कुरान तर्जुमा और तफसीर -सूरए आले इमरान 3:149-

सूरए आले इमरान की १४९वीं और १५०वीं आयत हे ईमान वालो! यदि तुम काफ़िरों का अनुसरण करोगे तो वे तुम्हें, तुम्हारे पूर्वजों के अज्ञानतापूर्...


सूरए आले इमरान की १४९वीं और १५०वीं आयत

हे ईमान वालो! यदि तुम काफ़िरों का अनुसरण करोगे तो वे तुम्हें, तुम्हारे पूर्वजों के अज्ञानतापूर्ण संस्कारों की ओर पलटा देंगे, तो तुम घाटा उठाने वाले हो जाओगे। (3:149) (वे तुम्हारे मित्र और सहायक नहीं हैं) बल्कि ईश्वर ही तुम्हारा अभिभावक है और वह सबसे अच्छा सहायक है। (3:150)



 ईमान वाले लोगों और इस्लामी समाज को जो ख़तरे सदैव ही लगे रहते हैं उनमें से एक, सांसारिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए धार्मिक मान्यताओं व सिद्धांतों से पलट जाना है। बहुत से लोगों और समाजों ने आरंभ में कुफ़्र के स्थान पर ईमान का मार्ग अपनाया था किंतु समय बीतने के साथ-साथ तथा कुछ ग़ैर इस्लामी समाजों में भौतिक आराम तथा स्वतंत्रता देखकर वे अपने विश्वास और व्यवहार में कमज़ोर हो गए तथा उन्होंने कुफ़्र का मार्ग अपना लिया।
 ऐसे लोगों को संबोधित करते हुए क़ुरआन कहता है कि हे ईमान वालों, यदि तुम ईश्वरीय आदेशों के बजाए काफ़िरों के मार्ग का अनुसरण करोगे तो वे तुम्हारी प्रगति के स्थान पर पतन का कारण बन जाएंगे। वे तुम्हारी प्रगति नहीं चाहते अतः तुम बहुत बड़े कष्ट में पड़ जाओगे क्योंकि तुम अपने धर्म को भी छोड़ दोगे और तुम्हें संसार भी नहीं मिल सकेगा। इसके पश्चात ईश्वर ईमान वालों को संबोधित करते हुए यह कहता है कि सम्मान व शक्ति की प्राप्ति के लिए काफ़िरों से जुड़ने का प्रयास मत करों क्योंकि विजय केवल उसी ईश्वर के हाथ में है जो तुम्हारा स्वामी है।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि धर्म और सच्चे मार्ग से विचलित होने का ख़तरा सभी को लगा रहता है अतः हमें शत्रु के शैतानी प्रयासों और बहकावों की ओर से सचेत रहना चाहिए।
 रणक्षेत्र में पराजय घाटा नहीं है। सबसे बड़ा घाटा वैचारिक युद्ध में ईमान तथा कुफ़्र के बीच पराजय है।
 यदि हम संसार के सम्मान व सत्य की भी आशा रखते हैं तो केवल प्रभुत्वशाली ईश्वर के आदेशों के पालन की छाया में ही प्राप्त कर सकते हैं।



सूरए आले इमरान की १५१वीं आयत 
हम शीघ्र ही काफ़िरों के हृदयों में भय डाल देंगे क्योंकि उन्होंने ईश्वर की ओर से बिना किसी ठोस तर्क के उसका शरीक बनाया है। उनका ठिकाना नरक है और वह अत्याचारियों के लिए कितना बुरा ठिकाना है। (3:151)
 पिछली आयतों में कुछ मुसलमानों द्वारा काफ़िरों के संसार पर रीझने की आलोचना करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कहता है कि वे लोग यह न सोचें कि काफ़िरों पर भरोसा करके उन्हें आराम और शांति प्राप्त हो जाएगी बल्कि उन्हें यह जानना चाहिए कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी पर ही पूर्ण भरोसा या उससे सहायता चाहना, अनेकेश्वरवाद तथा कुफ़्र का कारण है और इस प्रकार के लोग असमंजस में फंस जाते हैं और उनके हृदयों में भय उत्पन्न हो जाता है।
 प्रलय में भी इस कुफ़्र और पथभ्रष्टता के कारण वे अन्य काफ़िरों और अत्याचारियों के साथ नरक में जाएंगे अतः काफ़िरों पर भरोसा न तो शांति का कारण है और न ही आराम का और न ही प्रलय में सफलता व कल्याण का।
 इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर के अतिरिक्त किसी भी अन्य पर भरोसा अनेकेश्वरवाद और भय का कारण है और ईमान व ईश्वर का स्मरण शक्ति एवं संतोष का।
 मौत और अज्ञात भविष्य का भय, वह सबसे बड़ा आतंक है जो काफ़िरों के हृदयों पर छाया हुआ है और ईमान वालों की संख्या जितनी बढ़ती जाती है इस भय में उतनी ही वृद्धि होती जाती है।



