सूरए मरयम l तर्जुमा और तफसीर : अहं व घमंड तथा श्रेष्ठताप्रेम, कुफ़्र का मार्ग प्रशस्त करता है।
सूरए मरयम l तर्जुमा और तफसीर कुरान ए मजीद के 19वें सूरे अर्थात सूरए मरयम मक्का नगर में ईश्वर की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आ...
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सूरए मरयम l तर्जुमा और तफसीर
कुरान ए मजीद के 19वें सूरे अर्थात सूरए मरयम मक्का नगर में ईश्वर की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास भेजा गया।
इस सूरे में हज़रत ज़करिया, हज़रत मरयम, हज़रत ईसा और इसी प्रकार हज़रत यहया, इब्राहीम, इस्माईल और हज़रत इदरीस अलैहिमस्सलाम जैसे पैग़म्बरों के जीवन की कुछ घटनाओं का उल्लेख किया गया है। रोचक बात यह है कि हज़रत मरयम के अतिरिक्त किसी अन्य महिला के नाम पर पूरे क़ुरआने मजीद में कोई अन्य सूरा नहीं है।
अल्लाह के नाम से जो अत्यंत कृपाशील और दयावान है, काफ़ हा या ऐन साद,(19:1) यह अपने बंदे ज़करिया पर आपके पालनहार की कृपा का वर्णन है, (19:2) जब उन्होंने अपने पालनहार को धीमी आवाज़ में पुकारा।(19:3)
सूरए मरयम भी क़ुरआने मजीद के अन्य 28 सूरों की भांति हुरूफ़े मुक़त्तआत या विच्छेदित अक्षरों से आरंभ हुआ है। इससे पूर्व अनेक बार बताया जा चुका है कि क़ुरआने मजीद के लगभग एक चौथाई सूरों के आरंभ में आने वाले इन अक्षरों का अर्थ उन रहस्यों में से है जिसका ज्ञान अब तक मनुष्य के पास नहीं है और आशा की जाती है कि पैग़म्बरे इस्लाम के अंतिम उत्तराधिकारी हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के प्रकट होने के बाद इन अक्षरों का रहस्य खुल जाएगा।
हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम, हज़रत मूसा के भाई हज़रत हारून की संतानों में से एक हैं। वे बनी इस्राईल की ओर भेजे गए पैग़म्बरों में से एक हैं और क़ुरआने मजीद में उनके नाम का सात बार उल्लेख हुआ है।
ईश्वर, क़ुरआने मजीद में कुछ पैग़म्बरों और कुछ जातियों के वृत्तांत का वर्णन करता है ताकि अच्छे व बुरे लोगों के प्रति अपने प्रेम व कोप को दर्शाए और यह बात हमारे और आगामी पीढ़ियों के लिए पाठ रहे। ये आयतें हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम पर ईश्वर की दया व कृपा की ओर संकेत करती हैं जिन्होंने लोगों से दूर रहकर एकांत में ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें संतान प्रदान करे।
शायद उन्होंने यह प्रार्थना एकांत में इस लिए की कि लोग उनका परिहास न करें और यह न कहें कि यह बूढ़ा व्यक्ति अपनी आयु के अंतिम दिनों में अपने सफ़ेद बालों के साथ ईश्वर से संतान की प्रार्थना कर रहा है। अलबत्ता पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके परिजनों के कथनों के अनुसार उत्तम प्रार्थना वही है जो एकांत में और धीमी आवाज़ में की जाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों के नामों का उल्लेख और उनका स्मरण एक मान्यता है जिसकी सीख ईश्वर ने हमें क़ुरआने मजीद में दी है।
जीवन में प्रार्थना की भूमिका की ओर से निश्चेत नहीं रहना चाहिए क्योंकि प्रार्थना ईश्वर की दया व कृपा को प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करती है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 4 और 5
قَالَ رَبِّ إِنِّي وَهَنَ الْعَظْمُ مِنِّي وَاشْتَعَلَ الرَّأْسُ شَيْبًا وَلَمْ أَكُنْ بِدُعَائِكَ رَبِّ شَقِيًّا (4) وَإِنِّي خِفْتُ الْمَوَالِيَ مِنْ وَرَائِي وَكَانَتِ امْرَأَتِي عَاقِرًا فَهَبْ لِي مِنْ لَدُنْكَ وَلِيًّا (5)
ज़करिया ने कहा, प्रभुवर! निश्चित रूप से मेरी हड्डियां कमज़ोर हो गई हैं और मेरे (सिर के बाल) बुढ़ापे से सफ़ेद हो गए हैं और मैं कभी भी तेरी ओर से प्रार्थना (की स्वीकृति) से वंचित नहीं रहा हूं।(19:4) हे मेरे पालनहार! मुझे अपने बाद अपने परिजनों के बारे में भय है और मेरी पत्नी बांझ है तो तू अपनी ओर से मुझे एक उत्तराधिकारी प्रदान कर।(19:5)
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि हज़रत ज़करिया वृद्ध हो चुके थे किंतु उनकी कोई संतान नहीं थी। उन्हें चिंता थी कहीं ऐसा न हो कि उनके पश्चात उनकी जाति के कुछ लोग जिनमें उनका उत्तराधिकारी बनने की योग्यता व क्षमता नहीं थी, स्वयं को उनके उत्तराधिकारी के रूप में प्रस्तुत कर दें। इसी कारण उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि वह उन्हें एक योग्य पुत्र प्रदान करे जो उनका उत्तराधिकारी बने और उनके बाद उनके मार्ग को जारी रखे। किंतु विदित रूप से यह प्रार्थना स्वीकार होने योग्य नहीं थी क्योंकि हज़रत ज़करिया और उनकी पत्नी दोनों ही बहुत अधिक वृद्ध हो चुके थे और स्वाभाविक रूप से उनके माता-पिता बनने की संभावना नहीं थी।
किंतु ईश्वर के हाथ बंधे हुए नहीं हैं, जिसने इस सृष्टि की रचना की है और इसके लिए क़ानून निर्धारित किए हैं वह जब चाहे और जहां आवश्यक हो इन क़ानूनों को समाप्त कर सकता है, जिस प्रकार से कि ईश्वर की इच्छा से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सालम के लिए आग ठंडी हो गई और उसकी जलाने की विशेषता समाप्त हो गई।
सैद्धांतिक रूप से ईमान वाला व्यक्ति भौतिक व रसायन शास्त्र के सिद्धांतों को स्वीकार करता है और उन्हें समझने व प्रयोग करने का प्रयास करता है किंतु वह ईश्वर की शक्ति को प्रकृति से इतर समझता है। वह स्वयं को और अपनी इच्छाओं को भौतिक क़ानूनों के परिप्रेक्ष्य में सीमित नहीं समझता।
स्पष्ट है कि उन इच्छाओं की प्राप्ति का सबसे उत्तम मार्ग, जिन्हें स्वाभाविक एवं प्राकृतिक ढंग से प्राप्त करना संभव नहीं है, ईश्वर से प्रार्थना करना है। अलबत्ता वह प्रार्थना जो व्यक्ति एवं समाज के विकास का कारण हो न कि आंतरिक इच्छाओं के चलते अनुचित प्रार्थना। महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति को अपना हर संभव प्रयास व प्रयत्न करना चाहिए, यह सोच कर नहीं बैठ जाना चाहिए कि प्रार्थना, कार्य व प्रयास का स्थान ले सकती है।
यहां इस बात पर ध्यान रहना चाहिए कि प्रार्थना का स्वीकार होना, ईश्वर की तत्वदर्शिता पर निर्भर है और संभव है कि हमारे भरपूर प्रयास और प्रार्थना के बावजूद हमारी इच्छाएं पूरी न हों, अतः हमें निराश नहीं होना चाहिए बल्कि इस बात पर विश्वास रखना चाहिए कि ईश्वर उन बातों को जानता है जिन्हें हम नहीं जानते और संभव है कि प्रार्थना का स्वीकार होना हमारे हित में न होता।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर पर ईमान रखने वाले लोग सदैव उसकी दया की ओर से आशावान रहते हैं क्योंकि ईश्वर की दया की ओर से निराशा, मनुष्य की तबाही का कारण बनती है।
ईश्वर, मनुष्य की इच्छाओं से अवगत है किंतु प्रार्थना करना, मनुष्य के भीतर विकास, बंदगी की भावना और निष्ठा का कारण बनता है और मनुष्य को आभास होता है कि उसे ईश्वर की आवश्यकता है अतः दूसरों से मन नहीं लगाना चाहिए।
भली संतान, ईश्वरीय अनुकंपा है जो मृत्यु के पश्चात भी मनुष्य की भलाइयों के जारी रहने का कारण बनती है।
सूरए मरयम, आयतें 6-11,
सूरए मरयम की आयत नंबर 6 और 7
يَرِثُنِي وَيَرِثُ مِنْ آَلِ يَعْقُوبَ وَاجْعَلْهُ رَبِّ رَضِيًّا (6) يَا زَكَرِيَّا إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَامٍ اسْمُهُ يَحْيَى لَمْ نَجْعَلْ لَهُ مِنْ قَبْلُ سَمِيًّا (7)
(प्रभुवर! मुझे ऐसा उत्तराधिकारी प्रदान कर!) जो मेरा और याक़ूब के वंश का वारिस हो और उसे अपनी प्रसन्नता का पात्र बना, (19:6) (इसके उत्तर में ईश्वर ने कहा) हे ज़करिया, हम तुम्हें एक पुत्र की शुभ सूचना देते हैं जिसका नाम यहया है और इससे पूर्व हमने किसी का यह नाम नहीं रखा।(19:7)
जैसा कि इससे पहले बताया गया था कि हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम को इस बात की चिंता थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात, कहीं उनकी जाति के लोगों में से कोई उनका उत्तराधिकारी होने का दावा न कर दे और इस प्रकार ईश्वरीय प्रतिनिधित्व का पद अयोग्य व्यक्ति के हाथ में चला जाए। इसी लिए उन्होंने ईश्वर से एक योग्य व सक्षम पुत्र की प्रार्थना की।
ये आयतें हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम के वंश की विरासत या धरोहर की ओर भी संकेत करती हैं क्योंकि हज़रत ज़करिया की पत्नी हज़रत सुलैमान के वंश से थीं कि जो हज़रत याक़ूब के पुत्र यहूदा के पुत्रों में से एक थे और उन्हें अपने पिता की ओर से बहुत धन संपत्ति मिली थी। अतः यह बात बड़ी स्वाभाविक थी कि हज़रत ज़करिया अपने उत्तराधिकारी के बारे में सोचते क्योंकि उनके पास मौजूद पैग़म्बरों की धरोहर यदि अयोग्य व अपवित्र लोगों के हाथ लग जाती तो इससे समाज में बहुत सी बुराइयां फैल सकती थीं।
इसी आधार पर उन्होंने ईश्वर से अपनी प्रार्थना जारी रखते हुए कहा कि उनका उत्तराधिकारी योग्य, प्रिय और ईश्वर की प्रसन्नता का पात्र हो। कुछ व्याख्याकारों का कहना है कि इस आयत में प्रयोग होने वाले विरासत के शब्द का तात्पर्य, धन संपत्ति की धरोहर नहीं बल्कि पैग़म्बरी का पद है किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि ये दोनों ही बातें संभव हैं। अर्थात हज़रत ज़करिया ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह उन्हें एक पुत्र प्रदान करे जो उनके बाद उनके माल का भी वारिस हो और उनके पश्चात ईश्वर की ओर से पैग़म्बर भी बनाया जाए।
ईश्वर ने हज़रत ज़करिया की प्रार्थना को स्वीकार किया और उन्हें एक ऐसे पुत्र की शुभ सूचना दी जो विभिन्न आयामों से अद्वितीय हो तथा उसमें कुछ ऐसी विशेषताएं हों जो उससे पहले किसी में न थीं। ईश्वर ने उस पुत्र का नाम स्वयं निर्धारित किया और उसे बचपन में ही पैग़म्बरी का पद प्रदान कर दिया। हज़रत यहया अलैहिस्सलाम बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे। उन्होंने अपने जीवन की विशेष परिस्थितियों के कारण, जिनके चलते उन्हें सदैव यात्रा में रहना पड़ता था, विवाह नहीं किया तथा सांसारिक आनंदों से आंखें मूंदे रहे। जैसा कि उनके बाद हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम ने भी इन्हीं कारणों से विवाह नहीं किया।
इन आयतों से हमने सीखा कि संतान की इच्छा एक स्वाभाविक इच्छा है और ईश्वर से संतान की प्रार्थना, पैग़म्बरी के पद से विरोधाभास नहीं रखती।
बच्चों का नाम रखने में बहुत अधिक सावधानी से काम लेना चाहिए क्योंकि नाम, संस्कृति, आस्था और रुचियों का चिन्ह होता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 8 और 9
قَالَ رَبِّ أَنَّى يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَكَانَتِ امْرَأَتِي عَاقِرًا وَقَدْ بَلَغْتُ مِنَ الْكِبَرِ عِتِيًّا (8) قَالَ كَذَلِكَ قَالَ رَبُّكَ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٌ وَقَدْ خَلَقْتُكَ مِنْ قَبْلُ وَلَمْ تَكُ شَيْئًا (9)
(ज़करिया ने) कहा कि प्रभुवर किस प्रकार मेरा एक पुत्र हो सकता है जबकि मेरी पत्नी बांझ है और मैं बुढ़ापे के कारण अक्षम हो चुका हूं? (19:8) (फ़रिश्ते ने) कहा ऐसा ही है, तुम्हारे पालनहार ने कहा है कि यह कार्य मेरे लिए अत्यंत सरल है और इससे पूर्व मैं तुम्हारी रचना कर चुका हूं जबकि तुम कुछ भी नहीं थे। (19:9)
यद्यपि हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम ने स्वयं ईश्वर से पुत्र के लिए प्रार्थना की थी किंतु उन्हें ज्ञात नहीं था कि उनकी प्रार्थना किस प्रकार पूरी होगी। क्या वे और उनकी पत्नी युवा बन जाएंगे और फिर उनके संतान होगी अथवा इसी वृद्धावस्था में ईश्वर उन्हें संतान प्रदान करेगा। यह प्रश्न और आश्चर्य, पैग़म्बरी के पद से विरोधाभास नहीं रखता क्योंकि पैग़म्बरों का ज्ञान भी सीमित है और उन्हें गुप्त बातों का ज्ञान भी उतना ही होता है जितना ईश्वर चाहता है।
स्वाभाविक है कि सर्वसक्षम ईश्वर जो सृष्टि का रचयिता भी है और जिसने प्रकृति के क़ानून भी बनाए हैं, प्राकृतिक सिद्धांतों को परिवर्तित या सीमित भी कर सकता है क्योंकि वह पूरी सृष्टि का मालिक है।
इन आयतों से हमने सीखा कि बांझ महिलाओं व पुरुषों को ईश्वर की दया व कृपा की ओर से निराश नहीं रहना चाहिए क्योंकि अनेक उदाहरण हैं कि इस प्रकार के लोगों के यहां भी संतान हुई है।
अपने जन्म और रचना के बारे में चिंतन-मनन से ईश्वर की शक्ति के बारे में हर प्रकार का संदेह समाप्त हो जाता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 10 और 11
قَالَ رَبِّ اجْعَلْ لِي آَيَةً قَالَ آَيَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلَاثَ لَيَالٍ سَوِيًّا (10) فَخَرَجَ عَلَى قَوْمِهِ مِنَ الْمِحْرَابِ فَأَوْحَى إِلَيْهِمْ أَنْ سَبِّحُوا بُكْرَةً وَعَشِيًّا (11)
(ज़करिया ने) कहा, प्रभुवर! मेरे लिए कोई चिन्ह निर्धारित कर दे। ईश्वर ने कहा कि तुम्हारा चिन्ह यह है कि तुम निरंतर तीन (दिन) रात बात नहीं कर सकोगे।(19:10) तो वे अपनी मेहराब अर्थात उपासना स्थल से बाहर निकल कर अपनी जाति के लोगों की ओर गए और उन्हें संकेत किया कि वे हर भोर व संध्या को ईश्वर का गुणगान करें।(19:11)
क़ुरआने मजीद के व्याख्याकारों के अनुसार हज़रत ज़करिया ने इस बात की ओर से निश्चिंत होने के लिए कि उन्होंने जो आवाज़ सुनी थी वह शैतान का उकसावा नहीं बल्कि ईश्वरीय वाणी थी, ईश्वर से निवेदन किया कि वह उनके लिए कोई चिन्ह निर्धारित करे। ईश्वर की ओर से आवाज़ आई कि चिन्ह यह है कि वे तीन दिनों तक ईश्वर के गुणगान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बोल पाएंगे।
ईश्वर की ओर से यह चिन्ह मिलने के बाद हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम अपने उपासना स्थल से बाहर निकले और लोगों को हर सुबह व शाम ईश्वर के गुणगान और उपासना का निमंत्रण दिया और चूंकि वे बोल नहीं सकते थे इस लिए उन्होंने संकेतों के माध्यम से यह बात कही।
इन आयतों से हमने सीखा कि हमारे शरीर का हर अंग ईश्वर के इरादे के अधीन है और यदि वह न चाहे तो संपूर्ण स्वास्थ्य के बावजूद अंग, अपना काम नहीं कर सकते।
ईश्वर का गुणगान और उपासना, मौसमी व अस्थायी नहीं बल्कि हर दिन सुबह व शाम निरंतर व सर्वकालिक होनी चाहिए।
सूरए मरयम, आयतें 12-17,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 12 और 13
يَا يَحْيَى خُذِ الْكِتَابَ بِقُوَّةٍ وَآَتَيْنَاهُ الْحُكْمَ صَبِيًّا (12) وَحَنَانًا مِنْ لَدُنَّا وَزَكَاةً وَكَانَ تَقِيًّا (13)
हे यहया! (ईश्वर की) किताब को दृढ़ता से पकड़े रहो। और हमने उन्हें बचपने में ही पैग़म्बरी प्रदान कर दी।(19:12) और अपनी ओर से कृपा व पवित्रता भी प्रदान की और वे ईश्वर से डरने वाले थे।(19:13)
इससे पहले बताया गया था कि ईश्वर ने अपने पैग़म्बर हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम की प्रार्थना को स्वीकार किया और उनके तथा उनकी पत्नी के बहुत वृद्ध होने के बावजूद उन्हें एक पुत्र प्रदान किया। ईश्वर ने उस बच्चे का नाम, यहया भी स्वयं निर्धारित किया।
ये आयतें कहती हैं कि ईश्वर ने इस बच्चे को तथ्यों व तत्वदर्शिता को समझने के लिए बड़ी प्रबल बुद्धि प्रदान की थी। वे बड़े ही पवित्र व सभी से प्रेम करने वाले व्यक्ति थे। उन्हें ईश्वर की ओर से इस बात का आदेश था कि वे अपने समय की आसमानी किताब अर्थात तौरैत के आदेशों के क्रियान्वयन के लिए हर संभव प्रयास करें तथा उस किताब को लोगों के समझाने के लिए बहुत गंभीरता से काम लें।
अलबत्ता ईश्वर का यह आदेश केवल हज़रत यहया से विशेष नहीं था और क़ुरआने मजीद ने विभिन्न आयतों में ईश्वरीय पैग़म्बरों के अनुयाइयों को, आसमानी किताब का ज्ञान प्राप्त करने तथा उसे क्रियान्वित करने के माध्यम से जीवन में गंभीर प्रयास करने की सिफ़ारिश की है तथा ईश्वरीय आदेशों के पालन में हर प्रकार की ढिलाई से रोका है।
इन आयतों से हमने सीखा कि पैग़म्बरों व उनके अनुयाइयों का दायित्व है कि वे धार्मिक आदेशों को व्यवहारिक बनाने में गंभीर व दृढ़ रहें तथा समाज में ईश्वरीय धर्म की रक्षा करें।
दूसरों के साथ प्रेम और ईश्वर के बंदों के प्रति स्नेह का व्यवहार, एक ईश्वरीय गुण है जिसे वह अपने प्रिय बंदों को भी प्रदान करता है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 14 और 15 ।
وَبَرًّا بِوَالِدَيْهِ وَلَمْ يَكُنْ جَبَّارًا عَصِيًّا (14) وَسَلَامٌ عَلَيْهِ يَوْمَ وُلِدَ وَيَوْمَ يَمُوتُ وَيَوْمَ يُبْعَثُ حَيًّا (15)
और यहया अपने माता-पिता के प्रति बहुत अधिक भलाई करने वाले थे और (लोगों के प्रति) उद्दंडी व अवज्ञाकारी नहीं थे।(19:14) तो उन पर सलाम हो जिस दिन उनका जन्म हुआ, जिस दिन उनकी मृत्यु होगी और जिस दिन वे (जीवित करके) पुनः उठाए जाएंगे।(19:15)
