नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता।

और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों...


और ईश्वर की उपासना करो और किसी को उसका शरीक न ठहराओ और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करो और इसी प्रकार निकट परिजनों, अनाथों, मुहताजों, निकट और दूर के पड़ोसी, साथ रहने वाले, राह में रह जाने वाले यात्री और अपने दास-दासियों सबके साथ भला व्यवहार करो। नि:संदेह ईश्वर इतराने वाले और घमंडी लोगों को पसंद नहीं करता। (4:36)

एक ईमान वाले व्यक्ति को ईश्वर पर आस्था रखने और उसकी उपासना करने के अतिरिक्त अपने माता-पिता, परिजनों और इसी प्रकार मित्रों, पड़ोसियों, मातहतों और सबसे बढ़ के समाज के अनाथों और मुहताजों के प्रति दायित्व का आभास करना चाहिये और उनके साथ किसी भी प्रकार की भलाई से हिचकिचाना नहीं चाहिये।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि आज के अनेक युवा अपना दाम्पत्य जीवन आरंभ करने के पश्चात माता-पिता को भूल जाते हैं और परिवार तथा परिजनों से संबंध नहीं रखते। इस आयत में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मनुष्य के दायित्व को एहसान अर्थात नेकी या भलाई कहा गया है जिसका अर्थ आर्थिक सहायता से कहीं व्यापक है। आर्थिक सहायता का शब्द, जिसे अरबी भाषा में इन्फ़ाक़ कहते हैं, साधारणत: ग़रीबी व दरिद्रता के लिए प्रयोग किया जाता है परंतु भलाई के लिए दरिद्रता की शर्त नहीं है बल्कि मनुष्य द्वारा किसी के लिए और किसी के भी साथ किया गया अच्छा काम भलाई कहलाता है। अत: माता-पिता से प्रेम करना, उनके साथ सबसे बड़ी भलाई है जैसा कि आयत के अंतिम भाग में माता-पिता, मित्रों और पड़ोसियों के साथ भलाई न करने वाले को घमंडी और इतराने वाला व्यक्ति कहा गया है।

इस आयत से हमने सीखा कि इस आयत में ईश्वर के अधिकार का भी वर्णन है कि जो उसकी उपासना है और ईश्वर के बंदो के भी अधिकार का उल्लेख है जो नेकी और भलाई है तथा यह इस्लाम की व्यापकता और व्यापक दृष्टि की निशानी है।

केवल नमाज़ और उपासना पर्याप्त नहीं है जीवन के मामलों में भी ईश्वर को दृष्टिगत रखना चाहिये और उसे प्रसन्न रखने के प्रयास में रहना चाहिये अन्यथा हम ईश्वर के बंदों को उसका शरीक व भागीदार बनाने के दोषी बन जायेंगे।
हमारी सृष्टि में ईश्वर के पश्चात माता-पिता की मूल भूमिका है। अत: अपने दायित्वों के निर्वाह में हमें भी ईश्वर के पश्चात उनकी मर्ज़ी प्राप्त करने और उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिये।
मनुष्य पर उसके मित्रों, पड़ोसियों तथा मातहतों के भी अधिकार होते हैं जिनकी पूर्ति आवश्यक है।

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