सूरए यूसुफ़ तर्जुमा और तफ़्सीर

सूरए यूसुफ़ सूरए यूसुफ़, आयतें 1-3,  आज से हम सूरए यूसुफ़ की व्याख्या आरंभ करेंगे जिसमें ईश्वरीय दूत हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के जीवन की वि...

सूरए यूसुफ़




सूरए यूसुफ़, आयतें 1-3,

 आज से हम सूरए यूसुफ़ की व्याख्या आरंभ करेंगे जिसमें ईश्वरीय दूत हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के जीवन की विभिन्न उतार चढ़ाव भरी घटनाओं का उल्लेख है। क़ुरआने मजीद के अन्य सूरों के विपरीत जिनमें आस्था, शिष्टाचार और धार्मिक आदेशों संबंधी बातों और पिछले पैग़म्बरों तथा जातियों के वृत्तांत का उल्लेख किया गया है, इस सूरए में केवल हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना का निरंतरता के साथ वर्णन है और अन्य विषयों की ओर संकेत नहीं किया गया है।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की जीवनी का उल्लेख तौरैत में भी है किन्तु उसमें और क़ुरआने मजीद में बहुत अंतर है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के बारे में क़ुरआने मजीद की आयतों पर ध्यान देने से इस ईश्वरीय किताब की सत्यता अधिक स्पष्ट और सिद्ध हो जाती है और कुछ अन्य पुस्तकों में इस घटना में फेर बदल किए जाने को भलिभांति समझा जा सकता है,

अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावन है। अलिफ़ लाम रा। यह स्पष्ट करने वाली किताब की आयतें हैं। (12: 1) निश्चित रूप से हमने क़ुरआन को अरबी भाषा में उतारा है, शायद तुम लोग चिंतन करो। (12: 2)

यह सूरा भी क़ुरआने मजीद के 29 अन्य सूरों की भांति हुरूफ़े मुक़त्तेआत अर्थात भिन्न भिन्न अक्षरों से आरंभ हुआ है। ये अक्षर वस्तुतः ईश्वर और उसके पैग़म्बर के बीच रहस्य हैं किन्तु साथ ही ये एक प्रकार से क़ुरआन के ईश्वरीय चमत्कार होने को भी दर्शाते हैं क्योंकि इनमें से अधिकांश सूरों में हुरूफ़े मुक़त्तेआत के बाद क़ुरआने मजीद और उसकी महानता की बात कही गई है। इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने अपने चमत्कार अर्थात क़ुरआने मजीद को इन्हीं साधारण से अक्षरों के माध्यम से उतारा है। यदि तुम में भी क्षमता हो तो इन्हीं अक्षरों से क़ुरआन जैसी किताब ला कर दिखाओ।

इन आयतों में दो महत्त्वपूर्ण बिंदुओं की ओर संकेत किया गया है, प्रथम यह कि क़ुरआने मजीद स्पष्ट करने वाली किताब है, ऐसी किताब जो सत्य के मार्ग को स्पष्ट करती है और जीवन के मार्ग का दीपक जिसके प्रकाश से गंतव्य तक पहुंचा जा सकता है।
दूसरे यह कि सभी का दायित्व है कि क़ुरआने मजीद की आयतों में चिंतन और सोच विचार करें और अपनी बुद्धि तथा विचारों के विकास के लिए उनसे लाभ उठाएं। क़ुरआने मजीद इसलिए नहीं आया है कि लोग उसकी तिलावत करके प्रलय का पारितोषिक प्राप्त करें बल्कि क़ुरआन इसलिए आया है कि लोग अपने व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के कार्यक्रमों को उसके आधार पर तैयार करें और क़ुरआन की शिक्षाओं को अपने जीवन का आधार बनाएं।
इन आयतों से हमने सीखा कि अरबी, क़ुरआन की भाषा है। क़ुरआन की आयतों में चिंतन के लिए उचित है कि मनुष्य अरबी भाषा सीखे।

क़ुरआन केवल तिलावत करने और घर में रखने के लिए नहीं है बल्कि मनुष्य के चिंतन मनन का साधन है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की तीसरी आयत

(हे पैग़म्बर!) हम इस क़ुरआन के माध्यम से जिसे हमने वहि द्वारा आपकी ओर भेजा है, सबसे उत्तर वृत्तांत आपको सुनाते हैं, जिनसे आप पहले अवगत नहीं थे। (12:3)

इस आयत में ईश्वर अपने पैग़म्बर से कहता है कि हम अपने विशेष संदेश वहि द्वारा आपकी ओर क़ुरआन भेजते हैं और इसके माध्यम से पिछली जातियों के वृत्तांतों को भी उत्तम ढंग से आपको सुनाते हैं और यह भी क़ुरआन का एक भाग है।
मूल रूप से मनुष्यों के प्रशिक्षण में पिछली जातियों की कहानियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है विशेष कर यदि वह पिछली जातियों की सच्ची घटनाएं हों और सुनने वाला उन्हें एक कहानीकार की कल्पनाओं का परिणाम न समझे। वस्तुतः क़ुरआन के वृत्तांतों की सबसे बड़ी विशेषता उनका वास्तविक होना है। यह ऐसी बात है जिसे आज कल इतिहास के रूप में पहचाना जाता है और शैक्षणिक केन्द्रों में विभिन्न आयामों से इस पर ध्यान दिया जाता है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र इमाम हसन अलैहिस्सलाम के नाम एक पत्र में इस प्रकार लिखते हैं। प्रिय पुत्र! मैंने अपने से पहले वाले लोगों की जीवनी का ऐसा अध्ययन किया है मानो मैंने उन्हीं के बीच जीवन बिताया हो।
क़ुरआने मजीद में इतिहास का महत्त्व इतना अधिक है कि क़ुरआन को अहसनुल क़सस अर्थात सर्वोत्तम वृत्तांत कहा गया है। इसके अतिरिक्त यह कि ईश्वर स्वयं को कहानी सुनाने वाला बताता है और उसने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को हज़रत यूसुफ़ का वृत्तांत सुनाते हुए इसे क़ुरआन का एक भाग बताया है।

यदि इस आयत में हज़रत यूसुफ़ के वृत्तांत को सबसे महत्त्वपूर्ण वृत्तांत बताया गया है तो इसका कारण यह है कि इस घटना का नायक ऐसा युवा है जिसका पूरा अस्तित्व, पवित्रता अमानतदारी, धैर्य और ईमान से परिपूर्ण है। इस घटना का मूल बिंदु यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने भरपूर जवानी में अपनी आंतरिक इच्छाओं से संघर्ष किया और उसमें विजयी रहे। इस घटना में बहुत सी विरोधाभासी बातें एकत्रित हैं, जैसे विरह और मिलाप, दुख और सुख, अभाव और बहुतायत, वफ़ा और बेवफ़ाई, दास्ता और शासन तथा पवित्रता और आरोप।
इस आयत में निश्चेतना के लिए प्रयोग होने वाला ग़फ़लत का शब्द न जानने के अर्थ में प्रयोग हुआ है कि जो स्वयं कोई बुरी बात नहीं है। ऐसी ग़फ़लत बुरी होती है जो जानने और पहचानने के बाद भी बाक़ी रहे। जैसे ईश्वर और उसकी महान निशानियों से ग़फ़लत। पैग़म्बरे इस्लाम, हज़रत यूसुफ़ के वृत्तांत को नहीं जानते थे और ईश्वर ने अपने विशेष संदेश वहि द्वारा उन्हें इससे अवगत करा दिया।
इस आयत से हमने सीखा कि सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करने के लिए हमें ऐसे ऐतिहासिक पात्रों का परिचय कराना चाहिए जिनका अस्तित्व वास्तव में सफल और प्रभावी रहा हो।
चूंकि क़ुरआन ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करता है अतः वह पूर्ण रूप से वास्तविक व विश्वसनीय है क्योंकि क़ुरआन, ज्ञान व तत्वदर्शी ईश्वर की ओर से हम तक पहुंचा है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 4-6

जब यूसुफ़ ने अपने पिता से कहा कि हे मेरे पिता! मैंने सपने में ग्यारह तारों तथा सूर्य और चंद्रमा को देखा है और देखा कि वे मुझे सज्दा कर रहे हैं। (12: 4)

क़ुरआने मजीद में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना एक ऐसे स्वप्न से आरंभ होती है जिसमें उन्हें उज्जवल भविष्य की शुभ सूचना दी गई है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम कहते हैं कि स्वप्न तीन प्रकार के होते हैं, एक ईश्वर की ओर से शुभ सूचना होती है, दूसरा शैतान की ओर से दुख होता है और तीसरा मनुष्य की प्रतिदिन की समस्याएं होती हैं जिन्हें वह स्वप्न में देखता है और दुखी होता है।
अलबत्ता ईश्वर के प्रिय और पवित्र बंदों के स्वप्न सच्चे होते हैं अर्थात उनके लिए वे ईश्वर के संदेश होते हैं जैसे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सपने में देखा था कि वे ईश्वर के आदेश से अपने पुत्र इस्माईल की बलि चढ़ा रहे हैं। इसी प्रकार ऐसे लोगों के स्वप्न ऐसी वास्तविकताओं का उल्लेख करते हैं जो भविष्य में घटने वाली होती हैं जैसे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का यही स्वप्न जिसके अनुसार वे बहुत ही उच्च स्थान तक पहुंचे और उनके ग्यारह भाइयों तथा माता पिता ने उनकी प्रशंसा की।
इस आयत से हमने सीखा कि स्वप्न, वास्तविकताओं को समझने का एक मार्ग है जो कुछ लोगों को प्राप्त होता है।
माता-पिता को अपने बच्चों के साथ आत्मीय संबंध स्थापित करना चाहिए ताकि बच्चे भी उन पर भरोसा करें और उन्हें अपनी समस्याओं से अवगत कराएं।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या पांच

यूसुफ़ के पिता ने कहा कि हे मेरे पुत्र! अपने स्वप्न का अपने भाइयों से उल्लेख न करना कि वे तुम्हारे विरुद्ध षड्यंत्र करने लगेंगे। निश्चित रूप से शैतान, मनुष्य का खुला हुआ शत्रु है। (12: 5)
हज़रत यूसुफ़ के पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम, ईश्वरीय पैग़म्बर थे, वे समझ गए कि उनके पुत्र का स्वप्न एक साधारण बात नहीं है बल्कि भविष्य में उसकी महानता और परिपूर्णता का सूचक है। अतः उन्होंने हज़रत यूसुफ़ से कहा कि वे अपने स्वप्न का उल्लेख अपने भाइयों से न करें क्योंकि संभव है कि उनके भीतर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न हो जाए और वे उन्हें कोई क्षति पहुंचा दें।
मूल रूप से बच्चों के बीच ईर्ष्या ऐसी बात है जिसकी ओर से माता पिता और संतान सभी को सचेत रहना चाहिए। माता पिता को एक बच्चे की विशेषता का उल्लेख करके दूसरे बच्चों के बीच ईर्ष्या की भूमि प्रशस्त नहीं करना चाहिए। यही कारण था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों से छिपकर अपने पिता को अपने स्वप्न के बारे में बताया और उन्होंने भी उनसे कहा कि वे इस बारे में अपने भाइयों को कुछ न बताएं।
इस आयत से हमने सीखा कि जिस प्रकार से एक सपने के बारे में दूसरों को बताने से संकट उत्पन्न हो सकता है उसी प्रकार जागते में भी जो बातें हम देखते हैं उनका हर स्थान पर और हर किसी से उल्लेख नहीं करना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि इससे संकट उत्पन्न हो जाए।
घर और समाज के वातावरण में ईर्ष्या का ख़तरा, एक गंभीर विषय है और बहुत सी बातों को छिपाकर अनेक समस्याओं को रोका जा सकता है।,

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या छह

और इस प्रकार तुम्हारा पालनहार तुम्हारा चयन कर लेगा और सपनों की व्याख्या का ज्ञान तुम्हें सिखा देगा अपनी विभूतियां तुम पर और याक़ूब के परिवार पर पूरी कर देगा जिस प्रकार से कि उसने इससे पूर्व तुम्हारे पिताओं इब्राहीम और इसहाक़ पर अपनी विभूतियां पूरी कर दी थीं। निश्चित रूप से तुम्हारा पालनहार अत्यंत ज्ञानी और तत्वदर्शी है। (12: 6)

हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम अपने पुत्र को नसीहत जारी रखते हुए कहते हैं कि भविष्य में ईश्वर तुम्हें अपना पैग़म्बर बनाएगा और इस प्रकार हमारे परिवार पर अपनी विभूतियों को पूरा कर देगा। इसके अतिरिक्त वह तुम्हें सपनों की व्याख्या का ज्ञान भी प्रदान करेगा ताकि तुम लोगों को सपनों की वास्तविकताओं से अवगत करा सको।
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की यह भविष्यवाणी, ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर थी कि जो ईश्वर अपने पैग़म्बरों को प्रदान करता है और उन्हें भविष्य की बातों से अवगत करा देता है। इसके अतिरिक्त वे अपने पुत्र के स्वप्न से भी यह बात समझ सकते थे।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर मनुष्यों के बीच से सबसे उत्तम लोगों को अपनी पैग़म्बरी के लिए चुनता है और उन्हें आवश्यक ज्ञान प्रदान करता है ताकि वे लोगों के मार्गदर्शन का माध्यम बनें।
अपने परिवार में पैग़म्बरी जारी रखने के संबंध में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना को ईश्वर ने स्वीकार कर लिया था और उनके वंश में हज़रत इसहाक़ और हज़रत इस्माईल जैसे पैग़म्बर जन्में जिससे इस परिवार की पवित्रता का पता चलता है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 7-10,

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या सात और आठ

निश्चित रूप से यूसुफ़ और उनके भाईयों के वृत्तांत में (वास्तविकता की) खोज में रहने वालों के लिए (मार्गदर्शन) की निशानियां हैं। (12:7) उस समय कि जब (यूसुफ़ के भाईयों ने) कहा कि यूसुफ़ और उनके भाई (बिनयामिन) हमारे पिता के निकट हमसे अधिक प्रिय हैं जबकि हम अधिक शक्तिशाली हैं। निसंदेह हमारे पिता खुली हुई पथभ्रष्टता में हैं। (12:8)

 क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार हज़रत यूसुफ़ की घटना एक स्वप्न से आरंभ होती है जिसमें भविष्य में उनके उच्च स्थान की ओर संकेत किया गया है किन्तु इस स्थान की प्राप्ति सरल नही है बल्कि इसके लिए अनेक उतार चढ़ाव से गुज़रना होगा। वास्तविकता की खोज में रहने वालों को इस पर ध्यान देते हुए इससे पाठ सीखना चाहिए।
जो कुछ पिछली आयत में कहा गया है वह हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के स्वप्न के बारे में था किन्तु उनके जागने के पश्चात घटना एक दूसरे ढंग से आरंभ होती है। यूसुफ़ के भाईयों को, जो उनके सौतेल भाई थे, उनसे और उनके सगे भाई बिनयामिन से ईर्ष्या होने लगी। वे यूसुफ़ और उनके भाई से पिता के स्वाभाविक प्रेम को देखकर ईर्ष्या करने लगे और कहने लगे कि पिता उन दोनों को हमसे अधिक चाहते हैं जबकि हम शक्तिशाली युवा हैं, इस दृष्टि से पिता भूल कर रहे हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद में वर्णित बातों से केवल वही लोग लाभान्वित होते हैं जो वास्तविकता की खोज में रहते हैं।
अपने बच्चों के प्रति अपने व्यवहार की ओर से सतर्क रहना चाहिए क्योंकि यदि उन्हें भेदभाव का आभास हुआ तो ईर्ष्या की ज्वाला उनके अस्तित्व को अपने घेरे में ले लेगी।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 9

(यूसुफ़ के भाइयों ने एक दूसरे से कहा कि) यूसुफ़ की हत्या कर दो या उसे दूर किसी स्थान पर फेंक दो ताकि तुम्हारे पिता का ध्यान केवल तुम्हारी ओर रहे और इसके बाद तुम (अपने पापों से तौबा करके) भले लोग बन जाना। (12:9)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथ उनके पिता के प्रेमपूर्ण व्यवहार से भ्रांति ने उनके भाइयों को इस सीमा तक पहुंचा दिया कि वे यह सोचने लगे कि उन्हें किसी प्रकार मार्ग से हटा दिया जाए ताकि पिता का ध्यान हमारी ओर आकृष्ट हो जाए फिर बाद में हम तौबा कर लेंगे और ईश्वर हमें क्षमा कर देगा और हम भले लोगों में शामिल हो जाएंगे।
उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि तौबा पाप करने के बहाने का नहीं बल्कि पाप से पश्चाताप का नाम है। यदि कोई मनुष्य यह कहे कि मैं अभी पाप कर लेता हूं और भविष्य में तौबा कर लूंगा तो वह केवल अपने आपको धोखा देता है, उस व्यक्ति की भांति जो यह कहे कि मैं अभी यह विषाक्त भोजन खा लेता हूं और बाद में चिकित्सक के पास चला जाऊंगा और वह मेरा उपचार कर देगा।
प्रत्येक दशा में यूसुफ़ की हत्या या उन्हें किसी दूरवर्ती मरुस्थल में छोड़ने की योजना, एक शैतानी विचार और यूसुफ़ से उनके भाइयों की गहरी ईर्ष्या को दर्शाती थी। यह बात सभी परिवार के लिए ख़तरे की घंटी और माता पिता के लिए चेतावनी हो सकती है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईर्ष्या, मनुष्य को अपने भाई की हत्या की सीमा तक ले जा सकती है। केवल हज़रत यूसुफ़ और उनके भाइयों के मामले में ही नहीं बल्कि हाबील और क़ाबील के मामले में ईर्ष्या के कारण एक भाई ने दूसरे भाई की हत्या कर दी।
बच्चे माता पिता की दृष्टि में प्रिय बनना चाहते हैं और प्रेम का आभाव एक बहुत बड़ा ख़तरा है जो उन्हें सही मार्ग से भटका सकता है।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 10

उनमें से एक ने कहा कि यदि तुम करना चाहते हो तो यूसुफ़ की हत्या न करो और उसे कुंए की अधंकारमयी गहराईयों में फेंक दो कि शायद कोई कारवां उसे उठा ले जाए। (12:10)

चूंकि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के कुछ भाइयों में ईर्ष्या कम और कुछ में अधिक थी अतः उनके कुछ भाईयों ने उनकी हत्या की योजना का विरोध किया। उनमें से एक ने कहा कि यूसुफ़ की हत्या की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे एक कुंए में डाल देना काफ़ी होगा जिससे हमारी समस्या का समाधान हो जाएगा और हम अपने भाई के ख़ून से अपने हाथों को भी नहीं रंगेंगे। यूसुफ़ भी कुंए में सुरक्षित रहेगा और पानी निकालने के लिए आने वाला कोई कारवां उसे कुएं से बाहर निकाल लेगा।
इस योजना पर सभी भाइयों ने सहमति जताई और इस प्रकार हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मौत से बच गए। विचित्र बात यह है कि कभी कभी बुराई के रोकने का कोई आदेश कि जिसके कारण किसी की जान बच गई हो, इतिहास के महान परिवर्तनों का कारण बना है। इस घटना में एक भाई के विरोध के कारण हज़रत यूसुफ़ की जान बच गई, हज़रत यूसुफ़ ने सत्ता में आने के बाद मिस्र को सूखे और पतन से मुक्ति दिलाई।
इसी प्रकार फ़िरऔन की पत्नी ने उसे हज़रत मूसा की हत्या से रोका और उसकी जान बचाई। आगे चलकर हज़रत मूसा ने बनी इस्राईल को फ़िरऔन के अत्याचारों से मुक्ति दिलाई। यह स्पष्ट उदाहरण क़ुरआने मजीद की इस आयत की पुष्टि करते हैं कि जिस किसी ने एक व्यक्ति को जीवन दिया तो मानो उसने समस्त मनुष्यों को जीवन दिया।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम पूर्ण रूप से किसी बुरे काम को नहीं रोक सकते तो जितना संभव हो उसे कमज़ोर बना देना चाहिए, जैसा कि हज़रत यूसुफ़ के एक भाई ने कहा कि उनकी हत्या करने के बजाए उन्हें कुएं में डाल दो।
ग़लत काम में बहुसंख्या के सामने नहीं झुकना चाहिए बल्कि अपना विचार प्रस्तुत करना चाहिए कि शायद उसे स्वीकार कर लिया जाए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 11-15,

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या ग्यारह और बारह

(यूसुफ़ के भाईयों ने) कहा, हे पिता आपको क्या हो गया है कि हमें यूसुफ़ के संबंध में अमानतदार नहीं समझते? जबकि हम उसके शुभ चिंतक हैं। (12:11) कल उसे हमारे साथ भेजिए ताकि वह (हमारे साथ मरुस्थल में) खेले और निश्चित रूप से हम उसकी रक्षा करने वाले हैं। (12:12)

हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने आरंभ में उनकी हत्या करने का निर्णय किया किन्तु बाद में अपने निर्णय को बदल कर उन्हें कुएं में छिपाने की योजना बनाई। उन्होंने यूसुफ़ को पिता से अलग करने के लिए एक षड्यंत्र रचा और अपने पिता से कहा कि आप यूसुफ़ को हमसे अलग क्यों रखते हैं। उसे हमारे साथ भेजिए ताकि जब हम वहां काम कर रहे हों तो वह मरुस्थल में खेले कूदे।
खेल कूद की आवश्यकता ऐसा सशक्त तर्क था जिसके माध्यम से यूसुफ़ के भाइयों ने उन्हें अपने पिता से अलग करने के लिए तैयार कर लिया क्योंकि मनोरंजन और खेलकूद हर बच्चे और युवा की आवश्यकता है। यही कारण था कि हज़रत याक़ूब ने अनिच्छा के बावजूद यूसुफ़ को उनके साथ भेजने का विरोध नहीं किया।
इस आयत से हमने सीखा कि हर दावे पर भरोसा नहीं करना चाहिए और हर नारे के धोखे में नहीं आना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने जो उन्हें क्षति पहुंचाना चाहते थे स्वयं को उनका हितैषी और शुभ चिंतक बनाकर प्रस्तुत किया।
ईर्ष्या इस बात का कारण बनती है कि मनुष्य अपने निकटतम लोगों से भी झूठ बोले और उन्हें धोखा दे।
युवा को मनोरंजन और खेल कूद की आवश्यकता होती है किन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि दूसरे इससे अनुचित लाभ न उठाएं।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 13
(याक़ूब ने) कहा, मुझे इस बात से दुख है कि तुम उसे अपने साथ लिए जा रहे हो और मुझे इस बात का भय है कि उसे भेड़िया खा ले और तुम उसकी ओर से निश्चेत रहो। (12:13)
यद्यपि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ईश्वर के पैग़म्बर थे किन्तु यूसुफ़ के लिए पिता ही थे और पुत्र के प्रति पिता का प्रेम इस बात की मांग करता था कि वे यूसुफ़ को स्वयं से अलग न करें किन्तु इसी के साथ यूसुफ़ एक बालक थे जिन्हें धीरे धीरे अपने पैरों पर खड़ा होना था, अतः उन्होंने इस बात की अनुमति दे दी कि वे अपने भाइयों के साथ खेलने के लिए मरुस्थल जाएं।
दूसरे शब्दों में संतान के लिए ख़तरे की आशंका, उसे घर में बंद करने का कारण नहीं बनना चाहिए बल्कि स्वाधीनता, प्रशिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है और संतान से प्रेम के बावजूद माता पिता को अवश्य ही उसका मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। ऐसे अवसरों पर जहां ख़तरों का आभास हो, संतान को सावधान कर देना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि बच्चे के प्रशिक्षण में दो सिद्धांतों को दृष्टिगत रखना चाहिए, प्रथम उसकी स्वाधीनता का मार्ग प्रशस्त करना और दूसरे उसे ख़तरों से सावधान करते रहना।
ख़तरों से निश्चेतना, क्षति उठाने का कारण बनती है और कभी कभी उसकी क्षतिपूर्ति संभव नहीं होती।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 14
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि यदि हम शक्तिशाली लोगों के होते हुए भेड़िये ने उसे खा लिया तो उस स्थिति में हम घाटा उठाने वालों में होंगे। (12:14)
यूसुफ़ को मार्ग से हटाने का षड्यंत्र रचने वाले उनके भाइयों ने अपने पिता की ओर से ख़तरे की आशंका जताए जाने के उत्तर में केवल अपनी शक्ति पर भरोसा किया और कहा कि वे हर प्रकार के ख़तरे से यूसुफ़ की रक्षा करेंगे। इस प्रकार से उन्होंने अपने पिता को यूसुफ़ को साथ न भेजने से रोक दिया।
किन्तु स्पष्ट है कि किसी का सशक्त होना, उसके अमानतदार होने का तर्क नहीं हो सकता। यूसुफ़ के भाई शक्तिशाली थे किन्तु वे उन्हें क्षति पहुंचाना चाहते थे जिसका हज़रत याक़ूब को आभास हो गया था किन्तु उनके पास अपनी बात सिद्ध करने के लिए कोई प्रमाण नहीं था।
इस आयत से हमने सीखा कि प्रायः युवाओं को अपनी शक्ति पर घमंड होता है और वे ख़तरों को गंभीरता से नहीं लेते, जबकि बड़े लोग ख़तरों के संबंध में अधिक संवेदनशील होते हैं।
कुछ लोग अपने घृणित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कोई भी काम करने के लिए तैयार रहते हैं और झूठ तथा धोखे द्वारा अपनी मर्यादा को ख़तरे में डाल देते हैं।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की 15वीं आयत
तो जब वे यूसुफ़ को अपने साथ ले गए और सब इस बात पर एकमत हो गए कि उसे कुएं की गहराइयों में डाल दें तो हमने उसकी ओर अपना विशेष संदेश वहि भेजा (और कहा कि घबराओ मत) भविष्य में तुम इन्हें इनके इस काम से अवगत कराओगे जबकि इन्हें कुछ भी पता नहीं होगा। (12:15)