सूरए आले इमरान की १५२वीं आयत 
निःसंदेह, (तुम्हारी सहायता के लिए) ईश्वर अपने वादे में सच्चा था क्योंकि उसकी इच्छा से ही शत्रु की हत्या करते थे यहां तक कि तुमने ढिलाई बरती और (युद्ध के) मामले में तुममें मतभेद हो गया। और ईश्वर द्वारा तुम्हें वे वस्तुएं दिखाए जाने के पश्चात, जिन्हें पसंद करते थे, तुमने उसकी अवज्ञा की। (इस युद्ध में स्पष्ट हो गया कि) तुम में से कुछ लोग इस संसार के और कुछ प्रलय के इच्छुक हैं। फिर उसने शत्रु का पीछा करने का तुम्हारा इरादा बदल दिया (और तुम्हारी विजय, पराजय में परिवर्तित हो गई) ताकि वे तुम्हारी परीक्षा लें परन्तु उसने तुम्हारी ग़लती को क्षमा कर दिया और निःसन्देह ईश्वर, ईमान वालों के प्रति बड़ा ही दयावान है। (3:152)
 ओहद के युद्ध में मुसलमानों की पराजय के पश्चात उनमें से कुछ ने पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर टिप्पणी करते हुए कहा कि क्या ईश्वर ने इस यु्द्ध में काफ़िरों पर हमारी विजय का वादा नहीं किया था तो हम लोग इस युद्ध में फिर किस प्रकार हार गए? यह आयत उनके उत्तर में कहती है कि ईश्वर का वादा सच्चा था और उसने अपना वादा पूरा किया क्योंकि युद्ध के आरंभ में तुम उसकी सहायता से शत्रुओं की हत्या कर रहे थे परन्तु कुछ बातों के कारण तुम पराजित हो गए।
 प्रथम यह कि तुमने शत्रु को भागते हुए और उसके द्वारा छोड़े गए माल को देखकर बहुत ही जल्दी ढिलाई बरती और शत्रु का पीछा करने के बजाए अपने हथियार छोड़कर माल एकत्रित करने में व्यस्त हो गए। दूसरे यह कि ओहद पर्वत के दर्रे की रक्षा के बारे में तुममें मतभेद हो गया जबकि पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा था कि इस स्थान से कदापि नहीं हटना परन्तु तुम लोगों ने अपने-अपने विचार प्रकट करके विवाद खड़ा कर दिया और अंततः पैग़म्बर के आदेश की अवज्ञा करते हुए तुमने वह स्थान छोड़ दिया और शत्रु को पीछे से आक्रमण करने का अवसर प्रदान कर दिया।
 अतः जिस ईश्वर ने युद्ध के आरंभ में तुम्हारी सहायता की थी उसी ने अंत में तुम्हें पराजय का कटु स्वाद चखाया ताकि तुम जान लो कि ईश्वरीय सहायता की शर्त, तुम्हारा ईमान और एकता है और पराजय के इस अनुभव से तुम पाठ सीख सको।
 इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर द्वारा सहायता का वादा तब तक है जब तक ईमान वाले अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे अन्यथा ईश्वरीय वादों की पूर्ति का अर्थ, उसकी परंपराओं की उपेक्षा कदापि नहीं है।
 ढिलाई, मतभेद और नेता की अवज्ञा, पराजय के महत्वपूर्ण कारण हैं और इसमें मोमिन और काफ़िर के बीच कोई अंतर नहीं है।
 कुछ संसारवादी ईमान वाले युद्ध में भी प्रलय के बजाय संसार के विचार में रहते हैं।
 पराजय, ईश्वरीय परीक्षा का साधन है। निराश होने के स्थान पर हमें उससे पाठ सीखना चाहिए ताकि हम भविष्य में विजयी हो सकें।



 सूरए आले इमरान की १५३वीं आयत 
(याद करो उस समय को) जब (ओहद के युद्ध में भागते समय तुम लोग पहाड़ से) ऊपर चढ़ रहे थे और किसी पर भी ध्यान नहीं दे रहे थे (जबकि) पैग़म्बर तुम्हें पीछे से पुकार रहे थे अतः इसके दण्ड स्वरूप ईश्वर ने तुम्हारे दुखों में एक अन्य दुख की वृद्धि कर दी ताकि तुम फिर हाथ से जाने वाले (युद्ध के माल) या जो कुछ तुम्हें (घाव) लगे हैं उनके बारे में दुखी न हो और जान लो कि जो कुछ तुम करते हो ईश्वर उससे अवगत है। (3:153)
 ओहद के युद्ध का एक बुरा दृष्य वह था कि जब शत्रु के आकस्मिक आक्रमण के कारण अनेक मुसलमानों ने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को अकेला छोड़कर भागना आरंभ कर दिया। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने उन्हें जितना भी वापस बुलाया और शत्रु का मुक़ाबला करने को कहा, उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा और वे ओहद के पर्वत पर चढ़ गए।
 क़ुरआने मजीद कहता है कि तुम्हारी इस अवज्ञा और फ़रार का परिणाम यह निकला कि काफ़िर शत्रु की सेना तुम पर हावी हो गई और इस बात का दुख इतना अधिक था कि तुम अपने घावों, पीड़ा और हाथ से चले जाने वाले माल को भूल गए। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के हृदय को दुख पहुंचाने के दण्ड स्वरूप तुम्हें इस प्रकार के बड़े दुख का सामना करना पड़ा।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि धार्मिक नेताओं के आदेशों की अवहेलना भय तथा फ़रार अंततः शत्रु से पराजय का कारण बनती है।
 ईमान का दावा करने वालों की परीक्षा का स्थान रणक्षेत्र है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी लोग ईमान वाले होते हैं परन्तु कड़े दिनों में ही मोमिन पहचाने जाते हैं।
 हमें अतीत की कटु घटनाओं से पाठ लेना चाहिए और सांसारिक माल हाथ से चले जाने या फिर कठिनाइयां झेलने पर दुखी नहीं होना चाहिए।

