google.com, pub-0489533441443871, DIRECT, f08c47fec0942fa0 नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा 140-144 | हक और बातिल

नहजुल बलाग़ा ख़ुत्बा 140-144

ख़ुत्बा-140 जो शख़्स ग़ैर मुस्तहक़ (कुपात्र) के साथ हुस्ने सुलूक (सद व्यवहार) बरतता है, और ना अहलों (अयोग्यों) के साथ एह्सान करता है, उस के ...

ख़ुत्बा-140

जो शख़्स ग़ैर मुस्तहक़ (कुपात्र) के साथ हुस्ने सुलूक (सद व्यवहार) बरतता है, और ना अहलों (अयोग्यों) के साथ एह्सान करता है, उस के पल्ले यही पड़ता है कि कमीने और शरीर (दुष्ट) उस की मद्हो सना (प्रशंसा) करने लगते हैं, और जब तक वह देता गिलाता रहे जाहिल कहते रहते हैं कि इस की हाथ कितना सख़ी (दानी) है। हालांकि अल्लाह के मुआमले में वह बुख़्ल (कंजूसी) करता है। चाहिये तो यह कि अल्लाह ने जिसे माल दिया है वह उस से अज़ीज़ो (सम्बंधियों) के साथ अच्छा सुलूक (व्यवहार) करे। खुश उसलूबी (अच्छे ढंग) से मेह्मान नवाज़ी (अतिथि सत्कार) करे। क़ैदियों (बन्दियों) और ख़स्ताहाल (बुरे हाल) असीरों (गिरफ्तारों) को आज़ाद (स्वतंन्न) कराए। मोहताजों और क़र्ज़दारों को दे और सवाब कि ख्वाहिश (पुण्य की इच्छा) में हुक़ूक़ का अदायगी और मुख़्तलिफ़ ज़हमतों (विभिन्न कष्टों) को अपने नफ्स (प्राण) पर बर्दाश्त (सहन) करे। इसलिये कि इन ख़सायल (गुणों) व आदात (स्वभावों) से आरास्ता (सुसज्जित) होना दुनिया की बुज़ुर्गियों (प्रतिष्ठाओं) से शरफ़याब (सम्मानित) होना और आख़िरत (परलोक) की फ़ज़ीलतों (प्रतिष्ठाओं) को पा लेना है। इंशाअल्लाह (खुदा ने चाहा तो)।

ख़ुत्बा-141

[तलबे बारां (वर्षा की मांग) के सिलसिले में]

देखो यह ज़मीन (पृथ्वी) जो तुम्हें उठाए हुए है, और यह आस्मान जो तुम पर साया गुस्तर (किये) है, दोनों तुम्हारे पर्वरदिगार के ज़ेरे फ़रमान (आज्ञा पालक) हैं। यह अपनी बर्कतों से इस लिये तुम्हें मालामाल नहीं करते कि इन का दिल तुम पर कुढ़ता है या तुम्हारा तक़र्रुब (निकटता) चाहते हैं, या किसी भलाई के तुम से उम्मीदवार हैं। बल्कि यह तो तुम्हारी मशक्कत रसानी पर मामूर (कष्ट देने पर नियुक्त) हैं। जिसे बजा लाते हैं और तुम्हारी मसलहतों (हितों) की हदों सीमाओं पर उन्हें ठहराया गया है। चुनांचे यह ठहरे हुए हैं।

