देखिये कैसे मुसलमान कुरान के खिलाफ चलता है और डरता भी नहीं |
जी हाँ यह अजीब सा ज़रूर लगता है लेकिन सच हैं की हम उस दौर से गुज़र रहे हैं जहां एक भाई दुसरे भाई से दूरी रखने में और गैरों से दोस्ती में य...

जी हाँ यह अजीब सा ज़रूर लगता है लेकिन सच हैं की हम उस दौर से गुज़र रहे हैं जहां एक भाई दुसरे भाई से दूरी रखने में और गैरों से दोस्ती में यकीन ज्यादा रखता है | रिश्तेदारों में बीच में ना इत्तेफाकियाँ बढती जा रही हैं और इन्तहा यह है बहुत बार यह भे देखा गया है की गैरों से ही अपने रिश्तेदार, भाई को बे इज्ज़त लोग करवा देते हैं | गैरों से दोस्ती इस्लाम में बहुत अहमियत रखती है लेकिन पहला हक आपके रिश्तेदार , भाई बहत माता पिता का होता है दूसरा पडोसी का चाहे वो किसी भी धर्म का हो और उसके बाद सामाजिक ताल्लुकातों का |
यह गुनाह आज हर दुसरे घर में फ़क्र के साथ अंजाम दिया जा रहा है बना इस गुनाह का अंजाम जाने | अब देखिए अल्लाह सुबह ओ ताला कुरान में क्या फरमाता है ?
सूरए निसा में 176 आयतें हैं और यह सूरा मदीना नगर में उतरा है। चूंकि इस सूरे की अधिकांश आयतें परिवार की समस्याओं और परिवार में महिलाओं के अधिकारों से संबंधित हैं इसलिए इसे सूरए निसा कहा गया है जिसका अर्थ होता है महिलाएं।
अल्लाह के नाम से जो अत्यन्त कृपाशील और दयावान है। हे लोगो! अपने पालनहार से डरो जिसने तुम्हें एक जीव से पैदा किया है और उसी जीव से उसके जोड़े को भी पैदा किया और उन दोनों से अनेक पुरुषों व महिलाओं को धरती में फैला दिया तथा उस ईश्वर से डरो जिसके द्वारा तुम एक दूसरे से सहायता चाहते हो और रिश्तों नातों को तोड़ने से बचो (कि) नि:संदेह ईश्वर सदैव तुम्हारी निगरानी करता है। (4:1)
यह सूरा, जो पारीवारिक समस्याओं के बारे में है, ईश्वर से भय रखने के साथ आरंभ होता है और पहली ही आयत में यह सिफारिश दो बार दोहराई गई है क्योंकि हर व्यक्ति का जन्म व प्रशिक्षण परिवार में होता है और यदि इन कामों का आधार ईश्वरीय आदेशों पर न हो तो व्यक्ति और समाज के आत्मिक व मानसिक स्वास्थ्य की कोई ज़मानत नहीं होगी। ईश्वर मनुष्यों के बीच हर प्रकार के वर्चस्ववाद की रोकथाम के लिए कहता है कि तुम सब एक ही मनुष्य से बनाये गये हो और तुम्हारा रचयिता भी एक है अत: ईश्वर से डरते रहो और यह मत सोचो कि वर्ण, जाति अथवा भाषा वर्चस्व का कारण बन सकती है, यहां तक कि शारीरिक व आत्मिक दृष्टि से अंतर रखने वाले पुरुष व स्त्री को भी एक दूसरे पर वरीयता प्राप्त नहीं है क्योंकि दोनों की सामग्री एक ही है और सबकी जड़ एक ही माता पिता हैं।
क़ुरआने मजीद की अन्य आयतों में ईश्वर ने माता-पिता के साथ भलाई का उल्लेख अपने आदेश के पालन के साथ किया है और इस प्रकार उसने मापा-पिता के उच्च स्थान को स्पष्ट किया है परंतु इस आयत में न केवल माता-पिता बल्कि अपने नाम के साथ उसने सभी नातेदारों के अधिकारों के सममान को आवश्यक बताया है तथा लोगों को उन पर हर प्रकार के अत्याचार से रोका है।
इस आयत से हमने सीखा कि इस्लाम एक सामाजिक धर्म है। अत: वह परिवार तथा समाज में मनुष्यों के आपसी संबंधों पर ध्यान देता है और ईश्वर ने भय तथा अपनी उपासना का आवश्यक भाग, अन्य लोगों के अधिकारों के सम्मान को बताया है।