सूरए आले इमरान की १५४वीं आयत 
फिर ईश्वर ने उस दुख के पश्चात तुम लोगों पर नींद की भांति शांति उतारी जिसने तुम में से एक गुट को (जो अपनी सुस्ती और फ़रार के कारण लज्जित था) शांत कर दिया परन्तु एक दूसरा गुट जिसका पूरा लक्ष्य, अपनी जान की रक्षा करना था अज्ञानता के काल की भांति ईश्वर (के वादों) की ओर से अकारण ही शंका में पड़ा हुआ था। वे कह रहे थे कि युद्ध में हमारे लिए कोई निर्णय क्यों नहीं था? हे पैग़म्बर! कह दो कि हर बात और निर्णय केवल ईश्वर के लिए है। वे अपने हृदय में ऐसी बात छिपाते हैं जिसे वे तुम्हारे लिए प्रकट नहीं करते। वे कहते हैं कि युद्ध का कुछ दायित्व यदि हमको दिया जाता तो हम यहां मारे न जाते। कह दो कि यदि तुम अपने घरों में भी होते तो जिनके लिए मरना निर्धारित हो चुका था वे अवश्य ही अपनी मृत्युभूमि की ओर जाते। (यह घटनाएं) इसलिए हैं कि ईश्वर उन बातों का परीक्षण करे कि जो तुम्हारे सीनों में हैं और जो कुछ तुम्हारे हृदयों में है उसको पवित्र व स्वच्छ बना दे और ईश्वर, उससे अवगत है जो कुछ सीनों में है। (3:154)



 पिछले कार्यक्रमों में हमने यह कहा था कि ओहद के युद्ध में पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की अवज्ञा अपनी सुस्ती और फ़रार के कारण जिससे उन्हें पराजय हुई अधिकांश मुसलमान लज्जित एवं दुखी थे। वे पैग़म्बरे इस्लाम के पास आए और उनसे क्षमा चाही। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने उन्हें क्षमा कर दिया और ईश्वर ने ही उनकी तौबा स्वीकार करते हुए उनके लिए शांति भेजी। परन्तु कुछ लोगों ने, जो अपनी ग़लतियों को पराजय का कारण मानने के लिए तैयार नहीं थे, ईश्वर तथा उसके पैग़म्बर को दोषी ठहराया। एक ओर तो उन्होंने कहा कि ईश्वर ने हमारी सहायता का वादा किया था तो उसने हमारी सहायता क्यों नहीं की और हमे विजय क्यों नहीं दिलाई? दूसरी ओर उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम से कहा कि युद्ध आरंभ होने के समय हमने मदीना नगर के भीतर ही रहकर प्रतिरोध करने का प्रस्ताव दिया था परन्तु आपने हमारे इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और नगर के बाहर निकल गए। इसी कारण आपको पराजय हुई।
 इस आयत में ईश्वर उनका उत्तर देते हुए कहता है कि पहले तो ईश्वर की सहायता का वादा शत्रु के मुक़ाबले जमे रहने और प्रतिरोध से सशर्त है, न यह कि तुम लोग अपनी जान के भय से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को अकेला छोड़कर भाग जाओ और इसके बावजूद विजय की आशा भी रखो। ईश्वर से तुम्हारी इस प्रकार की बेकार की आशा, अज्ञानता के काल की आशाओं की भांति है, जिसमें वे अकारण ही ईश्वर द्वारा उन्हें विजयी बनाने की आशा रखते थे।
 दूसरी बात यह है कि मृत्यु या शहादत तुम्हारे हाथ में नहीं है कि तुम यह कहो कि यदि हम मदीने में ही रहते तो मारे नहीं जाते क्योंकि जिनके भाग्य में शहादत लिखी थी यदि वे अपने घरों में रहकर भी लड़ते तो शहीद होते। इसके अतिरिक्त यह घटनाएं तुम्हारी परीक्षा के लिए हैं ताकि जो कुछ तुम्हारे भीतर है वह स्पष्ट हो जाए।
 इस आयत से हमने सीखा कि स्वार्थ, वास्तविक ईमान के विपरीत है। जिन लोगों का पूरा प्रयास केवल अपनी सुरक्षा है वे ईश्वर के प्रति ग़लत आशाएं बांध लेते हैं।
 पराजय के पश्चात हमें अपनी कमज़ोरियों को पहचानने और उन्हें सुधारने का प्रयास करना चाहिए न कि ईश्वर को दोषी ठहराना।
 ईश्वर तो सभी की भावनाओं और विचारों से अवगत है और कटु घटनाएं तथा संकट हमारी भावनाओं और विचारों को सामने लाने का कारण बनते हैं ताकि हम भी स्वयं को पहचान सकें और यह जान सकें कि हम अपने ईमान पर कितने कार्यबद्ध हैं और दूसरे भी हमें पहचान सकं और दायित्वों के संबन्ध में हमारी योग्यताओं से अवगत हो सकें।



