लोगों के दरमियान इख़्तेलाफ़ात के असबाब

आज के दौर मैं भी हमेशा की तरह कई किस्म की हदीसें आप को पैग़म्बर ए इस्लाम (स.अ.व) के नाम से सुनने को मिला करती हैं. वैसे तो हदीस को कुरान से ...

light_05आज के दौर मैं भी हमेशा की तरह कई किस्म की हदीसें आप को पैग़म्बर ए इस्लाम (स.अ.व) के नाम से सुनने को मिला करती हैं. वैसे तो हदीस को कुरान से मिला के देखने की हिदायत मजूद है लेकिन जब यह हदीसें किसी शख्स के फजैल बयान करती दिखे तो उसका फैसल करना मुश्किल हो जाया करता है. यह एक आम वजह है मुसलमानों के अलग अलग फिरकों मैं बंट जाने का.
हज़रत अली (अ.स) से एक बार किसी ऐसी हदीस के बारे मैं सवाल किया गया जिसको लोग बिदाती हदीस बता रहे थे. हज़रत अली (अ.स) ने बताया की हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) का इरशाद है की जिसने उनके नाम से झूट बोला वो अपनी जगह जहन्नम मैं खुद ही बना ले. और इसके बाद हज़रत अली (अ.स) ने फ़रमाया. हदीस बयान करने वाले लोग और रावी चार किस्म के हुआ करते हैं.

 

खुतबे का हिस्सा


१) एक वह मुनाफ़िक़ है जो ईमान का इज़हार करता है, इस्लाम की वज़ा क़ता इख़्तेयार करता है लेकिन गुनाह करने और अफ़्तरा में पड़ने से परहेज़ नहीं करता है. अगर लोगों को मालूम हो जाए के यह मुनाफ़िक़ और झूठा है तो यक़ीनन उसके बयान की तस्दीक़ न करेंगे लेकिन मुश्किल यह है के वह समझते हैं के यह सहाबी है, इसने हुज़ूर को देखा है, उनके इरशाद को सुना है और उनसे हासिल किया है और इस तरह उसके बयान को क़ुबूल कर लेते हैं जबके ख़ुद परवरदिगार भी मुनाफ़िक़ीन के बारे में ख़बर दे चुका है और उनके औसाफ़ का तज़किरा कर चुका है और यह रसूले अकरम (स0) के बाद भी बाक़ी रह गए थे, और गुमराही के पेशवाओं और जहन्नुम के दाइयों की तरफ़ इसी ग़लत बयानी और इफ़्तरा परवाज़ी से तक़र्रब हासिल करते थे. वह उन्हें ओहदे देते रहे और लोगां की गर्दनों पर हुक्मरान बनाते रहे और उन्हीं के ज़रिये दुनिया को खाते रहे और लोग तो बहरहाल बादशाहों और दुनियादारों ही के साथ रहते हैं, अलावा उनके जिन्हें अल्लाह इस शर  से महफ़ूज़ कर ले.

 


२) दूसरा शख्स  वह है जिसने रसूले अकरम (स0) से कोई बात सुनी है  लेकिन उसे सही तरीक़े से महफ़ूज़ नहीं कर सका है (याद नहीं रख सका है) और इसमें सहो का शिकार हो  गया है, जान बूझकर झूठ नहीं  बोलता है, जो कुछ  उसके  हाथ में है उसी की रिवायत करता है आौर उसी पर अमल करता है और यह कहता है के  यह  मैंने रसूले अकरम (स0) से सुना है हालांके अगर मुसलमानों को मालूम  हो जाए के इससे ग़लती हो गई है तो हरगिज़ इसकी बात न मानेंगे बल्कि अगर उसे ख़ुद भी मालूम हो जाए के यह बात इस तरह नहीं है तो तर्क कर देगा और नक़ल नहीं करेगा.

 


३) तीसरी क़िस्म  उस शख्स की  है जिसने रसूले अकरम (स0) को हुक्म देते सुना है लेकिन हज़रत ने जब मना किया तो उसे इत्तेला नहीं हो सकी या हज़रत को मना करते देखा है फिर जब आपने दोबारा हुक्म दिया तो इत्तेलाअ न हो सकी, इस शख्स ने मन्सूख़ को महफ़ूज़ कर लिया है  और नासिख़ को महफ़ूज़ नहीं कर सका है के अगर उसे मालूम हो जाए के यह हुक्म मन्सूख़ हो गया है तो उसे तर्क कर देगा और अगर मुसलमानों को मालूम हो जाए के इसने मन्सूख़ की रिवायत की है तो वह भी उसे नज़रअन्दाज़ कर देंगे.

