इस्लामी मानवाधिकार का घोषणापत्र
मानवाधिकार उन अधिकारों में से है जो मानवीय प्रवृत्ति का अनिवार्य अंश है। मानवाधिकार का स्थान, सरकारों की सत्ता से ऊपर होता है और विश्व की...
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मानवाधिकार उन अधिकारों में से है जो मानवीय प्रवृत्ति का अनिवार्य अंश है। मानवाधिकार का स्थान, सरकारों की सत्ता से ऊपर होता है और विश्व की सभी सरकारों को उसका सम्मान करना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों ने वर्ष १९४८ में विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र को तीस अनुच्छेदों के साथ पारित किया। पश्चिमी संस्कृति और लेबरल मान्यताओं के आधार पर पारित इस घोषणापत्र का आरंभ से ही विरोध होने लगा था और समय बीतने के साथ ही साथ, इस विरोध में भी वृद्धि हुई क्योंकि इस घोषणापत्र के बहुत से
अनुच्छेद विश्व के विभिन्न राष्ट्रों की मान्यताओं और संस्कृति से मेल नहीं खाते। मुसलमान बुद्धिजीवियों के अनुसार, यद्यपि इस घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेद उचित हैं किंतु उसके अधिकांश अनुच्छेद अधूरे और अस्वीकारीय हैं। इसी लिए मुसलमान सरकारों और बुद्धिजीवियों ने एक ऐसे घोषणापत्र के संकलन का फैसला किया जो इस्लामी मानवाधिकार के आधार पर हो और जिसे इस रूप में पूरे विश्व के सामने पेश किया जा सके। मानवाधिकारों पर ध्यान, पश्चिम के प्रचारों के विपरीत, पश्चिम से आंरभ नहीं हुआ बल्कि इस्लाम ने अपने उदय के समय से ही, व्यापक मानवाधिकार का सिद्धान्त पेश किया है।
मनुष्य के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में इस्लाम के विकसित दृष्टिकोणों के दायरे में इस्लामी कांफ्रेंस संगठन ने इस्लामी देशों के प्रतिनिधि के रूप में, वर्ष १९७९ और १९८१ में इस संदर्भ में दो दस्तावेज़ प्रकाशित किए। पांच अगस्त वर्ष १९९० को ओआईसी के विदेशमंत्रियों की १९वीं बैठक में जो क़ाहिरा में आयोजित हुई,
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र पारित हुआ और इस दिन को मानवाधिकार और मानवीय सम्मान दिवस घोषित किया गया। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यद्यपि, मानवाधिकार के संदर्भ में इस्लाम के समस्त दृष्टिकोणों का वर्णन नहीं किया गया है किंतु इसके बावजूद यह घोषणापत्र, मानवाधिकारों के संदर्भ में पश्चिमी दृष्टिकोण की तुलना में इस्लामी शिक्षाओं की श्रेष्ठता को भलीभांति स्पष्ट करता है। इस घोषणापत्र का संकलन करने वालों ने इसकी भूमिका में मनुष्य के बारे में इस्लाम की कुछ शिक्षाओं का वर्णन किया गया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र क़ुरआन मजीद के सूरए हुजोरात की आयत नंबर १३ से आरंभ होता है कि जिसमें कहा गया हैः हे लोगो! हमने तुम लोगों को एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया और तुम्हें जातियों और समुदायों में बांट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको।
निश्चित रूप में तुम लोगों में ईश्वर के निकट सब से अधिक सम्मानीय वह है जो सब से अधिक पापों से बचने वाला हो।
इस घोषणापत्र के आरंभ में इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि इस्लाम में ईश्वर के निकट मनुष्य का क्या स्थान है और यह कि मनुष्य धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसके बाद एकेश्वरवाद और एक ही ईश्वर की उपासना का विषय प्रस्तुत किया गया है कि जिसका अनिवार्य परिणाम किसी अन्य के सामने शीश नवाने से दूरी है।
अन्य लोगों की उपासना को नकारना, मनुष्य की वास्तविक स्वतंत्रता की आधारशिला है। इसी प्रकार इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में मानव सभ्यता की रक्षा के लिए आस्था व आध्यात्म को आवश्यक बताया गया है और बल दिया गया है कि इस्लाम में आध्यात्म और संसारिक विषयों को एक साथ मिला कर पेश किया गया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में जिस अंतिम विषय पर बल दिया गया है वह यह है कि मनुष्य के मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता इस्लाम का अंश है और किसी को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह उनका हनन करे।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र को मानवाधिकार घोषणापत्र से अलग करने वाली प्रमुख विशेषता मनुष्य के आध्यात्मिक आयाम पर बल दिया जाना है। क्योंकि इस्लाम मनुष्य के कल्याण के लिए उसके आध्यात्मिक आयाम के साथ ही उसके सांसारिक आयाम पर भी ध्यान देता है।
