नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा 153-154

ख़ुत्बा -153 ( इसमें चमगादड़ की अजीबो ग़रीब ख़िलक़त (विचित्र उत्पत्ती)का ज़िक्र फ़रमाया है ) “ तमाम हम्द (प्रशंसा व वंनदना) उस अल्लाह के लिय...

ख़ुत्बा -153




( इसमें चमगादड़ की अजीबो ग़रीब ख़िलक़त (विचित्र उत्पत्ती)का ज़िक्र फ़रमाया है )




“ तमाम हम्द (प्रशंसा व वंनदना) उस अल्लाह के लिये है जिस की मअरिफ़त (परिचय)की हक़ीक़त (वास्तविकता)ज़ाहिर करने से औसाफ़ आजिज़(गुण असमर्थ) है और उस की अज़मत व बुलंदी(वैभव व उच्चता) ने अक़्लों(बुद्धियो) को रोक दिया है, जिस से वह उस सरहदे फरमां रवाई(राज्य सीमा) तक पङुँचने का कोई रास्ता नही पाती। वह अल्लाह इक़तिदार का मालिक है और सरापा हक़(सर्व सत्ता) और हक़ का ज़ाहिर करने वाला है। वह उन चीज़ो से भी ज़्यादा अपने मक़ाम पर साबित व आशकार(प्रकट) है कि जिन्हें आँखे देखती हैं, अक़्लें उसकी हद बंदी करके उस तक नही पहुँच सकती, कि वह दूसरो से मुशाबेह (समरूप)हो जाये, और न हम उसका अन्दाज़ा (अनुमान) लगा सकते हैं कि वह किसी चीज़ के मानिन्द(समान)हो जाए। उसके बग़ैर किसी नमूना व मिसाल (उदाहरण)के और किसी मुआविन (सहयोगी) की मदद (सहयोग)के मख़लूक़ात को पैदा किया। उसके हुक्म से सख़्लूक़ अपने कमाल (पूर्णता) को पहुँच गई, और उसकी इताअत (आज्ञपालन) के लिये झुक गई, और बिना तवक़्क़ुफ़ (अविलम्ब) लब्बैक कही, और बग़ैर किसी निज़ाअ व मुज़ाहिमत (विवाद एवं टकराव) के उस की मुतीइ (आज्ञापालक)हो गई। उसकी सनअत (कला) की लताफ़तों (म्रदुलताओं)और ख़िलक़त (उत्पत्ति) की अजीब व ग़रीब कारफ़रमाईयों (विचित्र क्रियान्वयन)में क्या गहरी हिकमत हैं कि जो उस ने हमें चमगादड़ो के अन्दर दिखाई हैं कि जिनकी आँखो को दिन का उजाला सिकोड़ देता है। हालाँकि वह तमाम आँखों में रौशनी फैलाने वाला है और अंधेरा उनकी आँखों को खोल देता है। हालाँकि वह हर ज़िन्दा शय (प्रतयेक जीवित वस्तु) की आँखों पर नक़ाब (पर्दा) डालने वाला है। और क्यों कर चमकते हुए सूरज में उनकी आँखें चुंधिया जाती हैं कि वह उसकी नूर पाश शुअओं (किरणों) से मदद ले कर अपने रास्ते पर आ जा सकें।और नूर आफ़्ताब (सूर्य प्रकाश) के फैलाव में अपनी जानी पहचानी हुई चीज़ों तक पहुँच सकें। उसने तो अपनी ज़ौ पाशियों की ताबिश से उन्हे नूर की तजल्लियों में बढ़ने से रोक दिया है, और उनके पोशीदा ठिकानों में उन्हें छिपा दिया है कि वह उसकी रौशनी के उजीलों में आ सकें। दिन के वक़्त तो वह इस तरह होती है कि उनकी पलकें झुक कर आँखों पर लटक जाती हैं,और तारीकी ए शब (रात्री के अंधकार) को अपनी चिराग़ (दिया)बना कर रिज़्क (जीविका) के ढूँढने में उस से मदद लेती हैं। रात की तारीकियां(अंधकार) उनकी आँखों को देखने से मही रोकतीं और न ही उसकी धटाटोप अंधियारियाँ राह पैमाइशों से बाज़ रखती हैं।मगर जब आफ़ताब अपने चेहरे से नक़ाब हटाता है और दिन के उजाले उभर आते हैं, और सूरज की किरने सूसमार के सूराख़ के अन्दर तक पहुँच जाती हैं तो वह अपनी पलकों को झुका लेती है, और रात की तीरगियों में जो मआश (रोज़ी) हासिल की है उसी पर अपना वक़्त पूरा कर लेती है। सुब्हानल्लाह! कि जिस ने रात उनके कस्बे मआश (जीविका कमाने) के लिये और दिन आराम व सुकून के लिये बनाये है।और उनके गोश्त ही से उनके पर बनाये हैं। और जब उड़ने की ज़रूरत होती है तो उनही परों से ऊँची होती हैं। गोया (जैसे) कि वह कानों की लवे हैं कि उनमें पर व बाल हैं और न किर्या। मगर तुम उनकी रगों की जगह देखोगे कि उसके निशान ज़ाहिर हैं और उस में दो पर लगे हुऐ हैं कि जो न इतने बारीक हैं कि फट जायें और न इतने मोटे हैं कि बोझल हो जायें कि उड़ा न सके। वह उड़ती हैं तो बच्चे उनसे चिमटे रहते हैं । जब वह नीचे की तरफ झुकती हैं तो बच्चे भी झुक पड़ते हैं, और जब वह ऊँची होती है तो बच्चे भी ऊँचे हो जाते हैं, और उस वक़्त तक अलग नही होते जब तक कि उनके पर (उनका बोझ)उठाने के क़ाबिल न हो जायें वह अपनी ज़िन्दगी की राहों और अपनी मसलिहतों (हितों) को पहचानते हैं। पाक है वह ख़ुदा कि जिसने बग़ैर नमूने के कि जो पहले किसी ने बनाया हो इन तमाम चीज़ो को पैदा करने वाला है ”।




