अल्लाह बड़ा ही क्षमाशील तथा दयावान है

माहे रमज़ान का पवित्र महीना प्रतिवर्ष हमारे जीवन में प्रविष्ट होकर हमको बहुत से संदेश उपहारस्वरूप देता है। प्रायश्चित तथा ईश्वर की ओर वाप...

माहे रमज़ान का पवित्र महीना प्रतिवर्ष हमारे जीवन में प्रविष्ट होकर हमको बहुत से संदेश उपहारस्वरूप देता है। प्रायश्चित तथा ईश्वर की ओर वापसी के साथ ही व्यक्तिगत तथा समाजिक जीवन में आध्यात्मिक तथा नैतिक मूल्यों की ओर ध्यान, इस महीने के महत्वपूर्ण संदेश हैं। यह वही नियम हैं जिनकी आवश्यकता संसार को बहुत ही तीव्रता से है। समाज शास्त्रियों के अनुसार विश्व स्तर पर अत्याचार तथा गुंडागर्दी का विस्तार, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार, युवाओं विशेषकर प्रगतिशील देशों के युवाओं में अपनी पहचान को लेकर भ्रम की स्थिति, बहुत सी कुरीतियों का प्रचलन आदि एसी बाते हैं जो केवल इसलिए है कि मानव अपनी पवित्रता तथा आत्मशुद्धि के प्रयास में नही रहा है।

पवित्र ग्रंथ क़ुरआन, अपनी विभिन्न आयतों तथा विविध शैलियों के माध्यम से मनुष्य को "तक़वा" तथा पवित्रता का निमंत्रण देता है। तक़वे का एक अर्थ है पापों से दूरी। मनुष्य को यह जानना चाहिए कि वह क्या कर रहा है और उसे अपने जीवन के मार्ग का चयन बहुत ही होशियारी से करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति अपने कार्यों के प्रति बहुत संवेदनशील हो और ईश्वर की प्रसन्नता को दृष्टिगत रखे तो यह कार्य उसे सीधे रास्ते पर रोके रखता है। वास्तव में जो भी व्यक्ति तक़वा तथा पवित्रता के आभूषण से सुसज्जित है, वह जब कभी भी समस्याओं में घिरता है तो एसे में उसे ईश्वर की ओर से सहायता प्राप्त होती है। क़ुरआन, अच्छे अंत को ईश्वर से भय रखने वालों से संबन्धित मानता है।

इमाम अली अलैहिस्सलाम ने तक़वे की संज्ञा एसे घोड़े से दी है जो अपने स्वामी के नियंत्रण में रहता है। एसे घोड़े पर उसका सवार बड़ी सरलता से बैठ कर सवारी करता है। यह घोड़ा भी बिना किसी कठिनाई के अपने स्वामी को उसके गंतव्य तक पहुंचा देता है। इसके विपरीत हज़रत अली अलैहिस्सलाम आंतरिक इच्छाओं की संज्ञा एक एसे अनियंत्रित घोड़े से देते हैं कि जब उसका स्वामी उसपर सवार होता है तो वह आना-कानी करता है और उसे धरती पर पटक देता है। हज़रत अली अलैहिस्लाम एक संक्षिप्त से वाक्य में कहते हैं कि ईश्वर के दासों, मैं तुमको बुराइयों से बचने तथा तक़वा अपनाने की सिफ़ारिश करता हूं।

मानव जाति के लिए ईश्वरीय दूतों की महत्वपूर्ण सिफ़ारिश, तक़वे का अनुसरण अर्थात पापों से बचना, रही है। क़ुरआन शरीफ़ के विभिन्न सूरों में हम पढ़ते हैं कि ईश्वरीय दूतों ने लोगों को सदा ही पापों से बचने का निमंत्रण दिया है। यदि मनुष्य पापों से बचे तो फिर उसे ईश्वरीय मार्गदर्शन प्राप्त होगा। वह अज्ञानता के अंधकार से निकल जाएगा और उसे प्रकाश प्राप्त होगा। वह स्पष्ट प्रकाश में अच्छे और बुरे को सरलता से समझ सकेगा। सूरए हदीद की 28वीं आयत के अनुसार तक़वा मानव के जीवन तथा उसके हृदय में प्रकाश प्रज्वलित करता है ताकि वह उसकी छाया में चलते हुए जीवन के मार्ग को प्राप्त कर सके। ईश्वर कहता है कि "हे ईमान लाने वालों तक़वा अपनाओ और उसके रसूल पर ईमान लाओ। वह अपनी कृपा से तुमको दो हिस्से देगा और तुमहारे लिए प्रकाश उपलब्ध करेगा जिसके साथ तुम चलो-फिरोगे और तुम्हारे पापों को क्षमा कर देगा। अल्लाह बड़ा ही क्षमाशील तथा दयावान है"।

