रसूल ऐ इस्लाम स.अ. के देहांत के बाद शिया एक इस्लामी समुदाय के रूप में उभरा- इतिहास के पन्नो से |

शिया समुदाय के राजनीतिक और समाजिक इतिहास का पहला चरण रसूले इस्लाम स.अ. के देहांत से शुरू होकर अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) की शहा...



शिया समुदाय के राजनीतिक और समाजिक इतिहास का पहला चरण रसूले इस्लाम स.अ. के देहांत से शुरू होकर अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) की शहादत तक जारी रहा। इस चरण के शुरू से ही इमामत व ख़िलाफ़त का मुद्दा इस्लामी दुनिया के महत्वपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक मुद्दों के रूप में उभर कर सामने आया और इस बारे में जो मतभेद सामने आये उनके आधार पर शिया एक ऐसे इस्लामी समुदाय के रूप में उभर कर सामने आया जो इमामत के लिए पैग़म्बरे इस्लाम की नस (हदीस) और आपकी ओर से नियुक्त किए जाने को मानते थे। जब कि दूसरी ओर जो मुहाजेरीन व अंसार रसूले इस्लाम स.अ के उत्तराधिकारी के चयन के लिए सक़ीफ़ा बनी साएदा में जमा हुए थे उन लोगों ने आपसी मतभेद और विचार विमर्श के बाद अबू बक्र को रसूले इस्लाम का ख़लीफ़ा स्वीकार कर लिया और इस्लामी शासन के शासक की हैसियत से उनकी बैअत कर ली, इस तरह अबू बक्र ने मुसलमानों के मामलों की बागडोर अपने हाथों में ले ली यह सिलसिला दो साल सात महीने तक जारी रहा।
इस चरण के आरम्भ में हज़रत अली और आपकी इमामत स्वीकार करने वालों ने अबू बक्र की बैअत से इंकार कर दिया और विभिन्न अवसरों पर अपने अक़ीदे को ज़ाहिर भी करते रहे। इब्ने क़तीबा के अनुसार अबू बक्र के आदेश से हज़रत अली (अ.ह) को बुलाया गया और आपसे अबू बक्र की बैअत करने की मांग की गई तो आपने अ. उनसे फ़रमायाः

)“انا احقّ بهذا الامر منكم، لا ابايعكم و انتم اولى بالبيعة لي”(

मैं इस ख़िलाफ़त के लिए तुमसे कहीं अधिक हक़दार हूं, मैं तुम्हारी बैअत नहीं कर सकता बल्कि तुम लोगों को मेरी बैअत करनी चाहिए।
 (अल-इमामः वस्सियासः 1/18)
इस अवसर पर उमर और अबू उबैदा जर्राह ने हज़रत अली (अ.ह) से कुछ बातें कहीं और अबू बक्र की बैअत करने के लिए दबाव डाला लेकिन इमाम (अ.ह) ने दोबारा उनके सामने यही फ़रमाया कि वह और पैग़म्बरे इस्लाम स. के अहलेबैत अ. ही ख़िलाफ़त व इमामत के सबसे ज़्यादा हक़दार हैं, इसलिए आपने फ़रमायाः
(فو اللّه يا معشر المهاجرين، لنحن احقّ الناس به، لأنّا اهل البيت و نحن أحقّ بهذا الأمر منكم ما كان فينا القارى ء لكتاب اللّه ، الفقيه في دين اللّه ، العالم بسنن رسول اللّه ، المضطلع بامر الرعية، المدافع عنهم الامور السيّئة، القاسم بينهم بالسويّة، و اللّه ، انه لفينا، فلا تتبعوا الهوى فتضلّوا عن سبيل اللّه ، فتزدا دوا من الحق بعدا)
”अल्लाह की क़सम ऐ मुहाजेरीन! हम ख़िलाफ़त व इमामत के सबसे ज़्यादा हक़दार हैं, क्यूँकि हम रसूले इस्लाम स. के अहलेबैत हैं और हम इस चीज़ के लिए तुमसे ज़्यादा हक़दार हैं जब तक हमारे बीच अल्लाह की किताब का क़ारी, अल्लाह की दीन का फ़क़ीह (शास्त्रवेत्ता) रसूले इस्लाम स. की सुन्नतों का जानने वाला, लोगों के पथप्रदर्शन व नेतृत्व पर सक्षम और अनुचित हालात में उनका प्रतिरक्षक, उनके बीच बैतुलमाल को बराबर से बाटने वाला मौजूद हो। अल्लाह की क़सम हम अहलेबैत (अ.ह) के बीच ही ऐसा इंसान मौजूद है, इसलिए अपनी इच्छाओं का अनुसरण न करना वरना अल्लाह के रास्ता से भटक जाओगे तो हक़ से दूर हो जाओगे।“
(अल-इमामः वस्सियासः 1/19)
हज़रत अली (अ.ह) के मानने वालों ने भी विभिन्न अवसरो पर अबू बक्र से बातचीत के बीच साफ़ शब्दों में हज़रत अली (अ.ह) की बिला फ़स्ल इमामत व ख़िलाफ़त के बारे में अपने विचारों को स्पष्ट किया है। शेख़ सदूक़ (र.ह) ने ऐसे बारह लोगों के नाम बयान किए हैं जिन लोगों ने अबू बक्र के सामने हज़रत अली (अ.ह) की इमामत के बारे में सबूत पेश किए।
