अपने कर्मो का ज़िम्मेदार मनुष्य खुद |

ईश्वर मुख्य कारक है और वही सब कुछ करता है और उसकी अनुमति के बिना एक पत्ता की नहीं खड़कता यह ऐसे वाक्य हैं जो विदित रूप से बिल्कुल सही लगत...

ईश्वर मुख्य कारक है और वही सब कुछ करता है और उसकी अनुमति के बिना एक पत्ता की नहीं खड़कता यह ऐसे वाक्य हैं जो विदित रूप से बिल्कुल सही लगते हैं किंतु इन वाक्यों और उनके अर्थों को समझने के लिए बहुत अधिक चिंतन व गहराई की आवश्यकता है। अर्थात क्रियाओं पर ईश्वर का प्रभाव कैसा है और किस सीमा तक ईश्वर उस प्रभाव में हस्तक्षेप करता है और किस सीमा तक भौतिक कारक उसमें प्रभावी होते हैं ये बहुत ही गूढ़ विषय हैं और इस प्रभाव के संतुलन को समझने के लिए जहां एक ओर बौद्धिक विकास व विलक्षण बुद्धि चाहिए वहीं इस संतुलन और प्रभाव की सीमा का सही रूप से वर्णन भी आवश्यक है। ईश्वर भौतिक प्रक्रिया पर किस सीमा तक प्रभाव डालता है इस विषय को सही रूप से न समझने के कारण बहुत से लोग पथभ्रष्ट हो गये और उन्होंने संसार की हर क्रिया और प्रक्रिया को पूर्ण रूप से केवल ईश्वर से संबंधित समझ लिया और यह कहा कि ईश्वर के आदेश के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता अर्थात उन लोगों ने भौतिक कारकों के प्रभाव का सिरे से इन्कार कर दिया अर्थात यह दर्शाने का प्रयास किया कि उदाहरण स्वरूप ईश्वर चाहता है कि आग रहे तो गर्मी रहे और यदि कोई खाना खा ले तो उसकी भूख समाप्त हो जायेगी तो चूंकि ईश्वर ऐसा चाहता है कि इस लिए गर्मी उत्पन्न होती है और भूख ख़त्म हो जाती है और गर्मी उत्पन्न करने तथा भूख मिटाने में आग और खाने की कोई भूमिका व प्रभाव नहीं है।


ईश्वर मुख्य कारक है और वही सब कुछ करता है और उसकी अनुमति के बिना एक पत्ता की नहीं खड़कता यह ऐसे वाक्य हैं जो विदित रूप से बिल्कुल सही लगते हैं किंतु इन वाक्यों और उनके अर्थों को समझने के लिए बहुत अधिक चिंतन व गहराई की आवश्यकता है। अर्थात क्रियाओं पर ईश्वर का प्रभाव कैसा है और किस सीमा तक ईश्वर उस प्रभाव में हस्तक्षेप करता है और किस सीमा तक भौतिक कारक उसमें प्रभावी होते हैं ये बहुत ही गूढ़ विषय हैं और इस प्रभाव के संतुलन को समझने के लिए जहां एक ओर बौद्धिक विकास व विलक्षण बुद्धि चाहिए वहीं इस संतुलन और प्रभाव की सीमा का सही रूप से वर्णन भी आवश्यक है। ईश्वर भौतिक प्रक्रिया पर किस सीमा तक प्रभाव डालता है इस विषय को सही रूप से न समझने के कारण बहुत से लोग पथभ्रष्ट हो गये और उन्होंने संसार की हर क्रिया और प्रक्रिया को पूर्ण रूप से केवल ईश्वर से संबंधित समझ लिया और यह कहा कि ईश्वर के आदेश के बिना कोई पत्ता भी नहीं हिलता अर्थात उन लोगों ने भौतिक कारकों के प्रभाव का सिरे से इन्कार कर दिया अर्थात यह दर्शाने का प्रयास किया कि उदाहरण स्वरूप ईश्वर चाहता है कि आग रहे तो गर्मी रहे और यदि कोई खाना खा ले तो उसकी भूख समाप्त हो जायेगी तो चूंकि ईश्वर ऐसा चाहता है कि इस लिए गर्मी उत्पन्न होती है और भूख ख़त्म हो जाती है और गर्मी उत्पन्न करने तथा भूख मिटाने में आग और खाने की कोई भूमिका व प्रभाव नहीं है।