चमगादड़ एक अजीबो ग़रीब परिन्दा (विचित्र पक्षी) है। जो अंडे देने के बजाय़ बच्चे देता ,दाना भरने के बजाय दूध पिलाता, और बगैर परो के परवाज़(उड़ता) करता है। उसकी उंगलियाँ झिल्लीदार होती हैं जिन से परो का काम लेता है। इन परो का फैलाव डेढ़ इन्च से पाँच फीट तक होता है। यह अपने पैरो के बल चल फिर नही सकता, इस लिये उड़ कर रोज़ी हासिल करता और दरख़तो व छतों में उलटा लटका रहता है। दिन की रौशनी में उसे कुछ दिखाई नही देता इस लिये ग़ुरूबे आफ़ताब (सूर्यास्त)के बाद ही परवाज़ करता है और कीड़े मकोड़े और रात को उड़ने वाले परवाने खाता है। चमगादड़ो की एक क़िस्म फल खाती है और बाज़ गोश्त ख़ोर (मांसाहारी) होती हैं जो मछलियों का शिकार करती हैं। शिमाली अमरीका (उत्तरी अमरीका) के तारीक ग़ारों (अंधेरी गुफ़ाओं) में ख़ूख़्वार (रक्तहार) चमगादड़े भी बड़ी कसरत से पाई जाती हैं। इनकी ख़ुराक इन्सानी व हैवानी ख़ून है। जब वह किसी इन्सान का ख़ून चूसती हैं तो इन्सानी ख़ून में ज़हर (विष) सरायत कर जाता है जिसके नतीजे में पहले हलका सा बुख़ार और सर दर्द होता है फिर साँस की नली मुतवर्रिम(सूजन) हो जाती है। खाना पीना छूट जाता है । जिस्म के नीचे वाला हिस्सा बेहिस होकर रह जाता है। आख़िर साँस की आमद व रफ़्त बंद हो जाती है और वह दम तोड़ देता है। यह ख़ूआशाम चमगादड़े उस वक़्त हमला करती हैं जब आदमी बेहोश हो या सो रहा हो। जागते में हमला कम होता है और ख़ून चूसते वक़्त दर्द का एहसास तक नही होता।




