सीरते मुरसले आज़म नहजुल बलाग़ा के आईने में

जब इंसान मेयारे इन्सानियत से गिरा और इस हद तक गिरा कि उस ने अपने फ़ितरी पिदरी व मादरी शफ़्क़त व मोहब्बत के जज़्बे को पसे पुश्त डाल कर अपनी ह...

legacy_mubahila_beattyजब इंसान मेयारे इन्सानियत से गिरा और इस हद तक गिरा कि उस ने अपने फ़ितरी पिदरी व मादरी शफ़्क़त व मोहब्बत के जज़्बे को पसे पुश्त डाल कर अपनी ही बेटियों को ज़िन्दा दरगोर करना शुरू कर दिया

ताकि किसी को अपना दामाद न बनाना पड़े या जाएदाद में कोई नया हिस्सेदार न बन जाए। हद तो उस वक़्त हो गयी कि जब किसी के यहा विलादत का वक़्त नज़दीक आता तो औरत एक गढ़ा खोद कर बैठ जाया करती थी अगर लड़की पैदा होती उस को उसी गढ़े में डाल कर उपर से मिट्टी डाल दिया करती थी और अगर लड़के कि विलादत होती तो उस को महफ़ूज़ कर लिया करती थी।

अरब के लोगों को जब कभी लड़की की विलादत की ख़बर दी जाती तो उनका चेहरा शबे तारीक की मानिन्द सियाह हो जाता और वह "ظل وجھہ مسودا" का मिसदाक़ बन जाया करता था।

जिहालत इस मंज़िल पर थी कि क़त्ल व ग़ारतगरी, चोरी, दूसरों का माल ग़स्ब करना, ज़िना, अमानत में ख़यानत... वग़ैरा बाइसे फ़ख़्र समझा जाने लगा था। हर वक़्त शराब व शबाब में मस्त रहते थे, क़राबतदारो से क़तऐ तअल्लुक़ उनका शेवा बन चुका था, असनाम (बुत) उनके दरमियान नसब थे, एक ऊँट के लिये चालीस चालीस साल तक लड़ा करते थे।

इस दौरे जाहेलियत और पुर आशोब माहौल में ख़ुदा वंदे आलम ने अपने हबीब ख़ातिमुल मुरसलीन हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) को मबऊस किया। जब लोग खुली हुई गुमराही में पड़े हुए थेऔर फ़ितनों में हाथ पाओं मार रहे थे, ख़्वाहिशात ने उनको गुमराह कर रखा था, ग़ुरूर ने उन के क़दमों में लग़ज़िश पैदा कर दी थी, जाहेलियत ने उन को सबुक सर बना दिया था वह ग़ैरे यक़ीनी हालात और जिहालत की गुमराहियों में सर गरदां थे

और जब आप ऐसे पुर आशोब माहौल में मबऊस हुए तो आप ने भी नसीहत और मौएज़े का हक़ आदा कर दिया औल लोगों को राहे रास्त पर लाने मे किसी भी तरह की कोई कोताही नही की और इस काम मे जब कभी किसी ने आप पर कूड़ा फेका तो आप उसकी अयादत को पहुंच गये, राहों में कांटे बिछाये गए लेकिन मुंह से उफ़ तक न निकला, राहिर व मजनून कहा गया लेकिन कभी किसी को पलट कर जवाब न दिया। आप को इस क़द्र मुसीबत व आलाम का सामना करना पड़ा कि आप को कहना पड़ “दीन के सिलसिले में जितनी अज़ीयतें मुझे दी गयीं किसी और नबी को नही दी गयीं”

जब रहमतुल लिल आलमीन (स) (स) ने तबलीग़ करना शुरू की तो ये उन की तबलीग़ का ही असर था कि कल तक जो जाहिल तरीन समाज था और जिस को बद तरीन मआशरा तसव्वुर किया जाता था आज इस मंज़िले उरूज पर पहुंच चुका था कि सारी दुनिया के लोग इस्लामी तालीमात के लिए उन की तरफ़ रजूअ करने लगे थे और कल तक जो अफ़राद बदतरीन अख़्लाक़ के हामिल थे आज वह दूसरों को तहज़ीबे नफ़्स का दरस दे रहे थे और उनको मोहज़्ज़ब तरीन समाज समझा जाने लगा था।