अंततः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई उन्हें उनके पिता से अलग करके अपने साथ ले गए और जैसा कि उन्होंने पहले से योजना बना रखी थी उन्हें कुएं में डाल दिया किन्तु पानी में नहीं बल्कि कुएं की दीवार के साथ बने हुए एक ताक़ पर उतार दिया ताकि वे प्यास से भी न मरें और पशुओं के ख़तरे तथा मरुस्थल की सर्दी और गर्मी से भी सुरक्षित रहें। इसके अतिरिक्त व्यापारिक कारवानों के वहां आने पर वे उनकी सहायता से मुक्ति प्राप्त कर सकते थे।
इस स्थिति में ईश्वर ने, यूसुफ़ को जिनकी आयु बहुत अधिक नहीं थी और संभावित रूप से एकांत और कुएं के अंधकार से भयभीत हो सकते थे, सांत्वना दी और अपने विशेष संदेश के माध्यम से उनसे कहा कि इस बात से दुखी मत हो कि उन्होंने तुम्हें इस कुएं में डाल दिया है। शीघ्र ही ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी कि यही लोग तुम्हारे पास आएंगे और तुम इन्हें इनके इस बुरे कर्म से अवगत कराओगे।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय संदेश केवल पैग़म्बरों से विशेष नहीं है बल्कि वह अपने अन्य पवित्र बंदों के पास भी अपना संदेश भेजता है। उस समय हज़रत यूसुफ़ पैग़म्बर नहीं बने थे किन्तु ईश्वर ने उनके पास अपना संदेश भेजा।
भविष्य के प्रति आशा, जीवन जारी रखने के लिए सबसे बड़ी पूंजी है। ईश्वर ने अपने संदेश द्वारा यूसुफ़ को अपने जीवन के प्रति आशावान बना दिया है।
कठिनाइयों और संकटों में ईश्वर की दया व कृपा की ओर से आशावान रहना चाहिए और किसी भी स्थिति में निराश नहीं होना चाहिए।

सूरए यूसुफ़, आयतें 16-18, 


और (यूसुफ़ के भाई) रात के समय रोते हुए अपने पिता के पास आए। (12:16)

 हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने अपने षड्यंत्र को व्यवहारिक बनाया और उन्हें एक कुएं में डाल दिया और फिर लौट आए। स्वाभाविक सी बात थी कि उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम सबसे पहले हज़रत यूसुफ़ के बार में प्रश्न करते। यूसुफ़ के भाई रोते हुए ही घर में प्रविष्ट हुए ताकि स्वयं को अपने पिता का शुभचिंतक दर्शाएं और उनके मन से किसी भी प्रकार के षड्यंत्र की संभावना को समाप्त कर दें।
इस आयत से हमने सीखा कि हर किसी के आंसूओं पर भरोसा नहीं करना चाहिए, संभव है कि कुछ मिथ्याचारी आंसू बहाकर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करना चाहें।
भावनाओं को भड़काना और रोने जैसे भावनात्मक हथकंडों का प्रयोग, षड्यंत्रकारियों की शैलियों में से एक है।
 
सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 17 

(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि हे पिता! हम दौड़ की प्रतियोगिता करने के लिए गए और यूसुफ़ को अपने सामान के पास छोड़ दिया तो भेड़िए ने उसे खा लिया और आप तो हमारी बात का विश्वास नहीं करेंगे, चाहे हम सच्चे ही क्यों न हों। (12:17)

हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने बनावटी आंसूओं के साथ ही एक बड़ा झूठ भी गढ़ा उन्होंने कहा कि जब हम खेलने गए तो यूसुफ़ सामान के पास रह गए और चूंकि वे अकेले थे इस लिए भेड़िए ने उन्हें खा लिया। जबकि वे यह बात भूल गए कि वे यूसुफ़ को खेलकूद के लिए ही अपने पिता के पास से ले गए थे और तय यह था कि यूसुफ़ उनके साथ मरुस्थल में खेलने के लिए जाए न यह कि उनके भाई खेलें और वे सामान की रखवाली करें।
यूसुफ़ के भाइयों ने झूठ बोलने पर ही संतोष नहीं किया बल्कि उन्होंने अपने पिता पर आरोप लगाया कि उन्हें उन पर भरोसा नहीं है। उन्होंने कहा कि हम सच कह रहे हैं किन्तु आप हमारी बातों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं, आपको हम पर भरोसा नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि कभी कभी एक झूठ कई झूठों का कारण बनता है। यूसुफ़ के भाइयों ने अपनी ग़लती को छिपाने के लिए कई झूठ बोले और अपने काम के परिणाम के बारे में यह नहीं सोचा कि इससे उनका अपमान हो सकता है।
झूठा व्यक्ति इस बात पर आग्रह करता है कि लोग उसे सच्चा समझें क्योंकि उसे सच्चाई के सामने आने का भय रहता है।

सूरए यूसुफ़ की आयत संख्य 18 
और (यूसुफ़ की) क़मीस में झूठा ख़ून लगा कर अपने पिता के पास ले आए। उन्होंने कहा (ऐसा नहीं है कि यूसुफ़ को भेड़िया खा गया हो) बल्कि तुम्हारी (शैतानी) इच्छाओं ने इस को सजा संवार कर तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत कर दिया अतः अब भले प्रकार से धैर्य व संयम से काम लेना आवश्यक है और जो कुछ तुम कह रहे हो उसके बारे में मैं ईश्वर से सहायता चाहता हूं। (12:18)

यूसुफ़ के भाईयों ने अपनी झूठी कहानी को आगे बढ़ाते हुए कि जो रोने धोने से आरंभ हुई थी, हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वस्त्र में एक पशु का रक्त लगा कर उसे अपने पिता के समक्ष प्रस्तुत कर दिया और इसे भेड़िए द्वारा यूसुफ़ को खा लेने के अपने दावे का ठोस प्रमाण बताया।
किन्तु हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम जो ईश्वर के पैग़म्बर थे, वास्तविकता से अवगत थे और जानते थे कि हज़रत यूसुफ़ जीवित हैं, उन्होंने अपने पुत्रों के धोखे में आए बिना कहा कि यह सब तुम लोगों की ईर्ष्या का परिणाम है। यूसुफ़ से ईर्ष्या के कारण ही तुम लोगों ने यह घृणित कार्य किया और मुझे उससे अलग कर दिया। तुम यह सोच रहे थे कि यूसुफ़ को मुझसे दूर करके उसे क्षति पहुंचाओगे जबकि यूसुफ़ के अतिरिक्त तुमने मुझे भी ऐसा दुख दे दिया है कि ईश्वर की सहायता के बिना मुझे धैर्य नहीं आएगा।
हज़रत याक़ूब की ओर से अपने बेटों के विरुद्ध और यूसुफ़ की खोज के लिए कोई कार्यवाही न किए जाने का कारण शायद वह स्वप्न था जो हज़रत यूसुफ़ ने उन्हें बताया था और उसके आधार पर वे जानते थे कि उनका पुत्र जीवित भी है और सुरक्षित भी और साथ ही बहुत उच्च स्थान तक पहुंचेगा, इसी कारण उन्होंने केवल अपने संबंध में अप्रसन्नता प्रकट की और कहा कि ईश्वर मुझे धैर्य प्रदान करे कि मैं यूसुफ़ के विरह को सहन कर सकूं।
इस आयत से हमने सीखा कि आंतरिक इच्छाएं, मनुष्य की दृष्टि में पापों को भी सुंदर बना कर प्रस्तुत करती हैं और पाप का औचित्य दर्शाने का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
सभी घटनाएं एक आयाम से ईश्वरीय परीक्षाएं होती हैं और हमें अपनी तैयारी के साथ धैर्य और संयम का प्रदर्शन करना चाहिए।
भला संयम यह है कि मनुष्य को दुखों और कठिनाइयों के बावजूद अनुकंपाओं के प्रति कृतघ्न नहीं होना चाहिए बल्कि ईश्वर से सहायता मांगते रहना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 19-22, (
और एक कारवां वहां पहुंचा तो उन लोगों ने अपने पानी भरने वाले को भेजा तो जब उसने अपना डोल डाला तो पुकार उठा, अरे शुभ सूचना! यह तो एक बालक है। और उन लोगों ने उसे माल समझ कर छिपा लिया (ताकि कोई उस पर स्वामित्व का दावा न करे) और जो कुछ वे कर रहे थे ईश्वर उससे भलि भांति अवगत था। (12:19) और उन्होंने उसे बहुत ही कम दाम पर कुछ दिरहमों में बेच दिया और उन्हें उससे कोई विशेष लगाव नहीं था। (12:20)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें कुएं में डाल दिया और उनकी क़मीस को झूठे रक्त में रंगा और फिर रोते हुए अपने पिता के पास आए और उन्हें बताया कि यूसुफ़ को भेड़िया खा गया और इस संबंध में अपने को दुखी दर्शाने लगे।


आइये अब देखते हैं कि यूसुफ़ का क्या बना। वे कुछ समय तक कुएं में पड़े रहे, यहां तक कि एक कारवां आया और उसने अपनी प्यास बुझाने के लिए कुएं में डोल डाला। हज़रत यूसुफ़ ने डोल की रस्सी पकड़ ली और ऊपर आ गए। कारवां वालों ने उन्हें दास समझा जिसे मंडी में बेचकर धन कमाया जा सकता था।
उन्होंने इस भय से कि कहीं कोई यूसुफ़ को पहचान कर उन पर अपने स्वामित्व का दावा न कर दे, उन्हें अपने सामान में छिपा दिया और फिर बाज़ार में जा कर बहुत सस्ते दामों में उन्हें बेच दिया क्योंकि उन्हें प्राप्त करने के लिए कारवां वालों को न तो कोई कष्ट उठाना पड़ा और न ही कोई राशि ख़र्च करनी पड़ी थी। कभी कभी ऐसा होता है कि जिस वस्तु को मनुष्य सरलता से प्राप्त करता है उसे सरलता से गंवा भी देता है और उसके मूल्य को नहीं समझता।
इन आयतों से हमने सीखा कि कभी कभी मनुष्य के निकटवर्ती लोग ही उसे समस्याओं के कुएं में ढकेल देते हैं किन्तु ईश्वरीय कृपा इस बात का कारण बनती है कि अनजान लोग उसे मुक्ति दें, चाहे उनका लक्ष्य उसे मुक्ति देना न हो।
कुछ लोग मनुष्यों को सामान समझते हैं और उसके मानवीय आयामों की ओर से अनभिज्ञ रहते हैं।
 सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 21 

और मिस्र के जिस व्यक्ति ने उसे ख़रीदा था उसने अपनी पत्नी से कहा कि इसे आदर सत्कार के साथ रखना, हो सकता है कि यह भविष्य में हमें लाभ पहुंचाए या हम इसे अपना बेटा ही बना लें। और इस प्रकार हमने यूसुफ़ को (मिस्र की उस) धरती में स्थान दिया और उन्हें सपनों की व्याख्या का ज्ञान प्रदान किया। और ईश्वर को अपने मामले पर पूरा अधिकार है किन्तु अधिकांश लोग इसे नहीं समझते। (12:21)

जब कारवां वालों ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को बेचने के लिए मंडी में रखा तो मिस्र के दरबार के एक प्रतिनिधि ने उन्हें ख़रीद लिया और शासक के पास ले गया। मिस्र का शासक उन्हें अपने घर ले गया ताकि वे घर का काम काज भी करें और उसकी पत्नी का दिल भी बहलाएं क्योंकि उनकी कोई संतान नहीं थी और अब उन्हें संतान की कोई आशा भी नहीं रह गई थी।
इस स्थान पर ईश्वर कहता है कि मिस्र के शासक के घर में यूसुफ़ के आने से उनके सत्ता में आने और जो कुछ उन्होंने स्वप्न में देखा था उसके व्यवहारिक होने का मार्ग प्रशस्त हो गया।
इस आयत से हमने सीखा कि लोगों के हृदय ईश्वर के हाथ में हैं, यूसुफ़ का प्रेम मिस्र के शासक के हृदय में इस प्रकार बस गया कि वह उन्हें अपने बच्चे के समान चाहने लगा, जबकि विदित रूप से वे एक दास के अतिरिक्त कुछ नहीं थे।
ईश्वर की परंपरा है कि कठिनाइयों के बाद सुख प्रदान करता है। जैसा कि ईश्वर ने यूसुफ़ को कुएं की गहराइयों से उठाकर सम्मान के शिखर तक पहुंचा दिया।


आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 22 की तिलावत सुनते हैं।
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُ آَتَيْنَاهُ حُكْمًا وَعِلْمًا وَكَذَلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِينَ (22)
और जब यूसुफ़ युवावस्था की सीमा को पहुंचे तो हमने उन्हें पैग़म्बरी और ज्ञान प्रदान किया और इस प्रकार हम भलाई करने वालों को बदला दिया करते हैं। (12:22)


हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की घटना में ईश्वर उनके आध्यात्मिक स्थान की ओर संकेत करते हुए कहता है कि वे मिस्र के शासक के घर में बड़े हुए किन्तु चूंकि वे भले व पवित्र व्यक्ति थे अतः जब वे पैग़म्बरी और ईश्वरीय ज्ञान जैसी विशेष ईश्वरीय कृपाएं प्राप्त करने के योग्य हो गये तो हमने उन्हें यह वस्तुएं प्रदान कर दीं। यह ईश्वरीय परंपरा है कि वह इस संसार में भले लोगों को भला बदला देता है।
जी हां! ईश्वर अपने पैग़म्बरों को समाज के लोगों के बीच से ही चुनता है और विभिन्न घटनाओं द्वारा उनकी परीक्षा लेता है ताकि उनमें इस महान दायित्व को ग्रहण करने की क्षमता उत्पन्न हो जाए और लोगों के बीच भी उनकी उपयोगिता सिद्ध हो जाए।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों के ज्ञान का एक भाग, अर्जित करने योग्य नहीं होता बल्कि ईश्वर की ओर से प्रदान होता है।
ईश्वर की ओर से प्राप्त होने वाले दायित्व के लिए ऐसी योग्यता की आवश्यकता होती है जिसकी लोगों में उपस्थिति के बारे में केवल ईश्वर को ज्ञान होता है।
केवल ज्ञान और शरीर संबंधी योग्यताएं ही ईश्वर की विशेष कृपाओं की प्राप्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि भला और पवित्र होना भी आवश्यक है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 23-24, (कार्यक्रम 380)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 23 की तिलावत सुनते हैं।
وَرَاوَدَتْهُ الَّتِي هُوَ فِي بَيْتِهَا عَنْ نَفْسِهِ وَغَلَّقَتِ الْأَبْوَابَ وَقَالَتْ هَيْتَ لَكَ قَالَ مَعَاذَ اللَّهِ إِنَّهُ رَبِّي أَحْسَنَ مَثْوَايَ إِنَّهُ لَا يُفْلِحُ الظَّالِمُونَ (23)


और जिस स्त्री के घर में यूसुफ़ थे उसने उन पर डोरे डाले और दरवाज़े बंद कर दिए और कहने लगी लो आओ। यूसुफ़ ने कहा, मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं, निश्चित रूप से मेरे पालनहार ने मुझे अच्छा ठिकाना प्रदान किया है और निसंदेह अत्याचारी कभी सफल नहीं होते। (12:23)

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि मिस्र के शासक ने किसी को दासों की मंडी में भेजा और हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने घर में सेवा के लिए ख़रीद लिया किन्तु जब उसने उनके सौंदर्य को देखा तो अपनी पत्नी से कहा कि इनका आदर सत्कार करो। इस प्रकार से हज़रत यूसुफ़ को उसके घर में विशेष सम्मान प्राप्त हो गया और उनके तथा अन्य दासों एवं सेवकों के बीच अंतर रखा जाने लगा।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को जिन्हें अपने भाइयों की उपेक्षा और तिरस्कार का सामना करना पड़ा था और उन्हें कुएं में डाल दिया गया था, मिस्र के शासक के घर में एक अन्य कड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ा। यह ऐसी परीक्षा थी जो हज़रत यूसुफ़ की आयु के किसी भी युवा को देनी पड़ सकती है और उसे कठिन अवसरों पर अपनी आंतरिक इच्छाओं को नियंत्रित रखने के लिए स्वयं को तैयार करना चाहिए।
मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा हज़रत यूसुफ़ पर मोहित हो गई और उसने उनसे कि जो उसके दास थे, अपनी वासना की पूर्ति करनी चाही। उसने एक दिन अपने आप को और यूसुफ़ को कमरे में बंद कर लिया और उनसे अपनी अवैध इच्छा की पूर्ति करनी चाही किन्तु हज़रत यूसुफ़ का उत्तर अत्यंत स्पष्ट था। उन्होंने कहा कि यद्यपि मैं तेरा दास हूं किन्तु उससे पहले मैं ईश्वर का दास हूं और मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं कि इस प्रकार का पाप करूं।
हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि किस प्रकार मैं तेरी इच्छा को ईश्वर की इच्छा पर प्राथमिकता दे सकता हूं। ईश्वर ने ही मुझे कुएं की गहराईयों से मिस्र के दरबार तक पहुंचाया और मुझे सम्मानित किया। मैं कदापि ऐसा काम नहीं कर सकता। और यदि मैंने ऐसा किया तो मैं अपने आप पर भी अत्याचार करूंगा और अपने मालिक अर्थात मिस्र के शासक पर भी क्योंकि उसने मुझे अमानतदार समझकर अपने घर में रखा है।
इस आयत से हमने सीखा कि काम वासना इतनी सशक्त होती है कि यदि इसे नियंत्रित न किया जाए वह मिस्र के शासक की पत्नी को एक दास के क़दमों में डाल देती है।
पुरुषों और महिलाओं का सीमा से अधिक मेलजोल, उनके बहकने का मार्ग प्रशस्त कर सकता है, घटना से पहले ही उसे रोकने का मार्ग खोज लेना चाहिए और पुरुषों और महिलाओं के अनुचित मेलजोल को रोक कर व्यभिचार पर अंकुश लगाना चाहिए।
ईश्वर का आज्ञापालन, लोगों की प्रसन्नता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर का आज्ञापालन, माता पिता, कार्यालय के अधिकारी और शासक सभी के आदेशों के पालन पर प्राथमिकता रखता है।
जब सारे द्वार बंद हो जाते हैं तो ईश्वर की दया का द्वार खुला रहता है और पाप से बचने के लिए ईश्वर की शरण में जाया जा सकता है ताकि वह मनुष्य की मुक्ति के लिए कोई मार्ग खोल दे।


आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 24 की तिलावत सुनते हैं।
وَلَقَدْ هَمَّتْ بِهِ وَهَمَّ بِهَا لَوْلَا أَنْ رَأَى بُرْهَانَ رَبِّهِ كَذَلِكَ لِنَصْرِفَ عَنْهُ السُّوءَ وَالْفَحْشَاءَ إِنَّهُ مِنْ عِبَادِنَا الْمُخْلَصِينَ (24)
और निसंदेह उस स्त्री ने यूसुफ़ से बुराई का इरादा किया और यदि वे भी अपने पालनहार का तर्क न देख लेते तो उसकी ओर बढ़ते। इस प्रकार हमने ऐसा किया ताकि बुराई और अश्लीलता को उनसे दूर रखें कि निश्चित रूप से यूसुफ़ हमारे चुने हुए बंदों में से थे। (12:24)


पिछली आयतों में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ओर से कठिन और कड़ी परिस्थिति में ईश्वर की शरण चाहने की ओर संकेत के बाद इस आयत में कहा गया है कि यदि उनका ध्यान ईश्वर और उसकी सहायता की ओर न होता तो स्वाभाविक रूप से वे भी पाप की ओर उन्मुख हो जाते किन्तु यूसुफ़ के हृदय में ईमान की जो ज्योति प्रकाशमान थी वह सबसे उत्तम तर्क थी और उसी ने उन्हें इस बुरे कर्म से रोके रखा।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम यदि अपनी विदित बुद्धि पर भरोसा करते तो बड़ी सरलता से कह सकते थे कि मैंने उससे किसी बात की इच्छा नहीं जताई है और वह मेरी मालकिन है तथा मेरा अधिकार उसके हाथ में है तो यदि मैं उसकी बात मान लूं तो मैं दास होने के अपने कर्तव्य का पालन करूंगा।
किन्तु ईमान की शक्ति, बुद्धि की शक्ति से कहीं अधिक सशक्त होती है। बुद्धि आंतरिक इच्छाओं से संघर्ष में बहुत जल्दी घुटने टेक देती है किन्तु ईश्वर पर ईमान की शक्ति इतनी मज़बूत होती है कि उसके माध्यम से केवल व्यभिचार ही नहीं बल्कि हर प्रकार की अनैतिक आंतरिक इच्छाओं के समक्ष डटा जा सकता है और सफल भी हुआ जा सकता है।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम वास्तव में और मन की गहराइयों से ईश्वर की शरण में जाएं तो ईश्वर अवश्य ही हमारी सहायता करता है और यदि ईश्वरीय सहायता न हो तो हर किसी के पांव लड़खड़ा सकते हैं।
ईश्वर की उपासना में निष्ठा के फल, प्रलय के अतिरिक्त इस संसार में भी मिलते हैं जिनमें जीवन के कठिन अवसरों पर ईश्वरीय सहायता की प्राप्ति शामिल है।
सामान्य लोगों की भांति पैग़म्बरों की भी इच्छाएं होती हैं और उन्हें भी पाप में ग्रस्त होने का ख़तरा होता है किन्तु ईश्वर पर दृढ़ ईमान के चलते वे पाप में ग्रस्त नहीं होते और ईश्वर उन्हें पापों और बुराइयों से बचाए रखता है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 25-27, (कार्यक्रम 381)
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 25 की तिलावत सुनते हैं।
وَاسْتَبَقَا الْبَابَ وَقَدَّتْ قَمِيصَهُ مِنْ دُبُرٍ وَأَلْفَيَا سَيِّدَهَا لَدَى الْبَابِ قَالَتْ مَا جَزَاءُ مَنْ أَرَادَ بِأَهْلِكَ سُوءًا إِلَّا أَنْ يُسْجَنَ أَوْ عَذَابٌ أَلِيمٌ (25)

और (यूसुफ़ तथा मिस्र के शासक की पत्नी) दोनों दरवाज़े की ओर दौड़े। उस महिला ने यूसुफ़ के कुर्ते को पीछे से फाड़ दिया, इसी समय उन दोनों ने उसके पति को द्वार पर पाया। वह बोल पड़ी जो तुम्हारी पत्नी के संबंध में बुरी नीयत रखे उसका बदला इसके अतिरिक्त क्या है कि उसे कारावास में डाल दिया जाए या कड़ी यातना दी जाए? (12:25)

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम पर मोहित हो गई थी और अपनी वासना की पूर्ति करना चाहती थी। एक दिन उसने यूसुफ़ और स्वयं को एक कमरे में बंद कर लिया, यद्यपि सारे द्वार बंद थे किन्तु यूसुफ़ उसकी अनैतिक इच्छा के समक्ष नहीं झुके और दरवाज़े की ओर भागे कि शायद बचने का कोई मार्ग निकल आए।
ज़ुलैख़ा भी यूसुफ़ को रोकने के लिए उनके पीछे भागी और उनके कुर्ते को पीछे से पकड़ लिया किन्तु हज़रत यूसुफ़ रुके नहीं और इसी कारण उनका कुर्ता पीछे से फट गया। इसी बीच अचानक ही दरवाज़ा खुला और मिस्र का शासक दिखाई पड़ा। उसने उन दोनों से स्पष्टीकरण चाहा। इससे पूर्व कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कुछ कहते ज़ुलैख़ा बोल पड़ी और उसने यूसुफ़ पर बुरी नीयत का आरोप लगा कर उन्हें कारावास में डालने और कड़ी यातना देने की मांग की।
इस आयत से हमने सीखा कि केवल ज़बान से ईश्वर की शरण चाहना पर्याप्त नहीं है, व्यवहारिक रूप से भी पापों से दूर भागना चाहिए, चाहे सारे द्वार बंद ही क्यों न हों।
कभी कभी विदित रूप से कुछ कर्म एक समान दिखाई पड़ते हैं किन्तु उनके लक्ष्य विभिन्न होते हैं। यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा दोनों दौड़े थे किन्तु एक पाप करने के लिए और दूसरा पाप से बचने के लिए।
सदैव सचेत रहना चाहिए क्योंकि कभी कभी आरोप लगाने वाला ही अपराधी होता है और अपने को बचाने के लिए, दूसरों की भावनाओं से लाभ उठाता है।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 26 और 27 