इसी आधार पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेदों का आधार इस्लाम की मानवीय शिक्षाएं और मानवीय सम्मान है। इस घोषणापत्र ने जिन विषयों पर बल दिया है उनमें से एक अधिकार, आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्ति तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण का अधिकार है ताकि इस प्रकार उसे परलोक में भी सफलता प्राप्त हो।
इस्लाम की दृष्टि में इस संसार में मनुष्य के जीवन की शैली, परलोक में उसकी जीवन शैली का निर्धारण करती है।जीने के अधिकार को, मुनष्य का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिकार कहा जा सकता है। मूल रूप से अन्य सभी मानवाधिकार, उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब मनुष्य के जीने के अधिकार पर ध्यान दिया गया हो। इसी लिए इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यह सिद्धान्त, इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के अनुसार पेश किया गया है और उसके दूसरे अनुच्छेद में कहा गया हैः जीवन ईश्वर का उपहार और ऐसा अधिकार है जिसे हर मनुष्य के लिए निश्चित बनाया गया है और सारे लोगों और समाजों तथा सरकारों का यह कर्तव्य है कि
वह इस अधिकार की रक्षा करें। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि क़ुरआने मजीद ने इस अधिकार के हनन को सारे मनुष्यों की हत्या के समान कहा है। इसी लिए इस्लाम ने युद्ध व रक्तपात को अस्वीकारीय बताया है और केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है किंतु इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों बल्कि पशुओं और पेड़ पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी आवश्यक बताया गया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के तीसरे अनुच्छेद में इन सभी विषयों की ओर संकेत किया गया है। इस अनुच्छेद में युद्ध के दौरान आम नागरिकों की रक्षा, घायलों के उपचार, बंदियों पर ध्यान देने और पेड़ों को काटने से बचने, खेतों की सुरक्षा और इमारतों को गिराने से बचने जैसे विषयों पर बल दिया गया है।
इसके साथ ही इस्लाम में पर्यावरण की रक्षा पर भी बहुत ध्यान दिया गया है और उसकी रक्षा के लिए बहुत सी सिफारिशें भी हैं। कुरआने मजीद में इस विषय की ओर संकेत किया गया है और ईश्वर ने, धरती और उसके उपहारों से लाभ उठाने की मनुष्य को अनुमति दी है इस शर्त के साथ कि मनुष्य इन उपहारों की रक्षा करे और अपव्यय के मार्ग पर न चले।
मानव सम्मान वह अन्य विषय पर जिस पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में ध्यान दिया गया है। इस्लाम, मानव सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा को अत्याधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान समझता है। इस धर्म के अनुसार, मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना और धरती पर उसका उत्तराधिकारी है।
क़ुरआने मजीद के सूरए इसरा की आयत नंबर ७० में हम मानव सम्मान के बारे में पढ़ते हैः हम ने आदम की संतान को सम्मान दिया, और उन्हें जल थल में सवारियों द्वारा उठाया और विभिन्न प्रकार की पवित्र अजीविकाओं में से उन्हें अजीविका दी और उन्हें अपनी बहुत सी रचनाओं से श्रेष्ठ बनाया।
इस प्रकार से इस्लाम ने यह स्पष्ट किया कि मनुष्य, भलाई द्वारा अपना सम्मान बढ़ा सकते हैं और इसी प्रकार भष्टाचार और पापों द्वारा अपना सम्मान गंवा भी सकते हैं। प्रत्येक दशा में मानव सम्मान, उनके मध्य समानता के सिद्धान्त का आधार है।
समानता एक ऐसा इस्लामी सिद्धान्त है जिसका इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। इस घोषणापत्र के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः सामूहिक रूप से मानव समाज का हर सदस्य, एक परिवार का भाग है जिन्हें ईश्वर की उपासना और आदम की संतान होने के कारण एक समान समझा जाता है।
