कुरान तर्जुमा और तफसीर सूरए निसा ४:129-146- बहुत पत्नी
सूरए निसा की आयत संख्या 129 और तुम कितना ही चाहो, अपनी पत्नियों के बीच पूर्ण न्याय नहीं कर सकते तो केवल एक ही की ओर न झुक जाओ और दूसरी ...

और तुम कितना ही चाहो, अपनी पत्नियों के बीच पूर्ण न्याय नहीं कर सकते तो केवल एक ही की ओर न झुक जाओ और दूसरी को अधर में छोड़ दो और (जान लो कि) यदि तुम समझौता कर लो और ईश्वर से डरते रहो तो निःसन्देह, ईश्वर अत्यंत क्षमाशील और दयावान है। (4:129)
यह आयत उन पुरुषों को संबोधित करती है जिनकी कई पत्नियां हैं। पिछली आयत में सभी पुरूषों को अपने पारिवारिक जीवन में भलाई और सुधार की सिफ़ारिश करने के पश्चात इस आयत में ईश्वर कई पत्नियों वाले पुरूषों को न्याय की सिफ़ारिश करता है। इस आयत पर चर्चा से पूर्व हम आपका ध्यान कुछ महत्वपूर्ण बातों की ओर आकृष्ट करना चाहते हैं।
प्रथम यह है कि इस्लाम ने कई पत्नियां रखने की कोई सिफ़ारिश नहीं की है बल्कि कुछ शर्तों के साथ इसको वैध माना है।
दूसरे यह कि कुछ परिस्थितियां जैसे प्राकृतिक आपदाएं, युद्ध या सामाजिक स्थितियां, कई पत्नियां रखने की भूमि प्रशस्त करती हैं। ऐसी स्थिति में यदि वैध रूप से उनके लिए मार्ग न खोला जाए तो अवैध रूप से यह संबंध फैलने लगते हैं। इस प्रकार की बुराई आज पश्चिमी समाजों में देखने को मिलती है जहां पर कई पत्नियां रखने का मामला नहीं है किंतु वहां पर पुरुष बड़ी ही सरलता से कई महिलाओं से खुल्लम-खुल्ला या गुप्त संबंध रख सकते हैं और रखते हैं किंतु इसे नियंत्रित करने की कोई व्यवस्था नहीं है।
इसी कारण इस्लाम ने कई पत्नियां रखने को वर्जित या प्रोत्साहित किये बिना ही कुछ विशेष शर्त निर्धारित करके इसे सीमित कर दिया है। इस्लाम ने न्याय को कई पत्नियां रखने के मामले में मूल शर्त बताया है। इसी सूरे की तीसरी आयत में हम पढ़ते हैं कि यदि तुम्हें इस बात का भय हो कि तुम न्याय नहीं कर सकते तो केवल एक ही पत्नी रखो।
तीसरे यह कि क़ानून से अनुचित लाभ उठाने की संभावना हर स्थान पर है और हो सकता है कि कुछ पुरुष इस ईश्वरीय क़ानून से ग़लत लाभ उठाकर, बिना शर्त और योग्यता के ही कई विवाह कर लें, परन्तु स्पष्ट है कि कुछ लोगों द्वारा अनुचित लाभ उठाए जाने के कारण क़ानून को समाप्त नहीं किया जा सकता।
अब इस आयत की संक्षिप्त व्यवस्था करते हैं। यह आयत पुरुषों से कहती है कि महिलाओं के साथ व्यवहार और उनके अधिकारों की पूर्ति में न्याय से काम लो ताकि तुम्हारा दोमुखी व्यवहार दूसरी पत्नी के असंतोष और अधर में रहने का कारण न बने, विशेषकर पत्नियों के बीच प्रेम और हार्दिक लगाव के संबंध में पूर्णतः न्याय करो।
इस आयत से हमने सीखा कि पुरुष को किसी भी स्थिति में यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी पत्नी को अधर में छोड़ दे। या तो पारिवारिक जीवन में उसके सभी अधिकारों की पूर्ति करे या फिर उसे तलाक़ दे दे ताकि वह अपने बारे में स्वयं कोई फ़ैसला कर सके।
पति और पत्नी के बीच प्रेम व मित्रता तथा ईश्वरीय भय रखना, किसी भी परिवार की सुदृढ़ता का आधार है जिससे ईश्वरीय दया व कृपा प्राप्त होती है।
सूरए निसा की आयत संख्या 130
और यदि पति पत्नी एक दूसरे से अलग हो जाएं तो वे (ईश्वरीय कृपा से निराश न हों क्योंकि) ईश्वर दोनों को अपनी व्यापक कृपा से आवश्यकतामुक्त कर देगा और निःसन्देह, ईश्वर अतयंत समाई वाला और तत्वदर्शी है। (4:130)