यूसुफ़ ने कहा कि इसी ने मुझ पर डोरे डाले थे। इस पर उस महिला के परिजनों में से एक ने गवाही दी कि यदि यूसुफ़ का कुर्ता आगे से फटा हो तो वह सही कर रही है और यूसुफ़ झूठ बोलने वालों में से हैं। (12:26) और यदि उसका कुर्ता पीछे से फटा है तो वह झूठ बोल रही है और यूसुफ़ सच्चों में से है। (12:27)
ज़ुलैख़ा की ओर से हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम पर लांछन लगाए जाने के बाद उन्होंने अपना बचाव करते हुए स्वयं को हर प्रकार की बुरी नीयत से दूर बताया और कहा कि मैं ज़ुलैख़ा के संबंध में बुरी नीयत नहीं रखता था बल्कि वही मुझ पर डोरे डाल रही थी।
मिस्र का शासक जो दोनों पक्षों की बात सुन चुका था, इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता था कि उसकी पत्नी एक दास से अपनी कामेच्छा की पूर्ति चाहती है और दूसरी ओर वह भी नहीं मान सकता था कि एक दास में इतना दुस्साहस हो कि वह उसकी पत्नी को बुरी नज़र से देखे। यही कारण था कि वह असमंजस में था।
इसी बीच उसके एक बुद्धिमान सलाहकार ने या फिर पालने में लेटे हुए एक बच्चे ने जिसने यह सारी बातें सुनी थीं, कहा कि यदि यूसुफ़ की बुरी नीयत होती तो स्वाभाविक रूप से उनके और ज़ुलैख़ा के बीच झड़प होती और इस स्थिति में यदि यूसुफ़ का कुर्ता फटता तो आगे का फटता किन्तु यूसुफ़ का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है जो इस बात का प्रमाण है कि वे भाग रहे थे अतः ज़ुलैख़ा झूठ बोल रही है। रोचक बात यह है कि यह व्यक्ति या पैग़म्बरे इस्लाम के कथनानुसार एक शिशु जो स्वयं ज़ुलैख़ा के परिजनों में से था उसने उसके विरुद्ध निर्णय सुनाया।
यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा की घटना से हज़रत मरयम की घटना याद आ जाती है और समझ में आता है कि जो जितना अधिक पवित्र होता है, उतना ही अधिक उस पर आरोप लगता है। हज़रत मरयम अपने काल की सबसे पवित्र महिला थीं किन्तु उन पर भी ऐसा लांछन लगाया गया कि वे मृत्यु की कामना करने लगीं। हज़रत यूसुफ़ भी अपने काल के सबसे पवित्र मनुष्य थे किन्तु उन पर भी लांछन लगाया गया किन्तु दोनों अवसरों पर ईश्वर ने उत्तम ढंग से दोनों को निर्दोष सिद्ध कर दिया।
हज़रत यूसुफ़ की घटना में तीन स्थानों पर कुर्ते की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। पहली बार जब उन्हें कुएं में डाला गया और ख़ून से सने उनके कुर्ते को उनके पिता के पास ले जाया गया तो चूंकि कुर्ता फटा नहीं था इसलिए उनके भाइयों का यह झूठ खुल गया कि यूसुफ़ को भेड़िये ने खा लिया है। दूसरी बात इसी स्थान पर जब कुर्ते के पीछे से फटने के कारण उन्हें दोषमुक्त कर दिया गया और तीसरी बात घटना के अंत में जब उनके कुर्ते को नेत्रहीन हो चुके उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सालाम की आंखों पर डाला जाता है तो उनकी आंखें लौट आती हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि आरोप लगाए जाने की स्थिति में अपना बचाव करते हुए वास्तविक अपराधी को सामने लाना चाहिए, चाहे अपने बचने और उसके दंडित किए जाने की आशा न हो।
जब ईश्वर चाह लेता है तो अपराधी के परिजन भी उसके विरुद्ध गवाही देने लगते हैं।
फ़ैसला करते समय अपराध के चिन्हों की गहन समीक्षा करना आवश्यक है क्योंकि अभियोजक और अभियुक्त के बयानों के अतिरिक्त अपराध के लक्षणों की भी गहरी समीक्षा होनी चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 28-30, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 28 
तो जब मिस्र के शासक ने देखा कि यूसुफ़ का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है तो (वह वास्तविकता को समझ गया और उसने) कहा, निसंदेह यह तुम महिलाओं की चालों में से है और निश्चय की तुम्हारी चाल बड़ी गहरी होती है। (12:28)
पिछले कार्यक्रम में हमने बताया था कि भागते समय हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का कुर्ता ज़ुलैख़ा के हाथों से पीछे से फट गया और जब बात खुल गई तो ज़ुलैख़ा के एक परिजन ने फ़ैसला सुनाया कि यदि उनका कुर्ता पीछे से फटा हो तो वे निर्दोष हैं और ज़ुलैख़ा झूठ बोल रही है।
यह आयत कहती है कि मिस्र के शासक ने इस फ़ैसले के बाद देखा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का कुर्ता पीछे से फटा हुआ है कि जो उनके निर्दोष होने का प्रमाण है अतः उसने अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए कहा कि जो कुछ तुमने कहा वह मुझे धोखा देने और अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए था जबकि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए तुम महिलाओं की चालें बहुत गहरी होती हैं और मनुष्य को आश्चर्य में डाल देती हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य कभी छिपा नहीं रहता और अपराधी को एक न एक दिन अपमानित होना ही पड़ता है।
सत्य बात को स्वीकार कर लेना चाहिए चाहे वह हमारे अहित में ही क्यों न हो, जैसा कि मिस्र के शासक ने स्वीकार कर लिया कि यूसुफ़ निर्दोष हैं और उसकी पत्नी दोषी है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 29

(मिस्र के शासक ने) कहा, हे यूसुफ़ इस बात को जाने दो और तू (हे ज़ुलैख़ा) अपने इस पाप के कारण क्षमा मांग कि निश्चित रूप से तू पापियों में से है। (12:29)

इन आयतों से पता चलता है कि मिस्र का शासक वास्तविकताओं को स्वीकार करने वाला और न्यायप्रेमी व्यक्ति था क्योंकि जब उसकी समझ में आ गया कि यूसुफ़ निर्दोष हैं तो उसने कहा कि वे उसके और उसकी पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए इस बात का कहीं और उल्लेख न करें किन्तु उसने यह बात धमकी के स्वर में नहीं बल्कि निवेदन के रूप में कही।
दूसरी ओर उसने अपनी पत्नी को, जिसे वह दोषी पा चुका था, क्षमा मांगने का आदेश दिया कि जो ईश्वर की ओर से हिसाब किताब और पारितोषिक तथा दंड दिए जाने की व्यवस्था पर आस्था को दर्शाता है। अलबत्ता, दोषी पत्नी को केवल इतना ही शाब्दिक दंड नहीं देना चाहिए था बल्कि इस बुरे कर्म के लिए उसके साथ और कड़ा व्यवहार करना चाहिए था।
इस आयत से हमने सीखा कि दूसरों के किसी भी बुरे कर्म को देखने या सुनने के बाद हमें उसे अन्य लोगों को नहीं बताना चाहिए।
पुरुषों और महिलाओं के बीच बेलगाम संबंध, इतिहास के समस्त कालों में और सभी जातियों के बीच बुरे समझे जाते रहे हैं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या तीस 

नगर की महिलाओं ने (ज़ुलैख़ा की आलोचना करते हुए) कहा कि मिस्र के शासक की पत्नी अपने युवा दास पर डोरे डाल रही थी और उसका प्रेम उसके हृदय में घर कर चुका है और हम देख रहे हैं कि वह खुली हुई पथभ्रष्टता में है। (12:30)
यद्यपि मिस्र के शासक ने आदेश दिया था कि यह घटना लोगों के कान तक न पहुंचे किन्तु स्वाभाविक है कि शासकों के दरबारों में बहुत से लोग रहते हैं, उनमें से किसी ने यह बात दूसरों तक पहुंचा दी और फिर यह बात पूरे नगर में फैल गई। स्पष्ट है कि यह बात लोगों विशेष कर महिलाओं के लिए स्वीकार करने योग्य नहीं थी कि मिस्र के शासक की पत्नी एक दास से अपनी वासना की पूर्ति चाहती थी। अतः उन्होंने ज़ुलैख़ा की आलोचना आरंभ कर दी और उसे इस मामले में दोषी ठहराया।
अलबत्ता दूसरी ओर वे यह भी समझ गई थीं कि वह दास कोई साधारण व्यक्ति नहीं है और उसमें विशेष शारीरिक और नैतिक गुण होने चाहिए कि जिन पर ज़ुलैख़ा मंत्रमुग्ध हो गई थी, अतः वे भी अपने मन में यूसुफ़ को देखने की इच्छा रखती थीं और वे जो ताने दे रही थीं, उसका एक भाग ईर्ष्या के कारण था जो आलोचना के रूप में सामने आ रहा था।
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के जीवन में दो गुटों ने उनसे अत्यधिक प्रेम को पथभ्रष्टता का चिन्ह बताया। प्रथम उनके भाई थे जिन्होंने यूसुफ़ से अपने पिता के गहरे प्रेम को उनकी पथभ्रष्टता की निशानी बताया और कहा कि हम देखते हैं कि हमारे पिता खुली हुई पथभ्रष्टता में हैं और दूसरा गुट महिलाओं का था जिन्होंने यूसुफ़ से ज़ुलैख़ा के गहरे प्रेम के कारण कहा कि वह खुली हुई पथभ्रष्टता में है।
यद्यपि हज़रत यूसुफ़ से उनके पिता का प्रेम अत्यंत पवित्र और ईश्वरीय था और ज़ुलैख़ा का प्रेम अपवित्र और शैतानी था किन्तु इससे यह पता चलता है कि प्रेम का संबंध उन लोगों की समझ से परे है जो प्रेम में ग्रस्त नहीं हुए हैं और इसी लिए वे प्रेमी को पथभ्रष्ट कहते हैं, जिस प्रकार से ईश्वर के प्रेम में डूबे हुए उसके सच्चे प्रेमियों को बहुत से लोग पागल और बहका हुआ कहते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि पाप करने के लिए द्वार बंद करने के बावजूद अपमान का मार्ग खुला ही रहता है और पाप एक न एक दिन मनुष्य को अपमानित करके ही रहता है।
पुरुष, परिवार का ज़िम्मेदार होता है और परिवार के लोगों की ग़लतियों को उसी से संबंधित किया जाता है, जैसा कि इस घटना में लोगों ने मिस्र के शासक की पत्नी के रूप में ज़ुलैख़ा की आलोचना की।


सूरए यूसुफ़, आयतें 31-33, (कार्यक्रम 383)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 31 
तो जब (मिस्र के शासक की पत्नी ने) नगर की महिलाओं की आलोचना को सुना तो उन्हें बुला भेजा और उनके लिए भव्य सभा का आयोजन किया और (फल काटकर खाने के लिए) हर एक के हाथ में एक चाक़ू दे दिया। और (यूसुफ़ से) कहा कि इनके सामने से निकल जाओ। तो जैसे ही उन्होंने यूसुफ़ को देखा तो उन्हें बड़ा (ही सुंदर) पाया और अपने हाथों को काट लिया और बोल उठीं धन्य है ईश्वर! यह तो मनुष्य है ही नहीं बल्कि यह तो कोई भला फ़रिश्ता है। (12:31)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब मिस्र की महिलाओं ने सुना कि उनके शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा अपने दास पर मोहित हो गई है तो उन्होंने उसकी आलोचना की किन्तु साथ ही वे उस दास को देखना चाहती थीं कि वह कैसा है कि ज़ुलैख़ा रानी होने के बावजूद उस पर मोहित हो गई है।
दूसरी ओर ज़ुलैख़ा भी अपने काम का औचित्य और यूसुफ़ से प्रेम का कारण दर्शाने के प्रयास में थी अतः उसने मिस्र के दरबार की महिलाओं तथा अन्य प्रतिष्ठित महिलाओं को एक भव्य सभा में आमंत्रित किया और उनके खाने पीने का प्रबंध किया। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का सौंदर्य ऐसा था कि सारी महिलाएं आश्चर्यचकित रह गई और ईश्वर का गुणगान करने लगीं कि उसने इस प्रकार के सुंदर मनुष्य की रचना की है कि जो मनुष्य लगता ही नहीं और उसे फ़रिश्ता कहा जाना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि कभी कभी आलोचना, सद्भावना और शुभचिंतन के कारण नहीं बल्कि ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता के कारण होती है।
कभी कभी लोग काम के लिए दूसरों की आलोचना करते हैं किन्तु यदि उन्हें भी उसी परीक्षा से गुज़रना पड़े तो वे भी वही ग़लती करते हैं। मिस्र की महिलाएं जो ज़ुलैख़ा का परिहास कर रही थीं, यूसुफ़ को क्षण भर देख कर स्वयं भी स्तब्ध रह गईं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 32 
(ज़ुलैख़ा ने मिस्र की महिलाओं से) कहा, यह वही है जिसके कारण तुमने मेरी आलोचना की थी। और मैंने इसे रिझाने का प्रयास किया था किन्तु यह बच निकला। और जो कुछ मैं इसे आदेश दे रही हूं, उसका इसने पालन नहीं किया तो क़ैद कर दिया जाएगा और अपमानित भी होगा। (12:32)
यद्यपि ज़ुलैख़ा ने अपने पति के समक्ष यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को पापी और अपने को निर्दोष बताया था किन्तु जब उसने मिस्र की प्रतिष्ठित महिलाओं की प्रतिक्रिया देखी तो अपने कर्म को स्वीकार किया और कहा कि अब तो तुम ने भी मान लिया होगा कि मैं अकारण उस पर मोहित नहीं हूं और अब तुम मेरी आलोचना नहीं करोगी।
किन्तु इसके साथ ही यह भी जान लो कि यूसुफ़ ने मेरी इच्छा की पूर्ति नहीं की अतः मैं उसे जेल में डलवा दूंगी ताकि उसे पता चल जाए कि दास को अपने स्वामी के आदेश की अवमानना नहीं करनी चाहिए। विचित्र बात यह है कि इस स्थान पर ज़ुलैख़ा ने हज़रत यूसुफ़ की पवित्रता को भी स्वीकार किया और उन्हें कारावास में डालने का भी आदेश दिया ताकि दूसरों के लिए पाठ रहे और कोई उसके विरोध का साहस न करे।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 33
यूसुफ़ ने कहा, प्रभुवर मेरी दृष्टि में कारावास उस काम से अधिक प्रिय है जिसकी ओर मुझे ये बुला रही हैं। और यदि तूने मुझे इनकी चालों से न बचाया तो मैं इनकी ओर झुक सकता हूं और ऐसी स्थिति में मैं अज्ञानियों में से हो जाऊंगा। (12:33)
यद्यपि मिस्र के शासक को यूसुफ़ के निर्दोष होने का विश्वास था और उसकी पत्नी ने मिस्र की महिलाओं के समक्ष अपने पाप को स्वीकार भी किया था किन्तु उसने ज़ुलैख़ा के कहने पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को कारावास में डाल दिया। इससे पता चलता है कि अत्यधिक सुख और ऐश्वर्य, पुरुषार्थ को महिलाओं की वासना के अधीन बना देता है और ऐसे लोग जनता पर राज करते हैं।
किन्तु इसके मुक़ाबले में पवित्र लोग दूसरों की वासनाओं की पूर्ति करने के स्थान पर कारावास में जाने के लिए तैयार रहते हैं। वे ईश्वर की प्रसन्नता को अपनी और दूसरों की इच्छा पर प्राथमिकता देते हैं और कभी भी ईश्वर की अवज्ञा के मूल्य पर दूसरों की इच्छा को स्वीकार नहीं करते चाहे वह उनका अभिभावक ही क्यों न हो।
इस आयत से हमने सीखा कि नैतिक पवित्रता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इतिहास में बहुत से लोगों को अपनी नैतिक पवित्रता के कारण कारवास में जाना पड़ा है। इसके मुक़ाबले में यदि विदित रूप से स्वतंत्र रहना, अनेक मानवीय मान्यताओं को छोड़ने के मूल्य पर हो तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
पाप के वातावरण से दूर रहना मूल्यवान है चाहे इस मार्ग में कठिनाइयां सहन करनी पड़ें।
अज्ञानता केवल निरक्षरता का नाम नही है। अनैतिक और बेलगाम इच्छाओं का पालन भी अज्ञानता ही है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 34-36, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 34 
ईश्वर ने यूसुफ़ की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और उन्हें महिलाओं की चालों से दूर रखा। निसंदेह वह सबकी सुनने वाला और सबसे अधिक जानकार है। (12:34)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को ज़ुलैख़ा ने कारावास में डालने की धमकी दी और उन्होंने स्वयं भी ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें ज़ुलैख़ा की अनैतिक इच्छाओं से बचाने के लिए कुछ समय के लिए कारवास में भेज दे ताकि वे महिलाओं की चालों और वासनाओं से बच जाएं।
यह आयत कहती है कि ईश्वर ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और उन्हें महिलाओं की चालों से मुक्ति दिला दी। रोचक बात यह है कि यूसुफ़ को कारावास में डालना, ज़ुलैख़ा की इच्छा थी जो उसके आदेश पर पूरी भी हुई किन्तु यह आयत कहती है कि उनका जेल में जाना, उनकी इच्छा थी जो ईश्वर ने पूरी की।
मानो क़ुरआने मजीद यह कह रहा है कि यद्यपि ज़ुलैख़ा यूसुफ़ को कारवास में डालना चाहती थी किन्तु यदि ईश्वर की इच्छा न होती तो यह काम न होता। यह ईमान वालों के लिए बड़ा पाठ है कि शत्रुओं की चालें और हथकंडे, ईश्वर की इच्छा के बिना व्यवहारिक नहीं हो सकते। अतः उसी पर भरोसा करना चाहिए ताकि वह शत्रुओं के षड्यंत्रों को विफल बना दे।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि हम स्वयं को बुराइयों से दूर रखना चाहें तो ईश्वर उसका मार्ग प्रशस्त कर देता है और हमारी इच्छा की पूर्ति करता है।
ज़ुलैख़ा यूसुफ़ को दंडित करने के लिए उन्हें कारावास में डलवा देना चाहती थी किन्तु हज़रत यूसुफ़ की दृष्टि में कारावास, पाप और ईश्वर की अवज्ञा से बचने का साधन था।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 35 
फिर( यूसुफ़ की पवित्रता के) चिन्ह देखने के बाद उनके मन में विचार आया कि कुछ अवधि के लिए उन्हें कारावास में डाल दिया जाए। (12:35)
अत्याचारी शासन व्यवस्था की विशेषताओं में से एक यह है कि हर बात शासकों और दरबारियों की वैध या अवैध इच्छाओं के आधार पर होती है और आम जनता को शासकों का दास समझा जाता है, इस प्रकार से कि शासकों को यह अधिकार होता है कि जनता के बारे में जो चाहें निर्णय करें। उनके निर्णय के सही या ग़लत होने की कोई बात ही नहीं होती।
हज़रत यूसुफ़ और ज़ुलैख़ा के मामले में भी सब को ज्ञात हो गया कि दोष ज़ुलैख़ा का है यहां तक कि उसने यूसुफ़ के निर्दोष होने की बात लोगों के बीच स्वीकार भी की किन्तु अंततः मिस्र के शासक के दरबार वालों ने निर्णय किया कि शासक की पत्नी के सम्मान की रक्षा के लिए यूसुफ़ को कारावास भेजा जाए ताकि कुछ दिनों के बाद लोग इस विषय को भूल जाएं।
इस आयत से हमने सीखा कि पवित्र होना और पवित्र बाक़ी रहना सरल कार्य नहीं है क्योंकि अत्याचारी शासनों में उसी को सबसे अधिक क्षति होती है जो सबसे अधिक पवित्र होता है।
दूषित समाज में बुरे और व्यभिचारी लोग स्वतंत्र रहते हैं जबकि पवित्र लोगों को कारावास में डाला जाता है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 36 की
और यूसुफ़ के साथ दो अन्य युवा भी कारावास में पहुंचे। उनमें से एक ने (यूसुफ़) से कहा कि मैंने स्वप्न में देखा कि शराब (के लिए अंगूर) निचोड़ रहा हूं। दूसरे ने कहा कि मैंने स्वप्न में देखा है कि मैं अपने सर पर रोटी उठाए हुए हूं और चिड़ियां उसमें से खा रही हैं। हमें इसका अर्थ बता हो कि हम तुम्हें भले लोगों में देखते हैं। (12:36)
मिस्र के शासक के आदेश पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को कारावास में डाल दिया गया। उनके साथ ही दो अन्य लोग भी कारावास में आए जिन्हें दरबार ने किसी अपराध के दंड स्वरूप कारावास में भेजा था। उन दोनों ने सपना देखा और अपने सपने का हज़रत यूसुफ़ से उल्लेख किया क्योंकि उन्होंने भी ज़ुलैख़ा की अनैतिक इच्छा और हज़रत यूसुफ़ की पवित्रता की बात सुनी थी और वे उन्हें भला आदमी समझते थे।
जी हां, यदि भला मनुष्य कारावास में भी डाल दिया जाए तो वह बंदियों के भरोसे का पात्र बन जाता है और दूसरे उसे अपने रहस्य बताते हैं और वह बंदियों को भी प्रभावित कर सकता है।
उन दो बंदियों के स्वप्न भी अलग अलग और विचित्र थे। अतः वे स्वयं भी समझ गए थे कि उनके स्वप्न अर्थपूर्ण और उनके कारावास के जीवन से संबंधित हैं। एक ने स्वयं को शराब बनाते हुए देखा था दूसरे ने पक्षियों को खाना खिलाते हुए।
प्रत्येक दशा में जो बात महत्त्वपूर्ण है वह कारावास में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का विशेष स्थान और सम्मान है कि जिसने उन्हें दूसरों से भिन्न बना दिया था और सभी लोग उन पर विशेष ध्यान देने लगे थे। इतिहास में वर्णित है कि वे कारावास में रोगियों का ध्यान रखते थे और दरिद्रों की सहायता करते थे। वे कारावास में थे किन्तु मनुष्य थे और उनके नैतिक गुण उनके पूरे अस्तित्व से प्रकाशमान थे।


