ोरदार तक़वा यह है कि इन्सान में ऐसी रूहानी ताक़त पैदा हो जाए कि वह हर तरह से हर गुनाह से बचा रहे, अगर वह किसी ऐसे माहौल में पहुँच जाए जहाँ गुनाह के सारे सामान और ज़रिए मौजूद हों तब भी वह अपने को बचाए रखे और गुनाह न करे, यह बिल्कुल उसी तरह है कि जैसे कोई आदमी अपने को ऐसा बना ले कि उस पर बीमारी असर न डाल सके। आमतौर पर हम जैसे लोगों में जो तक़वा पाया जाता है वह पहली तरह वाला तक़वा है यानि कमज़ोर तक़वा। जब हम कहते हैं कि वह मुत्तक़ी है तो इसका मतलब यह है कि वह ऐहतियात करने वाला है और अपने को गुनाहों से बचाने वाला है। मुत्तकी होने का मतलब यह नहीं है कि इन्सान अपनी सोसाइटी और समाज से कट के रह जाए, दुनिया त्याग दे बल्कि मुत्तक़ी होने का मतलब सिर्फ़ यह है कि उसूल का पाबन्द हो।
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