सारे लोग, मानवीय सम्मान और कर्तव्यों की दृष्टि से समान हैं बिना किसी जाति, वर्ण, भाषा, लिंग, धर्म या विचारधारा या सामाजिक स्थान के अंतर्गत भेदभाव के। इस आधार पर मानवता में सारे लोग एक समान हैं और जो विषय उनके मध्य एक दूसरे से श्रेष्ठता का कारण बनता है वह पापों से बचना और ईश्वर से निकटता है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इस अनुच्छेद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सारे लोग, ईश्वर के परिवार की भांति हैं और उनमें से ईश्वर के निकट सबसे अधिक प्रिय वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए सब से अधिक लाभदायक होता है और किसी को भी किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है और यदि है तो उसका मापदंड ईश्वर से भय और पापों से दूरी ही है जो निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक विशेषता है और ईश्वर उसका प्रतिफल देता है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र का छठां अनुच्छेद, महिल व पुरुष के मध्य समानता पर बल देता है इसमें कहा गया हैः मानवीय दृष्टि से महिला व पुरुष समान हैं और जिस प्रकार से महिलाओं के कर्तव्य हैं उसी प्रकार उन्हें अधिकार भी दिये गये हैं और महिला को, एक स्वाधीन सामाजिक व आर्थिक व्यक्तित्व वाला सदस्य समझा गया है। जैसाकि हम देखते हैं इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत से अधिकार रखे गये हैं और उन्हें व्यक्तित्व की दृष्टि से पुरुषों की भांति समझा गया है। किंतु यह भी निश्चित है कि महिला और पुरुष के मध्य मौजूद कुछ अंतरों के कारण कुछ अधिकारों और कर्तव्यों में भी अंतर पाया जाता है।
जैसा कि इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इसी अनुच्छेद में पुरुष को परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तथा रक्षक बताया गया है।क़ानून की दृष्टि में समानता ऐसा अधिकार है जिस पर इस्लाम ने बल दिया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद नंबर १९ में धर्म व क़ानून की नज़र में सब को समान बताया गया है और कहा गया हैः न्यायालय का द्वार खटखटाना और उसकी शरण में जाना ऐसा अधिकार है जो सब से लिए निश्चित है। इस अनुच्छेद में अपराध और दंड के बारे में निर्णय का एकमात्र स्रोत धर्म को बताया गया है।
दूसरे शब्दों में इस्लाम के नियम, अपराध की क़िस्म और उस पर दंड का निर्धारण करते हैं ताकि इसमें मानवीय गलती का स्थान न रहे। इसी के साथ, इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में इस विषय पर भी बल दिया गया है कि आरोपी, निर्दोष होता है यहां तक कि उसका दोष, न्यायिक मार्गों द्वारा तथा सफाई देने की सुविधा के बाद सिद्ध हो जाए। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद क्रमांक २० में भी बल दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति कीगिरफतारी केवल नियमों के अनुसार होनी चाहिए। इस अनुच्छेद में हर प्रकार की मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना से मना किया गया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों ने वर्ष १९४८ में विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र को तीस अनुच्छेदों के साथ पारित किया। पश्चिमी संस्कृति और लेबरल मान्यताओं के आधार पर पारित इस घोषणापत्र का आरंभ से ही विरोध होने लगा था और समय बीतने के साथ ही साथ, इस विरोध में भी वृद्धि हुई क्योंकि इस घोषणापत्र के बहुत से
अनुच्छेद विश्व के विभिन्न राष्ट्रों की मान्यताओं और संस्कृति से मेल नहीं खाते। मुसलमान बुद्धिजीवियों के अनुसार, यद्यपि इस घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेद उचित हैं किंतु उसके अधिकांश अनुच्छेद अधूरे और अस्वीकारीय हैं। इसी लिए मुसलमान सरकारों और बुद्धिजीवियों ने एक ऐसे घोषणापत्र के संकलन का फैसला किया जो इस्लामी मानवाधिकार के आधार पर हो और जिसे इस रूप में पूरे विश्व के सामने पेश किया जा सके। मानवाधिकारों पर ध्यान, पश्चिम के प्रचारों के विपरीत, पश्चिम से आंरभ नहीं हुआ बल्कि इस्लाम ने अपने उदय के समय से ही, व्यापक मानवाधिकार का सिद्धान्त पेश किया है।
मनुष्य के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में इस्लाम के विकसित दृष्टिकोणों के दायरे में इस्लामी कांफ्रेंस संगठन ने इस्लामी देशों के प्रतिनिधि के रूप में, वर्ष १९७९ और १९८१ में इस संदर्भ में दो दस्तावेज़ प्रकाशित किए। पांच अगस्त वर्ष १९९० को ओआईसी के विदेशमंत्रियों की १९वीं बैठक में जो क़ाहिरा में आयोजित हुई,
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र पारित हुआ और इस दिन को मानवाधिकार और मानवीय सम्मान दिवस घोषित किया गया। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यद्यपि, मानवाधिकार के संदर्भ में इस्लाम के समस्त दृष्टिकोणों का वर्णन नहीं किया गया है किंतु इसके बावजूद यह घोषणापत्र, मानवाधिकारों के संदर्भ में पश्चिमी दृष्टिकोण की तुलना में इस्लामी शिक्षाओं की श्रेष्ठता को भलीभांति स्पष्ट करता है। इस घोषणापत्र का संकलन करने वालों ने इसकी भूमिका में मनुष्य के बारे में इस्लाम की कुछ शिक्षाओं का वर्णन किया गया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र क़ुरआन मजीद के सूरए हुजोरात की आयत नंबर १३ से आरंभ होता है कि जिसमें कहा गया हैः हे लोगो! हमने तुम लोगों को एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया और तुम्हें जातियों और समुदायों में बांट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको।