चमगादड़ की आँख ख़ास क़िस्म की होती है जो सिर्फ़ तारीकी (अंधेरे) ही में काम करती है, और दिन के उजाले में कुछ नही देख सकती। इसकी वजह यह है कि आँखों की पुतली का फैलाव आँख की वुस्अत के मुक़ाबले में बड़ा होता है और तेज़ रौशनी में सिमट जाता है और कोई चीज़ दिखाई नही देती। यह एसा ही है जैसे एक बड़ी ताक़त के कैमरे से खुली रौशनी में तस्वीर उतारी जाये तो रौशनी की छूट से तसवीर धुंधली उतरती है। इसी लिये कैमरे के शीशे का साइज़ जो बमंज़िला आँख की पुतली के होता है छोटा कर दिया जाता है ताकि रौशनी का चका चौंध कम हो जाय और तस्वीर साफ़ उतरे। अगर चमगादड़ की आँख की पुतली का फैलाव आँख के मुक़ाबले में कम होता तो वह भी दूसरे जानवरों की तरह दिन में देख सकती थी।




ख़ुत्बा -154




(इसमे अहले बसरा को मुख़ातब (सम्बोधित)करते हुए उन्हे फ़ितनों(उपदर्वो)से आगाह (अवगत) किया है)




“ जो शख़्स उन फ़ितना अंगाज़ियों के वक़्त अपने नफ़्स के अल्लाह की इताअत (आज्ञा पालन) पर ठहराए रखने की ताक़त रखता हो उसे एसा ही करना चाहिये। अहर तुम मेरी इताअत(आज्ञा का पालन) करोगे तो इन्शाअल्लाह (ख़ुदा ने चाहा तो) तुम्हे जन्नत(स्वर्ग) की राह पर लगा दूँगा। अगरचे वह रास्ता कठिन दुशवारियो और तल्ख़ मज़ों(कड़वे स्वादों) को लिये हुए है। रही फ़लाँ (अमुक) तो उनमें औरतों (स्त्रीयों) वाली कम अक़ली आ गयी है। और लोहार के कढ़ाव की तरह कीना व इनाद उनके सीने में जोश मार रहा है, और जो सुलूक (व्यवहार) मुझ से कर रही हैं अगर मेरे सिवा किसी और से वैसे सुलूक को उनसे कहा जाता तो वह न करतीं। इन सव चीज़ो के बाद भी हमे उनकी साबिक़ा हुर्मत (विगत सम्मान) का लिहाज़ है उनका हिसाब व किताब अल्लाह के ज़िम्मे है ”।




(इस ख़ुत्बे का एक जुज़ (अंश) यह है)