इन्सान इस रहमतुल लिल आलमीन (स) (स) के किरदार की बुलंदी और आज़मत की रिफ़अत का अंदाज़ा लगाने से क़ासिर है और ज़बानें बयान करने से माज़ूर, अगर इस का सही अंदाज़ लगाना है तो उसके दर पर आना पड़ेगा जो ये कहता हुआ नज़र आता है कि “मैं रसूल के पीछे पीछे इस तरह से चलता था जिस तरह से ऊँटनी का बच्चा ऊँटनी के पीछे पीछे चलता है”और बचपने से लेकर आख़री वक़्त तक रसूल के हमराह रहा “रसूल उस वक़्त दुनिया से रुख़्सत हुए जब उनका सर मेरे सीने पर था और उनकी रूहे अक़दस मेरे हाथों पर जुदा हुती है तो मैने अपने हाथों को अपने चेहरे पर मल लिया। मैं ने ही आप को ग़ुस्ल दिया जब मलाएका मेरी मदद कर रहे थे और घर के अंदर व बाहर कोहराम बरपा था। मलाएका का एक गिरोह नाज़िल हो रहा था और एक वापस जा रहा था सब नमाज़े जनाज़ पढ़ रहे थे और मैं मुसलसल उन की आवाज़ सुन रहा था यहा तक की मैं ने ही आप को सिपुर्दे लहद किया” [1]

और हम को इसी शख़्सियत की उस अज़ीमुश्शान किताब का सहारा लेना होगा जिस के बारे में मशहूर है "تحت کلام الخالق فوق کلام المخلوق"

नहजुल बलाग़ वह मुक़द्दस किताब है जिसके मतालिब रब्बानी कलाम का अतिया हैं तो उसके अलफ़ाज़ लिसानुल्लाह के कलाम का असर। ये वह ईलहामी किताब है जिस के अलफ़ाज़ व मतालिब बे बांगे दोहल आवाज़ दे रहे हैं कि जिस का मुतकल्लिम इल्मे लदुन्नी का मालिक और अल्लमहुल बयान का मिसदाक़ है। हम इसी किताब से सीरते रसूल के कुछ गोशे क़ारेईन की ख़िदमत में पेश कर रहे हैं।

1. ज़ोहदे रसूले अकरम (स)

قد حقر الدنیا و صغرھا [2]

“आप ने दुनिया को हमेशा हक़ीर ज़लील और पस्त तसव्वुर किया और मसझा है कि परवरदिगार ने इस दुनिया को आप से अलग रखा है और दूसरों के लिये फ़र्श कर दिया है तो ये आप की इज़्ज़त और दुनिया की हिक़ारत ही की बुनियाद पर है लिहाज़ आप ने उस से दिल से किनारा कशी अख़्तियार की और उसकी याद को दिल से बिलकुल निकाल दिया और चाहा कि उस की ज़ीनतें निगाहों से ओझल रहें ताकि न उमदा लिबास ज़ेबे तन फ़रमायं और न किसी ख़ास मक़ाम की उम्मीद करें”

ये पैग़म्बरे इस्लाम(स) का ज़ोहद ही था कि जब बेसत की शुरूआत में ही बुज़ुरगाने क़ुरैश और सराने अरब ने जनाबे अबूतालिब (अ) से कहा कि अपने भतीजे को हमारे ख़ुदाओं की तौहीन करने से रोको अगर वह किसी लड़की से शादी करना चाहता है तो अरब की सब से ख़ूबसूरत लड़की से उस की शादी कर दी जाएगी, अगर वह माले दुनिया चाहते हैं तो हम उनको इतनी दौलत देंगे को पूरे अरब में कोई उन से ज़्यादा सरवत मंद न रह जाएगा अगर बादशाहत चाहते हैं तो हम उनको अपना अमीर तस्लीम कर लेगें, सिर्फ़ वह तबलीग़े इस्लाम से अपना हाथ खीच लें तो पैग़म्बरे अकरम (स) (स) ने यही कहा था की ऐ चचा जान उन से कह दीजिए: कि “अगर मेरे एक हाथ पर चांद और दूसरे पर सूरज रख दिया जाए तो भी मै अपने काम से बाज़ न आऊगा”।

यानी रसूले आज़म (स) बताना चाहते हैं कि तुम्हारी इस दौलत की मेरी नज़र में औक़ात ही क्या है अगर तुम पूरी काएनात मेरे हवाले कर दो (जो कि नही कर सकते) तो उसकी भी मेरी नज़र में कोई अहमियत नही है।