ईश्वर इन आयतों में हज़रत यहया की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहता है कि वे अपने पालनहार से डरने वाले थे, अपने माता-पिता के साथ बड़ा भला व्यवहार करते थे और लोगों के साथ भी घमंड और कड़ाई से नहीं बल्कि प्रेम व स्नेह का व्यवहार करते थे।
आगे चलकर आयतों में हर मनुष्य के जीवन के तीन महत्वपूर्ण कालखंडों की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि ईश्वर ने इन तीनों चरणों में उसके लिए सुरक्षा उपलब्ध कराई है। पहला चरण, जन्म या इस संसार में आने के समय का है, दूसरा चरण मृत्यु या इस संसार से वापस जाने का समय है और तीसरा चरण प्रलय के दिन ईश्वर के समक्ष न्यायपूर्ण हिसाब-किताब का समय है। यह ऐसा दिन होगा कि सभी लोग जीवित होंगे और उन्हें वास्तविक जीवन प्रदान किया जाएगा।
इस प्रकार की आयतों में प्रयोग किए गए सलाम शब्द का तात्पर्य केवल शाब्दिक व ज़बानी सलाम नहीं है बल्कि इसका अर्थ सुरक्षा व शांति है जो इस बात का कारण बनती है कि मनुष्य हर उस बात से दूर रहे जो उसकी प्रवृत्ति से मेल नहीं खाती।
इन आयतों से हमने सीखा कि माता-पिता के साथ भलाई सभी का दायित्व है और इस मामले में कोई भी अपवाद नहीं है चाहे वह उच्च सामाजिक या ईश्वरीय पद पर ही क्यों न आसीन हो।
स्वस्थ जीवन व सुरक्षित मृत्यु, पवित्रता, माता-पिता के साथ भलाई और पाप व उद्दंडता से दूरी की छाया में ही प्राप्त होती है और सभी लोग इस प्रकार के कार्य करके लोक-परलोक में अपने जीवन की सुरक्षा को सुनिश्चित बना सकते हैं।
आइये अब अब सूरए मरयम की आयत नंबर 16 और 17
وَاذْكُرْ فِي الْكِتَابِ مَرْيَمَ إِذِ انْتَبَذَتْ مِنْ أَهْلِهَا مَكَانًا شَرْقِيًّا (16) فَاتَّخَذَتْ مِنْ دُونِهِمْ حِجَابًا فَأَرْسَلْنَا إِلَيْهَا رُوحَنَا فَتَمَثَّلَ لَهَا بَشَرًا سَوِيًّا (17)
और (हे पैग़म्बर!) इस किताब में मरयम का भी उल्लेख कीजिए जब वे अपने परिजनों से दूर हो कर (बैतुल मुक़द्दस के) पूर्वी छोर की ओर चली गईं।(19:16) उन्होंने अपने और उनके बीच एक पर्दा डाल दिया तो हमने मरयम की ओर अपना दूत भेजा जो उनके समक्ष एक अच्छे भले मनुष्य के रूप में प्रकट हुआ।(19:17)
हज़रत यहया अलैहिस्सलाम की जीवनी के संक्षिप्त वर्णन के पश्चात इन आयतों से हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम की जीवनी आरंभ होती है। हज़रत यहया और हज़रत ईसा में कई समानताएं हैं जिनका उल्लेख अगली आयतों में किया जाएगा।
इन आयतों में सबसे पहले पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहा गया है कि इस किताब में और इस सूरे में, जिसका नाम सूरए मरयम है, ईसा मसीह की माता हज़रत मरयम अलैहस्सलाम और ईश्वर के दूत की घटना का वर्णन कीजिए कि जो अपने परिजनों से अलग होकर उनके बैतुल मुक़द्दस में उपासना के लिए जाने से आरंभ हुई। हज़रत मरयम ने स्वयं को दूसरों से अलग किया और अपने तथा दूसरों के बीच एक पर्दा डाल दिया ताकि ईश्वर की उपासना के लिए उन्हें एकांत प्राप्त रहे।
ईश्वर की इच्छा से ईश्वर का एक अत्यंत प्रिय फ़रिश्ता, सुंदर मनुष्य के रूप में उनके समक्ष प्रकट हुआ जिसे देख कर हज़रत मरयम भयभीत व हथप्रभ हो गईं कि किस प्रकार यह व्यक्ति उनके एकांत में आ गया।
इन आयतों से हमने सीखा कि आध्यात्मिक दर्जों और परिपूर्णता तक पहुंचने में स्त्री व पुरुष के बीच कोई अंतर नहीं है। पैग़म्बरी ऐसा दायित्व है जो ईश्वर ने महिलाओं के कंधों पर नहीं रखा है अन्यथा सभी आध्यात्मिक व भौतिक गुणों की प्राप्ति में स्त्री व पुरुष एकसमान हैं।
जिब्रईल व अन्य फ़रिश्ते, पैग़म्बरों के अतिरिक्त भी दूसरों के पास जाते हैं तथा उनसे बात करते हैं।
महिलाएं, आध्यात्मिक गुण व प्रतिष्ठा प्राप्त करके उस स्थान तक पहुंच सकती हैं कि फ़रिश्ते उनके पास आएं और उनसे बात करें।
सूरए मरयम, आयतें 18-23,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 18 और 19 ।
قَالَتْ إِنِّي أَعُوذُ بِالرَّحْمَنِ مِنْكَ إِنْ كُنْتَ تَقِيًّا (18) قَالَ إِنَّمَا أَنَا رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَامًا زَكِيًّا (19)
मरयम ने (उस फ़रिश्ते से) कहा, मैं तुझ से कृपालु ईश्वर की शरण चाहती हूं, यदि तू ईश्वर से डरने वाला है।(19:18) उसने कहा निश्चित रूप से मैं तुम्हारे पालनहार का दूत हूं ताकि तुम्हें एक पवित्र पुत्र प्रदान करूं।(19:19)
इससे पहले बताया गया था कि हज़रत मरयम बैतुलमुक़द्दस के एक कोने में ईश्वर की उपासना में लीन थीं कि अचानक ही एक युवा उनके समक्ष प्रकट हुआ। हज़रत मरयम उसे देखते ही हतप्रभ रह गईं और भयभीत हुईं।
ये आयतें कहती हैं कि उस स्थिति में जब हज़रत मरयम अलैहस्सलाम के पास ईश्वर के अतिरिक्त कोई शरण नहीं थी, उन्होंने उस युवा को संबोधित करते हुए कहा कि मैं तुझसे ईश्वर की शरण चाहती हूं और यदि तू पवित्र व्यक्ति है तो मुझसे दूर हो जा। उस युवा ने हज़रत मरयम को शांत करने के लिए कहा कि मैं मनुष्य नहीं बल्कि फ़रिश्ता हूं और ईश्वर की ओर से मुझे दायित्व दिया गया है कि आपको एक पवित्र व ईश्वर से भय रखने वाला पुत्र प्रदान करूं।
ये आयतें भली भांति दर्शाती हैं कि पवित्र चरित्र वाली महिलाएं, परपुरुषों के साथ एकांत में नहीं मिलतीं और ऐसे अवसरों पर उपस्थित होने के संबंध में ईश्वर से शरण चाहती हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के जीवन में लोग इस बात की ओर से निश्चेत हैं और विभिन्न स्थानों पर महिलाओं और परपुरुषों के बीच मेल-जोल एक साधारण सी बात बन चुकी है।
इन आयतों से हमने सीखा कि शैतान और शैतानी कर्मों की ओर से ईश्वर की शरण चाहना, क़ुरआने मजीद की सिफ़ारिश और ईश्वर के प्रिय बंदों का चरित्र है।
फ़रिश्ते धरती पर केवल ईश्वरीय संदेश पहुंचाने के लिए ही नहीं बल्कि ईश्वरीय आदेशों के पालन के लिए भी आते हैं और पैग़म्बरों के अतिरिक्त अन्य लोगों से भी बात करते हैं।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 20 और 21।
قَالَتْ أَنَّى يَكُونُ لِي غُلَامٌ وَلَمْ يَمْسَسْنِي بَشَرٌ وَلَمْ أَكُ بَغِيًّا (20) قَالَ كَذَلِكِ قَالَ رَبُّكِ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٌ وَلِنَجْعَلَهُ آَيَةً لِلنَّاسِ وَرَحْمَةً مِنَّا وَكَانَ أَمْرًا مَقْضِيًّا (21)
मरयम ने कहा किस प्रकार से मेरे लिए संतान हो सकती है जबकि किसी मनुष्य ने मुझे छुआ तक नहीं है और न ही मैं उद्दंडी हूं? (19:20) (फ़रिश्ते ने) कहा कि बात वही है जो मैंने कही है। तुम्हारे पालनहार ने कहा है कि यह कार्य मेरे लिए बहुत सरल है ताकि हम उसे लोगों के लिए एक निशानी और अपनी ओर से दया बनाएं। और यह कार्य अटल है।(19:21)
हज़रत मरयम अलैहस्सलाम, जो आरंभ में उस युवा के आने से हतप्रभ और भयभीत हो गई थीं, अब उसकी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गईं कि किस प्रकार एक कुंवारी लड़की, माता बन सकती है? यह ऐसी स्थिति में था कि जब वे सामान्य जीवन से अलग हो गईं थीं और उन्होंने स्वयं को बैतुलमुक़द्दस में उपासना के लिए विशेष कर दिया था।
किंतु फ़रिश्ते की बातें एक अटल घटना की ओर संकेत कर रही थीं। ईश्वर का इरादा था कि कुंवारी मरयम माता बनें ताकि हज़रत ईसा मसीह का जन्म ही ईश्वरीय चमत्कार के साथ हो। यद्यपि यह बात सामान्य दृष्टि से और प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार असंभव प्रतीत होती है किंतु ईश्वर के लिए, जो संपूर्ण सृष्टि का रचयिता है, यह बात अत्यंत सरल है।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर का इरादा सृष्टि के सभी कारणों और साधनों से इतर है और कोई भी बात उसके व्यवहारिक होने में बाधा नहीं बन सकती।
पैग़म्बरों का अस्तित्व लोगों के लिए ईश्वरीय दया व कृपा का कारण है। जैसे कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम का अस्तित्व, हृदय में ईश्वर पर ईमान को सुदृढ़ बनाता है और लोगों के मार्गदर्शन का कारण बनता है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 22 और 23
فَحَمَلَتْهُ فَانْتَبَذَتْ بِهِ مَكَانًا قَصِيًّا (22) فَأَجَاءَهَا الْمَخَاضُ إِلَى جِذْعِ النَّخْلَةِ قَالَتْ يَا لَيْتَنِي مِتُّ قَبْلَ هَذَا وَكُنْتُ نَسْيًا مَنْسِيًّا (23)
तो मरयम गर्भवती हो गईं और लोगों से दूर एक स्थान पर (एकांत में) रहने लगीं।(19:22) तो प्रसव पीड़ा उन्हें खजूर के एक पेड़ की ओर ले गई। मरयम ने (अपने आप से) कहा कि काश मैं इससे पूर्व ही मर गई होती और पूर्ण रूप से भुला दी गई होती।(19:23)
ईश्वर के इरादे से फ़रिश्ते ने हज़रत मरयम अलैहस्सलाम पर फूंक मारी तो वे गर्भवती हो गईं और उनमें गर्भ के चिन्ह दिखाई देने लगे। जिसके बाद वे विवश हो कर अपने उपासना स्थल से बाहर निकलीं और मरुस्थल की ओर चली गईं ताकि उन्हें लोगों का सामना न करना पड़े।
कुछ ही समय बाद उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी और नौ महीनों के बजाए अल्पावधि में ही ईश्वर की ओर से प्रसव की परिस्थितियां उत्पन्न हो गईं। हज़रत मरयम अलैहस्सलाम यह सोचने लगीं कि वे लोगों की बातों और उनके लांछनों का किस प्रकार उत्तर देंगी और अपने गर्भवती होने का क्या औचित्य प्रस्तुत करेंगी? इसी दुख और लज्जा के कारण उन्होंने कहा कि काश मैं इस स्थिति से पूर्व ही मर गई होती। यद्यपि मैंने छोटी सी भी ग़लती नहीं की है किंतु संसार का सबसे बड़ा आरोप अर्थात व्यभिचार का लांछन मुझ पर लगने वाला है।
इन आयतों से हमने सीखा कि यद्यपि गर्भ और प्रसव महिला के लिए अत्यंत कठिन कार्य है किंतु यह एक ऐसी संतान के जन्म का मार्ग प्रशस्त करता है जो उसके लिए ढेरों भलाइयां और अनुकंपाएं लेकर आती है।
पवित्र लोगों की दृष्टि में, मृत्यु, बदनामी से उत्तम है। जीवन का मूल्य पवित्रता में ही है।
सूरए मरयम, आयतें 24-28,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 24 और 25
فَنَادَاهَا مِنْ تَحْتِهَا أَلَّا تَحْزَنِي قَدْ جَعَلَ رَبُّكِ تَحْتَكِ سَرِيًّا (24) وَهُزِّي إِلَيْكِ بِجِذْعِ النَّخْلَةِ تُسَاقِطْ عَلَيْكِ رُطَبًا جَنِيًّا (25)
तो (नवजात शिशु ने) नीचे की ओर से उन्हें पुकारा कि (हे माता!) दुखी न हों कि निसंदेह आपके पालनहार ने आपके (पैरों के) नीचे से सोता जारी कर दिया है(19:24) और इस खजूर के पेड़ के तने को अपनी ओर हिलाइये तो आपके ऊपर ताज़ा खजूरें गिरने लगेंगी।(19:25)
इससे पहले बताया गया कि ईश्वर की इच्छा से जिब्रईल नामक फ़रिश्ते ने फूंक मारकर हज़रत मरयम अलैहस्सलाम को गर्भवती बना दिया और कुछ ही दिनों में उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी अतः वे विवश होकर बैतुल मुक़द्दस में स्थित अपने उपासना स्थल से बाहर निकल गईं। उन्होंने लोगों के आरोपों से बचने के लिए नगर के बजाए मरुस्थल का रुख़ किया और खजूर के एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गईं।
ये आयतें कहती हैं कि ईश्वर की इच्छा से नवजात शिशु बोलने लगा ताकि उन्हें शांति प्राप्त हो। हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम ने जन्म से पहले अपनी माता से बात की और उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि आप दुखी न हों, यद्यपि कोई आपकी सहायता के लिए नहीं आया है किंतु ईश्वर ने आपके लिए अपनी अनुकंपाएं जारी कर दी हैं, आपके पैरों के नीचे से पानी का सोता फूट पड़ा है और आपके सिर पर ताज़ा खजूरें मौजूद हैं।
रोचक बात यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों में वर्णित है कि गर्भवती महिला के लिए सबसे अच्छा आहार ताज़ा खजूर है तथा प्रसव के पश्चात महिलाओं को सबसे पहले खजूर खाने के लिए देनी चाहिए।
इन आयतों से हमने सीखा कि गर्भवति महिला को मानसिक शांति की आवश्यकता होती है और उसके परिजनों व निकटवर्ती लोगों को अपनी बातों से सांत्वना देकर उसकी चिंता व बेचैनी को कम करना चाहिए।
ताज़ा खजूर, ईश्वर के प्रिय बंदों के लिए उसकी विशेष अनुकंपाओं में से एक है और उसके प्रयोग की बहुत अधिक सिफ़ारिश की गई है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 26
فَكُلِي وَاشْرَبِي وَقَرِّي عَيْنًا فَإِمَّا تَرَيِنَّ مِنَ الْبَشَرِ أَحَدًا فَقُولِي إِنِّي نَذَرْتُ لِلرَّحْمَنِ صَوْمًا فَلَنْ أُكَلِّمَ الْيَوْمَ إِنْسِيًّا (26)
तो (खजूर) खाइये और (वह शीतल पानी) पीजिए और (ऐसे शिशु के कारण) आपकी आंखें ठंडी हों तो यदि आप किसी मनुष्य को देखें तो उससे कहिए कि मैंने कृपालु ईश्वर के लिए रोज़े की मनौती मानी है और आज मैं किसी भी मनुष्य से बात नहीं करूंगी।(19:26)
नवजात शिशु की बातों से हज़रत मरयम की चिंता में कुछ कमी आई किंतु वे अब भी लोगों की ओर से लगाए जाने वाले ओरोपों की ओर से चिंतित थीं कि ईश्वर की ओर से उनके लिए संदेश आया कि वे चुप का रोज़ा रखें और किसी से भी बात न करें तथा किसी के भी प्रश्न का उत्तर न दें यहां तक कि ईश्वर उन्हें कोई मार्ग बता कर किसी प्रकार उनकी समस्या का समाधान करे।
रोचक बात यह है कि यह आयत संतान को माता-पिता की आंखों की ठंडक बताती है और यह बात आज मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुकी है तथा संतान के जन्म से माता-पिता के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
इस आयत से हमने सीखा कि जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए मनौती, ऐसा माध्यम है जिसे ईश्वर के प्रिय बंदों ने प्रयोग किया है। अलबत्ता मनौती, ईश्वर के लिए होनी चाहिए चाहे उसका लक्ष्य समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करना हो।
कभी कभी लोगों की बातों और आरोपों के मुक़ाबले में मौन धारण करना चाहिए ताकि वास्तविकता स्वयं ही स्पष्ट हो जाए।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 27 और 28
فَأَتَتْ بِهِ قَوْمَهَا تَحْمِلُهُ قَالُوا يَا مَرْيَمُ لَقَدْ جِئْتِ شَيْئًا فَرِيًّا (27) يَا أُخْتَ هَارُونَ مَا كَانَ أَبُوكِ امْرَأَ سَوْءٍ وَمَا كَانَتْ أُمُّكِ بَغِيًّا (28)
तो मरयम अपने नवजात बच्चे को गोद में लिए अपनी जाति के लोगों के पास आईं। उन लोगों ने कहा, हे मरयम! निश्चित रूप से तुमने बहुत ही बुरा कर्म किया है।(19:27) हे हारून की बहन! न तो तुम्हारे पिता बुरे आदमी थे और न ही तुम्हारी माता व्यभिचारी थीं।(19:28)
प्रसव के बाद हज़रत मरयम अलैहस्सलाम बहुत अधिक समय तक मरुस्थल में नहीं रह सकती थीं और उन्हें अपनी जाति के लोगों के पास लौटना ही था किंतु उन्हें पता था कि लोग उन्हे बुरी दृष्टि से देखेंगे और उन पर व्यभिचार का आरोप लगाएंगे। अपने समय की सबसे पवित्र महिला पर व्यभिचार का आरोप, जिस प्रकार से ज़ुलैख़ा ने अपने समय के सबसे पवित्र पुरुष हज़रत यूसुफ़ पर व्यभिचार का आरोप लगाया था।
यह एक बहुत बड़ा पाठ है कि हमें लोगों की बुरी दृष्टि या ग़लत विचारों से प्रभावित नहीं होना चाहिए। संभव है कि लोग अज्ञानता, ईर्ष्या या द्वेष के चलते किसी पर कोई आरोप लगाएं जो पूर्ण रूप से निराधार हो बल्कि वास्तविकता उसके बिल्कुल विपरीत हो।
इन आयतों से हमने सीखा कि कभी कभी लोगों के फ़ैसले, ठोस बातों और वास्तविकता को समझने के लिए नहीं बल्कि जल्दबाज़ी और विदित लक्षणों पर आधारित होते हैं अतः हमें उनसे प्रभावित नहीं होना चाहिए।
माता-पिता चाहें या न चाहें, वे अपने बच्चों के व्यवहार के लिए उत्तरदायी होते हैं अतः उन्हें अपने बच्चों के प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास करना चाहिए ताकि वे उनका नाम ऊंचा करें।
बुरा काम जो भी करे बुरा ही होता है किंतु यदि अच्छे व पवित्र परिवार के लोग ऐसा कर्म करें तो वह अधिक बुरा समझा जाता है।
सूरए मरयम, आयतें 29-34,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 29 और 30 ।
فَأَشَارَتْ إِلَيْهِ قَالُوا كَيْفَ نُكَلِّمُ مَنْ كَانَ فِي الْمَهْدِ صَبِيًّا (29) قَالَ إِنِّي عَبْدُ اللَّهِ آَتَانِيَ الْكِتَابَ وَجَعَلَنِي نَبِيًّا (30)
तो मरयम ने उस (शिशु) की ओर संकेत किया। उन्होंने कहा कि हम उस (बच्चे) से किस प्रकार बात कर सकते हैं जो (अभी) झूले में है।(19:29) बच्चे ने कहा मैं ईश्वर का दास हूं, उसने मुझे (आसमानी) किताब दी है और मुझे अपना पैग़म्बर बनाया है।(19:30)
इससे पहले बताया गया था कि जब हज़रत मरयम अलैहस्सलाम, अपने नवजात बच्चे के साथ लोगों के पास वापस लौटीं तो उन्होंने उन पर कटाक्ष करना आरंभ कर दिया कि हे मरयम! तुम्हारा तो विवाह नहीं हुआ है, किस प्रकार तुमने बच्चे को जन्म दिया है? तुम्हारा संबंध तो एक पवित्र घराने से है, तुमने किस प्रकार ऐसा काम किया?