(अलबत्ता) अल्लाह सुब्हानहू बन्दों को उन की बद अअमालियों (दुराचारों) के वक्त फलों के कम करने, बर्कतों के रोक लेने और इनआमात के ख़ज़ानों (पुरस्कारों के कोषागारों) के बन्द कर देने से आज़माता है। ताकि तौबा (प्रायश्चित) करने वाला तौबा करे, इन्कार व सरकशी (विद्रोह) से बाज़ आ जाए। नसीहत व इब्रत (उपदेश एवं शिक्षा)) हासिल करने वाला नसीहत व बसीरत हासिल करे, और गुनाहों (पापों) से रुकने वाला रुक जाए। अल्लाह व सुब्हानहू न तौबा न इसतिग़फ़ार को रोज़ी के उतरने का सबब और ख़ल्क़ (सृष्टि) पर रहम खाने का ज़रीआ (माध्यम) क़रार दिया है। चुनांचे उस का इर्शाद है कि अपने पर्वरदिगार से तौबा व इसतिग़फ़ार करो। बिला शुब्हा (निस्सन्देह) वह बहुत बख्शने (क्षमा करने वाला) वही तुम पर मुसलाधार मेंह बरसाता है और मालो औलाद से तुम्हें सहारा देता है। ख़ुदा उस शख्स पर रहम करे जो तौबा की तरफ़ मुतव्वजह हो और गुनाहों से हाथ उठाए और मौत से पहले नेक अअमाल (शुभ कार्य) करे।

बारे इलाहा ! तेरी रहमत की ख्वाहिश करते हुए और नेमतों की फ़रावानी चाहते हुए और तेरे अज़ाब व ग़ज़ब से डरते हुए हम पर्दो और घरों के गोशों से तेरी तरफ़ निकल ख़ड़े हुए हैं। इस वक्त जब कि चौपाए (पशु) चीख़ रहे हैं और बच्चे चिल्ला रहे हैं। ख़ुदाया हमे बारिश से सेराब कर दे और हमे मायूस न कर और खुश्क साली (अकाल) से हमे हलाक (आहत) न होने दे और हम में से कुछ बेवक़ूफ़ों (मूर्खों) के कर्तूत पर हमें गिरफ़्त में न ले, ऐ रहम करने वालों में बहुत रहम करने वाले ख़ुदाया ! जब हमें सख़्त तंगियों ने मुज़तरिब व बेचैन कर दिया और क़ह्त सालियों (अकालों) ने बे बस बना दिया और शायद हाजतमन्दियों ने लाचार बना डाला है, और मुंह ज़ोर फ़ित्नों का हम पर तांता बंध गया तो हम तेरी तरफ़ निकल पड़े हैं, गिला ले कर उस का जो तुझ से पोशीदा (छिपा) नहीं। ऐ अल्लाह ! हम तुझ से सवाल करते हैं कि तू हमें महरूम न पलटा, और न इस तरह कि हम अपने नफ़्सों पर पेचो ताब खा रहे हों और हमारे गुनाहों की बिना पर हमसे इताब आमेज़ ख़िताब (सम्बोधन) न कर और हमारे किये के मुताबिक़ हम से सुलूक न कर। ख़ुदा वन्दा ! तू हम पर बाराने बरकत और रिज़्क़ो रहमत का दामन फैला दे और ऐसी सेराबी से हमें निहाल कर दे जो फ़ायदा बख़्शने वाली हो कि जिस से तू गई गुज़री हुई (खेतियों में फिर से) रोईदगी ले आए और मुर्दा ज़मीनों में हयात की लहरें दौड़ा दे। वह ऐसी सेराबी हो कि जिस की तरो ताज़गी (सरतासर) फ़ायदामन्द और चुने हुए फ़लों के अंबार लिये हो जिस से तू हमवार ज़मीनों को जलथल बना दे और नद्दी नाले बहा दे और दरख्तों को बर्गो बार से सर सब्ज़ो शादाब कर दे और निख़ो को सस्ता कर दे। बिला शुब्हा तू जो चाहे उस पर क़ादिर है।