सूरए आले इमरान की १५५वीं आयत 
निःसन्देह, तुममें से जो लोग (ओहद में) दो सेनाओं के टकराने के दिन (युद्ध से) पीठ दिखाकर भाग गए थे वह केवल इसलिए था कि शैतान ने उन्हें उनके कुछ अप्रिय कर्मों के कारण बहका दिया था और ईश्वर ने उन्हें क्षमा कर दिया। निःसन्देह, ईश्वर बड़ा ही कृपाशील और दयावान है। (3:155)

 यह आयत ओहद के युद्ध में कुछ मुसलमानों के फ़रार की ओर संकेत करते हुए इसके कारण का उल्लेख करती है। आयत कहती है कि उनके पिछले पापों के कारण उनका ईमान मज़बूत नहीं हो सका और वे बहुत ही जल्दी शैतान के बहकावे में आ गए अतः जब उन्होंने अपनी जान को ख़तरे में देखा तो वे धर्म के मार्ग में अपनी जान देने के लिए तैयार नहीं हुए।
 इस आयत से हमने सीखा कि छोटे पाप करने से बड़े पाप करने हेतु शैतान के बहकावे की भूमिका प्रशस्त हो जाती है, यहां तक कि मनुष्य अपनी जान बचाने के लिए ईश्वर और उसके पैग़म्बर की ओर से मुंह फेर लेता है।
 पाप, योद्धाओं के जोश और उनकी भावनाओं को कमज़ोर बनाने का कारण बनता है और यह शैतान से प्रभावित होने का मार्ग बन जाता है अतः उन्हें युद्ध से पूर्व प्रायश्चित करके स्वयं को शत्रु का मुक़ाबला करने के लिए तैयार करना चाहिए।
 ग़लती करने वालों को सदा के लिए नहीं ठुकराना चाहिए। ईश्वर ने फ़रार से लज्जित लोगों को क्षमा देकर उन्हें स्वीकार कर लिया।



सूरए आले इमरान की आयत १५६वीं आयत
हे ईमान वालों, उन लोगों की भांति न हो जाना जिन्होंने कुफ़्र अपनाया और अपन भाइयों के बारे में, जब वे यात्रा या युद्ध में थे, कहाः यदि वे हमारे पास रहते तो न मरते और न ही मारे जाते। (यह वह बात है) जिसे ईश्वर प्रलय में उनके लिए पछतावे का कारण बताएगा। और यह ईश्वर ही तो है जो जीवित करता है और मृत्यु देता है और जो कुछ तुम करते हो उसे देखने वाला है। (3:156)
 पिछली आयतों में मिथ्याचारियों द्वारा ओहद के युद्ध में भाग ने लेने के बारे में औचित्य दर्शाने के उनके कथनों का वर्णन करने के पश्चात यह आयत उनकी कुफ़्र भरी बातों का उल्लेख करते हुए कहती है कि हे ईमान वालो, तुम लोग क्यों मिथ्याचारियों की बातें दोहराते हो, जो यह कहते हैं कि मदीना से बाहर निकल कर युद्ध में जाने वाले यदि हमारे पास रह जाते तो उनकी यह दशा न होती। क्या उन्हें यह नहीं मालूम कि जीवन और मृत्यु दोनों ही ईश्वर के हाथों में है। वही तो है जो मृत्यु देता है और वही है जो जीवित करता है। प्रलय के दिन मिथ्याचारी जब इन बातों को समझेंगे तब उन्हें बहुत अधिक पछतावा होगा।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि कुछ बातें कुफ़्र और अधर्म का कारण बनती हैं और मिथ्याचारी कुफ़्र के बहुत ही क़रीब होता है।
 हमें अपने कुछ नादान मित्रों की बातों और प्रचारों की ओर से सचेत रहना चाहिए कि शत्रु उनकी ज़बान से और हमदर्दी के भेस में समाज में निराशा जनक बातें फैलाता है।
 ऐसा न हो कि अधिक जीवित रहने की आशा में हम रणक्षेत्र में जाने से कतराने लगें। ऐसे कितने वृद्ध हैं जो रणक्षेत्र में युद्ध करने के लिए गए और जीवित लौट आए और ऐसे कितने युवा है जो अपने घरों में रहे परन्तु मौत ने उन्हें आ लिया।



 सूरए आले इमरान की १५७वीं और १५८वीं आयत

और यदि तुम ईश्वर के मार्ग में शहीद हो जाओ या मर जाओ तो (कदापि तुमने घाटा नहीं उठाया है क्योंकि) ईश्वरीय क्षमा व दया उससे बेहतर है जो कुछ लोग एकत्रित करते हैं। (3:157) और (जान लो कि) यदि तुम मर गए या मार दिये गए तो निश्चित ही अपने ईश्वर की ओर पलटोगे। (3:158)