ज़ोहदे रसूले अकरम (स) के बारे में आसिम बिने हमीद अल हन्नात की किताब मे जनाबे अबू बसीर इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ) से रिवायत करते हैं कि मै ने इमाम से सुना कि वह फ़रमाते: हैं कि एक फ़रिश्ता पैग़म्मबरे अकरम (स) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहा: ऐ मोहम्मद! आपका परवरदिगार आप पर सलाम भेज रहा है और फ़रमाता है: अगर तुम चाहो तो मक्के की पूरी ज़मीन को हम सोने से भर दें? तो आपने अपने सर को आसमान की जानिब बुलंद किया और फ़रमाया: परवरदिगारा! मैं तुझ से चाहता हूं कि मैं एक रोज़ ग़िज़ा से सैर हूं और तेरा शुक्र अदा करूं और दूसरे दिन फिर तेरी बारगाह में हाथ फैलाउं।[3]

रसूले अकरम (स) के ज़ोहद को बयान करते हुए मौलाए काएनात एक दूसरे ख़ुत्बे में इरशाद फ़रमाते हैं:

“... उन्होने दुनिया से सिर्फ़ ग़िज़ा हासिल की और उसे नज़र भर कर देखा भी नही सारी दुनिया में सब से ज़्यादा ख़ाली शिकम और शिकम तही में ज़िन्दगी बसर करने वाले वही थे उन के सामने दुनिया पेश की गई तो उसे क़बूल करने से इन्कार कर दिया और ये देख लिया कि परवरदिगार उसे पसंद नही करता है तो ख़ुद भी ना पसंद किया और ख़ुदा हक़ीर समझता है तो ख़ुद भी हक़ीर समझा और उसने छोटा बना दिया तो ख़ुद भी छोटा ही क़रार दिया। और अगर हम में इस के अलावा कोई ऍब न होता कि हम ख़ुदा व रसूल के मबग़ूज़ को महबूब समझने लगे हैं और ख़ुदा व रसूल की निगाह में हक़ीर को अज़ीम तो यही ऍब ख़ुदा से मुख़ालिफ़त और उसके हुक्म से इन्हेराफ़ के लिए काफ़ी था।

पैग़म्मबरे अकरम (स) हमेशा ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया करते थे, अपने हाथ से अपनी जूतियां टाकते थे, और अपने दस्ते मुबारक से अपने कपड़ो को पेवन्द लगाया करते थे, बग़ैर चार जामा की सवारी पर सवार होते थे और किसी न किसी को अपने साथ बिठा भी लिया करते थे, एक मरतबा अपने घर के दरवाज़े पर ऍसा परदा देखा जिस पर तस्वीर बनी हुई थीं तो एक ज़ौजा से फ़रमाया ख़बरदार ईसे हटाओ, मैं इस की तरफ़ देखूंगा तो दुनिया और उसकी आराइश याद आएगी। आप ने दुनिया से दिल की गहराई से किनारा कशी एख़्तियार की और उसकी याद को दिल से मह्व कर दिया और ये चाहा कि उसकी ज़ीनत निगाहों से ओझल रहे ताकि न बेहतरीन लिबास बनाएं और न उसे अपने दिल मे जगह दें और न इस दुनिया में किसी मक़ाम की आरज़ू करें। आप ने दुनिया को नफ़्स से निकाल दिया और दिल से दूर कर दिया और निगाहों से भी ग़ायब कर दिया”।[4]

दैलमी ने रिवायत की है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) ख़ुद लिबास मे पेवन्द लगाते थे, ख़ुद जूतियों को सिलते और भेड़ का दूध दुहते थे, ग़ुलामों के साथ खाना खाते और ज़मीन पर बैठते थे बाज़ार से आज़ूक़ा ख़रीदने में कभी शर्म महसूस नही की....[5]

यक़ीनन रसूलेअकरम (स) की ज़िन्दगी में वह सब चीज़े पाई जाती हैं जो दुनिया के उयूब और उसकी ख़राबियों की निशानदही कर सकती हैं कि आप ने अपने घर वालो समेत भूखा रहना गवारा कर लिया और ख़ुदा की बारगाह ने इन्तेहाई तक़र्रुब के बावजूद दुनिया की ज़ीनतों और लज़्ज़तों को अपने से अलग रखा।

अब हर इन्सान को निगाहे बसीरत से देखना चाहिए और ये सोचना चाहिए कि इस सूरते हाल और इस तरह की ज़िन्दगी दे कर परवगदिगार ने अपने महबूब पैग़म्मबर को इज़्ज़त अता की है या उन को (मआ ज़ल्लाह) ज़लील किया है। अगर वह इस बात का इक़रार करता है (और करेगा भी) कि अल्लाह ने उन्हे इज़्ज़त बख़्शी है तो उसे मालूम होना चाहिए कि अगर अल्लाह ने उन के लिए दुनिया को फ़र्श बना दिया है तो इसका मतलब ये है कि उस ने दुनिया को ज़लील बना दिया है और इसी लिए अपने क़रीब तरीन बंदे से दूर रखा है।