(उनके नाम यह हैं :ख़ालिद बिन सईद बिन आस, मिक़दाद बिन असवद, अम्मार यासिर, अबूज़र ग़फ़्फ़ारी, सलमान फ़ारसी, अब्दुल्लाह  बिन  मसऊद, बुरैदा बिन अस्लमी (मुहाजेरीन) ख़ुज़ैमा बिन साबित, सह्ल बिन हुनैफ़, अबू अय्यूब  अन्सारी, अबुल हैसम बिन तैहान और ज़ैद बिन वहब (अंसार))
शेख़ सदूक़ ने बारह लोगों के बाद ग़ैरुहुम (و غيرهم) अर्थात बारह के अतिरिक्त की कैद लगाई है जिससे यह अनुमान भी होता है कि प्रमाण व सबूत प्रस्तुत करने वालों की संख्या केवल बारह नहीं थी। अंत में ज़ैद बिन वहब के भाषण की ओर इशारा करने के बाद फ़रमाते हैं
(فقام جماعة بعده فتكلّموا بنحو هذا)
उसके बाद एक जमाअत खड़ी हुई और उन लोगों ने भी इसी शैली में बात की। उन लोगों ने पहले आपस में सलाह, मशविरा किया, कुछ का ख़्याल यह था कि जब अबू बक्र मिम्बर पर जाएं तो उन्हें मिम्बर से नीचे उतार लिया जाए, लेकिन कुछ लोगों को यह राय पसंद नहीं आई और अनंततः उन्होंने यह तय किया कि इस सिलसिले में अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) से सलाह ली जाए, आपने उन लोगों को ख़लीफ़ा के साथ किसी सख़्त कार्यवाही से मना किया कि इस समय ऐसा काम इस्लाम के हित में नहीं है। जैसा कि स्वंय आप से भी ज़बरदस्ती बैअत लेने की कोशिश की गई थी। इसलिए आपने उन लोगों से यही फ़रमाया कि सब्र व सहनशीलता से काम लें लेकिन इस बारे में जो कुछ पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. से सुना है मस्जिद में जाकर उससे लोगों को अवगत कराते रहें ताकि उनकी ज़िम्मेदारी पूरी हो जाए।
उन लोगों ने इमाम (अ.ह) की सलाह पर अमल किया और मस्जिद में गए और एक के बाद दूसरे ने अबू बक्र से वाद-विवाद किया, चूँकि यहां उनकी विस्तार पूर्वक वार्ता को बयान करना सम्भव नहीं है इसलिए केवल महत्वपूर्ण तथ्यों को प्रस्तुत किया जा रहा है:

1.    ख़ालिद बिन सईद: पैग़म्बरे इस्लाम स.अ ने फ़रमाया हैः
(انّ عليّا اميركم من بعدي و خليفتي فيكم. انّ اهل بيتي هم الوارثون امري و القائمون بأمر امتي.)
बेशक अली (अ.) मेरे बाद तुम्हारे अमीर और तुम्हारे बीच मेरे ख़लीफ़ा हैं केवल मेरे अहलेबैत (अ.ह) ही मेरे उत्तराधिकारी हैं और यही लोग उम्मत के मामलात को लागू करने वाले हैं।
2.    अबूज़र  ग़फ़्फ़ारी: पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया है
(الامر لعلي بعدي ثم الحسن و الحسين ثم فى اهل بيتي من ولد الحسين.)
यह इमामत मेरे बाद अली (अ.ह) के लिए है फिर हसन (अ.) और फिर हुसैन (अ.) के लिए और फिर हुसैन (अ.) की संतान से मेरे अहलेबैत (अ.ह) में बाक़ी रहेगी।“
3.    सलमान फ़ारसीः
(تركتم امر النبي صلى الله عليه و آله و تناسيتم وصيّته، فعمّا قليل يصفوا اليكم الامر حين تزوروا القبور...)
तुम लोगों ने रसूलुल्लाह स. के आदेश को छोड़ दिया और उनकी वसीयत को भुला बैठे बहुत जल्द ही तुम्हारे  सामने  यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी जब तुम क़ब्रों का दर्शन करोगे।
4.    मिक़दाद बिन असवद:
(قد علمت ان هذا الامر لعلي عليه السلام و هو صاحبه بعد رسول اللّه صلى الله عليه و آله .)
तुम्हें अच्छी तरह से मालूम है कि यह ख़िलाफ़त व इमामत अली (अ.) का हक़ है और रसूले इस्लाम स.अ के बाद वही उसके योग्य हैं।
5.    बुरैदा बिन अस्लमीः
(يا ابابكر! اما تذكر اذا امرنا رسول اللّه صلى الله عليه و آله و سلّمنا على علي عليه السلام بإمرة المؤمنين.)
ऐ अबू बक्र क्या तुम्हें वह अवसर याद नहीं कि रसूल ने हमें आदेश दिया था और हम ने अली (अ.) को अमीरुल मोमिनीन कह कर सलाम किया था।“
6.    अब्दुल्लाह  बन  मसऊदः
(علي بن ابيطالب عليه السلام صاحب هذا الامر بعد نبيّكم فاعطوه ما جعله اللّه له و لا ترتدوا على اعقابكم فتنقلبوا خاسرين.)
”नबी के बाद इस ख़िलाफ़त के योग्य अली इब्ने अबी तालिब अ. हैं इसलिए अली (अ.) को वह हक़ दे दो जिसे अल्लाह ने अली (अ.) के लिए निर्धारित किया है और पलट कर मुरतद न हो जाओ कि इस तरह तुम नुक़सान उठाने वालों में से हो जाओगे।
7.    अम्मार यासिरः
(يا ابابكر لاتجعل لنفسك حقا، جعل اللّه عزّوجلّ لغيرك.)