चूंकि हज़रत मरयम ईश्वर के आदेश पर कुछ बोल नहीं सकती थीं अतः उन्होंने शिशु की ओर संकेत कर दिया कि वह लोगों का उत्तर दे। जब लोगों ने देखा कि मरयम कुछ कह नहीं रही हैं बल्कि उत्तर के लिए नवजात शिशु की ओर संकेत कर रही हैं तो वे अधिक क्रोधित हो गए क्योंकि वह प्राकृतिक रूप से उस समय कुछ बोल ही नहीं सकता था कि वह अपनी माता का बचाव करता।
किंतु ईश्वर की इच्छा से झूले में लेटे हुए नवजात शिशु ने बोलना आरंभ किया और सबसे पहले उसने इस प्रकार अपना परिचय कराया कि मैं ईश्वर का एक बंदा हूं जिस पर उसकी विशेष कृपा है। ईश्वर ने मुझे तुम लोगों के लिए अपना पैग़म्बर बनाया है और तुम्हारे मार्गदर्शन के लिए मुझे किताब दी है।
यद्यपि हज़रत ईसा मसीह ने स्वयं को ईश्वर की रचना और उसका बंदा बताया है किंतु उनके मानने वालों ने उनके संबंध में अतिश्योक्ति की है तथा वे उन्हें ईश्वर का पुत्र समझते हैं। इस प्रकार की अतिश्योक्ति किसी भी धर्म के अनुयाइयों के लिए एक ख़तरा है।
इन आयतों से हमने सीखा कि यदि हम पवित्र हों तो नवजात शिशु भी आरोपों का उत्तर देकर हमारी पवित्रता का बचाव कर सकता है।
पैग़म्बरी का पद, ईश्वर की निष्ठापूर्ण बंदगी का परिणाम है तथा ईश्वरीय कृपाएं बंदगी का फल हैं।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 31 और 32
وَجَعَلَنِي مُبَارَكًا أَيْنَ مَا كُنْتُ وَأَوْصَانِي بِالصَّلَاةِ وَالزَّكَاةِ مَا دُمْتُ حَيًّا (31) وَبَرًّا بِوَالِدَتِي وَلَمْ يَجْعَلْنِي جَبَّارًا شَقِيًّا (32)
और ईश्वर ने मुझे विभूति का कारण बनाया मैं जहां भी रहूं तथा मुझे जीवन भर नमाज़ व ज़कात की सिफ़ारिश की।(19:31) इसी प्रकार ईश्वर ने मुझे अपनी माता के साथ भलाई करने वाला बनाया तथा (लोगों के प्रति) अत्याचारी व निर्दयी नहीं बनाया।(19:32)
हज़रत ईसा अलैहिस्सालम ने जो झूले में थे न केवल यह कि लोगों द्वारा अपनी माता पर लगाए जा रहे आरोपों से उनका बचाव किया बल्कि स्वयं को ईश्वरीय पैग़म्बर भी बताया। अर्थात यह कि वे नमाज़ और ज़कात जैसे ईश्वरीय आदेशों के संबंध में उसके आज्ञापालक भी थे और परिवार तथा जनता की भलाई को अपना दायित्व भी समझते थे। स्वाभाविक है कि इस प्रकार के व्यक्ति का पूरा अस्तित्व विभूति है और उसकी भलाई सभी लोगों तक पहुंचती है तथा उसका अस्तित्व केवल उसके समय तक सीमित नहीं होता।
इन आयतों से हमने सीखा कि नमाज़ और ज़कात सभी आसमानी धर्मों की संयुक्त उपासनाओं में से हैं और इस्लाम से विशेष नहीं हैं।
माता-पिता विशेष कर माता के साथ भलाई, पैग़म्बरों के शिष्टाचारों में से है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 33 और 34
وَالسَّلَامُ عَلَيَّ يَوْمَ وُلِدْتُ وَيَوْمَ أَمُوتُ وَيَوْمَ أُبْعَثُ حَيًّا (33) ذَلِكَ عيسَى ابْنُ مَرْيَمَ قَوْلَ الْحَقِّ الَّذِي فِيهِ يَمْتَرُونَ (34)
और मुझ पर सलाम हो जिस दिन मेरा जन्म हुआ और जिस दिन मेरी मृत्यु होगी और जिस दिन मुझे पुनः जीवित (करके) उठाया जाएगा।(19:33) ये है मरयम के पुत्र ईसा के बारे में सच्ची बात जिसके संबंध में लोग भ्रम में पड़े हुए हैं।(19:34)
हज़रत ईसा मसीह ने न केवल ईश्वर की इच्छा से चमत्कार की भांति होने वाले अपने जन्म और जीवन में अपने विभूतिपूर्ण अस्तित्व के बारे में बात की बल्कि अपनी मृत्यु और प्रलय में जीवित किए जाने की ओर भी संकेत किया ताकि यह बताएं कि वे भी अन्य लोगों की भांति मनुष्य ही हैं तथा लोगों की ही भांति वे भी जन्मे हैं, उनकी मृत्यु भी होगी तथा उनका जीवन भी सीमित है।
जो बात ईश्वर के भले बंदों विशेष कर पैग़म्बरों की दृष्टि में महत्वपूर्ण है वह हर प्रकार के भटकाव व पथभ्रष्टता से जीवन के मार्ग की रक्षा है जिसे ईश्वर ने अपने पैग़म्बरों के लिए सुनिश्चित बनाया है ताकि लोग निश्चिंत हो कर उनके मार्ग पर चलें तथा किसी भी प्रकार के भ्रम या शंका में ग्रस्त न हों किंतु खेद के साथ कहना पड़ता है कि कुछ लोग अज्ञानता के चलते या फिर जान बूझ कर पैग़म्बरों के बारे में संदेह करते हैं।
कुछ लोग पैग़म्बरों को मानव स्तर से आगे बढ़ा कर ईश्वर के स्तर के निकट कर देते हैं और कुछ अन्य उन्हें साधारण लोगों के स्तर से भी नीचे ले आते हैं तथा मूर्ख एवं बुद्धिहीन समझते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि पैग़म्बर भी अन्य लोगों की ही भांति मनुष्य होते हैं जिनके पास ईश्वर का विशेष संदेश वहि आता है और उनका दायित्व होता है कि उस संदेश को लोगों तक पहुंचाएं तथा समाज में ईश्वरीय शिक्षाओं को लागू करें।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर के प्रिय बंदों तथा पैग़म्बरों सहित सभी को मरना तथा प्रलय में उपस्थित होना है और कोई भी इससे अपवाद नहीं है।
मरने तथा मरने के बाद प्रलय में जीवित करके उठाए जाने की शैली महत्वपूर्ण है, इसी लिए ईश्वर के सभी प्रिय बंदे अपने जीवन के अंत के संबंध में चिंतित रहते थे तथा प्रार्थना करते थे कि हर दशा में ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहने की स्थिति में इस संसार से सिधारें।
पिछले आसमानी धर्मों के अनुयाइयों के पथभ्रष्ट होने का वर्णन और उनके बारे में सच्ची बातों को सामने लाना, क़ुरआने मजीद की एक शैली है।
सूरए मरयम, आयतें 35-40,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 35
مَا كَانَ لِلَّهِ أَنْ يَتَّخِذَ مِنْ وَلَدٍ سُبْحَانَهُ إِذَا قَضَى أَمْرًا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُ كُنْ فَيَكُونُ (35)
ईश्वर के लिए उचित नहीं है कि वह किसी को अपनी संतान बनाए कि वह पवित्र व आवश्यकतामुक्त है। जब वह किसी बात का निर्णय करता है तो जैसे ही वह उससे कहता है कि हो जाओ तो वह हो जाती है।(19:35)
पिछली आयतों में कहा गया गया कि हज़रत ईसा मसीह अलैहिस्सलाम ने झूले में ही अपनी माता की पवित्रता की गवाही दी और स्वयं को ईश्वर का एक दास बताया जो एक दिन संसार में आया है और एक दिन इस संसार से चला जाएगा।
यह आयत कहती है कि जिन लोगों ने हज़रत ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र समझा और उन्हें मनुष्य के स्तर से ऊपर उठा दिया उन्होंने अनुचित बात कही है क्योंकि ईश्वर इस बात से कहीं पवित्र है कि उसकी कोई संतान हो। यह विषय कि हज़रत ईसा मसीह का जन्म बिना पिता के हुआ है, इस अर्थ में नहीं है कि वे ईश्वर के पुत्र हैं क्योंकि यदि ईश्वर चाहे तो वह बिना माता-पिता के भी मनुष्य को पैदा कर सकता है जैसा कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम का जन्म इसी प्रकार हुआ था। तो क्या यह कहा जा सकता है कि हज़रत आदम ईश्वर के पुत्र हैं? जबकि सभी जानते हैं कि वे भी ईश्वर के बंदों में से एक हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर सर्वसक्षम है और सृष्टि के लिए उसे प्राकृतिक कारकों की आवश्यकता नहीं होती।
आसमानी किताब वालों को उनकी भ्रष्ट आस्थाओं के संबंध में सही मार्ग दिखाने का प्रयास करना चाहिए। इस संबंध में तटस्थ रहना उचित नहीं है।
सृष्टि की सभी वस्तुओं के साथ ईश्वर का संबंध, पिता व संतान का नहीं बल्कि रचयिता व रचना का संबंध है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 36
وَإِنَّ اللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوهُ هَذَا صِرَاطٌ مُسْتَقِيمٌ (36)
और निश्चित रूप से ईश्वर मेरा और तुम्हारा पालनहार है तो उसी की उपासना करो कि यही सीधा मार्ग है।(19:36)
यह आयत हज़रत ईसा मसीह की ज़बान से है जो अपना परिचय इस प्रकार कराते हैं कि मैं ईश्वर का दास हूं और मेरा तथा तुम्हारा पालनहार एक ही है कि जो अल्लाह है। अतः तुम लोग भी मेरी ही भांति केवल उसी की उपासना करो और किसी को उसका समकक्ष न ठहराओ। यदि तुम ऐसा करोगे तो सीधे मार्ग पर रहोगे।
इस आयत से हमने सीखा कि तीन ईश्वरों के संबंध में ईसाइयों की आस्था, ईश्वर की उपासना के सीधे मार्ग से पथभ्रष्टता है।
उपासना केवल ईश्वर की होनी चाहिए जो सृष्टि का रचयिता व पालनहार है और दूसरों की उपासना नहीं की जा सकती चाहे वे ईश्वर के पैग़म्बर ही क्यों न हों।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 37 और 38
فَاخْتَلَفَ الْأَحْزَابُ مِنْ بَيْنِهِمِْ فَوَيْلٌ لِلَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ مَشْهَدِ يَوْمٍ عَظِيمٍ (37) أَسْمِعْ بِهِمْ وَأَبْصِرْ يَوْمَ يَأْتُونَنَا لَكِنِ الظَّالِمُونَ الْيَوْمَ فِي ضَلَالٍ مُبِينٍ (38)
तो उनके कुछ गुटों ने आपस में मतभेद किया तो एक बड़े दिन जब उन्हें उपस्थित होना होगा, बड़ा बुरा अंत होगा उन लोगों का जिन्होंने ईश्वर का इन्कार किया।(19:37) कितने बड़े सुनने वाले और कितने बड़े देखने वाले होंगे जिस दिन वे हमारे सामने आएंगे किंतु आज के दिन अत्याचारी खुली हुई पथभ्रष्टता में हैं।(19:38)
ये आयतें हज़रत ईसा मसीह के बारे में ईसाइयों के विभिन्न गुटों व समुदायों के बीच मतभेद का वर्णन करते हुए कहती हैं कि इन लोगों के बीच गहरा मतभेद उत्पन्न हो गया और इनमें से प्रत्येक ने उनके बारे में एक अलग बात कही किंतु प्रलय में, जब हठधर्म के पर्दे हट जाएंगे तो उनकी आंखें और कान सत्य को देखें और सुनेंगे और फिर वे सत्य को स्वीकार कर लेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय धर्मों की एक बड़ी मुसीबत, धार्मिक मतभेद हैं जो पैग़म्बरों की शिक्षाओं पर बहुत बड़ा अत्याचार है।
हमें प्रयास करना चाहिए कि प्रलय के न्यायालय में उपस्थित होने से पूर्व इसी संसार में खुली आंखों व कानों से सत्य के मार्ग का चयन करें और उस मार्ग पर अडिग रहें।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 39 और 40
وَأَنْذِرْهُمْ يَوْمَ الْحَسْرَةِ إِذْ قُضِيَ الْأَمْرُ وَهُمْ فِي غَفْلَةٍ وَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ (39) إِنَّا نَحْنُ نَرِثُ الْأَرْضَ وَمَنْ عَلَيْهَا وَإِلَيْنَا يُرْجَعُونَ (40)
और (हे पैग़म्बर) उन्हें पछतावे के दिन से डराइये कि जिस दिन सभी वस्तुएं समाप्त हो जाएंगी जबकि वे निश्चेतना में होंगे और ईमान नहीं लाएंगे।(19:39) धरती और जो कुछ उसमें है उसके केवल हम ही उत्तराधिकारी होंगे और वे हमारी ही ओर लौटाए जाएंगे।(19:40)
सूरए मरयम के इस भाग के अंत में कि जो हज़रत ईसा मसीह तथा उनके बारे में पाए जाने वाली ग़लत आस्थाओं के बारे में था, ये आयतें पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को संबोधित करते हुए कहती हैं कि वे आसमानी धर्म के अनुयाइयों को सचेत कर दें कि प्रलय का दिन पछतावे का दिन होगा क्योंकि उस दिन वापसी का कोई मार्ग नहीं है और उस दिन ईश्वर का फ़ैसला भी आ चुका होगा अतः उचित है कि आज ही निश्चेतना से निकल आएं और ईश्वर पर ईमान ले आएं तथा यह जान लें कि वे इस संसार से जाने वाले हैं, केवल ईश्वर का अस्तित्व बाक़ी रहने वाला है।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस संसार में हमारी निश्चेतना, प्रलय में हमारे पछतावे का कारण बनेगी।
इस संसार का धन-दौलत, संपत्ति और सत्ता नश्वर है अतः इन वस्तुओं को हमारी निश्चेतना का कारण नहीं बनना चाहिए।
सूरए मरयम, आयतें 41-45,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 41 और 42
وَاذْكُرْ فِي الْكِتَابِ إِبْرَاهِيمَ إِنَّهُ كَانَ صِدِّيقًا نَبِيًّا (41) إِذْ قَالَ لِأَبِيهِ يَا أَبَتِ لِمَ تَعْبُدُ مَا لَا يَسْمَعُ وَلَا يُبْصِرُ وَلَا يُغْنِي عَنْكَ شَيْئًا (42)
और (हे पैग़म्बर!) इस किताब में इब्राहीम का भी उल्लेख कीजिए कि निश्चित रूप से वे अत्यंत सच्चे पैग़म्बर थे।(19:41) जब उन्होंने अपने (मुंह बोले) पिता से कहा कि हे पिता! आप क्यों ऐसे की उपासना करते हैं जो न तो सुन सकता है और न ही देख सकता है और न ही आपको किसी वस्तु से आवश्यकतामुक्त कर सकता है? (19:42)
पिछली आयतों में हज़रत ज़करिया, हज़रत मरयम तथा हज़रत ईसा अलैहिमुस्सलाम के जीवन की कुछ घटनाओं के वर्णन के पश्चात क़ुरआने मजीद इन आयतों में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और उनके मुंह बोले पिता या चाचा के बीच होने वाली वार्ता का वर्णन करता है और आरंभ में हज़रत इब्राहीम की विशेताओं का उल्लेख करते हुए उन्हें सिद्दीक़ बताता है। सिद्दीक़ उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसका मन, ज़बान और कर्म एक होता है तथा उसकी कथनी व करनी सच्चाई पर आधारित होती है।
चूंकि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पिता का निधन उनके बचपन में ही हो गया था और उनकी अभिभावकता का दायित्व उनके चाचा आज़र के कांधों पर था, इसी लिए क़ुरआने मजीद ने आज़र को उनके पिता के रूप में वर्णित किया है। हज़रत इब्राहीम के वास्तविक पिता ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति थे जबकि आज़र मूर्तिपूजा और अनेकेश्वरवाद में ग्रस्त था। यही कारण है कि हज़रत इब्राहीम ने बड़े कोमल शब्दों में और प्रश्नात्मक शैली में परोक्ष रूप से उन्हें समझाया कि मूर्तिपूजा का कोई लाभ नहीं है क्योंकि मूर्तियां तो मनुष्य के स्तर तक भी नहीं पहुंचतीं और उनमें देखने व सुनने तक की क्षमता नहीं होती, मानव जाति के मामलों के संचालन की शक्ति की तो बात ही अलग है।
इन आयतों से हमने सीखा कि सुधार और उपदेश का काम समाज के लोगों से पहले अपने निकटवर्ती लोगों से आरंभ करना चाहिए।
बुराइयों से रोकने में आयु की कोई सीमा नहीं है, परिवार का बच्चा भी अपने बड़ों को बुरे कर्मों से रोक सकता है।
सामाजिक व शिष्टाचारिक बुराइयों से रोकने से पूर्व आस्था संबंधी बुराइयों से रोकना चाहिए।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 43
يَا أَبَتِ إِنِّي قَدْ جَاءَنِي مِنَ الْعِلْمِ مَا لَمْ يَأْتِكَ فَاتَّبِعْنِي أَهْدِكَ صِرَاطًا سَوِيًّا (43)
हे पिता! निश्चित रूप से मेरे पास ऐसा ज्ञान आया है जो आपके पास नहीं आया है तो मेरा अनुसरण कीजिए कि मैं सीधे रास्ते की ओर आपका मार्गदर्शन करूंगा।(19:43)
मूर्ति पूजा को लाभहीन बताने के पश्चात हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ईश्वरीय पैग़म्बर के रूप में अपना परिचय कराते हैं और अपने चाचा से कहते हैं कि मेरे पास ईश्वर का विशेष संदेश वहि आता है अतः मैं ऐसी बातें जानता हूं जो आप नहीं जानते। मुझे ज्ञात है कि मृत्यु के पश्चात, मनुष्य को क़ब्र में पुनः जीवित किया जाएगा और मृत्यु से लेकर प्रलय तक का समय उसे वहीं बिताना होगा। इसके बाद वह प्रलय में लाया जाएगा जहां उसे ईश्वरीय न्यायालय में अपने कर्मों का हिसाब किताब देना होगा। मैं यह भी जानता हूं कि ईश्वर किन कामों को पसंद करता है और किन कर्मों से अप्रसन्न होता है, अतः आप मेरी बात सुनिए और उसे स्वीकार कीजिए जिससे आप सीधे मार्ग पर आ जाएंगे।
इस आयत से हमने सीखा कि अनेकेश्वरवाद का मूल कारण वास्तविकता से अनभिज्ञता है, यही कारण है कि ईश्वरीय पैग़म्बर लोगों को इस बात से अवगत कराने का प्रयास करते थे कि अनेकेश्वरवाद का कोई लाभ नहीं है।
मनुष्य को ज्ञानी का आज्ञापालन करना चाहिए, चाहे वह आयु में छोटा हो या बड़ा, वास्तविक मानदंड आयु नहीं ज्ञान है।
ईश्वरीय पैग़म्बर जिस मार्ग पर चलने का लोगों को निमंत्रण देते थे वह हर प्रकार की अतिश्योक्ति और कमी से दूर संतुलन का मार्ग है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 44 और 45
يَا أَبَتِ لَا تَعْبُدِ الشَّيْطَانَ إِنَّ الشَّيْطَانَ كَانَ لِلرَّحْمَنِ عَصِيًّا (44) يَا أَبَتِ إِنِّي أَخَافُ أَنْ يَمَسَّكَ عَذَابٌ مِنَ الرَّحْمَنِ فَتَكُونَ لِلشَّيْطَانِ وَلِيًّا (45)
हे पिता! शैतान की उपासना न कीजिए कि निःसंदेह शैतान दयावान ईश्वर के प्रति उद्दंडी है।(19:44) हे पिताः मुझे भय है कि दयावान ईश्वर की ओर से आपको कोई दंड अपनी लपेट में ले ले और आप शैतान के मित्र व सहायक हो जाएं।(19:45)
मूर्तियों का इन्कार करने के बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम, शैतान के ख़तरे की ओर संकेत करते हैं जिसने आरंभ में ही हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के समक्ष नतमस्तक न हो कर ईश्वर के आदेश की अवहेलना की थी और उसके दरबार से निकाला गया था। कितनी बुरी बात है कि मनुष्य ऐसे का दास बने जो एक क्षण के लिए भी उसके समक्ष नतमस्तक होने को तैयार नहीं हुआ था क्योंकि वह स्वयं को मनुष्य से श्रेष्ठ समझता था और उसने घमंड के कारण ईश्वर के आदेश की अवहेलना की थी।
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम, मूर्तिपूजा को एक प्रकार से शैतान की उपासना बताते हैं और अपने अभिभावक को इस काम से रोकते हैं क्योंकि ऐसे किसी भी अस्तित्व का आज्ञापालन जो मनुष्य को अपना दास बना ले, उसकी उपासना के समान है और जिन लोगों ने अपनी बुद्धि और विचारों को अलग रख दिया है और बिना किसी तर्क के शैतानी उकसावों में मूर्तियों की पूजा करते हैं, वे वस्तुतः शैतान की उपासना करते हैं।
ईश्वर अत्यंत कृपाशील और दयावान है किंतु मनुष्य शैतान की परिधि में आकर ईश्वर की दया व कृपा के दायरे से बाहर निकल जाता है और फिर उसकी दया का पात्र नहीं बनता।
इन आयतों से हमने सीखा कि बुराइयों से रोकते समय, जो स्वाभाविक रूप से दूसरे पक्ष के लिए सुखद नहीं है, प्रेम व स्नेह की भाषा का प्रयोग करना चाहिए जिससे वह, हमारी बात स्वीकार करने के लिए तैयार हो सके। इन आयतों में हज़रत इब्राहीम ने चार बार अपने चाचा को पिता कह कर संबोधित किया है।
कभी मनुष्य ऐसा कार्य करता है जिससे वह दया व कृपा के स्रोत अर्थात ईश्वर को स्वयं से क्रोधित कर लेता है और दंड में ग्रस्त हो जाता है, जबकि ईश्वर की एक विशेषता यह है कि उसकी दया उसके क्रोध के मुक़ाबले में तेज़ी से बढ़ती है।
सूरए मरयम, आयतें 46-50,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 46 और 47
قَالَ أَرَاغِبٌ أَنْتَ عَنْ آَلِهَتِي يَا إِبْرَاهِيمُ لَئِنْ لَمْ تَنْتَهِ لَأَرْجُمَنَّكَ وَاهْجُرْنِي مَلِيًّا (46) قَالَ سَلَامٌ عَلَيْكَ سَأَسْتَغْفِرُ لَكَ رَبِّي إِنَّهُ كَانَ بِي حَفِيًّا (47)
