ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध
ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध यह वोह वक़्त है जब जनता सुनने के लिए तैयार होती है! कर्बला का वाक़िया एक मोए...
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ख़ुत्बा और बानियाने मजलिस के नाम एक महत्वपूर्ण अनुरोध
यह वोह वक़्त है जब जनता सुनने के लिए तैयार होती है! कर्बला का वाक़िया एक मोएज्ज़ा है! और मुहर्रम वोह वक़्त है जब लोग दीने इस्लाम का पैगाम सुनते हैं! समाज के हर वर्ग और विभाग के लोग अपने मौला इमाम हुसैन (अ:स) की मुहब्बत के लिए मजलिस में शिरकत करते हैं! कोई और मौक़ा ऐसा नहीं होता की लोग मजलिस या धार्मिक व्याख्यान सुनने के लिए इतना वक़्त देते हैं! ज़्याराते अर'बईन में इमाम हुसैन (अ:स) की कुर्बानी का मकसद लोगों को जेहालत से निकालना पाया जाता है! यह हमारी ज़िम्मेदारी है की इस अज़ीम मकसद के हसूल के लिए हम अपनी कोशिशेंजारी व सारी रखें!
ज़्यादातर लोग ज़िम्मेदारी उठाना नहीं चाहते, बल्कि दुश्मनों की निंदा सुनने में दिलचस्पी लेते हैं और मज़ा उठाते हैं!
यह एक ऐसी मानव प्रकृति है की वो ऐसा कुछ नहीं सुनना चाहते हैं जहाँ इसे सोचने और इसके बाद अपने मिज़ाज के खिलाफ अमल करने की ज़रुरत पड़े! लोग अपने ऊपर ज़िम्मेदारी लेना पसंद नहीं करते हैं, खासकर उस वक़्त जिसमे कारवाई करने या परिवर्तन लाने की मांग हो! दूसरों की निंदा और अपने अकीदे और मान्याताओं की पुष्ठी को सुनना बहुत ही आसान और सुकूँ का काम है! अलबत्ता इस बात का भी ख्याल रख़ा जाए की किसी भी तरह अनुचित भाषा का उपयोग जबकि वो किसी व्यक्ति विशेष या किसी ख़ास गिरोह के लिए इस्तेमाल की जाती है, वोह समाज में नफरत और हिंसा के इंधन का काम करती है! यह बात इस्लाम के कमज़ोर होने का कारण भी बनती है! वर्तमान काल में यह आवश्यक है की इस्लाम में मुसलमानों के बीच आपस में शांती एवं एकता हो! इसके अतिरिक्त बहुत सारे उलटे सीधे तर्क को आसानी से तार्किक चर्चा में मुकाबला करके रद किया जा सकता है! यह बता भी काफी गंभीरता से सोचनी चाहिए की बहुत सारी जगहों पर हमारी बहस नहीं बल्कि हमारी क्रिया और अमल लोगों को प्रभावित करती है! निंदा और ताना देने वाली बातों से न ही किसी अकेले इंसान में और न ही किसी समाज में सुधार लाया जा सकता है! लोग अपने आप को इस्लामी अध्यन करने में अपने वक़्त की बर्बादी समझते हैं! समय की पुकार है की हम अपने आप को और अपने समाज को बदलने की पुरो कोशिश करें! यह शायद संभव हो की अगर कोई खतीब (ज़ाकिर) केवल दूसरों की निंदा करे और लोगों को बदलने या अपना कर्त्तव्य निभाने पर ज़ोर न दे तो उसके मजलिस में मजमा (लोग) भी ज़्यादा होंगे और उसकी तारीफ भी बहुत होगी! परन्तु ईन सब बातों से वो मकसदे अहलेबैत को बढ़ावा देने में सहायक नहीं होगा!
अहलेबैत जो हम से चाहते है और उम्मीद रखते हैं - इसका क्या होगा?
