कुरान में तलाक और हलाला कहाँ है ?
https://www.qummi.com/2014/04/blog-post_4460.html
सूरए बक़रह की आयत नंबर २२८ इस प्रकार है।
और तलाक़ पाने वाली स्त्रियां तीन बार मासिक धर्म आने तक स्वयं को प्रतीक्षा मे रखें और यदि वे ईश्वर तथा प्रलय पर ईमान रखती हें तो उनके लिए वैघ नहीं है कि वे (किसी और से विवाह करने के लिए) जिस वस्तु की ईश्वर ने उनके गर्भाशयों में सृष्टि की है, उसे छिपाएं अलबत्ता इस अवधि में उनके पति उन्हें लौटा देने का अधिक अधिकार रखते हैं यदि वे सुधार का इरादा रखते हों और (पुरुषों को जान लेना चाहिए कि) जितना दायित्व महिलाओं पर है उतना ही उनके लिए अच्छे अधिकार हैं, और (महिलाओं को जान लेना चाहिए कि घर चलाने में) पुरुषों को उन पर एक वरीयता प्राप्त है और ईश्वर प्रभुत्वशाली तथा तत्वदर्शी है। (2:228)
परिवार और बच्चों की सुरक्षा के लिए यह आयत कहती है कि तलाक़ की दशा में महिला तीन महीनों तक धैर्य करे और किसी से निकाह न करे ताकि प्रथम तो यदि उसके गर्भ में बच्चा हुआ तो इस अवधि में स्पष्ट हो जाएगा और शिशु के अधिकारों की रक्षा होगी और शायद यही बच्चा दोनों की जुदाई को रोकने की भूमि समतल कर दे और दूसरे यह कि इस बात की भी संभावना पाई जाती है कि पति-पत्नी को अलग होने के अपने निर्णय पर पश्चाताप हो और वे पुनः संयुक्त जीवन बिताना चाहें कि स्वाभाविक रूप से इस दशा में पति को अन्य लोगों पर वरीयता प्राप्त है।
अंत में यह आयत पति-पत्नी के बीच कटुता समाप्त करने तथा भलाई उत्पन्न करने के मार्ग के रूप में एक महत्वपूर्ण बात बताती है और वह यह है कि पहले पुरुषों से कहती है कि यद्यपि घर और परिवार के बारे में महिलाओं का कुछ दायित्व बनता है परन्तु उतना ही वे अपने बारे में तुम पर मानवीय अधिकार रखती हैं जिन्हें तुम्हें बेहतर ढंग से पूरा करना चाहिए।
इसके पश्चात यह आयत महिलाओं को संबोधित करते हुए कहती है कि घर चलाना तथा उससे संबन्धित अन्य बातों की व्यवस्था पुरुषों के ज़िम्मे है और इस मार्ग में वे बेहतर ढंग से काम कर सकते हैं। अतः इस संबन्ध में उन्हें तुमपर वरीयता प्राप्त है।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २२९ इस प्रकार है।
(हर पुरूष के लिए अपनी पहली पत्नी के पास लौटने और) तलाक़ (देने का अधिकार) दो बार है अतः (हर स्थिति में या तो) अपनी पत्नी को भले ढंग से रोक लेना चाहिए या भले ढंग से उसे छोड़ देना चाहिए और (तुम पुरूषों के लिए) वैध नहीं है कि जो कुछ तुम अपनी पत्नियों को दे चुके हो वो (उनपर कड़ाई करके) वापस लेलो, सिवाए इसके कि दोनों को भय हो कि वे ईश्वरीय आदेशों का पालन न कर सकेंगे तो यदि तुम भयभीत हो गए कि वे दोनों ईश्वरीय सीमाओं को बनाए न रख सकेंगे तो इस बात में कोई रुकावट नहीं है कि तलाक़ का अनुरोध पत्नी की ओर से होने की दशा में वे इसका बदला दें और अपना मेहर माफ़ कर दे। यह ईश्वरीय देशों की सीमाए हैं इनसे आगे न बढ़ो, और जो कोई ईश्वरीय सीमाओं से आगे बढ़े, तो ऐसे ही लोग अत्याचारी हैं। (2:229)
पिछली आयत में कहा गया था कि तलाक़ के पश्चात पत्नी को तीन महीने तक किसी अन्य व्यक्ति से विवाह नहीं करना चाहिए ताकि यदि वह गर्भवती हो तो स्पष्ट हो जाए और यदि पति को तलाक़ पर पछतावा हो तो पत्नी को वापस बुलाने की संभावना रहे। उसके पश्चात यह आयत कहती है कि अलबत्ता पति केवल दो बार ही अपनी पत्नी को तलाक़ देने और उससे "रुजू" करने अर्थात उसके पास वापस जाने की अधिकार रखता है और यदि उसने अपनी पत्नी को तीसरी बार तलाक़ दिया तो फिर रुजू की कोई संभावना नहीं है।
इसके पश्चात यह आयत पुरूषों को घर चलाने के लिए एक अति आवश्यक सिद्धांत बताते हुए कहती है कि या तो जीवन को गंभीरता से लो और अपनी पत्नी के साथ अच्छे ढंग से जीवन व्यतीत करो और यदि तुम उसके साथ अपना जीवन जारी नहीं रख सकते तो भलाई और अच्छे ढंग से उसे स्वतंत्र कर दो। अलबत्ता तुम्हें उसका मेहर देना पड़ेगा।