उसने कहा, हे इब्राहीम! क्या तुम मेरे देवताओं से विरक्त हो? यदि तुमने इस (पद्धति) को न छोड़ा तो मैं तुम पर पत्थरों की वर्षा कर दूंगा और तुम लम्बे समय के लिए मुझ से दूर हो जाओ।(19:46) इब्राहीम ने कहा सलाम हो तुम पर, मैं शीघ्र ही अपने पालनहार से तुम्हारे लिए क्षमा चाहूंगा कि निश्चित रूप से वह सदैव मेरे प्रति दयावान रहा है।(19:47)
पिछली आयतों में बताया गया था कि कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का अभिभावक अनेकेश्वरवादी था। उन्होंने उसका मार्गदर्शन करना चाहा और उसे मूर्तिपूजा व अनेकेश्वरवाद के परिणाम की ओर से सचेत किया। ये आयतें कहती हैं कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के अभिभावक ने उनकी बातों और तर्कों पर ध्यान देने के स्थान पर उनके साथ अधिक कड़ा व्यवहार करने का निर्णय किया और कहा कि न केवल यह कि मैं तुम्हारे धर्म को स्वीकार नहीं करूंगा बल्कि या तो तुम मुझ से दूर हो जाओ अन्यथा मैं स्वयं तुम्हें पत्थर मार मार कर अपने मार्ग से हटा दूंगा।
किंतु हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने उसकी तर्कहीन शैली का उत्तर देने के स्थान पर प्रेम और स्नेह का व्यवहार जारी रखा और कहा कि मैं तुमसे विवाद और झड़प नहीं चाहता बल्कि मैंने शांति और स्नेह के साथ तुम्हें ईश्वर की उपासन का निमंत्रण दिया है, अब यदि तुम मेरी बात स्वीकार नहीं करते हो तो न केवल यह कि मैं तुम्हारे विरुद्ध कुछ नहीं करूंगा बल्कि ईश्वर से भी प्रार्थना करूंगा वह तुम्हें क्षमा कर दे।
इन आयतों से हमने सीखा कि जिसके पास तर्कसंगत बात नहीं होती वह हिंसा का मार्ग अपनाता है। पैग़म्बरों की बातें तर्क पर आधारित होती हैं और वे किसी को भी ईश्वरीय धर्म को स्वीकार करने के लिए बाध्य नहीं करते। वे केवल लोगों की भलाई के लिए ही उन्हें सत्य को स्वीकार करने का निमंत्रण देते हैं।
ईश्वर के प्रिय बंदे शत्रु की धमकियों के मुक़ाबले में संयम से काम लेते हैं और ईश्वर की कृपा के प्रति आशावान रहते हैं।
हमें प्रयास करना चाहिए कि दूसरों के क्रोध की आग को भड़काएं नहीं बल्कि अपनी कोमल व स्नहेपूर्ण बातों से उसे ठंडा करें।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 48
وَأَعْتَزِلُكُمْ وَمَا تَدْعُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ وَأَدْعُو رَبِّي عَسَى أَلَّا أَكُونَ بِدُعَاءِ رَبِّي شَقِيًّا (48)
मैं तुमसे व जिन्हें तुम ईश्वर के अतिरिक्त पुकारते हो, दूर हूं और केवल अपने पालनहार को पुकारता हूं। मुझे आशा है कि अपने पालनहार को पुकारने में मैं निरुत्तर नहीं रहूंगा।(19:48)
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के अभिभावक ने उनके सामने दो मार्ग रखे थे, एक यह कि वे उसे छोड़ कर चले जाएं, दूसरा यह कि मरने के लिए तैयार हो जाएं। यह आयत कहती है कि हज़रत इब्राहीम ने कहा कि यदि तुम यही चाहते हो तो मैं तुम्हारे पास से चला जाता हूं। मुझे अपने पालनहार पर पूरा विश्वास है कि वह मुझे अपनी दया व कृपा से वंचित नहीं रखेगा।
यह आयत उन युवाओं के लिए मार्गदर्शन है जो पथभ्रष्ट परिवारों में जीवन बिताते हैं और अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकते। उन्हें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के मार्ग पर चलना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो परिवार से अलग भी हो जाना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि संबंध विच्छेद, बुराइयों से रोकने का पहला नहीं बल्कि अंतिम चरण है। ऐसी स्थिति में जब हम बुरे वातावरण को बदल नहीं सकते, कम से कम हमें उस स्थान को छोड़ देना चाहिए।
पैग़म्बर तक अपने भविष्य के बारें में ईश्वर की कृपा की ओर से आशावान रहते थे और सदैव ही भय व आशा के बीच जीवन बिताते थे। उन्हें ईश्वर का भय भी रहता था और उसकी दया की आशा भी।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 49 और 50
فَلَمَّا اعْتَزَلَهُمْ وَمَا يَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ وَهَبْنَا لَهُ إِسْحَاقَ وَيَعْقُوبَ وَكُلًّا جَعَلْنَا نَبِيًّا (49) وَوَهَبْنَا لَهُمْ مِنْ رَحْمَتِنَا وَجَعَلْنَا لَهُمْ لِسَانَ صِدْقٍ عَلِيًّا (50)
तो जब इब्राहीम अनेकेश्वरवादियों और जो कुछ वे पूजते थे उनसे अलग हो गए तो हमने उन्हें इस्हाक़ व याक़ूब प्रदान किए और उन सभी को पैग़म्बर बनाया।(19:49) और हमने उन्हें अपनी दया में से प्रदान किया तथा उन्हें भला व ऊंचा नाम प्रदान किया।(19:50)
अनेकेश्वरवाद एवं मूर्तिपूजा के वातावरण से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के अलग हो जाने के बाद ईश्वर ने भी उन्हें अपनी विशेष दया का पात्र बनाया और उन्हें हज़रत इस्हाक़ और उनके पुत्र याक़ूब जैसे पुत्र प्रदान किए जिन्होंने उन्हीं की भांति, ईश्वर की ओर लोगों का मार्गदर्शन किया और पैग़म्बरी का पद प्राप्त किया।
यद्यपि हज़रत इब्राहीम अपने काल में बिल्कुल अकेले थे किंतु वे भयभीत नहीं हुए और कुफ़्र एवं अनेकेश्वरवाद की पूरी शक्ति के समक्ष निर्भीकता से डटे रहे। यह ईश्वरीय धर्म के सभी अनुयाइयों के लिए एक बड़ा पाठ है कि उन्हें किसी भी स्थिति में अपने धर्म को नहीं छोड़ना चाहिए।
इन आयतों से हमने सीखा कि पिता और पूर्वजों के भले कर्मों के सद्परिणाम उनके वंश में सामने आते हैं और भली संतान, अच्छे कर्म करने वालों पर ईश्वर की कृपाओं में से एक है।
यदि हम ईश्वर के अतिरिक्त अन्य लोगों और वस्तुओं पर भरोसा न करें तो ईश्वरीय कृपाओं व अनुकंपाओं की वर्षा होने लगती है और उनकी संतानें भी इसका पात्र बनती हैं।
लोगों के बीच अच्छा नाम, ईश्वर की एक कृपा है जिसे ईश्वर पवित्र लोगों और भले कर्म करने वालों को प्रदान करता है।
सूरए मरयम, आयतें 51-55,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 51
وَاذْكُرْ فِي الْكِتَابِ مُوسَى إِنَّهُ كَانَ مُخْلَصًا وَكَانَ رَسُولًا نَبِيًّا (51)
और (हे पैग़म्बर!) इस किताब में मूसा का भी उल्लेख कीजिए कि निश्चित रूप से वे चुने हुए (बंदे) और ईश्वर के रसूल व नबी थे।(19:51)
पिछली आयतों में कुछ पैग़म्बरों के जीवन की घटनाओं की ओर संकेत किया गया, ये आयतें हज़रत मूसा के जीवन के बारे में हैं जो ईश्वर के महान पैग़म्बरों में से एक थे। इस आयत में उनके लिए दो शब्दों का प्रयोग किया गया है, रसूल और नबी। उन्हें रसूल या पैग़म्बर का पद भी प्राप्त था और नबी का पद भी। निश्चित रूप से रसूल का पद नबी के पद से ऊंचा होता है कि जो ईश्वरीय संदेश वहि लाने वाले फ़रिश्ते से सीधे संपर्क में होता है। रसूल पर वहि आने के अतिरिक्त वह समाज तक वहि में वर्णित बातों को पहुंचाने और उन्हें लागू करने का भी उत्तरदायी होता है।
इसी प्रकार इस आयत में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को मुख़लस अर्थात चुना हुआ बंदा भी कहा गया है। यह शब्द इख़लास से निकला है जिसका अर्थ होता है निष्ठा। निष्ठा के संबंध में लोग दो प्रकार के होते हैं। साधारणतः लोग निष्ठावान हो सकते हैं किंतु उन्हें सदैव शैतान के हथकंडों का शिकार बनने का ख़तरा रहता है। दूसरे प्रकार के लोग, जो जनता के मार्गदर्शन के लिए ईश्वर के चुने हुए बंदे होते हैं, ईश्वर उन्हें शुद्ध व निष्ठावान बना देता है अतः शैतान उनमें घुसपैठ नहीं कर सकता।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर ने ईमान वालों से सिफ़ारिश की है कि वे वरिष्ठ धार्मिक नेताओं की याद को बाक़ी रखें और उनका सम्मान करें।
निष्ठा, आध्यात्मिक दर्जों और ईश्वरीय पदों की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करती है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 52
وَنَادَيْنَاهُ مِنْ جَانِبِ الطُّورِ الْأَيْمَنِ وَقَرَّبْنَاهُ نَجِيًّا (52)
और हमने तूर पर्वत के दाहिनी ओर से मूसा को पुकारा और उन्हें वार्ता के लिए अपने से अत्यंत समीप कर लिया।(19:52)
यह आयत अत्यंत संक्षिप्त शब्दों में हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के पैग़म्बर बनने के चरणों का उल्लेख करते हुए कहती है कि तूर पर्वत के आंचल में उन्होंने आसमानी आवाज़ सुनी और ईश्वर से वार्ता व प्रार्थना के लिए वे ईश्वरीय सामिप्य के स्थान तक पहुंचे।
क़ुरआने मजीद की दूसरी आयतों में ईश्वर से हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम द्वारा सीधी बात करने की ओर संकेत है जिससे पता चलता है कि ईश्वर के निकट उनका स्थान कितना उच्च है जिसे इस आयत में ईश्वर से सामिप्य कहा गया है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर से प्रार्थना, उससे मनुष्य के सामिप्य का कारण बनती है। पैग़म्बर भी इसी मार्ग पर चले हैं।
कुछ स्थान पवित्र होते हैं और उनकी पवित्रता की रक्षा की जानी चाहिए, जैसे कि तूर पर्वत।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 53
وَوَهَبْنَا لَهُ مِنْ رَحْمَتِنَا أَخَاهُ هَارُونَ نَبِيًّا (53)
और हमने अपनी दया से मूसा को उनका भाई हारून पैग़म्बर प्रदान किया।(19:53)
जैसा कि क़ुरआने मजीद की कुछ अन्य आयतों में भी कहा गया है कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि वह उनके भाई हारून को उनका मंत्री बना दे ताकि वे ईश्वरीय दायित्वों के निर्वाह में उनकी सहायता करें। ईश्वर ने उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया और हज़रत हारून को जो कि स्वयं भी पैग़म्बर थे, हज़रत मूसा का साथी और सहायक बना दिया।
इससे पता चलता है कि पैग़म्बर, ईश्वरीय दायित्वों के निर्वाह के लिए अपना नाम सामने लाए बिना हर प्रकार के सहयोग हेतु तैयार रहते थे।
इस आयत से हमने सीखा कि दो भाइयों का एक दूसरे का सहयोगी होना एक अनुकंपा है, शर्त यह है कि उन दोनों की आस्था एक ही हो।
कभी आवश्यक होता है कि एक ही पद और पदवी वाले दो व्यक्तियों में से एक, दूसरे का अनुसरण करे क्योंकि समाज को एक शासक और अधिकारी की आवश्यकता होती है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 54 और 55
وَاذْكُرْ فِي الْكِتَابِ إِسْمَاعِيلَ إِنَّهُ كَانَ صَادِقَ الْوَعْدِ وَكَانَ رَسُولًا نَبِيًّا (54) وَكَانَ يَأْمُرُ أَهْلَهُ بِالصَّلَاةِ وَالزَّكَاةِ وَكَانَ عِنْدَ رَبِّهِ مَرْضِيًّا (55)
और (हे पैग़म्बर!) इस किताब में इस्माईल का भी उल्लेख कीजिए कि निश्चित रूप से वे वचन के पक्के और रसूल व नबी थे।(19:54) और वे सदैव अपने परिजनों को नमाज़ और ज़कात का आदेशे देते थे और अपने पालनहार की दृष्टि में प्रिय व्यक्ति थे।(19:55)
पिछली आयतों में हज़रत इब्राहीम व हज़रत मूसा अलैहिमस्सलाम की कुछ विशेषताओं का उल्लेख करने के पश्चात क़ुरआने मजीद इन आयतों में हज़रत इस्माईल की कुछ विशेषताओं की ओर संकेत करता है। यद्यपि सभी पैग़म्बर अपने वचनों पर कटिबद्ध रहते थे किंतु यह विशेषता हज़रत इस्माईल में कुछ अधिक उभर कर सामने आई थी। मूल रूप से वचन पर कटिबद्ध रहना एक ईश्वरीय गुण है और वचन तोड़ना, मिथ्याचारी लोगों का चिन्ह है।
पैग़म्बरों का कथन और व्यवहार में सच्चा होना और प्रतिज्ञा का पालन करना उन विशेषताओं में से है जिनका इन्कार उनके विरोधी और काफ़िर तक नहीं करते थे। परिवार पर ध्यान और पारिवारिक प्रशिक्षण, समाज सुधार पर प्राथमिकता रखता है अतः पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से भी कहा गया कि वे आम लोगों को ईश्वरीय धर्म का निमंत्रण देने से पूर्व अपने परिजनों और नातेदारों के बीच धर्म का प्रचार करें।
स्वाभाविक है कि पैग़म्बरों के सभी कार्यों का मानदंड, लोगों की नहीं बल्कि ईश्वर की प्रसन्नता था और इसी कारण उन्होंने कभी भी अधिक अनुयाई प्राप्त करने के लिए ईश्वर के आदेशों का पालन नहीं छोड़ा बल्कि उन आदेशों पर पूर्ण रूप से डटे रहे।
इन आयतों से हमने सीखा कि दूसरों की प्रशंसा का मानदंड, उनकी आध्यात्मिक व आत्मिक परिपूर्णताएं होनी चाहिए न कि साधारण और नश्वर बातें।
पैग़म्बर, सामाजिक मामलों के साथ ही पारिवारिक मामलों के भी उत्तरदायी होते हैं और नमाज़ व ज़कात पर ध्यान उनकी शिक्षाओं में सर्वोपरि है।
सूरए मरयम, आयतें 56-60,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 56 और 57
وَاذْكُرْ فِي الْكِتَابِ إِدْرِيسَ إِنَّهُ كَانَ صِدِّيقًا نَبِيًّا (56) وَرَفَعْنَاهُ مَكَانًا عَلِيًّا (57)
और (हे पैग़म्बर!) इस किताब में इदरीस का भी उल्लेख कीजिए कि निश्चित रूप से वे अत्यधिक सच्चे और पैग़म्बर थे।(19:56) और हमने उन्हें एक उच्च स्थान तक पहुंचा दिया।(19:57)
आपको अवश्य याद होगा कि पिछली आयतों में हज़रत इब्राहीम, मूसा व इस्माईल अलैहिमुस्सलाम जैसे पैग़म्बरों का नाम ईश्वर द्वारा उनकी प्रशंसा के साथ वर्णित हुआ था। ये आयतें हज़रत इदरीस अलैहिस्सलाम का उल्लेख करती हैं जो हज़रत नूह से पूर्व महान ईश्वरीय पैग़म्बरों में से एक थे। तौरैत में उनका नाम अख़नूख़ के रूप में वर्णित है।
इस्लामी इतिहास में वर्णित है कि हज़रत इदरीस अलैहिस्सलाम वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लोगों को कपड़े सीना सिखाया। इसी प्रकार वे खगोलशास्त्र, ज्योतिष विज्ञान एवं गणित में भी दक्ष थे तथा क़लम से लिखा करते थे।
इन आयतों से हमने सीखा कि सच्चाई व सदकर्म, ईश्वरीय पैग़म्बरों की प्रमुख विशेषताओं में से है जिन्हें उनके अनुयाईयों को अपना आदर्श बनाना चाहिए।
सच्चाई और सदकर्म, लोगों तथा ईश्वर की दृष्टि में मनुष्य के प्रिय होने का कारण बनता है और इन गुणों के कारण मनुष्य अधिक उच्च स्थान प्राप्त करता है।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 58
أُولَئِكَ الَّذِينَ أَنْعَمَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ مِنَ النَّبِيِّينَ مِنْ ذُرِّيَّةِ آَدَمَ وَمِمَّنْ حَمَلْنَا مَعَ نُوحٍ وَمِنْ ذُرِّيَّةِ إِبْرَاهِيمَ وَإِسْرَائِيلَ وَمِمَّنْ هَدَيْنَا وَاجْتَبَيْنَا إِذَا تُتْلَى عَلَيْهِمْ آَيَاتُ الرَّحْمَنِ خَرُّوا سُجَّدًا وَبُكِيًّا (58)
ये सब वे पैग़म्बर हैं जिन पर ईश्वर ने कृपा की, आदम की संतान में से और उनकी संतान में से जिन्हें हमने नूह के साथ (नौका में) सवार किया और इब्राहीम व इस्राईल के वंश में से और उनमें से जिनका हमने मार्गदर्शन किया तथा चुन लिया। जब इनके सामने कृपाशील (ईश्वर) की आयतों की तिलावत की जाती है तो ये सजदा करते हुए और रोते हुए (ईश्वर के समक्ष) नतमस्तक हो जाते हैं।(19:58)
सभी मुसलमान प्रति दिन अनिवार्य नमाज़ों में कम से कम दस बार ईश्वर से कहते हैं कि प्रभुवर! सीधे मार्ग की ओर हमारा मार्गदर्शन कर और उस पर हमें बाक़ी रख, उन लोगों के मार्ग पर जिन पर तूने कृपा की है। यह आयत हमसे कहती है कि जिन लोगों को ईश्वर ने अपनी विशेष कृपा प्रदान की है कि वे पैग़म्बर हैं और उन्हीं का मार्ग, सीधा मार्ग है।
पिछली आयतों में ईश्वर के पहले पैग़म्बर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के काल से लेकर अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तक के दस पैग़म्बरों के नामों का वर्णन किया गया है। हज़रत इदरीस, हज़रत आदम की संतान में से थे, हज़रत इब्राहीम हज़रत नूह के पोते थे, हज़रत इस्हाक़, इस्माईल व याक़ूब, हज़रत इब्राहीम के वंश से थे तथा हज़रत मूसा, हारून, ज़करिया, यहया व ईसा, हज़रत इस्राईल अर्थात हज़रत याक़ूब के वंश से थे।
इन सबकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उनके द्वारा अनन्य ईश्वर की उपासना तथा स्वयं को उसका दास समझना था। ये सब अनन्य ईश्वर की महानता के समक्ष रोते हुए धरती पर नतमस्तक हो जाते थे।
इन आयतों से हमने सीखा कि वंश का पवित्र होना एक ऐसी अनुकंपा है जिस पर ईश्वर अपने पैग़म्बरों के चयन में ध्यान देता है और उसने उन्हें पवित्र मनुष्यों के वंशों से चुना है।
केवल पवित्र वंश का होना पर्याप्त नहीं है बल्कि मनुष्य को ईश्वर का पवित्र बंदा भी होना चाहिए तथा उसके समक्ष हर स्थिति में नतमस्तक भी रहना चाहिए ताकि उसके भीतर ईश्वर की विशेष अनुकंपाएं प्राप्त करने की संभावना उत्पन्न हो सके।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 59 और 60
فَخَلَفَ مِنْ بَعْدِهِمْ خَلْفٌ أَضَاعُوا الصَّلَاةَ وَاتَّبَعُوا الشَّهَوَاتِ فَسَوْفَ يَلْقَوْنَ غَيًّا (59) إِلَّا مَنْ تَابَ وَآَمَنَ وَعَمِلَ صَالِحًا فَأُولَئِكَ يَدْخُلُونَ الْجَنَّةَ وَلَا يُظْلَمُونَ شَيْئًا (60)
तो उनके बाद उनके स्थान पर ऐसे लोग आ गए जिन्होंने नमाज़ को व्यर्थ किया और अपनी आंतरिक इच्छाओं का पालन किया तो शीघ्र ही वे अपनी पथभ्रष्टता का प्रतिफल देखेंगे (19:59) सिवाय उनके जिन्होंने तौबा की, ईमान ले आए और भले कर्म किए तो यही लोग स्वर्ग में प्रविष्ट होंगे और उन पर तनिक भी अत्याचार नहीं किया जाएगा।(19:60)
पिछली आयत में ईश्वर की बंदगी और दासता को पैग़म्बरों और ईश्वर के प्रिय बंदों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता बताया गया था। ये आयतें कहती हैं कि ईश्वर के प्रिय बंदों द्वारा इतनी कठिनाइयां सहन किए जाने के बावजूद उनके बाद आने वाली जातियों व पीढ़ियों ने नमाज़ को, जो ईश्वर की बंदगी व उपासना का प्रतीक है, व्यर्थ कर दिया और अपनी आंतरिक इच्छाओं की पूर्ति के चक्कर में पड़ गए। वे लोग पथभ्रष्ट हो गए तथा बुरा परिणाम उनकी प्रतीक्षा में है। इस परिणाम से केवल वे लोग सुरक्षित हैं जो सही मार्ग पर पलट आए और उन्होंने भले कर्म करके अपने अतीत को सुधार लिया।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज मानव समाज की एक बड़ी समस्या यह है कि अधिकांश लोग अपने रचयिता के समक्ष सिर नहीं झुकाते और जो लोग नमाज़ पढ़ते हैं उनमें से भी अधिकांश नमाज़ के संस्कारों का सही पालन नहीं करते और उसे व्यर्थ कर देते हैं। इस ग़लत व्यवहार का परिणाम मनुष्य पर उसकी आंतरिक इच्छाओं के नियंत्रण के रूप में सामने आता है जिससे विभिन्न प्रकार की पारिवारिक व सामाजिक समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि इस बात की संभावना रहती है कि आने वाली पीढ़ियां, अपने पूर्वजों की उपलब्धियों को व्यर्थ कर दें और अयोग्य हो जाएं।