निश्चित रूप में तुम लोगों में ईश्वर के निकट सब से अधिक सम्मानीय वह है जो सब से अधिक पापों से बचने वाला हो।
इस घोषणापत्र के आरंभ में इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि इस्लाम में ईश्वर के निकट मनुष्य का क्या स्थान है और यह कि मनुष्य धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसके बाद एकेश्वरवाद और एक ही ईश्वर की उपासना का विषय प्रस्तुत किया गया है कि जिसका अनिवार्य परिणाम किसी अन्य के सामने शीश नवाने से दूरी है।
अन्य लोगों की उपासना को नकारना, मनुष्य की वास्तविक स्वतंत्रता की आधारशिला है। इसी प्रकार इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में मानव सभ्यता की रक्षा के लिए आस्था व आध्यात्म को आवश्यक बताया गया है और बल दिया गया है कि इस्लाम में आध्यात्म और संसारिक विषयों को एक साथ मिला कर पेश किया गया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में जिस अंतिम विषय पर बल दिया गया है वह यह है कि मनुष्य के मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता इस्लाम का अंश है और किसी को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह उनका हनन करे।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र को मानवाधिकार घोषणापत्र से अलग करने वाली प्रमुख विशेषता मनुष्य के आध्यात्मिक आयाम पर बल दिया जाना है। क्योंकि इस्लाम मनुष्य के कल्याण के लिए उसके आध्यात्मिक आयाम के साथ ही उसके सांसारिक आयाम पर भी ध्यान देता है।
इसी आधार पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेदों का आधार इस्लाम की मानवीय शिक्षाएं और मानवीय सम्मान है। इस घोषणापत्र ने जिन विषयों पर बल दिया है उनमें से एक अधिकार, आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्ति तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण का अधिकार है ताकि इस प्रकार उसे परलोक में भी सफलता प्राप्त हो।
इस्लाम की दृष्टि में इस संसार में मनुष्य के जीवन की शैली, परलोक में उसकी जीवन शैली का निर्धारण करती है।जीने के अधिकार को, मुनष्य का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिकार कहा जा सकता है। मूल रूप से अन्य सभी मानवाधिकार, उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब मनुष्य के जीने के अधिकार पर ध्यान दिया गया हो। इसी लिए इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यह सिद्धान्त, इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के अनुसार पेश किया गया है और उसके दूसरे अनुच्छेद में कहा गया हैः जीवन ईश्वर का उपहार और ऐसा अधिकार है जिसे हर मनुष्य के लिए निश्चित बनाया गया है और सारे लोगों और समाजों तथा सरकारों का यह कर्तव्य है कि
वह इस अधिकार की रक्षा करें। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि क़ुरआने मजीद ने इस अधिकार के हनन को सारे मनुष्यों की हत्या के समान कहा है। इसी लिए इस्लाम ने युद्ध व रक्तपात को अस्वीकारीय बताया है और केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है किंतु इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों बल्कि पशुओं और पेड़ पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी आवश्यक बताया गया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के तीसरे अनुच्छेद में इन सभी विषयों की ओर संकेत किया गया है। इस अनुच्छेद में युद्ध के दौरान आम नागरिकों की रक्षा, घायलों के उपचार, बंदियों पर ध्यान देने और पेड़ों को काटने से बचने, खेतों की सुरक्षा और इमारतों को गिराने से बचने जैसे विषयों पर बल दिया गया है।
इसके साथ ही इस्लाम में पर्यावरण की रक्षा पर भी बहुत ध्यान दिया गया है और उसकी रक्षा के लिए बहुत सी सिफारिशें भी हैं। कुरआने मजीद में इस विषय की ओर संकेत किया गया है और ईश्वर ने, धरती और उसके उपहारों से लाभ उठाने की मनुष्य को अनुमति दी है इस शर्त के साथ कि मनुष्य इन उपहारों की रक्षा करे और अपव्यय के मार्ग पर न चले।
