क्या गुनाह करना हमारी मज़बूरी बनता जा रहा है ?

इस्लाम में मुनाफिकत की सज़ा बड़ी सख्त है लेकिन शायद यह लव्ज़ कुछ दुश्मन ऐ इस्लाम के नाम तक महदूद होके आज रह गया है |लोगों को यह एहसास ...


इस्लाम में मुनाफिकत की सज़ा बड़ी सख्त है लेकिन शायद यह लव्ज़ कुछ दुश्मन ऐ इस्लाम के नाम तक महदूद होके आज रह गया है |लोगों को यह एहसास ही नहीं होता की आम जीवन में अपने कामो को अंजाम देते वक़्त कब वो कुफ्र के करीब चला जाता है और कब वो मुनाफिक़त के करीब पहुँच जाता है |
कुफ़्र के करीब एक मुसलमान अक्सर अनजाने में पहुच जाता है लेकिन यह मुनाफिक़त के करीब जान बुझ के जाया करता है और अब तो इसे गुनाह भी नहीं समझता क्यूँ की यह जीने का तरीका बहुत आम होता जा रहा है |

मुनाफ़िक़ कहते उसे हैं जो एलान कुछ करे और अमल उसका कुछ और हो | मुसलमान इस बात का एलान करता है की वो अल्लाह ,उसके रसूल हज़रात मुहम्मद (स.अ.व) और अहलेबैत के बाते रास्ते पे चलेगा लेकिन ऐसा वो करता नहीं है | अपनी नफ्स की कमजोरी के तहत गुनाह का हो जाता और हुआ करता है और हुक्म इ खुदा के खिलाफ चलने का रिवाज बना लेना और हुआ करता है | एक उदाहरण मैं हमेशा देता हूँ की जब इस्लाम में यह तय हो गया की कौन महरम है कौन ना महरम ? औरत को किस्से पर्दा करना है और किस से नहीं तो खुद को मुसलमान कहने वाला ,खुद को बंदा ऐ खुदा कहने वाला इंसान कौन होता है इस अल्लाह के कानून में तबदीली लाने वाला ? एक होता है ना महरम से पर्दा ना करना और एक होता है ना महरम से पर्दा ना करने को सही करार देना और अगर कोई आपको इशारे में समझाने की कोशिश करे तो उससे नाता तोड़ के और बेहयाई करने पे अमादा हो जाते हैं | और यह हाल केवल परदे का नहीं बाल्की हर उस गुनाह का है जो खुले आम किया जाता है और फिर उसको गलती भी नहीं माना जाता है |


समाज मैं असत्य या बुराई से लड़ने के कई तरीके इंसानों ने अपनी समझ और ज़रुरत के अनुसार समय समय पे अपनाये | किसी ने कहा बुरे इंसान के साथ उससे भी अधिक बुरा करो, किसी ने कहा इन्साफ करो जो जितना बुरा करे उसके साथ उतनी ही बुराई करो, किसी ने कहा जो बुरा करे उसके साथ भलाई कर के उस का दिल जीत लो और बुराई से रोक लो|

यकीनन बुराई के बदले भलाई पैगम्बरों ,इमाम का बताया तरीका है | इस सच से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जो शख्स किसी की बुराई के बदले उससे अधिक बुराई और अच्छाई के बदले बुराई का सिला देता है ज़ालिम कहलाता है | लेकिन दुःख की बात यह है की इसी ज़ालिम को आज के युग मैं कामयाब इंसान कहा जाता है | और जो इंसान बुराई के बदले भलाई करे उसे कमज़ोर और कायर समझा जाता है |


सवाल यह उठता है की क्या आप कुरान को ,हजरत मुहम्मद (स.अ.व) की हिदायतों को,इमाम क बताये तरीके को ,जनाब इ फातिमा (स.अव) के परदे को सही नहीं मानते? अगर सही मानते हैं तो उनपे चलने की कोशिश क्यों नहीं करते ?


क्यूँ यजीद की ताक़त को और मुआव्विया के तरीकों को ज़बान से तो बुरा कहा जाता है लेकिन शान उसे किरदार को अपनाने में समझी जाती है और कथा ,मजलिसें इमाम हुसैन (अ.स) की सुनी सुनायी जाती है ? महफ़िलों में वाह वाह उनके किरदार पे करने वाले असंख्य होते हैं और उसपे अमल करने वाले कम |


हकीकत यह है कि हम मानते हैं कि यह सभी पैगम्बर और इमाम (अ.स) कामयाब थे और इनका बताया तरीका ही सही था लेकिन लेकिन यह भी जानते हैं कि इस राह पे चल कर दुनिया मैं बहुत ऐश ओ आराम की ज़िंदगी गुज़ारना संभव नहीं | और हम तो दुनिया के ऐश ओ आराम ,इसकी लज्ज़त उठाने के बदले अपना धर्म, अपना ईमान, अपना किरदार सभी कुछ कुर्बान करने को हर समय तैयार दिखते हैं|

कभी कभी ऐसा भी लागता है कि मुनाफिकात आज रिवाज बनता जा रहा है और गुनाह हमारी मजबूरी? 

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  1. जी हाँ हम गुनहगार हैं क्यूंकि हम इन्सान हैं

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