”ऐ अबू बक्र ख़िलाफ़त को अपना हक़ न समझो यह हक़ अल्लाह ने तुम्हारे अतिरिक्त किसी और को दिया है।“
8.    ख़ुज़ैमा बिन साबितः
(انّي سمعت رسول اللّه يقول اهل بيتي يفرّقون بين الحق و الباطل و هم الأئمة الذين يقتدى بهم.)
मेंने पैग़म्बर को कहते सुना है कि मेरे अहलेबैत (अ.ह) सत्य व असत्य (हक़ व बातिल) का आधार हैं अहलेबैत अ. ही वह इमाम हैं जिनका अनुसरण किया जाना चाहिए।
9.    अबुल हैसम बिन तीहानः
(قال النبي صلى الله عليه و آله : اعلموا انّ اهل بيتي نجوم اهل الأرض فقدّموهم و لا تقدّموهم.)
नबी ने फ़रमाया मेरे अहलेबैत ज़मीन वालों के लिए तारे हैं इसलिये उन्हें प्राथमिकता दो और स्वंय को उन पर वरीयता न दो।“
10.    सह्ल बिन हुनैफ़ः
(اني سمعت رسول اللّه صلى الله عليه و آله قال: امامكم من بعدي على بن ابيطالب و هو انصح الناس لأمّتي.)
मैंने रसूले ख़ुदा स.अ. से सुना है कि आपने फ़रमायाः मेरे बाद तुम्हारे इमाम, अली इब्ने अबी तालिब हैं और वह मेरी उम्मत के सबसे अच्छे नसीहत करने वाले इंसान हैं।
11.    अबू अय्यूब अंसारीः
(قد سمعتم كما سمعنا في مقام بعد مقام من نبياللّه صلى الله عليه و آله انه (على) عليه السلام اولى به منكم)
विभिन्न अवसरों पर तुमने भी नबी से वही सुना है जो हम ने सुना कि वह (अली अ.) इस अम्र (ख़िलाफ़त) के लिए तुम से बेहतर हैं।
12.    ज़ैद बिन वहब और दूसरे लोगों ने भी इसी तरह की बातें कहीं।

(शेख़ सदूक़ की किताब अल-ख़ेसाल अबवाब इसना अशर हदीस 4)

हजरत उमर व उस्मान की ख़िलाफ़त के दौर में शियों के हालात।


दुनिया से जाने से पहले अबू बक्र ने उमर को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित कर दिया। इब्ने क़तीबा के कथानुसार अबू बक्र ने अपना वसीयतनामा (उत्तरपत्र) तय्यार कराया जिसमें उमर को अपना उत्तराधिकारी निर्धारित किया, अबू बक्र बोलते जाते और उस्मान बिन अफ़्फ़ान वसीयतनामा लिखते जाते। वसीयतनामा पूरा हुआ तो पहले ख़लीफ़ा ने लोगों को जमा होने का आदेश दिया। लोग जमा हो गए तो ख़लीफ़ा ने लोगों को सम्बोधित करते हुए कहाः
ऐ लोगों, जैसा कि तुम देख रहे हो मैं बहुत जल्दी दुनिया से विदा होने वाला हूं और तुम्हें ऐसे लीडर व पथप्रदर्शक की ज़रूरत है जो तुम्हारे मामलों को संभाल सके, नमाज़े जमाअत पढ़ा सके, तुम्हारे दुश्मनों से जंग करे (मानों जनाब अबू बक्र को पैग़म्बर से ज़्यादा उम्मत की चिंता थी कि उन्होंने अपने बाद किसी को नहीं चुना लेकिन जनाब अबू बक्र को डर था कि कहीं उम्मत बहक न जाए!!!!!!) अगर तुम लोग कहो तो में स्वंय फ़ैसला करके किसी इंसान को निर्वाचित कर दूँ, लोगों ने ख़लीफ़ा के दष्टिकोण से सहमति जताई। जब लोग दूर हो गए तो ख़लीफ़ा ने उमर को तलब किया और मांग की कि मेरा उत्तरपत्र लोगों को पढ़ कर सुना दो। एक इंसान ने उमर से पूछा कि वसीयतनामे में किया लिखा है? उमर ने उत्तर दिया कि मुझे नहीं मालूम किया लिखा है। उसने उत्तर दिया लेकिन मुझे पता है पहले दिन तुमने अबू बक्र को ख़लीफ़ा बनवाया था अब उन्होंने तुम्हें नामित कर दिया है।
(अल-इमामः वस्सियासः भाग 1 पेज 24-25)
यह भी पढ़ेंः जनाब अबू बक्र की ख़िलाफ़त के दौर में शियों के हालात।
उमर की ख़िलाफ़त का सिलसिला दस साल तक जारी रहा इस बीच शियों के हालात में कोई ऐसा परिवर्तन नहीं आया जिसे बयान किया जाए। अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) की सहनशीलता और ख़ामोशी के कारण आपके चाहने वाले शियों ने भी ख़लीफ़ा के साथ किसी भी तरह के टकराव से अपने को दूर रखा। सत्ताधारियों की ओर से भी अपने हितों की खातिर अमीरुल मोमिनीन या आपके शियों के साथ सख़्त व हिंसात्मक कार्रवाइयों की रिपोर्ट नहीं मिलती है बल्कि इसके विपरीत ज्ञानात्मक व राजनीतिक संकटों में अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) से राये ली गई और आपके सुझावों और नसीहतों का सम्मान किया गया। यहां तक कि उमर ने सत्तर बार (لو لا علي، لهلك عمر) लौला अलीयुन ल हलका उमर जैसी इतिहासिक बात कही है अर्थात अगर अली अ. न होते तो उमर हलाक हो जाते। इसी तरह यह भी मिलता है कि उमर ने कहाः (اللهم لا تبقنى لمعظلة ليس لها ابن ابيطالب) ऐ मेरे अल्लाह मुझे किसी ऐसे संकट के लिये ज़िंदा न रखना जिसके हल करने के लिये अली मौजूद न हों।