 यह आयत ओहद के युद्ध में मोमिनों के ईमान की भावना को सुदृढ़ बनाने के लिए कहती है कि मिथ्याचारियों की अनुचित बातों की ओर ध्यान मत दो और जान लो कि यदि तुम्हें ईश्वर के मार्ग में मौत आ जाए या तुम रणक्षेत्र में मारे जाओ तो तुमने कोई भी चीज़ खोई नहीं है बल्कि तुमने एसी चीज़ प्राप्त की है, जो मिथ्याचारियों और काफ़िरों द्वारा अपनी पूरी आयु में एकत्रित की गई वस्तुओं से, बहुत बेहतर है। वह ईश्वर की विशेष दया और कृपा है जो स्वर्ग में तुम्हारे जाने का कारण बनेगी।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि महत्वपूर्ण बात ईश्वर के मार्ग पर रहना है। इसमें मृत्यु या शहादत से कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि कोई ईश्वर के लिए ज्ञान प्राप्ति हेतु यात्रा करे और इस मार्ग में दुर्घटनाग्रस्त हो जाए तो वह ईश्वरीय दया व कृपा का पात्र बनेगा।
 जब मौत से छुटकारा नहीं है और हम सभी को इस नश्वर संसार से जाना ही है तो क्यों न हम अपनी इच्छा से बेहतरीन मौत का चयन करें? पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के नाती इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कहते हैं कि यदि यह शरीर मृत्यु के लिए तैयार हो चुका है तो सबसे अच्छी मौत, ईश्वर के मार्ग में शहादत है।
 सूरए आले इमरान की १५९वीं आयत 
(हे पैग़म्बर!) ईश्वरीय दया व कृपा के कारण तुम लोगों के लिए दयावान हो गए हो और यदि तुम क्रोधी और कठोर हृदय को होते तो लोग तुम्हारे पास से बिखर जाते, तो उनकी ग़लतियों को क्षमा कर दो और उनके लिए ईश्वर से क्षमा चाहो तथा कामों में उनसे परामर्श करो परन्तु जब तुम किसी कार्य का निर्णय कर लो तो (उसपर दृढ़ रहो और) ईश्वर पर भरोसा करो। निःसन्देह, वह (ईश्वर पर) भरोसा करने वालों को पसंद करता है। (3:159)



 यह आयत पैग़म्बरे इस्लामी की सबसे बड़ी विशेषता अर्थात उत्तम शिष्टाचार की ओर संकेत करते हुए कहती है कि जो बात युद्ध प्रेमी और कठोर स्वभाव के बद्दू अरबों के तुम्हारे पास एकत्रित होने और तुम्हारे ऊपर ईमान लाने का कारण बनी है वह तुम्हारा कोमल स्वभाव व शिष्टाचार है और यदि तुम भी उन्हीं लोगों की ही भांति होते तो कोई भी तुम्हारे पास न आता और जो लोग ईमान ले भी आते वे बाद में बिखर जाते। तो अब जब ऐसा है तो ओहद के युद्ध में उनकी अवज्ञा को क्षमा कर दो और ईश्वर से भी उनके लिए क्षमा चाहो। यद्यपि युद्ध से पूर्व तुमने उनसे परामर्श किया और इसके परिणामस्वरूप तुम्हें पराजय हो गई परन्तु उनके मामलों में उनसे परामर्श करना मत छोड़ो कि तुम उनके आदर्श हो।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि कोमल स्वभाव व दयालुता, ईश्वरीय पुरस्कार है जिसे ईश्वर ने धार्मिक नेताओं को दिया है। जो भी लोगों का मार्गदर्शन करता है या उन्हें भले काम का आदेश देना चाहे उसे ऐसा ही होना चाहिए।
 जिन लोगों ने हमारे साथ बुराई कि परन्तु अब वे यदि अपने काम से लज्जित हैं तो हमें उन्हें क्षमा कर देना चाहिए।
 सोच-विचार और परामर्श के साथ ईश्वर पर भरोसे को भूलना नहीं चाहिए।



 सूरए आले इमरान की १६०वीं आयत 
यदि ईश्वर तुम्हारी सहायता करे तो कोई भी तुम पर विजयी नहीं हो सकता और यदि वह तुम्हें अपमानित करे तो उसके पश्चात कौन तुम्हारी सहायता कर सकता है? तो ईमान वालों को केवल ईश्वर पर ही भरोसा करना चाहिए। (3:160)
 पिछली आयत में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को ईश्वर पर भरोसा करने की सिफ़ारिश के पश्चात इस आयत में ईमान वालों को भी ईश्वर पर भरोसा करने को कहा गया है और उसका तर्क यह बताया गया है कि सम्मान और अपमान दोनों ही ईश्वर के हाथ में हैं और उसकी इच्छा के बिना कोई भी अच्छाई या बुराई मनुष्य तक नहीं पहुंच पाती। वह यदि किसी को भलाई देना चाहे तो कोई भी रुकावट नहीं बन सकता और इसी प्रकार यदि वह किसी को दण्ड देना या अपमानित करना चाहे तो कोई भी उस व्यक्ति की सहायता का सामर्थ नहीं रखता। मनुष्य यदि इस वास्तविकता को भलि-भांति समझ ले तो वह केवल ईश्वर पर ही भरोसा करेगा और उसके अतिरिक्त हर किसी की ओर से निराश हो जाएगा। ईश्वर के अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरेगा और न ही किसी से आशा रखेगा और ईश्वर पर भरोसे का अर्थ भी यही है।
 इस आयत से हमने सीखा कि व्यक्तिगत तथा सामाजिक मामलों में दूसरों पर भरोसा करने के स्थान पर केवल उस ईश्वर पर भरोसा करना चाहिए जिसके हाथ में हमारी हर चीज़ है।
 हो सकता है कि विदित या स्वभाविक विजय कुछ अन्य कारणों से प्रभावित होकर पराजय बन जाए परन्तु ईश्वरीय सहायता अपने स्थान पर स्थिर रहती है।