मानव सम्मान वह अन्य विषय पर जिस पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में ध्यान दिया गया है। इस्लाम, मानव सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा को अत्याधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान समझता है। इस धर्म के अनुसार, मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना और धरती पर उसका उत्तराधिकारी है।
क़ुरआने मजीद के सूरए इसरा की आयत नंबर ७० में हम मानव सम्मान के बारे में पढ़ते हैः हम ने आदम की संतान को सम्मान दिया, और उन्हें जल थल में सवारियों द्वारा उठाया और विभिन्न प्रकार की पवित्र अजीविकाओं में से उन्हें अजीविका दी और उन्हें अपनी बहुत सी रचनाओं से श्रेष्ठ बनाया।
इस प्रकार से इस्लाम ने यह स्पष्ट किया कि मनुष्य, भलाई द्वारा अपना सम्मान बढ़ा सकते हैं और इसी प्रकार भष्टाचार और पापों द्वारा अपना सम्मान गंवा भी सकते हैं। प्रत्येक दशा में मानव सम्मान, उनके मध्य समानता के सिद्धान्त का आधार है।
समानता एक ऐसा इस्लामी सिद्धान्त है जिसका इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। इस घोषणापत्र के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः सामूहिक रूप से मानव समाज का हर सदस्य, एक परिवार का भाग है जिन्हें ईश्वर की उपासना और आदम की संतान होने के कारण एक समान समझा जाता है।
सारे लोग, मानवीय सम्मान और कर्तव्यों की दृष्टि से समान हैं बिना किसी जाति, वर्ण, भाषा, लिंग, धर्म या विचारधारा या सामाजिक स्थान के अंतर्गत भेदभाव के। इस आधार पर मानवता में सारे लोग एक समान हैं और जो विषय उनके मध्य एक दूसरे से श्रेष्ठता का कारण बनता है वह पापों से बचना और ईश्वर से निकटता है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इस अनुच्छेद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सारे लोग, ईश्वर के परिवार की भांति हैं और उनमें से ईश्वर के निकट सबसे अधिक प्रिय वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए सब से अधिक लाभदायक होता है और किसी को भी किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है और यदि है तो उसका मापदंड ईश्वर से भय और पापों से दूरी ही है जो निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक विशेषता है और ईश्वर उसका प्रतिफल देता है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र का छठां अनुच्छेद, महिल व पुरुष के मध्य समानता पर बल देता है इसमें कहा गया हैः मानवीय दृष्टि से महिला व पुरुष समान हैं और जिस प्रकार से महिलाओं के कर्तव्य हैं उसी प्रकार उन्हें अधिकार भी दिये गये हैं और महिला को, एक स्वाधीन सामाजिक व आर्थिक व्यक्तित्व वाला सदस्य समझा गया है। जैसाकि हम देखते हैं इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत से अधिकार रखे गये हैं और उन्हें व्यक्तित्व की दृष्टि से पुरुषों की भांति समझा गया है। किंतु यह भी निश्चित है कि महिला और पुरुष के मध्य मौजूद कुछ अंतरों के कारण कुछ अधिकारों और कर्तव्यों में भी अंतर पाया जाता है।
जैसा कि इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इसी अनुच्छेद में पुरुष को परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तथा रक्षक बताया गया है।क़ानून की दृष्टि में समानता ऐसा अधिकार है जिस पर इस्लाम ने बल दिया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद नंबर १९ में धर्म व क़ानून की नज़र में सब को समान बताया गया है और कहा गया हैः न्यायालय का द्वार खटखटाना और उसकी शरण में जाना ऐसा अधिकार है जो सब से लिए निश्चित है। इस अनुच्छेद में अपराध और दंड के बारे में निर्णय का एकमात्र स्रोत धर्म को बताया गया है।
दूसरे शब्दों में इस्लाम के नियम, अपराध की क़िस्म और उस पर दंड का निर्धारण करते हैं ताकि इसमें मानवीय गलती का स्थान न रहे। इसी के साथ, इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में इस विषय पर भी बल दिया गया है कि आरोपी, निर्दोष होता है यहां तक कि उसका दोष, न्यायिक मार्गों द्वारा तथा सफाई देने की सुविधा के बाद सिद्ध हो जाए। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद क्रमांक २० में भी बल दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति कीगिरफतारी केवल नियमों के अनुसार होनी चाहिए। इस अनुच्छेद में हर प्रकार की मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना से मना किया गया है।