इस में कोई शक नहीं है की हम अहलेबैत (अ:स) के माध्यम से ही अपने मोक्ष की उम्मीद करते हैं! अज़ादारी स्वयं अपने आप में एक ज़बरदस्त और बड़ी इबादत है! हमारी मजलिसों में हमारे विश्वास (अकीदा) और अहलेबैत (अ:स) का ज़िक्र होना चाहिए! एतिहासिक बातें भी होनी ज़रूरी हैं ताकि हमारी कौम और हमारे बच्चे अपने प्रशंसनीय इतिहास को जान सकें और यह समझ सकें की किसी घटना, युद्ध और व्यक्ति विशेष का महत्त्व इस्लाम को बढाने और फैलाने और उजागर करने में क्या रहा है! यह तमाम बातें इस समय लाभदायक होंगी जब हम यह जाँ लेंगे की मजलिस के लिए हमारी जिम्मेदारियां क्या क्या हैं!
हमें मजलिस में अहलेबैत (अ:स) का पैगाम पहुंचाना है! अहलेबैत ने अपना सब कुछ इस्लाम की हिफाज़त में खर्च किया/लुटाया है! ईन की हर समय ताहि कोशिश रही की शरियते इस्लाम यानी सही अकीदे और अहकाम (नियम) जैसे हराम, हलाल, मुस्तहब, मकरूह और मोबाह की हिफाज़त हो सके! इन्हों ने हमेशा लोगों के सामने सही इस्लाम का प्रचार और प्रसार किया! तमाम अंबिया और इमामों की यही कोशिश रही है की तमाम मानवजाति अल्लाह की मर्ज़ी को पहचाने और इसके सामने अपनी इच्छाओं को झुकाए और शीश को नमन करे!
अहलेबैत (अ:स) से मुहब्बत का तरीका है की हम उनका कहना माने, उनके बताये हुए रास्ते पर चलें जो की वास्तविकता में अल्लाह का बताया हुआ रास्ता है! इसके लिए ज़रूरी है की हम इनकी दी हुई शिक्षाओं को समझें! अगर हम अपनी ज़िंदगी इस तरह गुजारेंगे जैसे हम से इस्लाम चाहता है तो यकीनन हमारी दुन्या और आखेरत दोनों कामयाब हो जायेंगी! इसी कारणवश हमारी मजलिसें इस वक़्त कामयाब और लाभदायक होंगी जब हम ज़िक्रे विलायत के साथ साथ आइम्माए-मासूमीन (अ:स) की हम से आशाओं और उम्मीदों का भी तज़किरा करें!
मजलिसों में क्या होना चाहिए ?
हमें अपने आप को और समाज को बेहतर बनाना होगा! इस्लाम ने हमें वो तमाम तरीक़े बताएं हैं, जिस से हम अपनी और समाज की संहिता को बेहतर कर सकते हैं! जैसे बेहतर घरेलू ज़िंदगी, गुनाहों से बचना, दूसरों की मदद और इस्लामी दुन्या के हालत से बाखबर रहना इत्यादि! परिवर्तन के लिए कुछ दिनों की मजलिस नाकाफी है, इसलिए मजलिस में आने वालों को यह याद दिलाना ज़रूरी है की इल्म हासिल करने का कार्य साल भर जारी रहना चाहिए! इस सिलसिले में इन्हें चाहिए की किताबों, कैसेटों, सीडी, इन्टरनेट इत्यादि का प्रयोग करें, इस से लाभ उठायें जो आजकल आसानी से मिल जाती हैं! इस से निजी व्यक्तित्व और समाज की बढ़ोतरी होती है! जब हमारे इमाम-ज़माना (अ:त:फ) ज़हूर फरमाएंगे तो आप को ऐसे पाक लोगों की ज़रुरत होगी जो बाखबर भी हों और इस्लामी इल्म भी रखते हों! यह एक इस्लामी ज़िम्मेदारी है जाकिरों की भी और समाज का बा-असर लोगों की भी की वो मजलिस के ज़रिये लोगों में यह सारी सलाहियत और खूबी पैदा कर सकें! यह ज़िम्मेदारी मजलिस में जाने वालों की भी है की वो किस किस्म की मजलिसों को बढ़ावा देते हैं और सराहते हैं!