सूरए यूसुफ़, आयतें 37-40,

आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 37 
(यूसुफ़ ने) कहा, जो भोजन तुम्हें दिया जाता है उसके आने से पूर्व ही मैं तुम्हें तुम्हारे सपनों का अर्थ बता दूंगा। यह उन बातों में से है जिसकी शिक्षा मुझे मेरे पालनहार ने दी है। मैंने उस जाति का पंथ छोड़ दिया है जो ईश्वर पर ईमान नहीं रखती और प्रलय का इन्कार करती है। (12:37)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम दरबार के दो अन्य बंदियों के साथ कारावास में पहुंचे। उन दोनों ने अलग अलग सपना देखा और हज़रत यूसुफ़ से उसका उल्लेख किया।
यह आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने पहले तो उनसे कहा कि वे उन्हें उनके सपनों का अर्थ बताएंगे ताकि वे उनकी बात सुनें और उन्होंने कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद के विषय के बारे में बात आरंभ की और कहा कि यदि ईश्वर ने मुझे यह विशेषता प्रदान की है कि मैं सपनों का अर्थ बता सकता हूं तो यह इस कारण है कि मैंने अनेकेश्वरवाद की रीति और कुफ़्र के पंथ को छोड़ दिया है और ईश्वर की छाया में आ गया हूं। यदि तुम यह देख रहे हो कि मैं तुम्हारे सपनों का अर्थ बता सकता हूं तो यह मेरी व्यक्तिगत विशेषता नहीं है बल्कि ईश्वर की कृपा है कि उसने मुझे यह ज्ञान सिखाया है। मेरा ईश्वर वही है जिस पर मेरी जाति वाले ईमान नहीं रखते तथा प्रलय का इन्कार करते हैं और संसार को ही अंत समझते हैं।
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम जानते थे कि वे दोनों बंदी ईश्वर पर ईमान नहीं रखते और अनेकेश्वरवादी हैं किन्तु वे उन्हें संबोधित करके नहीं कहते कि तुम लोग ईश्वर पर ईमान नहीं रखते बल्कि कहते हैं कि मेरी जाति के लोग ऐसे हैं और उनका मार्ग सही नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि जो कोई कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद के अंधकारों से दूर हो जाता है ईश्वर उसके मन और हृदय को ज्ञान व तत्वदर्शिता के प्रकाश से उज्जवलित कर देता है और वह ऐसी वास्तविकताओं से अवगत हो जाता है जिन्हें दूसरे नहीं जान पाते।
अवसरों से उत्तम ढंग से लाभ उठाना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कारावास में सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य किया और अवसर से सही ढंग से लाभ उठाया।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 38 
(यूसुफ़ ने) कहा, मैं अपने पूर्वजों इब्राहीम, इस्हाक़ और याक़ूब के (सच्चे) पंथ का अनुसरण करता हूं। किसी को ईश्वर का समकक्ष ठहराना हमें शोभा नहीं देता। यह हम पर और लोगों का अनुग्रह है किन्तु अधिकांश लोग कृतज्ञता नहीं दर्शाते। (12:38)
कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद से दूर रहने के संबंध में अपनी बात को जारी रखते हुए हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि मैंने अपनी जाति के मार्ग को छोड़ दिया है तो अपनी आंतरिक इच्छाओं का पालन नहीं करना चाहता हूं बल्कि मैंने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम जैसे महान पैग़म्बरों का मार्ग अपनाया है कि जो मेरे पूर्वज हैं। हज़रत इब्राहीम के वंशज होने के नाते हमें यह बात शोभा नहीं देती कि हम उनके मार्ग को छोड़ कर अनेकेश्वरवादियों के मार्ग पर चल पड़ें। इन पैग़म्बरों का अस्तित्व हम पर और सभी लोगों पर ईश्वर की कृपा है किन्तु खेद की बात यह है कि अधिकांश लोगों ने उनका मूल्य नहीं समझा और उनकी बातों पर ध्यान देने के बजाए अपने मार्ग पर चलते रहे।
इस आयत से हमने सीखा कि पूर्वजों पर गर्व और उनका अनुसरण, ऐसी स्थिति में प्रिय कार्य हो सकता है जब उनका मार्ग सही और सच्चा रहा हो।
पैग़म्बरों का अस्तित्व ईश्वर की महान कृपाओं में से एक है और उनका अनुसरण, इस कृपा के प्रति कृतज्ञता के समान है जबकि उनकी अवज्ञा एक प्रकार से कृतघ्नता है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 39 और 40 
(यूसुफ़ ने) कहा, हे कारावास के मेरे दोनों साथियों! अनेक ईश्वर बेहतर हैं या एकमात्र ईश्वर जो प्रभुत्वशाली है? (12:39) तुम ईश्वर के अतिरिक्त जिनकी उपासना करते हो वे उन नामों के अतिरिक्त कुछ नहीं जिनका नाम भी स्वयं तुमने और तुम्हारे पिताओं ने रखा है। ईश्वर ने उनके लिए कोई तर्क नहीं उतारा है। हुक्म अर्थात शासन का अधिकार केवल ईश्वर के लिए ही है। उसने आदेश दिया है कि तुम उसके अतिरिक्त किसी की उपासना न करो। यही सीधा और सही धर्म है किन्तु अधिकांश लोग नहीं जानते। (12:40)
कुफ़्र व अनेकेश्वरवाद से दूरी व एकेश्वरवाद के अनुसरण के संबंध में अपनी बात को जारी रखते हुए हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कारावास के अपने दोनों साथियों को संबोधित करते हुए कहते हैं, तुम स्वंय ही एकेश्वरवाद और अनेकेश्वरवाद की तुलना करो। अनेकेश्वरवादी इस संसार में हर वस्तु के लिए पालनहार बना देते हैं और फिर उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
जबकि ईमान वाले केवल अनन्य ईश्वर पर ईमान रखते हैं कि जो पूरे ब्रह्ममांड का स्वामी है। हर वस्तु पर उसका नियंत्रण है और ईमान वाले केवल उसी को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं, तो अब बताओ कि इनमें से कौन सा पंथ उत्तम है?
अनेकेश्वरवादियों ने हर वस्तु के लिए एक देवता बना रखा है और वे कहते हैं कि यह वर्षा का देवता है और वह वायु का देवता है जबकि यह सब काल्पनिक बातें हैं। यह ऐसे शीर्षक हैं जिनका कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है। ये केवल नाम हैं कि जो लोगों की ज़बान पर आते हैं। न किसी बाहरी वास्तविकता ने और न ही किसी बौद्धिक तर्क ने इस प्रकार के देवताओं के अस्तित्व की पुष्टि की है बल्कि इसके विपरीत ईश्वर ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उसके अतिरिक्त किसी की उपासना न की जाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि आस्था संबंधी समस्याओं को प्रश्न और तुलना के रूप में प्रस्तुत करना, लोगों को धर्म की ओर बुलाने की शैलियों में से एक है।
मनुष्य की आस्थाओं को, पूर्वजों की रीतियों के अंधे अनुसरण पर नहीं बल्कि बौद्धिक अथवा ईश्वरीय तर्क पर आधारित होना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 41-43,
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 41 
(यूसुफ़ ने कहा) हे मेरे बंदी साथियो! तुम में से एक तो (रिहा होकर) अपने स्वामी को मदिरापान कराएगा और दूसरे को सूली पर चढ़ा दिया जाएगा और पक्षी उसका सिर खा जाएंगे। जिस बारे में तुमने मुझ से पूछा था उसका फ़ैसला हो चुका है और निश्चित ही वह होकर रहेगा। (12:41)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने बंदी साथियों के सपनों की व्याख्या से पूर्व अवसर से लाभ उठाते हुए उन्हें एकेश्वरवाद की ओर निमंत्रित किया। इसके पश्चात वे उनके सपनों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि जिसने स्वप्न में यह देखा कि वह शराब बना रहा है वह रिहा होगा और इसी कार्य में व्यस्त रहेगा और जिसने यह देखा था कि पक्षी उसके सिर पर मौजूद रोटियों में से खा रहे हैं वह सूली पर लटकाया जाएगा और इतने दिनों तक सूली पर लटका रहेगा कि पक्षी उसका सिर खा जाएंगे और यह बात अटल है और हो कर ही रहेगी।
इस घटना से पता चलता है कि कभी कभी अनेकेश्वरवादी भी ऐसे स्वप्न देखते हैं जो सच्चे होते हैं और व्यवहारिक होते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि कुछ सपने ऐसी वास्तविकताओं को दर्शाते हैं जो भविष्य में घटने वाली होती हैं और जो सपनों की सही व्याख्या कर सकता है वह वास्तविकता बता सकता है चाहे वह कुछ लोगों के लिए अप्रिय ही क्यों न हो।
ईश्वर के प्रिय बंदे बिना सोचे समझे और अटकल व अनुमान लगाकर बात नहीं करते बल्कि वे अनन्य ईश्वर की ओर से प्रदान किए गए ज्ञान के आधार पर बात करते हैं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 42
और (यूसुफ़ ने) उन दोनों में से जिसके बारे में वे जानते थे कि वह रिहा होगा, उससे कहा कि अपने स्वामी के समक्ष मेरी बात करना किन्तु शैतान ने उसे यह बात भुलवा दी कि वह अपने स्वामी के समक्ष यूसुफ़ की बात करता, तो वे कई वर्षों तक कारावास में रहे। (12:42)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथी बंदियों के सपनों की व्याख्या के पश्चात उन्होंने रिहा होने वाले बंदी से कहा कि मिस्र के शासक के समक्ष मेरे विषय पर बात करना, चूंकि मुझे निर्दोष होने के बावजूद बंदी बने हुए काफ़ी समय बीत चुका है अतः शायद वह मुझे रिहा करने पर तैयार हो जाए। किन्तु वह व्यक्ति रिहा होने के बाद यह बात भूल गया जिसके परिणाम स्वरूप हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अन्य सात वर्षों तक कारावास में रहना पड़ा।
रोचक बात यह है कि इस आयत में भूलने को कि जो स्वाभाविक बात है, शैतानी कार्य बताया गया है, मानो जब शैतान किसी अनेकेश्वरवादी पर वर्चस्व जमाता है तो उसकी बुद्धि और स्मरण शक्ति पर नियंत्रण कर लेता है, इस प्रकार से कि मनुष्य वह बातें भूल जाता है जिन्हें शैतान उसे भुलवाना चाहता है किन्तु ईश्वर के प्रिय व पवित्र बंदों के संबंध में ऐसा नहीं होता और वे कभी कोई बात नहीं भूलते क्योंकि शैतान उन पर वर्चस्व नहीं जमा सकता।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने अधिकार की प्राप्ति और अत्याचार की समाप्ति के लिए दूसरों से निवेदन करना एक स्वाभाविक बात है किन्तु ईश्वर के प्रिय बंदों को सबसे पहले ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए।
पवित्र लोगों का बंदी बनना शैतान और शैतान रूपी लोगों की इच्छा होती है तथा पवित्र लोगों पर से आरोपों का हटना शैतान और उसके अनुयाइयों के मार्ग से मेल नहीं खाता।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 43 
और (मिस्र) के शासक ने कहा कि मैंने सपने में देखा है कि सात दुर्बल गायें, सात मोटी गायों को खा रही हैं और इसी प्रकार मैंने अनाज की सात हरी और सात सूखी बालियों को देखा है। हे मेरे सरदारो! यदि तुम स्वप्न की व्याख्या करते हो तो मुझे स्वप्न का अर्थ बताओ। (12:43)
हज़रत यूसुफ़ की घटना के आरंभ से अब तक तीन स्वप्न सामने आए हैं, एक हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का स्वप्न और दो उनके साथी बंदियों के सपने, अलबत्ता अभी तक हज़रत यूसुफ़ का स्वप्न व्यवहारिक नहीं हुआ है।
इस आयत में मिस्र के शासक के सपने का इस प्रकार वर्णन किया गया है कि वह सात मोटी गायों के साथ साथ हरी बालियां देखता है और सात दुर्बल गायों के साथ साथ सूखी बालियों को देखता है। यद्यपि वह जानता है कि कोई महत्त्वपूर्ण घटना घटने वाली है किन्तु उसे और उसके दरबारियों को इस सपने का अर्थ ज्ञात नहीं हो पाता अतः चिंतित हो जाता है कि कहीं ऐसा न हो कि सत्ता उसके हाथ से निकल जाए।

इस आयत से हमने सीखा कि सपनों में सभी वस्तुओं और पशुओं का एक विशेष अर्थ होता है और वे किसी न किसी बात के प्रतीक होते हैं जैसे दुर्बल गाय, अकाल का प्रतीक जबकि मोटी गाय संपन्नता की निशानी होती है।
हर कोई सपनों की व्याख्या नहीं कर सकता, सपनों का अर्थ जानने के लिए दक्ष लोगों से संपर्क करना चाहिए।



सूरए यूसुफ़, आयतें 44-49, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 44 और 45 
(मिस्र के शासक के दरबारियों ने) कहा, ये तो बिखरे हुए स्वप्न हैं और हम ऐसे सपनों की व्याख्या से अवगत नहीं हैं। (12:44) और उन दोनों में से जो रिहा हो गया था उसे कुछ समय बाद (यूसुफ़ की) याद आई उसने कहा कि मैं तुम्हें इस स्वप्न की व्याख्या बता सकता हूं तो मुझे (यूसुफ़ के पास) भेज दो। (12:45)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक ने एक विचित्र स्वप्न देखा कि कुछ मोटी गायों को दुर्बल गायें खा रही हैं। उसने अपने दरबार के दक्ष लोगों से कहा कि वे उसके स्वप्न की व्याख्या करें।
ये आयतें कहती हैं कि दरबार वालों ने शासक के सपने को एक बिखरा हुआ सपना बताया कि जिसकी व्याख्या का कोई लाभ नहीं है। किन्तु वह व्यक्ति जो कारावास में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के साथ था और उन्होंने उसके स्वप्न की सही व्याख्या की थी, उसे याद आया कि उसने उन्हें वचन दिया था कि वह शासक के सामने उनकी बात करेगा। अतः उसने शासक से कहा कि वह उसे कारावास में हज़रत यूसुफ़ के पास भेज दे ताकि वह उसके स्वप्न की व्याख्या करें।
इन आयतों से हमने सीखा कि केवल ईश्वर के प्रिय बंदे ही सच्चे सपने नहीं देखते, संभव है कि कोई अत्याचारी शासक भी ऐसा स्वप्न देखे जो आगे चलकर सच्चा सिद्ध हो।
दक्ष और विशेषज्ञ लोगों को जो एकांत में रहते हैं संसार के सामने लाना चाहिए ताकि लोग उनसे लाभ उठा सकें।


आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 46 और 47
(उसने) कहा, यूसुफ़! हे सच्चे पुरुष! हमें इस सपने का अर्थ बताओ कि सात मोटी गायों को सात दुर्बल गायें खा रही हैं और सात बालिया हरी हैं और सात बालिया सूखी हैं। ताकि जब मैं वापस लौटकर लोगों के पास जाऊं तो शायद वे भी सपने की व्याख्या को जान जाएं। (12:46) यूसुफ़ ने कहा कि निरंतर सात वर्षों तक खेती बाड़ी करते रहो तो जो कुछ तुम काटो, अपने खाने के थोड़े से भाग के अतिरिक्त सभी दानों को उनकी बालियों में ही रहने देना। (12:47)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने जो काम किया उससे उनकी महानता पूर्ण रूप से स्पष्ट है। उन्होंने अपने बंदी साथी से यह नहीं कहा कि क्यों तुम मुझे भूल गए थे और अब मेरे पास क्यों आए हो। इसी प्रकार उन्होंने यह भी नहीं कहा कि मैं शासक के स्वप्न की व्याख्या उसी समय करूंगा जब वह मुझे कारावास से रिहा कर देगा। उन्होंने बिना किसी शर्त के तुरंत ही न केवल यह कि स्वप्न की व्याख्या कर दी बल्कि अकाल से बचने का मार्ग भी बता दिया ताकि लोगों को अधिक कठिनाई न हो। इससे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के ज्ञान व संचालन शक्ति का पता चलता है।
इस आयत में हज़रत यूसुफ़ को सिद्दीक़ अर्थात अत्याधिक सच्चा व्यक्ति कहा गया है अर्थात ऐसा व्यक्ति जिसकी करनी उसकी कथनी की पुष्टि करती है। ऐसे अनेक लोगों के विपरीत जिनकी करनी उनकी कथनी से समन्वित नहीं होती बल्कि अधिकांश अवसरों पर उनकी कथनी और करनी में विरोधाभास होता है। अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ के अतिरिक्त हज़रत इब्राहीम और हज़रत इदरीस को भी क़ुरआने मजीद में अत्याधिक सच्चा कहा गया है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को भी सिद्दीक़ की उपाधि प्रदान की थी।
इन आयतों से हमने सीखा कि सरकारों को समस्याओं और संकटों की समाप्ति के लिए समाज के विद्वानों और दक्ष लोगों से लाभ उठाना चाहिए।
भविष्य के लिए कार्यक्रम बनाना और आर्थिक संकटों से निपटने की तैयारी करना, सरकारों के मुख्य दायित्वों में से एक है।
ईश्वर के प्रिय बंदे अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के समाधान के बारे में विचार करने से पूर्व सामाजिक कठिनाइयों की समाप्ति और लोगों के कल्याण के बारे में सोचते हैं।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 48 और 49 

फिर इसके बाद सात वर्ष बड़े कठिन आएंगे और जो कुछ तुमने उनके लिए इकट्ठा कर रखा होगा वह खा जाएंगे सिवाय उस थोड़े से भाग के जो तुम बीज डालने के लिए बचाए रखते हो। (12:48) फिर उसके बाद एक वर्ष ऐसा आएगा जिसमें लोगों के लिए भरपूर वर्षा होगी और उसमें वे फलों के रस निचोड़ेंगे। (12:49)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने मिस्र के शासक के सपने की पूर्ण रूप से व्याख्या की और कहा कि सात वर्षों तक अच्छी वर्षा होगी और इन वर्षों में जो कुछ तुम उगाओ उसमें से बहुत थोड़ा खाओ और बाक़ी सब सुरक्षित रखते जाओ। इसके बाद के सात वर्षों में अकाल पड़ेगा और जो कुछ तुमने पहले एकत्रित किया था उसमें से खाओ और अगले वर्ष की खेती बाड़ी के लिए थोड़ा बीज व अनाज सुरक्षित रखो। उसके बाद एक वर्ष ऐसा होगा जिसमें भरपूर वर्षा होगी और इतनी संपन्नता आएगी कि लोग फलों का रस निचोड़ेंगे और उससे लाभ उठाएंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि विशेष परिस्थितियों के लिए खाद्य सामग्री के भंडारण की सिफ़ारिश की गई है और यह बात ईश्वर पर भरोसे से विरोधाभास नहीं रखती।
मौसम तथा वर्षा का पूर्वानुमान, ऋतु के कार्यक्रमों के लिए एक लाभदायक बात है और इससे लाभ उठाया जाना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 50-52, (कार्यक्रम 388)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या पचास 
और मिस्र के शासक ने कहा, (यूसुफ़ को) मेरे पास लाओ, तो जब दूत उनके पास आया तो यूसुफ़ ने कहा, अपने स्वामी के पास लौट जाओ और उससे पूछो कि उन महिलाओं का क्या मामला है जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? निश्चित रूप से मेरा पालनहार उनके छल से भलिभांति अवगत है। (12:50)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से मिस्र के शासक के स्वप्न की व्याख्या करने को कहा गया तो उन्होंने बिना किसी शर्त के यह काम कर दिया बल्कि सूखे और अकाल से बचाव का मार्ग भी बताया किन्तु जब शासक ने उन्हें अपने पास बुलाया तो उन्होंने यह बात स्वीकार नहीं की और कहा कि उन्हें कारावास में डाले जाने का कारण स्पष्ट होना चाहिए। इसी कारण वे उन महिलाओं के बारे में जांच के लिए कहते हैं जिन्होंने छल कपट द्वारा उन्हें देखने के लिए बुलाया था।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का यह व्यवहार शायद इस कारण था कि उस घटना को वर्षों बीत चुके थे और संभवतः मिस्र का शासक और उसके दरबार के लोग यह बात भूल चुके थे और सोच रहे थे कि वस्तुतः यूसुफ़ दोषी थे, इसी कारण वे कारावास में हैं। इसके अतिरिक्त हज़रत यूसुफ़ नहीं चाहते थे कि उनके ऊपर उपकार किया जाए और राजकीय क्षमा के माध्यम से वे कारवास से बाहर आएं बल्कि वे मिस्र के शासक को यह समझाना चाहते थे कि उसके शासन में निर्दोष लोगों पर कितना अन्याय व अत्याचार हो रहा है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम का कथन है कि मुझे हज़रत यूसुफ़ के संयम पर आश्चर्य होता है कि जब मिस्र के शासक को अपने स्वप्न की व्याख्या के लिए उनकी आवश्यकता हुई तो उन्होंने यह नहीं कहा कि जब तक मुझे रिहा नहीं किया जाता, मैं यह काम नहीं करूंगा। और जब उन्हें रिहा किया जाने लगा तो उन्होंने कहा कि जब तक मेरा निर्दोष होना सिद्ध नहीं हो जाता, मैं कारावास से बाहर नहीं आऊंगा।
इस आयत से हमने सीखा कि सरकार के विद्वानों के विचारों से लाभ उठाना चाहिए चाहे वे कारावास में ही क्यों न हों, अलबत्ता इसी के साथ उनकी रिहाई का मार्ग भी प्रशस्त करना चाहिए।
किसी भी मूल्य पर रिहाई मूल्यवान नहीं होती, सम्मान की बहाली और निर्दोष सिद्ध होना, रिहाई से भी अधिक मूल्यवान है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 51 
मिस्र के शासक ने (महिलाओं से) कहा, जब तुमने यूसुफ़ पर डोरे डाले तो तुम्हारा क्या मामला था? उन्होंने कहा, धन्य है ईश्वर, हमने तो उसमें कोई बुराई नहीं पाई। (इसी बीच) मिस्र के शासक की पत्नी बोली, अब सच बात सामने आ गई है। वह मैं ही थी जिसने उस पर डोरे डाले थे और निसंदेह वह सच्चों में से है। (12:51)
क़ुरआने मजीद में ईश्वर की एक परंपरा, पवित्रता एवं ईश्वरीय भय के कारण कठिन मामलों में राहत दिलाने पर आधारित है। मिस्र के शासक की पत्नी, जिसने हज़रत यूसुफ़ पर यह आरोप लगाया था कि वे उस पर बुरी दृष्टि रखते थे जिसके कारण उन्हें कारावास में जाना पड़ा था, आज अपनी ज़बान से उनके सच्चे होने की बात स्वीकार कर रही है। उसकी इसी स्वीकारोक्ति के कारण हज़रत यूसुफ़ की रिहाई का मार्ग प्रशस्त हुआ और वे सम्मान के साथ कारावास से बाहर आए।
यह ईश्वर का इरादा है कि वास्तविक दोषी अपने अपराध को स्वीकार करता है ताकि सबके समक्ष हज़रत यूसुफ़ का निर्दोष होना सिद्ध हो जाए, यद्यपि कुछ वास्तविकताओं के स्पष्ट होने के लिए समय बीतने की आवश्यकता होती है।
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य, सदैव छिपा नहीं रहता, इसी कारण झूठ सदैव बाक़ी नहीं रहता।
सामाजिक व नैतिक मामलों में पवित्रता ऐसी बात है जिसके मूल्य को व्यभिचारी लोग भी स्वीकार करते हैं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 52 
(यूसुफ़ ने कहा कि) मैंने यह बात इसलिए कही कि (मिस्र का शासक) जान ले कि मैंने एकांत में उसके साथ विश्वासघात नहीं किया है और निश्चित रूप से ईश्वर विश्वासघात करने वालों की चालों को सफल नहीं होने देता। (12:52)
इस आयत के संबंध में व्याख्याकारों के बीच दो मत पाये जाते हैं। एक गुट का मानना है कि यह कथन मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा का है जो यह कहना चाहती है कि यद्यपि मैं पाप करना चाहती थी किन्तु ऐसा हो नहीं सका। किन्तु अधिकांश व्याख्याकारों का मानना है कि यह कथन हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम का है जो यह कहना चाहते हैं कि यदि मैंने कारावास से अपनी स्वतंत्रता के लिए महिलाओं के विषय के स्पष्ट होने की शर्त लगाई थी तो उसका कारण यह था कि मिस्र के शासक और उसकी पत्नी को यह ज्ञात हो जाए कि मैंने अतीत में कोई विश्वासघात नहीं किया था और मैं निर्दोष हूं। मैं पिछली बातों को फिर से सामने लाकर मिस्र के शासक की पत्नी से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था बल्कि मैं अपने सम्मान की बहाली का इच्छुक था ताकि मेरे संबंध में पाई जाने वाली भ्रांतियां समाप्त हो जाएं।
रोचक बात यह है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम इस मामले के स्पष्ट होने को ईश्वर से संबंधित बताते हैं ताकि शासक का ध्यान इस ओर आकृष्ट करें कि घटनाओं के संबंध में ईश्वर की इच्छा की निर्णायक भूमिका होती है।
इस आयत से हमने सीखा कि किसी के साथ भी विश्वासघात अप्रिय है चाहे वह अत्याचारी और काफ़िर ही क्यों न हो।
वास्तविक ईमान का चिन्ह, एकांत में पाप से बचना है।
यदि हम पवित्र हों तो ईश्वर इस बात की अनुमति नहीं देगा कि अपवित्र लोग हमारे सम्मान को ठेस पहुंचाएं बल्कि वे स्वयं ही अपमानित होंगे और हमारी पवित्रता सिद्ध हो जाएगी।