नमाज़, धर्म का चेहरा है और उसे व्यर्थ करना, धर्म और इस्लाम को बर्बाद करने के समान है।
नमाज़, मनुष्य और उसकी आंतरिक इच्छाओं के बीच बांध का काम करती है और यदि यह बांध टूट जाए तो मनुष्य अपनी आंतरिक इच्छाओं का पालन करने लगता है।
वास्तविक तौबा, बाहरी दिखावा नहीं बल्कि एक आंतरिक परिवर्तन है। वास्तविक तौबा मनुष्य को पथभ्रष्टता से निकाल कर वास्तविक कल्याण के मार्ग पर ले आती है और नरक में जाने वाले व्यक्ति को स्वर्ग में पहुंचा देती है।
सूरए मरयम, आयतें 61-65,
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 61, 62 और 63
جَنَّاتِ عَدْنٍ الَّتِي وَعَدَ الرَّحْمَنُ عِبَادَهُ بِالْغَيْبِ إِنَّهُ كَانَ وَعْدُهُ مَأْتِيًّا (61) لَا يَسْمَعُونَ فِيهَا لَغْوًا إِلَّا سَلَامًا وَلَهُمْ رِزْقُهُمْ فِيهَا بُكْرَةً وَعَشِيًّا (62) تِلْكَ الْجَنَّةُ الَّتِي نُورِثُ مِنْ عِبَادِنَا مَنْ كَانَ تَقِيًّا (63)
सदैव रहने वाला स्वर्ग जिसका वचन दयावान ईश्वर ने अपने गुप्त ज्ञान के आधार पर अपने दासों को दिया है, निश्चित रूप से उसका वचन पूरा हो कर रहेगा।(19:61) उस स्थान पर वे कोई भी अनुचित बात नहीं सुनेंगे (और उनका कथन) सलाम और शांति के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। वहां उन्हें हर प्रातः और संध्या को अपनी आजीविका मिलेगी। (19:62) यही वह स्वर्ग है जिसका उत्तराधिकारी हम अपने पवित्र बंदों को बनाएंगे।(19:63)
ये आयतें स्वर्ग का वर्णन करती हैं और उसकी कुछ विशेषताओं का उल्लेख करती हैं। आयतें कहती हैं कि स्वर्ग, सदैव रहने वाला ठिकाना है और जो कोई उसमें प्रविष्ट हो जाएगा उसमें से बाहर नहीं निकलेगा। यह स्वर्ग ईश्वर का वही वचन है जो उसने अपने गुप्त ज्ञान के आधार पर ईमान वालों को दिया था और आज वे उसे अपनी आंखों से देखेंगे।
इस संसार में ईमान वालों का एक दुख अनेकेश्वरवादियों और विरोधियों की ओर से अनुचित और बुरी बातें सुनना है किंतु स्वर्ग में प्रेम, शांति और मित्रता के अतिरिक्त कोई अन्य बात सुनाई नहीं पड़ेगी। वहां ईश्वर की ओर से आजीविका भी निरंतर मिलती रहेगी।
इस भाग की अंतिम आयत दो बिंदुओं की ओर संकेत करती है, प्रथम यह कि स्वर्ग में प्रवेश की मूल शर्त पवित्रता और ईश्वर से भय है और पवित्रता तथा हर प्रकार की बुराई से दूरी के बिना स्वर्ग में प्रवेश करने की कोई संभावना नहीं है। दूसरे यह कि मनुष्य इस संसार में अपने कार्यों द्वारा इस प्रकार के महान पारितोषिक का अधिकारी नहीं बनता अतः कहा जा सकता है कि ईश्वर अपने प्रिय व पवित्र बंदों को जो कुछ प्रदान करता है वह उस विरासत की भांति है जो पिता अपनी संतान के लिए छोड़ जाते हैं और संतान बिना किसी परिश्रम के उस विरासत से लाभान्वित होती है।
इन आयतों से हमने सीखा कि स्वर्ग की वास्तविकता हमसे छिपी हुई है और यह ईश्वर के गुप्त ज्ञानों में से है किंतु स्वर्ग ईश्वर के वचनों में से एक है जिस पर हम ईमान रखते हैं और उसकी कृपा से प्रलय में हमें स्वर्ग प्राप्त होगा।
यदि हम स्वर्ग में जाना चाहते हैं तो हमें प्रयास करना चाहिए कि इस संसार में ऐसी बैठकों में न जाएं जिनमें बुरी और अनुचित बातें की जाती हैं।
स्वर्ग, ईश्वर से डरने वालों और पवित्र लोगों की विरासत है, चाहे वे सांसारिक विरासतों से वंचित ही क्यों न रहें।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 64
وَمَا نَتَنَزَّلُ إِلَّا بِأَمْرِ رَبِّكَ لَهُ مَا بَيْنَ أَيْدِينَا وَمَا خَلْفَنَا وَمَا بَيْنَ ذَلِكَ وَمَا كَانَ رَبُّكَ نَسِيًّا (64)
और हम (फ़रिश्ते) केवल आपके पालनहार के आदेश से ही (धरती पर) उतरते हैं। जो कुछ हमारे सामने, पीछे और इन दोनों के बीच में है, सब उसी का है। और आपका पालनहार कदापि किसी बात को भूलने वाला नहीं है।(19:64)
क़ुरआने मजीद के व्याख्याकारों के अनुसार कुछ समय के लिए पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास ईश्वरीय संदेश आने का क्रम रुक गया जिसके कारण वे बहुत चिंतित हुए और विरोधी उन पर कटाक्ष करने लगे। यहां तक कि ईश्वर ने यह आयत पैग़म्बरे इस्लाम के पास भेजी और उन्हें सांत्वना दी कि वह उन्हें भूला नहीं है। ईश्वर किसी भी बात को भूलने वाला नहीं है और ईश्वरीय संदेश लाने वाले फ़रिश्ते सहित सभी फ़रिश्ते ईश्वर के ज्ञान, युक्ति व तत्वदर्शिता के आधार पर धरती पर आते हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य हर काल और हर वस्तु ईश्वर की है और कोई भी वस्तु उसके स्वामित्व की परिधि से बाहर नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि क़ुरआने मजीद की आयतें ईश्वर के आदेश पर निर्धारित समय और स्थान पर क्रमबद्ध ढंग से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पास भेजी गई हैं और इसमें पैग़म्बर व फ़रिश्तों की कोई भूमिका नहीं है।
फ़रिश्ते, ईश्वरीय आदेशों के समक्ष पूर्ण रूप से नतमस्तक हैं और उनका अपना कोई अधिकार नहीं है।
ईश्वर कदापि किसी बात को नहीं भूलता और समय बीतना या कोई भी अन्य कारक ईश्वर में भूल का कारण नहीं बनता।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 65
رَبُّ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا فَاعْبُدْهُ وَاصْطَبِرْ لِعِبَادَتِهِ هَلْ تَعْلَمُ لَهُ سَمِيًّا (65)
आकाशों, धरती और जो कुछ इन दोनों के बीच है, सब का पालनहार, ईश्वर ही है तो केवल उसी की उपासना करो और उसकी उपासना पर संयम से (जमे) रहो। क्या तुम्हें उसके किसी (समकक्ष और) हमनाम का ज्ञान है? (19:65)
यह आयत सृष्टि के संचालन में एकेश्वरवाद की ओर संकेत करती है और कहती है कि आकाशों और धरती से लेकर संपूर्ण सृष्टि एक ईश्वर की युक्ति के अधीन है, उसी ने सबकी रचना की है और वही सबका संचालन कर रहा है। इसके बाद आयत कहती है कि जब ऐसा है और अनन्य ईश्वर के अतिरिक्त सृष्टि का कोई रचयिता व पालनहार नहीं है तो केवल उसी की उपासना करो और उसके अतिरिक्त किसी की भी उपासना करने से बचो। स्वाभाविक है कि इस मार्ग में बहुत अधिक रुकावटें और पथभ्रष्ट करने वाले कारक हैं अतः हमें ईश्वर की बंदगी के मार्ग में पूरे संयम के साथ डटे रहना चाहिए और इस मार्ग से विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि ईश्वर जैसा कोई भी सृष्टि में नहीं है।
इस आयत में ईश्वर की उपासना का अर्थ केवल नमाज़ और ईश्वर का गुणगान नहीं है क्योंकि इस प्रकार की उपासनाओं में बहुत अधिक कठिनाई नहीं होती बल्कि आयत का तात्पर्य यह है कि हमें अपने व्यक्तिगत व सामाजिक जीवन के हर मामले में ईश्वरीय आदेशों के समक्ष पूर्ण रूप से नतमस्तक रहना चाहिए क्योंकि मनुष्य को सदैव ही विरोधाभासों का सामना रहता है और उसके समक्ष दोराहे आते रहते हैं अतः उसे सत्य के मार्ग पर डटे रहना चाहिए।
इस आयत से हमने सीखा कि सृष्टि के संचालन में एकेश्वरवाद, उपासना में एकेश्वरवाद का स्रोत है अतः केवल अनन्य ईश्वर की उपासना ही वैध है।
ईश्वर की उपासना के लिए अपनी आंतरिक इच्छाओं और बाहरी चमक-दमक से संघर्ष की आवश्यकता होती है अतः इस मामले में संयम से काम लेना चाहिए।
सूरए मरयम, आयतें 66-70, (कार्यक्रम 538)
आइये पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 66 और 67
وَيَقُولُ الْإِنْسَانُ أَئِذَا مَا مِتُّ لَسَوْفَ أُخْرَجُ حَيًّا (66) أَوَلَا يَذْكُرُ الْإِنْسَانُ أَنَّا خَلَقْنَاهُ مِنْ قَبْلُ وَلَمْ يَكُ شَيْئًا (67)
और मनुष्य कहेगा कि क्या जब मैं मर जाऊंगा तो शीघ्र ही (क़ब्र से) पुनः जीवित हो कर निकलूंगा? (19:66) क्या मनुष्य इस बात को याद नहीं करता कि हमने ही पहले उसकी रचना की है जबकि वह कुछ भी नहीं था? (19:67)
पिछली आयतों में स्वर्ग और स्वर्ग में रहने वालों की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया गया था। यह आयतें प्रलय और उसके संबंध में कुछ लोगों के संदेहों के बारे में चर्चा करती हैं। प्रलय का इन्कार करने वाले बहुत से लोग, बिना किसी तर्क के इसे असंभव बताते हैं और कहते हैं कि यह बात किस प्रकार संभव है कि जब मनुष्य मरने के पश्चात मिट्टी में परिवर्तित हो जाए तो पुनः जीवित हो कर क़ब्र से बाहर निकल आए?
इस संबंध में ईश्वर का उत्तर यह है कि मनुष्य किस प्रकार अपने अतीत को भूल गया है? जब वह कुछ भी नहीं था तो ईश्वर ने उसकी रचना की थी तो अब वह उसे किस प्रकार पुनः जीवित नहीं कर सकता? ईश्वर इससे पूर्व भी यह काम कर चुका है और अब भी वह उसे मृत्यु के पश्चात जीवित करने में सक्षम है।
स्वाभाविक है कि इस प्रकार के प्रश्न, इन लोगों में ईमान के अभाव और ईश्वर की असीम शक्ति व ज्ञान से अनभिज्ञता का चिन्ह हैं। ये लोग उसे मनुष्य की सीमित शक्ति व ज्ञान के मानदंड पर तोल कर इस प्रकार के कार्य को असंभव बताते हैं।
इन आयतों से हमने सीखा कि मनुष्य की पुनर्सृष्टि, उसकी प्राथमिक सृष्टि से अधिक सरल है, चाहे प्रलय का इन्कार करने वालों की दृष्टि में यह कार्य असंभव ही क्यों न प्रतीत हो।
प्रलय में लोगों को शारीरिक रूप से उपस्थित किया जाएगा और प्रलय का इन्कार करने वालों को अधिक संदेह मनुष्य के शरीर के पुनः जीवित होने के बारे में है, यदि प्रलय में मनुष्यों की आत्मा को उपस्थित किया जाता तो इस प्रकार के संदेह भी कम होते।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 68
فَوَرَبِّكَ لَنَحْشُرَنَّهُمْ وَالشَّيَاطِينَ ثُمَّ لَنُحْضِرَنَّهُمْ حَوْلَ جَهَنَّمَ جِثِيًّا (68)
तो आपके पालनहार की सौगंध कि हम उन सभी को शैतानों के साथ उपस्थित करेंगे और फिर हम अवश्य ही उन्हें घुटनों के बल गिरे हुए, नरक के चारों ओर हाज़िर करेंगे।(19:68)
स्वाभाविक सी बात है कि प्रलय का इन्कार करने वाले ईश्वर का भी इन्कार करते हैं और सैद्धांतिक रूप से यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती कि कोई ईश्वर को तो स्वीकार करे किंतु प्रलय को स्वीकार न करे। अतः प्रलय का इन्कार करने वाले लोग ऐसे अधर्मी होते हैं जो सीधे ईश्वरीय मार्ग से विचलित होकर पथभ्रष्टता में ग्रस्त हो चुके हैं। इन लोगों से इनके कुफ़्र और प्रलय के इन्कार के कारण प्रलय में हिसाब लिया जाएगा और यदि उनके द्वारा प्रलय और ईश्वर का इन्कार जान बूझ कर तथा द्वेष व हठधर्म के कारण हुआ तो उन्हें नरक में डाल दिया जाएगा किंतु यदि उनका यह कार्य अज्ञानता के कारण हुआ तो वे ईश्वर की क्षमा का पात्र बनेंगे।
यह आयत कहती है कि प्रलय में काफ़िरों को शैतानों के साथ उपस्थित किया जाएगा चाहे वे जिन्नों में से हों अथवा मनुष्यों में से। उनके साथ इस संसार में परस्पर सहयोग व समरसता के आधार पर व्यवहार किया जाएगा।
इस आयत से हमने सीखा कि प्रलय के संबंध में ईश्वर की चेतावनियों और प्रलय की परिस्थितियों को गंभीरता से लेना चाहिए और अपने आपको इतने बड़े न्यायालय में उपस्थित होने के लिए तैयार करना चाहिए।
जो लोग इस संसार में घमंड व अहं के कारण धर्म की वास्तविकताओं का परिहास करते हैं, वे प्रलय में नरक को देखने के बाद खड़े होने में भी सक्षम नहीं रहेंगे तथा अपमान के चरम पर पहुंच कर घुटने टेक देंगे।
आइये अब सूरए मरयम की आयत नंबर 69 और 70
ثُمَّ لَنَنْزِعَنَّ مِنْ كُلِّ شِيعَةٍ أَيُّهُمْ أَشَدُّ عَلَى الرَّحْمَنِ عِتِيًّا (69) ثُمَّ لَنَحْنُ أَعْلَمُ بِالَّذِينَ هُمْ أَوْلَى بِهَا صِلِيًّا (70)
उसके पश्चात हम हर उस गुट को जो दयावान ईश्वर के प्रति अधिक उद्दंड रहा होगा, अलग कर देंगे (19:69) फिर निश्चित रूप से हम इस बात से अधिक अवगत हैं कि कौन लोग नरक में जलने के अधिक योग्य हैं। (19:70)
प्रलय के न्यायालय में काफ़िरों के उपस्थित होने के संबंध में पिछली आयतों के क्रम को जारी रखते हुए इन आयतों में कहा गया है कि ऐसा नहीं है कि नरक में रहने वाले सभी लोगों का स्थान और दर्जा एक ही होगा, बल्कि ईश्वरीय न्याय की मांग है कि जिसने जितने पाप और अपराध किए हैं उसी के अनुपात में उसे दंड दिया जाए। अतः प्रलय में पापियों को एक दूसरे से अलग करके उनका वर्गीकरण किया जाएगा और जिन्होंने अधिक उद्दंडता दिखाई थी उन्हें अधिक कड़ा दंड दिया जाएगा।
शायद कहा जा सकता है कि पापियों के तीन गुट हैं। एक गुट उन लोगों का है जो स्वयं पाप करते हैं, दूसरा गुट उन लोगों का है जो दूसरों को पाप का निमंत्रण देते हैं और पाप के साधन उन्हें उपलब्ध कराते हैं और तीसरा गुट उन लोगों का है जो दूसरों द्वारा पाप किए जाने पर राज़ी रहते हैं। स्वाभाविक है कि इनमें से हर गुट का दंड अलग है।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर दया व प्रेम का स्रोत है किंतु मनुष्य उसकी दया प्राप्त करने के स्थान पर उद्दंडता करता है और स्वयं को ईश्वरीय कोप का पात्र बना लेता है।
नरक की विभिन्न मंज़िलें और श्रेणियां हैं तथा हलके और भारी पाप के अनुसार दंड भी विभिन्न प्रकार का होगा। ईश्वर का असीम ज्ञान इस बात को निर्धारित करेगा कि कौन किस मंज़िल में रहे।
सूरए मरयम, आयतें 71-74,
सूरए मरयम की आयत नंबर 71 और 72
وَإِنْ مِنْكُمْ إِلَّا وَارِدُهَا كَانَ عَلَى رَبِّكَ حَتْمًا مَقْضِيًّا (71) ثُمَّ نُنَجِّي الَّذِينَ اتَّقَوْا وَنَذَرُ الظَّالِمِينَ فِيهَا جِثِيًّا (72)
और तुममें से ऐसा कोई नहीं जो नरक में न जाने वाला हो, यह तुम्हारे पालनहार का निश्चित फ़ैसला है, (19:71) फिर हम ईश्वर का भय रखने वालों को मुक्ति प्रदान कर देंगे और अत्याचारियों को नरक में घुटनों के बल पड़ा हुआ छोड़ देंगे।(19:72)
पिछली आयतों में प्रलय, उसके पारितोषिक तथा दंड की विशेषताओं का वर्णन किया गया था। इन आयतों में स्वर्ग में जाने वालों के नरक से गुज़रने की शैली की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि सभी लोग चाहे वे अच्छे हों या बुरे, आरंभ में नरक में जाएंगे। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जब भले लोग नरक में जाएंगे तो आग उनके लिए ठंडी हो जाएगी और उन्हें नहीं जलाएगी जैसा कि नमरूद द्वारा भड़काई गई आग ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नहीं जलाया था क्योंकि मूल रूप से आग, पवित्र व ईमान वाले लोगों से मेल नहीं खाती अतः वे बड़े वेग से नरक से गुज़र कर ईश्वर के सुरक्षित स्वर्ग में पहुंच जाएंगे।
इसी प्रकार जिन लोगों ने इस संसार में बुरे कर्म किए होंगे वे नरक के लिए आग पहले ही भेज चुके होंगे अतः वे उसी आग में जलेंगे और उन्हें मुक्ति का कोई मार्ग नहीं मिलेगा। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के अनुसार सिरात नामक पुल नरक के ऊपर बना हुआ है और सभी को उस पर से गुज़रना होगा। स्वर्ग में जाने वाले बड़ी तीव्रता से उस पर से गुज़र जाएंगे और नरक की आग में नहीं फंसेंगे जबकि नरक वाले उस पुल पर से नहीं गुज़र पाएंगे और आग में जलेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि प्रलय के न्यायालय के अतिरिक्त नरक भी स्पष्ट रूप से सबके बारे में बता देगा कि कौन स्वर्ग में जाने की क्षमता रखता है और किसे आग में जलना है।
नरक से बचने का एकमात्र मार्ग ईश्वर से डरना है। ईश्वर को दृष्टिगत रखे बिना किया जाने वाला हर कार्य किसी न किसी रूप में अत्याचार है, अपने ऊपर अत्याचार, समाज पर अत्याचार या ईश्वरीय धर्म पर अत्याचार।
सूरए मरयम की आयत नंबर 73
وَإِذَا تُتْلَى عَلَيْهِمْ آَيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ قَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آَمَنُوا أَيُّ الْفَرِيقَيْنِ خَيْرٌ مَقَامًا وَأَحْسَنُ نَدِيًّا (73)
और जब कभी उनके समक्ष हमारी स्पष्ट आयतों की तिलावत की जाती है तो काफ़िर, ईमान वालों से कहते हैं कि हममें से कौन सा गुट स्थान की दृष्टि से उत्तम है और किसका ठिकाना अधिक सुंदर है।(19:73)
यह आयत मक्के के अनेकेश्वरवादियों के श्रेष्ठताप्रेम व विस्तारवाद की भावना की ओर संकेत करती है कि जब उन्होंने देखा कि अम्मार, बेलाल और ख़बाब जैसे लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान ले आए हैं तो उन्होंने बड़े अपमाजनक ढंग से और परिहास भरे स्वर में कहा कि किस प्रकार समाज के दासों को प्रतिष्ठित लोगों के समान समझा जा सकता है। ये लोग सत्ता व प्रतिष्ठा की चरम सीमा पर थे जबकि वे दरिद्रता और समस्याओं में ग्रस्त थे।
अरबों की अज्ञानता के काल में जब सोने, आभूषण, शक्ति व सत्ता को मान्यता का मानदंड समझा जाता था, धनाड्य लोग स्वयं को श्रेष्ठ तथा दरिद्रों को तुच्छ समझते थे और कहते थे कि उनका समाज में कोई स्थान नहीं है। जबकि सत्य व असत्य का मानदंड धन व शक्ति नहीं बल्कि सही आस्था व उचित तर्क है।
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य व असत्य का मानदंड धन व शक्ति नहीं बल्कि आस्था व तर्क है। यदि काफ़िरों का जीवन अच्छा है तो यह उनकी सत्यता या उन पर ईश्वर की कृपा का चिन्ह नहीं है।
अहं व घमंड तथा श्रेष्ठताप्रेम, कुफ़्र का मार्ग प्रशस्त करता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 74
وَكَمْ أَهْلَكْنَا قَبْلَهُمْ مِنْ قَرْنٍ هُمْ أَحْسَنُ أَثَاثًا وَرِئْيًا (74)
और इन (काफ़िरों) से पहले की कितनी जातियां थीं जिन्हें हमने नष्ट कर दिया जबकि वे इनसे अधिक धनाड्य थे और उनकी विदित स्थिति भी इनसे अधिक अच्छी थी।(19:74)
यह आयत घमंडियों व अहंकारियों को संबोधित करते हुए कहती है कि क्या तुमने इतिहास का अध्ययन नहीं किया है जो ईमान वालों को इस प्रकार तुच्छता की दृष्टि से देखते हो और उन्हें तनिक भी महत्व नहीं देते? यदि धन-संपत्ति, ईश्वर की दृष्टि में अधिक प्रिय होने का मानदंड होता तो ईश्वर उन्हें इस प्रकार क्यों विनष्ट करके उन्हें बुरे अंत में ग्रस्त कर देता?