2. रसूले अकरम (स) की सादगी

इमाम अली (अ) नहजुल बलाग़ा में एक ऍसा जुमला बयान फ़रमाते हैं जो आपकी सीरत को बयान करने वाला और बहुत ही हैरत अंगेज़ है आप मूसा (अ) और हारून (अ) के क़िस्से को बयान फ़रमाते हैं और कहते हैं कि जब यह लोग मबऊस बे रिसालत हुई तो चरवाहों का लिबास पहने हुए फ़िरऔन के दरबार में हाज़िर हुए "و علیھا مدارع" الصوف दोनो पशमीना का लिबास पहने हुए थे जो कि उस ज़माने का मामूली तरीन लिबास था و بایدیھما""العصیٰ और दोनो के हाथ मे असा था, और यही उन दोनो का कुल सरमाया था।

फ़िरऔन का वह जलाल व शौकत, और ऍसी हालत में दो शख़्स पशमीना का लिबास पहने हुए, हाथ में असा लिये हुए पूरे यक़ीन और उलूही क़ुदरत के साथ उस से मुख़ातब होते हैं कि: हम रसूल हैं और इसी रिसालत की तबलीग़ के लिये यहा आयें है और कहते हैं कि अगर तू अपनी फ़िरऔनियत से बाज़ आ जाए और वाक़ेअन इस्लाम क़बूल करले तो हम तेरी हुकूमत की ज़मानत लेते हैं।

फ़िरऔन इधर उधर देखता है और कहता है "الا ترون ھذین؟ " इन दोनो को देख रहे हो? कि फटे पुराने लिबास और दो लकड़ी (असा) ले कर आए हैं! ये समझते हैं कि ये कामयाब हैं और मुझ से ये चाहते हैं कि अगर मैं अज़ीज़ रहना चाहता हूं, और ज़लील नही होना चाहता हूं तो इस्लाम ले आऊं ये कितनी मज़हका ख़ेज़ बात है!

इस के मुक़ाबिल मे फ़िरऔन की क्या दलील है? वह कहता है

"فھلا القی علیھا اساور من ذھب" अगर वाक़ेअन इनका मुस्तक़बिल इतना ताबनाक है, तो ये क्या हालत बना रखी है? इनके सोने चांदी कहां हैं? इनकी फ़ौज और तश्कीलात कहा है?

इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं:"اعظاما للذھب و جمعہ و احتقارا للصفوف و لبسہ" उनकी नज़र में सोना चांदी बड़े हो गये और मामूली लिबास छोटा हो गया।

वह यह सोचता है कि अगर ये सच कह रहे हैं, और ख़ुदाई नुमाइन्दे हैं तो वह ख़ुदा उन को उस के दस बराबर सोना चांदी और रोब व दबदबा दे सकता है, तो उसने ऍसा क्यों नही किया, और उनको कुछ नही दिया?

फिर आप इसकी वजह की तरफ़ इशारा करते हैं कि क्यों ख़ुदा पैग़म्बरों को इस तरह मबऊस करता है और उनको दुनियावी दौलत, सोना चांदी, वग़ैरह नही देता है। आप फ़रमाते हैं अगर ख़ुदा उन को यह सब देदे तो अख़्तिया ख़त्म हो जाएगा और अगर जबरन ही मोमिन बनाना होता तो सारे लोग ईमान ले आए होते, लेकिन तब वह ईमान, ईमान न रह जाता, वरना अगर ऍसा करना होता तो ख़ुद अमीरुल मोमिनीन (अ) की ताबीर है कि अगर ख़ुदा चाहता तो हैवानो को उनका ताबे और परिन्दों को उनका मुतीअ बना देता (जैसा कि जनाबे सुलेमान (अ) के सिलसिले मे किया) और जब यह लोग फ़िरऔन के दरबार मे आते तो इन के सरों पर परिन्दे मंडला रहे होते, और जानवर भी उनकी ताज़ीम करते, ताकि किसी भी तरह के शक व शुब्हे की गुंजाइश बाक़ी न रह जाती, और अख़्तियार ख़त्म हो जाता।

