इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी |

जनाब जीशान जैदी ने एक बहुत ही सराहनीय लेख ईद ऐ ग़दीर के मौके पे हजरत अली (अ.स) की शान में लिखा है जिसे आप सभी के सामने पेश कर रहा हूँ | यह...

151063_144561265691093_998476304_nजनाब जीशान जैदी ने एक बहुत ही सराहनीय लेख ईद ऐ ग़दीर के मौके पे हजरत अली (अ.स) की शान में लिखा है जिसे आप सभी के सामने पेश कर रहा हूँ |
यह एक ऐसा सवाल है जो न सिर्फ मुसलमानों बलिक गैर मुस्लिमों के ज़हन में अक्सर उभरता रहता है। यह सवाल विवादित भी बहुत ज़्यादा है। क्योंकि इसी सवाल पर इस्लाम कई फिरकों में विभाजित हो चुका है। पैगम्बर मोहम्मद(स.) के वक्त में निर्विवाद रूप से वही सर्वोच्च थे और अक्सर लोग उन्हें इस्लाम धर्म का संस्थापक भी समझते हैं। हालांकि यह एक गलतफहमी है। क्योंकि इस्लाम धर्म तो ज़मीन पर पहले इंसान हज़रत आदम(अ.) के साथ ही उतर चुका था और वही इसके पहले नबी थे। जबकि पैगम्बर मोहम्मद(स.) इसके अंतिम नबी हुए हैं। यानि पैगम्बर मोहम्मद(स.) के साथ इस दीन की शरीयत मुकम्मल हो गयी और अब इसमें आगे कोई भी परिवर्तन नहीं होना है।
लेकिन इसी के साथ ये भी किताबों में आया है कि ज़मीन कभी हुज्जते खुदा से खाली नहीं रहती। तो ज़ाहिर है पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद भी खुदा के दीन के ऐसे रहबर होने चाहिए जिनके कन्धों पर दीन को दुनिया में बाक़ी रहने का दारोमदार हो और जो ज़मीन पर खुदा की हुज्जत हों। और कम से कम दुनिया में अल्लाह का कोई न कोई ऐसा बन्दा हमेशा होना चाहिए। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो दुनिया में हमेशा एक इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी होना चाहिए। तो सवाल ये पैदा होता है कि पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद इस पद पर किसको माना जाये? इसके लिये पहले हमें देखना होगा कि खुदा इस पद पर किसको देखना पसंद करता है।       
इस्लाम में रहबर बनने के लिए जो गुण इंसान में होने चाहिये उनमें धन दौलत शामिल नहीं है, बल्कि वह ईमान रखने वाला, अच्छे कामों को करने वाला, स्वस्थ व ज्ञानी होना चाहिए। कुरान इस बारे में बताता है। 
(24 : 55) तुम में से जिन लोगों ने ईमान कुबूल किया और अच्छे अच्छे काम किए उन से अल्लाह ने वायदा किया कि उन को रुए ज़मीन पर ज़रुर (अपना) नाएब मुक़र्रर करेगा जिस तरह उन लोगों को नाएब बनाया जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं और जिस दीन को उसने उनके लिए पसन्द फरमाया है (इस्लाम) उस पर उन्हें ज़रुर पूरी कुदरत देगा
(2 : 247) और उनके नबी ने उनसे कहा कि बेशक अल्लाह ने तुम्हारी दरख्वास्त के (मुताबिक़) तालूत को तुम्हारा बादशाह मुक़र्रर किया (तब) कहने लगे उस की हुकूमत हम पर क्यों कर हो सकती है हालांकि सल्तनत के हक़दार उससे ज्यादा तो हम हैं क्योंकि उसे तो माल के एतबार से भी खुशहाली तक नसीब नहीं (नबी ने) कहा अल्लाह ने उसे तुम पर फज़ीलत दी है और माल में न सही मगर इल्म और जिस्म की ताक़त तो उस को अल्लाह ने ज़्यादा अता की है.