ख़ुत्बा-142

अल्लाह सुब्हानहू ने अपने रसूलों को वह्ई के इमतियाज़ात (अन्तरों) के साथ भेजा, और उन्हें मख्लूक़ पर अपनी हुज्जत ठहराया ताकि वह यह उज़्र न कर सकें कि उन पर हुज्जत तमाम नहीं हुई। चुनांचे अल्लाह ने उन्हें सच्ची ज़बानों से राहे हक़ की दअवत दी (यूं तो) अल्लाह मख्लूक़ात को अच्छी तरह जानता बूझता है और लोगों के उन राज़ों और भेदों से कि जिन्हें वह छिपा कर रखते हैं, बेख़बर नहीं। फिर यह हुक्म व अहकाम इस लिये दिये हैं कि वह उन लोगों को आज़माकर यह ज़ाहिर कर दे कि उन में अअमाल के एतिबार से कौन अच्छा है ताकि सवाब उन की जज़ा और इक़ाब उन का बद अअमालियों की बादाश हो। कहां हैं वह लोग कि जो झूट बोलते हुए और हम पर सितम रवां रखते हुए यह दुआ करते हैं कि वह रासिखूना फ़िल इल्म हैं न हम। चूंकि अल्लाह ने हमे बलन्द किया है और उन्हें गिराया है, और हमें मंसबे इमामत दिया है और उन्हें महरूम रखा है और हमें (मंज़िले इल्म में) दाखिल किया है, और उन्हें दूर कर दिया है। हम ही से हिदायत की तलब और गुमराही की तारीकियों को छांटने की ख्वाहिश की जा सकती है। बिला शुब्हा इमाम क़ुरैश में से होंगे जो इसी क़बीले की एक शाख़ बनी हाशिम की किश्तज़ार से उभरेंगे। न इमामत किसी और को ज़ेब देती है और न उन के अलावा कोई उस का अहल हो सकता है।

[इसी ख़ुत्बा का एक जुज़ (अंश) यह है ]

इन लोगों ने दुनिया को इख़तियार कर लिया है और उक़्बा (परलोक) को पीछे डाल दिया है। साफ़ पानी छोड़ दिया है, और गंदा पानी पीने लगे हैं। गोया मैं उन के फ़ासिक़ (व्यभिचारी) को देख रहा हूं कि वह बुराईयों में रहा, इतना कि उन्हीं बुराईंयो से उसे महब्बत हो गई, और उन से मानूस हुआ और उन से इत्ताफ़ाक़ करता रहा। यहां तक कि उन्हीं बुराईयों में उस से सर के बाल सफ़ेद हो गए, और उसी रंग में उस की तबीअत रंग गई। फिर यह कि वह मुंह से कफ़ देता हुआ मुतलातिम दरिया का तरह आगे बढ़ा बग़ैर इस का कुछ ख़याल किये कि किस को डुबो रहा है, और भूसे में लगी हुई आग कि तरह फ़ैला, बग़ैर इस की पर्वाह किये कि कौन सी चीज़ें जला रहा है। कहां हैं हिदायत के चिराग़ से रौशन होनी वाली अक़्लें और कहां हैं तक़्वा के रौशन मीनार की तरफ़ देखने वाली आंखें, और कहां हैं अल्लाह के हो जाने वाले क़ुबूल, और उस की इताअत पर जम जाने वाले दिल ? वह तो माले दुनिया पर टूट पड़े हैं और माले हराम पर झगड़ रहे हैं। उन के सामने जन्नत से मुंह मोड़ लिये हैं और अपने अअमाल की वजह से दोज़ख़ की तरफ़ बढ़ निकले हैं। अल्लाह ने उन लोगों को बुलाया तो वह भड़क उठे और पीठ फिरा कर चल दिये और शैतान ने उन को दअवत दी तो लब्बैक कहते हुए उस की तरफ़ लपक पड़े।

इस से अब्दुल मलिक इब्ने मर्वान मुराद हैं कि जिस ने अपने आमिल हज्जाज इब्ने युसुफ़ के ज़रीए ज़ुल्मों सफ्फाकी की इन्तिहा कर दी थी।