आप फ़रमाते हैं लेकिन इस सूरत में "لا لزمت الا سمای معانیھا" ईमान ईमान न रह जाता क्यों कि ईमान वह है जो अख़्तियार के साथ लाया जाए न कि जब्र से मोअजिज़े व करामत सिर्फ़ इस पर एक दलील हैं, और जब तक ये दलील के उनवान से होती हैं, तब क़ुरआन उन्हें, मोअजिज़ा, निशानी कहता है लेकिन जब ये दलील की हद से ख़ारिज हो जायं तब यही क़ुरआन कहता हुआ नज़र आता है कि पैग़म्बर मोअजिज़े का कारख़ाना नही लाया है, वह सिर्फ़ इस लिय आया है ताकि अपने ईमान को लोगों के सामने पेश करे, और उसकी रिसालत व नबूवत की सच्चाई के तौर पर ख़ुदा ने उन्हें मोअजिज़ा अता फ़रमाया है।

ऍसा नही है कि वह एक मोअजिज़ा यहां, एक वहा दिखाते फिरें, कोई कहे ये मोअजिज़ा दिखाओ कोई कहे वह दिखाओ.....इमाम अली (अ) फ़रमाते हैं कि अगर ऍसा हो जाता तो ईमान ईमान न रह जाता।

इमाम (अ) का दूसरा जुमला जो कि हमारा शाहिदे मिसाल भी है उस में आप फ़रमाते हैं: ख़ुदा ने पैग़म्बरों को इस तरह की तशकीलात, दबदबा और तनतना अता नही किया है, और ऍसी ताक़त जो लोगों के ज़हन को बांध दे अता नही की है, और पैग़म्बर भी इस रविश से इस्तेफ़ादा नही करते हैं बल्कि "ولا کن اللہ سبحانہ جعل رسولہ اولہ قوۃ فی" عزاءمھم ख़ुदा ने पैग़म्बरो की हिम्मत, अनके इरादे, और अज़ाएम मे ताक़त अता की है और ऍसी ताक़त दी है कि पशमीना का लिबास पहन कर और हाथ में असा लेकर फ़िरऔने ज़माना के सामने खड़े हो जाते हैं और इस तरह कलाम करते हैं "و غعفۃ فیما تری الاعین من حا لاتھم "

फिर आप फ़रमाते हैं:"مع قناعۃ تملا القلوب و العیون غنی ،و خصاصۃ تملا الابصار و الاسماع اذی" [6]ख़ुदावन्दे आलम ने उनके ज़मीर मे अज़्म व इरादे की अज़ीम क़ुव्वत अता की है और उनको क़नाअत अता की है जिस के बारे में इमाम अली फ़रमाते हैं कि पैग़म्बर भी अपनी आँखों को पुर करते हैं लेकिन इस तरह से कि वह कहते हैं कि हमारे पास कुछ नही है लेकिन हम फिर भी बे नियाज़ हैं, और निहायत ही सादगी से अपनी ज़िन्दगी गुज़ारते हैं।[7]

और यही सादगी हम को पैग़म्बरे अकरम (स) की ज़िन्दगी में देखने को मिलती है, कि आप के पास कुछ भी नही है फिर भी आप बे नियाज़ है और जब कुफ़्फ़ारे मक्का आप को इस्लाम की तबलीग़ के मुक़ाबले में माल व दौलत की लालच देते हैं तब भी आप कहते हुए नज़र आते हैं कि अगर मेरे एक हाथ पर चांद और दूसरे पर सूरज रख दिया जाए तब भी मैं तबलीग़े इस्लाम से बाज़ नही आऊँगा।

3. अमानते रसले अकरम (स)

امین وحیہ[8] امینہ الرضی [9]

अमीरुल मोमिनीन (अ) ने रसूले अकरम (स) को अमीन के लक़ब से याद फ़रमाया है और हम को बताया है कि रसूले अकरम (स) की सीरत में से एक उन का अमीन होमा भी है। अमानत कि मुख़्तलिफ़ क़िस्मों में से सब से बड़ी क़िस्म वहीये इलाही का अमीन होना है और ख़ुदा वंदे आलम ने रसूले अकरम (स) को अपनी वही का अमीन बना कर इस दुनिया में मबऊस किया है। एक अमीन के लिए ज़रूरी है कि वह अमानत में किसी तरह का तसर्रुफ़ न करे और जिस तरह से है उसी सूरत में उसे पहुंचा दे, और रसूले इस्लाम (स) ने वहीये इलाही के अमीन होने की ज़िम्मेदारी संभाली तो उस को पूरी तरह से बग़ैर किसी कमी व ज़्यादती के बे नहवे अहसन पहुंचा दिया, और इस ज़िम्मेदारी में इस हद तक इमानदारी का मुज़ाहिरा किया कि ख़ुदा ने उन के अमीने वहीये इलाही का तमग़ा दे दिया और इरशाद फ़रमाया