कहा जा सकता है कि अपने मन को आंतिरक इच्छाओं के हवाले करना और उसका अंधा अनुसरण, तक़वा न होने का चिन्ह है। यह कार्य उच्च लक्ष्यों तक पहुंचने में बाधा बनता है। इसके विपरीत तक़वा अर्थात पापों से बचाव ईश्वरीय अनुकम्पाओं को आकर्षित करता है और लोगों तथा राष्ट्रों के कल्याग तथा उनके गर्व का कारण बनात है। यहां पर तक़वे से हमारा तात्पर्य केवल स्वर्ग की कामना तथा मोक्ष की प्राप्ति नहीं है बल्कि यह विशेषता इस नश्वर संसार में भी अपने बहुत से प्रभाव प्रकट करती है। वह समाज जो अपने मार्ग का सही ढ़ंग से चयन करता है और बड़ी ही दृढ़ता तथा दूरदर्षिता से उस पर चलता है एसे समाज में जीवन का वातावरण स्वस्थय और सदस्यों के बीच परस्पर सार्थक सहकारिता पर आधारित होता है। पवित्र क़ुरआन ने सही मार्ग का मानव के लिए मार्गरदर्शन किया है। वह चाहता है कि मनुष्य हर स्थिति में इस बात का ध्यान रखे कि उसके क्रियाकलापों पर ईश्वर दृष्टि रखे हुए है। अतः मनुष्य को विनम्र होना चाहिए ताकि वह मोक्ष और कल्याण को प्राप्त कर सके। सीधे मार्ग पर चलने के लिए हमे तक़वे की आवश्यकता है। पवित्र माहे रमज़ान के रोज़े तक़वे की प्राप्ति तक पहुंच की भूमिका प्रशस्त करते हैं।

अभी तक हमने तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय के बारे में वार्ता की। उचित होगा कि हम यह जानें कि जिन लोगों में तक़वा पाया जाता है उनकी क्या विशेषताएं होती हैं। पवित्र क़ुरआन ईश्वरीय भय रखने वालों अर्थात मुत्तक़ियों की स्पष्ट विशेषता यह बताता है कि ईश्वर ने उन्हें जो कुछ दिया है वह उसे ईश्वर के मार्ग में दान करते हैं। ईश्वर कुरआन में इस विशेषता की ओर संकेत करता है कि मनुष्य लालची स्वभाव का है। जब उसे किसी कठिनाई का सामना होता है तो वह अधीर हो जाता है और जब उसे कुछ धन या माल मिल जाता है तो वह दूसरों को देने या दान करने में आना-कानी करता है। केवल वही लोग लालच से बच सकते हैं और उससे दूर रह सकते हैं जो परहेज़ करने वाले हैं। दान-दक्षिणा को कुरआन ने इतना अधिक महत्व दिया है कि उसे वह आर्थिक जेहाद की संज्ञा देता है। नमाज़ के साथ ईश्वर के मार्ग में दान को कुरआन, हानिरहित तथा लाभदायक व्यापार की भांति बताता है।

परोपकार या दान-दक्षिणा के महत्व को दर्शाने के लिए ईश्वर ने बहुत ही सटीक सज्ञा देते हुए इसे बीज की उपमा दी है। इस बीज में कोपल आने के बाद सात गुच्छे उगते हैं। हर गुच्छे में सौ दाने होते हैं। दूसरे शब्दों में जो वस्तु भी दान की जाती है वह सात सौ गुना बढ़ती है। विभिन्न स्थानों पर दान देने वालों को यह शुभ सूचना दी गई है कि उनका कार्य ईश्वर के निकट अनदेखा नहीं किया जाएगा। बल्कि उनके माल में बढ़ोत्तरी होगी। यह एसी स्थिति में है कि दान और परोपकार, केवल ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग में ही प्रशंसनीय है।