मानव समाज में एकता व एकजुटता होनी चाहिये क्योंकि लोगों के बीच वर्ण, जाति, भाषा व क्षेत्र संबंधी हर प्रकार का भेद-भाव वर्जित है। ईश्वर ने सभी को एक माता पिता से पैदा किया है। सभी मनुष्य एक दूसरे के नातेदार हैं क्योंकि सभी एक माता-पिता से हैं। अत: सभी मनुष्यों से प्रेम करना चाहिये और अपने निकट संबंधियों की भांति उनका सम्मान करना चाहिये। ईश्वर हमारी नीयतों व कर्मों से पूर्ण रूप से अवगत है। अत: न हमें अपने मन में स्वयं के लिए विशिष्टता की भावना रखनी चाहिये और न व्यवहार में दूसरों के साथ ऐसा रवैया रखना चाहिये।
(वास्तविक बुद्धिजीवी) वे लोग हैं जो ईश्वरीय प्रतिज्ञा पर कटिबद्ध रहते हैं और वचनों को नहीं तोड़ते। (13:20) और वे ऐसे हैं कि ईश्वर ने जिन संबंधों को जोड़ने का आदेश दिया है वे उन्हें जोड़ते हैं, अपने पालनहार से डरते हैं और बुरे हिसाब का उन्हें भय लगा रहता है। (13:21)
पिछले कार्यक्रम में हमने कहा था कि क़ुरआने मजीद ने ईमान वालों और काफ़िरों को देखने वालों तथा नेत्रहीनों की संज्ञा देते हुए ईमान वाले को बुद्धिमान तथा चितन करने वाला बताया था। यह आयतें बुद्धिमानों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहती हैं कि वचनों विशेषकर ईश्वरीय प्रतिज्ञा का पालन उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है। वे कभी भी ईश्वरीय प्रतिज्ञा का उल्लंघन नहीं करते, चाहे वे सत्य प्रेम और न्याय प्रेम जैसी सैद्धांतिक प्रतिज्ञाएं हों, ईश्वर तथा प्रलय पर आस्था जैसी बौद्धिक प्रतिज्ञाएं हों अथवा ईश्वर द्वारा वर्जित की गई वस्तुओं से दूर रहने की धार्मिक प्रतिज्ञाएं हों।
अलबत्ता सबसे महत्त्वपूर्ण ईश्वरीय प्रतिज्ञा भ्रष्ट शासकों से संघर्ष और पवित्र नेताओं का अनुसरण है। ईश्वर ने कहा है कि इमामत अर्थात ईश्वरीय नेतृत्व केवल पवित्र और न्यायप्रेमी लोगों को ही प्राप्त हो सकेगा और यह पद अत्याचारियों को कभी भी नहीं मिलेगा। पवित्र क़ुरआने मजीद के सूरए बक़रह की आयत संख्या 124 में कहा गया है कि ईश्वर का पद अर्थात इमामत अत्याचारियों को प्राप्त नहीं होगा।
बुद्धिमान तथा ईमान वालों की एक अन्य विशेषता धार्मिक व पारिवारिक संबंधों को सुरक्षित रखना है जिसकी ईश्वर ने अत्यधिक सिफ़ारिश की है। जैसे ईमान वालों के साथ संबंधों की रक्षा जिन्हें ईश्वर ने उनका ईमानी भाई बताया है और अपने सगे संबंधियों के साथ संबंधों की रक्षा जो एक प्रकार से उनकी भावनात्मक तथा आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। इसी कारण पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने स्वर्गवास के समय आदेश दिया था कि उनके सभी परिजनों को चाहे उन्होंने उनके साथ अनुचित व्यवहार ही क्यों न किया हो, कोई न कोई भेंट दी जाए।
ईमान वालों की अंतिम विशेषता ईश्वर से डरते रहना है। बुद्धिमान लोगों के भीतर ईश्वर की गहन पहचान के बाद उसका भय पैदा होता है जो ईश्वर की महानता के समक्ष उनके नतमस्तक रहने को दर्शाता है।
इन आयतों से हमने सीखा कि सामाजिक संधियों और समझौतों का सम्मान, ईमान वाले तथा बुद्धिमान व्यक्ति की विशेषताओं में से एक है।
पारिवारिक संबंधों और आवाजाही को जारी व सुरक्षित रखना और परिजनों की समस्याओं का समाधान करने पर धर्म में बहुत अधिक बल दिया गया है।