धन-संपत्ति व ऐश्वर्य न ही मोक्ष व कल्याण का चिन्ह है और न ही ईश्वरीय कोप को रोक सकता है बल्कि इसके विपरीत अधिकांश अवसरों पर धन-दौलत, सत्ता व पद मनुष्य में घमंड व निश्चेतना उत्पन्न होने का कारण बनता है तथा उसे उद्दंड बना देता है और अंतत उसके सर्वनाश का साधन बन जाता है।
इस आयत से हमने सीखा कि इतिहास से पाठ सीखना चाहिए। अत्याचारियों व उद्दंडियों का बुरा परिणाम, सत्य व असत्य की पहचान का उत्तम स्रोत व पाठ सामग्री है।
जिस वस्तु पर धनवान घमंड करते हैं वह इस संसार की नश्वर चमक-दमक है कि जो न तो इस संसार में उनकी मुक्ति का कारण है न उस संसार में। इसका विदित रूप सुंदर है किंतु वास्तविक चेहरा अत्यंत कुरूप है।
सूरए मरयम, आयतें 75-80
पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 75
قُلْ مَنْ كَانَ فِي الضَّلَالَةِ فَلْيَمْدُدْ لَهُ الرَّحْمَنُ مَدًّا حَتَّى إِذَا رَأَوْا مَا يُوعَدُونَ إِمَّا الْعَذَابَ وَإِمَّا السَّاعَةَ فَسَيَعْلَمُونَ مَنْ هُوَ شَرٌّ مَكَانًا وَأَضْعَفُ جُنْدًا (75)
(हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि जो कोई पथभ्रष्टता में है, उसे दयावान (ईश्वर) कुछ समय की मोहलत देगा यहां तक कि वह दंड के वचन को अपनी आंखों से देख ले, या तो (इस संसार में) दंड के रूप में या फिर प्रलय (में दंड) के रूप में। तो शीघ्र ही उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि स्थान की दृष्टि से सबसे बुरा और (सहायक) लश्कर की दृष्टि से सबसे कमज़ोर कौन है।(19:75)
पिछली आयतों में बताया गया था कि मक्के के धनाड्य व तथाकथित प्रतिष्ठित लोग बड़े घमंड से कहा करते थे कि हमारा स्थान उच्च है या इन दरिद्र ईमान वालों का? यह आयत उनके उत्तर में कहती है कि यह ईश्वर की परंपरा है कि वह संसार में प्रगति व विकास की संभावनाएं, अच्छे-बुरे सभी लोगों को प्रदान करता है किंतु ईश्वर की ओर से दिए जाने वाले इस अवसर व मोहलत को तुम अपने लिए विशिष्टता मान कर इस पर घमंड न करो और यह मत सोचो कि तुम्हें सदैव ये अनुकंपाएं प्राप्त रहेंगी बल्कि जो कोई कुफ़्र व अत्याचार में ग्रस्त होगा, उसे लोक या परलोक में उसके दंड भोगना ही होगा। तब स्पष्ट हो जाएगा कि स्थान की दृष्टि से कौन अधिक उच्च है, तुम या वे दरिद्र ईमान वाले।
स्वाभाविक है कि ईश्वर सभी पथभ्रष्ट लोगों को अवसर देता है कि शायद वे तौबा करके सही मार्ग पर लौट आएं किंतु प्रायः पथभ्रष्ट लोग इस अवसर से अनुचित लाभ उठाते हैं और अपने ग़लत व्यवहार से अपने लिए अधिक कड़ा दंड तैयार कर लेते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की परंपरा यह है कि वह सभी को समान अवसर उपलब्ध कराता है ताकि हर व्यक्ति अपने अधिकार के साथ अपना मार्ग चुने और उसके परिणाम को भी स्वीकार करे।
सूरए मरयम की आयत नंबर 76
وَيَزِيدُ اللَّهُ الَّذِينَ اهْتَدَوْا هُدًى وَالْبَاقِيَاتُ الصَّالِحَاتُ خَيْرٌ عِنْدَ رَبِّكَ ثَوَابًا وَخَيْرٌ مَرَدًّا (76)
और जिन लोगों को मार्गदर्शन प्राप्त हो चुका है, ईश्वर उनके मार्गदर्शन में वृद्धि करता है और बाक़ी रखने वाले भले कर्म तो आपके पालनहार के पास अधिक भले हैं, पुण्य की दृष्टि से भी और प्रलय के प्रतिफल की दृष्टि से भी।(19:76)
पिछली आयत में कहा गया कि पथभ्रष्ट लोग अपने कार्यों से अधिक पथभ्रष्टता में ग्रस्त होते जाते हैं और परलोक में उनके दंड में वृद्धि होती जाती है। यह आयत कहती है कि जो लोग ईश्वरीय मार्गदर्शन के पथ पर आगे बढ़ते हैं ईश्वर उन पर कृपा करता है तथा उन्हें जीवन के मार्ग में पथभ्रष्टता से सुरक्षित रखता है या दूसरे शब्दों में उनके मार्गदर्शन में वृद्धि करता रहता है। एक सीढ़ी की भांति की जब मनुष्य उस पर एक क़दम रखता है तो अगले क़दम का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और मनुष्य धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता जाता है।
सच्चे ईमान के कारण जो वस्तु सामने आती है वह भला कर्म है और मनुष्य की नीयत और भावना जितनी शुद्ध होती है उसके भले कर्म उतने ही टिकाऊ एवं अमर होते हैं। स्पष्ट है कि अच्छे कर्म हर धन व संपत्ति से उत्तम हैं बल्कि भले कर्मों की उनसे तुलना ही नहीं की जा सकती क्योंकि सांसारिक धन-दौलत नश्वर है जबकि भले कर्म बाक़ी भी रहने वाले हैं और उनके कारण प्रलय में पारितोषिक एवं प्रतिफल भी मिलेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय मार्गदर्शन के चरण व दर्जे हैं और भले कर्म अधिक मार्गदर्शन की भूमि प्रशस्त करते हैं।
भला अंत, अधिक धन या अच्छी सवारी से नहीं बल्कि भले कर्मों से प्राप्त होता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 77 से 80
أَفَرَأَيْتَ الَّذِي كَفَرَ بِآَيَاتِنَا وَقَالَ لَأُوتَيَنَّ مَالًا وَوَلَدًا (77) أَطَّلَعَ الْغَيْبَ أَمِ اتَّخَذَ عِنْدَ الرَّحْمَنِ عَهْدًا (78) كَلَّا سَنَكْتُبُ مَا يَقُولُ وَنَمُدُّ لَهُ مِنَ الْعَذَابِ مَدًّا (79) وَنَرِثُهُ مَا يَقُولُ وَيَأْتِينَا فَرْدًا (80)
(हे पैग़म्बर!) क्या आपने उस व्यक्ति को देखा है जिसने हमारी आयतों का इन्कार किया, यह कहा कि (प्रलय में भी) मुझे बहुत अधिक धन व संतान प्रदान की जाएगी? (19:77) क्या वह (ईश्वर के) गुप्त ज्ञान से सूचित हो गया है? या उसने दयावान (ईश्वर) से कोई वचन व प्रतिज्ञा ले ली है? (19:78) ऐसा कदापि नहीं है और जो कुछ वह कह रहा है उसे शीघ्र ही हम (उसके कर्मपत्र में) लिख लेंगे और उसके दंड में भी निरंतर वृद्धि करते रहेंगे।(19:79) और (धन व संतान के बारे में) वह जो कुछ भी कह रहा है उसके वारिस भी हम ही होंगे और वह अकेला ही हमारे पास आएगा।(19:80)
पिछली आयतों में मार्गदर्शित व पथभ्रष्ट लोगों की तुलना की गई थी, ये आयतें काफ़िरों और मायामोह में ग्रस्त लोगों के विचारों व कल्पनाओं की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि वे इस प्रकार बात व व्यवहार करते हैं मानो संसार के शासक हों और धन व संतान के बारे में वे जो कुछ भी चाहें, ईश्वर को उन्हें प्रदान करना ही चाहिए। वे इन्हीं बातों पर घमंड करते हैं और इन्हें ईमान वालों पर अपनी श्रेष्ठता का कारण समझते हैं।
क़ुरआने मजीद उनके उत्तर में कहता है कि बेहतर भविष्य के बारे में उनकी ये बातें और आस्थाएं, एक प्रकार की भविष्यवाणी और ईश्वर के गुप्त ज्ञान की सूचना है। उन्हें किस प्रकार इस ज्ञान की सूचना हो सकती है और क्या उन्होंने ईश्वर से इस संबंध में कोई प्रतिज्ञा ले रखी है? जबकि वास्तविकता यह है कि जो कुछ उन्हें मिलने वाला है वह ईश्वर का कड़ा दंड है जो उनके लोक-परलोक को अपनी चपेट में ले लेगा। इस संसार में उन्होंने जो धन-संपत्ति एकत्रित की है उसे वे अपने वारिसों के लिए छोड़ जाएंगे और इस संसार से ख़ाली हाथ ईश्वर की ओर जाएंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि काफ़िरों की दृष्टि में कुफ़्र प्रगति और ईमान विकास में रुकावट का कारण है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है और ईश्वर ने इस परंपरा का आधार नहीं रखा है।
हमारे हर कथन और व्यवहार को लिखा जाता है और एक दिन हमें अपने सभी कर्मों का उत्तर देना होगा।
सूरए मरयम, आयतें 81-86, (कार्यक्रम 541)
सूरए मरयम की आयत नंबर ८१ और ८२
وَاتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ آَلِهَةً لِيَكُونُوا لَهُمْ عِزًّا (81) كَلَّا سَيَكْفُرُونَ بِعِبَادَتِهِمْ وَيَكُونُونَ عَلَيْهِمْ ضِدًّا (82)
उन लोगों ने एक ईश्वर के स्थान पर दूसरे देवताओं का चयन किया ताकि वह देवता उन के लिए सम्मान का कारण बनें (19:81) कदापि नहीं शीघ्र ही वे उनकी उपासना का इन्कार करेंगे और उनके शत्रु बन जाएगें। (19:82)
पिछली आयतों में बताया गया कि कुछ लोग संसार के मोह माया में ग्रस्त हो जाते हैं और धन व संतान को सम्मान व शक्ति का कारण समझते हैं इस आयत में कहा गया है कि ईश्वर का इन्कार करने वाले सम्मान की खोज ईश्वर को छोड़ कर करते हैं जबकि उनके काल्पनिक देवता भी प्रलय के दिन उनसे विरक्तता प्रकट करेंगे और अपने उपासकों की सिफारिश, उन्हें सम्मान देने या सहायता करने के स्थान पर उनके विरुद्ध ही खड़े हो जाएगें।
क़ुरआने मजीद की कुछ दूसरी आयतों में भी इसी विषय की ओर संकेत किया गया है कि यहां तक कि पत्थर और लकड़ी की प्रतिमाएं भी प्रलय के दिन ईश्वर के आदेश से बोलने लगेंगी और अपने उपासकों और अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता की घोषणा करेंगी।
इमामे जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है कि इस आयत में देवताओं से आशय वह बड़े लोग और सरदार हैं जिनका अनुसरण करके लोग सम्मान पाना चाहते हैं क्योंकि इस आयत में उपासना से आशय सजदा करना या झुकना नहीं बल्कि अनुसरण व आज्ञापालन है और जो भी किसी रचना के आज्ञापालन द्वारा रचयिता की अवज्ञा करता है तो इस प्रकार का आज्ञापालन वास्तव में उसकी उपासना करने की भांति होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सम्मान व प्रेम मनुष्य की प्रवृत्ति का भाग है किंतु बहुत से लोग सम्मान प्राप्त करने के स्थान के बारे में ग़लती कर बैठते हैं और सम्मान के मूल स्रोत अर्थात ईश्वर की ओर नहीं जाते।
मनुष्य ईश्वर को छोड़ कर जिन लोगों से आशा लगाते हैं वही लोग अथवा वस्तुएं क़यामत के दिन उनके विरुद्ध खड़ी होंगी और ईश्वर को छोड़ कर अन्य पर भरोसे के कारण वह भी अपने उपासकों से क्रुद्ध होंगी।
सूरए मरयम की आयत नंबर ८३ और ८४
أَلَمْ تَرَ أَنَّا أَرْسَلْنَا الشَّيَاطِينَ عَلَى الْكَافِرِينَ تَؤُزُّهُمْ أَزًّا (83) فَلَا تَعْجَلْ عَلَيْهِمْ إِنَّمَا نَعُدُّ لَهُمْ عَدًّا (84)
क्या तुमने नहीं देखा कि हमने शैतानों को काफ़िरों के पास भेजा ताकि वह उन्हें भड़काएं (19:83) तो उनके बारे में उतावलापन मत करो हम ने उनका हिसाब कर रखा है।(19:84)
जैसाकि हमने बताया कि ईश्वर को न मानने वालों को अन्य वस्तुओं की पूजा और बड़े बड़े लोगों के आज्ञापालन से कुछ हाथ आने वाला नहीं है और क़यामत के दिन स्वंय वे और उनके लिए जो पूज्य थे सब ईश्वर की शरण में ही जाएंगे तो फिर हमें क्या जल्दी है कि ईश्वर शीघ्र ही उनका काम ख़त्म कर दे ? उनके सारे कर्म लिखे जा रहे हैं यहां तक कि उनकी सांसें भी गिनी जा रही हैं।
सांसे या आयु का हिसाब रखने का अर्थ वास्तव में उन कर्मों का हिसाब रखना है जो आयुपत्र में लिखा जाता है और जिस प्रकार से गर्भाशय में रहने से बच्चे की शरीर की रचना पूरी होती है, उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य के रहने का कारण भी यह है कि उसकी आत्मा की रचना पूरी हो और ईश्वर ने जो कुछ उसके लिए लिखा है उस चरण तक वह पहुंच जाए।
इस आधार पर यह उचित नहीं है कि मनुष्य किसी अन्य के लिए ईश्वर से मृत्यु की मांग करे भले ही वह अन्य व्यक्ति पापी व नास्तिक हो या धर्म पर आस्था रखने वाला हो। चूंकि बुरे कर्म करने वाला और नास्तिक प्रायः इस संसार में पाप ही करता है इस लिए जितने भी दिन वह इस संसार में रहता है वह वास्तव में उसके पापों की गिनती की अवधि होती है ताकि उसको अपने किये का दंड मिल सके। दूसरी ओर योग्य व सुकर्मी व्यक्ति की इस संसार में आयु उसकी अच्छाईयों को गिने जाने की अवधि है ताकि उसे उसके अच्छे कर्मों का फल दिया जा सके।
इस आयत से हम यह सीखते हैं कि जो लोग ईश्वर का इन्कार करते हें उनका एक दंड यह है कि उन पर दुष्ट लोगों व शैतान का नियंत्रण हो जाता है।
शैतान मनुष्य को भड़काता है किंतु विवश नहीं करता यद्यपि उसका भड़काना अत्याधिक शक्तिशाली होता है।
ईश्वर की शैली व परंपरा है कि वह लोगों को मोहलत दे और वह बुरे लोगों को उनकी बुराई के कारण मारने में जल्दी नहीं करता।
सूरए मरयम की आयत नंबर ८५ से ८६
يَوْمَ نَحْشُرُ الْمُتَّقِينَ إِلَى الرَّحْمَنِ وَفْدًا (85) وَنَسُوقُ الْمُجْرِمِينَ إِلَى جَهَنَّمَ وِرْدًا (86)
जिस दिन भले कर्म वाले लोगों को हम ईश्वर के पास एकत्रित करेंगे (19:85) और अपराधियों को इस दशा में कि वह प्यासे होंगे नर्क की ओर खदेड़ देंगे।(19:86)
इस आयत में लोगों को दो गुटों भले और अपराधियों में बांटा गया है और दोनों गुटों के अंजाम को संक्षेप में इस प्रकार से बताया गया है।
भले लोग तो ईश्वर के अतिथि हैं इसी लिए उन्हें स्वर्ग में भेज दिया जाएगा किंतु अपराधियों की स्थिति दूसरी है। जिस प्रकार से प्यासे ऊंट जलाशय की ओर ले जाए जाते हैं, अपराधियों की उसी प्रकार से नर्क की ओर हांका जाएगा किंतु वहां पानी नहीं होगा केवल आग ही आग होगी।
कुरआन में ईश्वर के पास का जो शब्द प्रयोग किया गया है वह वास्तव में नर्क की ओर हांके जाने के मुक़ाबले में है । इस प्रकार से यह समझा जा सकता है कि इस का उद्देश्य भले लोगों को स्वर्ग में भेजना है। भले लोगों को स्वर्ग में भेजने के लिए ईश्वर के पास के शब्द का इस लिए भी प्रयोग किया गया है क्योंकि स्वर्ग भी ईश्वर से निकटता के अर्थ में है और स्वर्ग में जाने का अर्थ ईश्वर के निकट होना है।
इस आयत में अपराधियों को नर्क में ले जाने की दशा का वर्णन किया गया है ताकि यह बताया जा सके कि उनके नर्कवासी होने का कारण उनका पाप और अपराध है जैसा कि आयत में ईश्वर के पास जाने को भले लोगों से विशेष किया गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उनके स्वर्ग में जाने का कारण संसार में ईश्वर से भय और अच्छे कर्म हैं ।
इस आयत से हम सीखते हैं कि क़यामत या प्रलय, भले और बुरे लोगों के सामने आने का दिन है। भले लोग ईश्वर के अतिथि हैं किंतु अपराधी व पापी तुच्छता व अपमान के साथ नर्क में डाल दिये जाएंगे।
स्वर्ग में जाने से अधिक महत्वपूर्ण ईश्वरीय कृपा का पात्र बनना है जो वास्तव में स्वर्ग में रहने वालों से विशेष है।
स्वर्ग की चाभी ईश्वर से डरना है और यह भय व डर जीवन के सभी क्षणों में महसूस किया जाना चाहिए।
सूरए मरयम, आयतें 87-92,(
सूरए मरयम की आयत नंबर ८७
لَا يَمْلِكُونَ الشَّفَاعَةَ إِلَّا مَنِ اتَّخَذَ عِنْدَ الرَّحْمَنِ عَهْدًا (87)
उस दिन वे सिफारिश नहीं कर पाएगें सिवाए उन लोगों के जिनकी ईश्वर के निकट प्रतिबद्धता होगी।(19:87)
पिछली आयतों में बताया गया था कि अनेकेश्वरवादी एक ओर तो अपनी धन-संपत्ति तथा संतानों पर इतराते थे और दूसरी ओर काल्पनिक देवताओं पर इतने अधिक निर्भर थे कि उन्हें आशा रहती थी कि यह देवता हर दशा में उनकी सहायता करें।
इस आयत में कहा गया है कि प्रलय के दिन यह काल्पनिक देवता अनेकेश्वरवादियों को नर्क की आग से बचाने के लिए उनकी सिफ़ारिश नहीं कर पाएगें बल्कि ईश्वरीय दूतों और उनके उत्तराधिकारियों जैसे ईश्वर के प्रिय बन्दे ही अन्य लोगों की सिफ़ारिश का अधिकार रखते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर द्वारा इस प्रकार की सिफ़ारिश की अनुमति दी गयी है।
मूल रूप से क़यामत के दिन सिफ़ारिश के कुछ अपने विशेष नियम हैं। न तो हर एक की सिफारिश होगी और न ही हर एक किसी दूसरे की सिफारिश कर पाएगा बल्कि धर्म व ईश्वर पर आस्था रखने वाले लोग जिनकी आस्था व कर्म सही होंगे किंतु उनसे कुछ पाप भी हो गये होंगे, ईश्वर के प्रिय दासों के सहारे क्षमा पा सकते हैं किंतु उन्हें ईश्वर द्वारा क्षमा किया जाना इस बात पर भी निर्भर होगा कि जो लोग उनकी सिफारिश कर रहे हैं उन्हें किस सीमा तक सिफारिश करने की अनुमति है।