बात करें अगर पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद अरब के शासकों की तो वह दुनियावी शासक थे। नि:संदेह उन्होंने अच्छे काम भी किये और इंसानी कमज़ोरियां भी उनके अन्दर रहीं। उमय्यद वंश या अब्बासी वंश को अगर देखा जाये तो उनमें बहुत से शासक (सब नहीं) गुनाहों में भी लिप्त रहे। तो मात्र इसलिए कि सत्ता उनके हाथ में रही, उन्हें धर्म का सर्वोच्च अधिकारी मानना एक भूल है। कुरआन के अनुसार धर्म का सर्वोच्च अधिकारी तो वही हो सकता है जो गुनाहों से हमेशा दूर रहा हो, जो पूरी तरह साहिबे ईमान रहा हो, जिसने हमेशा अच्छे काम किये जो इल्म व सेहत में औरों से आगे रहा हो। 
सवाल ये उठता है कि फिर उन गुणों को रखने वाला धर्म का सर्वोच्च अधिकारी कौन? इस बारे में कुरआन कई इशारे करता है और बाक़ी चीज़ें इतिहास को खंगालने पर मिलती हैं।
कुरआन कहता है, 
(42:23) (ऐ रसूल) तुम कह दो कि मैं इस (तबलीग़े रिसालत) का अपने क़रातबदारों (एहले बैत) की मवददत के सिवा तुमसे कोई सिला नहीं मांगता और जो शख्स नेकी हासिल करेगा हम उसके लिए उसकी ख़ूबी में इज़ाफा कर देंगे बेशक वह बड़ा बख्शने वाला क़दरदान है।
ज़ाहिर है कि कुरआन जो भी हुक्म देता है वह धर्म से ही ताल्लुक रखता है। यानि पैगम्बर मोहम्मद(अ.) के बाद धर्म के जो अधिकारी होते वह अहलेबैत ही में से मिलने वाले थे। मवददत का मतलब होता है कि मोहब्बत के साथ पैरवी की जाये। यानि अहलेबैत से मोहब्बत और साथ साथ उनके नक्शे कदम पर चलने का हुक्म कुरआन दे रहा है। अल्लाह ऐसे लोगों की पैरवी का हुक्म हरगिज़ नहीं देगा जिनमें धर्म से मुताल्लिक ज़रा भी कमी पायी जायेगी। अहलेबैत हमेशा गुनाहों से पाक रहे हैं इसकी भी गवाही कुरआन इन अलफाज़ में दे रहा है :
(33:33) ऐ अहले बैत, अल्लाह तो बस ये चाहता है कि तुमको (हर तरह की) बुराई से दूर रखे और जो पाक व पाकीज़ा दिखने का हक़ है वैसा पाक व पाकीज़ा रखे।
(37:130) कि (हर तरफ से) आले यासीन (यानि अहले बैत) पर सलाम (ही सलाम) है
(33:56) इसमें भी शक नहीं कि अल्लाह और उसके फरिश्ते पैग़म्बर और उनकी आल पर दुरूद भेजते हैं तो ऐ ईमानदारों तुम भी दुरूद भेजते रहो और बराबर सलाम करते रहो।
अब सवाल ये पैदा होता है कि अहलेबैत कौन हैं। तो इसका जवाब भी कुरआन ही दे रहा है इस आयत के साथ,
(3 : 61-62-63) फिर जब तुम्हारे पास इल्म (कुरान) आ चुका उसके बाद भी अगर तुम से कोई (नसरानी) ईसा के बारे में हुज्जत करें तो कहो कि आओ हम अपने बेटों को बुलाएं तुम अपने बेटों को और हम अपनी औरतों को (बुलाएँ) और तुम अपनी औरतों को और हम अपने नफ्सों को बुलाएं ओर तुम अपने नफ्सों को।  उसके बाद हम सब मिलकर (अल्लाह की बारगाह में) गिड़गिड़ाएं और झूठों पर अल्लाह की लानत करें (ऐ रसूल) ये सब यक़ीनी सच्चे वाकि़यात हैं और अल्लाह के सिवा कोई माबूद (क़ाबिले परस्तिश) नहीं है। और बेशक अल्लाह ही सब पर ग़ालिब और हिकमत वाला है। 
यह आयत उस वक्त नाजि़ल हुई थी जब ईसाई पैगम्बर मोहम्मद(स.) से हज़रत ईसा(अ.) के खुदा का बेटा होने पर बहस कर रहे थे। उस वक्त खुदा ने कहा कि दोनों अपने अपने घरवालों (यानि अहलेबैत) को ले कर आयें और झूठों पर लानत करें। अब इतिहास में यह साफ साफ दर्ज है कि पैगम्बर मोहम्मद(स.) मैदान में नफ्स की जगह हज़रत अली(अ.), औरतों की जगह अपनी बेटी फातिमा(स.) और बेटों की जगह हसन(अ.) व हुसैन(अ.) को लेकर गये थे। ईसाइयों ने जब इन हस्तियों को आते हुए देखा तो काँप गये और कहने लगे कि अगर इन्होंने बददुआ कर दी तो उनकी पूरी नस्ल खत्म हो जायेगी। उन्होंने फौरन सरेंडर कर दिया।