यही कारण है कि माहे रमज़ान के पवित्र महीने में घरों और मस्जिदों में आडंबर से दूर परोपकार के लिए दस्तरख़ान बिछाए जाते हैं। ईमान के साथ पवित्र हृदय, ईश्वरीय प्रेम के साथ तथा उसकी इच्छा को आकर्षित करने के लिए लोगों को खाना खिलाते हैं।

माहे रमज़ान के महीने में ईश्वर ने सभी लोगों को निमंत्रित किया है अतः सब लोग ही उसके अतिथि हैं। अब देखना यह है कि लोग स्वयं को किसी सीमा तक ईश्वर से निकट करने में सफल होते हैं। एक दिन हज़रत मूसा अलैहिस्लाम ईश्वर की प्रार्थना के लिए तूर पर्वत पर गए। मार्ग में उनकी भेंट एक बूढ़े काफिर से हुई। बूढ़े ने पूछा कि आप कहां जा रहे हैं? हज़रत मूसा ने उत्तर दिया कि मैं उपासना के लिए तूर पर्वत पर जा रहा हूं। उस व्यक्ति ने कहा कि क्या तुम मेरा संदेश ईश्वर तक पहुंचा सकते हो? हज़रत मूसा ने कहा कि तुम्हारा संदेश क्या है? बूढ़े ने कहा कि अपने ईश्वर से कहो कि न तो मैं तेरा दास हूं और न ही तू मेरा ईश्वर है। मुझे तुमसे कोई काम नहीं है। हज़रत मूसा तूर पर्वत पर गए। अपनी प्रार्थना के पश्चात उन्होंने बूढ़े व्यक्ति की बात का उल्लेख नहीं किया। जब वे वापस आना चाह रहे थे तो ईश्वर ने उनसे पूछा कि तुमने क्यों मेरे दास का संदेश मुझको नहीं दिया। हज़रत मूसा ने कहा कि हे ईश्वर, उसके द्वारा आपके संबन्ध में कहे गय वाक्यों को कहने से मुझे लज्जा आ रही थी। ईश्वर ने कहा कि तुम मेरे उस दास के पास जाओ और उससे कहो कि यदि तुम मुझको महत्वहीन समझते हो किंतु मैं तुमको महत्वहीन नहीं समझता हूं। यदि तुमको मुझसे कोई कार्य नहीं है किंतु हम तुमसे लापरवाह नहीं हैं। हमसे न बचो, क्योंकि हम खुले मन से तुम्हारी प्रतीक्षा में हैं।

बूढ़े व्यक्ति ने जब मूसा को वापस आते देखा तो उनसे पूछा कि क्या तुमने मेरे संदेश को अपने ईश्वर तक पहुंचा दिया था? ईश्वर ने जो कुछ भी कहा था उसे हज़रत मूसा ने उस बूढ़े को बता दिया। यह सुनकर बूढ़े का रंग उड़ गया। ईश्वरीय संदेश ने उस बूढ़े को परिवर्तित कर दिया। उसने लज्जा से अपना सिर नीचे झुकाया और भर्राई हुई आवाज़ में कहा, हे मूसा मैं बहुत लज्जित हूं। मैं ईश्वर की सेवा में प्रायश्चित करना चाहता हूं। तुम मेरी सहायता करो।

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  1. इंसान से परमेश्वर का संबंध बहुत क़रीबी है।
    भक्त जब चाहे उसकी ओर पलट सकता है।
    भक्त को कब उसकी ओर पलटना है, यह फ़ैसला भक्त को स्वयं करना है। वह जब चाहे परमेश्वर को, अपने रचयिता को पा सकता है। उसने अपने रब को पा लिया है, इसे दूसरे तब जानते हैं जब वे उसे अपने रब के हुक्म का पालन करते हुए देखते हैं।
    जो लोग प्रभु परमेश्वर के आदेश को नहीं मानते, वे दार्शनिक हो सकते हैं लेकिन परमेश्वर के सच्चे भक्त नहीं हो सकते। दार्शनिक नास्तिक हो सकता है लेकिन भक्त कभी नास्तिक नहीं सकता जबकि आस्तिक दार्शनिक भी हो सकता है और धार्मिक भी।
    आस्तिक व्यक्ति दर्शन, कला और विज्ञान से धर्म की स्थापना में मदद लेता है और इस तरह वह ईश्वर के आदेशों का पालन बेहतरीन तरीक़े से करता है और ज्ञान-विज्ञान के सभी विभागों का सही इस्तेमाल केवल इसी प्रकार संभव है।

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