सूरए यूसुफ़, आयतें 53-55,
आइये सबसे पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 53 
और मैं कदापि अपने आपको मुक्त नहीं करता क्योंकि निश्चित रूप से मन सदैव ही बुराई पर उकसाता है सिवाय इसके कि मेरा पालनहार दया करे। निसंदेह मेरा पालनहार अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (12:53)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कारावास से अपनी रिहाई के लिए अपने निर्दोष सिद्ध होने की शर्त रखी थी। मिस्र के शासक की पत्नी ज़ुलैख़ा ने शासक के समक्ष अपने पाप को स्वीकार किया और यूसुफ़ को निर्दोष बताया।
यह आयत एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत करती है और वह यह कि मनुष्य की आंतरिक इच्छाएं, उसे बुराइयों की ओर बुलाती रहती हैं और उसे पाश्विक व्यवहारों पर उकसाती हैं जिनका बुद्धि, तर्क अथवा सामाजिक नियमों से कोई संबंध नहीं है बल्कि परिणामों पर ध्यान दिए बिना केवल व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति के लिए ऐसे कर्म किए जाते हैं।
इस बीच वह एकमात्र वस्तु जो बुद्धि पर आंतरिक इच्छाओं की विजय के मार्ग में बाधा बनती है, ईश्वर की दया व कृपा है कि जो मनुष्य को ख़तरों और बुराइयों से सुरक्षित रखती है और मनुष्य को यह अनुमति नहीं देती कि जो कुछ उसके मन में आए वह करता चला जाए। स्वाभाविक है कि वही व्यक्ति इस दया व कृपा का पात्र बनेगा जो ईश्वर पर ईमान रखता हो और सदैव उससे सहायता चाहता हो।
क़ुरआने मजीद में मनुष्य के मन के लिए कई चरणों का उल्लेख हुआ। पहला चरण उस मन का है जो पाश्विक चरणों में है और मनुष्य को पाश्विक व्यवहार का आदेश देता रहता है। इसे नफ़से अम्मारा कहा जाता है। इसके ऊपर वाले चरण में नफ़से लव्वामा अर्थात धिक्कारने वाला मन होता है जो मनुष्य की ग़लतियों के लिए उसे धिक्कारता रहता है और तौबा व प्रायश्चित का मार्ग प्रशस्त करता है। और सबसे ऊपरी चरण में नफ़से मुतमइन्ना अर्थात संतुष्ट मन होता है। इस चरण तक केवल ईश्वर के पैग़म्बर और उसके प्रिय बंदे ही पहुंच पाते हैं। कठिन से कठिन स्थिति में ईश्वर के प्रति उनकी आशा और संतोष में कमी नहीं आती और वे ईश्वरीय परीक्षाओं में सफल रहते हैं।
इस घटना में भी हज़रत यूसुफ़ अपने को निर्दोष सिद्ध करने के पश्चात, घमंड में ग्रस्त होने से बचने के लिए कहते हैं कि मैं भी एक मनुष्य हूं और मेरा मन भी मुझे उसकी बात के लिए उकसाता था जो ज़ुलैख़ा चाहती थी किन्तु यह ईश्वर की कृपा थी जिसने मुझे मुक्ति दिलाई और पाश्विक वासनाओं में ग्रस्त नहीं होने दिया।
इस आयत से हमने सीखा कि कभी भी स्वयं को ग़लतियों और भटकाव से सुरक्षित नहीं समझना चाहिए और न ही कभी पवित्रता के लिए अपनी सराहना करनी चाहिए कि सदैव ही ख़तरा सामने होता है।
मनुष्य के समक्ष चाहे जितने भी ख़तरे हों उसे ईश्वर की दया व कृपा की ओर से निराश नहीं होना चाहिए कि वह अत्यंत क्षमाशील और दयावान है।
आइये अब सूरए युसुफ़ की आयत संख्या 54 
मिस्र के शासक ने कहा, यूसुफ़ को मेरे पास लाओ ताकि मैं उसे अपना विशेष सलाहकार बनाऊं। तो जब उसने बात की तो कहा, आज हमारे निकट तुम्हारा बहुत उच्च स्थान है और एक अमानतदार व्यक्ति हो। (12:54)
जब मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम और ज़ुलैख़ा की वार्ता सुनी और उसकी दृष्टि में हज़रत यूसुफ़ का निर्दोष और साथ ही महान होना सिद्ध हो गया तो उसने उन्हें अपने पास बुलाया और देश तथा सरकार के बारे में उसने उन्हें अपना निजी सलाहकार बना लिया ताकि देश के सभी अधिकारियों को यह बात समझ में आ जाए कि उन्हें हज़रत यूसुफ़ के आदेशों का पालन और उनका सम्मान करना चाहिए।
मिस्र के शासक और हज़रत यूसुफ़ के वार्तालाप से दो बातें सिद्ध हो गईं, एक हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता और दूसरे उनकी अमानतदारी और ये दोनों विशेषताएं सरकार के संचालन में बहुत प्रभावी होती हैं। जब कभी महानता और अमानतदारी एकत्रित हो जाती हैं, समाज की प्रगति और योग्यताओं के निखरने का कारण बनती हैं और जहां कहीं इनमें से एक का आभाव होता है तो समस्याएं और कठिनाइयां उत्पन्न होने लगती हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति के लिए लोगों के अनुभव के साथ दायित्व निर्वाह की उनकी क्षमता भी महत्त्वपूर्ण है। केवल पवित्रता, सच्चाई और अमानतदारी पर्याप्त नहीं है बल्कि शक्ति और योग्यता भी आवश्यक है।
सच्चा और अमानतदार व्यक्ति सभी की दृष्टि में सम्मानीय होता है, चाहे निर्धन हो या धनवान, काफ़िर हो या ईमान वाला।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 55 
(यूसुफ़ ने) कहा, मुझे मिस्र की धरती के ख़ज़ानों का अधिकारी बना दो कि निसंदेह मैं जानकार रक्षक हूं। (12:55)
जब मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलाया और अपना निजी सलाहकार नियुक्त किया तथा उन्हें एक अमानतदार और योग्य व्यक्ति घोषित किया तो उन्होंने प्रस्ताव दिया कि उन्हें सरकारी ख़ज़ाने की देखभाल का दायित्व सौंपा जाए और उन्हें स्वयं को इस कार्य के लिए योग्य बताया।
मिस्र के शासक ने जो स्वप्न देखा था उसके आधार पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम जानते थे कि पहले सात वर्षों तक अकाल पड़ेगा और उन्हें अनाज एकत्रित करना होगा जबकि दूसरे सात वर्षों में एक सटीक कार्यक्रम के अंतर्गत उन्हें लोगों के बीच अनाज बांटना था। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम इस कार्य में दक्ष थे अतः उन्होंने इस दायित्व को निभाने के लिए अपनी तत्परता की घोषणा की।
वस्तुतः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कोई सरल और साधारण नहीं बल्कि एक कठिन और ख़तरनाक दायित्व संभालने का प्रस्ताव दिया था उन्हें पद और परिस्थिति की चाह नहीं बल्कि वे तो अकाल के दौरान लोगों को राहत पहुंचाने के विचार में थे। जैसा कि इतिहास में वर्णित है कि हज़रत यूसुफ़ ने दूसरे सात वर्षों की समाप्ति पर मिस्र के शासक से कहा कि मेरे पास जो कुछ संपत्ति और सरकारी माल है वह मैं सब का सब वापस देता हूं। सत्ता मेरे लिए लोगों की मुक्ति का साधन थी और मैं तुम से भी कहता हूं कि लोगों के साथ न्याय का व्यवहार करो।
इस आयत से हमने सीखा कि जहां आवश्यकता हो अपनी योग्यता का वर्णन करना चाहिए तथा संवेदनशील दायित्वों को अपने हाथ में लेने के लिए स्वेच्छा से आगे बढ़ना चाहिए।
दायित्व और पद प्रदान करने के संबंध में जाति, क़बीला, राष्ट्रीयता और भाषा मानदंड नहीं बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण बात योग्यता व क्षमता है। हज़रत यूसुफ़ मिस्र के नहीं थे और एक दास के रूप में मिस्र पहुंचे थे किन्तु मिस्र के शासक ने उन्हें सरकार का सबसे महत्त्वपूर्ण दायित्व सौंपा था।


सूरए यूसुफ़, आयतें 56-60, (कार्यक्रम 390)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या छप्पन और सत्तावन 
और इस प्रकार हमने यूसुफ़ को मिस्र की धरती में सत्ता प्रदान की कि वे उसमें जहां चाहें रहें। हम जिसे चाहते हैं अपनी दया का पात्र बनाते हैं और हम भलाई करने वालों के बदले को व्यर्थ नहीं जाने देते। (12:56) और जो लोग ईमान लाए और ईश्वर से डरते रहे तो निसंदेह उनके लिए प्रलय का प्रतिफल सबसे उत्तम है। (12:57)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि मिस्र के शासक ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलाया और उन्हें अपना विशेष सलाहकार नियुक्त किया। ये आयतें कहती हैं कि यह मिस्र का शासक नहीं था जिसने यूसुफ़ के लिए इस प्रकार का मार्ग प्रशस्त किया था बल्कि ईश्वर ने यूसुफ़ की पवित्रता और भलाई का प्रतिफल उन्हें देना चाहा था इसीलिए उसने ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी कि यूसुफ़ ऐसे स्थान तक पहुंच गए कि सरकारी मामलों में जिस प्रकार का चाहें निर्णय करें।
आगे चलकर आयत कहती है कि यह ईश्वर की परंपरा है कि वह भले कर्म करने वालों को इसी संसार में प्रतिफल देता है और उन्हें अपनी विशेष दया का पात्र बनाता है। इसके अतिरिक्त प्रलय में उनका प्रतिफल सुरक्षित रहता है कि जो सांसारिक प्रतिफल से कहीं अधिक व उत्तम होता है। अलबत्ता शर्त यह है कि भला कर्म वास्तविक ईमान और ईश्वर से भय के साथ हो अन्यथा ईश्वर पर ईमान के बिना किए गए भले कर्म का केवल इसी संसार में प्रतिफल मिलता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि भले लोगों को जो ईश्वरीय भय रखते हैं सम्मानित करना ईश्वर की परंपरा है चाहे अपवित्र लोगों और अत्याचारियों को यह बात बुरी ही क्यों न लगे और वे उनका अनादर ही क्यों न करें।
ईश्वरीय विचारधारा में हर कर्म का प्रतिफल मिलता है अतः भले कर्म करने वालों को चिंतित नहीं होना चाहिए।
ईश्वरीय पारितोषिक, सांसारिक पारितोषिक से कहीं उच्च होता है क्योंकि वह किसी समय अथवा स्थान तक सीमित नहीं होता और नहीं उसमें कोई दोष होता है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 58 
और (अकाल के कारण) यूसुफ़ के भाई (खाद्य सामग्री लेने के लिए मिस्र) आए और उनके पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें पहचान लिया जबकि वे उन्हें नहीं पहचान पाए। (12:58)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्साम की भविष्यवाणी के अनुसार सात वर्षों तक निरंतर वर्षा हुई और लोग हर प्रकार से संपन्न रहे किन्तु उसके बाद सात वर्षों तक अकाल पड़ा और अकाल का प्रभाव फ़िलिस्तीन और कन्आन तक पहुंचा।
हज़रत याक़ूब ने अपने पुत्रों को अनाज के लिए मिस्र भेजा। वे मिस्र के वित्त विभाग के प्रमुख अर्थात हज़रत यूसुफ़ के पास पहुंचे। वे तुरंत अपने भाइयों को पहचान गए किन्तु वे लोग उन्हें पहचान न सके क्योंकि हज़रत यूसुफ़ को कुएं में डालने की घटना को वर्षों बीत चुके थे और उन्हें उनके जीवित होने की अपेक्षा नहीं थी। किन्तु समय चक्र ने ऐसा काम किया कि वही यूसुफ़ मिस्र के शासक के बाद उस देश के सबसे बड़े अधिकारी बन चुके थे और उनके घमंडी और अहंकारी भाई उनके समक्ष बड़े अपमान से खड़े होकर उनसे अन्न मांग रहे थे।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने भी उचित नहीं समझा कि इन परिस्थितियों में उन्हें अपना परिचय दें अतः उन्होंने एक अज्ञात व्यक्ति की भांति उनके साथ व्यवहार किया और आदेश दिया कि दूसरों की भांति उन्हें भी परिजनों की संख्या के अनुसार गेहूं दिया जाए।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान का दायित्व मनुष्य से मांग करता है कि वह वंचित और अकाल ग्रस्त क्षेत्रों के संबंध में संवेदनशील रहे और उनकी सहायता करे चाहे वह स्वयं किसी अन्य क्षेत्र का ही क्यों न हो और वहां के लोग उसके धर्म के न हों।
कठिन और संकटमयी स्थिति में सभी लोगों को एक दृष्टि से देखना चाहिए। न्याय की मांग है कि संभावनाओं की सही वितरण शैली अपनाकर सभी को एक समान संभावनाएं प्रदान की जानी चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 59 और 60 
और जब यूसुफ़ ने उनका सामान तैयार कर दिया तो उनसे कहा कि अगली बार अपने पिता के पुत्र को भी मेरे पास लाना। क्या तुम नहीं देखते कि मैं सही ढंग से नाप तोल करता हूं और मैं सबसे अच्छा मेज़बान हूं। (12:59) और यदि तुम उसे मेरे पास नहीं लेकर आए तो न तो तुम्हें कोई सामान मिलेगा और न ही तुम मुझ से निकट हो पाओगे। (12:60)
जैसा कि इतिहास में वर्णित है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने अकाल के समय अनाज लेते हुए उनसे कहा कि पिता की ओर से हमारा एक अन्य भाई भी है। हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि यदि तुम्हें उसका भाग चाहिए तो उसे मेरे पास लेकर आओ। उन्होंने कहा कि हमारे पिता वृद्ध हो चुके हैं और हमने उसे अपने पिता की सेवा के लिए उनके पास छोड़ दिया है। हज़रत यूसुफ़ ने कहा कि इस बार मैं तुम्हें उसका और तुम्हारे पिता का भी संपूर्ण भाग दिए देता हूं किन्तु यदि अगली बार तुम अनाज लेना चाहो तो तुम्हें उसे साथ लाना होगा अन्यथा मैं तुम्हें न तो उसका भाग दूंगा और न ही तुम्हारा भाग।
ये आयतें अकाल के समय लोगों के बीच अनाज बांटने में हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की सीधी उपस्थिति और देख रेख का उल्लेख करती हैं जिससे लोगों के अधिकारों पर भरपूर ढंग से ध्यान दिए जाने और दायित्व पालन का पता चलता है। खेद की बात यह है कि आजकल की सरकारें और अधिकारी इस बात पर ध्यान नहीं देते और अधिकारी केवल आदेश देते हैं, मामलों की देख रेख नहीं करते।
इन आयतों से हमने सीखा कि सत्ता का ग़लत लाभ उठाते हुए प्रतिशोध लेने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ ने अपने अत्याचारी भाइयों को अनाज दिया और उनसे प्रतिशोध नहीं लिया। उन्होंने अपने भाइयों का सत्कार किया कि जो पैग़म्बरों की विशेषता है।
क़ानून लागू करने में साधारण लोगों और अपने परिजनों में अंतर नहीं रखना चाहिए बल्कि सभी को समान दृष्टि से देखना चाहिए।
पूरी दृढ़ता के साथ क़ानून लागू करना चाहिए और इसमें प्रेम और स्नेह आड़े नहीं आना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 61-65,
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 61 
उन्होंने कहा, हम उसके पिता से वार्ता (उन्हें सहमत करने का प्रयास) करेंगे और हमें यह काम तो करना ही है। (12:61)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई अनाज लेने के लिए उनके पास आए तो उन्हें पहचान नहीं पाए और कहने लगे, हमारे वृद्ध पिता और छोटा भाई नहीं आ सके हैं अतः हमें उनका भाग भी दिया जाए। हज़रत यूसुफ़ ने स्वीकार कर लिया किन्तु उनसे कहा कि अगली बार जब तुम अनाज लेने के लिए आना तो अपने छोटे भाई को भी साथ लाना अन्यथा तुम्हें उसका भाग नहीं दिया जाएगा।
यह आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने यह बात स्वीकार कर ली और कहा कि यद्यपि हमारे पिता उसे हमारे साथ भेजने के लिए तैयार नहीं होंगे किन्तु हम उन्हें तैयार करने का प्रयास करेंगे। वे भलिभांति जानते थे कि उनके पिता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम हज़रत यूसुफ़ और उनके छोटे भाई बिनयामिन से उनकी ईर्ष्या से अवगत हैं और हज़रत यूसुफ़ की घटना के बाद बिनयामिन को कभी भी अपने से दूर नहीं जाने देते अतः वे इतनी लंबी यात्रा पर उन्हें उनके भाइयों के साथ भेजने पर कदापि तैयार नहीं होंगे।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 62 
यूसुफ़ ने अपने सेवकों से कहा, इन्होंने अनाज के बदले में जो कुछ दिया है उसे इनके सामान में ही रख दो, जब वे अपने घर लौटेंगे तो शायद उसे पहचान लें और फिर शायद लौट आएं। (12:62)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों को पुनः मिस्र लौटाने के लिए आदेश दिया कि जो धन उन्होंने अनाज के बदले में दिया है, उसे उनके सामान में रख दिया जाए ताकि जब वे वापस घर लौट कर उसे देखें तो अनाज लेने के लिए फिर से मिस्र की यात्रा करने पर प्रोत्साहित हों और यात्रा की कठिनाइयों के कारण उनका विचार बदल न जाए।
अलबत्ता स्पष्ट है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मिस्र के कोषाध्यक्ष थे और इस प्रकार से अपने भाइयों को धन नहीं दे सकते थे, अतः उन्होंने अपने निजी पैसों से भाइयों के अनाज के दाम चुकाए थे।
इस आयत से हमने सीखा कि अपने परिजनों और सगे संबंधियों से जुड़े रहने का अर्थ यह है कि उनकी बुराई के मुक़ाबले में उनकी हर संभव सहायता की जाए, उनसे प्रतिशोध लेने का प्रयास न किया जाए और उनके प्रति हृदय में द्वेष न रखा जाए।
पुरुषार्थ और महानता हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से सीखनी चाहिए। उन्होंने न केवल यह कि पिछली घटनाओं के कारण अपने भाइयों को अनाज से वंचित नहीं रखा बल्कि अनाज के लिए दिए गए उनके धन को भी अपने पास से उन्हें लौटा दिया।
आइये अब सूरए सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 63 और 64 
तो जब वे अपने पिता के पास वापस लौटे तो उन्होंने कहा, हे पिता! हमें आदेश दिया गया है कि अब तो अनाज की माप हमारे लिए बंद कर दी गई है, अतः आप हमारे भाई को हमारे साथ भेज दीजिए ताकि हम अनाज में से अपना भाग ले सकें और निश्चित रूप से हम उसके रक्षक हैं। (12:63) उन्होंने कहा, क्या मैं इसके मामले में भी तुम पर वैसा ही विश्वास करुं जैसा इससे पूर्व इसके भाई के मामले में कर चुका हूं? प्रत्येक दशा में ईश्वर सबसे बड़ा रक्षक और सबसे अधिक कृपालु है। (12:64)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम द्वारा अपने भाइयों को यह आदेश दिए जाने के बाद कि अगली बार अनाज लेने के लिए वे अपने छोटे भाई बिनायामिन को भी साथ लेकर आएं, उनके भाइयों ने अपने पिता को वचन दिया कि वे बिनयामिन को सुरक्षित ले जाएंगे और सुरक्षित वापस लाएंगे, किन्तु एक ओर तो हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के मन में हज़रत यूसुफ़ की कटु घटना थी और दूसरी ओर अनाज प्राप्त करने के लिए उनके पास बिनयामिन को उनके साथ भेजने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था। इसी कारण उन्होंने ईश्वर पर भरोसा करते हुए अपने पुत्र को उसके हवाले किया और उससे प्रार्थन की कि वह बिनयामिन की रक्षा करे।
इन आयतों से हमने सीखा कि कठिन और संकटमयी समय में केवल ईश्वर पर भरोसे से ही हृदय को शांति प्राप्त होती है अतः हमें केवल उसी की शरण में जाना चाहिए तथा उसी से सहायता मांगनी चाहिए।
एक कटु अनुभव से स्वयं को अलग नहीं किया जा सकता। कभी कभी हमें दूसरे पक्ष को समय देना चाहिए कि अपने आपको सामने ला सके। साथ ही हमें अतीत को भी याद रखना चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 65 
और जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनका माल उन्हें लौटा दिया गया है। उन्होंने कहा, हे पिता! हमें और क्या चाहिए? यह हमारा माल भी हमें लौटा दिया गया है और हम अपने परिजनों के लिए खाद्य सामग्री लाएंगे और अपने भाई की भी रक्षा करेंगे तथा उसे अपने साथ लेकर एक ऊंट का अतिरिक्त भार ले आएंगे कि यह माप मिस्र के शासक के लिए बहुत ही सहज है। (12:65)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाइयों से अनाज के मूल्य के रूप में जो धन लिया था, उसे उनके सामान में रखवा दिया था। शायद यदि वे आरंभ में ही यह कह देते कि मैं तुम से कुछ नहीं लूंगा तो उनके भाइयों को अचरज भी होता और एक प्रकार से वे इसे अपना अपमान भी समझते कि माने वे भिखारी हों और उन्हें पैसे देने की आवश्यकता नहीं है किन्तु हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता यह है कि उन्होंने विदित रूप से अनाज का मूल्य लिया और गुप्त रूप से उसे उनके सामान में रखवा दिया क्योंकि, सेवा बिना उपकार जताए होनी चाहिए।
अलबत्ता जब उनके भाई अपने पिता के पास लौटे तो उन्होंने इसे हज़रत यूसुफ़ का काम नहीं बताया बल्कि गोल मोल रूप में कहा कि हमें धन लौटा दिया गया है। उन्होंने इसे एक प्रकार से अपना सौभाग्य बताया।
इस आयत से हमने सीखा कि पुरुष पर अपने परिजनों और इसी प्रकार अपने माता पिता का ख़र्चा का दायित्व है।
अनाज के अभाव के समय में खाद्य पदार्थों की कोटाबंदी एक आवश्यक कार्य है ताकि किसी के साथ अन्याय न होने पाए और हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम सहित सभी ईश्वरीय पैग़म्बरों की शैली रही है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 66-68, (कार्यक्रम 392)
आइये पहले सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 66 
(हज़रत याक़ूब ने) कहा कि मैं कदापि उसे तुम्हारे साथ नहीं भेजूंगा जब तक तुम मुझे पक्का ईश्वरीय वचन न दे दो कि उसे मेरे पास अवश्य (वापस) ले आओगे सिवाय इसके कि तुम स्वयं ही कहीं घेर लिए जाओ। तो जब उन्होंने वचन दे दिया तो (हज़रत याक़ूब ने) कहा, जो कुछ हम कहते हैं उस पर ईश्वर दृष्टि रखने वाला है। (12:66)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्रों को अनाज लेने की अगली बारी के लिए अपने छोटे भाई बिनयामिन को साथ लेकर जाना था किन्तु हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम जानते थे कि उनके पुत्र, यूसुफ़ की भांति बिनयामिन से भी ईर्ष्या करते हैं अतः उन्हें बहुत चिंता थी, दूसरी ओर उनके पास अनाज लाने के लिए बिनयामिन को मिस्र भेजने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं था।
अतः उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे ईश्वर की सौगंध खाकर वचन दें कि बिनयामिन को पूरी सुरक्षा के साथ वापस ले आएंगे सिवाय इसके कि स्वयं तुम्हारे साथ कोई घटना हो जाए। उन्होंने भी सौगंध खाकर वचन दिया कि जिसके बाद हज़रत याक़ूब ने कहा कि यह मत सोचना कि यह एक साधारण सी बात है जिसे तुम अपनी ज़बान से कह रहे हो बल्कि यदि तुम ने अपनी सौगंध तोड़ी तो ईश्वर तुम्हें दंडित करेगा क्योंकि जो कुछ हम कहते हैं ईश्वर उन सबसे अवगत है।
इस आयत से हमने सीखा कि किसी कार्य के लिए ठोस वचन लेना क़ुरआन की पद्धति है। बेहतर है कि सामाजिक मामलों में भी लोगों से ठोस वचन लिया जाए।
क़ानूनी मामलों में हर काम सतकर्ता से और सुदृढ़ ढंग से करना चाहिए किन्तु ईश्वर पर हमारे भरोसे में कमी का कारण न बने।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 67 
(हज़रत याक़ूब ने) कहा, हे मेरे बच्चो! (मिस्र में प्रवेश के समय) सभी एक ही द्वार से प्रविष्ट न होना बल्कि विभिन्न द्वारों से प्रवेश करना और मैं ईश्वर के मुक़ाबले में तुम्हें किसी बात से नहीं बचा सकता कि आदेश तो केवल ईश्वर का ही (चलता) है। मैंने उसी पर भरोसा किया है और सभी भरोसा करने वालों को उसी पर भरोसा करना चाहिए। (12:67)
जब हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्र मिस्र की यात्रा पर रवाना होने लगे तो उन्होंने उन लोगों को कुछ सिफ़ारिशें कीं। उन्होंने कहा कि सब के सब एक ही द्वार से प्रविष्ट न होना क्योंकि इससे लोगों में ईर्ष्या अथवा संवेदनशीलता उत्पन्न हो सकती है। उन्होंने कहा कि सब लोग विभिन्न द्वारों से नगरों में प्रवेश करना ताकि इस प्रकार की बातों का सामना न करना पड़े।
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने कहा कि इस सिफ़ारिश का यह अर्थ नहीं है कि यदि ईश्वर की ओर से तुम्हारे लिए कोई बात निर्धारित हो तो तुम इससे बच जाओगे। इस आयत से पता चलता है कि ईश्वर की इच्छा और उसका आदेश इस संसार में सर्वोपरि है और हम उसे नहीं रोक सकते किन्तु हम जो बातें जानते और समझते हैं उनके अनुसार काम कर सकते हैं और साथ ही ईश्वर पर भरोसा कर सकते हैं कि जो वह चाहता है वही होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सभी मामलों में चिंतन और युक्ति आवश्यक है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि जो कुछ हम चाहते हैं वह हो कर ही रहेगा क्योंकि अंत में वही होता है जो ईश्वर की इच्छा होती है।
हमें केवल ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए कि वही सर्वसमक्ष और हमारा हितैषी है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 68 
और जब (हज़रत याक़ूब के पुत्र) उसी प्रकार मिस्र में प्रविष्ट हुए जैसा उनके पिता ने आदेश दिया था तो यद्यपि वे ईश्वरीय बला को टाल नहीं सकते थे किन्तु यह एक इच्छा थी जो याक़ूब के हृदय में पैदा हुई जिसे उन्होंने पूरा कर लिया और वे हमारे द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान के आधार पर ज्ञान वाले थे किन्तु अधिकांश लोग इसे नहीं जानते। (12:68)
यह आयत एक बार फिर बल देकर कहती है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्रों को जिन बातों की सलाह दी थी वे ईश्वरीय इच्छा को रोक नहीं सकती थीं और उनका प्रभाव केवल यह होता है कि हज़रत याक़ूब की इच्छा पूरी हो जाती और उन्हें यह सोच कर संतोष प्राप्त हो जाता कि वे उनकी सलाह के अनुसार काम करेंगे।
आगे चलकर आयत कहती है कि अलबत्ता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की यह सलाह भी उस ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर थी जो ईश्वर ने अपने पैग़म्बरों को प्रदान किया है और यह उनका व्यक्तिगत ज्ञान नहीं है। पैग़म्बरों ने मानवीय मतों में ज्ञान अर्जित नहीं किया है, इसी कारण वे साधारण लोगों की भांति नहीं हैं। उनका शिक्षक ईश्वर है और वे जो कुछ कहते और करते हैं वह ईश्वरीय शिक्षा के आधार पर होता है। अपने पुत्रों को हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम की सलाह भी इन्हीं शिक्षाओं के आधार पर थी।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों की प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती है क्योंकि वे ईश्वर की इच्छा के अतिरिक्त कुछ चाहते ही नहीं।
अधिकांश लोग, घटनाओं के विदित रूप और कारणों को ही देखते हैं और ईश्वरीय इच्छा की ओर से निश्चेत रहते हैं।