सूरए आले इमरान की १६१वीं आयत 
यह संभव नहीं है कि कोई भी पैग़म्बर विश्वासघात करे, और जो भी विश्वासघात करेगा वह प्रलय के दिन उस चीज़ को अपने साथ पाएगा जिसमें उसने विश्वासघात किया है। उस दिन हर किसी को जो कुछ उसने दिया है उसका पूरा बदला मिलेगा और किसी पर भी अत्याचार नहीं किया जाएगा। (3:161)
 ओहद के युद्ध में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने एक गुट को ओहद दर्रे की सुरक्षा के लिए निर्धारित करते हुए उनसे कहा था कि चाहें हम हारें या जीतें, तुम लोग यहां से कदापि न हटना। युद्ध में प्राप्त होने वाले माल में तुम्हारा भाग सुरक्षित रहेगा परन्तु जब मुसलमान काफ़िरों पर भारी पड़ने लगे तो फिर इस गुट के अधिकांश लोग उस स्थान को छोड़कर माल एकत्रित करने के लिए भाग आए।
 यह आयत उनको संबोधित करते हुए कहती है कि क्या तुमने यह सोचकर निर्धारित स्थान को छोड़ दिया था कि युद्ध से प्राप्त होने वाले माल में पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम क्या तुम्हारे भाग में धोखा करेंगे? जबकि पैग़म्बरी का पद और धोखा परस्पर विरोधी हैं और ईश्वर के सभी पैग़म्बर, ईश्वर तथा लोगों के अमानतदार हैं।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के कुछ साथियों ने यद्यपि पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को देखा था और उनकी पवित्रता एवं अमानतदारी को जानते थे किंतु फिर भी उनका ईमान पूरा नहीं था और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम द्वारा बेईमानी को संभव समझते थे। हमें सचेत रहना चाहिए कि कहीं हम इस प्रकार के शैतानी बहकावे में न आ जाएं।
 ऐसे स्थान पर जहां पर कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के बारे में भी बुरे विचार रखते हों यह आशा रखना व्यर्थ है कि सब लोग हमारे कार्यों के बारे में भले विचार रखते होंगे। अतः हमें ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करनी चाहिए। एक समय में सब लोगों को प्रसन्न करना संभव नहीं है।
 प्रलय के दिन मिलने वाला दण्ड, स्वयं हमारे कर्मों का परिणाम है न यह कि ईश्वर अपने बंदों पर अत्याचार करेगा।



 सूरए आले इमरान की १६२वीं और १६३वीं आयत

क्या जो ईश्वर को प्रसन्न करना चाहता है वह उस व्यक्ति की भांति है जो ईश्वर के क्रोध और कोप का पात्र बना है और जिसका ठिकाना नरक है और वह कितना बुरा ठिकाना है। (3:162) (जो लोग ईश्वर को प्रसन्न करते हैं) उनके लिए ईश्वर के निकट बड़े दर्जे हैं और वे जो कुछ करते हैं ईश्वर उनको देखने वाला है। (3:163)

 इन दो आयतों में ईमान वालों तथा मिथ्याचारियों के अंजाम की संक्षेप में तुलना करके ईश्वर कहता हैः जिन लोगों के हर काम का लक्ष्य किसी अन्य के बजाए केवल ईश्वर को ही प्रसन्न करना है वे ईश्वर के निकट ऐसे दर्जों और स्थान तक पहुंच जाएंगे कि वे स्वयं भलाई या बुराई का मापदण्ड बन जाएंगे। उन लोगों के विपरीत जो यदि ईश्वर को चाहते भी हैं तो अपने स्वार्थ और इच्छाओं की पूर्ति के लिए यह लोग, जिन्होंने धर्म को अपनी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए साधन बना रखा है, ईश्वरीय कोप में फंसेंगे और लोक परलोक में इनका अंजाम तबाही के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
 इस्लामी इतिहास की पुस्तकों में वर्णित है कि जब पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने ओहद की ओर आगे बढ़ने का आदेश दिया था तो कुछ मिथ्याचारी विभिन्न बहाने बनाकर मदीने में ही रह गए और ईमान के कमज़ोर कुछ मुसलमान भी उनका अनुसरण करते हुए रणक्षेत्र में उपस्थित नहीं हुए। इन आयतों में ऐसे लोगों की छवि स्पष्ट की गई है तथा उनका ठिकाना नरक बताया गया है। उन लोगों के विपरीत जो रणक्षेत्र में तो गए किंतु उन्होंने वहां पर सुस्ती दिखाई और जब वे लज्जित हुए तो उन्हें क्षमा कर दिया गया।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि सबसे पवित्र लक्ष्य, ईश्वर की प्रसन्नता है। यह लक्ष्य सबसे उच्च है और मनुष्य को ईश्वर के समीप करता है।
 इस्लामी समाज में योद्धाओं और जेहाद अर्थात धर्मयुद्ध की उपेक्षा करने वालों को समान दृष्टि से नहीं देखना चाहिए क्योंकि जेहाद से मुंह मोड़ना, ईश्वरीय कोप का कारण बनता है।