ख़ुत्बा-143

ऐ लोगों ! तुम इस दुनिया में मौत (मृत्यु) की तीर अन्दाज़ियों का हदफ़ (लक्ष्य) हो। जहां हर घूंट के साथ उच्छू है और हर लुक़में में गुलीगीर (गले में फंसने वाला) फंदा है। जहां तुम एक नेमत उस वक्त तक नहीं पाते जब तक दूसरी नेमत जुदा न हो जाए। और तुम में से कोई ज़िन्दगी पाने वाला एक दिन की ज़िन्दगी में क़दम नहीं रखता जब तक उस की मुद्दते हयात में से एक दिन कम नहीं हो जाता, और उस के ख़ाने में किसी और रिज़्क़ का इज़ाफ़ा नहीं होता जब तक पहला रिज़्क़ ख़त्म न हो जाए और जब तक कि नक्श मिट न जाए, दूसरा नक्श उभरता नहीं, और जब तक कोई नई चीज़ फ़र्सूदा व कोहना न हो जाए दूसरी नई चीज़ हासिल नहीं होती, और जब तक कटी हुई फ़स्ल गिर न जाए नई फ़स्ल ख़ड़ी नहीं होती। आबा व अज्दाद (पूर्वज) गुज़र गए और हम उन्हीं की शाख़ें हैं। जब जड़ ही नहीं रही तो शाख़ें कहां रह सकती हैं।

इसी ख़ुत्बे का एक जुज़ (अंश) यह है

कोई बिद्अत वुजूद (अस्तित्व) में नहीं आती, मगर यह कि उस की वजह से सुन्नत को छोड़ना पड़ता है। बिद्अती लोगों से बचो, रौशन तरीक़े पर जमे रहो, पुरानी बातें ही अच्छी हैं, और दीन में पैदा की हुई नई बातें बदतरीन हैं।

ख़ुत्बा-144

[जब हज़रत उमर इब्ने ख़त्ताब ने जंगे फ़ार्स में शरीक होने के लिये आप से मश्विरा (परामर्श) लिया तो आप ने फ़रमाया ]

इस अम्र (विषय) में कामयाबी व नाकामयाबी का दारो मदार फ़ौज की कमी बेशी पर नहीं रहा है। यह तो अल्लाह का दीन है जिसे उस ने सब दीनों पर ग़ालिब (विजयी) रखा है, और उसी का लश्कर है जिसे उसने तैयार किया है और उस की ऐसी नुस्रत (सहायता) की है कि वह बढ़ कर अपनी मौजूदा हद (वर्तमान सीमा) तक पहुंच गया है। और फ़ैल कर अपने मौजूदा फैलाव पर आ गया है। और हम से अल्लाह का एक वअदा है, और वह अपने वअदे को पूरा करेगा, और अपने लश्कर की ख़ुद ही मदद करेगा। उमूरे सल्तनत (राज्य के मुआमलात) में हाकिम (शासक) की वही हैसियत होती है जो मोह्रों में डोरे की जो उन्हें समेट कर रखता है। जब डोरा टूट जाए तो सब मोह्रे बिखर जायेंगे और फिर कभी सिमट न सकेंगे। आज अरब वाले अगरचे गिनती में कम हैं मगर इस्लाम की वजह से वह बहुत हैं, और इत्तिहादे बाहमी (परस्पर एकता) के सबब से फ़त्हो ग़लबा (विजय एवं बल) पाने वाले हैं। तुम अपने मक़ाम पर ख़ूटी की तरह जमे रहो और अरब का नज़्मो नसक़ (क़ानून एवं व्यवस्था) बर्क़रार रखो और उन्हीं को जंग की आग का मुक़ाबिला करने दो, इस लिये कि अगर तुम ने इस सर ज़मीन को छोड़ा तो अरब अत्राफ़ो जवानिब (चारों दिशाओं) से तुम पर टूट पड़ेगा। यहां तक कि तुम्हें अपने सामने के हालात से ज़ियादा उन मक़ामात की फिक्र हो जायेगी, जिन्हें तुम अपने पसे पुश्त (पीछे) ग़ैर महफ़ूज़ (असुरक्षित) छोड़ कर गए हो। कल अगर अज्म वाले तुम्हें देखेंगे तो आपस में यह कहेंगे कि यह है, सरदारे अरब। अगर तुम ने उस का क़ला क़मा कर दिया तो आसूदा हो जाओगे तो इस की वजह से उन की हिर्सो तअम (लालसा एवं लोलुप्ता) तुम पर ज़ियादा हो जायेगी। लेकिन यह तो तुम कहते हो कि वह लोग मुसलमानों से लड़ने झगड़ने के लिये चल खड़े हुए हैं, तो अल्लाह उन के बढ़ने को तुम से ज़ियादा बुरा समझता है। और वह जिसे बुरा समझे उस के बदलने और रोकने पर बहुत क़ुदरत रखता है, और उन की तअदाद (संख्या) के मुतअल्लिक़ जो कहते हो, कि वह बहुत हैं, तो हम साबिक़ (अतीत) में कसर (बहुसंख्या) के बल बूते पर नहीं लड़ा करते थे। बल्कि अल्लाह की ताईद (समर्थन) व नुस्रत (सहायता) के सहारे पर।