(अल-ग़दीर भाग 3 पेज 79, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 170-171, शरहे नह्जुल बलाग़ा इब्ने अबिल हदीद भाग 1 पेज 16 ख़ुत्बा न. 2)
नह्जुल बलाग़ा में भी यह इतिहासिक वास्तविकता मौजूद है कि ईरानियों के साथ जंग के अवसर पर उमर ने जंगी मामलों से सम्बंधित एक कमेटी का गठन किया था और अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) को भी इस का मिम्बर बनाया था। इस कमेटी के मिम्बरों ने अपने अपने विचार बयान किये और उमर ने हज़रत अली (अ.ह) के दृष्टिकोण को ही स्वीकार किया।
(नह्जुल बलाग़ा، ख़ुत्बा 146)
उमर के बाद ख़लीफ़ा द्वारा निर्वाचित छः सदस्यों पर आधारित परिषद ने उस्मान को ख़लीफ़ा बना दिया। और उस्मान बारह साल तक  ख़िलाफ़त की बागडोर अपने हाथों में लिए रहे। उनकी ख़िलाफ़त के बीच कुछ ऐसे काम अंजाम पाये जो न केवल पैग़म्बर की सुन्नत बल्कि पिछले दोनों खुलफ़ा की कार्यशैली के भी विरूद्ध थे इसलिए उनके विरूद्ध मुसलमानों में क्रोध बढ़ता गया। उन्होंने अपने   सम्बंधियों को सरकारी पद दिये और बैतुलमाल अर्थात राजकोष से दान देकर ख़ूब परिवारवाद किया। महान सहाबी जनाब अबूज़र को मदीने से शाम और फिर रबज़ह निर्वासित कर दिया। अम्र बिन आस को जिसे स्वंय पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. ने मदीने से बाहर किया था सम्मानपूर्वक वापस मदीने बुला कर उससे सम्बंध बनाए। वलीद बिन उक़्बा को कूफ़ा का गवर्नर बना दिया और जब उसने नशे की हालत में सुबह की नमाज़ दो के बजाए चार रकअत पढ़ा दी तब भी उसे नहीं हटाया। अब्दुल्लाह बिन मसऊद के साथ अनुचित और हिंसात्मक व्यवहार अपनाया, और इसी तरह की बहुत सी घटनाएं जो इतिहास में मौजूद हैं।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 70, अल-इमामः वस् सियासः भाग 1 पेज 35, तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 157)
ऐसी घटनाओं से मुसलमानों में बेचैनी और ग़ुस्सा बढ़ता गया। ऐसे ख़राब माहौल में अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) के साथी जो अपनी आँखों से ख़िलाफ़त व नेतृत्व में गड़बड़ी के नतीजे में घटित होने वाले कड़वी घटनाओं को देख रहे थे, ख़ामोश रह कर इस्लाम की बरबादी के तमाशाई नहीं बन सकते थे इसलिए उन्होंने मुस्लिम वर्ग के नेतृत्व के लिये पैग़म्बर के वास्तविक उत्तराधिकारी हज़रत अली अ.ह की लीडरशिप व ख़िलाफ़त के प्रति लोगों जागरूक करने का बेड़ा उठाया, इसी संदर्भ में एक दिन जनाब अबूज़र ने मस्जिदुन नबी में भाषण दिया जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम स. के अहलेबैत अ. की श्रेष्ठता और महत्व को बयान किया और उसके बाद कहा ”अली इब्ने अबी तालिब मुहम्मद स.अ. के उत्तराधिकारी और नबी के इल्म के वारिस हैं।
ऐ वह लोगों !जो अपने पैग़म्बर के बाद ग़लत रास्ते पर चल पड़े, जिसे अल्लाह ने प्राथमिकता दी थी अगर तुम लोग भी उसी को दूसरों पर प्राथमिकता देते और अपने नबी के अहलेबैत (अ.ह) की विलायत और लीडरशिप को मान लेते तो बेहतरीन भौतिक व आध्यात्मिक ज़िंदगी बिता रहे होते लेकिन चूँकि तुम लोगों ने अल्लाह के आदेश के विरूद्ध रूख अपनाया है इसलिए अपने किये का नतीजा भुगतो।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 12 पेज 67-68)“
अमीरुल मोमिनीन (अ.ह) के साथियों व सहाबियों को उस्मान की ख़िलाफ़त के आरम्भिक दिनों में ही इन गड़बड़ियों का आभास हो गया था। इसलिए याक़ूबी लिखते हैं कि” उस्मान की ख़िलाफ़त के आरम्भिक दिनों में लोगों ने मस्जिदुन्नबी में मिक़दाद बिन  असवद को देखा जो बहुत ज़्यादा अफ़सोस और शोक में कह रहे थे। ”मुझे क़ुरैश पर आश्चर्य है कि उन्होंने अपने नबी के अहलेबैत से लीडरशिप को अलग कर दिया हालांकि सबसे पहला मोमिन, अल्लाह के दीन की सबसे ज़्यादा जानकारी रखने वाला और लोगों में सीधे और सही रास्ते का सबसे बड़ा जानकार अर्थात पैग़म्बर के चचा का बेटा उनके बीच मौजूद है। यह लोग इस मुद्दे में उम्मत की अच्छाई व भलाई के इच्छुक नहीं थे बल्कि  उन्होंने दुनिया को आख़ेरत पर वरीयता दी।
