सबसे पहले हज़रत मूसा (अ) ने नमाज़ पढ़ी

नमाज़ के महत्व के बारे मे केवल यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने प्रतिनिधि मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को समय पर पढ़ना।
दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ के महत्व को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे ड्राइविंग लैसन्स माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरा महत्वपूर्ण काग़ज़ दिखाएं तो वह उसको स्वीकार नही करेगा।
जिस तरह ड्राइविंग के लिए डराइविंग लाइसन का होना ज़रूरी है और उसके अतिरिक्त तमाम काग़ज़ बेकार हैं। इसी तरह इबादत के क़बूल होने के लिए नमाज़ का कुबूल होना भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।
सबसे पहले हज़रत मूसा (अ) ने नमाज़ पढ़ी
एक बार हज़रत मूसा (अ) अपनी बीवी के साथ जा रहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ तुम मेरी यही प्रतीक्षा करना।
जनाबे मूसा (अ) आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का आदेश दिया गया।
(हे मूसा!) मैंने तुम्हें (पैग़म्बरी के लिए) चुन लिया तो जो कुछ वहि के रूप में तुम तक भेजा जा रहा है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो। (20:13) निसंदेह मैं अल्लाह हूं और मेरे अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं है तो मेरी ही उपासना करो और मेरे स्मरण के लिए नमाज़ स्थापित करो। (21:14)
यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा सम्बन्ध है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है।
हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।
हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।
क़ुरआने करीम के सूरा ए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।
* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं
क़ुरआने करीम के सूरा ए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।
* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरा ए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम (स) भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम (अ) की दुआ का नतीजा है।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं
क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस (नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।
· कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं
नहजुल बलाग़ा के पत्र संख्या 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।
· कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।
कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।
अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,
अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर(पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।
*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं
जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।
· कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।
* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं
जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।
*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं
जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।
* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं
जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।
20-नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें
क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”
नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।
नमाज़ की अस्ल यह है कि उसको जमाअत के साथ पढ़ा जाये। और जब इंसान नमाज़े जमाअत मे होता है तो वह एक इंसान की हैसियत से इंसानो के बीच और इंसानों के साथ होता है। नमाज़ का एक इम्तियाज़ यह भी है कि नमाज़े जमाअत मे सब इंसान नस्ली, मुल्की, मालदारी व ग़रीबी के भेद भाव को मिटा कर काँधे से काँधा मिलाकर एक ही सफ़ मे खड़े होते हैं।
नमाज़े जमाअत इमाम के बग़ैर नही हो सकती क्योंकि कोई भी समाज रहबर के बग़ैर नही रह सकता। इमामे जमाअत जैसे ही मस्जिद मे दाखिल होता है वह किसी खास गिरोह के लिए नही बल्कि सब इंसानों के लिए इमामे जमाअत है। इमामे जमाअत को चाहिए कि वह क़ुनूत मे सिर्फ़ अपने लिए ही दुआ न करे बल्कि तमाम इंसानों के लिए दुआ करे।
इसी तरह समाज के रहबर को भी खुद ग़र्ज़ नही होना चाहिए। क्योंकि नमाज़े जमाअत मे किसी तरह का कोई भेद भाव नही होता ग़रीब,अमीर खूबसूरत, बद सूरत सब एक साथ मिल कर खड़े होते हैं। लिहाज़ा नमाज़े जमाअत को रिवाज देकर नमाज़ की तरह समाज से भी सब भेद भावों को दूर करना चाहिए। इमामे जमाअत का इंतिखाब लोगों की मर्ज़ी से होना चाहिए। लोगों की मर्ज़ी के खिलाफ़ किसी को इमामे जमाअत मुऐयन करना जायज़ नही है। अगर इमामे जमाअत से कोई ग़लती हो तो लोगों को चाहिए कि वह इमामे जमाअत को उससे आगाह करे। यानी इस्लामी निज़ाम के लिहाज़ से इमाम और मामूम दोनों को एक दूसरे का खयाल रखना चाहिए।
इमामे जमाअत को चाहिए कि वह बूढ़े से बूढ़े इंसान का ख्याल रखते हुए नमाज़ को तूल न दे। और यह जिम्मेदार लोगों के लिए भी एक सबक़ है कि वह समाज के तमाम तबक़ों का ध्यान रखते हुए कोई क़दम उठायें या मंसूबा बनाऐं। मामूमीन(इमाम जमाअत के पीछे नमाज़ पढ़ने वाले लोग) को चाहिए कि वह कोई भी कार्य इमाम से पहले अंजाम न दें।
यह दूसरा पाठ है जो आदर सत्कार और नज़म को बाक़ी रखने की तरफ़ इशारा करता है। अगर इमामे जमाअत से कोई ऐसा बड़ा गुनाह हो जाये जिससे दूसरे इंसान बा खबर हो जायें तो इमामे जमाअत को चाहिए कि वह फ़ौरन इमामे जमाअत की ज़िम्मेदारी से अलग हो जाये। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि समाज की बाग डोर किसी फ़ासिक़ के हाथ मे नही होनी चाहिए। जिस तरह नमाज़ मे हम सब एक साथ ज़मीन पर सजदा करते हैं इसी तरह हमे समाज मे भी एक साथ घुल मिल कर रहना चाहिए।
इमामे जमाअत होना किसी खास इंसान का विरसा नही है। हर इंसान अपने इल्म तक़वे और महबूबियत की बिना पर इमामे जमाअत बन सकता है। क्योंकि जो इंसान भी कमालात मे आगे निकल गया वही समाज मे रहबर है।
इमामे जमाअत क़वानीन के दायरे मे इमाम है। इमामे जमाअत को यह हक़ नही है कि वह जो चाहे करे और जैसे चाहे नमाज़ पढ़ाये। रसूले अकरम ने एक पेश नमाज़ को जिसने नमाज़े जमाअत मे सूरए हम्द के बाद सूरए बक़रा की तिलावत की थी उसको तंबीह करते हुए फ़रमाया कि तुम लोगों की हालत का ध्यान क्यों नही रखते बड़े बड़े सूरेह पढ़कर लोगों को नमाज़ और जमाअत से भागने पर मजबूर करते हो।