وما ینطق عن الھوی ان ھو الا وحی یوحی"[10]” मेरा हबीब तो अपनी मरज़ी से कुछ बोलता भी नही है वह वही कहता है जो वहीय कहती है।

क़ुरआन मजीद को “ज़मीन व आसमान के दरमियान की रस्सी” कहा गया है (قال النبی : کتاب اللہ حبل ممدود من السماء الی الارض )[11]

शायद ये इस लिये है कि क़ुरआन आलमे क़ुद्स और अरवाह के दरमियान मानवी वास्ता है और इसी वजह से मासूमीन (अ) के कलिमात को “हब्लुल ममदूद” कहा जाता है। वह इसलिये कि वह जो कुछ भी फ़रमाते हैं वह रसूले अकरम (स) के इल्मे लदुन्नी से हासिल किया हुआ होता है, और ख़ुद रसूले अकरम (स) का कलाम सराहतन इल्मे रब्बानी और इलाही होता है और क़यास, तसर्रुफ़ात और ख़ुराफ़ात से पाक होता है क्योंकि وما ینطق عن" ۔۔۔[12]”

इस आयत और अमीरुल मोमिनीन के कलाम से रसूले अकरम (स) के अमीन होने का पता चलता है। रसूले अकरम (स) की अमानतदारी का ये आलम था कि ज़माने जाहेलियत मे ही कि जब आप ने अभी अपनी रिसालत का ऐलान भी नही किया था तब ही अहले अरब आप को “अमीन” कहने लगे थे।

जहां आप की ज़ाते मुकद्दसा में मुख़्तलिफ़ सिफ़ाते हसना पाई जाती थीं उन्ही में से एक आप की ज़िन्दगी में सदाक़त व अमानत का होना भी है, कभी भी ख़लवत, जलवत, उमूरे माली और ग़ैरे माली, मर्दों या औरतों के साथ मआशिरत में, आप के अंदर थोड़ा सा भी अख़्लाक़ी इनहेराफ़ या ख़यानत देखने को नही मिली।

यहां तक कि अभी आप जवान ही थे कि “मोहम्मदे अमीन” के लक़ब से मारूफ़ हो गये थे और मक्के के लोग आप को अमीन के लक़ब से याद करने लगे थे और जहां भी आप को देखते कहते थे “अमीन” आ रहा है[13]

आप की अमानतदारी इस दरजे पर थी कि आप के शदीद दुश्मन और कुफ़्फ़ार भी अपनी अमानतें आप के पास रखवा कर मुतमइन हो जाया करते थे, और आप ने कभी भी किसी की अमानत में ज़र्रह बराबर भी ख़यानत नही की, यहां तक कि जब मक्के से हिजरत करके मदीना जाने लगे तब भी तमाम अमानतें हज़रत आली के सिपुर्द फ़रमाईं और कहा कि इन को इन के मालिकों तक पहुंचा देना।

4. रसूले अकरम (स) रहमतुल लिल आलमीन

و بشیر رحمتہ [14]

ख़ुदा वन्दे आलम ने उनको अपनी रहमत का बशारत देने वाला बना कर भेजा है, जिस तरह से ख़ुदा अपने बंदों पर अरनी रहमत का साया किये हुए है, ये नीला आसमान, ये वसीअ ज़मीन, बुलंद पहाड़, ये बहते दरिया, दरख़्त, दरख़्तों पर चहचहाती हुईं चिड़यां, ये शुकूफ़े और उन पर मंडलाती हुई तितलियां, ग़रज़ कि इस दुनिया का चप्पा चप्पा और उसकी हर शैय उसकी रहमते वासिआ की निशानी है, और इन सब में सब से बड़ा नमूना हज़रते रसूले अकरम (स) की ज़ाते गिरामी है।

ख़ुदा वंदे आलम इतना रहीम व करीम है कि जब बंदे गुनाह करने के बाद उसकी रहमत से मायूस हो गये तो फ़रमाया:

“ऍ रसूल उन लोगों से कह दीजिये जिन्होंने अपने नफ़्सों पर ज़ुल्म किया है वह रहमते इलाही से मायूस न हों ख़ुदा वंद तमाम गुनाहों को बख़्शने वाला है”