 


४) चैथी क़िस्म उस शख्स की है जिसने ख़ुदा व रसूल (स0) के खि़लाफ़ ग़लत बयानी से काम नहीं लिया है और वह ख़ौफ़े ख़ुदा और ताज़ीमे रसूले ख़ुदा के ऊपर झूठ का दुश्मन भी है और इससे भूल-चूक भी नहीं हुई है बल्कि जैसे रसूले अकरम (स0) ने फ़रमाया है वैसे ही महफ़ूज़ रखा है.  न उसमें किसी तरह का इज़ाफ़ा किया है और न कमी की है नासिख़ ही को महफ़ूज़ किया है और उसी पर अमल किया है और मन्सूख़ को भी अपनी नज़र में रखा है और उससे इजतेनाब बरता है, ख़ास व आम और मोहकम व मुतशाबेह को भी पहचानता है  और उसी के मुताबिक़ अमल भी करता है.

 


लेकिन मुश्किल यह है के कभी कभी रसूले अकरम (स0) के इरशादात के दो रूख़ होते थे, बाज़ का ताल्लुक़ ख़ास अफ़राद (या ख़ास वक़्त) से होता था और कुछ आम होते थे (कुछ वह कलेमात जो तमाम औक़ात और तमाम अफ़राद के मुताल्लिक़) और इन कलेमात को वह शख्स भी सुन लेता था जिसे यह नहीं मालूम था के ख़ुदा और रसूल का मक़सद क्या है तो यह सुनने वाले उसे सुन तो लेते थे और कुछ इसका मफ़हूम भी क़रार दे लेते थे मगर इसके हक़ीक़ी मानी और मक़सद और वजह से नावाक़िफ़ होते  थे और तमामम असहाबे रसूले अकरम (स0) की हिम्मत भी नहीं थी के  आपसे सवाल कर सकें और बाक़ायदा तहक़ीक़ कर सकें बल्कि इस बात का इन्तेज़ार किया करते थे के कोई सहराई या परदेसी आाकर आपसे सवाल करे तो वह भी सुन लें, यह सिर्फ़ मैं थाा के मेरे सामने से कोई ऐसी बात नहीं गुज़रती थी मगर यह के मैं दरयाफ़्त भी कर लेताा था और महफ़ूज़ भी कर लेता था.

 

हवाला नह्जुलबलगा खुतबा २१०

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  1. हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का रूतबा हक़ और बातिल को पहचानने में बहुत बुलंद है। मुसलमानों में हरेक फ़िरक़ा उनके बारे में यही राय रखता है। जो आदमी उनके कलाम पर अमल करेगा कभी गुमराह नहीं हो सकता लेकिन आदमी अपने नफ़्स की ख्वाहिश की पैरवी करता है और हक़ को छोड़ देता है या दीन में से भी वह उतनी ही बात मानता है जो उसके नफ़्स को ख़ुशगवार लगती है। नागवार और भारी लगने वाली बातों को आदमी छोड़ देता है।
    नमाज़ हुक्म सबसे अव्वल है इस्लाम में और लोगों के हक़ अदा करने पर भी बहुत ज़ोर है लेकिन मुसलमानों की एक बड़ी तादाद इन दोनों ही हुक्मों की तरफ़ से आम ग़फ़लत के शिकार हैं।
    यह बहुत अजीब सी बात है।
    इसके बाद भी उनका दावा है कि हम मुसलमान हैं।
    हम अली को मौला मानते हैं।
    अली को मौला मानते हो तो फिर उनकी बात को मानने में सुस्ती क्यों ?
    दीन में सुस्ती तो मुनाफ़िक़ों का तरीक़ा है।
    हक़ को पाने में सबसे बड़ी रूकावट ख़ुद इंसान का नफ़्स है और इससे जिहाद करना सबसे ज़्यादा मुश्किल है।
    इस्लाम के दूसरे दुश्मनों का हाल तो यह है कि अगर उन्हें न भी मारा जाये वे तब भी मर जाएंगे लेकिन यह नफ़्स तो बिना क़ाबू किए क़ाबू हो नहीं सकता और इसे क़ाबू करना इंसान के लिए सबसे नागवार काम है।
    ऐसे में मुसलमान राहे रास्त पर आएं तो कैसे ?
    पहले क्या हुआ यह जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम यह तय कर सकें कि अब हमें क्या करना है ?

    आपकी पोस्ट अच्छी मालूमात देती है।

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