उपरोक्त आयत से स्पष्ट होता है कि अहलेबैत में हज़रत अली(अ.), बीबी फातिमा(स.), इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) शामिल हैं। और यही पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी हैं। तो इनकी पैरवी करना पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद हर मुसलमान पर फ़र्ज़ हो जाता है। जैसा कि कुरआन कहता है,
(5:55) (ऐ ईमानदारों) तुम्हारे मालिक सरपरस्त तो बस यही हैं अल्लाह और उसका रसूल और वह मोमिनीन जो पाबन्दी से नमाज़ अदा करते हैं और हालत रुकूउ में ज़कात देते हैं
(5:56) और जिस शख्स ने अल्लाह और रसूल और (उन्हीं) ईमानदारों को अपना सरपरस्त बनाया तो (अल्लाह के) लश्कर में आ गया (और) इसमें तो शक नहीं कि अल्लाह ही का लशकर ग़लिब रहता है।
(4:59) ऐ ईमानदारों अल्लाह की इताअत करो और रसूल की और जो तुममें से साहेबाने अम्र हों उनकी इताअत करो।
रसूल अल्लाह(स.) की हदीसों से यह साबित है कि उन्होंने अपने बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में हज़रत अली(अ.) को नियुक्त किया था। इसमें सबसे मशहूर ग़दीर का एलान है जो उन्होंने अपने आखिरी हज से वापसी के बाद ग़दीर के मैदान में 10 मार्च 632 ई. (18जि़ल-हिज 10 हिजरी) मुसलमानों को संबोधित करते हुए किया, ''जिसका जिसका मैं मौला हूँ उसके उसके अली(अ.) मौला हैं। इस एलान से पहले कुरआन की यह आयत नाजि़ल हुई थी, 
(5:67) ऐ रसूल जो हुक्म तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से तुम पर नाजि़ल किया गया है पहुँचा दो और अगर तुमने ऐसा न किया तो (समझ लो कि) तुमने उसका कोई पैग़ाम ही नहीं पहुँचाया और (तुम डरो नहीं) अल्लाह तुमको लोगों के शर से महफूज़ रखेगा। अल्लाह हरगिज़ काफिरों की क़ौम को मंजि़ले मक़सूद तक नहीं पहुँचाता।
और उस एलान के फौरन बाद कुरआन की यह आयत नाजि़ल हुई, (5:3) (मुसलमानों) अब तो कुफ्फार तुम्हारे दीन से मायूस हो गए तो तुम उनसे तो डरो ही नहीं बलिक सिर्फ मुझी से डरो आज मैंने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुमपर अपनी नेअमतें पूरी कर दीं और तुम्हारे दीने इस्लाम को पसन्द किया। यानी हज़रत अली(अ.) की जानशीनी के एलान के बाद ही इस्लाम मुकम्मल हुआ.   
उपरोक्त घटना को कम से कम 110 पैगम्बर मोहम्मद(स.) के सहाबियों ने बयान किया है जो उस समय मौजूद थे। ग़दीर में उपरोक्त एलान के अलावा एक और एलान भी हुआ था, ''कि मैं तुम्हारे बीच दो चीज़ें छोड़कर जा रहा हूं कुरआन और अहले बैत। ये दोनों कभी अलग न होंगे यहाँ तक कि मुझसे आकर कौसर पर मिल जायेंगे। हालांकि इस हदीस में थोड़ा इखितलाफ पाया जाता है और अक्सर मुसलमान ''कुरआन और अहलेबैत की बजाय ''कुरआन और सुन्नत भी बयान करते हैं। लेकिन अगर कुरआन की उपरोक्त आयतों की रोशनी में देखा जाये और दूसरे एलान को देखा जाये तो ''अहलेबैत के शामिल होने की संभावना ही ज़्यादा दिखाई देती है।
इससे ये साबित हो जाता है कि रसूल(स.) के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का पद अल्लाह ने अहलेबैत को ही दिया। इतिहास का कोई पन्ना अहलेबैत में से किसी को कोई ग़लत क़दम उठाते हुए नहीं दिखाता जो कि धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का गुण है। यहाँ तक कि जो राशिदून खलीफा हुए हैं उन्होंने भी धर्म से सम्बन्धित मामलों में अहलेबैत व खासतौर से हज़रत अली(अ.) से ही मदद ली।























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