और रसूले अकरम (स) इसी रहमत का नमूनी हैं यही वजह है कि जब आप किसी सूखे दरख़्त के नीचे से गुज़र जाते तो वह हरा भरा हो जाता, किसी सूखे कुएं मे लोआबे दहन डाल देते तो वह पानी से भर जाता।

रसूले अकरम (स) की इसी रहमत की तरफ़ इशारा करते हुए मौलाए काएनात एक दूसरी जगह इरशाद फ़रमाते हैं:

“परवरदिगार ने उन की तरफ़ एक रसूल भेज दिया जिस ने अपने निज़ाम से उनकी इताअत को पाबंद बना लिया और अपनी दावत पर उनकी उलफ़तों को मुत्तहिद किया और इस के नतीजे में नेमतों ने उन पर करामत के बाल व पर फैला दिये और राहतों के दरिया बहा दिये शरीयत ने उन्हे अपनी बरकतों के बेश क़ीमत फ़वाएद मे लपेट लिया। वह नेमतों में ग़र्क़ हो गये और ज़िन्दगी की शादाबियों में मज़े उड़ाने लगे। एक मज़बूत हाकिम के ज़ेरे साया हालात साज़गार हो गये और लाहात ने ग़लबा और बुज़ुर्गी के पहलू में जगह दिलवा दी और एक मुस्तहकम मुल्क की बुलंदियों पर दुनिया और दीन की सआदतें उन की तरफ झुक गयीं....”।[15]

आप के रहमतुल लिल आलमीन (स) होने का एक नमूना बचपने में ही देखने को मिलता है, जब आप के सिर्फ़ मुंह लगाने से दाई के पिस्तान से शीर जारी हो गया। और दूसरा नमूना उस वक़्त देखने को मिला जब आप की उम्र सिर्फ़ बारह साल थी और आप पहली बार जनाबे अबूतालिब के हमराह तिजारती क़ाफ़्ले के साथ चले अभी क़ाफ़िला ज़्यादा दूर नही गया था कि अहले क़ाफ़िला ने महसूस किया कि ये सफ़र पहले के सफ़रों की मुनासिबत ज़्यादा आरामदेह है और पहले के सफ़रो में जो गरमी थी वह इस बार नही है और जो पहले परेशान करती थी वह इस बार नही है। सभी इस बात से बहुत तअज्जुब में थे यहां तक कि उन में से एक ने ये भी कह दिया कि “ये सफ़र कितना मुबारक है”।

धीरे धीरे सब मुतवज्जेह हुए कि दिन में जब आप सफ़र करते हैं तो बादल का एक टुकड़ा मुसलसल उन के सर पर साया फ़िगन रहता है और उनको सूरज की धूप और गर्मी से बचाता है। लेकिन शायद बहुत कम लोग ये जानते हों कि उन पर ये रहमते ख़ुदावंदी इस बारह साल के बच्चे की वजह से है जो इस कारवान के साथ सफ़र कर रहा है।[16]

और सही भी है कि जिस क़ाफ़िले का हम सफ़ररहमतुल लिल आलमीन (स) हो भला सूरज की गर्मी उसका क्या बिगाड़ सकती है।

5. रसूले अकरम (स) और भाई चारा

الف بہ اخوانا [17]

अमीरुल मोमिनीन (अ) रसूले अकरम (स) के मक़र व मुस्तक़र को बयान करते हुए फ़रमाते हैं

“नेक किरदारों के दिल आप की तरफ़ झुका दिये गये और निगाहो के रुख़ आप की तरफ़ मोड़ दिये गये, अल्लाह ने आप के ज़रिये कीनो के दफ़्न कर दिया है और अदावतों के शोले बुझा दिये हैं, लोगों को भाई भाई बना दिया है, और कुफ़्र की बिरादरी को मुन्तशिर कर दिया है....”

तारीख़ गवाह है कि अरब अपनी कीना तोज़ी और फ़ितना परवरी के लिये मशहूर रहे हैं और रसूले अकरम (स) के वजूद के ज़रिये जो बहुत से इन्क़ेलाबात आये हैं उन में से एक इन कीनों को ख़त्म करना भी है जो अरब की रग रग में बस चुका था और उनके जिस्म मे ख़ून की तरह दौड़ रहा था।

जैसा की तारीख़ मे है कि आप की मदीना हिजरत से पहले वहा के दो क़बीले “औस व ख़ज़रज” एक दूसरे के दीरीना दुश्मन थे, और वह एक दूसरे की जान के दरपै रहा करते थे, उनके दरमियान क़त्ल व ग़ारतगरी, कुश्त व कुश्तार का बाज़ार गर्म रहा करता था। छोटी सी बात पर एक दूसरे से लड़ जाया करते थे।