सूरए यूसुफ़, आयतें 69-73
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या उन्हत्तर
और जब वे यूसुफ़ के पास पहुंचे तो उन्होंने अपने भाई (बिनायामिन) को अपने पास स्थान दिया और कहा कि मैं तुम्हारा भाई हूं तो जो कुछ वे करते हैं उससे दुखी न हो। (12:69)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अंततः हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम इस बात के लिए तैयार हो गए कि अपने पुत्र बिनयामिन को उनके भाइयों के साथ अनाज लाने के लिए मिस्र भेजे।
यह आयत कहती है कि जब वे मिस्र पहुंचे तो हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने किसी प्रकार बिनयामिन से एकांत में बात की और उन्हें अपना परिचय देकर उनकी चिंता को समाप्त कर दिया क्योंकि वे अपने भाइयों के व्यवहार की ओर से चिंतित थे और सोच रहे थे कि उनके भाई उन्हें भी यूसुफ़ की भांति उनके पिता से अलग कर देंगे। हज़रत यूसुफ़ ने बिनयामिन से कहा कि वे उन्हीं के साथ रहें। यह बात बिनयामिन ने स्वीकार कर ली।
इस आयत से हमने सीखा कि झूठ बोलना वर्जित है किन्तु हर सच बात कहना भी आवश्यक नहीं है। जब तक हज़रत यूसुफ़ ने उचित नहीं समझा अपने भाइयों को अपना परिचय नहीं दिया बल्कि केवल अपने एक भाई को अपने बारे में बताया।
जब कोई अनुकंपा प्राप्त हो तो पिछली कटु घटनाओं को भूल जाना चाहिए, जब यूसुफ़ और बिनयामिन मिले तो उन्होंने पिछले दुख को भुला दिया।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 70 
तो जब हज़रत यूसुफ़ ने उनका सामान तैयार करा दिया तो पानी पीने का (मूल्यवान) बर्तन अपने भाई के सामान में रखवा दिया। फिर एक पुकारने वाले ने कहा कि हे कारवां वालो! निश्चित रूप से तुम सब चोर हो। (12:70)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम चाहते थे कि बिनयामिन को अपने पास ही रोक लें ताकि उनके भाई अगली यात्रा में उनके पिता और अन्य परिजनों को मिस्र लाने पर विवश हो जाएं। इसी कारण उन्होंने यह बात बिनयामिन को बताई और एक योजना तैयार की, जिस प्रकार से कि उन्होंने पिछली बार भी अपनी भाइयों को दिए गए अनाज में उसका दाम वापस रख दिया था ताकि वे अनाज लेने पुनः वापस आएं।
इस बार हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की योजना यह थी कि एक मूल्यवान बर्तन बिनयामिन के सामान में रखवा दिया जाए और उन्होंने ऐसा किया। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के कर्मचारियों को इस बात की सूचना नहीं थी अतः उन्होंने पूरे कारवां वालों को चोर कहा और उनके सामान की तलाशी ली।
इस आयत से हमने सीखा कि किसी अधिक आवश्यक कार्य के लिए योजना बनाना वैध है किन्तु इसकी शर्त यह है कि किसी पर अत्याचार न हो और निर्दोष व्यक्ति को पहले से ही इसकी सूचना दे दी गई हो।
अपने सहयोगियों और साथियों की ओर से सचेत रहना चाहिए क्योंकि किसी गुट में एक ग़लत व्यक्ति की उपस्थिति इस बात का कारण बनती है कि लोग पूरे गुट को ही बुरा समझें।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 71 और 72 
(यूसुफ़ के भाइयों ने) उनकी ओर मुड़कर कहा, तुमने क्या खो दिया है? (12:71) उन्होंने कहा कि हमसे शासक की नाप खो गई है और (शासक ने कहा है कि) जो कोई उसे लाएगा, उसे एक ऊंट के भार के बराबर अनाज दिया जाएगा और मैं इसका दायित्व लेता हूं। (12:72)
हज़रत यूसुफ़ के कर्मचारियों को जब यह पता चला कि जिस नाप से लोगों को अनाज दिया जाता है वह खो गई है तो उन्होंने कारवां वालों के सामान की तलाशी आरंभ की और सबसे पहले हज़रत यूसुफ़ के भाइयों के सामान की तलाशी ली। हज़रत यूसुफ़ ने उस नाप को खोजने में प्रोत्साहन के लिए घोषणा की कि जो कोई उसे खोजकर लाएगा उसे एक ऊंट के भार के बराबर अनाज पुरस्कार स्वरूप दिया जाएगा और मैं स्वयं पुरस्कार के संबंध में उत्तरदायी हूं।
इन आयतों से हमने सीखा कि किसी सार्थक कार्य में लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा उत्पन्न करने और उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार निर्धारित करना, ईश्वर की दृष्टि में स्वीकार्य और प्रिय कार्य तथा पैग़म्बरों की परंपरा है।
पुरस्कार, लाभहीन और औपचारिक नहीं बल्कि समय की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए, अकाल के समय में सर्वोत्तम पुरस्कार एक ऊंट के भार के बराबर अनाज था।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 73 
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! तुम लोग जानते हो कि हम इस धरती में बिगाड़ पैदा करने के लिए नहीं आए हैं और हम कदापि चोर नहीं हैं। (12:73)
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों को यह पता चला कि उन्हें चोर समझा जा रहा है और इसीलिए उन्हें ऐसी दृष्टि से देखा जा रहा है तो उन्होंने अपना बचाव करते हुए कहा कि हम इससे पूर्व भी एक बार तुम्हारे देश में आ चुके हैं और हमने कोई अपराध या चोरी नहीं की थी तो अब तुम हमारे साथ इस प्रकार का व्यवहार क्यों कर रहे हो? तुम्हें तो ज्ञात है कि हम इस प्रकार का काम करने वाले लोग नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि अच्छा अतीत, कभी कभी लोगों के निर्दोष होने का प्रमाण होता है सिवाय इसके कि उनके अपराधी होने का कोई प्रबल प्रमाण हो।
चोरी, धरती में बिगाड़ का एक प्रतीक है कि जो एक पूरे क्षेत्र के लोगों की तबाही का कारण बनती है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 74-77, (कार्यक्रम 394)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 74 और 75 
(सरकारी कर्मचारियों ने) कहा, तो यदि तुम झूठे हुए तो उसका क्या दंड होगा? (12:74) (यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि जिसके भी सामान में वह नाप मिल जाए वह स्वयं ही उसका दंड होगा, हम इसी प्रकार अत्याचारियों को दंड देते हैं। (12:75)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने भाई बिनयामिन को अपने पास रोकने तथा अपने माता-पिता को मिस्र बुलाने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक योजना तैयार की और बिनयामिन को उससे अवगत करा दिया। उन्होंने शासक के मूल्यवान पियाले को बिनयामिन के सामान में छिपा दिया और जब सरकारी कर्मचारियों को पियाले के गुम हो जाने की सूचना मिली तो उन्होंने उसे खोजना आरंभ किया और बिनयामिन को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया।
किन्तु हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने चोरी के आरोप से अपना बचाव किया और कहा कि यदि तुम्हारा पियाला खो गया है तो इसमें हमारा कोई दोष नहीं है। सरकारी कर्मचारियों ने कहा कि यदि वह तुम लोगों के सामान में मिला तो तुम्हारा दंड क्या होगा? उन्होंने उत्तर में कहा कि हमारे क्षेत्र में यह परंपरा है कि यदि कोई चोरी करता है तो उसे उस व्यक्ति का दास बना दिया जाता है जिसके माल की चोरी हुई है ताकि उसकी क्षतिपूर्ति हो सके।
इन आयतों से हमने सीखा कि अपराधी के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि वह स्वयं अपने बारे में अपनी अंतरात्मा के आधार पर निर्णय करे और सरलता से न्याय को स्वीकार कर ले।
क़ानून के क्रियान्वयन में भेद-भाव से काम नहीं लेना चाहिए। चोर को गिरफ़्तार किया जाना चाहिए चाहे वह कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति ही क्यों न हो।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 76 
तो अपने भाई के सामान से पहले उनके सामान की तलाशी ली और फिर पियाले को अपने भाई के सामान में से बाहर निकाला। इस प्रकार से हमने यूसुफ़ के हित में युक्ति की। वे (मिस्र के) शासक के क़ानून के अनुसार अपने भाई को अपने पास नहीं रोक सकते थे, सिवाय इसके कि ईश्वर चाहे। इस प्रकार हम जिसे चाहते हैं, उसे उच्च स्थान प्रदान करते हैं और हर जानकार के ऊपर एक दूसरा जानकार है। (12:76)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की योजना के अनुसार, उन्होंने अपने भाइयों के संदेह को रोकने के लिए पहले बड़े भाइयों के समान की तलाशी ली और फिर छोटे भाई बिनयामिन के सामान की तलाशी ली तथा मूल्यवान पियाला उनके सामान से बाहर निकाला और घोषणा की कि वे चोर हैं और जैसा कि उनके भाइयों ने कहा था कि उनके क्षेत्र में चोर का दंड यह होता है कि उसे उस व्यक्ति का दास बना दिया जाता है जिसके सामान की चोरी होती है।
क़ुरआने मजीद कहता है कि इस प्रकार की युक्ति ईश्वर ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम को सिखाई थी अन्यथा उनके पास अपने भाई को रोकने का कोई मार्ग नहीं था। यदि उनके भाई अपने क्षेत्र की परंपरा के बारे में नहीं बताते तो मिस्र के क़ानून के अनुसार हज़रत यूसुफ़ बिनयामिन को चोरी के आरोप में अपने पास नहीं रोक सकते थे।
आगे चलकर आयत कहती है कि मिस्र में हज़रत यूसुफ़ को जो उच्च स्थान प्राप्त हुआ था वह ईश्वर की इच्छा के अनुसार था कि जिसका ज्ञान, हर प्रकार के ज्ञान के ऊपर और उससे श्रेष्ठ है और ईश्वर सदैव यूसुफ़ के मन में नई नई युक्तियां डालता था ताकि वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
इस आयत से हमने सीखा कि किसी भी देश के क़ानूनों का पालन उसमें रहने वालों के लिए आवश्यक है चाहे उसकी सरकार ग़ैर ईश्वरीय क्यों न हो, अलबत्ता यदि वह क़ानून, ईश्वरीय आदेशों के विपरीत हो तो वहां से पलायन कर जाना चाहिए, ईश्वरीय क़ानून का उल्लंघन नहीं करना चाहिए।
ज्ञान, श्रेष्ठता व वरीयता का कारण है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 77 
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा कि यदि उसने चोरी की है तो इससे पूर्व उसका भाई भी चोरी कर चुका है। यूसुफ़ ( इस बात से अप्रसन्न हुए किन्तु अपनी इस अप्रसन्नता को मन में) छिपाए रहे और उनके समक्ष इसे व्यक्त नहीं किया। उन्होंने कहा कि तुम बहुत ही बुरे लोग हो और जो कुछ तुम कह रहे हो इसके बारे में ईश्वर ही अधिक जानने वाला है। (12:77)
यद्यपि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने चोरी नहीं की थी किन्तु उन्हें यह भी पता था कि उनके भाई बिनयामिन ने भी चोरी नहीं की है, अतः आशा यह थी कि वे अपने छोटे भाई का बचाव करते और उन पर लगे निराधार आरोप को समाप्त करने का प्रयास करते किन्तु मानो वे भी यही चाहते थे कि बिनयामिन को चोरी के आरोप में मिस्र में ही रोक लिया जाए और वे उनके बिना ही अपने पिता के पास लौटें क्योंकि उनके पिता बिनयामिन से भी बहुत अधिक प्रेम करते थे जबकि वे चाहते थे कि हज़रत याक़ूब का ध्यान उनकी ओर अधिक हो।
किन्तु हज़रत यूसुफ़ के दुष्ट भाइयों ने न केवल यह कि अपने छोटे भाई का बचाव नहीं किया बल्कि अपने दूसरे भाई यूसुफ़ पर भी अकारण चोरी का आरोप लगाया ताकि सरकारी कर्मचारियों का संदेह और अधिक दृढ़ हो जाए और वे बिनयामिन को गिरफ़्तार करके मिस्र में ही रोक लें और हुआ भी ऐसा ही।
आगे चलकर आयत कहती है कि यद्यपि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम सत्ता में थे और बड़ी सरलता से अपने भाइयों को दिए जाने वाले अनाज को वापस ले सकते थे या उन सभी को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर सकते थे किन्तु उन्होंने धैर्य व संयम से काम लिया और अपने ऊपर लगने वाले चोरी के आरोप को भी क्षमा कर दिया। उन्होंने कहा कि जो कुछ तुम कह रहे हो उसके बारे में ईश्वर बेहतर जानता है किन्तु मेरी दृष्टि में तुम्हारी वर्तमान स्थिति उस बात से कहीं बुरी है जो तुम अपने भाइयों के बारे में कह रहे हो। शासक का पियाला तुम लोगों के सामान में से मिला है और इसका दंड साधारण नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए लोगों के कटाक्षों को सहन करना और धैर्य से काम लेना पड़ता है।
रहस्योद्धाटन हर स्थान पर उचित नहीं होता बल्कि अधिकतर अवसरों पर दूसरों के रहस्यों को छिपाना, बहुत आवश्यक होता है, विशेषकर शासकों के लिए जिनका पद सबसे उच्च होता है और उन्हें सार्वजनिक हितों को अपने व्यक्तिगत मामलों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 78-82, (कार्यक्रम 395)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 78 और 79 
(यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, हे मिस्र के शासक! उसके एक बहुत वृद्ध पिता हैं तो हम में से किसी एक को उसके स्थान पर ले लो कि निश्चित रूप से हमारी दृष्टि में तुम एक भले व्यक्ति हो। (12:78) यूसुफ़ ने कहा कि मैं ईश्वर की शरण चाहता हूं इस बात से कि जिसके पास हम अपना समान पाएं उसके अतिरिक्त किसी अन्य को पकड़ लें, ऐसी स्थिति में तो हम निश्चित रूप से अत्याचारियों में से हो जाएंगे। (12:79)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने एक योजना के अंतर्गत मिस्र के शासक का मूल्यवान पियाला अपने छोटे भाई बिनयामिन के सामान में रखवा दिया और फिर उन्हें चोरी के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया, अलबत्ता उन्होंने इसकी सूचना पहले ही बिनयामिन को दे दी थी।
यह आयत कहती है कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने देखा कि बिनयामिन को गिरफ़्तार कर लिया गया है और वे उनके बिना ही अपने घर वापस लौटने पर विवश हैं तो वे चिंतित हो गए। उन्हें वह वचन याद आया जो उन्होंने अपने पिता को दिया था, अतः उन्होंने प्रस्ताव दिया कि बिनयामिन के स्थान पर कोई दूसरा भाई मिस्र में रह जाए ताकि वे अपने पिता के पास लौट सकें।
किन्तु चूंकि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम बिनयामिन से इस संबंध में पहले ही बात कर चुके थे अतः उन्होंने अपने भाइयों के इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और इसे मिस्र के क़ानून के विरुद्ध बताया। इसके अतिरिक्त यदि वे किसी अन्य भाई को बिनयामिन के स्थान पर रोक लेते तो उनके भाई घर वापस लौट कर बिनयामिन को चोर बताते और स्वयं भी उन्हें यातनाएं देते।
इन आयतों से हमने सीखा कि जो लोग यूसुफ़ को अपमानित करना चाहते थे आज उन्हें मिस्र का शासक कहने पर विवश थे। यह ईश्वर का क़ानून है कि वह अत्याचारियों को अपमानित और अत्याचारग्रस्तों को सम्मानित करता है।
नियमों और क़ानूनों का पालन हर एक के लिए आवश्यक है और सरकारी अधिकारियों के लिए भी वैध नहीं है कि वे क़ानून का उल्लंघन करें।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 80 
तो जब (यूसुफ़ के भाई) उसकी (मुक्ति की) ओर से निराश हो गए तो अलग जाकर परामर्श करने लगे। उनके बड़े भाई ने कहा कि क्या तुम्हें पता नहीं कि तुम्हारे पिता ने (बिनयामिन को वापस लाने के संबंध में) तुम से ईश्वरीय वचन लिया था और इससे पूर्व तुम लोग यूसुफ़ के मामले में भी ढिलाई कर चुके हो अतः मैं तो इस स्थान से तब तक वापस नहीं जाऊंगा जब तक मेरे पिता मुझे अनुमति न दे दें या ईश्वर मेरे बारे में कोई निर्णय न कर दे कि वह सबसे अच्छा निर्णय करने वाला है। (12:80)
जब हज़रत यूसुफ़ के भाई उनकी ओर से निराश हो गए तो उन्होंने वापस लौटने का इरादा किया किन्तु बड़े भाई ने लौटने से इन्कार कर दिया और कहा कि पिता की दृष्टि में हमारा जो अतीत है उसे देखते हुए मैं वापस नहीं लौटूंगा सिवाय इसके कि पिता किसी तरह से मुझे अनुमति दें या ईश्वर मेरा फ़ैसला करे अथवा मुझे कोई दूसरा मार्ग सुझाए क्योंकि मैं वर्तमान स्थिति में पिता के पास लौट कर नहीं जा सकता।
इस आयत से हमने सीखा कि अन्य लोगों यहां तक कि अपने भाइयों और परिजनों के अनुरोध और आग्रह से भी क़ानून के पालन में रुकावट नहीं आनी चाहिए, बल्कि दृढ़ता के साथ क़ानून को लागू करना चाहिए।
वचन लेने से लोग अपने दायित्वों का अधिक गंभीरता से पालन करते हैं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 81 और 82 
(यूसुफ़ के बड़े भाई ने कहा) तुम लोग अपने पिता की ओर लौट जाओ। उनसे कहना कि हे पिता! तुम्हारे पुत्र ने चोरी की है और हमने केवल उसकी बात की गवाही दी है जिसका हमें ज्ञान था और हम ग़ैब अर्थात ईश्वरीय ज्ञान से अवगत नहीं हैं (12:81) और (यदि आपको हमारी बातों पर विश्वास न हो तो) आप उस बस्ती (के लोगों) से पूछ लें जिसमें हम थे और उस कारवां से भी जिसमें हम वापस लौटे हैं (ताकि आपको विश्वास हो जाए) कि निश्चित रूप से हम सच्चे हैं। (12:82)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों की वार्ता में बड़े भाई ने कहा कि मैं मिस्र में ही रुकूंगा ताकि शायद मिस्र के शासक को दया आ जाए और वह बिनयामिन को स्वतंत्र कर दे। इसी के साथ उसने अपने भाइयों से कहा कि वे अपने पिता के पास वापस लौट जाएं और जो कुछ देखा और समझा है, उसे उन्हें बता दें। इस संबंध में वे कारवां के लोगों को अपनी बात की पुष्टि करने के लिए पेश कर सकते हैं। उन्हें अपने पिता से कहना चाहिए कि बिनयामिन को चोर के रूप में गिरफ़्तार कर लिया गया है और मैं उसे स्वतंत्र कराने के लिए मिस्र में रुक गया हूं।
अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ के बड़े भाई ने जो कुछ कहा था वह सच था किन्तु उन लोगों का बुरा अतीत इस बात का कारण बनता कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम उनकी बातों पर विश्वास न करते और सोचते कि उन्होंने यूसुफ़ की भांति बिनयामिन को भी उनसे अलग करने के लिए कोई षड्यंत्र रचा है। इसी कारण बड़े भाई ने किसी को साक्षी के रूप में प्रस्तुत करने के बारे में सोचा ताकि पिता का संदेह समाप्त हो जाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि जब तक ठोस प्रमाण और साक्ष्य न मिल जाए तब तक आरोपियों के संबंध में निर्णय करते समय जल्दबाज़ी नहीं करनी चाहिए। हज़रत यूसुफ़ के बड़े भाई ने कहा कि बिनयामिन को चोरी के आरोप में पकड़ा गया है किन्तु हमें वास्तविकता का ज्ञान नहीं है
बुरा अतीत, मनुष्य की सच्ची बात के संबंध में भी लोगों के संदेह का कारण बनता है, हमें अपने अतीत के संबंध में बहुत सतर्क रहना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 83-86, (कार्यक्रम 396)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 83 और 84 
(हज़रत याक़ूब ने) कहा, तुम्हारे मन (की इच्छाओं) ने, मामले को इस प्रकार तुम्हारे समक्ष प्रस्तुत किया अतः अब भली प्रकार से धैर्य से काम लेना आवश्यक है। आशा है कि ईश्वर उन सबको मुझे लौटा दे कि निसंदेह वही सबसे अधिक जानकार और तत्वदर्शी है। (12:83) और वे (अपने पुत्रों से) मुंह फेरकर बैठ गए और कहा, हाय यूसुफ़! और इसके बाद दुख के मारे उनकी दोनों आखें सफ़ेद हो गईं किन्तु वे अपने क्रोध को पीते रहे। (12:84)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई अपने पिता के पास लौटे जबकि बिनयामिन हज़रत यूसुफ़ के पास मिस्र में ही रुके रहे। उनके भाइयों ने जो कुछ देखा था उसके आधार पर उन्होंने बिनयामिन को चोर बताया।
इन आयतों में हज़रत याक़ूब अपने बेटों से कहते हैं कि ऐसा प्रतीत होता है कि इस बार भी तुम्हारी आंतरिक इच्छाओं ने एक बुरे कर्म को तुम्हें सुंदर बना कर दिखाया जिसके परिणाम स्वरूप बिनयामिन को मिस्र में ही रुकना पड़ा और मुझे यूसुफ़ के साथ ही बिनयामिन का भी विरह सहना करना पड़ेगा किन्तु मैं धैर्य करूंगा और मुझे आशा है कि ईश्वर उन्हें अवश्य लौटाएगा और हम सब पुनः एक साथ जीवन व्यतीत करेंगे।
अलबत्ता हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम का धैर्य वेदना और दुख के साथ था और वे अपने पुत्रों के विरह में इतना रोए कि उनकी आखें चली गईं क्योंकि वे अपने दुख को ज़बान पर नहीं लाते थे किन्तु उनका मन बहुत अधिक दुखी रहता था। यद्यपि हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने इस बार कोई ग़लती नहीं की थी और वे बिनयामिन को कोई क्षति भी नहीं पहुंचाना चाहते थे किन्तु ये समस्याएं, यूसुफ़ के बारे में उनके बुरे व्यवहार की याद दिलाती थीं, यही कारण था कि हज़रत याक़ूब ने इस स्थान पर भी अपने पुत्रों की आलोचना की और स्वयं को धैर्य व संयम की सिफ़ारिश की, अलबत्ता ऐसा धैर्य जिसमें ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध कुछ न कहा जाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर पर ईमान रखने वाला व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में धैर्य करता है क्योंकि वह जानता है कि कठिनाइयां, अकारण नहीं होतीं और ईश्वर मनुष्य की सभी बातों से अवगत है।
अपने प्रियजनों के विरह पर रोना एक स्वाभाविक बात है, ईश्वर के प्रिय बंदे भी इससे अपवाद नहीं हैं।
यूसुफ़ का महत्त्व इतना अधिक था कि उनके पिता उनके विरह में रोते रोते अंधे हो गए, यहां तक कि जब उन्हें बिनयामिन के बंदी बनाए जाने का समाचार मिला तब भी उन्होंने यूसुफ़ का नाम लिया और उनके विरह पर दुखी हुए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 85 
(हज़रत याक़ूब के पुत्रों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! आप यूसुफ़ को इतना याद करेंगे कि बीमार पड़ जाएंगे अथवा प्राण त्याग देंगे। (12:85)
स्पष्ट है कि मिस्र में बिनयामिन के गिरफ़्तार कर लिए जाने से हज़रत याक़ूब का घाव हरा हो गया और वे हज़रत यूसुफ़ को याद करने लगे किन्तु उनके भाई जो उनके अस्तित्व को सहन नहीं कर सकते थे, यह नहीं चाहते थे कि उनके पिता यूसुफ़ का नाम लें अतः उन्होंने हज़रत याक़ूब से कहा कि यदि उनकी यही स्थिति रही तो यूसुफ़ का दुख आपकी जान ले लेगा। उसे भूल जाइये क्योंकि हमने स्वयं अपनी आंखों से देखा था कि भेड़िया उसे खा गया था, आप स्वयं को क्यों इतना तड़पाते हैं।
अलबत्ता यह बात भी स्पष्ट है कि वही यूसुफ़ के विरह में तड़पेगा जो उनके गुणों से अवगत होगा। उन भाइयों को यूसुफ़ से क्या प्रेम होगा जो उन पर पिता के स्नेह से ईर्ष्या करते हों और किसी न किसी प्रकार उन्हें पिता से दूर करने का षड्यंत्र रचते हों।
इस आयत से हमने सीखा कि हज़रत याक़ूब, हज़रत यूसुफ़ के गुणों को पहचान कर उनसे प्रेम करते थे और यही कारण था कि वे सदैव उन्हें याद करते रहते थे। हमें भी यह देखने के लिए कि हम ईश्वर से कितना प्रेम करते हैं, यह देखना चाहिए कि हम उसे कितना याद करते हैं।
हमें भौतिक प्रेम के स्थान पर वास्तविकता और गुणों से प्रेम करना चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 86 
याक़ूब ने कहा, मैं अपने (प्रकट) दुख और (छिपे) शोक की शिकायत केवल ईश्वर के समक्ष करता हूं और मैं ईश्वर की ओर से वह कुछ जानता हूं जो तुम नहीं जानते। (12:86)
क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों से पता चलता है कि ईश्वर के प्रिय बंदे अपने दुखों व कठिनाइयों का उल्लेख ईश्वर से करते हैं और उससे अपनी कठिनाइयों और समस्याओं के सामाधान की प्रार्थना करते हैं। जैसा कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने अपनी दरिद्रता की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना की और हज़रत अय्यूब अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से अपने रोग और अन्य समस्याओं की समाप्ति का निवेदन किया।
इस आयत में हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ईश्वर से अपने पुत्र के वियोग की शिकायत करते हैं क्योंकि पैग़म्बरों की दृष्टि में अनुकंपाएं प्रदान करना ईश्वर की कृपा है जबकि उन्हें वापस लेना उसकी तत्वदर्शिता के आधार पर होता है अतः दोनों परिस्थितियों में ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करना चाहिए किन्तु इसी के साथ कठिनाई की समाप्ति के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए।
इसके अतिरिक्त यह बात भी थी कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्ससलाम को विश्वास था कि हज़रत यूसुफ़ जीवित हैं, क्योंकि उन्होंने जो स्वप्न देखा था वह इस बात की पुष्टि करता था। यदि उन्हें यह ज्ञात होता कि हज़रत यूसुफ़ अब इस संसार में नहीं हैं तो वे उन्हें भुला सकते थे।
इस आयत से हमने सीखा कि अपनी समस्याओं के बारे में लोगों से शिकायत करना निंदनीय है किन्तु ईश्वर के समक्ष गिड़गिड़ाना, ईश्वर के पवित्र बंदों की शैली है।
कभी भी ईश्वर की कृपा की ओर से निराश नहीं होना चाहिए, उज्जवल भविष्य की आशा रखना, ईश्वर के प्रिय बंदों की एक विशेषता है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 87-89, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 87 
(हज़रत याक़ूब ने कहा) हे मेरे बच्चो! जाओ और यूसुफ़ तथा उसके भाई को खोजो और ईश्वर की दया से निराश न हो कि निश्चित रूप से ईश्वर की दया से काफ़िर गुट के अतिरिक्त कोई निराश नहीं होता। (12:87)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के पुत्रों ने उन्हें बिनयामिन को मिस्र में रोक लिए जाने की सूचना दी तो उन्हें अपने दूसरे पुत्र हज़रत यूसुफ़ की याद आ गई और वे ईश्वर के समक्ष बहुत रोए और गिड़गिड़ाए और उससे प्रार्थना की कि वह उनके पुत्रों को लौटा दे।
चूंकि हज़रत याक़ूब, अपने पुत्र यूसुफ़ द्वारा देखे गए स्वप्न के आधार पर जानते थे कि वे जीवित हैं और बहुत ही उच्च स्थान तक पहुंचेगे अतः उन्होंने अपने पुत्रों से कहा कि वे मिस्र वापस जाएं और यूसुफ़ के बारे में पूछताछ करें और उन्हें खोजकर लाएं और साथ ही बिनयामिन को स्वतंत्र करने का मार्ग खोजें और सबको लेकर उनके पास आएं।
हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्रों को यूसुफ़ को खोजने के संबंध में आशावान बनाने के लिए और अपनी बात का तर्क प्रस्तुत करने के लिए कहा कि ईश्वर पर ईमान रखने वाला व्यक्ति कभी भी उसकी दया व कृपा की ओर से निराश नहीं होता और ईश्वर की दया की ओर से निराशा, कुफ़्र की निशानी है।
इस आयत में आशा के लिए जो शब्द प्रयोग किया गया है वह रौह है जिसका मूल तत्व रीह अर्थात हवा है। इसका अर्थ यह है कि हवा चलने से मनुष्य शांति व संतोष का आभास करता है। क़ुरआने मजीद के कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि रौह शब्द, रूह अर्थात प्राण से लिया गया है। क्योंकि जब मनुष्य की समस्याएं दूर हो जाती हैं तो उसे ऐसा लगता है कि जैसे उसमें नए प्राण फूंक दिए गए हों।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय दया व कृपा की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। घर में बैठकर ईश्वरीय दया की आशा रखना निरर्थक है। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने भी अपने पुत्रों से कहा कि यूसुफ़ को खोजने का प्रयास करो और ईश्वरीय दया की ओर से भी निराश मत हो।
ईश्वर के प्रिय बंदे सदैव लोगों को ईश्वरीय कृपा की ओर से आशावान रखते हैं और लोगों को निराश करने वाले, ईश्वरीय धर्म से दूर होते हैं।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 88 
तो जब वे यूसुफ़ के पास पहुंचे तो कहा कि हे (मिस्र के) शासक! हमें और हमारे परिवार को भयंकर अकाल ने चपेट में ले लिया है और हम (अनाज ख़रीदने के लिए) बहुत थोड़ा माल लेकर आए हैं तो हमें हमारा पूरा भाग दे दो और हम पर उपकार करो कि निसंदेह ईश्वर उपकार करने वालों को भला बदला देता है। (12:88)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई जब तीसरी बार उनके पास गए तो उन्होंने बहुत ही गिड़गिड़ा कर उनसे कहा कि इस बार वे अनाज ख़रीदने के लिए बहुत थोड़े पैसे लेकर आए हैं किन्तु उन्हें आशा है कि उन्हें पूरा भाग दिया जाएगा।
उन्होंने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम से अनुरोध किया कि वे पहली बार की भांति जब उन्होंने उनके पैसे लौटा दिए थे, इस बार उनसे पूरे पैसे न लें और उनके साथ दया व कृपा का व्यवहार करें।
इस आयत से हमने सीखा कि दरिद्रता और आवश्यकता, मनुष्य के अहं को तोड़ देती है, वे भाई जो बहुत घमंड से कहा करते थे कि हम शक्तिशाली गुट हैं और सोचते थे कि उनके पिता ग़लती पर हैं, आज वे गिड़गिड़ा कर अनाज मांग रहे हैं।
ईश्वरीय प्रतिफल, लोगों में दूसरों की सेवा व सहायता की दृढ़ प्रेरणा उत्पन्न करता है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 89
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, क्या तुम्हें पता चल गया कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया जब तुम अज्ञानी थे? (12:89)
अनाज प्राप्त करने के लिए अपने भाइयों की ओर से गिड़गिड़ा कर किए गए अनुरोध ने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की पवित्र और प्रेम से भरी आत्मा पर इतना प्रभाव डाला कि वे उनके साथ अपने संबंध और अपने ऊपर बीतने वाली घटनाओं को छिपा नहीं सके। अतः उन्होंने एक अर्थपूर्ण प्रश्न पूछकर अपने भाइयों को चौंका दिया और वे उन्हें पहचान गए। हज़रत यूसुफ़ ने यह कहने के स्थान पर कि मैं वही यूसुफ़ हूं और तुम मेरे वही दोषी भाई हो, यह कहा कि क्या तुम्हें याद है कि तुमने उस समय यूसुफ़ और उसके भाई बिनयामिन के साथ अज्ञानता में क्या किया था जब तुम अहंकारी युवा थे?
उन्होंने यह प्रश्न पूछ कर अपने भाइयों को यह समझा दिया कि उन्हें अपने और उनके बारे में सब कुछ पता है और यदि आज वे विवश होकर उनसे भलाई की आशा रखते हैं तो उन्हें भी अपने बुरे अतीत के संबंध में ईश्वर से क्षमा मांगते हुए तौबा व प्रायश्चित करना चाहिए।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के इस व्यवहार में जो बिन्दु सबसे महत्त्वपूर्ण है वह यह है कि उन्होंने अपने भाइयों से कहा कि तुम ने यह सब जान बूझकर नहीं बल्कि अज्ञानता के कारण किया, मानो वे उनसे कह रहे हों कि इसमें तुम्हारा बहुत अधिक दोष नहीं था, तुम शैतान के धोखे में आ गए और ऐसा ग़लत काम कर बैठे। तुम तो मेरे भाई हो और तुम मेरे साथ कोई बुराई नहीं करना चाहते थे, यह तो शैतान था जिसने हमारे बीच जुदाई डाल दी और यह सारी समस्याएं उत्पन्न कीं। जैसा कि इसी सूरे की आयत नंबर एक सौ में भी यही बात कही गई है।
इस आयत से हमने सीखा कि अन्य लोगों विशेषकर अपने सगे संबंधियों के बारे में किया जाने वाला अत्याचार, भुलाया नहीं जा सकता और किसी न किसी दिन अवश्य ही सामने आता है।
शौर्य कहता है कि कल जिन लोगों ने हम पर अत्याचार किया था और आज उन्हें हमारी आवश्यकता है, सत्ता प्राप्त होने पर हमें उनके साथ भलाई का व्यवहार करना चाहिए, प्रतिशोध नहीं लेना चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 90-92, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 90 
(हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, क्या तुम ही यूसुफ़ हो? उन्होंने कहा, (हां) मैं ही यूसुफ़ हूं और यह मेरा भाई है। ईश्वर ने हम पर कृपा की है, निश्चत रूप से जो कोई ईश्वर से डरे और संयम से काम ले तो ईश्वर कभी भी भलाई करने वालों के प्रतिफल को व्यर्थ नहीं जाने देता। (12:90)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उसके समक्ष अपने दुखों और कठिनाइयों का वर्णन किया तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने स्वयं को पहचनवाने के लिए अप्रत्यक्ष रूप से उनसे पूछा कि क्या तुम्हें इस बात का ज्ञान है कि यूसुफ़ और उनके भाई पर क्या बीती?
सहसा ही उनके भाइयों को यह आभास हुआ कि यह व्यक्ति उनके भाई यूसुफ़ के बारे में कैसे जानता है? उन्होंने सोचना आरंभ किया और फिर उनके मन में यह बात आई कि कहीं यह व्यक्ति यूसुफ़ ही न हो? आयत कहती है कि वे एक साधारण से प्रश्न से यह समझ गए कि उनके भाई यूसुफ़ आज किस स्थान तक पहुंच चुके हैं किन्तु हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने इन सारी बातों को ईश्वर का उपकार बताते हुए कहा कि ईश्वर ने हम पर कृपा की और आज हम सब को एकत्रित कर दिया।
स्वाभाविक है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ओर से इस प्रकार के व्यवहार ने उनके भाइयों को अधिक लज्जित कर दिया होगा जिन्होंने उन पर बहुत अत्याचार किए थे किन्तु दूसरी ओर वे अत्याधिक प्रसन्न भी थे और अपनी इस प्रसन्नता को छिपा नहीं पा रहे थे। शायद यूसुफ़ को गले लगाना, उनके जीवन का सबसे स्मरणीय पल था जिसने लज्जा और प्रसन्नता को एकत्रित कर दिया था।
किन्तु क़ुरआने मजीद इस प्रकार की भावनाओं के उल्लेख के स्थान पर कि जो बहुत ही स्वाभाविक होती हैं और ऐसी परिस्थितियों में सभी लोगों के भीतर उत्पन्न हो सकती हैं, इस ईश्वरीय कृपा के कारणों का उल्लेख करते हुए कहता है, यदि हज़रत यूसुफ़ को इस प्रकार का उच्च स्थान प्राप्त हुआ तो उसका कारण यह है कि वे पाप के समक्ष झुके नहीं बल्कि डटे रहे और ईश्वर, इस प्रकार के लोगों के बदले को व्यर्थ नहीं जाने देता बल्कि इसी संसार में उन्हें सम्मान और सत्ता प्रदान करता है।
इस आयत से हमने सीखा कि बहुत सी वास्तविकताएं समय बीतने के बाद स्पष्ट होती हैं और जो बात सदैव रहने वाली है वह सत्य है।
सत्ता के योग्य वह होता है जो कटु घटनाओं, सत्ता और आंतरिक इच्छाओं के संबंध में भलि भांति परीक्षा में उत्तीर्ण हो।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 91 और 92 
(हज़रत यूसुफ़ के भाइयों ने) कहा, ईश्वर की सौगंध! ईश्वर ने तुम्हें हम पर श्रेष्ठता प्रदान की है, और हम ही दोषी थे। (12:91) उन्होंने कहा, आज तुम्हारी कोई पकड़ नहीं है, ईश्वर तुम्हें क्षमा करे और वह सबसे अधिक क्षमाशील है। (12:92)
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें पहचान लिया और उनके भले व्यवहार को देखा तो अपने पिछले रवैये पर लज्जित हुए और उन्होंने उनके संबंध में किए गए अत्याचार को स्वीकार किया और कहा कि तुम हर दृष्टि से हम से उत्तम और श्रेष्ठ हो और हमने आकारण तुमसे ईर्ष्या की।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने एक बार फिर महानता का प्रदर्शन करते हुए कि जो हुआ सो हुआ अब उसके बारे में बात न करें और आज के विचार में रहें कि हम सब एकत्रित और सकुशल हैं अतः आज अपने आपको धिक्कारने की आवश्यकता नहीं है। यदि आप लोगों ने अतीत में कोई ग़लती की भी है तो आशा है कि ईश्वर आप लोगों को क्षमा कर देगा।
इस्लाम के आरंभिक काल में भी जब इस्लामी सेना ने मक्का नगर पर विजय प्राप्त की तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के कुछ साथियों ने अनेकेश्वरवादियों से प्रतिशोध लेने की योजना बनाई किन्तु पैग़म्बर ने कहा कि आज दया का दिन है और उन्होंने आम क्षमा की घोषणा की। इसके बाद आपने प्रतिशोध लेने की योजना बनाने वालों से कहा कि आज मैंने वही काम किया है जो मेरे भाई यूसुफ़ ने अपने पापी भाइयों के साथ किया था और उन्हें क्षमा कर दिया था।
इस्लामी शिक्षाओं में इस बात पर बहुत अधिक बल दिया गया है कि जब किसी को शक्ति और सत्ता प्राप्त हो जाए तो उसे उन लोगों को क्षमा कर देना चाहिए कि यह कार्य सत्ता की प्राप्ति पर ईश्वर के प्रति कृतज्ञता जताने के समान है। अलबत्ता हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की महानता इससे कहीं अधिक थी कि वे केवल अपने भाइयों को क्षमा करते अतः उन्होंने ईश्वर से अपने भाइयों को क्षमा करने की प्रार्थना की और उन्हें आशा दिलाई कि ईश्वर उन्हें क्षमा कर देगा। स्वाभाविक है कि जहां ईश्वर का बंदा क्षमा करे वहां ईश्वर से क्षमा के अतिरिक्त किसी अन्य बात की आशा नहीं रखी जा सकती।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईर्ष्या के कारण किसी के गुणों को छिपाना नहीं चाहिए क्योंकि एक दिन ऐसा आता है जब हमें अपमान के साथ उसे स्वीकार करना पड़ता है।
यदि हम अपने आप को समझें और उसे स्वीकार करें तो ईश्वर की ओर से उन्हें क्षमा किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
जिन लोगों ने हम पर अत्याचार किया है और अपने कार्य से लज्जित हैं, उन्हें क्षमा कर देना चाहिए और उन पर कटाक्ष नहीं करना चाहिए।
सत्ता और शक्ति की चरम सीमा पर क्षमा करना, ईश्वर के प्रिय बंदों का चरित्र है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 93-95, (कार्यक्रम 399)
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 93 
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, मेरी इस क़मीस को ले जाओ और इसे मेरे पिता के चेहरे पर डाल दो तो (उनकी आंखें वापस आ जाएंगी और वे) देखने लगेंगे और फिर अपने सभी परिजनों को लेकर मेरे पास आओ। (12:93)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि अंततः हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाइयों ने उन्हें पहचान लिया और अतीत में अपने बुरे व्यवहार के कारण लज्जित हो कर उनसे क्षमा मांगी किन्तु हज़रत यूसुफ़ की महानता इससे कहीं अधिक थी कि वे अपने भाइयों को दंडित करते। उन्होंने बहुत स्नेह से अपने भाइयों को गले लगाया और कहा कि मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह भी तुम्हारी ग़लतियों को क्षमा करे।
जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम और उनके भाइयों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित हो गया तो उनके भाइयों ने इस दौरान जो कुछ उनके और उनके पिता के साथ हुआ था सब कुछ हज़रत यूसुफ़ को सुनाया और कहा कि उनके वियोग में हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम इतना रोए हैं कि उनकी आंखें चली गई हैं। अतः हज़रत यूसुफ़ ने उन लोगों को अपनी क़मीस दी और कहा कि वे इसे पिता के पास लेकर जाएं और उनके मुख पर डाल दें, इससे उनकी आंखें लौट आएंगी।
रोचक बात यह है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम स्वयं पैग़म्बर थे और उनकी प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती किन्तु ईश्वर ने यह निर्धारित किया था उनके पुत्र की क़मीस उनकी आंखों के ठीक होने का कारण बने, इससे पता चलता है कि न केवल ईश्वर के प्रिय और पवित्र बंदों का अस्तित्व ही भलाई और अनुकंपा का कारण है बल्कि उनके वस्त्र से भी अनुकंपाएं और विभूतियां प्राप्त की जा सकती हैं। इसमें वस्त्र के रंग और प्रकार की कोई भूमिका नहीं है, महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह ईश्वर के किसी प्रिय व पवित्र बंदे के साथ रहा हो।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों से संबंधित वस्तुओं से विभूति प्राप्त करना वैध है और वे दुखों और रोगों को समाप्त कर सकती हैं।
दुख भरी यादें रखने वालों के वातावरण को परिवर्तित करने से उन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपने परिवार को मिस्र बुलाकर उनके वातावरण को परिवर्तित करने का प्रयास किया।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 94 और 95
और जब कारवां (मिस्र से) रवाना हुआ तो उनके पिता ने कहा, यदि तुम यह न समझो कि मेरा दिमाग़ चल गया है तो निश्चित रूप से मुझे यूसुफ़ की सुगंध का आभास हो रहा है (12:94) (उन्होंने) कहा कि ईश्वर की सौगंध! आप तो अब भी अपने पुराने भ्रम में पड़े हुए हैं। (12:95)
हज़रत याक़ूब और हज़रत यूसुफ़ अलैहिमस्सलाम के बीच आत्मिक संबंध इतना प्रगाढ़ था कि जब हज़रत यूसुफ़ की क़मीस लेकर कारवां मिस्र से रवाना हुआ तो हज़रत याक़ूब ने जो वर्तमान सीरिया में थे, उसके अस्तित्व का आभास कर लिया। चूंकि वे जानते थे कि उनके परिवार वालों में से कोई भी उनकी बात को स्वीकार नहीं करेगा, अतः उन्होंने कहा कि यदि तुम मुझे पागल न समझो तो मैं तुम्हें बता रहा हूं कि मुझे यूसुफ़ की सुगंध का आभास हो रहा है।
स्वाभाविक सी बात है कि परिवार के लोग उनके निकट थे वे उनसे कहते कि यूसुफ़ की मृत्यु को कई वर्ष बीत चुके हैं और आप अब भी यही समझते हैं कि वे जीवित हैं। आप कह रहे हैं कि मुझे उनकी सुगंध का आभास हो रहा है यह सारी बातें आपके पिछले भ्रम का परिणाम हैं।
यह बात कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को इतनी दूर से अपने पुत्र के अस्तित्व का किस प्रकार से आभास हो गया तो इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि यह पैग़म्बरों को प्राप्त विशेष ईश्वरीय ज्ञान के आधार पर भी हो सकता है, उदाहरण स्वरूप कोई माता अपनी संतान से बहूत दूर होने के बावजूद कभी कभी उसके बारे में चिंतित और व्याकुल हो जाती है और बाद में पता चलता है कि उसी समय उसकी संतान किसी कठिनाई या समस्या में ग्रस्त हो गई थी।
अब यह भी प्रश्न मन में आ सकता है कि हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को उसी समय इस प्रकार का आभास क्यों न हुआ जब हज़रत यूसुफ़ को कुएं में डाला गया या कारावास में डाला गया? और उन्होंने पहले इस प्रकार की बात क्यों न कही? इसका उत्तर यह है कि यह बात ईश्वर के गुप्त ज्ञानों में से हैं और उसी के हाथ में है तथा मनुष्य की उसमें कोई भूमिका नहीं है। ईश्वर ने इरादा किया था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कठिनाइयां और दुख सहन करके अनुभव प्राप्त करें और मिस्र जैसे देश के संचालन के योग्य हो जाएं। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम को भी इस अवधि में उनकी प्रतीक्षा करते हुए हर अवसर पर संयम से काम लेना चाहिए था।
इन्हीं में से एक अवसर उनके परिजनों और बच्चों का अप्रिय व्यवहार था जो उन्हें भ्रम में ग्रस्त समझ रहे थे जबकि साधारण लोगों को ईश्वर के प्रिय बंदों की बुद्धि को अपनी साधारण बुद्धि से नहीं परखना चाहिए।
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य अपनी विदित इंद्रियों के अतिरिक्त कुछ ऐसी बातों का भी आभास कर सकता है जो अन्य लोगों की क्षमता से बाहर हैं। अलबत्ता यह सब बात उसके साथ नहीं होती बल्कि ईश्वर की आज्ञा से ही हो सकती है।
जिस बात को हम नहीं जानते और नहीं समझते उसका तुरंत इन्कार नहीं कर देना चाहिए, हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि संभवतः कुछ बातें ऐसी हैं जिनका हम आभास नहीं कर पाते किन्तु दूसरे लोग उनका आभास कर लेते हैं, जैसे ईश्वर की ओर से अपने पैग़म्बरों को भेजा जाने वाला संदेश।