इस्लाम की महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक यह है कि वह परिवार तथा समाज की आवश्यकताओं तथा वास्तविकताओं के आधार पर व्यवहारिक और तर्कसंगत समाधान प्रस्तुत करता है। इस्लाम अपने अनुयाइयों को एक शुष्क व बिना लचक वाली विचारधारा की भांति बंद गली में नहीं छोड़ता और न ही उन्हें असंभ काम करने का आदेश देता है।
समाज में बहुत अधिक सामने आने वाला एक विषय, तलाक़ है। इस्लाम युवाओं को विवाह के लिए जितना ही प्रोत्साहित करता है उन्हें तलाक़ के लिए उतना ही रोकता है। परन्तु कभी परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि पति और पत्नी का एक साथ रहना असंभव हो जाता है। ऐसे समय में दोनों को कुढ़-कुढ़ कर साथ रहने पर विवश नहीं किया जा सकता कि वे सदैव ही मानसिक दबाव का शिकार रहें।
इस्लाम ने पति और पत्नी के लिए कुछ शर्तें रखकर उनसे अलग होने का मार्ग खुला छोड़ा है। इस्लाम उनसे कहता है कि एक विवाह के विफल हो जाने के कारण तुम सदा के लिए निराश न हो बल्कि ईश्वर की कृपा की आशा रखो और दूसरा जीवन गठित करने और दूसरे परिवार में ईश्वरीय दया प्राप्त करने का प्रयास करो क्योंकि ईश्वर के हाथ बंधे हुए नहीं हैं और उसकी कृपा केवल पिछले जीवन तक ही सीमित नहीं है।
इस आयत से हमने सीखा कि एक मुसल्मान व्यक्ति के जीवन के मार्ग में कोई बंद गली नहीं है। यदि क्षमा, समझौता और ईश्वरीय भय, परिवार को सुरक्षित न रख सके तो फिर तलाक़ का मार्ग मौजूद है। अलबत्ता पहला क़दम सुधार है और अन्तिम कार्य तलाक़।
तलाक़ हर स्थान पर बुरा नहीं है। ऐसी अनेक पारिवारिक समस्याएं हो सकती हैं जो आत्महत्या या अवैध संबंधों का कारण बनें।
सूरए निसा की आयत संख्या 131 और 132
और जो कुछ आकाशों और धरती में है सब ईश्वर का है और हमने तुमसे पूर्व आसमानी किताब रखने वालों और तुमको भी ईश्वरीय भय रखने की सिफ़ारिश की है और यदि तुमने इन्कार किया तो जान लो कि जो कुछ आकाशों और धरती में है सब ईश्वर ही का है और निसन्देह, ईश्वर सदैव ही आवश्यकतामुक्त और प्रशंसा का अधिकारी है। (4:131) और ईश्वर ही का है जो कुछ आकाशों और धरती में है और भरोसे के लिए ईश्वर काफ़ी है। (4:132)
पिछली आयतों में पुरुषों और महिलाओं को अपने जीवन विशेषकर पारिवारिक मामलों में पवित्रता और ईश्वरीय भय अपनाने की सिफ़ारिश करने के पश्चात आयतें कहती हैं कि यह सिफ़ारिश केवल तुमसे विशेष नहीं है बल्कि तुमसे पूर्व के सभी धर्मों के अनुयाइयों से भी यह सिफ़ारिश की गई है।
और यह न सोचो कि यह सिफ़ारिश ईश्वर के लाभ में है क्योंकि उसे तुम्हारी कोई आवश्यक्ता नहीं है वह सभी आकाशों और धरती का मालिक है। उसको तुम्हारे अस्तित्व ही की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम्हारा भय तो बड़ी बात है अतः यदि तुम और संसार के सभी लोग काफ़िर भी हो जाएं तब भी ईश्वर को कोई क्षति नहीं पहुंचेगी।
रोचक बात यह है कि इन आयतों में ईश्वर के संपूर्ण स्वामित्व की बात तीन बार दोहराई गई है ताकि लोगों द्वारा उसके आदेशों के पालन के संबंध में उसकी आवश्यकता के बारे में कोई भ्रांति न रह जाए।
इन आयतों से हमने सीखा कि ईश्वरीय धर्मों में विरोधाभास नहीं है बल्कि सभी ईश्वरीय धर्मों का स्रोत एक है और इन सब में ईश्वरीय आदेशों के पालन की बात कही गई है।