जब हज़रत उमर को कुछ लोगों ने जंगे क़ादिसीया या जंगे नहावन्द के मौक़े पर शरीके कारज़ार (युद्घ में सम्मिलित) होने का मश्विरा (परामर्श) दिया तो आप ने लोगों के मशविरे को अपने जज़्बात के ख़िलाफ़ समझते हुए अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) से मशविरा लेना भी ज़रूरी समझा कि अगर उन्हों ने ठहरने का मशविरा दिया तो दूसरों के सामने यह उज़्र कर दिया जायेगा कि अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) के मशविरे के वजह से रुक गया हूं, और उन्हों ने भी शरीके जंग होना का मशविरा दिया को फिर कोई और तदबीर (उपाय) सोच ली जायेगी। चुनांचे हज़रत ने दूसरों के खिलाफ़ उन्हें ठहरे रहने का ही मशविरा दिया। दूसरे लोगों ने तो इस बिना पर उन्हें शिर्कत का मशविरा दिया था कि वह देख चुके थे कि रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम सिर्फ़ लशकर वालों ही को जंग में न झोंकते थे बल्कि खुद भी शिर्कत फ़रमाते थे, और अपने ख़ानदान के अज़ीज़ तरीन फ़र्दों को भी अपने साथ रखते थे। और अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) के पेशे नज़र यह चीज़ थी कि इन की शिर्कत इस्लाम के लिये मुफ़ीद (लाभप्रद) नहीं हो सकती, बल्कि इन का अपने मक़ाम पर ठहरे रहना ही मुसलमानों को परांगदगी (बिखराव) से महफ़ूज रख सकता है।

हज़रत का इर्शद है कि हाकिम की हैसीयत एक मेहवर (चक्की की कीली) की होती है जिस के गिर्द निज़ामें हुकूमत घूमता है, एक बुनियादी उसूल की हैसीयत रखता है और किसी ख़ास शख्सीयत के मुतअल्लिक नहीं है। चुनांचे हुक्मरान मुसलमान हो या काफ़िर, आदिल हो या ज़ालिम, नेक अमल हो या बद किर्दार, ममलिकत के नज़्मो नसक़ के लिये उस का वुजूद नागुज़ीर (अनिवार्य) जैस है। जैसा कि हज़रत ने इस मतलब को दूसरे मक़ाम पर वज़ाहत से बयान फ़रमाया है :--