(तारीख़े याक़ूबी भाग 12 पेज 57)
उस्मान के बाद मुसलमानों ने अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.ह) के हाथों पर पैग़म्बर के ख़लीफ़ा और लीडर के रूप में बैअत की इस तरह पच्चीस साल के बाद आपको ख़िलाफ़त व इमामत मिली हालांकि अल्लाह व रसूल की ओर से आप ही को इमामत व ख़िलाफ़त के लिए नियुक्त किया गया था लेकिन इस पच्चीस साल में कुछ लोगों की अचेतना और कुछ लोग के षड़यंत्रों के नतीजे में आप अपने अधिकार अर्थात मुस्लिम वर्ग के नेतृत्व से वंचित रहे, ख़ुद आप भी इस्लाम व मुसलमानों के हितों की खातिर ख़ामोश रहे और ताकत का सहारा लेने से परहेज़ किया और केवल उचित अवसरों पर अपने अधिकार के छिन जाने को बयान करते रहे, पच्चीस साल के बाद आपको आपका हक़ मिला।
मगर अफ़सोस अब बहुत देर हो चुकी थी और उस ज़माने में हुकूमत व लीडरशिप के बारे में बहुत से शंकाऐं और गड़बड़ियां अपनी जड़ें मज़बूत कर चुकी थीं, बहुत सी सम्भावनाऐं और अवसर हाथ से निकल चुके थे।
ऐसे हालात में सही नेतृत्व अर्थात केवल और केवल किताब व सुन्नत के आधार पर हुकूमत करना बहुत मुश्किल मालूम होता था लेकिन चूँकि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ.ह. का उद्देश्य अल्लाह की इच्छा और इस्लाम व मुसलमानों के हितों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था इसलिए आपने बैअत स्वीकार करना और इमामत व ख़िलाफ़त की ज़िम्मेदारी संभालना अपने लिए ज़रूरी समझा। इसलिए आपने फ़रमायाः
«لولا حضور الحاضر و قيام الحجّة بوجود الناصر و ما اخذاللّه على العلماء الاّ يقارّوا على كظّة ظالم و لا سغب مظلوم لألقيت حبلها على غاربها و آخرها بكأس أوّلها و لألفيتم دنياكم هذه أزهد عندي من عفطة عنز».
अगर हाज़िर लोगों की मौजूदगी और अंसार के वुजूद से हुज्जत तमाम न हो गई होती और अल्लाह का उल्मा व विद्धानों से यह वादा न होता कि ख़बरदार अत्याचारियों के पेट भरने और मज़लूमों की भूक पर ख़ामोश न बैठना तो मैं आज भी इस ख़िलाफ़त की रस्सी को उसी की गर्दन पर डाल कर हंका देता और उसके आख़िर को उसके पहले ही के बर्तन से सैराब करता और तुम देख लेते कि तुम्हारी दुनिया मेरी निगाह में बकरी की छींक से भी ज़्यादा बेक़ीमत व मूल्यहीन है।
(नह्जुल बलाग़ा  ख़ुत्बए शक़शक़िया)
लेकिन इस चरण में भी एक ओर अचेतना व जेहालत और दूसरी ओर मक्कारी व शैतानों ने इस्मत, निर्दोषिता व कूटनीति के मज़बूत पेड़ को नेतृत्व व लीडरशिप के मैदान में मुस्लिम वर्ग पर भरपूर तरीक़े से छायादार नहीं होने दिया। शुरूआत से ही मुसलमानों को गृहयुद्धों में उलझाये रखा गया और अंत में आपको शहीद करके मुसलमानों को आपकी लीडरशिप से वंचित कर दिया गया। इस बारे में ख़ुद अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. कहते हैः
«فلمّا نهضت بالامر نكثت طائفة و مرقت اخرى و قسط آخرون»
जब मैंने ख़िलाफ़त की बागडोर संभाली तो एक गुट ने बैअत तोड़ दी (नाकेसीन) और दूसरे ने विद्रोह किया (मारेक़ीन) और तीसरे नें अत्याचार (क़ासेतीन) किया। नाकेसीन से मुराद जमल की जंग वाले व मारेक़ीन नहरवान के ख़ारजी और क़ासेतीन से मुराद मुआविया और उसके साथी हैं।
नि:संदेह दुनियादारी ही इन फ़ितनों का मौलिक कारण था इस बात की ओर इशारा करते हुए आप फ़रमाते हैः जैसे कि उन लोगों ने अल्लाह का यह कलाम सुना ही नहीं
«تلك الدار الآخرة نجعلها للذين لايريدون علوّا فى الارض ولا فسادا و العاقبة للمتقين»
फिर आप फ़रमाते हैः क्यों नहीं। उन्होंने इस कलाम को सुना है लेकिन उनकी आँखों में तो दुनिया रची बसी है और दुनिया ने उनके दिलों पर क़ब्ज़ा कर रखा है।“
(नह्जुल बलाग़ा , ख़ुत्बए शक़शक़िया )