“ वह अपनी क़ब्रों के ठिकानों से उठ खड़े हुए और अपनी आख़िरत (परलोक) के ठिकाने की तरफ़ पलट पड़े। हर घर के लिये उसके अहल (स्वामी) हैं कि न वह उसे तबदील कर सकेंगे और न उससे मुन्तक़िल (स्थानान्तरित) हो सक़ेगें। नेकियों का हुक्म देना और बुराइयों से रोकना ऐसे दो काम हैं जो अख़लाक़े ख़ुदावंदी (ईश्वरीय सदाचार) में से हैं। न उनकी वजह से मौत क़ब्ल अज़ वक़्त ( समय से पूर्व) आ सकती है, और न जो रिज़्क़ मुक़र्रर (जीविका निर्धारित) है उसमें कोई कमी हो सकती है। तुम्हे किताबे ख़ुदा पर अमल करना चाहिये। इस लिये कि वह एक मज़बूत रस्सी, रौशन व वाज़ेह नूर, नफ़ा बख़्श शिफ़ा, प्यास बुझाने वाली सेराबी (त्रप्ति)तमस्सुक करने वाले के लिये सामाने हिफ़ाज़त और वाबस्ता (सम्बद्द) रहने वाले के लिये नजात (निर्वाण) है। इसमें कजी नही आती कि उसे सीधा किया जाए, न हक़ से अलग होता हि कि उसका रुख़ मोड़ा जाए। कसरत से दोहराया जाना और बार बार कानों में पड़ना उसे पुराना नही करता। जो उसके मुताबिक़ (अनुरूप) कहे वह सच्चा है, और जो उस पर अमल करे वह सबक़त (प्राथमिकता) ले जाने वाला है। इसी असना(बीच) में एक शख़्स (व्यक्ति) खड़ा हुआ और उसने कहा कि हमें फ़ितनों के बारे में कुछ बताइये, और क्या आप ने इसके मुतअल्लिक़ रसूलुल्लाह (स) से दर्याफ़त किया था? आप ने फ़रमाया कि हाँ जब अल्लाह ने ये आयत उतारी कि “ क्या लोगों ने ये समझ रखा है कि उनके इतना कह देने से कि हम ईमान लाय उन्हे छोड़ दिया जायगा और वह फ़ितनों से दोचार नही होंगें ?” तो मैं समझ गया कि फ़ितना हम पर नही आयगा क्येकि रसूलुल्लाह (स) हमारे दरमियान मौजूद हैं। चुनाँचे मैने कहा, “ या रसूलल्लाह (स) यह फ़ितना क्या है कि जिस की अल्लाह ने आपको ख़बर दी है ? ” तो आप ने फ़रमाया कि, ए अली (अ) मेरे बाद मेरी उम्मत जल्दी फ़ितनों में पड़ जायगी।तो मैं ने कहा या रसूलल्लाह! (स) उहद के दिन जब शहीद होने वाले मुसलमान शहीद हो चुके थे और शहादत मुझ से रोक ली गयी थी और मुझ पर गराँ गुज़रा था तो आपने मुझ से नही फ़रमाया था कि तुम्हे बशारत (शुभ सूचना) हो कि शहादत तुम्हे पेश आने वाली है, और यह भी फ़रमाया था कि यह यूं ही हो कर रहेगा, यह कहो कि उस वक़्त तुम्हारे सब्र की हालत क्या होगी? तो मैं ने कहा था कि या रसूलल्लाह! (स) यह सब्र का रोई मौक़ा नही है, यह तो मेरे लिये मुज़दा (ख़ुशख़बरी) और शुक्र का मक़ाम होगा। तो आपने फ़रमाया कि या अली! हक़ीक़त (वास्तविकता) यह है कि लोग मेरे बाद मालो दौलत की वजह से फ़ितनों में पड़ जायेंगे और दीन अख़्तियार कर लेने से अल्लाह पर एहसान (आभार) जतायेंगे। उसकी रहमत (दया) की आरज़ूएं तो करेंगे, लेकिन उसके क़हरो ग़लबे कि गिरफ़्त से बे ख़ौफ़ (निर्भीक) हो जायेगे कि झूट मूट के शुब्हों (शंकाओं) और ग़ाफ़िल कर देने वाली ख़्वाहिशों की वजह से हलाल को हराम कर लेंगें, शराब को अंगूर व ख़ुर्मा का पानी कह कर और रिश्वत का नाम हदिया रख कर और सूद को ख़रीदो फ़रोख़्त क़रार दे कर जाइज़ समझ लेगें। फिर मैं ने कहा , “ या रसूलल्लाह! (स) मैं उन्हे इस मौक़े पर किस मर्तबे पर समझूँ ? ” इस मर्तबे पर कि वह मुर्तद हो गये हैं या इस मर्तबे पर कि वह फ़ितने में मुब्तेला (ग्रस्त) हैं ? तो आप ने फ़रमाया कि फ़ितने के मर्तबे पर ”।




