एक मुसलमान दुसरे मुसलमान का अगर हक ना अदा करे तो विलायत से बहार |इमाम सादिक़ (अ)
शियों की प्रसिद्ध किताब अलकाफ़ी में एक रिवायत है जो एक समाज में मुसलमानों को दूसरे मुसलमान से किस प्रकार पेश आना चाहिये इसमें बताया...
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मोअल्लाह बिन ख़ुनैस इमाम सादिक़ (अ) से रिवायत करते हैं कि मैं ने इमाम से पूछा कि एक मुसलमान का दूसरे मुसलमान पर क्या हक़ है?
आपने फ़रमायाः (एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान के) सात वाजिब हक़ हैं कि अगर उनमें से किसी एक को भी छोड़ दिया जाए तो वह विलायत से निकल गया |
पहला हक़ :जो अपने लिये पसंद करो उसके लिये भी पसंद करो|
सबसे आसान हक़ यह है कि जो कुछ भी अपने लिये पसंद करो अपने मोमिन भाई के लिये भी उसको पसंद करो और जो अपने लिये पसंद न करो उसके लिये भी पसंद न करो।
अगर हमको यह अच्छा नहीं लगता है कि कोई पीठ पीछे हमारी बुराई करे, और अगर हम किसी से सुनते हैं कि कोई हमारी बुराई कर रहा था तो हम को बुरा लगता है तो हम भी किसी दूसरे की बुराई न करें और उसको दूसरों की नज़रों में नीचा करें।
हमको इसे अपने जीवन में लागू करना होगा और इसका आरम्भ यह है कि हम अपने से इसकी शुरूआत करें, हमारी बीवी या घर का कोई दूसरा सदस्य जब यह कहें कि फ़लां ने यह कहा तो उसको किसी दूसरे की बुराई करने की अनुमति न दें, घर में बच्चों को दूसरों की बातें करने की छूट न दें, जिस तरह हम को यह पसंद नहीं है कि किसी के घर में हमारी बुराई की जाए उसी प्रकार हम को भी अपने घर में दूसरे की बुराई नहीं करनी चाहिए।
दूसरा हक़ :उसको नाराज़ न करो|
कभी कभी ऐसा होता है कि हम किसी के बारे में कोई बात सुनते हैं और हमको पता है कि अगर उस भाई को इस बात का पता चला तो वह नाराज़ होगा लेकिन हम उसके साथ अपनी दोस्ती और मोहब्बत दिखाने के चक्कर में उसको वह बात बता देते हैं, तो हम अपने इस कार्य से एक ही समय में दो हक़ पामाल कर रहे होते हैं एक हमने किसी की बात को क्यों यहां कहां और दूसरा हक़ यह बरबाद हो रहा होता है कि जब हम इस बात को अपने मोमिन भाई से बताते हैं तो उसको नाराज़, क्रोधित और दुःखी कर रहे होते हैं, हमको चाहिए कि बातचीत करते समय इस बात का ध्यान रखें कि कोई ऐसी बात न कही या सुनी जाए जिससे दूसरे नाराज़ या दुःखी हों।
तीसरा हक़:जितना हो सके उसकी मदद करो|
उसकी मदद करो, पैसे से, जान से माल से ज़बान से हाथ पैरे से, यानी अपने पूरे वजूद से उसकी मदद करो, अगर पैसे से मदद कर सको तो पैसा दो, अगर जबान से मदद कर सको तो ज़बान से करो, अगर उसके हक़ में बोल सको तो चुप न रहो बल्कि बोलो, दूसरों को उसके विरुद्ध बोल कर उसको अपमानित न करने दो।
यहां पर ध्यान देने वाली बात यह है कि रिवायत में वाजिब हक़ की बात कही गई है और उसी में यह भी कहा गया है कि अगर मोमिन को ज़रूरत है और तुम्हारे पास पैसा है तो तुम पर वाजिब है कि उस में से कुछ पैसा उसको दे दो, यहां पर ख़ुम्स, ज़कात या फिर क़र्ज़ देने की बात नहीं हो रही है।
यानी अगर किसी मोमिन का बच्चा बीमार है या वह स्वंय बीमार है और उसको पैसे की ज़रूरत है और मैने अपने माल का ख़ुम्स और ज़कात निकाल दिया है तब भी इस्लाम यह कहता है कि तुम पर वाजिब है कि जितना तुम से संभव है उसकी मदद करो उसको पैसा दो ताकि उसकी ज़रूरत पूरी हो सके।
चौथा हक़ :उसके लिये मार्गदर्शक और आईना बनो|
अगर तुम देखों कि तुम्हारा भाई किसी खाई में गिर रहा है तो उसकी आँख बन जाओ, जब देखों कि मोमिन भाई किसी बुराई की तरफ़ जा रहा है और उस चीज़ की जानकारी उस मोमिन को बचाने के लिये देना ज़रूरी है तो उसको बताओ, अगर कोई उसको विरुद्ध साज़िश रच रहा है तो उसको सावधान करो, अगर कोई उसको मारने, उसके सम्मान को ठेस पहुँचाने या.... की कोशिश कर रहा है तो तुम अपने मोमिन भाई के लिए आँख, कान बन जाओ उसके लिये मार्गदर्शक का रोल अदा करो।
पाँचवा हक़ :उसको भूखा या प्यासा न रहने दो|
एक मोमिन का दूसरे मोमिन पर पाँचवां हक़ यह है कि ऐसा न हो कि तुम्हारा पेट भरा हो और वह भूखा रहे, तुम तृप्त हो लेकिन वह प्यासा हो, तुम्हारे पास बेहतरीन कपड़ा हो लेकिन उसके पास पहनने को कपड़े न हो.।
छटा हक़: कार्यों को अंजाम देने में उसकी सहायता करो
अगर तुम्हारे पास काम करने के लिये लोग हैं लेकिन उसके काम रुका हुआ है तो अपने नौकरों को भेजो ताकि वह कार्यों में उसकी सहायता करें।
सातवाँ हक़: कहने से पहले उसकी ज़रूरतों को पूरा कर दो।
एक मुसलमान पर दूसरे मुसलमान का सातवाँ हक़ यह है कि, उसकी क़सम पर विश्वास करो उसके निमंत्रण को स्वीकार करे और उसके अंतिम संस्कार में जाओ, बीमारी में उसकी मुलाक़ात को जाओ, उसकी ज़रूरतों को पूरा करने के लिये अपने शरीर को कष्ट दो और उसको इस बात को मोहताज न करो कि वह तुमसे मांगे तब तुम उसकी ज़रूरत को पूरा करो
अगर तुम ने यह हक़ अदा कर दिये तो तुम ने अपनी विलायत को उसकी विलायत से और उसकी विलायत को ख़ुदा की विलायत से मिला दिया है ।
(यह लेख थोड़े बदलाव के साथ आयतुल्लाह मकारिम शीराज़ी की तक़रीर का अनुवाद है)
उसूले काफ़ी जिल्द 3, पेज 246, हदीस 2