आपकी ख़िलाफ़त व हुकूमत के बीच हालांकि शियों को अपने अक़ीदों को ख़ुल्लम ख़ुल्ला बयान करने की आज़ादी थी और उन्हें सरकारी लोग या दूसरों से तक़य्या की कोई ज़रूरत नहीं थी और न ही वह तक़य्या करते थे लेकिन इस युग की अराजकताओं,  दुर्घटनाओं और हालात ने इतना अवसर ही नहीं दिया कि शिया अपने अक़ीदों व दृष्टिकोणों का प्रचार कर पाते। अगरचे अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ.ह ने न केवल यह कि अपने निर्दोष चरित्र द्वारा इस्लाम का वास्तविक चेहरा इंसानों के सामने पेश किया बल्कि महत्पूर्ण मालूमात से भी इंसानियत को परिचित कराया, आज आपके यही ख़ुतबे न केवल विद्धानों या इस्लामी दुनिया की मूल्यवान धार्मिक व ज्ञानात्मक पैत्रिक संपत्ति हैं बल्कि इंसानी सभ्यता व संस्क्रति की मूल्यवान पूँजी भी हैं।

बनी उमय्या के ज़माने में शियों पर किया गुज़री।


मुआविया इब्ने अबी सुफ़यान के हाथों सन 41 हिजरी में अमवी शासन की शुरूआत हुई और सन 132 हिजरी में मरवाने हेमार के शासन पर अमवी शासन का समापन्न हुआ। इस ज़माने में शियों को बहुत सख़्त और मुश्किल हालात में ज़िंदगी बितानी पड़ी अगरचे उतार व चढ़ाव आते रहे लेकिन इस ज़माने में ज़्यादातर अवसरों पर सख़्तियां और कठिनाइयाँ अपने चरम पर थीं।
कुल मिलाकर अमवी युग को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। 1. कर्बला  से पहले। 2. कर्बला के बाद।
यह विभाजन इस हिसाब से किया गया है कि इमाम हुसैन अ.ह के आंदोलन ने मुसलमानों के विचारों, दृष्टिकोणों और भावनाओं को बदल के रख दिया जिसके नतीजे में अमवी शासन को कठिनाईयों का सामना करना पड़ा।
संक्षेप में यहां दोनों युगों में शियों के हालात को बयान किया जा रहा है।  
कर्बला की घटना से पहले
अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. की शहादत के बाद इमाम हसन मुज्तबा अ.ह ने इमामत की ज़िम्मेदारी संभाली। मुआविया ने षड़यंत्र करके आपकी पत्नि जअदा बिन्ते अशअस बिन क़ैस द्वारा सन 50 हिजरी में आपको ज़हर दिलवा दिया जिससे आपकी शहादत हो गई इस तरह आपकी इमामत की अवधि दस साल थी लेकिन ख़िलाफ़त की बागडोर आपके मुबारक हाथों में कुछ महीनों से ज़्यादा नहीं रही।
(याक़ूबी ने दो महीना और एक कथन के अनुसार चार महीने बयान किया है। तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 121। लेकिन सिव्ती के कथनानुसार आपकी ख़िलाफ़त की ज़ाहिरी अवधि पाँच या छः महीनों पर आधारित थी। तारीख़ुल ख़ुल्फ़ा पेज 192।)
मुआविया इब्ने अबी सुफ़यान ने पैग़म्बर के उत्तराधिकारी और मुसलमानों के इमाम की हैसियत से आपकी बैअत नहीं की बल्कि आपके विरूद्ध विद्रोह कर दिया, चूँकि लोग विभिन्न गुटों में बटे हुये थे और अक़ीदे, विश्वास व द़ष्टिकोणों के हिसाब से विभिन्न रुझान पाये जाते थे दूसरी ओर मुआविया ने भी अपनी मक्कारी व धूर्तता के सहारे आपकी बैअत करने वालों के बीच मतभेद पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिसके नतीजे में हालत यहाँ तक पहुँच गई कि कपटाचार और मोह माया के कारण उन्हीं बैअत करने वालों में से बहुत से लोग स्वंय अपने हाथों इमाम हसन अ. को मुआविया को सौंपने का संकल्प कर बैठे। ऐसे हालात में इमाम हसन अ. ने मुसलमानों के हितों के मद्देनज़र यही उचित समझा कि मुआविया की ओर से सुलह के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाए। इसलिए इमाम अ. ने सुलह को स्वीकार कर लिया मगर इस शर्त के साथ कि सुलह की शर्तें इमाम हसन अ. की ओर से तय की जाएंगी। शर्तों में यह बातें भी शामिल थीं कि मुआविया और उसके पिट्ठुओं की ओर से अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अ. पर गाली गलौच का सिलसिला ख़त्म होगा, इमाम हसन अ. के साथियों और शियों को परेशान नहीं किया जाएगा और बैतुलमाल से उनके अधिकार उन्हें दिये जाएंगे।
मुआविया ने इन शर्तों को स्वीकार तो कर लिया मगर उन पर अमल नहीं किया। जिस समय मुआविया नुख़ैला (कूफ़ा के निकट एक जगह) पहुँचा तो उसने लोगों के बीच भाषण दिया जिसमें स्पष्ट शब्दों में ऐलान किया “तुम्हारे साथ मेरी जंग इस लिए नहीं थी कि तुम लोग नमाज़ पढ़ो, रोज़े रखो, हज करो, ज़कात अदा करो, यह काम तो तुम लोग ख़ुद ही अंजाम देते हो। तुम्हारे साथ मेरी जंग तुम पर हुकूमत करने के लिए है और तुम लोगों की इच्छा के विपरीत अल्लाह तआला ने मुझे हुकूमत दी है अच्छी तरह जान लो कि हसन इब्ने अली अ. के साथ मैंने जो शर्तें तय की थीं उन पर अमल नहीं करूँगा।