इस हक़ीक़त से इन्कार नही किया जा सकता कि हज़रत आइशा का रवैया आमीरुल मोमिनीन (अ) से हमेशा मुआनिदाना (वैमनस्यतापूर्ण) रहा और अकसर उनके दिल की कुदूरत (ईष्या) उनके चेहरे पर खुल जाती और तर्ज़े अमल (प्रतिक्रिया) से नफ़रत व बेज़ारी (घर्णा एवं रोष) झलक उठती थी। यहाँ तक कि किसि वाक़िये के सिलसिले में हज़रत का नाम आ जाता तो उन की पेशानी पर बल पड़ जाता था, और उसका ज़बान पर लाना भी गवारा न करती थी। चुनांचे उबैदुल्लाह इब्ने अब्दुल्लाह ने हज़रत आइशा की उस रिवायत का कि पैग़म्बर (स) हालते मरज़ में फ़ज़्ल इब्ने अब्बास और एक दूसरे शख़्स का सहारा लेकर उनके यहा चले आए, हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से ज़िक्र किया तो उन्हों ने फ़रमाया :

क्या तुम्हे मालूम है कि वह दूसरा शख़्स कौन था? उसने कहा कि नही। कहा कि वह अली इब्ने अबी तालिब थे। मगर हज़रत आइशा के बस की बात यह न थी कि वह अली (अ) का किसी अच्छाई के साथ ज़िक्र करतीं ”।

इस नफ़रत व इनाद (घर्णा एंव वैमनस्यता) का एक सबब (कारण) हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स0 अ0) का वजूद था कि जिन की हमागीर अज़मतो तौक़ीर (सर्वमान्य प्रतिष्ठा एवं सम्मान) उनके दिल में काँटे की तरह खटकती थी, और सौतापे की जलन यह गवारा न कर सकती थी कि पैग़म्बर (स) दुख़्तर (पुत्री) को इस तरह चाहे कि उसे देखते ही ताज़ीम (सत्कार) के लिये खड़े हो जाते और अपनी मसनद पर जगह देते और सैयेदाते निसाइल आलमीन कह कर दुनिया जहान की औरतों पर उसकी फ़ौक़ियत (प्रभुता) ज़ाहिर करें, और उसकी औलाद को इस हद तक दोस्त रखें कि उन्हें अपना फ़र्ज़न्द (पुत्र) कह कर पुकारें। यह तमाम चीज़ें उन पर शाक गुज़रने वाली थीं और फ़ितरी (स्वभाविक) तौर पर उनके जज़बात इस मौक़े पर यही होंगे कि अगर ख़ुद उनके बत्न (गर्भोशय) से औलाद होती तो वह पैग़म्बर (स) के बेटे कहलाते और हसन व हुसैन (अ) के बजाए वह उनकी मोहब्बत के मर्कज़ (केन्द्र) होते। मगर उनकी गोद औलाद से हमेशा ख़ाली ही रही, और माँ बनने की आरज़ू के अपने भाँजे के नाम पर अपनी कुनियत उम्मे अब्दुल्लाह रख कर पूरा कर लिया। ग़रज़ यह सब चीज़े ऐसी थीं कि जिन्होने उनके दिल में नफ़रत का जज़बा पैदा कर दिया। जिसके तक़ाज़े से मजबूर होकर जनाबे सय्यदा (स0 अ0) के ख़िलाफ़ शिकवा व शिकायत करती रहती थीं। मगर पैग़म्बर (स) की तवज्जुहात उन से हटाने में कामयाब न हो सकीं। इस रंजिश व कशीदगी का तज़्किरा हज़रत अबू बकर के कानों में भी बराबर पहुँचता रहता था जिस से वह दिल ही दिल में पेच व ताब खाते थे। मगर उनके लिये भी कुछ न हो सकता था सिवा इसके कि उनकी ज़बानी हमदर्दियाँ अपनी बेटी के साथ होतीं थीं। यहाँ तक कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने दुनिया से रेहलत (निधन) फरमाई और हुकूमत की बागडोर उनके हाथ में आ गयी। अब मौक़ा था कि वह जिस तकह चाहें इन्तेक़ाम (बदला) लेते और जो तशद्दुद चाहते रवा रखते। चुनाँचे पहला क़दम यह उठाया कि जनाबे सैय्यदा को महरूमुल इर्स (उत्तराधिकार से वंचित) क़रार देने के लिये पैग़म्पर के विर्से की नफ़ी (अस्वीक्रत) कर दी कि वह न किसी के वारिस होते हैं और न उनका कोई वारिस होता है। बल्कि उनका तर्का हुकूमत कि मिलकीयत होता है। जिस से जनाबे सय्यदा (स0 अ0) इस हद तक मुतअस्सिर (प्रभावित) हुई कि उनसे तर्के कलाम(बात करना) कर दिया और उन्ही ताअस्सुरात के साथ दुनिया से रुख़्सत हो गई। हज़रत आइशा ने इस मौक़े पर भी अपनी रविश न बदली और यहाँ तक गवारा न किया कि उनके इन्तेक़ाले पुरमलाल (दुखद निधन) पर अफ़सोस का इज़हार करतीं। चुनाँचे इब्ने अबील हदीद ने तहरीर किया है :

