ख्याल रहे औलाद को आक़ किया नहीं जाता वो हो जाता है |

कल आज और कल | बचपन में जब भाई बहन एक दुसरे के साथ ना इंसाफ़ी करते थे तो माँ बाप ना इंसाफ़ी करने वाले बच्चे को डांट के जिसका हक़...




कल आज और कल |



बचपन में जब भाई बहन एक दुसरे के साथ ना इंसाफ़ी करते थे तो माँ बाप ना इंसाफ़ी करने वाले बच्चे को डांट के जिसका हक़ मारा वो दिला देते थे | बड़े होने पे जो लायक बच्चा होता है वो कभी अपने भाई बहनो के साथ ना इंसाफ़ी नहीं करता लेकिन जो नालायक़ होता है वो अपने भाई बहनो का हक़ मारता है और यह भी नहीं सोंचता की अगर माँ बाप ज़िंदा होते तो उससे नाराज़ होते |  इस तरह बाद मरने के अपने माँ बाप को तकलीफ पहुंचाता है | 

उसी तरह माँ बाप अपनी मेहनत  की कमाई को अपने बच्चों पे उनसे मुहब्बत होने की वजह से खर्च करते रहते हैं यहां तक की तकलीफ उठाते हैं | जो घर बनाते है माँ बाप अपनी मेहनत  की कमाई से बनाते हैं उसे बच्चे अपना घर माँ बाप की मुब्हब्बत की वजह से कहते है और उसपे अपना हक़ समझते हैं | 
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जब बच्चे बड़े हो जाते हैं तो वो अपने बीवी बच्चों पे खर्च करने को तो अपना फ़र्ज़ समझते हैं क्यों की मुहब्बत होती है और किसी से कहते भी नहीं  जैसे की उनके माँ बापनाहीं कहते थे | 

लेकिन 

माँ बाप पे अगर कोई बच्चा खर्चा करता है या उनकी खिदमत करता है तो उसे अपनी नेकी के ज़िक्र में शामिल  करता हुआ सबको  बताता फिरता है बिना यह सोंचे की उसके मा बाप ने उसके साथ जो किया वो कभी दुनिया को नहीं जताया | औलाद जो घर बनाती है उसे माँ बाप कभी अपना घर नहीं कह पाते अगर औलाद वो घर दे भी दे अपने माँ बाप को रहने तो एहसान करे में शुमार करते  है | 
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फिर वो औलाद बूढी हो जाती है और जब उसके बच्चे उसके साथ जो कर रहे हैं उसका ज़िक्र दुनिया से करते है एहसान जताते हैं तो  उन्हें एहसास होता है की उन्होंने अपने माँ बाप के साथ ज़्यादती की थी | लेकिन तब तक माँ बाप दुनिया से जा चुके होते हैं | 

कुछ औलाद तो इतनी एहसान फरामोश हुआ करती हैं की बाद माँ बाप के मरने के भी जगह जगह ज़िक्र करती है हमने उनकी ऐसे खिदमत की हमने उनकी वैसे खिदमत की | 


फ़िक्र का मक़ाम है | ख्याल रहे औलाद को आक़ किया नहीं जाता वो हो जाता है | 


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