(अल-इरशाद, शेख़ मुफ़ीद भाग 2 पेज 14)
सुलह के समझौते के बाद इमाम हसन मुज्तबा अ. मदीने चले गए और आख़री उम्र तक वहीं ज़िंदगी गुज़ारी और उचित शैली में शियों को नसीहत और उनका नेतृत्व करते रहे। जिस हद तक राजनीतिक हालात इजाज़त देते आपके शिया ज्ञानात्मक व धार्मिक मुद्दों में आपके इल्म से फ़ायदा उठाते लेकिन राजनीतिक द्रष्टिकोण से इस्लामी दुनिया बहुत सख़्त और मुश्किल हालात से दोचार थी यहाँ तक कि हज़रत अली अ. के परिवार से किसी भी तरह के दोस्ताना सम्बंध को मुआविया और अमवी शासन की निगाह में क्षमा न होने वाला अपराध माना जाता था।
इब्ने अबिल हदीद ने अबूल हसन मदाएनी के हवाले से “अलएहदास” नामक कताब से बयान किया है कि मुआविया ने मुसलमानों की हुकूमत की बागडोर हाथ में लेने के बाद इस्लामी राज्य के विभिन्न शहरों में मौजूद सरकारी अफ़सरों के नाम एक सरकारी आदेश जारी किया जिसमें उन्हें आदेश दिया गया था कि शियों के साथ सख़्ती से पेश आया जाए और उनके साथ सख़्त से सख़्त रवैया अपनाया जाये। रजिस्टर से उनके नाम निकाल दिये जायें और बैतुलमाल (राजकोष) से उनका भुगतान बन्द कर दिए जाये और जो इंसान भी अली इब्ने अबी तालिब अ. से मुहब्बत ज़ाहिर करे उसे सज़ा दी जाए। मुआविया के इस आदेश के बाद शियों विशेष कर कूफ़ा के शियों पर ज़िंदगी गुजारना बहुत मुश्किल हो गया था। मुआविया के जासूसों और नौकरों के डर से हर ओर बेचैनी, असंतोष और अशांति का माहौल था। यहाँ तक कि लोग अपने ग़ुलामों पर भी विश्वास नहीं करते थे।
मुआविया ने अली के शियों पर सख़्ती और हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. की प्रमुखता व श्रेष्ठता के बयान पर पाबंदी के साथ दूसरी ओर यह आदेश जारी किया कि उस्मान की प्रमुखता व श्रेष्ठता का ख़ूब प्रचार किया जाये और उस्मान के समर्थकों के साथ बहुत ज़्यादा प्यार व सम्मानपूर्वक व्यवहार किया जाए। इससे बढ़ कर मुआविया ने आदेश दिया कि हज़रत अली इब्ने अबी तालिब अ. की प्रमुखता व श्रेष्ठता के मुक़ाबले में दूसरे अस्हाब ख़ास कर तीनों ख़लीफ़ाओं की महानता में झूठी बातें गढ़ कर उनका प्रचार किया जाये ताकि अली अ. की महानता को कम किया जा सके। इस आदेश के नतीजे में इस्लामी समाज में झूठी रिवायतें का बहुत अधिक प्रचलन हो गया।
मुआविया के बाद भी झूठी व मनगढ़त हदीसों का कारोबार चलता रहा। इब्ने अरफ़ा जो लफ़तवीया के नाम से मशहूर थे और जिनकी गिनती हदीसों के मुख्य विशेषज्ञों में होती है उनका कहना है कि सहाबा की प्रमुखता व श्रेष्ठता में अधिकतर झूठी हदीसें, बनी उमय्या के ज़माने में गढ़ी गई हैं। वास्तव में बनी उमय्या इस तरह बनी हाशिम  से बदला लेना चाहते थे।
(इब्ने अबिल हदीद, शरहे नह्जुल बलाग़ा भाग 11 पेज)
हज़रत अली अ. ने पहले ही इस दुर्घटना के बारे में सूचना दे दी थी, इसलिए आपने फ़रमाया थाः
امّا انّه سيظهر عليكم بعدي رجل رَحْبُ البُلعوم، مُنْدَحِقُ البطن،... الا و انّه سيأمركم بسبّي والبراءة منّي
जान लो कि बहुत जल्दी तुम पर एक इंसान सवार होगा जिसका गला फैला हुआ और पेट बड़ा होगा वह बहुत जल्दी तुम्हें मुझे गालियां देने का और मुझसे दूर रहने का आदेश देगा।
 (नह्जुल बलाग़ा  ख़ुत्बा 57 )
इस बारे में मतभेद है कि इस से मुराद कौन है। कुछ लोगों का कहना है कि इस से मुराद ज़ियाद बिन अबीह है कुछ कहते हैं कि मुराद हज्जाज बिन यूसुफ़ सक़फ़ी है और कुछ लोग इन विशेषताओं को मुआविया के लिये बयान करते हैं।
इब्ने अबिल हदीद की निगाह में यही कथन सही है इसलिए उन्होंने इस स्थान पर अली इब्ने तालिब अ. को बुरा भला कहने और आपसे दूर रहने के सम्बंधित मुआविया के आदेश को विस्तार से बयान किया है इसी संदर्भ में इब्ने अबिल हदीद ने इन हदीसों के विशेषज्ञों और रावियों का भी वर्णन किया है जिन्हें मुआविया ने हज़रत अली अ. की निन्दा में हदीसें गढ़ने के लिए मज़दूरी पर रखा था ऐसे ही बिके हुए रावियों में समरा बिन जुन्दब भी है।