“ जब हज़रत फ़ातिमतुज़-ज़हरा(स0 अ0) ने रेहलत फ़रमाई तो तमाम अज़वाजे पैग़म्बर (स) (पैग़म्बर की पत्नियाँ) बनी हाशिम के यहाँ ताज़ियत (शोक व्यक्त करने) के लिये पहुँच गई सिवाय हज़रत आइशा के कि वह न आई और यह ज़ाहिर किया कि वह मरीज़ हैं और हज़रत अली (अ) तक उनकी तरफ़ से ऐसे अल्फ़ाज़ (शब्द) पहुँचे जिन से उन की मसर्रत (पर्सन्नता) व शादमानी (हर्ष) का पता चलता था ”।

जब जनाबे सय्यदा (स0 अ0) से इस हद तक इनाद था तो जिन से उनका दामन वाबस्ता होगा वह किस तरह उनकी दुश्मनी से बच सकता था जबकि एसे वाक़ेआत भी रूनुमा होते रहते हैं कि जो इस मुख़ालिफ़त को हवा देते,और उनके जज़ब ए नफ़रत को उभारते हों जैसे वाक़िअ ए इफ़्क के सिलसिले में अमीरुल मोमिनीन (अ) का पैग़म्बर (स) से यह कहना कि “ यह तो अपकी जूती का तस्मा है इसे छोड़िये और तलाक़ देकर अलग कीजिये ”। जब हज़रत आइशा ने यह सुना होगा तो यक़ीनन बेक़रारी से बिस्तर पर करवटें बदली होंगी, और हज़रत के ख़िलाफ़ जज़ब ए नफ़रत इन्तेहाई शिद्दत से उभरा होगा। फिर ऐसे वाक़ेआत भी पेश आते रहे कि उनके वालिद हज़रत अबू बकर के मुक़ाबले में हज़रत (अ) को इम्तेयाज़ दिया गया और उनके मदारिज को बुलन्द और नुमाँया करके दिखाया गया। जैसे तबलीगें सूर ए बराअत के सिलसिले में पैग़म्बर (स) का उन्हे माज़ूल (निलम्बित) कर के वापस पलटा लेना और यह ख़िदमत हज़रत अली (अ) के सिपुर्द करना, और यह फ़रमाना कि “ मुझे हुक्म दिया गया है कि इसे मैं ख़ुद पहुँचाऊ या वह शख़्स जो मेरे अहले बैत में से हो ”। इसी तरह मसजिदे नबवी में खुलने वाले तमाम दरवाज़े, कि जिन में हज़रत अबू बकर के घर का भी दरवाज़ा था, चुनवा दिये और सिर्फ़ अमीरुल मोमिनीन (अ) के घर का दरवाज़ा खुला रहने दिया।