इस आधार पर संसार में, कोई व्यक्ति यह सोच कर कि क़यामत के दिन उसे सिफ़ारिश की सुविधा मिल जाएगी, पाप नहीं कर सकता क्योंकि यह किसी को पता ही नहीं है कि क़यामत के दिन किस की सिफारिश की जाएगी और अगर की जाएगी तो किस सीमा तक।
इस आयत से हम ने यह सीखा कि सिफ़ारिश का अधिकार ईश्वर के पास है और वह जिसे बेहतर और योग्य समझता है उसे यह अधिकार एक सीमा तक दे देता है।
ईश्वर के विशेष व प्रिय बन्दे ईश्वर की अनुमति से अन्य लोगों की सिफ़ारिश कर सकते हैं जो निश्चित रूप से दासों पर ईश्वर की असीम कृपा का ही एक प्रदर्शन है।
وَإِنْ مِنْكُمْ إِلَّا وَارِدُهَا كَانَ عَلَى رَبِّكَ حَتْمًا مَقْضِيًّا (71) ثُمَّ نُنَجِّي الَّذِينَ اتَّقَوْا وَنَذَرُ الظَّالِمِينَ فِيهَا جِثِيًّا (72)
और तुममें से ऐसा कोई नहीं जो नरक में न जाने वाला हो, यह तुम्हारे पालनहार का निश्चित फ़ैसला है, (19:71) फिर हम ईश्वर का भय रखने वालों को मुक्ति प्रदान कर देंगे और अत्याचारियों को नरक में घुटनों के बल पड़ा हुआ छोड़ देंगे।(19:72)
पिछली आयतों में प्रलय, उसके पारितोषिक तथा दंड की विशेषताओं का वर्णन किया गया था। इन आयतों में स्वर्ग में जाने वालों के नरक से गुज़रने की शैली की ओर संकेत करते हुए कहा गया है कि सभी लोग चाहे वे अच्छे हों या बुरे, आरंभ में नरक में जाएंगे। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जब भले लोग नरक में जाएंगे तो आग उनके लिए ठंडी हो जाएगी और उन्हें नहीं जलाएगी जैसा कि नमरूद द्वारा भड़काई गई आग ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नहीं जलाया था क्योंकि मूल रूप से आग, पवित्र व ईमान वाले लोगों से मेल नहीं खाती अतः वे बड़े वेग से नरक से गुज़र कर ईश्वर के सुरक्षित स्वर्ग में पहुंच जाएंगे।
इसी प्रकार जिन लोगों ने इस संसार में बुरे कर्म किए होंगे वे नरक के लिए आग पहले ही भेज चुके होंगे अतः वे उसी आग में जलेंगे और उन्हें मुक्ति का कोई मार्ग नहीं मिलेगा। पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के अनुसार सिरात नामक पुल नरक के ऊपर बना हुआ है और सभी को उस पर से गुज़रना होगा। स्वर्ग में जाने वाले बड़ी तीव्रता से उस पर से गुज़र जाएंगे और नरक की आग में नहीं फंसेंगे जबकि नरक वाले उस पुल पर से नहीं गुज़र पाएंगे और आग में जलेंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि प्रलय के न्यायालय के अतिरिक्त नरक भी स्पष्ट रूप से सबके बारे में बता देगा कि कौन स्वर्ग में जाने की क्षमता रखता है और किसे आग में जलना है।
नरक से बचने का एकमात्र मार्ग ईश्वर से डरना है। ईश्वर को दृष्टिगत रखे बिना किया जाने वाला हर कार्य किसी न किसी रूप में अत्याचार है, अपने ऊपर अत्याचार, समाज पर अत्याचार या ईश्वरीय धर्म पर अत्याचार।
सूरए मरयम की आयत नंबर 73
وَإِذَا تُتْلَى عَلَيْهِمْ آَيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ قَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلَّذِينَ آَمَنُوا أَيُّ الْفَرِيقَيْنِ خَيْرٌ مَقَامًا وَأَحْسَنُ نَدِيًّا (73)
और जब कभी उनके समक्ष हमारी स्पष्ट आयतों की तिलावत की जाती है तो काफ़िर, ईमान वालों से कहते हैं कि हममें से कौन सा गुट स्थान की दृष्टि से उत्तम है और किसका ठिकाना अधिक सुंदर है।(19:73)
यह आयत मक्के के अनेकेश्वरवादियों के श्रेष्ठताप्रेम व विस्तारवाद की भावना की ओर संकेत करती है कि जब उन्होंने देखा कि अम्मार, बेलाल और ख़बाब जैसे लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर ईमान ले आए हैं तो उन्होंने बड़े अपमाजनक ढंग से और परिहास भरे स्वर में कहा कि किस प्रकार समाज के दासों को प्रतिष्ठित लोगों के समान समझा जा सकता है। ये लोग सत्ता व प्रतिष्ठा की चरम सीमा पर थे जबकि वे दरिद्रता और समस्याओं में ग्रस्त थे।
अरबों की अज्ञानता के काल में जब सोने, आभूषण, शक्ति व सत्ता को मान्यता का मानदंड समझा जाता था, धनाड्य लोग स्वयं को श्रेष्ठ तथा दरिद्रों को तुच्छ समझते थे और कहते थे कि उनका समाज में कोई स्थान नहीं है। जबकि सत्य व असत्य का मानदंड धन व शक्ति नहीं बल्कि सही आस्था व उचित तर्क है।
इस आयत से हमने सीखा कि सत्य व असत्य का मानदंड धन व शक्ति नहीं बल्कि आस्था व तर्क है। यदि काफ़िरों का जीवन अच्छा है तो यह उनकी सत्यता या उन पर ईश्वर की कृपा का चिन्ह नहीं है।
अहं व घमंड तथा श्रेष्ठताप्रेम, कुफ़्र का मार्ग प्रशस्त करता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 74
وَكَمْ أَهْلَكْنَا قَبْلَهُمْ مِنْ قَرْنٍ هُمْ أَحْسَنُ أَثَاثًا وَرِئْيًا (74)
और इन (काफ़िरों) से पहले की कितनी जातियां थीं जिन्हें हमने नष्ट कर दिया जबकि वे इनसे अधिक धनाड्य थे और उनकी विदित स्थिति भी इनसे अधिक अच्छी थी।(19:74)
यह आयत घमंडियों व अहंकारियों को संबोधित करते हुए कहती है कि क्या तुमने इतिहास का अध्ययन नहीं किया है जो ईमान वालों को इस प्रकार तुच्छता की दृष्टि से देखते हो और उन्हें तनिक भी महत्व नहीं देते? यदि धन-संपत्ति, ईश्वर की दृष्टि में अधिक प्रिय होने का मानदंड होता तो ईश्वर उन्हें इस प्रकार क्यों विनष्ट करके उन्हें बुरे अंत में ग्रस्त कर देता?
धन-संपत्ति व ऐश्वर्य न ही मोक्ष व कल्याण का चिन्ह है और न ही ईश्वरीय कोप को रोक सकता है बल्कि इसके विपरीत अधिकांश अवसरों पर धन-दौलत, सत्ता व पद मनुष्य में घमंड व निश्चेतना उत्पन्न होने का कारण बनता है तथा उसे उद्दंड बना देता है और अंतत उसके सर्वनाश का साधन बन जाता है।
इस आयत से हमने सीखा कि इतिहास से पाठ सीखना चाहिए। अत्याचारियों व उद्दंडियों का बुरा परिणाम, सत्य व असत्य की पहचान का उत्तम स्रोत व पाठ सामग्री है।
जिस वस्तु पर धनवान घमंड करते हैं वह इस संसार की नश्वर चमक-दमक है कि जो न तो इस संसार में उनकी मुक्ति का कारण है न उस संसार में। इसका विदित रूप सुंदर है किंतु वास्तविक चेहरा अत्यंत कुरूप है।
सूरए मरयम, आयतें 75-80
पहले सूरए मरयम की आयत नंबर 75
قُلْ مَنْ كَانَ فِي الضَّلَالَةِ فَلْيَمْدُدْ لَهُ الرَّحْمَنُ مَدًّا حَتَّى إِذَا رَأَوْا مَا يُوعَدُونَ إِمَّا الْعَذَابَ وَإِمَّا السَّاعَةَ فَسَيَعْلَمُونَ مَنْ هُوَ شَرٌّ مَكَانًا وَأَضْعَفُ جُنْدًا (75)
(हे पैग़म्बर!) कह दीजिए कि जो कोई पथभ्रष्टता में है, उसे दयावान (ईश्वर) कुछ समय की मोहलत देगा यहां तक कि वह दंड के वचन को अपनी आंखों से देख ले, या तो (इस संसार में) दंड के रूप में या फिर प्रलय (में दंड) के रूप में। तो शीघ्र ही उन्हें ज्ञात हो जाएगा कि स्थान की दृष्टि से सबसे बुरा और (सहायक) लश्कर की दृष्टि से सबसे कमज़ोर कौन है।(19:75)
पिछली आयतों में बताया गया था कि मक्के के धनाड्य व तथाकथित प्रतिष्ठित लोग बड़े घमंड से कहा करते थे कि हमारा स्थान उच्च है या इन दरिद्र ईमान वालों का? यह आयत उनके उत्तर में कहती है कि यह ईश्वर की परंपरा है कि वह संसार में प्रगति व विकास की संभावनाएं, अच्छे-बुरे सभी लोगों को प्रदान करता है किंतु ईश्वर की ओर से दिए जाने वाले इस अवसर व मोहलत को तुम अपने लिए विशिष्टता मान कर इस पर घमंड न करो और यह मत सोचो कि तुम्हें सदैव ये अनुकंपाएं प्राप्त रहेंगी बल्कि जो कोई कुफ़्र व अत्याचार में ग्रस्त होगा, उसे लोक या परलोक में उसके दंड भोगना ही होगा। तब स्पष्ट हो जाएगा कि स्थान की दृष्टि से कौन अधिक उच्च है, तुम या वे दरिद्र ईमान वाले।
स्वाभाविक है कि ईश्वर सभी पथभ्रष्ट लोगों को अवसर देता है कि शायद वे तौबा करके सही मार्ग पर लौट आएं किंतु प्रायः पथभ्रष्ट लोग इस अवसर से अनुचित लाभ उठाते हैं और अपने ग़लत व्यवहार से अपने लिए अधिक कड़ा दंड तैयार कर लेते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर की परंपरा यह है कि वह सभी को समान अवसर उपलब्ध कराता है ताकि हर व्यक्ति अपने अधिकार के साथ अपना मार्ग चुने और उसके परिणाम को भी स्वीकार करे।
सूरए मरयम की आयत नंबर 76
وَيَزِيدُ اللَّهُ الَّذِينَ اهْتَدَوْا هُدًى وَالْبَاقِيَاتُ الصَّالِحَاتُ خَيْرٌ عِنْدَ رَبِّكَ ثَوَابًا وَخَيْرٌ مَرَدًّا (76)
और जिन लोगों को मार्गदर्शन प्राप्त हो चुका है, ईश्वर उनके मार्गदर्शन में वृद्धि करता है और बाक़ी रखने वाले भले कर्म तो आपके पालनहार के पास अधिक भले हैं, पुण्य की दृष्टि से भी और प्रलय के प्रतिफल की दृष्टि से भी।(19:76)
पिछली आयत में कहा गया कि पथभ्रष्ट लोग अपने कार्यों से अधिक पथभ्रष्टता में ग्रस्त होते जाते हैं और परलोक में उनके दंड में वृद्धि होती जाती है। यह आयत कहती है कि जो लोग ईश्वरीय मार्गदर्शन के पथ पर आगे बढ़ते हैं ईश्वर उन पर कृपा करता है तथा उन्हें जीवन के मार्ग में पथभ्रष्टता से सुरक्षित रखता है या दूसरे शब्दों में उनके मार्गदर्शन में वृद्धि करता रहता है। एक सीढ़ी की भांति की जब मनुष्य उस पर एक क़दम रखता है तो अगले क़दम का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और मनुष्य धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता जाता है।
सच्चे ईमान के कारण जो वस्तु सामने आती है वह भला कर्म है और मनुष्य की नीयत और भावना जितनी शुद्ध होती है उसके भले कर्म उतने ही टिकाऊ एवं अमर होते हैं। स्पष्ट है कि अच्छे कर्म हर धन व संपत्ति से उत्तम हैं बल्कि भले कर्मों की उनसे तुलना ही नहीं की जा सकती क्योंकि सांसारिक धन-दौलत नश्वर है जबकि भले कर्म बाक़ी भी रहने वाले हैं और उनके कारण प्रलय में पारितोषिक एवं प्रतिफल भी मिलेगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय मार्गदर्शन के चरण व दर्जे हैं और भले कर्म अधिक मार्गदर्शन की भूमि प्रशस्त करते हैं।
भला अंत, अधिक धन या अच्छी सवारी से नहीं बल्कि भले कर्मों से प्राप्त होता है।
सूरए मरयम की आयत नंबर 77 से 80
أَفَرَأَيْتَ الَّذِي كَفَرَ بِآَيَاتِنَا وَقَالَ لَأُوتَيَنَّ مَالًا وَوَلَدًا (77) أَطَّلَعَ الْغَيْبَ أَمِ اتَّخَذَ عِنْدَ الرَّحْمَنِ عَهْدًا (78) كَلَّا سَنَكْتُبُ مَا يَقُولُ وَنَمُدُّ لَهُ مِنَ الْعَذَابِ مَدًّا (79) وَنَرِثُهُ مَا يَقُولُ وَيَأْتِينَا فَرْدًا (80)
(हे पैग़म्बर!) क्या आपने उस व्यक्ति को देखा है जिसने हमारी आयतों का इन्कार किया, यह कहा कि (प्रलय में भी) मुझे बहुत अधिक धन व संतान प्रदान की जाएगी? (19:77) क्या वह (ईश्वर के) गुप्त ज्ञान से सूचित हो गया है? या उसने दयावान (ईश्वर) से कोई वचन व प्रतिज्ञा ले ली है? (19:78) ऐसा कदापि नहीं है और जो कुछ वह कह रहा है उसे शीघ्र ही हम (उसके कर्मपत्र में) लिख लेंगे और उसके दंड में भी निरंतर वृद्धि करते रहेंगे।(19:79) और (धन व संतान के बारे में) वह जो कुछ भी कह रहा है उसके वारिस भी हम ही होंगे और वह अकेला ही हमारे पास आएगा।(19:80)
पिछली आयतों में मार्गदर्शित व पथभ्रष्ट लोगों की तुलना की गई थी, ये आयतें काफ़िरों और मायामोह में ग्रस्त लोगों के विचारों व कल्पनाओं की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि वे इस प्रकार बात व व्यवहार करते हैं मानो संसार के शासक हों और धन व संतान के बारे में वे जो कुछ भी चाहें, ईश्वर को उन्हें प्रदान करना ही चाहिए। वे इन्हीं बातों पर घमंड करते हैं और इन्हें ईमान वालों पर अपनी श्रेष्ठता का कारण समझते हैं।
क़ुरआने मजीद उनके उत्तर में कहता है कि बेहतर भविष्य के बारे में उनकी ये बातें और आस्थाएं, एक प्रकार की भविष्यवाणी और ईश्वर के गुप्त ज्ञान की सूचना है। उन्हें किस प्रकार इस ज्ञान की सूचना हो सकती है और क्या उन्होंने ईश्वर से इस संबंध में कोई प्रतिज्ञा ले रखी है? जबकि वास्तविकता यह है कि जो कुछ उन्हें मिलने वाला है वह ईश्वर का कड़ा दंड है जो उनके लोक-परलोक को अपनी चपेट में ले लेगा। इस संसार में उन्होंने जो धन-संपत्ति एकत्रित की है उसे वे अपने वारिसों के लिए छोड़ जाएंगे और इस संसार से ख़ाली हाथ ईश्वर की ओर जाएंगे।
इन आयतों से हमने सीखा कि काफ़िरों की दृष्टि में कुफ़्र प्रगति और ईमान विकास में रुकावट का कारण है जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है और ईश्वर ने इस परंपरा का आधार नहीं रखा है।
हमारे हर कथन और व्यवहार को लिखा जाता है और एक दिन हमें अपने सभी कर्मों का उत्तर देना होगा।
सूरए मरयम, आयतें 81-86, (कार्यक्रम 541)
सूरए मरयम की आयत नंबर ८१ और ८२
وَاتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ آَلِهَةً لِيَكُونُوا لَهُمْ عِزًّا (81) كَلَّا سَيَكْفُرُونَ بِعِبَادَتِهِمْ وَيَكُونُونَ عَلَيْهِمْ ضِدًّا (82)
उन लोगों ने एक ईश्वर के स्थान पर दूसरे देवताओं का चयन किया ताकि वह देवता उन के लिए सम्मान का कारण बनें (19:81) कदापि नहीं शीघ्र ही वे उनकी उपासना का इन्कार करेंगे और उनके शत्रु बन जाएगें। (19:82)
पिछली आयतों में बताया गया कि कुछ लोग संसार के मोह माया में ग्रस्त हो जाते हैं और धन व संतान को सम्मान व शक्ति का कारण समझते हैं इस आयत में कहा गया है कि ईश्वर का इन्कार करने वाले सम्मान की खोज ईश्वर को छोड़ कर करते हैं जबकि उनके काल्पनिक देवता भी प्रलय के दिन उनसे विरक्तता प्रकट करेंगे और अपने उपासकों की सिफारिश, उन्हें सम्मान देने या सहायता करने के स्थान पर उनके विरुद्ध ही खड़े हो जाएगें।
क़ुरआने मजीद की कुछ दूसरी आयतों में भी इसी विषय की ओर संकेत किया गया है कि यहां तक कि पत्थर और लकड़ी की प्रतिमाएं भी प्रलय के दिन ईश्वर के आदेश से बोलने लगेंगी और अपने उपासकों और अनेकेश्वरवादियों से विरक्तता की घोषणा करेंगी।
इमामे जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम का कथन है कि इस आयत में देवताओं से आशय वह बड़े लोग और सरदार हैं जिनका अनुसरण करके लोग सम्मान पाना चाहते हैं क्योंकि इस आयत में उपासना से आशय सजदा करना या झुकना नहीं बल्कि अनुसरण व आज्ञापालन है और जो भी किसी रचना के आज्ञापालन द्वारा रचयिता की अवज्ञा करता है तो इस प्रकार का आज्ञापालन वास्तव में उसकी उपासना करने की भांति होता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सम्मान व प्रेम मनुष्य की प्रवृत्ति का भाग है किंतु बहुत से लोग सम्मान प्राप्त करने के स्थान के बारे में ग़लती कर बैठते हैं और सम्मान के मूल स्रोत अर्थात ईश्वर की ओर नहीं जाते।
मनुष्य ईश्वर को छोड़ कर जिन लोगों से आशा लगाते हैं वही लोग अथवा वस्तुएं क़यामत के दिन उनके विरुद्ध खड़ी होंगी और ईश्वर को छोड़ कर अन्य पर भरोसे के कारण वह भी अपने उपासकों से क्रुद्ध होंगी।
सूरए मरयम की आयत नंबर ८३ और ८४
أَلَمْ تَرَ أَنَّا أَرْسَلْنَا الشَّيَاطِينَ عَلَى الْكَافِرِينَ تَؤُزُّهُمْ أَزًّا (83) فَلَا تَعْجَلْ عَلَيْهِمْ إِنَّمَا نَعُدُّ لَهُمْ عَدًّا (84)
क्या तुमने नहीं देखा कि हमने शैतानों को काफ़िरों के पास भेजा ताकि वह उन्हें भड़काएं (19:83) तो उनके बारे में उतावलापन मत करो हम ने उनका हिसाब कर रखा है।(19:84)
जैसाकि हमने बताया कि ईश्वर को न मानने वालों को अन्य वस्तुओं की पूजा और बड़े बड़े लोगों के आज्ञापालन से कुछ हाथ आने वाला नहीं है और क़यामत के दिन स्वंय वे और उनके लिए जो पूज्य थे सब ईश्वर की शरण में ही जाएंगे तो फिर हमें क्या जल्दी है कि ईश्वर शीघ्र ही उनका काम ख़त्म कर दे ? उनके सारे कर्म लिखे जा रहे हैं यहां तक कि उनकी सांसें भी गिनी जा रही हैं।