इस प्रकार की सोच व विचार धारा के कुप्रभाव उस समय प्रकट होते हैं जब हम मनुष्य के कामों के दायित्व के बारे में बात करें। अर्थात यदि हम यह बात पूर्ण रूप से मान लें कि संसार में हर काम ईश्वर से संबंधित है और वही हर काम करता है तो फिर मनुष्य और उसके कर्म के मध्य कोई संबंध नहीं रहता अर्थात मनुष्य जो कुछ करता है उसकी उस पर ज़िम्मेदारी नहीं होती।



दूसरे शब्दों में इस ग़लत विचारधारा का एक परिणाम यह होगा कि फिर मनुष्य के किसी काम में उसकी इच्छा का कोई प्रभाव नहीं होगा जिस के परिणाम स्वरूप मनुष्य अपने कामों का ज़िम्मेदार भी नहीं होगा और इस प्रकार से मनुष्य की सब से महत्वपूर्ण विशेषता अर्थात चयन का अधिकार का इन्कार हो जाएगा और हर वस्तु और हर क़ानूनी व्यवस्था खोखली हो जायेगी तथा धर्म व धार्मिक शिक्षाओं का भी कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। क्योंकि यदि मनुष्य को अपने कामों में किसी प्रकार का अधिकार नहीं होगा और सारे काम ईश्वरीय आदेश व इच्छा से होंगे तो फिर दायित्व व धार्मिक प्रतिबद्धता तथा पाप व पुण्य का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा और इस से पूरी धार्मिक व्यवस्था पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाएगा। अर्थात उदाहरण स्वरूप चोरी करना या किसी की हत्या करना धार्मिक रूप से महापाप है और इस पर कड़ा दंड है किंतु यदि हम यह मान लें कि ईश्वर के आदेश के बिना कोई पत्ता नहीं हिलता और मनुष्य के सारे काम ईश्वर के आदेश से होते हैं तो फिर चोर और हत्यारा यह कह सकता है कि यदि मैंने चोरी की या हत्या की तो इसकी ज़िम्दारी मुझ पर नहीं है ईश्वर पर है उसने मुझे से चोरी करवाई और हत्या करवाई तो फिर यदि ज़िम्मेदारी नहीं होगी तो उसे दंड भी नहीं दिया जा सकता इसी प्रकार पुण्य करने वाले को यदि प्रतिफल दिया जाएगा और स्वर्ग में भेजा जाएगा तो भी यह आपत्ति हो सकती है कि यदि उसने अच्छा काम किया तो फिर उसमें उसका क्या कमाल है क्योंकि ईश्वर ने चाहा कि वह अच्छा काम करे इस लिए उसने अच्छा काम किया तो इसका फल उसे क्यों मिले?



इस्लाम में सृष्टि की रचना का उद्देश्य, मनुष्य की रचना के लिए भूमिका तैयार करना बताया गया है ताकि वह अपनी इच्छा से किये जाने वाले कामों द्वारा ईश्वर की उपासना करते और इस प्रकार पारितोषिक और ईश्वर से निकटता का बड़ा इनाम पाए किंतु यदि मनुष्य के पास कोई अधिकार नहीं होगा और वह हर काम विवशता में और कठपुतली की भांति करेगा तथा ईश्वरीय आदेश से करता होगा तो फिर उसे किसी भी प्रकार का इनाम या पुण्य प्राप्त करने का अधिकार नहीं होगा जिससे सृष्टि का उद्देश्य ही ग़लत हो जाएगा और पूरा संसार कठपुतली के खेल की भांति होकर रह जाएगा जहां मनुष्य कठपुतली की भांति चलता- फिरता और काम करता है और उसके कुछ कामों पर उसकी सराहना की जाती है और कुछ कामों पर दंड दिया जाता है।