हज़रत आइशा अपने बाप के मुक़ाबले में हज़रत (अ) का तफ़व्वुक़ (प्रभुता) गवारा न कर सकती थीं, और जब कोई इम्तेयाज़ी सूरत पैदा होती थी तो उसे मिटाने की कोई कोशिश उठा न रखती थीं चुनाँचे जब पैग़म्बर(स) ने आख़िरे वक़्त मे हज़रत उसामा के हमराह लश्कर रवाना किया और हज़रत अबू बकर व हज़रत उमर को भी उनकी ज़ेरे इमारत जाने का हुक्म दिया तो अज़वाजे पैग़म्बर (स) के ज़रिये उन्हे यह पैग़ाम मिला कि पैग़म्बर (स) की हालत नाज़ुक है। लश्कर को आगे जाने के बजाए पलट आना चाहिये।चूँकि उन दूर रस (दूरदर्शी) निगाहों ने यह भाँप लिया था कि मदीने को मुहाजिरीन व अंसार से खाली करने की मतलब यही हो सकता है कि रेहलते नबी (स) (पैग़म्बर के निधन) के बाद अमीरुल मोमिनीन (अ) से कोई मुज़ाहिम न हो (हस्तत्क्षेप न करे) और किसी शूरिश अंगेज़ी (विद्रोह) के बग़ैर आप मंसबे ख़िलाफ़त पर फ़ाइज़ हो जायें। चुनाँचे लश्कर ले जाने की ताकीद फ़रमाई और यह तक फ़रमाया “ जो शख़्स लश्करे उसामा से तख़ल्लुफ़ करे (विरोध प्रकट) उस पर ख़ुदा की लानत हो ”। जिस पर वह फिर रवाना हुए। मगर उन्हे फिर वापस बुलाया जाता है। यहाँ तक कि पैग़म्बर के मर्ज़ ने शिद्दत अख़्तियार कर ली और लश्कर को रवाना न होना था न हुआ। इस कारवाई के बाद बिलाल के ज़रिये हज़रत अबू बकर को कहलवाया जाता है कि वह इमामते नमाज़ के फ़राइज़ अंजाम दें ताकि ख़िलाफ़त के लिये रास्ता हमवार हो जाए। चुनाँचे इसी के पेशे नज़र उन्हे ख़लीफतो रसूललुल्लाह कह कर ख़लीफ़ ए अलल इतलाक़ मान लिया गया। और फिर ऐसा तरीक़ा इख़्तियार किया गया कि किसी तरह ख़िलाफ़त अमीरुल मोमिनीन (अ) तक न पहुँच सके। लेकिन दौरे सालिस के बाद हालात ने इस तरह करवट ली कि लोग आपके हाथ पर बैअत करने के लिये मजबूर हो गये।हज़रत आइशा इस मौक़े पर मक्के में तशरीफ़ फ़रमा थीं। उन्हे जब हज़रत की बैअत का इल्म हुआ तो उनकी आँखों से शरारे बरसने लगे, ग़ैज़ो ग़ज़ब ने मिज़ाज में बर्हमी पैदा कर दी और नफ़रत ने ऐसी शिद्दत इख़्तियार कर ली कि जिस ख़ून के बहाने का फ़तवा दे चुकीं थीं उसी के क़िसास (बदले) का सहारा ले कर उठ ख़ड़ी हुई और खुल्लम खुल्ला एलाने जंग कर दिया, जिस के नतीजे में ऐसा कुश्तो ख़ून हुआ कि बस्रा की सरज़मीन कुश्तों (आहतों) के ख़ून से रंगीन हो गयी और इफ़तिराक़ अंगेज़ी का दरवाज़ा हमेशा के लिये खुल गया।

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