“लोगों के लिये एक हाकिम का होना ज़रूरी है, वह नेक हो या बद किर्दार। अगर अमल कर सकेगा, और अगर फ़ासिक़ होगा तो काफ़िर उस के अह्द में बहरा अन्दोज़ होने और अल्लाह उस निज़ामे हुकूमत की हर चीज़ को उस की आख़िरी हदों (अन्तिम सीमाओं) तक पहुंचा देगा। उस हाकिम की वजह से चाहे वह अच्छा हो या बुरा मालयात फ़राहम होते हैं, दुशमन से लड़ा जाता है, रास्ते पुरअम्न रहते हैं। यहां तक कि नेक हाकिम मर कर या मअज़ूल हो कर राहत पाए और बुरे हाकिम के मरने या मअज़ूल होने से दूसरों को राहत पहुंचे। ”

हज़रत ने मशविरे के मौक़े पर जो अलफ़ाज़ कहे हैं उन से हज़रत उमर के हाकिम व साहबे इक़तिदार होने के अलावा और किसी खुसूसीयत का इज़हार नहीं होता, और इस में कोई शुब्हा नहीं कि उन्हें दुनियावी इक़तिदार हासिल था चाहे व सहीह तरीक़े से हासिल हुआ हो या ग़लत तरीक़े से। और जहां इक़तिदार हो वहां रईयत की मर्कज़ीयत भी हासिल होती है। इसी लिये हज़रत ने फ़रमाया कि अगर वह निकल खड़े होंगे तो फिर अगर भी जूक़ दर जूक़ मैदाने जंग का रुख़ करेंगे। क्योंकि जब हुक्मरान बी निकल खड़ा हो तो रईयत पीछे रहना गवारा न करेगी और उन के निकले का नतीजा यह होगा कि शहरों के शहर खाली हो जायेंगे, और दुशमन भी उन के मैदाने दंग में पहुंच जाने से यह अन्दाज़ा करेगा कि इस्लामी शहर खाली पड़े हैं अगर उन्हें पस्पा कर दिया गया तो फिर मुसलमानों को मर्कज़ से कुमक हेसिल नहीं हो सकती। और अगर हुक्मरान ही को खत्म कर दिया गया तो फ़ौज खुद मुन्तशिर हो जायेगी क्यों कि हुक्मरान बमंज़िलए असासो बुनियाद के होते हैं। जब बुनियाद ही हिल जाए तो दीवारें कहां खड़ी रह सकती हैं। यह असलुल अरब (अरब की जड़) की लफ़्ज़ हज़रत ने अपनी तरफ़ से नहीं फ़रमाई बल्कि अजमों की ज़बान से नक़्ल की है। और ज़ाहिर है कि बादशाह होने की वजह से वह उन की नज़रों में बुनियाद अरब ही समझे जा रहे थे और फिर यह इज़ाफ़त मुल्क की तरफ़ है इसलाम या मुसलिमीन की तरफ़ नहीं है कि इस्लामी एतिबार से उन की किसी अहम्मीयत का इज़्हार हो।

जब हज़रत ने उन्हें बताया कि उन के पहुंच जाने से अजम उन्हीं की ताक में रहेंगे और हत्थे चढ़ जाने पर वह क़त्ल किये बग़ैर न रहेंगे तो ऐसी बातें अगरचे शुजाओं के लिये समन्दे हिम्मत पर ताज़याना का काम देती हैं और उन का जोश व वल्वला उभर आता है। मगर आप ने ठहरे रहने का मशविरा उन के तबई मैलान के मुवाफ़िक़ न होता तो वह इस तरह खन्दा पेशानी से उस का खैर मक़दम न करते बल्कि कुछ कहते सुनते और यह समझाने की कोशिश करते कि मुल्क में किसी को नायब बना कर मुल्की नज़्मो नसक़ को बर्करार रखा जा सकता है और फिर जब और लोगों ने जाने का मशविरा दिया तो अमीरुल मोमिनीन (अ.स.) से मशविरा लेने का दाई इस के अलावा हो ही क्या सकता था कि रुक जाने का कोई सहारा मिल जाए।

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