 सूरए आले इमरान की १६४वीं आयत 

निःसन्देह, ईश्वर ने ईमान वालों पर उपकार किया उस समय जब उसने उन्हीं में से एक को पैग़म्बर बनाकर भेजा ताकि वह उन्हें ईश्वर की आयतें पढ़कर सुनाए और उन्हें (बुराइयों से) पवित्र करे तथा उन्हें किताब व तत्वदर्शिता की शिक्षा दे। निःसन्देह इससे पूर्व वे खुली हुई पथभ्रष्टता में थे। (3:164)

 ईश्वरीय सृष्टि में, जो संसार की हर वस्तु विशेषकर मनुष्य के प्रति दया व कृपा के आधार पर की गई है, मार्गदर्शन की सबसे बड़ी कृपा है जो मनुष्य, विशेषरूप से ईश्वर की ओर से पाता है। बिना मार्गदर्शन के मनुष्य की सृष्टि उसकी शक्तियों, योग्यताओं के व्यर्थ जाने या उसके व्यवहार और विचारों के ग़लत मार्ग पर जाने का कारण होगी। जैसा कि आज हम देखते हैं कि जो लोग इस ईश्वरीय मार्गदर्शन को बुद्धि और विशेष रूप से वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश के दृष्टिकोण से नहीं देखते उनके ज्ञान ने परिवारों को सुख व शांति पहुंचाने के स्थान पर विकसित समाजों में बेचैनी, चिंता, हिंसा व अशांति जैसे उपहार दिये हैं।

 परन्तु महान ईश्वर ने लोगों व मानव समाजों को हर प्रकार की बुराई से बचाए रखने और उनके भीतर प्रगति व परिपूर्णता की भूमि समतल करने के लिए पैग़म्बरों को दायित्व सौंपा है कि वे लोगों को ईश्वरीय कथन सुनाकर तथा उन्हें तत्वदर्शिता की बातें सिखाकर उनकी बुद्धि तथा प्रवृत्ति का प्रशिक्षण करे और उन्हें पतन तथा पथभ्रष्टता से मुक्ति दिलाए।
 इस आयत से हमने सीखा कि पैग़म्बरों का भेजा जाना मनुष्य के लिए सबसे बड़ा आसमानी उपहार है। हमें इस उपहार का मूल्य समझना चाहिए।
 स्वयं को पापों से पवित्र रखना ज्ञान प्राप्ति पर प्राथमिकता रखता है। केवल वह ज्ञान लाभदायक होता है जिसका स्रोत पवित्र एवं स्वच्छ हो।
 आत्मनिर्माण तथा स्वयं को पापों से पवित्र बनाना, पैग़म्बरों की शिक्षाओं और ईश्वरीय आयतों की छाया में होना चाहिए। ईश्वरीय कथनों और पैग़म्बरों की शिक्षाओं से हटकर की जाने वाली उपासनाएं स्वयं एक पथभ्रष्टता हैं।



सूरए आले इमरान की १६५वीं आयत 
जब भी तुम पर कोई मुसीबत पड़ती है, कि जिसकी दोगुनी (तुम युद्ध में शत्रु पर) डाल चुके हो, तो कहते हो यह (मुसीबत) किस की ओर से है? (हे पैग़म्बर!) कह दो कि यह स्वयं तुम्हारी ओर से है। निःसन्देह, ईश्वर हर काम में सक्षम है। (3:165)
 ओहद के युद्ध में जब सत्तर मुसलमान शहीद हो गए और उन्हें पराजय हो गई तो उन्होंने पैग़म्बर से पूछा कि हमें क्यों पराजय हुई? उनके उत्तर में ईश्वर कहता है कि पिछले वर्ष बद्र के युद्ध में तुम शत्रु को इससे दोगुनी क्षति पहुंचा चुके हो क्योंकि तुमने उनके सत्तर लोगों की हत्या की और इतने ही लोगों को बंदी भी बनाया था। इसके अतिरिक्त ओहद में तुम्हारी पराजय तुम लोगों की ढिलाई, अवज्ञा तथा मतभेद के कारण हुई। यह मत सोचो कि ईश्वर तुम्हें विजयी बनाने में सक्षम नहीं था। वह हर बात और हर कार्य में सक्षम है परन्तु उसकी सहायता तुम्हारे द्वारा पैग़म्बर के अनुसरण पर निर्भर है। न यह कि तुम पैग़म्बर के आदेशों की अवज्ञा करते जाओ और ईश्वर की ओर से सहायता की भी आशा रखो।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि फ़ैसला करते समय आराम तथा कठिनाई दोनों को एक साथ देखना चाहिए।
 पराजय के कारणों की समीक्षा करते समय, पहले अपने आंतरिक कारणों को देखना चाहिए। दूसरों को अपनी पराजय का ज़िम्मेदार ठहराने के स्थान पर अपनी कमज़ोरियों को पहचानने और उन्हें दूर करने के बारे में अवश्य सोचना चाहिए।