केवल उसी से डरना चाहिए जो सभी मनुष्यों और ब्रह्माण्ड का स्वामी हो। उसके अतिरिक्त किसी से भी नहीं डरना चाहिए। उसी पर भरोसा करना चाहिए जो सभी आकाशों और धरती का स्वामी तथा सबसे अधिक शक्तिशाली और आवश्यकतामुक्त है।
सूरए निसा की आयत संख्या 133
हे लोगो! यदि ईश्वर तुम्हारा अंत करके तुम्हारे स्थान पर दूसरे को लाना चाहे तो जान लो कि वह इसमें सक्षम है। (4:133)
यह आयत कहती है कि तुम लोग यह न सोचो कि ईश्वर तुम्हें जो आदेश देता है उसकी उसे कोई आवश्यकता है। ईश्वर को तो तुम्हारी भी कोई आवश्यकता नहीं है। क्या जब तुम नहीं थे तो उस समय ईश्वर की कोई समस्या थी जो तुम्हारे आने से समाप्त हो गई? अतः ईश्वर के सामने घमण्ड और अकड़ से काम मत लो क्योंकि यदि वह चाहे तो तुम उद्दंडी लोगों का अंत करके तुम्हारे स्थान पर आज्ञाकारी लोगों को ला सकता है।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वर द्वारा काफ़िरों को अवसर देना उसकी कमज़ोरी व अक्षमता की निशानी नहीं है बल्कि इसका कारण उसकी दया व तत्वदर्शिता है।
हमारे पास जो कुछ भी है वह ईश्वर की ओर से ही है। हमें यह सोच कर घमण्ड नहीं करना चाहिए कि जो कुछ हमारे पास है वह हमेशा रहेगा।
सूरए निसा की आयत संख्या 134
जो कोई संसार का बदला और पारितोषिक चाहता है वह जान ले कि लोक-परलोक का बदला और पारितोषिक ईश्वर के पास है और वह देखने वाला भी है और सुनने वाला भी। (4:134)
यह आयत उन संकीर्ण दृष्टि के ईमान वालों की ओर संकेत करती है जो ईश्वर पर ईमान तो रखते हैं परन्तु केवल अपने सांसारिक एश्वर्य के चक्कर में रहते हैं। एसे लोग युद्ध में भी भाग लेते हैं परन्तु युद्ध से प्राप्त होने वाले भौतिक लाभों और परिणामों के विचार में रहते हैं। इन लोगों को संबोधित करते हुए ईश्वर कहता है कि तुम लोग जो ईश्वर पर ईमान रखते हो, केवल अपने संसार को ही ईश्वर से क्यों मांगते हो जबकि लोक और परलोक दोनों ही ईश्वर के पास है। क्या तुम यह सोचते हो कि यदि परलोक के ध्यान में रहोगे तो संसार से वंचित रह जाओगे? जबकि ईश्वर, ईमान वालों के लिए लोक-परलोक दोनों ही में कल्याण व मोक्ष चाहता है और एक के कारण दूसरे को छोड़ना घाटा है।
इस आयत से हमने सीखा कि यदि भले कर्म करने से मनुष्य का लक्ष्य उसका सांसारिक परिणाम हो तो फिर उसने अपना बहुत घाटा किया है।
इस्लाम एक व्यापक और वास्तविकता पर आधारित धर्म है और अपने अनुयाइयों को लोक-परलोक दोनों ही प्राप्त करने की सिफ़ारिश करता है।
सूरए निसा की आयत संख्या 135
हे ईमान वालो! सदैव न्याय क़ाएम करने और ईश्वर के लिए गवाही देने वाले बनो चाहे वह स्वयं तुम्हारे, तुम्हारे माता-पिता या परिजनों के विरुद्ध ही क्यों न हो, जिसके लिए गवाही देना है चाहे वह धनवान हो या दरिद्र, ईश्वर दोनों के मुक़ाबले में तुम्हारे लिए बेहतर है तो कदापि अपनी ग़लत आंतरिक इच्छाओं का अनुसरण न करना ताकि न्याय कर सको। और यदि तुमने गवाही देने में तोड़ मरोड़ से काम लिया या सत्य से विमुख हो गए तो जान लो कि तुम जो कुछ करते हो ईश्वर उससे अवगत है। (4:135)