सांसे या आयु का हिसाब रखने का अर्थ वास्तव में उन कर्मों का हिसाब रखना है जो आयुपत्र में लिखा जाता है और जिस प्रकार से गर्भाशय में रहने से बच्चे की शरीर की रचना पूरी होती है, उसी प्रकार इस संसार में मनुष्य के रहने का कारण भी यह है कि उसकी आत्मा की रचना पूरी हो और ईश्वर ने जो कुछ उसके लिए लिखा है उस चरण तक वह पहुंच जाए।
इस आधार पर यह उचित नहीं है कि मनुष्य किसी अन्य के लिए ईश्वर से मृत्यु की मांग करे भले ही वह अन्य व्यक्ति पापी व नास्तिक हो या धर्म पर आस्था रखने वाला हो। चूंकि बुरे कर्म करने वाला और नास्तिक प्रायः इस संसार में पाप ही करता है इस लिए जितने भी दिन वह इस संसार में रहता है वह वास्तव में उसके पापों की गिनती की अवधि होती है ताकि उसको अपने किये का दंड मिल सके। दूसरी ओर योग्य व सुकर्मी व्यक्ति की इस संसार में आयु उसकी अच्छाईयों को गिने जाने की अवधि है ताकि उसे उसके अच्छे कर्मों का फल दिया जा सके।
इस आयत से हम यह सीखते हैं कि जो लोग ईश्वर का इन्कार करते हें उनका एक दंड यह है कि उन पर दुष्ट लोगों व शैतान का नियंत्रण हो जाता है।
शैतान मनुष्य को भड़काता है किंतु विवश नहीं करता यद्यपि उसका भड़काना अत्याधिक शक्तिशाली होता है।
ईश्वर की शैली व परंपरा है कि वह लोगों को मोहलत दे और वह बुरे लोगों को उनकी बुराई के कारण मारने में जल्दी नहीं करता।
सूरए मरयम की आयत नंबर ८५ से ८६
يَوْمَ نَحْشُرُ الْمُتَّقِينَ إِلَى الرَّحْمَنِ وَفْدًا (85) وَنَسُوقُ الْمُجْرِمِينَ إِلَى جَهَنَّمَ وِرْدًا (86)
जिस दिन भले कर्म वाले लोगों को हम ईश्वर के पास एकत्रित करेंगे (19:85) और अपराधियों को इस दशा में कि वह प्यासे होंगे नर्क की ओर खदेड़ देंगे।(19:86)
इस आयत में लोगों को दो गुटों भले और अपराधियों में बांटा गया है और दोनों गुटों के अंजाम को संक्षेप में इस प्रकार से बताया गया है।
भले लोग तो ईश्वर के अतिथि हैं इसी लिए उन्हें स्वर्ग में भेज दिया जाएगा किंतु अपराधियों की स्थिति दूसरी है। जिस प्रकार से प्यासे ऊंट जलाशय की ओर ले जाए जाते हैं, अपराधियों की उसी प्रकार से नर्क की ओर हांका जाएगा किंतु वहां पानी नहीं होगा केवल आग ही आग होगी।
कुरआन में ईश्वर के पास का जो शब्द प्रयोग किया गया है वह वास्तव में नर्क की ओर हांके जाने के मुक़ाबले में है । इस प्रकार से यह समझा जा सकता है कि इस का उद्देश्य भले लोगों को स्वर्ग में भेजना है। भले लोगों को स्वर्ग में भेजने के लिए ईश्वर के पास के शब्द का इस लिए भी प्रयोग किया गया है क्योंकि स्वर्ग भी ईश्वर से निकटता के अर्थ में है और स्वर्ग में जाने का अर्थ ईश्वर के निकट होना है।
इस आयत में अपराधियों को नर्क में ले जाने की दशा का वर्णन किया गया है ताकि यह बताया जा सके कि उनके नर्कवासी होने का कारण उनका पाप और अपराध है जैसा कि आयत में ईश्वर के पास जाने को भले लोगों से विशेष किया गया है ताकि यह स्पष्ट हो सके कि उनके स्वर्ग में जाने का कारण संसार में ईश्वर से भय और अच्छे कर्म हैं ।
इस आयत से हम सीखते हैं कि क़यामत या प्रलय, भले और बुरे लोगों के सामने आने का दिन है। भले लोग ईश्वर के अतिथि हैं किंतु अपराधी व पापी तुच्छता व अपमान के साथ नर्क में डाल दिये जाएंगे।
स्वर्ग में जाने से अधिक महत्वपूर्ण ईश्वरीय कृपा का पात्र बनना है जो वास्तव में स्वर्ग में रहने वालों से विशेष है।
स्वर्ग की चाभी ईश्वर से डरना है और यह भय व डर जीवन के सभी क्षणों में महसूस किया जाना चाहिए।
सूरए मरयम, आयतें 87-92,(
सूरए मरयम की आयत नंबर ८७
لَا يَمْلِكُونَ الشَّفَاعَةَ إِلَّا مَنِ اتَّخَذَ عِنْدَ الرَّحْمَنِ عَهْدًا (87)
उस दिन वे सिफारिश नहीं कर पाएगें सिवाए उन लोगों के जिनकी ईश्वर के निकट प्रतिबद्धता होगी।(19:87)
पिछली आयतों में बताया गया था कि अनेकेश्वरवादी एक ओर तो अपनी धन-संपत्ति तथा संतानों पर इतराते थे और दूसरी ओर काल्पनिक देवताओं पर इतने अधिक निर्भर थे कि उन्हें आशा रहती थी कि यह देवता हर दशा में उनकी सहायता करें।
इस आयत में कहा गया है कि प्रलय के दिन यह काल्पनिक देवता अनेकेश्वरवादियों को नर्क की आग से बचाने के लिए उनकी सिफ़ारिश नहीं कर पाएगें बल्कि ईश्वरीय दूतों और उनके उत्तराधिकारियों जैसे ईश्वर के प्रिय बन्दे ही अन्य लोगों की सिफ़ारिश का अधिकार रखते हैं क्योंकि उन्हें ईश्वर द्वारा इस प्रकार की सिफ़ारिश की अनुमति दी गयी है।
मूल रूप से क़यामत के दिन सिफ़ारिश के कुछ अपने विशेष नियम हैं। न तो हर एक की सिफारिश होगी और न ही हर एक किसी दूसरे की सिफारिश कर पाएगा बल्कि धर्म व ईश्वर पर आस्था रखने वाले लोग जिनकी आस्था व कर्म सही होंगे किंतु उनसे कुछ पाप भी हो गये होंगे, ईश्वर के प्रिय दासों के सहारे क्षमा पा सकते हैं किंतु उन्हें ईश्वर द्वारा क्षमा किया जाना इस बात पर भी निर्भर होगा कि जो लोग उनकी सिफारिश कर रहे हैं उन्हें किस सीमा तक सिफारिश करने की अनुमति है।
इस आधार पर संसार में, कोई व्यक्ति यह सोच कर कि क़यामत के दिन उसे सिफ़ारिश की सुविधा मिल जाएगी, पाप नहीं कर सकता क्योंकि यह किसी को पता ही नहीं है कि क़यामत के दिन किस की सिफारिश की जाएगी और अगर की जाएगी तो किस सीमा तक।
इस आयत से हम ने यह सीखा कि सिफ़ारिश का अधिकार ईश्वर के पास है और वह जिसे बेहतर और योग्य समझता है उसे यह अधिकार एक सीमा तक दे देता है।
ईश्वर के विशेष व प्रिय बन्दे ईश्वर की अनुमति से अन्य लोगों की सिफ़ारिश कर सकते हैं जो निश्चित रूप से दासों पर ईश्वर की असीम कृपा का ही एक प्रदर्शन है।
सूरए मरयम की आयत नंबर ८८ और ८९
وَقَالُوا اتَّخَذَ الرَّحْمَنُ وَلَدًا (88) لَقَدْ جِئْتُمْ شَيْئًا إِدًّا (89)
अनेकेश्वरवादियों ने कहा कि ईश्वर ने पुत्र ग्रहण किया है (19:88) सचमुच बड़ी बुरी बात कही है।(19:89)
अनेकेश्वरवादियों का यह भी मानना है कि ईश्वर के पुत्र है जैसाकि अधिकांश अनेकेश्वरवादियों का विचार था कि फ़रिश्ते, ईश्वर की पुत्रियां हैं। विचित्र बात यह है कि इस्लाम से पूर्व के धर्मों में भी यह गलत विचार प्रचलित था और क़ुरआने मजीद की आयतों के अनुसार यहूदी, ईश्वरीय दूत, हज़रत उज़ैर को ईश्वर का पुत्र समझते थे और ईसाई भी हज़रत ईसा मसीह को ईश्वर का पुत्र मानते हैं जो अतीत के धर्मों में पथभ्रष्टता का एक प्रमाण है।
क़ुरआने मजीद कड़ाई के साथ इस विचारधारा का खंडन करता है और कहता है कि यह बहुत गलत और बुरा आरोप है जो वे ईश्वर पर लगाते हैं और बहुत बुरी बात है जो वे कहते हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि किसी को भी ईश्वर का पुत्र बना देना वास्तव में ईश्वर के बारे में बहुत बुरी बात और उस पर लगाया जाने वाला बुरा आरोप है भले ही वह व्यक्ति जिसे ईश्वर का पुत्र कहा जा रहा हो, ईश्वर का सम्मानीय दूत ही क्यों न हो। क्योंकि रचयिता व रचना के मध्य संबंध, पिता व पुत्र का संबंध नहीं है।
ईश्वर के लिए किसी भी प्रकार के पुत्र की बात मानना वास्तव में ईश्वर का किसी को भागीदार बनाना या अनेकेश्वरवाद में विश्वास रखना तथा एकेश्वरवाद के मार्ग से विचलित होना है।
सूरए मरयम की आयत नंबर ९० से ९२
تَكَادُ السَّمَاوَاتُ يَتَفَطَّرْنَ مِنْهُ وَتَنْشَقُّ الْأَرْضُ وَتَخِرُّ الْجِبَالُ هَدًّا (90) أَنْ دَعَوْا لِلرَّحْمَنِ وَلَدًا (91) وَمَا يَنْبَغِي لِلرَّحْمَنِ أَنْ يَتَّخِذَ وَلَدًا (92)
बहुत संभव है कि इस बुरी बात से आकाश बिखर जाएं, धरती फट जाए और पर्वत ढेर हो जाएं (19:90) इस लिए कि उन्होंने ईश्वर के लिए पुत्र में विश्वास रखा (19:91) और ईश्वर को यह शोभा नहीं देता कि वह अपने लिए पुत्र ग्रहण करे।(19:92)
चूंकि सृष्टि का आधार एकेश्वरवाद पर रखा गया है और ईश्वर के पुत्र होने का दावा, ऐसी ग़लत बात है जो किसी भी प्रकार से एकेश्वरवाद से मेल नहीं खाती इस लिए इस आयत में कहा गया है कि मानो धरती व आकाश इस प्रकार की विचारधारा के कारण फटने और गिरने के निकट पहुंच जाते हैं।
दूसरे शब्दों में किसी को ईश्वर का भागीदार या सहयोगी बनाना इतना भारी पाप है कि धरती व आकाश भी उसका बोझ उठाने की क्षमता नहीं रखते किंतु तुम अनेकेश्वरवादी लोग इस प्रकार की ग़लत विचारधारा और सोच रखते हो और इस प्रकार की बुरी बात अपनी ज़बान पर लाते हो जबकि मूल रूप से ईश्वर के लिए पुत्र रखना बड़ाई की बात नहीं है बल्कि इससे तो ईश्वर में कमी और उसके स्थान के नीचे होने का आभास होता है क्योंकि इस प्रकार से महान ईश्वर की रचनाओं में से किसी एक को उसकी संतान समझा जाता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि कुछ पाप ऐसे भी होते हैं जिन्हें करने पर सृष्टि की पूरी व्यवस्था ही बिगड़ सकती है किंतु ईश्वर ऐसा होने नहीं देता जैसाकि कुछ अन्य आयतों के अनुसार यदि क़ुरआन पर्वत पर उतारा जाता तो वह ईश्वर के भय से कणों में टूटकर बिखर जाता।
अनेकेश्वरवाद, सृष्टि में सब से अधिक भयानक पथभ्रष्टता है इसी लिए प्राणहीन प्रकृति भी उस पर प्रतिक्रिया प्रकट करती है।
पुत्र ग्रहण करने के लिए पत्नी ग्रहण करना भी आवश्यक है किंतु कोई भी ईश्वर की भांति नहीं है जो उसका जीवनसाथी बन सके और उसके लिए बच्चे को जन्म दे।
सूरए मरयम, आयतें 93-98,
सूरए मरयम की आयत नंबर 93
إِنْ كُلُّ مَنْ فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ إِلَّا آَتِي الرَّحْمَنِ عَبْدًا (93)
आकाशों और धरती में ऐसा कोई भी नहीं है जो दयावान (ईश्वर) के समक्ष दास के रूप में आने वाला न हो।(19:93)
इससे पहले बताया गया था कि अनेकेश्वरवादी, फ़रिश्तों और अपने कुछ देवताओं को ईश्वर की संतान समझते थे और क़ुरआने मजीद ने उनकी इस अनुचित एवं निराधार आस्था को कड़ाई से रद्द किया। ये आयतें कहती हैं कि न केवल तुम धरती के मनुष्य बल्कि आकाश के फ़रिश्तों सहित सबके सब उसके बंदे और दास हो और इसी रूप में प्रलय में उसके समक्ष उपस्थित होगे। सृष्टि की सभी रचनाओं से ईश्वर का संबंध, पिता व संतान का या कोई भी अन्य संबंध नहीं अपितु स्वामी और दास का संबंध है।
इसके अतिरिक्त आकाशों और धरती में इतने अधिक आज्ञापालक दासों की उपस्थिति के बावजूद ईश्वर को तुम्हारी उपासना और बंदगी की आवश्यकता नहीं है बल्कि तुमको ही अपने स्वामी की आवश्यकता है।
इस आयत से हमने सीखा कि फ़रिश्तों और मनुष्यों सहित पूरी सृष्टि पर ईश्वर का स्वामित्व है और कोई भी अपने जीवन व मृत्यु तक का स्वामी नहीं है।
संपूर्ण सृष्टि, ईश्वर के अधिकार में और उसके आदेश के अधीन है तथा उसी की ओर वापस लौटेगी। ऐसा नहीं है कि सृष्टि का अंत अज्ञात व अस्पष्ट हो।
सूरए मरयम की आयत नंबर 94 और 95
لَقَدْ أَحْصَاهُمْ وَعَدَّهُمْ عَدًّا (94) وَكُلُّهُمْ آَتِيهِ يَوْمَ الْقِيَامَةِ فَرْدًا (95)
ईश्वर उन सभी की संख्या जानता है और उसने उन्हें भली भांति एक एक करके गिना है।(19:94) और प्रलय के दिन वे सब उसके समक्ष अकेले ही उपस्थित होंगे।(19:95)
ये आयतें सृष्टि की सभी वस्तुओं के बारे में ईश्वर के संपूर्ण ज्ञान और उनमें से प्रत्येक की विशेषताओं से उसके अवगत होने की सूचना देती हैं और बताती हैं कि सृष्टि की कोई भी बात उससे छिपी हुई नहीं है।
प्रलय में भी हर व्यक्ति अकेले ही ईश्वर के न्यायालय में उपस्थित होगा और अपने कर्मों का उत्तर देगा। किसी को भी यह नहीं सोचना चाहिए कि वह प्रलय में उपस्थित असंख्य लोगों की भीड़ में छिप कर ईश्वर के शासन क्षेत्र से निकल भागेगा। इसके अतिरिक्त प्रलय में हर व्यक्ति अकेले और ख़ाली हाथ ही पहुंचेगा तथा कोई भी व्यक्ति या कोई भी वस्तु उसके साथ नहीं होगी। उसके साथ न तो उसकी संतान और जीवन साथी होगा और न ही धन व सत्ता।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वर सृष्टि में उपस्थित हर वस्तु के बारे में संपूर्ण जानकारी रखता है।
प्रलय में मनुष्य पूर्ण रूप से अकेला होगा। वहां हर व्यक्ति दूसरों के बारे में नहीं बल्कि केवल अपने कर्मों की चिंता करेगा।
सूरए मरयम की आयत नंबर 96
إِنَّ الَّذِينَ آَمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ سَيَجْعَلُ لَهُمُ الرَّحْمَنُ وُدًّا (96)
निश्चित रूप से जो लोग (ईश्वर पर) ईमान लाए और अच्छे कर्म करते रहे, शीघ्र ही दयावान (ईश्वर अन्य लोगों के हृदय में) उनके प्रति एक प्रकार का प्रेम डाल देगा।(19:96)
पिछली आयतों में बताया गया था कि ईश्वर ने कहा है कि अनेकेश्वरवादियों के देवता तक उनसे विरक्त हो जाएंगे और प्रलय में उनकी सहायता के स्थान पर उनके मुक़ाबले में खड़े हो जाएंगे। यह आयत कहती है कि ईश्वर की उपासना और दासता तथा उसके आदेशों का पालन करते हुए अच्छे कर्म करने से न केवल मनुष्य, ईश्वर का प्रिय बनता है और उसे ईश्वर का समर्थन प्राप्त होता है बल्कि ईश्वर की इच्छा से सदकर्म करने वालों का प्रेम अन्य लोगों के हृदय में भी घर कर जाता है।
यहां तक कि शत्रु भी अपने दिल में अच्छे लोगों को पसंद करते हैं चाहे अपने हितों की रक्षा के लिए व्यवहारिक रूप से वे उनसे शत्रुता करते हैं। इतिहास में इस बात के असंख्य उदाहरण हैं। अनेक हदीसों में कहा गया है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम उन लोगों में से एक हैं जिनके बारे में ईश्वर ने यह आयत भेजी है। इतिहास में वर्णित है कि उनके शत्रु भी उनके न्याय व सदकर्मों की गवाही देते थे। उनकी प्रशंसा में उनके अनेक शत्रुओं के कथन वर्णित हैं।
इस आयत से हमने सीखा कि ईमान व भला कर्म लोगों को अपनी ओर आकृष्ट करता है क्योंकि पवित्रता, सच्चाई, साहस, बलिदान व क्षमा को सभी पसंद करते हैं। बुरे लोग भी इन विशेषताओं और इनसे सुशोभित लोगों की प्रशंसा करते हैं।
सूरए मरयम की आयत नंबर 97 और 98
فَإِنَّمَا يَسَّرْنَاهُ بِلِسَانِكَ لِتُبَشِّرَ بِهِ الْمُتَّقِينَ وَتُنْذِرَ بِهِ قَوْمًا لُدًّا (97) وَكَمْ أَهْلَكْنَا قَبْلَهُمْ مِنْ قَرْنٍ هَلْ تُحِسُّ مِنْهُمْ مِنْ أَحَدٍ أَوْ تَسْمَعُ لَهُمْ رِكْزًا (98)
तो (हे पैग़म्बर!) निश्चित रूप से हमने इस (क़ुरआन) को आपकी ज़बान के माध्यम से सरल बना दिया है ताकि आप इसके द्वारा ईश्वर से डरने वालों को शुभ सूचना दें तथा झगड़ालू लोगों को (ईश्वरीय दंड से) डरा सकें।(19:97) और हमने इनसे पहले वाले कितने ही वंशों को तबाह कर दिया। क्या आप उनमें से किसी को देख रहे हैं या उनकी हल्की सी आवाज़ भी सुन रहे हैं? (19:98)
ये आयतें जो सूरए मरयम की अंतिम आयतें हैं, मनुष्य के मार्गदर्शन और उसके कल्याण में क़ुरआने मजीद के स्थान की ओर संकेत करते हुए कहती हैं कि ईश्वर ने अत्यंत उच्च व जटिल विषयों का सरल भाषा में वर्णन किया है ताकि सभी लोग उनसे लाभान्वित हो सकें और पवित्र व सदकर्मी लोगों का प्रोत्साहन हो तथा दुष्ट व अपवित्र लोग जान लें कि ईश्वरीय दंड निश्चित है। साथ ही वे पिछली जातियों के अंत से पाठ सीख सकें।
वे यह न सोचें कि वे ईश्वर को अपने समक्ष विवश कर सकते हैं और अपनी शत्रुता से सत्य को मिटा सकते हैं। यदि वे अपने ही इतिहास पर दृष्टि डालें तो वे ऐसी अनेक जातियों को देख सकते हैं जिनका नाम और निशान तक बाक़ी नहीं बचा है और उनकी आहट तक सुनाई नहीं देती।
इन आयतों से हमने सीखा कि लोगों के मार्गदर्शन तथा उपदेश का मार्ग यह है कि उन्हें सरल भाषा में धार्मिक शिक्षाओं से अवगत कराया जाए।
हर गुट के साथ उसी की भाषा में बात करनी चाहिए, ईमान वालों के साथ प्रोत्साहन और शुभ सूचना की शैली में और शत्रुओं के साथ डराने और धमकी देने की भाषा में।