अब प्रश्न यह है कि यह विचारधारा मनुष्य में पैदा कैसे हुई और इसका मुख्य कारण क्या है? तो इसके उत्तर में हम कहेंगे कि इस प्रकार की विचारधारा का मुख्य कारण, अत्याचारी शासनों के राजनीतिक उद्देश्य हैं क्योंकि यह शासन इस प्रकार की विचारधारा द्वारा, अपने गलत कार्यों का औचित्य दर्शाते थे और अज्ञानी लोगों को अपने वर्चस्व व राज को स्वीकार करने तथा उन्हें प्रतिरोध व संघर्ष से रोकने पर विवश करते थे। इसी लिए इस विचारधारा को राष्ट्रों को भ्रमित करने का मुख्य साधन माना जा सकता है।




पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने जो ज्ञान के वास्तविक स्रोत हैं उन्होंने तीसरा मार्ग सुझाया है और इन दोनों विचारधारों के बीच का मार्ग अपनाया है जिसमें इन दोनों विचार धाराओं की ख़राबियां नहीं हैं |


पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने तीसरा मार्ग सुझाया है अर्थात न ही ईश्वर मनुष्य के समस्त कामों में पूर्ण रूप से हस्तक्षेप करता है और न ही पूर्ण रूप से उसने समस्त कामों को मनुष्य के ऊपर छोड़ दिया है और चूंकि यह बहुत ही गूढ़ चर्चा है इस लिए यदि इस विषय को कोई अच्छी तरह से समझना चाहता है तो उसे बहुत ध्यान रखना होगा।



तीसरा मार्ग यह है कि मनुष्य अपने कामों में न तो पूरी तरह से स्वतंत्र है और न ही पूर्ण रूप से विवश बल्कि कुछ कामों में किसी सीमा तक स्वतंत्र है और कुछ काम पूरी तरह से उसकी क्षमता से बाहर हैं। एक व्यक्ति ने इमाम जाफ़रे सादिक अलैहिस्सलाम से पूछा कि यह जो आप कहते हैं कि मनुष्य अपने कुछ कामों में स्वतंत्र है और कुछ में नहीं तो इसका कोई उदाहरण दे सकते हैं? इमाम ने उससे कहा कि अपना दायां पैर उठा कर खड़े हो जाओ उसने ऐसा ही किया फिर आप ने कहा बायां पैर उठा कर खड़े हो जाओ वह बाया पैर उठा कर खड़ा हो गया फिर उससे कहा अब अपने दोनों पैर उठा कर खड़े हो जाओ तो उसने कहा यह कैसे हो सकता? इमाम ने कहा स्वतंत्रता व विवशता के मध्य के मार्ग का अर्थ यही है।


मनुष्य स्वंय सोच कर काम करता है या कठपुतली की भांति है इसके लिए सब से पहले यह स्पष्ट होना चाहिए कि मनुष्य में इरादा और निर्णय लेने की शक्ति है या नहीं। निर्णय लेने की शक्ति, उन विषयों में से है जिन पर मनुष्य को पूरा विश्वास है क्योंकि इस विषय को हर व्यक्ति अपने आभास द्वारा अपने भीतर महसूस करता है जैसा कि हर व्यक्ति अपनी मनोदशाओं को जानता है यहां तक कि यदि उसे किसी विषय के बारे में शंका होती है तो वह अपने भीतर मौजूद ज्ञान द्वारा उस शंका से अवगत होता है और उसे अपने भीतर शंका के बारे में किसी प्रकार की शंका नहीं होती।



इसी प्रकार हर कोई अपने भीतर थोड़ा सा ध्यान देने के बाद यह समझ जाता है कि वह बात कर सकता है या नहीं, अपना हाथ हिला सकता है या नहीं, खाना खा सकता है या नहीं।