सूरए यूसुफ़, आयतें 96-99, 
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 96 
तो जब (हज़रत यूसुफ़ की क़मीस लेकर) संदेश वाहक आया तो उसने उसे उनके (अर्थात हज़रत याक़ूब के) चेहरे पर डाल दिया तो वे देखने लगे। उन्होंने कहा कि क्या मैंने तुम से नहीं कहा था कि मैं ईश्वर की ओर से ऐसी बातें जानता हूं जो तुम नहीं जानते। (12:96)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने अपनी क़मीस अपने भाइयों को दी और उनसे कहा कि इसे ले जाकर पिता के चेहरे पर डाल दो तो उनकी आंखें लौट आएंगी। यह आयत कहती है कि जब क़मीस को लाया गया और हज़रत याक़ूब के चेहरे पर डाला गया तो हज़रत युसुफ़ की बात सिद्ध हो गई और उनके पिता की आंखें लौट आई।
इसी अवसर पर हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने अपने दुष्ट पुत्रों से कहा कि इन वर्षों में जब भी मैंने यूसुफ़ के बारे में कोई बात कही तो तुम लोगों ने मुझसे कहा कि मैं भ्रम में ग्रस्त हूं और मुझे ऐसे की वापसी की आशा है जिसे भेड़िया खा गया है किन्तु तुम को ज्ञात नहीं है कि मुझे ईश्वर की ओर से ऐसी बातों का ज्ञान है जिन्हें तुम नहीं जानते। इसके अतिरिक्त मुझे ईश्वर की कृपा की आशा थी जबकि तुम्हें नहीं थी।
रोचक बात यह है कि यही भाई एक दिन हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की ख़ून भरी क़मीस अपने पिता के पास लाए थे और उन्होंने मगरमच्छ के आंसू बहाए थे। आज वही भाई हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम की क़मीस लेकर आए हैं ताकि अपने पिता को उनके जीवित होने की शुभ सूचना दें। आज वे न केवल यूसुफ़ के जीवित होने की बल्कि मिस्र जैसे बड़े देश की सत्ता उनके हाथ में आने की सूचना दे रहे हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि दुष्ट बच्चे पिता के लिए आत्मिक एवं शारीरिक यातना व कठिनाइयों का कारण होते हैं जबकि भले बच्चे उनके सुख का कारण बनते हैं।
पैग़म्बरों की सबसे बड़ी विशेषता, ईश्वरीय वचनों पर संतोष और उसकी दया व कृपा पर भरोसा है।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 97 और 98 
(हज़रत याक़ूब के पुत्रों ने) कहा, हे पिता! (ईश्वर से) हमारे पापों के क्षमा किए जाने के लिए प्रार्थना करें कि निश्चित रूप से हमने ग़लती की है। (12:97) उन्होंने कहा, मैं शीघ्र ही अपने पालनहार से तुम्हें क्षमा करने के लिए प्रार्थना करुंगा कि निश्चित रूप से वह अत्यंत क्षमा करने वाला और दयावान है। (12:98)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई जब अपने पिता के पास लौटे तो वे अपने कर्मों पर लज्जित थे, उन्होंने अपने पिता से, जो ईश्वरीय पैग़म्बर थे, अनुरोध किया कि वे ईश्वर से उनके लिए क्षमा चाहें। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम ने भी उन्हें वचन दिया कि वे उचित समय पर उनकी इस इच्छा की पूर्ति करेंगे।
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि उचित समय से हज़रत याक़ूब का तात्पर्य, गुरुवार की रात थी कि जो प्रार्थना और तौबा व प्रायश्चित का समय है और इस रात ईश्वर की ओर से अपने बंदों की प्रार्थना और तौबा स्वीकार किए जाने की अधिक संभावना होती है।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर से क्षमा मांगने के लिए उसके प्रिय बंदों को माध्यम बनाना एक उचित व प्रिय कार्य है।
जब कोई पापी अपने पाप को स्वीकार करे तो उसे धिक्काराना नहीं चाहिए बल्कि स्वयं भी उसे क्षमा करना चाहिए और दूसरों से भी उसे क्षमा करने का अनुरोध करना चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 99 
तो जब हज़रत यूसुफ़ के (परिजन उनके) पास पहुंचे तो उन्होंने अपने माता पिता को उनके पास बिठाया और कहा कि मिस्र में प्रविष्ट हो जाइये कि ईश्वर की इच्छा से आप शांति में रहेंगे। (12:99)
यह बात स्वाभाविक है कि जब हज़रत यूसुफ़ से इतने वर्षों की जुदाई के बाद हज़रत याक़ूब अपनी पत्नी और अन्य परिजनों के साथ मिस्र पहुंचे तो दोनों ओर अत्यधिक हर्ष और उत्साह हो। हज़रत यूसुफ़ नगर के बाहर अपने परिजनों की प्रतीक्षा कर रहे थे ताकि उन्हें पूरे सम्मान के साथ नगर में लाएं। वे अपने पिता से मिलने के लिए घड़िया गिन रहे थे। दोनों की भेंट के दृश्य का शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता। क़ुरआने मजीद ने केवल स्वागत समारोह की ओर संकेत किया है कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अपने परिजनों के स्वागत के लिए नगर से बाहर गए और उन्हें पूरे सम्मान के साथ नगर में ले आए।
इस आयत से हमने सीखा कि हमें इस ओर से सचेत रहना चाहिए कि पद और स्थान हमें माता पिता के आदर की ओर से निश्चेत न कर दे।
एक अच्छी सरकार की निशानी, समाज के सभी क्षेत्रों में शांति व सुरक्षा स्थापित करना है, अलबत्ता शांति व सुरक्षा उसी समय स्थापित होगी जब यूसुफ़ जैसे पवित्र लोग सत्ता में होंगे।
अपने गुणों का वर्णन करते समय ईश्वर की कृपा को नहीं भूलना चाहिए। हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम ने कहा कि ईश्वर की कृपा से मिस्र में शांति व सुरक्षा स्थापित है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 100-101,
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 100 
और हज़रत यूसुफ़ ने अपने माता पिता को सिंहासन पर बिठाया और सब लोग उनके समक्ष नतमस्तक हो गए और यूसुफ़ ने कहा, हे पिता यह मेरे पहले वाले स्वप्न का अर्थ है। मेरे पालनहार ने उसे सच्चा कर दिखाया है और उसने मुझ पर उपकार किया जब उसने मुझे कारावास से बाहर निकाला और आप लोगों को देहात से (मिस्र) लाया, यद्यपि शैतान ने मेरे और मेरे भाइयों के बीच फूट डाल दी थी। निश्चित रूप से मेरा पालनहार जो चाहता है उसके लिए उत्तम युक्ति करता है। निसंदेह वह अत्यधिक जानकार और तत्वदर्शी है। (12:100)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम अपने माता पिता और भाइयों के स्वागत के लिए नगर से बाहर गए और जैसे ही वे मिस्र में प्रविष्ट हुए उन्होंने उन्हें गले से लगाया और उनका स्वागत सत्कार किया। यह आयत राजमहल के भीतर माता पिता के साथ हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के व्यवहार का वर्णन करते हुए कहती है कि उन्होंने अपने माता पिता को अपने सिंहासन पर बिठाया और उनका सम्मान किया।
आयत कहती है कि हज़रत यूसुफ़ के माता पिता और भाई उनके समक्ष नतमस्तक हो गए और उन्होंने ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की कि उसकी कृपा के चलते हज़रत यूसुफ़ जीवित भी थे और बहुत ही उच्च स्थान तक भी पहुंच गए थे। उन्होंने इस प्रकार यह सज्दा किया था कि हज़रत यूसुफ़ उनके सामने खड़े थे अतः उन्होंने अपने पिता से कहा कि जो कुछ हुआ वह किशोरावस्था के मेरे पहले स्वप्न को चरितार्थ करता है जिसमें मैंने देखा था कि सूर्य, चंद्रमा और ग्यारह सितारे मेरे समक्ष नतमस्तक हैं। मेरे माता पिता ने सूर्य व चंद्रमा और ग्यारह भाइयों ने ग्यारह सितारों की भांति मेरे समक्ष ईश्वर का सज्दा किया है।
इसके बाद हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम मिस्र के कारावास से अपने रिहा होने की ओर संकेत करते हुए अपने साथ घटने वाली सभी घटनाओं से अपने माता पिता और भाइयों को अवगत कराते हैं और इसे ईश्वर का उपकार बताते हैं। किन्तु उनकी महानता को देखिए कि वे भाइयों द्वारा उन्हें कुएं में डालने और कारवां के हाथों उन्हें दास के रूप में बेचे जाने की घटना की ओर कोई संकेत नहीं करते और अपने भाइयों को लज्जित होने से बचाने के लिए उनके कर्मों के लिए शैतान को मूल रूप से दोषी बताते हैं कि जिसने अपने उकसावे द्वारा उनके मन में ईर्ष्या की भावना उत्पन्न कर दी।
इस आयत से हमने सीखा कि चाहे हम जिस पद पर रहें, माता पिता का सम्मान हमारे लिए अनिवार्य है और हमें सर्वोत्तम ढंग से उनका आदर करना चाहिए।
यद्यपि मनुष्य को अपने कर्मों का अधिकार प्राप्त है किन्तु सभी अच्छाइयों का स्रोत ईश्वर है जबकि सभी बुराइयों की जड़ शैतान है।
जिन्होंने हमारे साथ बुराई की है उनके साथ दया व क्षमा का व्यवहार करना चाहिए, ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिशोध से काम नहीं लेना चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 101 
(हज़रत यूसुफ़ ने) कहा, प्रभुवर! तूने मुझे राज्य प्रदान किया और सपनों का अर्थ बताने का ज्ञान सिखाया, हे आकाशों और धरती की रचना करने वाले! तू ही संसार और प्रलय में मेरा स्वामी है। मुझे इस अवस्था में संसार से उठा कि मैं मुसलमान रहूं और मुझे पवित्र लोगों का साथ प्रदान कर। (12:101)
क़ुरआने मजीद में मिस्र पर दो लोगों के शासन की ओर संकेत किया गया है, एक फ़िरऔन जो स्वयं को शासक और लोगों को अपनी प्रजा तथा आज्ञाकारी समझता था और दूसरे हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम कि जो शासन का वास्तविक अधिकारी ईश्वर को मानते थे और कहते थे कि हे ईश्वर! जो कुछ है वह तेरा है, मेरे पास जो भी ज्ञान व सत्ता है, वह तेरे कारण है। न केवल इस संसार में बल्कि प्रलय में भी मुझे तेरी आवश्यकता है और मैं तुझे अपना स्वामी एवं अभिभावक समझता हूं और मुझे आशा है कि मृत्यु के समय मैं तेरी प्रसन्नता के साथ इस संसार से जाऊंगा और तू मुझे पवित्र व भले लोगों के साथ रखेगा।
प्रार्थना के रूप में वर्णित होने वाले ये वाक्य, ईश्वर पर हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के ईमान की गहराई और सभी परिस्थतियों में उस पर हज़रत यूसुफ़ के भरोसे को दर्शाते हैं। उन्होंने सत्ता की चरम सीमा पर और माता पिता और भाइयों के साथ होने के बावजूद और अपनी समस्याओं के सुलझने के अवसर पर भी ईश्वर को नहीं भुलाया और उसे याद करते रहे, इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने सत्ता की चरम सीमा पर पहुंचकर भी प्रलय को याद रखा और प्रार्थना की कि आयु के अंत तक उनका ईमान सुरक्षित रहे और मरते दम तक वे ईश्वर पर ईमान रखें।
इस आयत से हमने सीखा कि सदैव संसार में अपने अंत की ओर से सावधान रहना चाहिए और अपने धर्म तथा ईमान की रक्षा के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते रहना चाहिए।
सत्ता और शासन, उद्दंडता, बुराई और ईमान से दूरी का मार्ग प्रशस्त करता है सिवाय इसके कि ईश्वर मनुष्य को ख़तरों से सुरक्षित रखे।
जो लोग, जनता पर शासन करते हैं उन्हें यह बात याद रखनी चाहिए कि ईश्वर उनके ऊपर है और लोक परलोक में वही उनका वास्तविक स्वामी है।