(शरह नह्जुल बलाग़ा भाग 1 पेज 355)
मुआविया ने समरा बिन जुन्दब को एक लाख दिरहम दिये ताकि वह यह कह दे कि यह आयत (و من الناس من يعجبك قوله فى الحياة الدنيا) अमीरुल मोमिनीन अ.ह की शान में और आयत (و من الناس من يشرى نفسه ابتغاء مرضات اللّه) इब्ने मुलजिम मुरादी की शान में उतरी हुई है। (नऊज़ बिल्लाह)
सारांश यह कि सन 60 हिजरी तक जारी रहने वाले मुआविया की हुकूमत के बीच अली के शिया बहुत ज़्यादा सख़्त हालात में ज़िंदगी बिता रहे थे और मुआविया के आदेश से उसके कर्मचारी शियों पर क्रूर अत्याचार का सिलसिला जारी रखे हुए थे, इसी ज़माने में शियों की हुज्र बिन अदी, अम्र बिन हुम्क़ उल ख़ेजाई, रशीद हिजरी, अब्दुल्लाह अलहज़रमी जैसी मशहूर हस्तियां मुआविया के आदेश से शहीद की गईं।
(हयातुल इमाम हुसैन अ. भाग 2 पेज 167-175)
इन हालात के बावजूद शियों ने हर तरह की सख़्तियों व कठिनाइयोँ का सामना किया लेकिन अली इब्ने अबी तालिब अ. की विलायत व इमामत और आपके परिवार के अधिकार के प्रतिरक्षा में कोई कमी नहीं की। और सच्चाई के रास्ते में जान देने में भी पीछे नहीं रहे बल्कि हर्ष व उल्लास के साथ शहीद होते रहे।
मुआविया ने इमाम हसन (अ.ह) के साथ संधि प्रस्ताव में यह वादा करने के बावजूद कि वह किसी को अपना उत्तराधिकारी नहीं बनाएगा, अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी बना दिया और लोगों से उसके लिए बैअत भी ले ली। अगरचे शुरूआती दिनों में इस्लामी दुनिया के मशहूर विद्वानों व बुद्धिजीवियों की ओर से इस काम का विरोध भी हुआ लेकिन मुआविया ने ऐसे विरोधों की कोई परवाह नहीं की बल्कि डराने धमकाने और लालच द्वारा अपनी मुराद को हासिल कर लिया।
सन 50 हिजरी में इमाम हसन अ. की शहादत के बाद इमामत की ज़िम्मेदारी इमाम हुसैन अ. के कांधों पर आ गई। चूँकि सुलह समझौते के अनुसार आप इमाम हसन अ. की कार्यशैली के पाबंद थे और इसीलिए आपने आंदोलन नहीं किया लेकिन उचित  अवसरों पर आप सच्चाई को बयान करते रहे तथा मुआविया और उसके नौकरों के अत्याचार और भ्रष्टाचार को भी लोगों से स्पष्ट तौर पर बयान करते रहते। मुआविया ने जब एक चिट्ठी लिख कर आपको अपने विरोध से दूर रहने को कहा तो आपने स्पष्ट व कड़े शब्दों में उत्तर दिया और निम्नलिखित बातों पर मुआविया की कड़े शब्दों में निंदा की।
1. तुम हुज्र बिन अदी और उनके साथियों के हत्यारे हो जो सबके सब अल्लाह की इबादत करने वाले, संयासी और बिदअतों के विरोधी थे और अम्र बिल मअरूफ़ (अच्छाईयों की दावत) व नहि अनिल मुनकर (बुराईयों से रोकना) किया करते थे।
2. तुमने ही अम्र बिन अलहुम्क़ को क़त्ल किया है जो महान सहाबी थे और बहुत ज़्यादा इबादत से जिनका बदन कमज़ोर हो गया था।
3. तुमने यज़ीद इब्ने अबीह (जैसे हरामज़ादे) को अपना भाई बना कर उसे मुसलमानों की जान व सम्पत्ति पर थोप दिया।
(ज़ियाद अबू सुफ़यान का अवैध लड़का था, उसकी माँ बनी अजलान की एक दासी थी जिससे अबू सुफ़यान के अवैध सम्पर्क के परिणाम में ज़ियाद का जन्म हुआ था। हालांकि इस्लामी का क़ानून यह है कि बेटा क़ानूनी बाप से ही जुड़ सकता है नाकि बलात्कारी से। इस बारे में तारीख़े याक़ूबी भाग 2 पेज 127 का अध्ययन करें।)
4. अब्दुल्लाह इब्ने यहिया हज़रमी को केवल इस अपराध के आधार पर शहीद कर दिया कि वह अली इब्ने अबी तालिब अ. की विचारधारा व उनके दीन के मानने वाले थे। क्या अली इब्ने अबी तालिब अ. का दीन पैग़म्बरे इस्लाम स. के दीन से अलग कोई दीन है? वही पैग़म्बर जिसके नाम पर तुम लोगों पर हुकूमत कर रहे हो।
5. तुमने अपने बेटे यज़ीद को जो शराबी और कुत्तों से खेलने वाला है मुसलमानों का ख़लीफ़ा निर्वाचित कर दिया है।
6. मुझे मुसलमानों के बीच दंगा व फ़साद फैलाने से डरा रहा है मेरी निगाह में मुसलमानों के लिए तेरी हुकूमत से बुरा और कोई दंगा नहीं है और मेरी दृष्टि में तेरे विरूद्ध जेहाद से उत्तम कोई काम नहीं है।
(अल-इमामः वस् सियासः भाग 1 पेज 155-157)




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