पिछली आयतों में पत्नियों और अनाथों के मामले में न्याय से काम लेने की सिफ़ारिश करने के पश्चात ईश्वर इस आयत में एक मूल व व्यापक सिद्धांत के रूप में सभी ईमानवालों को संबोधित करते हुए कहता है कि हर स्थिति में हर व्यक्ति के बारे में पूर्णतः न्याय करना चाहिए चाहे इसमें अपना, अपने परिजनों या मित्रों का घाटा ही क्यों न हो। चूंकि प्रायः मनुष्य अपने फ़ैसलों में रिश्तों या लोगों की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखता है और यह जानने के बावजूद कि ग़लती उसके परिजनों की है, उनके हित में गवाही देता है, या पैसों के लालच में धनवानों के हित में गवाही देता है या फिर ग़रीबों की दरिद्रता पर तरस खाकर उनके हित में गवाही देता है। अतः यह आयत कहती है कि फ़ैसलों और गवाही में केवल ईश्वर को ही दृष्टि में रखो न कि अपने रिश्तों या लोगों की आर्थिक स्थिति को।
यह आदेश पूर्णतः स्पष्ट करता है कि इस्लाम ने इस मानवीय विषय पर कितना अधिक ध्यान दिया है और ईमान वालों को हर स्तर पर समाजिक न्याय के पालन की सिफ़ारिश की है।
इस आयत से हमने सीखा कि न्याय, पैग़म्बरों के भेजे जाने का लक्ष्य और उनके अनुयाइयों के ईमान का अभिन्न अंग है तथा इसका मानदण्ड ईश्वर और ईश्वरीय आदेश है।
जीवन के सभी पहलुओं में और सभी लोगों के साथ न्याय करना चाहिए चाहे कि किसी भी धर्म से संबंध रखते हों।
क़ानून के सामने सब बराबर हैं। न्याय स्थापित करने में, ग़रीब और धनवान में कोई अंतर नहीं है, चाहे न्याय उसके हित में हो या उसके विरुद्ध।
न्याय लागू करने की सबसे अच्छी ज़मानत ईश्वर और हमारे कर्मों से उसके अवगत होने पर ईमान अर्थात विश्वास है।
सूरए निया की आयत संख्या 136
हे ईमान वालो! ईश्वर, उसके पैग़म्बर, उस किताब पर जो उसने अपने पैग़म्बर पर उतारी और उस किताब पर ईमान लाओ जो उनसे पूर्व उतारी गई है और जान लो कि जो, ईश्वर, उसके फ़रिश्तों, उसके पैग़म्बरों, उसकी किताबों और प्रलय के दिन का इन्कार करे, निःसन्देह, वह गहरी पथभ्रष्टता में जा गिरा है। (4:136)
यह आयत ईमान वालों को अपने ईमान के विकसित करने और उसमे गहराई लाने का निमंत्रण देते हुए कहती है कि आगे बढ़कर ईमान के उच्च दर्जे प्राप्त करो, उसपर जमे रहो और उससे तनिक भी दूर मत जाओ।
स्पष्ट सी बात है कि ईमान के विभिन्न स्तर और दर्जे हैं। जिस प्रकार से ज्ञात के अलग-अलग दर्जे होते हैं। एक वैज्ञानिक भौतिकशास्त्र या रसानयशास्त्र के किसी फ़ार्मूले से जो बात समझता है वह उससे कहीं अधिक व गहरी होती है जो कालेज का एक छात्र उसी फ़ार्मूले से समझता है। इसी कारण ईश्वर ईमान वालों को हर स्थिति में अपने ईमान को परिपूर्ण बनाने का निमंत्रण देता है जिसके लिए आवश्यक यह है कि ईश्वर के आदेशों का अधिक से अधिक पालन किया जाए।
आगे चलकर आयत, एक महत्वपूर्ण ख़तरे की ओर संकेत करते हुए, जो ईमान वालों को लगा रहता है, कहती है कि यदि किसी ईमान वाले व्यक्ति का ईमान इतना कमज़ोर हो जाए कि वह धीरे-धीरे अपनी आस्थाओं का इन्कार कर दे तो वह बड़ी ही गहरी पथभ्रष्टता में फंस जाएगा जिससे निकलना अत्यंत ही कठिन होगा।
इस आयत से हमने सीखा कि ईश्वरीय धर्म, एक स्कूल की कक्षाओं की भांति है और पैग़म्बर उसके शिक्षकों की भांति जिनका लक्ष्य एक है अतः सभी पैग़म्बरों और उनकी किताबों पर ईमान, ईश्वर पर ईमान के लिए अपरिहार्य है।
ईमान की रक्षा और उसकी प्रगति का मार्ग उसमें वृद्धि और व्यापकता लाना है। ईमान वाले व्यक्ति को सदैव ईमान के उच्च दर्जों तक पहुंचने का प्रयास करना चाहिए।
सूरए निसा की आयत संख्या 137 की तिलावत सुनते हैं।
सूरए निसा की आयत संख्या 142 की तिलावत सुनते हैं।