इसी प्रकार यदि पत्नी तलाक़ लेना चाहती है तो उसे अपना मेहर माफ़ करके तलाक़ लेना होगा परन्तु हर स्थिति में पति को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी पत्नी को सता कर उसे मेहर माफ़ करने और तलाक़ लेने पर विवश करे।
सूरए बक़रह की आयत संख्या २३०, २३१ और २३२ इस प्रकार है।
यदि (पति ने दो बार रुजू करने के पश्चात तीसरी बार अपनी पत्नी को) तलाक़ दे दी तो फिर वह स्त्री उसके लिए वैध नहीं होगी जब तक कि वह किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह न कर ले, फिर यदि दूसरा पति उसे तलाक़ दे दे तो फिर इन दोनों के लिए एक दूसरे की ओर पलट आने में कोई दोष नहीं होगा। अलबत्ता उस स्थिति में, जब उन्हें आशा हो कि वे ईश्वरीय सीमाओं का आदर कर सकेंगे। यह अल्लाह की सीमाएं हैं जिन्हें वह उन लोगों के लिए बयान कर रहा है जो जानना चाहते हैं। (2:230) और जब तुम स्त्रियों को तलाक़ दो और वे "इद्दत" अर्थात अपने नियत समय की सीमा (के समीप) पहुंच जाए तो या तो उन्हें भले ढंग से अपने ही पास रोक लो या फिर अच्छे ढंग से उन्हें विदा और स्वतंत्र कर दो। उन्हें सताने के लक्ष्य से न रोको कि उनपर अत्याचार करो और जिसने भी ऐसा किया वास्तव में उसने स्वयं पर ही अत्याचार किया और ईश्वर की आयतों का परिहास न करो बल्कि सदैव याद करते हरो उस विभूति को जो ईश्वर ने तुम्हें दी है और किताब तथा हिकमत को जिसके द्वारा वह तुम्हें नसीहत करता है और ईश्वर से डरते रहो और जान लो कि वह हर बात का जानने वाला है। (2:231) और जब तुम अपनी स्त्रियों को तलाक़ दे चुको और वे अपनी "इद्दत" पूरी कर लें तो उन्हें अपने पुराने पतियों से पुनः विवाह करने से न रोको जबकि वे अच्छे ढंग से आपस में राज़ी हों। ईश्वर के इन आदेशों द्वारा तुम में से उन लोगों की नसीहत होती है जो ईश्वर और प्रलय पर ईमान रखते हैं। यह आदेश (तुम्हारी आत्मा की) पवित्रता के लिए अधिक प्रभावशाली तथा (समाज को पाप से) साफ़ करने के लिए अधिक लाभदायक है। ईश्वर (तुम्हारे भले को) जानता है और तुम नहीं जानते। (2:232)
चूंकि इस्लाम वैध और स्वाभाविक इच्छाओं का सम्मान करता है और पति-पत्नी के एक-दूसरे के पास वापस आने और उनकी छाया में बच्चों के प्रशिक्षण व प्रगति का स्वागत करता है अतः उसने इस बात की अनुमति दी है कि यदि पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति से विवाह कर लिया और बाद में उससे भी अलग हो गई तथा पुनः अपने पहले पति के साथ जीवन बिताने पर सहमत हो गई तो वे पुनः विवाह कर सकते हैं। इस बात की बहुत अधिक संभावना है कि उनका जीवन आनंदमयी हो जाए। स्पष्ट सी बात है कि इस स्थिति में पति-पत्नी के अभिभावकों या अन्य लोगों को ये अधिकार नहीं है कि वे इस विवाह में बाधा डालें, बल्कि पुनः पति-पत्नी की सहमति ही विवाह के लिए पर्याप्त है।
आइए अब देखते हैं कि इन आयतों से हमने क्या सीखा।
पत्नी के मानवाधिकारों के साथ ही साथ उसके आर्थिक अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए तथा पति को यह अधिकार नहीं है कि वह पत्नी की संपत्ति या उसके मेहर को अपने स्वामित्व में ले ले।
आवश्यकता पड़ने पर यदि तलाक़ हो तो उसे भलाई के साथ होना चाहिए न कि द्वेष और प्रतिरोध के साथ।
सौभाग्यपूर्ण परिवार वह है जिसके सदस्यों के संबन्ध ईश्वरीय आदेशों पर आधारित हों परन्तु यदि वे पाप के आधार पर जीवन जारी रखना चाहते हों तो बेहतर है कि वे तलाक ले लें।
पति के चयन में महिला की राय आवश्यक और सम्मानीय है तथा मूल रूप से विवाह का आधार अच्छे ढंग से दोनों पक्षों की आपस में सहमति है।
Aisa aadmi k saath kyo ni h, ki wo kisi aurat ko takak de de to use kisi dusri aurat k saat samband banane ko kaha jaye tab shaadi ho.
ReplyDeletehalala ek saza hai mard ke liye to inaam hoga
Delete