इन दो क़बीलो के साथ वहा चंद यहूदी तवाएफ़ (क़बीले) मसलन “बनी क़ैनोक़ा”“बनी नज़ीर”“बनी क़रीज़ा”“बनी सअलबा” रहते थे, और उन्होंने मदीना और उसके अतराफ़ की ज़मीनो को ख़रीद कर वहां के इक्तेसादियात को अपने क़बज़े में कर रखा था और अपने मफ़ाद के लिए इन दोनो क़बीलों को आपस में लड़वाते रहते थे।

जैसा कि आज के यहूदियों का भी यही तुरए इम्तियाज़ रहा है कि वह आलमी इक्तिसाद पर हावी हैं और उन्होने पूरी दुनिया के इक्तेसाद पर क़बज़ा कर रखा है दुनिया की हर बड़ी इक्तिसादी ताक़त उन्ही के क़बज़े मे है, उन्ही की उंगलियों पर पूरी दुनिया का इक्तेसाद गरदिश कर रहा है, और इसी लिये कि कोई उन के इस क़ुव्वत और क़ुदरत के आँड़े न आए वह दूसरी क़ौमों ख़ुसुसन मुसलमानो को मुख़्तलिफ़ तरह के बहानों से लड़ाते रहते हैं, क्यों कि अगर वह लड़ते ही रहेंगे तो कभी उनके मुक़ाबिले में खड़े न हो सकेंगे और दुनिया पर उनका एक छत्र राज क़ाएम रहेगा।

तमाम मुसलमानो को चाहिये कि वह तारीख़ से सबक़ लें और आपस के बेजा इख़्तिलाफ़ात को भुला कर एक क़ौम बन कर रहें इसी में उनकी शान भी है और यही उनका ईमान भी क्यों कि मुसलमान वही है जिस के शर से दूसरे मुसलमान महफ़ूज़ रहें “المسلم من سلم المسلمون بیدہ و لسانہ”

रसूले अकरम (स) ने इन दोनो क़बीलों के दरमिया इख़्तिलाफ़ और यहूदियों की बाला दस्ती को ख़त्म करने के लिए वहीय इलाही से कुछ क़रार दाद पेश कीं और ये उन क़रार दादों का ही नतीजा था कि कुछ मुद्दत के बाद वही मुख़्तलिफ़ुल अक़ीदा और नातवान आफ़राद एक उम्मते वाहिद और ताक़तवर क़ौम की सूरत में सामने आए और शहरे मदीना, जज़ीरतुल अरब की बहुत बड़ी सियासी और निज़ामी छावनी बन गया, और उनकी क़ुदरत व ताक़त इस हद तक पहुंच गई कि ईरान व रूम के बा शिकोह तख़्त को हिला दिया और उन की हुकुमतों का तख़्ता पलट दिया।

इन्ही क़रारदादों मे से एक पैमाने उख़ुवत और बरादरी था जिस को आप ने मुहाजेरीन और अंसार के दरमियान बांधा और इस के ज़रिये मुहाजेरीन जो कि ग़ुरबत का एहसास कर रहे थे उन को इस से नजात दिलाई और “औस व ख़ज़रज” के दरमियानी दीरीना केने और फ़ितने को भी ख़ामोश कर दिया।

जहां आप ने दुसरे मुसलमानों को एक दूसरे का भाई बनाया वहीं हमेशा अपना साया बने रहने वाले वारिसे नबूवत हज़रत अली को अपना भाई बनाया और कहा:

“انت اخی”तुम मेरे भाई हो। [18]


[1]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 197

[2]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 109

[3]सुननुन नबी पेज 81

[4]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 160

[5]सुननुन नबी पेज 95

[6]नहजुल बलाग़ा, सुबही सालेह ख़ुतबा 192

[7]सैरी दर सीरह नबवी, पेज 96

[8]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 173

[9]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 185

[10]सूरह नजम आयत 3-4

[11]बिहरुल अनवार जिल्द 23, पेज 108

[12]तफ़सीर व शवाहिदे क़ुरआनी दर आसारे इमाम ख़ुमैनी, पेज 781

[13]ज़िन्दगानी हज़रत मोहम्मद (स) पेज 87

[14]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 173

[15]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 192

[16]ज़िन्दगानी हज़रत मोहम्मद (स) पेज 81

[17]नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 96

[18]ज़िन्दगानी हज़रत मोहम्मद (स) पेज

अंतिम अद्यतन (शुक्रवार, 12 नवम्बर 2010 13:38)

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