किसी काम को करने का फैसला कभी शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए होता है उदाहरण स्वरूप एक भूखा व्यक्ति खाने का फैसला करता है या प्यासा व्यक्ति पानी पीने का इरादा करता है किंतु कभी-कभी मनुष्य का इरादा और निर्णय बौद्धिक इच्छाओं व उच्च मानवीय आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए होता है जैसाकि एक रोगी स्वास्थ्य लाभ के लिए कड़वी दवांए पीता है और स्वादिष्ट खानों से परहेज़ करता है या अध्ययन करने वाला और शिक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्ति और वास्तविकताओं की खोज के लिए, भौतिक सुखों की ओर से आंख बंद कर लेता है और अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कठिनाइयां सहन करता या साहसी सैनिक अपने देश की रक्षा जैसे उच्च लक्ष्य के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर देता है। तो इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि उद्देश्य उच्च हो तो उसके मार्ग में कठिनाईयों का कोई महत्व नहीं होता। वास्तव में मनुष्य का महत्व उस समय प्रकट होता है जब उस की विभिन्न इच्छाओं के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाए और वह नैतिक गुणों और सही अर्थों में मानवता की चोटी पर पहुंचने के लिए अपनी शारीरिक इच्छाओं व आवश्यकताओं की उपेक्षा करता है और यह तो स्पष्ट है कि हर काम, जितने मज़बूत इरादे और चेतनापूर्ण चयन के साथ किया जाता है वह आत्मा के विकास या पतन में उतना ही प्रभावी होता है तथा दंड या पुरस्कार का उसे उतना ही अधिक अधिकार होता है। 



अलबत्ता शारीरिक इच्छाओं के सामने प्रतिरोध की क्षमता सब लोगों में हर वस्तु के प्रति समान नहीं होती किंतु हर व्यक्ति थोड़ा बहुत ईश्वर की इस देन अर्थात स्वतंत्र इरादे का स्वामी होता ही है और जितना अभ्यास करता है उसकी यह क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है। इस आधार पर मनुष्य में इरादे की उपस्थिति के बारे में कोई शंका नहीं है और इस प्रकार की स्पष्ट और महसूस की जाने वाली भावना के बारे में कोई शंका होनी भी नहीं चाहिए और यही कारण है कि मनुष्य में इरादे और स्वतंत्रता के विषय पर सभी ईश्वरीय धर्मों में बल दिया गया है और इसे सभी ईश्वरीय धर्मों और नैतिक मतों में एक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है क्योंकि इस विशेषता के बिना कर्तव्य, दायित्व, आलोचना, दंड, अथवा पुरस्कार आदि की कोई गुंजाईश ही नहीं रहेगी।



इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि इरादा और निर्णय की शक्ति हर मनुष्य में पायी जाती है और यह शक्ति इतनी स्पष्ट है कि कोई भी व्यक्ति थोड़ा सा ध्यान देकर इसे महसूस कर सकता है किंतु इसके बावजूद कुछ लोग मनुष्य में इरादे और निर्णय लेने की क्षमता व शक्ति का इन्कार करते हुए कहते हैं कि मनुष्य अपने कामों में विवश है और उसके सारे काम ईश्वर करता है वह तो केवल कठपुतली है इस प्रकार की स्पष्ट विशेषता के इन्कार और मनुष्य में अधिकार व इरादे के न होने में विश्वास का कारण, कुछ शंकाएं है जिन का निवारण किया जा सकता है।

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  1. manushya apne karmo ke liye swayam hi jimmedra hai kyonki is sansar me vyapt sabhi praniyo me keval manushya hi jisako ishwar ne bhuddhi dekar bheja hai vah apna karya khud ki ichha se tatha faisalo se kar sakta hai. Parntu jahan vyakti ki khushi ya fayade ki bad hogi vahan par kamayab hone par shrey khud ko dega ki maine ye karya kiya par kam bigdane par ya napasand hone par ishwar par thop dega ki ishwar ki ichh nahi thi is liye ye karya safal nahi hua.

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