सूरए यूसुफ़, आयतें 102-106,
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 102 
(हे पैग़म्बर!) ये ईश्वर के गुप्त ज्ञान के समाचार हैं जिन्हें हम आपकी ओर भेजते हैं। और आप उनके पास नहीं थे जब (यूसुफ़ के भाइयों ने) गुप्त षड्यंत्र करते हुए एकमत होकर अपना निर्णय किया। (12:102)
पिछले कार्यक्रम में हमने हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वृत्तांत के अंत के बारे में सुना जब उनके माता पिता और भाइयों के मिस्र आने के बाद उनकी घटना भलिभांति समाप्त हुई और उनकी सभी समस्याओं और कठिनाइयों का अंत हुआ।
यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि इस घटना में जो कुछ वर्णित हुआ है वह लोगों की बातें या फेर बदल की गई पुस्तकों में वर्णित की गई घटना नहीं है बल्कि यह समाचार ईश्वर के ज्ञान पर आधारित है और ईश्वर सभी प्रकट व गुप्त बातों का जानने वाला है और जो बातें लोगों की आखों या कानों से छिपी रहती हैं वह उनसे भी अवगत है।
जैसा कि जब हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के भाई षड्यंत्र रच रहे थे कि किस प्रकार उनकी हत्या की जाए और फिर सबने मिलकर यह निर्णय किया कि उन्हं् कुएं में डाल दिया जाए तो उस समय ईश्वर के अतिरिक्त कोई वहां पर नहीं था और किसी को भी उनके षड्यंत्र की सूचना नहीं थी।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बर, जादूगरों से संपर्क या तपस्या से नहीं बल्कि ईश्वर के विशेष संदेश वहि के माध्यम से गुप्त ज्ञानों से अवगत होते हैं।
कोई भी षड्यंत्र ईश्वर से छिपा नहीं रह सकता चाहे वह गुप्त रूप से ही क्यों न तैयार किया गया हो और जब भी ईश्वर चाहेगा उसे प्रकट करके षड्यंत्रकारियों को अपमानित कर देगा।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 103 और 104
(हे पैग़म्बर!) आप चाहे जितनी ही लालसा क्यों न करें अधिकांश लोग ईमान नहीं लाएंगे। (12:103) जबकि आप उनसे (उनके मार्गदर्शन के बदले में) कोई पारिश्रमिक भी नहीं चाहते (क़ुरआने मजीद तो) ब्रह्मांड के लिए पाठ के अतिरिक्त कुछ नहीं है। (12:104)
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम के वृत्तांत के अंत के बाद क़ुरआने मजीद लोगों और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के संबंध में कुछ मूलभूत बातों का वर्णन करते हुए कहता है कि आपने उनसे पारिश्रमिक नहीं मांगा है और जो कुछ आप उनसे कहते हैं वह उनके मार्गदर्शन व शिक्षा के अतिरिक्त कुछ नहीं है। आप उनके ईमान लाने के लिए अत्याधिक प्रयत्न करते हैं और इस कार्य की बहुत लालसा रखते हैं किन्तु आप जान लीजिए कि इसके बावजूद ऐसे बहुत से लोग हैं जो ईमान लाने और सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। आप यह न सोचें कि चूंकि लोग सत्य को नहीं समझते इसीलिए ईमान नहीं लाते, ऐसे भी लोग हैं जो सत्य को समझने के बावजूद ईमान लाने के लिए तैयार नहीं होते और आपको झुठलाते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि यद्यपि लोगों की ओर से पैग़म्बरों को अत्यधिक कठिनाइयां सहन करनी पड़ी हैं किन्तु वे उनके मार्गदर्शन की बहुत अधिक लालसा और मनोकामना रखते थे।
अधिकांश लोगों का ईमान न लाना, पैग़म्बरों के कार्य में ढिलाई का नहीं स्वयं लोगों के चयन और अधिकार का परिणाम है।

सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 105

आकाशों और धरती में ऐसी कितनी ही निशानियां हैं, जिनके पास से यह गुज़रते हैं और ये उनकी ओर से मुंह मोड़ लेते हैं। (12:105)

पिछली आयतों में ईश्वर ने कहा था कि अधिकांश लोग पैग़म्बरों पर ईमान नहीं लाते। इस आयत में वह पैग़म्बरे इस्लाम को सांत्वना देते हुए कहता है कि वे सदैव धरती और आकाशों में ईश्वर की निशानियों को देखते हैं किन्तु ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते अतः यदि वे आपको झुठलाते हैं तो दुखी होने की आवश्यकता नहीं है।
मनुष्य विभिन्न मार्गों से ईश्वरीय निशानियों को देखता है, कभी उसे आकाश के चांद, सितारों और विभिन्न उपग्रहों को देखकर धरती पर ईश्वर की निशानियों का पता चलता है तो कभी वायु यानों में बैठकर और आकाश की यात्रा करके वह ईश्वरीय निशानियों को देखता है। इस आधार पर यह आयत, एक प्रकार से अंतरिक्ष में मनुष्य की उपस्थिति की भविष्यवाणी करती है।
इस आयत से हमने सीखा कि संसार की सभी वस्तुएं एक प्रकार से ईश्वर का चमत्कार और उसकी शक्ति व महानता की निशानी हैं।
जो निश्चेत है संभावित रूप से उसे कभी चेतना प्राप्त हो सकती है और वह सत्य को स्वीकार कर सकता है किन्तु जिसने मुंह मोड़ लिया है वह सत्य को कभी स्वीकार नहीं करेगा।

सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 106 

और उनमें से अधिकांश ईमान नहीं लाएंगे सिवाय इसके कि उसके लिए कोई समकक्ष ठहराएं। (12:106)

यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती है कि न केवल यह कि अधिकांश लोग ईमान नहीं लाएंगे बल्कि जो लोग ईमान भी लाएंगे उनका ईमान शुद्ध नहीं है और वे पूर्ण रूप से एकेश्वरवादी नहीं हैं। वे अपने कर्म में ईश्वर के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं अथवा लोगों पर भी भरोसा करते हैं और उन्हें अपने मामलों में ईश्वर का समकक्ष ठहराते हैं। वे ईश्वर की उपासना तो करते हैं किन्तु जीवन में ईश्वर के आदेश के समक्ष पूर्णतः नतमस्तक नहीं हैं और अपने जीवन में उन्हें भी प्रभावी मानते हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम इस आयत की व्याख्या में कहते हैं कि अनेकेश्वरवाद का तात्पर्य, मूर्तिपूजा नहीं है बल्कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी पर भी भरोसा करने को एकेश्वरवाद कहा जाता है। पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम अनेकेश्वरवाद के ख़तरे के संबंध में कहते हैं कि अनेकेश्वरवाद, काले पत्थर पर अंधकारमय रात्रि में काली चींटी के चलने से भी अधिक, मनुष्य में छिपा रहता है।
अनकेश्वरवाद के भी चरण होते हैं और यह मूर्तिपूजा से आरंभ होता है जो स्पष्ट अनेकेश्वरवाद है और गुप्त अनेकेश्वरवाद बहुत से लोगों में होता है और उन्हें इसका ज्ञान भी नहीं हो पाता। इससे बचने के लिए हमें ईश्वर से उसकी शरण मांगनी चाहिए।


सूरए यूसुफ़, आयतें 107-109,


क्या(जो लोग ईमान नहीं लाते) वे इस बात से सुरक्षित हैं कि ईश्वरीय दंड उन्हें आ पकड़े? या प्रलय सहसा ही उनके सामने आ जाए और उन्हें पता ही न चले? (12:107)

पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि ईश्वर अपने पैग़म्बर को सांत्वनना देता है कि यदि लोग तुम पर ईमान नहीं लाते हैं तो तुम्हें दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि वे मुझ पर ईमान नहीं लाते हैं जबकि मैं उनका ही नहीं बल्कि पूरे संसार का रचयिता हूं। इसके अतिरिक्त जो लोग ईमान भी लाए हैं उनमें से अनेक का ईमान अनेकेश्वरवाद से जुड़ा हुआ है और पूर्ण रूप से निष्ठावान ईमान वाले कम ही दिखाई देते हैं।
इस आयत में ईश्वर कहता है कि हे पैग़म्बर! जो लोग ईश्वर और प्रलय पर ईमान नहीं रखते उन्हें चेतावनी दे दीजिए कि बहुत संभव है कि ईश्वरीय दंड इसी संसार में उन्हें अपनी लपेट में ले ले या सहसा ही उनकी मृत्यु आ जाए और वे परलोक में ख़ाली हाथ और बहुत अधिक पापों के साथ पहुंचे कि जिसके दंड स्वरूप उन्हें नरक में जाना पड़े।
इस आयत से हमने सीखा कि जो कोई ईमान नहीं रखता वह ईश्वर की ओर से सुरक्षित नहीं है चाहे वह अपनी रक्षा के कितने ही उपाय क्यों न कर ले।
प्रलय और ईश्वरीय दंड को याद रखना, मनुष्य के प्रशिक्षण और पापों से दूरी का सर्वोत्तम कारक है।

सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 108 

(हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि यह मेरा मार्ग है और मैं तथा जो मेरा अनुसरण करता है लोगों की दूरदर्शिता के आधार पर ईश्वर की ओर बुलाते हैं और ईश्वर हर प्रकार की बुराई से पवित्र है और मैं अनेकेश्वरवादियों से नहीं हूं। (12:108)
इस आयत में ईश्वर लोगों को सत्य और वास्तविकता की ओर बुलाने की शैली का उल्लेख करते हुए कहता है कि ईमान, दूरदर्शिता और ईश्वर की गहरी पहचान के साथ होना चाहिए, उसे पहचानने के बाद उस पर ईमान लाना चाहिए। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम को पहचानने के बाद उन पर ईमान लाना चाहिए। इसी प्रकार हर किसी को ईश्वरीय कथन क़ुरआने मजीद को समझ और पहचान कर उस पर ईमान लाना चाहिए।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम ने भी इसी शैली में धर्म का प्रचार किया है, यही कारण है कि जो लोग उनके माध्यम से ईमान लाए वे धर्म पर सदैव अडिग रहे और उन्होंने धर्म के मार्ग में अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए।
निश्चित रूप से जो बात ईमान में कमज़ोरी का कारण बनती है वह आस्था और कर्म में अनेकेश्वरवाद है। अलबत्ता सारे लोग नहीं बल्कि कुछ लोग इसमें ग्रस्त होते हैं किन्तु एकेश्वरवाद का निमंत्रण देने वालों को जिनमें सबसे प्रमुख पैग़म्बर हैं, हर प्रकार के अनेकेश्वरवाद से दूर होना चाहिए और पूरी निष्ठा के साथ धर्म के मार्ग में प्रयास करना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि धर्म के प्रचारकों को लोगों के ज्ञान व दूरदर्शिता के स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयास करना चाहिए।
जो लोग धर्म के प्रचार और लोगों को धर्म की ओर आमंत्रित करने के इच्छुक हैं, उन्हें स्वयं को अनेकेश्वरवाद से दूर रखना चाहिए और लोगों को अनेकेश्वरवाद के ख़तरों से अवगत कराना चाहिए।
आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 109
(हे पैग़म्बर!) हमने आपसे पूर्व (किसी को भी पैग़म्बर के रूप में) नहीं भेजा सिवाय बस्तियों में रहने वाले उन पुरुषों के जिनकी ओर हमने अपना विशेष संदेश वहि भेजा। क्या( आपकी पैग़म्बरी का इन्कार करने वालों ने) धरती में घूम फिर कर नहीं देखा है कि उन लोगों का कैसा अंत हुआ जो उनसे पूर्व थे? और निश्चित रूप से परलोक का घर उन लोगों के लिए उत्तम है जो ईश्वर से डरते हैं। क्या तुम चिंतन नहीं करते? (12:109)
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के विरोधियों की एक आपत्ति यह थी कि यदि ईश्वर किसी पैग़म्बर को भेजना चाहता है तो वह हम जैसे किसी मनुष्य के बजाए जिसे हम पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है, किसी फ़रिश्ते को पैग़म्बर बनाता है।
यह आयत उनके उत्तर में कहती है कि क्या उन्होंने पिछले पैग़म्बरों का इतिहास पढ़ा या सुना नहीं है कि सभी पैग़म्बर आकाश से फ़रिश्ते नहीं बल्कि मानव जाति के ही थे और धरती पर ही रहते थे। हे पैग़म्बर! इस प्रकार की आपत्तियां, हठधर्म और इन्कार की भावना के कारण हैं। वे सत्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं चाहे उनके समक्ष कोई फ़रिश्ता ही क्यों न आ जाए।
आगे चलकर आयत बुरे व भले लोगों के अंत की ओर संकेत करती है। यद्यपि इस संसार में भले लोगों को दुखों व संकटों का सामना करना पड़ता है किन्तु ईश्वर प्रलय में उन्हें बहुत अच्छा प्रतिफल देता है और उन्हें बड़ा ही भला जीवन प्राप्त हो जाता है किन्तु बुरे लोगों को इसी संसार में कठिनाइयां और दंड सहन करना पड़ता है और वे दूसरों के लिए शिक्षा सामग्री बन जाते हैं। हमें इन दोनों गुटों और उनके अंत के बारे में विचार करना चाहिए ताकि हम सही और ग़लत मार्ग को पहचान सकें।
इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बर मानव जाति के ही थे और लोगों के बीच ही जीवन व्यतीत करते थे किन्तु वे हर प्रकार की बुराई से दूर थे ताकि सभी लोगों के लिए आदर्श बन सकें।
धरती में घूमना फिरना और पिछली जातियों के इतिहास से अवगत होना और उससे पाठ सीखना, मनुष्य के मार्गदर्शन और प्रशिक्षण में सहायक है।
सोच विचार से पैग़म्बरों के मार्ग, उनकी सत्यता और उनके धर्म की पहचान के बारे में सहायता मिलती है और लोगों की बुद्धि को सक्रिय बनाना पैग़म्बरों का एक महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था।


सूरए यूसुफ़, आयतें 110-111,

सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 110

(लोगों को ईश्वर के मार्ग की ओर बुलाने का क्रम जारी रहा) यहां तक कि पैग़म्बर (लोगों के मार्गदर्शन की ओर से) निराश हो गए और (काफ़िरों ने हमारी ओर से दी जाने वाली मोहलत के कारण) यह सोचा कि उनसे झूठ बोल (कर दंड का वादा किया) गया है। इसी समय उन तक हमारी सहायता पहुंच गई फिर हमने जिसे चाहा उसे मुक्ति प्रदान कर दी और अपराधी लोगों पर से हमारे दंड को टाला नहीं जा सकता। (12:110)
 ईश्वर ने लोगों के मार्गदर्शन के लिए उन्हीं में से कुछ पैग़म्बरों का चयन किया और उनके पास अपना विशेष संदेश वहि भेजा ताकि वे दूरदर्शिता और तत्वदर्शिता के आधार पर लोगों को ईश्वरीय मार्ग की ओर आमंत्रित करें किन्तु अधिकांश लोगों ने उनकी बातों को स्वीकार नहीं किया और उन्हें झुठला दिया।
यह आयत कहती है कि किन्तु पैग़म्बर अपने मार्ग पर अडिग रहे और उन्होंने लोगों का मार्गदर्शन करना नहीं छोड़ा परंतु अंततः वे लोगों द्वारा अपने निमंत्रण के स्वीकार किए जाने की ओर से निराश हो गए। इस अवसर पर काफ़िरों ने उन पर कटाक्ष करते हुए कहा कि यदि तुम्हारा वादा सच्चा था तो ईश्वर की ओर से दंड आना चाहिए था और हम विरोधियों को उसमें ग्रस्त हो जाना चाहिए था।
जब बात यहां तक पहुंच गई और काफ़िरों ने किसी भी प्रकार से सत्य को स्वीकार नहीं किया तो ईश्वर ने पैग़म्बरों और उनके साथियों को मुक्ति दी और काफ़िरों को दंड में ग्रस्त कर दिया। जैसा कि हज़रत नूह अलैहिस्सलाम जैसे महान पैग़म्बर ने दसियों वर्षों तक लोगों को ईश्वर की ओर बुलाया किन्तु केवल कुछ ही लोग उन पर ईमान लाए। अतः धरती पर एक भयंकर तूफ़ान आया और ईमान वालों के अतिरिक्त सभी लोग मारे गए।

इस आयत से हमने सीखा कि काफ़िरों को मोहलत देना और उन्हें दंडित करने में विलंब करना, ईश्वर की एक परंपरा है।

ईश्वरीय दंड प्रलय से विशेष नहीं हैं, कभी कभी इसी संसार में भी वह पापियों और अपराधियों को दंडित करता है।
न तो ईमान वालों को ईश्वरीय दया की ओर से निराश होना चाहिए और न ही काफ़िरों को अपने भविष्य की ओर से आशावान रहना चाहिए।

आइये अब सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 111

निश्चित रूप से पिछले लोगों के वृत्तांतों में बुद्धि वालों के लिए शिक्षा सामग्री है। यह (क़ुरआन) कोई मनगढ़ंत बात नहीं है बल्कि यह उन किताबों की पुष्टि करने वाला है जो इससे पहले थीं, यह क़ुरआन हर बात का विस्तार (से वर्णन करने वाला) और ईमान वालों के लिए मार्गदर्शन और दया है। (12:111)
सूरए यूसुफ़ के अंत में आने वाली इस आयत में एक महत्त्वपूर्ण बिंदु की ओर संकेत किया गया है कि हज़रत यूसुफ़ और उनके भाइयों के वृत्तांत सहित क़ुरआने मजीद में वर्णित घटनाएं लोगों की शिक्षा के लिए आई हैं न यह कि क़ुरआने मजीद कहानियों या इतिहास की कोई पुस्तक है। अलबत्ता केवल बुद्धि वाले ही इससे शिक्षा लेते हैं और अधिकांश लोग इन घटनाओं को पढ़ते या सुनते तो हैं किन्तु उन पर ध्यान नहीं देते।
आगे चलकर आयत कहती है कि बुद्धि वाले लोग इस आसमानी किताब की आयतों में चिंतन करके भलि भांति यह बात समझ लेते हैं कि क़ुरआने मजीद किसी मनुष्य की ओर से लिखी गई किताब नहीं है बल्कि यह ईश्वरीय कथन है जो पिछली आसमानी किताबों से समन्वित है। इसमें ऐसी अनेक वास्तविकताओं का वर्णन किया गया है जो परिवार, अर्थव्यवस्था, राजनीति, कला, संस्कृति तथा अन्य सभी मामलों में लोगों का मार्गदर्शन करती हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद की घटनाएं, किसी लेखक की कल्पनाएं नहीं बल्कि वास्तविकताओं का वर्णन और शिक्षा सामग्री हैं।
यदि बुद्धि वाले क़ुरआने मजीद की आयतों में चिंतन करें तो उन्हें ईश्वरीय दया व मार्गदर्शन प्राप्त हो जाएगा क्योंकि वे उसकी वास्तविकताओं पर ईमान ले आएंगे।
हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्सलाम, भी षड्यंत्रों के बावजूद सम्मान और सत्ता की चरम सीमा पर पहुंचे। उनकी घटना लोगों के लिए उत्तम पाठ है कि यदि हम ईश्वर के दास बन जाएं तो वह अपने दासों को कभी अकेला नहीं छोड़ता।

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