 सूरए आले इमरान की १६६वीं और १६७वीं आयत
और (ओहद) में दो गुटों के बीच युद्ध के दिन जो कुछ तुम पर कठिनाई पड़ी वह ईश्वर की इच्छा से थी ताकि ईमान वाले पहचाने जाएं। (3:166) और मिथ्याचारियों के चेहरे लोगों के लिए स्पष्ट हो जाएं। (उन मिथ्याचारियों से) जब कहा गया कि आओ ईश्वर के मार्ग में युद्ध करो या (कम से कम अपने नगर और घरों की) रक्षा करो तो उन्होंने कहा कि यदि हम युद्ध (के दांव-पेच) जानते तो अवश्य ही तुम्हारा साथ देते। उस दिन वे ईमान के मुक़ाबले में कुफ़्र के अधिक निकट थे। वे ज़बान से ऐसी बातें कहते हैं जिन पर वे हृदय से आस्था नहीं रखते और ईश्वर से वे जो कुछ छिपाते हैं वह उसको अधिक जानने वाला है। (3:167)
 पिछले कार्यक्रमों में यह उल्लेख किया गया था कि जब मक्के के अनेकेश्वरवादियों द्वारा मदीने पर आक्रमण की सूचना मिली तो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने परामर्श के लिए मस्जिद में एक बैठक बुलाई। उस बैठक में बहुमत से यह निर्णय किया गया कि मुसलमान मदीना नगर के बाहर निकलें और ओहद नामक पर्वत के आंचल में जाकर शत्रु का मुक़ाबला करें। परन्तु मदीने के कुछ विशिष्ट लोगों का यह मत था कि नगर में ही रहा जाए और घरों को मोर्चा बनाकर शत्रु का मुक़ाबला किया जाए। पैग़म्बरे इस्लाम ने युवाओं के मत को जो, अधिकांश लोगों का मत था, उनकी राय पर प्राथमिकता दी थी। अतः वे बहुत नाराज़ हुए। इसी लिए ओहद के लिए रवाना होते समय वे स्वयं भी विभिन्न बहानों से वापस आ गए और कुछ मुसलमानों की भावनाओं को कमज़ोर बनाकर उन्हें अपने साथ आधे मार्ग से ही लौटा लाए।
 क़ुरआन, ईमान वालों को संबोधित करते हुए कहता है कि यद्यपि ओहद का युद्ध बहुत ही कठिन एवं कटु था परन्तु उसके कारण सच्चे ईमान वाले, झूठे दावेदारों से अलग हो गए और यह स्पष्ट हो गया कि कौन लोग पैग़म्बर के आदेश के सामने सिर झुकाने वाले हैं और कौन लोग, पैग़म्बर को अपने लक्ष्यों की पूर्ति के लिए चाहते हैं।
 इन आयतों से हमने यह सीखा कि जीवन की मीठी व कटु घटनाएं, लोगों को पहचानने के लिए ईश्वरीय परीक्षा का मैदान हैं। सचेत रहें कि इन परीक्षाओं मंी हम कहीं अनुत्तीर्ण न हो जाएं।
 दोमुखी आचरण और मिथ्या, मनुष्य को कुफ़्र व इन्कार की ओर ले जाती है। यह नहीं सोचना चाहिए कि जैसा देस वैसा भेस करने में चतुरता है बल्कि सच्ची और सदैव एक प्रकार की बात करना ही सफलता व विजय का सबसे बड़ा रहस्य है। अपनी जान, सम्मान और देश की रक्षा करना एक उच्च मान्यता है और जो कोई भी इस राह में मारा जाए वह शहीद समझा जाएगा।



सूरए आले इमरान की १६८वीं आयत
मिथ्याचारी वे लोग हैं जो (स्वयं रणक्षेत्र में जाने से कतरा कर) अपने घरों में बैठ गए हैं परन्तु वे अपने भाइयों के बारे में कहते हैं कि यदि उन्होंने हमारी बात मानी होती तो वे मारे न जाते। (हे पैग़म्बर!) उनसे कह दो कि यदि तुम सच्चे हो तो मौत को अपने से दूर कर लो। जिन लोगों ने युद्ध से पूर्व अपने उल्लंघनों द्वारा मुसलमानों में फूट डाली और उनकी भावनाओं को कमज़ोर बनाया उन्होंने युद्ध के पश्चात भी अपने निराशावादी प्रचार नहीं छोड़े और अपने सम्मान एवं नगर की रक्षा में ढिलाई के कारण स्वयं को बुरा भला कहने के स्थान पर उन्होंने उन लोगों को बुरा भला कहा जो रणक्षेत्र में गए और शहीद हो गए। जबकि मौत केवल रणक्षेत्र में ही नहीं आती बल्कि किसी को भी मौत से छुटकारा नहीं है। (3:168)
 इसी कारण ईश्वर उनको संबोधित करते हुए कहता है कि यह मत सोचो कि युद्ध से भाग कर तुम मौत से बच गए हो। मौत तो सभी के लिए है। धन्य हैं वे लोग जो ईश्वर की आज्ञा के पालन के मार्ग में आगे बढ़कर मौत को गले लगा लेते हैं और कितना बुरा हाल है उनका जो मौत से भागते हुए उसी के चुंगल में फंस जाते हैं।
 इस आयत से हमने यह सीखा कि शत्रु के आक्रमण के स्थान पर घर में बैठे रहना और इस्लामी समाज के लिए ख़तरा उत्पन्न करना मिथ्याचार और बेईमानी की निशानी है।
 शहीदों के परिजनों और घायल योद्धाओं की भावनाओं को कमज़ोर बनाना इस्लामी समाज के मिथ्याचारियों के कार्यक्रमों में से एक है। मिथ्याचारी स्वयं को अन्य लोगों से श्रेष्ठ समझते हैं इसी कारण उनकी यह इच्छा होती है कि अन्य लोग उनके विचारों और उनकी इच्छाओं का अनुसरण करें।

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