रिश्तेदारों से कुर्बत अल्लाह का हुक्म है मशविरा नहीं |
इस्लाम एक सामाजिक धर्म है और कुरान में अल्लाह ने सामाजिक रिश्तों को बनाने पे बहुत जोर दिया और यहाँ तक की रिश्तेदारों के,पड़ोसियों के,काबि...
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इस्लाम एक सामाजिक धर्म है और कुरान में अल्लाह ने सामाजिक रिश्तों को बनाने पे बहुत जोर दिया और यहाँ तक की रिश्तेदारों के,पड़ोसियों के,काबिले , देशदुनियाकेलोगोंसेकैसेताल्लुकात रखे जाएँइसकी होदय्तें दी है |
इन में सेअल्लाह और बन्दे के रिश्ते के बाद रिश्ता है वो माँ बाप का रिश्ता है जहां अल्लाह ने हुक्म दिया है कि माँ बाप के खिलाफ मुह से उफ्फ भी न करना ज़ुल्म और न इंसाफी तो दूर की बात है |
अल्लाह सूरा ऐ निसा की पहली आयत में फरमाता है :-
अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)
यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी।
ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।
क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।
मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है।
सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये।
ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।
सहीह हदीस और महापुरुषों के कथन से ये साबित होता है की रिश्तेदार की श्रेणी में सबसे पहले आते हैं माता पिता फिर भाई बहन और उसके बात मामू चाचा ,ममेरे, चहेरे भाई बहन और उसके बाद दुसरे रिश्तेदार और अपने रिश्तेदारों का सुख दुःख भी इसे सिलसिले से बांटा जाता है |
सूरा ऐ नहल की ९० आयत में अल्लाह फरमाता है :-
निश्चित रूप से ईश्वर न्याय, भलाई और अपने निकटवर्ती लोगों के साथ उपकार का आदेश देता है तथा बुरे व अप्रिय कर्मों एवं दूसरों पर अतिक्रमण से रोकता है। वह तुम्हें उपदेश देता है कि शायद तुम्हें समझ आ जाए। (16:90)
यह आयत, जो क़ुरआने मजीद की सबसे अधिक व्यापक आयतों में से एक है, इस संसार में ईमान वालों के मानवीय एवं सामाजिक संबंधों को, न्याय व भलाई तथा हर प्रकार के अत्याचार व अतिक्रमण से दूरी पर आधारित बताती है और इसे एक ईश्वरीय उपदेश का नाम देती है जिसका पालन प्रत्यके व्यक्ति को हर स्थिति में करना चाहिए।
न्याय तथा न्याय प्रेम समस्त इस्लामी शिक्षाओं का आधार है। ईश्वर न किसी पर अत्याचार करता है और न इस बात की अनुमति देता है कि कोई किसी पर अत्याचार करे या उसके अधिकार का हनन करे। न्याय के लिए कथनी व करनी में हर प्रकार की कमी व अतिशयोक्ति से बचना आवश्यक है जिससे व्यक्तिगत व सामाजिक व्यवहार में संतुलन आता है।
अल्बत्ता इस्लामी शिष्टाचार में मनुष्य को सामाजिक समस्याओं के संबंध में कभी कभी न्याय से भी आगे बढ़ कर काम करना पड़ता है और अन्य लोगों की ग़लतियों को क्षमा करना पड़ता है, यहां तक कि मनुष्य, अन्य लोगों को उनके अधिकार से भी अधिक प्रदान कर सकता है कि जो भलाई और उपकार का चिन्ह है। ईश्वर, जिसने मनुष्यों के प्रति सबसे अधिक भलाई और उपकार किया है, उन्हें अन्य लोगों के संबंध में यही व्यवहार अपनाने का निमंत्रण देता है।
दूसरी ओर ईश्वर ने मनुष्य की आत्मा के स्वास्थ्य तथा समाज की शांति व सुरक्षा को सुनिश्चित बनाने के लिए कुछ बातों को वर्जित किया है जिन्हें बुरे व अप्रिय कर्म कहा जाता है। हर बुद्धिमान व्यक्ति, इन बातों की बुराई को भली भांति समझता है।
इस आयत से हमने सीखा कि सामाजिक संबंधों में न्याय के साथ ही भलाई व उपकार भी आवश्यक है ताकि समाज के सदस्यों के बीच प्रेम व घनिष्टता बाक़ी रहे।
धर्म के आदेश मानवीय बुद्धि एवं प्रवृत्ति से समन्वित हैं। न्याय व भलाई की ओर झुकाव तथा बुराई व अप्रिय बातों से दूरी, सभी मनुष्यों की इच्छा है और धर्म भी इन्हीं बातों का आदेश देता है।
लोगों को भलाई का आदेश देने तथा बुराई से रोकने में हमें इस बात की आशा नहीं रखनी चाहिए कि वे हमारी सभी बातों को स्वीकार कर लेंगे। ईश्वर भी जब उपदेश देता है तो कहता है कि शायद तुम्हें समझ आ जाए और तुम स्वीकार कर लो।
और अल्लाह यही नहीं रुका कह के कि रिश्तेदारों से मुहब्बत करो बल्कि उसने ये भी बताया की अपने रिश्तेदारों का हक ना देने वाला, मुहब्बत ना करने वाला , और रिश्तेतोड़ देने वाले का हश्र क्या होगा ?
और उन लोगों पर ईश्वर की धिक्कार है जो ईश्वरीय प्रतिज्ञा को दृढ़ करने के पश्चात उसे तोड़ देते हैं, जिन (नातों) को जोड़े रखने का ईश्वर ने आदेश दिया है, उन्हें तोड़ देते हैं तथा धरती में बिगाड़ पैदा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए (प्रलय में) अत्यंत बुरा घर है। (13:25)
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम तथा उनके परिजनों के कथनों में आया है कि ईश्वर ने जिन बातों की अत्यधिक सिफ़ारिश की है, उनमें से एक अपने परिजनों तथा नातेदारों से मेल जोल रखना तथा उनकी समस्याओं का निवारण करना है। प्रायः जो लोग ईश्वरीय धर्म पर कटिबद्ध नहीं होते वे अपने परिवार का भी अधिक ध्यान नहीं रखते।
इस आयत से हमने सीखा कि संसार में ईमान वालों तथा अवज्ञाकारियों के अंत की तुलना करने से सत्य और असत्य के मार्ग की पहचान सरल हो जाती है।मनुष्य की सभी बुराइयों और पथभ्रष्टता का आरंभ, ईश्वर तथा आसमानी धर्मों से दूर रहने से होता है।
और अल्लाह ने रिश्तेदारों से मुहब्बत का हुक्म और उनसे रिश्ते तोड़ने की सजा बता के कुछ ज़िम्मेदारी मोमिनो पे भी दाल दी और सूरा ऐ हुजरात की ९-१० आयात में फ़रमाया :)
यदि मोमिनों में से दो गिरोह आपस में लड़ पड़े तो उनके बीच सुलह करा दो। फिर यदि उनमें से एक गिरोह दूसरे पर ज़्यादती करे, तो जो गिरोह ज़्यादती कर रहा हो उससे लड़ो, यहाँ तक कि वह अल्लाह के आदेश की ओर पलट आए। फिर यदि वह पलट आए तो उनके बीच न्याय के साथ सुलह करा दो, और इनसाफ़ करो। निश्चय ही अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है (9)